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________________ दौलत - जैनपदसंग्रह | ६१ कषाय दुखद दोनों ये, इनतैं तोर नेहकी डोरी । परद्रव्यनको तु अपनावंत, क्यों न तजै ऐसी बुधि भोरी || और० ॥ ॥ २ ॥ बीत जाय सागरथिनि सुरकी, नरपरजायतनी अवि योरी । अवसर पाय दौल अब चूको, फिर न मिले मणि, सागरवोरी || और० ॥ ३ ॥ ९० I और अवै न कुदेव सुहावें, जिन थाके चरनन रतिजोरी | और० ॥ टेक ॥ कामकोहवश गर्दै अशन असि कं निशक धरै तियः गोरी । औरनके किम भाव सुधारें, आप कुभाव - भारघर - धोरी । और० ॥ १ ॥ तुम विनमोह अकोहछोह विन, छके शांत रस पीय कटोरी। तुम तज सेय प्रमेयें भरी जो, जानत हो विपदा सब मोरी । और० ॥ ॥ २ ॥ तुम तज तिनै भर्जे शठ जो सो दाख न चाखत खात निमोरी । हे जगतार उधार दौलको, निकट विकट भवजलधि हिलोरी || और० ॥ ३ ॥ 1 ९१ कबध मिल मोहि श्रीगुरु मुनिवर, करि हैं भवोदघि पारा हो । कवध० ॥ टेक ॥ भोगउदास जोग जिन लीनों, १ गोदमें । २ क्रोध क्षोभ रहित । ३ सेवा । ४ अपरिमाण । ५ भवसमुद्र की लहरें ।
SR No.010037
Book TitleDaulat Jain Pada Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages83
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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