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________________ ५२ दौलत-जैनपदसंग्रह । समामृत, जो नित संतसुहायो । सौ सौ वार० ॥३॥ अनहू समझ कठिन यह नरभव जिन वृष विना गमायो । ते विलखें मनि डार उदधिम, दौलतको पछतायो । सौ सौ० ॥४॥ ७५ न मानत यह जिय निपट अनारी । सिख देत सुगुरु हितकारी ॥ मानत. ॥ ॥ टेक ॥ कुमतिकूनारि संग रति मानत, सुमतिसुनारि विसारी ॥ न मानत० ॥१॥नरपरजाय सुरेश चहैं सो, चनि विषविषय विगारी । त्याग अनाकुल ज्ञान चाह पैर-धाकुलता विसतारी ॥ न मानत. ॥२॥ अपना भूल आप समतानिधि, भवदुख भरत भिखारी । परद्रव्यनकी परनतिको शठ, वृथा बनत करतारी ॥ न मानत.॥३॥ जिस कषाय-दव जरततहां अभि,लाप छवा घृत बारी । दुखसौं डरै करै दुखकारन,-ते नित प्रीति करारी॥न मानत०॥४॥ अतिदुर्लभ जिनवैन श्रवनकरि, संशयमोह निवारी । दौल स्वपर-हित-अहित बानके, होवहु शिवमगचारी ।। न मानत० ॥५॥ हे नर, भ्रमनींद क्यों न, छांडत दुखदाई । सेवत चिर . १-समतारूपी अमृत । २ जिन्होंने । ३ धर्म । ४ पुदगल सम्बंधी ५पती । ६ गारी।
SR No.010037
Book TitleDaulat Jain Pada Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages83
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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