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दौरत-जैनपदसंग्रह । ५९ बा० ॥ टेक । अन्त्यकालमें भरत चक्रघर, निश भानमको ध्याय सरो। केवलशन पाय भवि पोधे, सनधिन पायो लोकशिरो ॥ प्रा० ॥१॥ या दिन ममुझे द्रव्य. लिंगिमुनि, उग्र तपनकर मार भरो । नवग्रीवकपर्यन्न जाप चिर, फेर मर्णवमार्टि एरो॥भात ॥२॥ सम्पादन धान चरन तप, येहि जगनमें मार नरो । पूव शिवको गये नाहिं अर, फिर बैं वह नियत करो ।। आ० ॥ ३ ॥ कोटि ग्रन्थको सार यही है, ये ही जिनवानी उचगे। टोल ध्याय अपने भानमको, मुक्तिरमा तव वेग वरी। मा०४॥
८७ भाप भ्रमविनाश पाप नाप जान पायो, कर्णकृत मुवर्ण जिमि चितार चैन पायौ । माप० ॥ टेक | मेगे तन तनपप तन. मेरो में तनको त्रिकालयों दोष नशमबोधमान बायो । प्राप० ॥१॥ यह मुजैनदैन ऐन, चिनन पनि पुनि सुनन, प्रगटो भय भेद नि, निवेदगुन बढायों । ॥ भाप० ॥२॥ यों ही चित अचिन मिश्र, अपना अहेय डेय, धन धनंज जैसे, स्नोमियोग गायों | आर० ॥३॥ मंगर पोते छुटन मैटति, वांछिन तट निकटत जिमि, मोह
नेतिर = शिला।२ पोर! ३ अपने ५ म मुन्योरी | NIREE! ८ भन्नि ! गोप । १. महान ५ोन।