________________
दौलत जैनपदसंग्रह।
७५
११३ धन धन साधर्मीजन मिलनकी घरी, बरसत भ्रमतापहग्न बानपनकरी ॥ टेक । जाके विन पाये भवविपति प्रति भरी। निज परहित अहितकीकडून सुधि परी॥धन० ॥१॥ जाके परमाव चित सुविग्ता करी। संशय भ्रम मोहकी मु वासना टरी । धन० ॥२॥ मिध्यागुरुदेवसेव टेब परिहरी । वीतरागदेव सुगुरुसेव उरघरी ॥ धन० ॥३॥ चारों अनुयोग सुहितदेश दिठपरी। शिवमाके लाहकी सु. चार विश्वरी ।। धन० ॥ ४॥ सम्यक् तरु घरनि येह करन-करिहरी । भवजलको तरनि समेर भुजग विपजरी ॥ धन० ॥५॥ पूरवमव या मसादरमनि शिव परी । सेवो अव दौल चाहि वात यह खरी ॥ धन० ॥ ६ ॥
११४ धनि मुनि जिनकी लगी लो शिवभोरन । धनि० ॥ टेक ॥ सम्पगदर्शनशानचरननिधि, धरत हरत भ्रमचोरने । पनि० ॥१॥ ययानानमुद्राजुन सुन्दर, सदन विजन गिरिकोरनै । तुन कंचन अरि स्वजा गिनत सम, निंदन
१ हितोपदेश २ लामकी । ३ इन्द्रियरूपी हाथियोंको सिंहके समान । ४ जहाज १५ कामदेवरूपी सर्पके लिवे विनाशक जड़ी । ६ लगन ।
विमकि सब जगह 'को के भर्यमें है। ८ नग्न, दिगम्बर । ९. निर्जन ।