SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 35
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गैरत-जैनषदसमह । होली ४७ ज्ञानी ऐसी होली मचाई० ॥ टेक ॥ राग कियो विपरीत विपन घर, कुमति कुसौतिसुहाई । धार दिगम्बर कीन सु संवर, निज परमेद लखाई ।घात विषयनिकी बचाई ॥ हानी ऐसी० ॥ १ ॥ कुमति मसा मजि ध्यान मेद सम, तनमें तान उड़ाई । कुंभक ताल मृदंगसौं पूरक, रेचक चीन बजाई । कगन अनुभवसौं लगाई ।। शानी ऐसी० ॥२॥ कर्मवलीता रूप नाम अरि, वेद सुइन्द् िगनाई । दे तप अग्नि भस्म करि तिनको, घुल प्रघाति उड़ाई । करी शिव नियकी मिलाई ।। बानी ऐसी० ॥३॥ मानको फाग मागवण आवे, लाख करो चतुराई । सो गुरु दीनदयाल कृपाकरि, दौलत तोहि बताई । नहीं चितसे विसराई ।। मानी ऐसी होली मचाई ॥४॥ होली १८ मेरो मन ऐसी खेलत होरो ॥ टेक ॥ मन मिरदंग सानकरि त्यारी, तनको तमृग बनोरी । सुमति सुरंग मरंगी बनाई, माल दोड कर जोरी । गम पांचों पद कोरी ॥ मेगे मन ॥ १॥ समकृति रूप नीर भर भारी, कम्ना केशर घोरी। बानमई लेकर पिचकारी, दोउ करमादि सम्होरी। इन्द्रि पांचौ मरिल बोरी । मेरो मन० ॥ ९॥ चतुर दानको
SR No.010037
Book TitleDaulat Jain Pada Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages83
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy