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________________ ५८ दौलत-जैनपदसंग्रह। पानी ॥ जानत०॥३॥ सार पदारथ है तिहुं जगहें, नहिं क्रोधी नहिं मानी । दौलत सो घटमाहिं विराजे, लखि हुने शिवथानी ॥ जानत०॥४॥ हे हितबांछक प्रानी रे, कर यह रीति सयानी । हे हित ॥ टेक ॥ श्रीजिनचरम चितार धार गुन, परम विराग, विज्ञानी । हे हित० ॥१॥ हरन भयामय स्वपरदयाषय, सैरधौ वृष सुखदानी । दुविध उपाधि वाघ शिवसाधक, सुगुरु भजौ गुणयानी । हे॥२॥ मोह-तिमिर-हर मिहरभजो श्रुत स्यात्पद जास निशानी। सप्ततत्त्व नव अर्थ, विचारह, जो वरनै जिनवानी । हे हित० ॥३॥ निज पर भिन्न पिछान मान पुनि होह, आप सरवानी । बो इनको विशेष जानन सो, ज्ञायकता मुनि मानी। हे हित०॥४॥ फिर व्रत समिति गुपति सजि, अरु तजि प्रति शुभासवदानी । शुद्ध स्वरूपाचरन लीन है, दौल वरौ शिवरानी। हे हित आतम रूप अनूपम अद्भुत, याहि सो भव सिंधु तरो । १डर और रोग।२ प्रदान करो। ३ धर्म । ४ सूर्य ।
SR No.010037
Book TitleDaulat Jain Pada Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages83
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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