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________________ १२ दौलत-जैनपदसंग्रह । हो । संयमसलिल लेय निज उरके, कलिमल क्यों न दौल घोवत हो । हो तुम० ॥४॥ __ हो तुम त्रिभुवनतारी हो जिन जी, मो भवजलधि क्यों न तारत हो। टेक। अंजन कियौ निरंजन ताते, अधमर. पार विरद धारत हो । हरि वराह मर्कट झट तारे, मेरी वेर टोल पारत हो। हो तुम० ॥१॥यौं बहु अधम उघारे तुम तौ, मैं कहा अधम न मुहि टारत हो। तुमको करनो परत न कछु शिव,-पथ लगाय भब्यनि तारत हो। हो तुम० ॥२॥ तुम छवि निरखत सहज रें. अघ, गुण चिंतत विधि-रज भारत हो । दौल न और चहै मो दीजै, जैसी श्राप भावनारत हो । हो तुम० ॥ ३ ॥ मान ले या सिख मोरी, झुकै मत भोगन ओरी। मान ले-टका भोग भुजंगभोगसम जानो, जिन इनसे रति जोरी। ते अनन्त भवं भीमें भरे दुख, परे अधोगति पोरी, बॅधे दृढ पातकडोरी | मान॥१॥ इनको त्याग पिरा. गी जे जन, भये शानषधोरी । तिन सुख लइयो अचल अ.. विनाशी, भवफांसी दई तोरी; स्मै 'तिनसंग शिवगोरी । १ सर्पके फणको समान ! ५ भयानक । ३ पार । ४ पापकी डोरमें ।
SR No.010037
Book TitleDaulat Jain Pada Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages83
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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