SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 80
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दौलत-जैनपदसंग्रह। निज०॥१॥ज्ञानदरस भर राग फरस रस, निजपरचिह भ्रमरना । संधिभेद धिनीत कर, निज गहि पर परिहरना । निजहित० ॥२॥ परिग्रही अपराधी शेक, त्यागी अभय विचरना । त्यौं परचाह बंध दुखदायक, त्यागत सबसख भरना ॥निजहित० ॥३॥जो भवभ्रमन न चाहे तो अव, सुगुरुसीख उर धरना । दौलत स्वरस सुधारस चाखो, ज्यौं विनसै भवमरना ॥ निजहित० ॥ ॥४॥ मनवचतन करि शुद्ध भजो जिन, दा भला पाया । अवसर मिल नहिं ऐसा, यौं सतगुरु गाया ॥ मनवच० ॥' ॥ टेक ॥ वस्यो अनादिनिगोद निकसि फिर, यावर देह घरी । काल असंख्य अकाज गमायो, नेक न समुझि परी ॥ मनवच०॥१॥चिंतामनि दुर्लभ लहिये ज्यौं, जसपरजाय लही । लट पिपील अलि आदि जन्ममें, लहयो न भान कहीं ॥ मनवच० ॥२॥ पंचेंद्रिय पशु भयो कष्टते, तहां न वोध लह्यो । स्वपरविवेकरहित विन संयम, निशदिन भार बह्यो। मनवच० ॥३॥ चौपथ चलत रतन कहिये ब्यौं, मनुषदेह पाई । सुकुल जैनष सतसंगति यह, अतिदु २बुद्धिरूपी छैनीसे निज और परका संघिभेद करना । ३ परिप्रहका धारी तथा परकी वस्तु प्रहण करनेवाला चोर । ४ नौका।
SR No.010037
Book TitleDaulat Jain Pada Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages83
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy