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________________ २६ दौलत-जैन पद संग्रह | कुरंगसिंघको, जातिविरोध गर्मे ॥ अरिश्ज० ॥ २ ॥ जाजस-गगन उलंघन कोऊ, क्षमं न मुनीखगमें। दौक नाम तसु सुरतरु है या, भवमरुलपगमें || अरि० ॥ ६ ॥ ३४ हे जिन तेरे मैं शरौ आया । तुम हो परप्रदपाल जगतगुरु, मैं भव भव दुख पाया ॥ हे जिन० ॥ टेक ॥ मोह महादुठें घेर रहयो मोहि भवान भटकाया । नित निज ज्ञानचरननिधि विसरयो, तन धनकर अपनाया ॥ हे जिन० ॥ १ ॥ निजानंद अनुभवपियूष तज, विषय हलाहल खाया | मेरी भूळ मूळ दुखदाई, निमित्त मोहविधि याया || हे जिन० || २ || सो दुठ होत शिथिल तुमरे ढिग, और न हेतु लखाया | शिवस्वरूप शिवमगदर्शक तुम, सुयश सुनीगन गाया | हे जिन● ||३|| तुम हो सहज निमित जगहितके, मो उर निश्चय भाया ॥ भिन्न होहुं विधित सो कीजे दौल तुम्हें सिर नाथा ॥ है जिन० ॥ ४ ॥ ३५ हे जिन मेरी, ऐसी बुधि कीनै रागद्वेपदावानलतें वचि, समतारसमें ॥ १ ॥ परकों त्याग भपनपो । हे जिन० ॥ टेक ॥ भोजे । हे जिन० ॥ निजमें, काग न कबहूं १ समर्थ । २ संसाररूपी मारवाड देशके मार्ग में । ३ दुष्ट । ४ संसार रूपी वन । ५ अमृत ! ६- कर्मोंसे 1 ७ भात्मा, अपनापना ।
SR No.010037
Book TitleDaulat Jain Pada Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages83
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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