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________________ दौलत-मैनपदसंग्रह | १७ दोष दर्पनज्यों, निज निज भाव फलै तिनकेरे । तुम हो सहज जगत उपकारी, शिवपय- सारथवाह भबेरं ॥ जग० ॥ ५ ॥ तुम दयाल वेहाल बहुत हम, काळ- करालव्यात चिर-मेरे। माल नाय गुणमाल जप तुप, हे दयाल, दुखटाल संवेरे || जग० || ६ || तुम बहु पतित सुपावन कीने, क्यों न इरो भव संकट मेरे । भ्रप उपाधि हर शैमसमाधिकर, दौळ भये तुमरे अब चेरे ॥ जग० ॥ ७ ॥ २२ पद्मपद मुक्तिस दरशावन है । कलिमल· गंजन मन अलि रंजन, मुनिजन शरन सुपावन || पद्मा० ॥ टेक ॥ जाकी जन्मपुरी कुशंबिका, सुर नर-नाग- रमावन है । जाल जन्मदिनपुरन पटनव, मास रतन वरसावन है || पद्मा० ॥ १ ॥ जा वपयान पंपोसा गिरि सो, आत्म-ज्ञान थिर-थापन है । केवलजोत उदोव भई सो, मिध्यातिमिर नशावन है || पद्मा० ॥ २ ॥ जाको शासन पंचाननसो, कुपति मेवंग नशावन है । राग विना सेवक जन तारक, पै तंसु रुपेतुंप भाव न है ॥ १ शीघ्र । २ शान्तिसमाधि । ३ समवसरण लक्ष्मी । ४ पद्मप्रम बरग । ५ पद्मामुकि = मोटरमा ६ पोधा नामका पर्वत है । ७ उप देश | ८ सिंह ९ हामी । १० रोप, तोच शेष, राप ।
SR No.010037
Book TitleDaulat Jain Pada Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages83
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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