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२८ दौलत-जैनपदसंग्रह । "विधिठग दुविध तरस । शिवमग० ॥२॥दौल अबाची* संपति •सांची, पाय रहै थिर राच सरस । शिवमग० ॥३॥
मेरी सुध लीजै रिषभस्वाम । मोहि कीजै शिवपथगाम पाटेका मैं अनादि भवभ्रमत दुखी अब, तुम दुख मेटत कृपाधाम! मोहि मोह घेरा कर चेरा, पेरा चहुंमति विदित ठाम । मेरी० ॥१॥ विषयन मन ललचाय हरी मुम, शुद्धज्ञान-संपतिललाम । अयवा यह जड़को न दोप मम, दुखसुखता, पान तिसुकाम ॥ मेरी० ॥२॥ भाग जगे अब चरन जपे तुम, चच सुनके गहे सुगुनग्राम । परमविराग ज्ञानमय मुनिजन, जपत तुमारी सुगुनदाम । मेरी॥३॥ निर्विकार संपति कृति तेरी, विपर कारों कोटिकाम । भन्यनिके भव हारन कारन, सहज यथा तमहरन घाम ।। मेरी० ॥४॥ तुम गुनमहिमा कथनकरनको, गिनत गॅनी निजबुद्धि खाम । दोलतनी श्र. शान परनती, हे जगत्राता कर विराम | मेरी०॥५॥
मोहि तारो जी क्यों ना ? तुम तारक त्रिजग त्रिकालमें, मोहि० ॥ टेक ॥ मैं भवनदधि परयौ दुल भोग्यो, सो दुख * * अवाच्य, जिसका वर्णन न होसके । २ गुणों के समूह ।३ गुणोंकी माला । ४ सूर्यका प्रकाश । ५ गणधर । ६ कोताही कमी । दैलतकी। .