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________________ १६ दौलत-जैनपदसंग्रह । भुजग मान नर भय र मान्यो । चेतन०।१ज्यौं अध्यान वश महिष मान निज, फैसि नर उरमाही अकुलान्यौ । त्यौं चिर मोह अविद्या पेरयो, तेरो से ही रूप भुलान्यो । चेतनः ॥२॥ तोय तेल ज्यौं मेल न तनको, उपज खपेजमें सुखदुख मान्यो। पुनि परभावनको करता है, ते तिनको निज कर्म पिछान्यो । चेतन० ॥ ३ ॥ नरभव सुथल सुकुल जिनवानी. काललब्धि वल योग मिलान्यो । दौल सहज भन उदासीनता तोष-रोष दुखकोष जु भान्यो । चेतन०॥४॥ चेतन अब धरि सहजसमाधि, जाते यह विनशै भवव्याधि । चेतन० ॥ टेक ॥ मोह ठगौरी खायके रे, परको आपा जान । भूल निजातम ऋद्धिको ते, पाये दुःख महान ॥ चेतन० ॥१॥ सादि अनादि निगोद दोयमें, परयो कर्मवश जाय । श्वासउसासमझार वहां भव, मरन अठारह थाय । चेतनः ॥२॥ कालअनन्त तहां यौं वीत्यो, जब मइ मन्द कषाय । भूजल अनिल अनल पुन तरु है, काल असंख्य गमाय । चेतन० ॥३॥ क्रममा निकसि कठिन ते पाई, शंखादिक परजाय 1 जल यल खचर होय अघ गने, तस वश श्वभ्र लहाय ।। चेतन०॥४॥तित सागरलों बहु १विनाशमें।२ रागद्वेष ३ नष्ट किया । ४ वायुकाय । ५ अग्निकाय ।
SR No.010037
Book TitleDaulat Jain Pada Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages83
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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