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________________ दारत-चैनपदमं । छूटे दश । तिनकी मुक्या सुनत न मुनर्तन, आतपबोधकशते । लखो० ॥ ७ ॥ जे वन समिझान पारित, पावन पयवर्षत । वापविमोह ररयो तिनको जस, दौल त्रिमोन विरुवा || लखो० ॥ ८ ॥ ६७ सुनो जिया ये सतगुरुकी बातें, हित कहत दयाल दवात्रै । सुनो ॥ टेक ॥ यह वन आन अचेतन है तु, चेतन मिलत नयाँ । तदपि पिछान एक आतमको, वजत न हट शुटवातें ॥ मुनो० ॥ १ ॥ चहुंगति फिरत भरत ममताको, विषय महाविष खादें । तदपि न नजत नरमेव अभागे, हगवंतबुद्धिमुघातं ॥ सुनो० ॥ २ ॥ मात नाव सुत भ्रात स्वजन तुम, साथी स्वार नावें । तु इन काज सान गृहको सत्र, माना• दिक मत घाते || सुनो० ॥ ३ ॥ तन घन भोग संजोग सुपनसम, बार न लगत बिलातें । ममव न कर भ्रम नज तू भ्राता, अनुभव ज्ञान कला ॥ सुनो० ॥ ४ ॥ दुर्लभ नरभव सुपल मुकुल है, जिनं उपदेश लहा तैं । दोल नजो मन-सौ ममता ज्यों, निवडोद दशानें ॥ सुनो० ॥ ५ ॥ १ मनन नहीं करता । ९मान ३ दर्शन मारिणी मनसे । V*
SR No.010037
Book TitleDaulat Jain Pada Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages83
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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