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________________ दौलत-जैनपदसंग्रह। हारी ॥ मत कीज्यौ० ॥२॥जे जे पावन वस्तु जगत में, ते इन सर्व बिगारी । स्वेदमेदेकफक्लेदमयी बहु, मर्दैगदव्यालपिटारी ॥ मत की० ॥ ३ ॥ जा संयोग रोगभव तौलौं, जा वियोग शिवकारी । वुध तासौं न पमत्व करें यह, मूढमतिनको प्यारी ॥ प्रत की० ॥४॥ जिन पोषी ते भये सदोषी, तिन पाये दुख भारी। जिन तपठान ध्यानकर शोषी, लिन परनी शिवनारी ॥ गत की० ॥ ५॥ सरधनु शंग्टजलद जलवुदबुद, त्यौं झट विनशनहारी । यात भिन्न जान निज चेतन, 'दौल' होहु शंमधारी । गत की० ॥ ६॥ जाऊ कही तन शरन तिहारे ॥ टेक ॥ चूक अनादितनी या हमरी, माफ करो करुणा गुन धारे ॥१॥ डूबत हो भवसागरमें अब, तुम बिन को मुह वार निकारे ॥ २ ॥ तुम सम देव अवर नहिं कोई, तातै हम यह हाथ पसारे ॥३॥ मोसम अधर अनेक उघारे, वरनत हैं श्रुत शास्त्र अपारे ॥४॥" दोलत " को भवपार करो अब, आयो है शरनागत थारे ॥५॥ . १. पसीना । २ चरवी । ३ दुःख । ४ मदरोगरूपी सापके लिये पिटारी । ५ ससाररूपीरोग । ६'क्षीण की । ७ इन्द्रधनुष । ८ शरदऋतुके बादल । ९ समता धारी।
SR No.010037
Book TitleDaulat Jain Pada Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages83
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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