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________________ दौलत-जैनपदसंग्रह। ॥१॥ पुण्यपापपरसौं कब विरचों, परचों निजनिधि चिरविसरी । तज उपाधि सजि सहजसमाधी, सहों घाम हिममेघसरी || मेरे० ॥ २॥ कव थिलोग घरों ऐसो मोहि. उपले जान मृग खाज हरी । ध्यान-कमान तान अनुभव-शर छेदों किहि दिन मोह श्ररी ।। मेरे० ॥ ३ ॥ कर उनकचन एक गनों अरु, मनिजडितालय शैलदरी । दौलत सत गुरुचरन सैव जो, पुरवो आश यह हमरी ॥ मेरे० ॥ ४ ॥ १२२ लाल कैसे जानोगे, असरनसरन कृपाल लाल० ॥ ॥ टेक ॥ इद दिन सरस वसंतसमयमें, केशवकी सब नारी प्रभुपदच्छनारूप खडी है, कहत नेमिपर वारी । लाल०॥ ॥१॥ कुंकुम लै सुख मलत रुकमनी रंग छिरस्त गांधारी। सतभामा प्रभुओर जोर कर छोरत है पिचकारी ॥ लाल. ॥२॥ व्याह कबूल करो तो छूटौ, इतनी अरज हमारी । मोकार कहकर प्रभु मुलके, छांट दिये जगतारी ।। लाल. ॥ ३ ॥ पुलकितवदन मदनपितु-भामिनि, निज निज सदन सिधारी । दौलत जादववंशव्योम शशि, जयौ जगत हितकारी | लाल० ॥ ४॥ १ धूप-शीत-वर्षी । २ पत्यर । ३ अनुभवरूपी पाग [४ रत्नजडित महल ।५ पर्वतकी कंदरा । ६ स्वीकार । " मगनप्रति-ऐसा भी पाठ है। मदनपितुभामिनि-मदन भयात् प्रद्युम्न कामदेवके पिता श्रीकृष्णकी स्त्री
SR No.010037
Book TitleDaulat Jain Pada Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages83
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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