SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 36
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३१ दोल्व-बनपदसंग्रह । है गुलर सो, भरि भरि मृठि चलोरी । तर नेशकी भरि निज मोरी, यशको अबीर उडोरी ।रंग निनाम मचोरी । मेरो मन० ॥३॥ ढोल बाल तेते अस होरी, भवभव दुःख टलोरी । झरना ले इक श्रीजनको री, नगमें लान हो नोरी मिल फगुआनिगोरी मेरो मन० ॥ ४॥ निरखत जिनचंद से माई ।। टेक ।। प्रदुति देख मंद मयो निमिपनि, मान सु पग लिपाई । प्रभु मुचंद बद्द मन्द होत है, जिन ललि त हिराई । सीव अभुत सो रवाई ।। निरखत दिन ॥ १ ॥ अंबर शुभ्र निस्तर दीस, उत्तमित्र सरसाई । फैलि रही जा धर्म जुन्हाई, चारन चार खाई। गिरा वसूत जो गनाई || निरखत निः ॥२॥ भये प्रति भन्न मुदमन, मिथ्यावर सो नसाई । दर म भवताप सबनिक, पुर अंबुथ सो बट्टाई । मदन चक्रवकी जुदाई । निरखद जिन० ॥ ३॥ श्रीजिनचंद चन्द अब दौलत, चितकर चन्द लगाई । मन्त्र निन्छ होत हैं, नागसुदनि लसाई । होत निर्विष सरपाई । निरखद जिन ॥ ४॥
SR No.010037
Book TitleDaulat Jain Pada Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages83
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy