SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 72
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दौलत-जैनपदसंग्रह। भई समभाव लगी | जिन. ॥ २ ॥ संघयमोहमरमता विघटी, प्रगटी आदमसोज सगी । दौक अपूरव मंगळ पायो, शिवसुख लेन होस उमगी । जिन० ॥३॥ जिनवानी जान सुजान रे। जिनवानी० ॥ टेक ॥ लाग रही चिरते विभावता, ताको कर अवसान रे । जिनबानी० ॥ १ ॥ द्रव्य क्षेत्र अरु काल भावकी, क्यनीको पहिचान रे । जाहि पिछाने स्वपरमेद सब, जाने परत निदान रे। जिनवानी० ॥२॥ पूरव जिन जानी तिनहीने, मानी संमृतिवान रे । अब जानै अरु जानेंगे जे, ते पावे शिवधान रे ॥ निनवानी० ॥ ३ ॥ कह 'तुषमा मुनी शिवभूती, पायो केवलज्ञान रे । यौं लखि दौलत सतत करो भवि, चिद्वचनामृतपान रे ।। जिनवानी० ॥ ४ ॥ जम आन अचानक दावेगा। जम आन० ॥ टेक ॥ छिनछिन कटत घटत थि ज्यौं जल, अंजुलिको कर जावेगा । जम पान० ॥१॥ जन्म तालतरुते पर जिय १ निजपरणति । २ नाथकी । ३ भ्रमणकी आदत । ४ मायु । ५ जन्मरूपी ताडवृक्षसे पह करके जीवापी फल में कबतक रहेगा वह तो नीचे पढेगा ही, अर्थात् मरेगा है।
SR No.010037
Book TitleDaulat Jain Pada Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages83
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy