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________________ १६ दौलत-जैनपदसंग्रह । देख प्रभु, लहि विराग तु थिरा । तबहिं देवऋषि आय नाय शिर, जिनपर पुष्प धरा ॥ मज ॥२॥ केवल समय जास वैव रविने, जगभ्रम-तिमिर हरा । सुग-योध-चारित्र, पोतलहि, भवि भवसिंधु तरा ॥ भन० ॥३॥ योगसंहार निवार शेषविधि- निवसे वसुम धेरा । दौलत जे याको जस गाय, ते हैं धज अमरा ॥ भन० ॥४॥ जगदानंदन जिन अभिनंदन, पद घरविंद नमूं मैं तेरे । जग० ॥ टेक ॥ अरुणवरन अपनाए हरन पर, वितरन कुशल-सु शरन बडेरे । पद्मासदन मदन मद. भजन, रंजन मुनिजनमन अलिकेरे ॥ जग० ॥ १ ॥ ये गुन सुन मैं शरनै आयो, मोहि मोह दुख देत घनेरे । ता मदभानन स्वपर पिछानन, तुम विन श्रान न कारन हेरे । जग० ॥२॥ तुम पदशरण गही जिन ते, जामनजरा-मरन-निरवेरे । तुमते विमुख भये शठ तिनको, चहं मति विपतपहाविधि पेरे ॥ जग० ॥ ३ ॥ तुमरे अमित सुगुन ज्ञानादिक, सतत मुदित गनराज उगेरे । लहत न मित मैं • पतितं कहों किम, किन शर्शकन गिरिराज उखेरे ॥ जग० ॥ ४ ॥ तुम विन राग र लोकातिकदेव । २वचनरूपी सूर्यने । ३ जहाज । ४ शेषके चारभपातिकम । ५ आठवीं पृथ्वी अर्थात् मोक्ष । ६ लक्ष्मीके घर । ७मदका नाय करनेके लिये । ८ गाये। ९ पापी । १० खर्गेशोंने ।
SR No.010037
Book TitleDaulat Jain Pada Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages83
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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