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________________ ૬૮ दौलत - जैनपदसंग्रह | लखाब विन, भवानिमें परा । जानन मरन जरा त्रिदोष, अग्निमें जरा || चिद० ॥ १ ॥ फिर सादि श्र अनादि दो, निगोदमें परा । तह अंकके असंख्यभाग, ज्ञान डबरा ॥ चिद० ॥ २ ॥ तहां भव अन्तर मुहूर्तके, कहे गनेश्वरा छयासठ सहस त्रिशत छतीस, जन्म घर मरा ॥ चिद० ॥ ३ || यौं वशि अनंतकाल फिर, तहाँ नीसरा । भूजल अनिल अनल प्रतेक तरुमें तन धरा ॥ चिद० ॥ ४ ॥ अनुंधरी कुंथु कागपच्छ अवतरा | जल थळ खचर कुनर नरक, असुर उपज मरा || चिद० || ५ || अबके सुथल सुकुल सुसंग, बोध लहि खरा । दौलत त्रिरत्न साध लाघ, • पद अनुत्तरा ॥ चिद० ॥ ६ ॥ १०२ चित चित चिदेशे कव, शेषे परं वर्मे । दुखदा अपार विधि दुचार. - की चमूँ दम् ॥ चित चि० ॥ टेक ॥ तजि पुण्यपाप थाप आप, आपमें रेमू । कब राग-भाग शर्म- बाग, दागिनी शंम् ॥ चित चितकें ॥ १ ॥ हंगेज्ञानमानतें मिथ्या, अज्ञानतम दमू । कब सर्व जीव प्राणि १ आत्मा । २ सम्पूर्ण । ३ परपदार्थ । ४ वमन करदूं — छोडदूं । ५ कर्म । ६ दो चार अर्थात् आठ ७ फौज । ८ आत्मामें । ९ रमण करूं । १. कल्याणरूप बागकी जलानेवाली ११ शमन करूं, सांत करू । १२ सम्मन् दर्शन और ज्ञानरूपी सूर्यसे ।
SR No.010037
Book TitleDaulat Jain Pada Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages83
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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