SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 43
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दौलत-मैनपदसंग्रह । ११ विपति चसा है। हे मन० ॥ १ ॥ फरस विषयके कारन पारन, गैरव परत दुख पात्र है। रसनाइन्द्रीवश मर्प जलमें कंटक कंठ छिदा है। हे मन ॥२॥ गन्धलोल पंकज मुद्रितमें, भलि निज पान सपा है। नयनविषयका दीप. शिखामें, अंग पतंग जराव है । हे मन० ॥३॥ रनरिषयवश हिरन भरनमें, खरकर प्रान लुनावै है । दोलन तज इनको जिनको भन, यह गुरु सीख सुना है । हे० ॥४॥ हो तुम शठ अविवारी जियरा, जिनप पाय घ्या खोवत हो। हो तुम ॥ टेक || पी मनादि मदमोहस्वगु. ननिधि, भूल अवेन नींद सोवन हो। हो तुम० ॥१॥ स्वहित सीखवच सुगुरु पुकारन, क्यों न खोल उर-ग जोवत हो । ज्ञान विमार विषयविप चाखत, सुरतरु जारि कन वोवत हो। हो तुम० ॥२॥ स्वारय सगे सकल ज. नकारन, क्यों निज पापभार दोक्त हो । नरमव सुकुल जै. नष नौका, लहि निज क्यों भवजल ढोबत हो ।॥३॥ पुगयपापफल पातव्याधिश, छिनमें मत छिनक रोक्न रामी ।२ मा । ३ भाली। समन । से। ६ नमें | जिन वर्म ! - hast Trm ! • IN १. पतूग।
SR No.010037
Book TitleDaulat Jain Pada Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages83
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy