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________________ दौलत - जैनपदसंग्रह 1 ६९ भूर्त, सत्त्वसौं छम् ॥ चित चित० ॥ २ ॥ जले पललिप्त-कलै सुकैल-, सुबल्ल परिनम् । दलके त्रिशलमले कच, अलपद पमू || चित चित० ॥ ३ ॥ कत्र ध्याय अज अपरको फिर न भवविपिन भम् । जिन पूर कौल दौलको यह हेतु हौं नम्र || चित चित० ॥ ४ ॥ २०३ जिन छवि लखत यह बुधि भयो । जिन० ॥ टेक ॥ मैं न देह चिंदमय तन, जड फरसरसमयी । जिन छविο ॥ १ ॥ अशुभशुभफल कर्म दुखसुख, पृथकता सब गयी । रागदोषविभावचालित, ज्ञानता थिर थयी || जिन छवि० ॥ ॥ २ ॥ परिगहन आकुलता दहन, विनशि शमता लयी । दौल पूर्वप्रलभ आनंद, लड्यो भवयिति जयी | जिन० ॥ ॥ ३ ॥ १०४ जिनवैन सुनत, मोरी भूल भगी । जिनवैन ● ॥ टेक ॥। स्वभाव मात्र चेतनको, भिन्न पिछानन सुमति जगी । जिन० ॥ १ ॥ जिन अनुभूति सहज ज्ञायकता, सो चिर रुप तुप मैल-पगी । स्यादवाद-धुनि-निर्मल-जलते, विमल १ दशप्राणमयी । २ जड । ३ शरीर । ४ शुक्लध्यानके बलसे । ५ माया, मिथ्यात्व, निदानरूपी तीन शक्यरूपी पहलवानों को । ६ मोक्षपद । ७ प्रतिज्ञा । ८ पूर्वमें जिसका लाभ नहीं हुआ ऐसा ।
SR No.010037
Book TitleDaulat Jain Pada Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages83
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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