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________________ दौलत-जैनपदसंग्रह। ध्या । ऐसा योगी० ॥१॥ जाके सुखसमाज की महिमा, कहत इन्द्र भकुलावै दौल तासपद होय दास सो, अकिचलऋद्धि लहावै । ऐसा योगी० ॥ ७ ॥ 86 लखो जी या जिय भोरेकी बात, नित करत अहित हित पाते । लखो जी० ।। टेक।। जिन गनघर मुनि देशरती समकिती सुखी नित जाते । सो पय भान न पान करत न, अपान विषयविष खाते । कखो० ॥१॥ दुखस्वरूप दुखफलंद जलदसम, टिकत न छिनक दिलाते । तजत न जगत भजत पतित नित, रचत न फिरत तहा॥ लखो० ॥ देह-गेह-धन-नेह ठगन अति, अघ संचत दिनराते। कुगति विपतिकलको न भीत, निश्चित प्रमाददशातें लखो० ॥३॥ कबहुं न होय आपनो पर, द्रव्यादि पृथक चतुपाते। पै अपनाय लहत दुख शठ नमै, इतन चलावत लाते ।। लखो० ॥४॥ शिवगृहद्वार सार नरभव यह, लहि दश दुर्लभतात। -खोक्त ज्यों मनि काग उड़ावत, रोक्त रंकपनातलखो०॥ ॥५॥ चिदानन्द निद स्वपद तज अपद विपद-पंद राते । कहत-सुशिखगुरु गहत नहीं उर, चहत न सुख समसातै । लखो० ॥ ६ ॥ जैनचैन सुन भवि बहु भव हर, .१ तृप्त होता है।'२ दुखरूप फल देनेवाला। ३ बादल! ४ द्रव्यक्षेत्रादि . चतुष्टयसे ।५ माकामा मात करनेको "६ निपत्तिस्थानमें सवीन ।
SR No.010037
Book TitleDaulat Jain Pada Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages83
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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