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________________ ५. दौलत-जैनपदसंग्रह। भगवानी ॥५॥ भई कृपा तुमरी तुमर्मते, भक्ति सु मुक्ति निशानी । है दयाल अब देहु दौल को, जो तुमने कृति गनी ।। ___ तुम सुनियो श्रीजिननाय, अरज इक मेरी जी। तुम ॥ टेक ।। तुम विन हेत जगत उपकारी, वसुकर्मन मोहि कियो.दुखारी, धानादिक निधि हरी हमारी, घावो सो मम परी जी ॥ तुम सुनि० ॥१॥ मैं निज भूल तिनहि संग लाग्यो, तिन कृत करन विषय रस पाग्यौ, तातै जन्म-जरा दव-दाग्यौ, कर समता सम नेरी जी ।। तुम सु०॥२॥ वे अनेक प्रभु मैं जु अकेला, चहुंगति विपतिमाहि मोहि पेला, भाग जगे तुपसौं भयो भेला, तुम होन्यायनिवेरी जी। तुम सु० ॥३॥ तुम दयाल बेहाल हमारो, जगतपाल निज विरद समारो, ढील न कीजे वेग निवारो, दौलतनी अबफेरी जी ।। तुम सु०॥४॥ अरे जिया, ना बोखेकी अटी। अरे० ॥ टेक ॥ मूग रक्षम लोक करत हैं, जिसमें निशदिन घाटी ॥ अरे॥१॥ मान बूझके अन्ध बने हैं, आंखन बांधी पाटी। परे० ॥२॥ निकल जांएगे पाए छिनकमें, पड़ी रहेगी माटी । अरे ॥ ६ ॥ दौलतराम समझ मन अपने, दिलकी खोल कपा-- वी॥ ४॥
SR No.010037
Book TitleDaulat Jain Pada Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages83
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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