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मोहरिते सच्चवयणस्स पलिमंथू (ठाणंगसुत्त, ५२९)
अनुसंधान
श्री हेमचन्द्राचार्य
प्राकृतभाषा अने जैनसाहित्य विषयक संपादन, संशोधन, माहिती वगेरेनी पत्रिका
संपादक : विजयशीलचन्द्रसूरि
(गुरुमूर्तिः भद्रेश्वरः सं. १३३३)
कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि, अहमदाबाद
2005
www.sanelibrary
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मोहरिते सच्चवयणस्स पलिमंथू (ठाणंगसुत्त, ५२९)
'मुखरता सत्यवचननी विघातक छे'
अनुसंधान
प्राकृतभाषा अने जैनसाहित्य-विषयक सम्पादन, संशोधन, माहिती वगेरेनी पत्रिका
सम्पादकः विजयशीलचन्द्रसूरि
श्रीहेमचन्द्राचार्य
कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी
स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि
अहमदाबाद २००५
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अनुसन्धान ३३
आद्य सम्पादकः डॉ. हरिवल्लभ भायाणी
सम्पादकः विजयशीलचन्द्रसूरि
सम्पर्कः ____C/o. अतुल एच. कापडिया
A-9, जागृति फ्लेट्स, पालडी महावीर टावर पाछळ अमदावाद-३८०००७
प्रकाशकः
कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि, अहमदाबाद
प्राप्तिस्थानः (१) आ. श्रीविजयनेमिसूरि जैन स्वाध्याय मन्दिर
१२, भगतबाग, जैननगर, नवा शारदामन्दिर रोड, आणंदजी कल्याणजी पेढीनी बाजुमां,
अमदावाद-३८०००७ (२) सरस्वती पुस्तक भण्डार
११२, हाथीखाना, रतनपोल, अमदावाद-३८०००१
मूल्य: Rs. 80-00 .
मुद्रक:
क्रिश्ना ग्राफिक्स, किरीट हरजीभाई पटेल ९६६, नारणपुरा जूना गाम, अमदावाद-३८००१३ (फोन: ०७९-२७४९४३९३)
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निवेदन
छेल्ला थोडा वखतथी जैन संघमां चालता प्रवाहो परथी एवो अहेसास थाय छे के जैन साधुओमां संशोधनात्मक अध्ययननी रुचि उघडी रही छे. 'अनुसन्धान' जेवां शोध - सामयिको माटेनी जिज्ञासा, हस्तप्रत- भण्डारो जोवानी तथा पोथीओ उकेलवानी उत्कण्ठा, आ बधां चिह्नो धीमे धीमे घणे ठेकाणे जोवा मळी रह्यां छे. जो के, गतानुगतिकपणे पोथीओनी अशुद्ध नकलो लखाववी तथा शुद्धतानी के प्रूफवाचननी लेश पण दरकार न राखवी; बल्के जे लोकोने जैन ग्रन्थो, ग्रन्थकारो, ग्रन्थविषयो साथे कोई ज नातो - रिश्तो न होय तेवा लोको पासे वांचन - शोधन करावीने अशुद्ध वाचनाओने शुद्धतानी महोर मारीने चालवुं, आ बधुं तो खूब जोरशोरमां अने व्यापकपणे अनेक स्थळे चाली रह्युं छे. ओ शोचनीय छे, अयोग्य छे, अने मोटा अनर्थोनुं कारण छे. तेम छतां, केटलेक ठेकाणे साची जिज्ञासा, भूख अने मथामण पण, अप्रत्याशित रूपे, जोवा मळवा मांडी छे, ते आश्वासक घटना जणाय छे. शोधप्रेमीओनो समुदाय वधतो रहे, अने पक्षापक्षीथी पर रहीने शुद्ध शोधकार्यमां ते मच्यो रहे तेवी प्रार्थना.
- शी.
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- अनुक्रमणिका महोपाध्याय श्रीयशोविजयजीनी बे रचनाओ
सं. मुनि धुरन्धरविजय 01 श्री जिनमहेन्द्रसूरिजी को प्रेषित प्राकृत भाषा का विज्ञप्ति-पत्र
म. विनयसागर 08 जिनभक्तिमय विविध गेय-रचनाओ सं. मुनिकल्याणकीर्तिविजय 20 महोपाध्याय श्रीमेघविजयगणिरचितः सेवालेखः ।
सं. विजयशीलचन्द्रसूरि 28 चित्रकाव्यानि
सं. मुनि धर्मकीर्तिविजय 47 रागमाला-शान्तिनाथ स्तवन ॥
सं. शी. 63 श्रीसूरचन्द्रोपाध्यायनिर्मितम् प्रणम्यपदसमाधानम्
म. विनयसागर 69 ट्रॅक नोंध (१) भद्रेश्वरमा उपलब्ध बे गुरुमूर्तिओ
- शी. 74 पत्रचर्चा (१) पाठक रघुपति
म. विनयसागर 75 वाचक लब्धिरनगणि खरतरगच्छ के थे . म० विनयसागर 77 विहंगावलोकन-३०
उपा. भुवनचन्द्र 80 विहंगावलोकन-३१-३२
उपा. भुवनचन्द्र नवां प्रकाशनो
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महोपाध्याय श्रीयशोविजयजीनी बे रचनाओ
सं. मुनि धुरन्धरविजय महोपाध्याय श्रीयशोविजयजी महाराजनी, एक अपूर्ण अने एक पूर्ण, बे अपूर्व कृतिओ विबुध जनोना करकमलोमां मूकतां हर्ष थाय छे. उपाध्यायजी 'गणि' हशे त्यारनी आ रचनाओ होवानु, बन्नेना अन्त भागे 'गणि जसविजयकृता' तथा 'यशोविजयगणिना' एवा उल्लेख जोतां, लागे छे. बन्नेना लिपिकर्ता पण्डित नयविजयगणि (कर्ताना गुरु) छे. नयविजयजी गणिए सं. १७१० मां लखेल 'द्रव्य गुण पर्याय रास'नी तेमज स्वरचित 'भक्तामरस्तोत्रटीका'नी प्रतिओना अक्षर आवा ज छे.
पश्चिम राजस्थानना कोई गाममांथी वेचावा माटे मारी पासे आवेला एक ग्रन्थसंग्रहगत एक गुटका (पुस्तक)मांथी जुदां पडी जतां ४ पानां मारा हाथमां आवेलां, जेमां आ बे कृतिओ लखायेली छे. पानां छूटां ज छे, तेथी लागे छे के प्रथम कृतिनां आगलां त्रण पानां पण क्यांक होवां ज जोईए.
प्रथम कृति छे प्रसिद्ध अजितशान्तिस्तवनी अनुकृतिरूप, द्वीपबन्दर (दीव) मण्डन सुविधिनाथ जिन तथा पार्श्वनाथ जिन- संस्कृत स्तवन. प्राप्त अंशमां गाथा ३१ थी ३९ छे; १ थी ३० अनुपलब्ध छे. पछीना त्रण पत्रोमां 'जय तिहुअण स्तोत्र'नी अनुकृति जेवी, अपभ्रंशभाषानिबद्ध 'शंखेश्वर पार्श्व स्तुति' छे, जे २९ गाथात्मक छे.
त्रीजी गाथामां त्रीजुं चरण लखवानुं छूटी जवा उपरांत क्वचित् लेखनक्षति जोवा मळे छे. कृतिओ मजानी छे. बन्ने कृतिओना प्रान्तभागे पोतानी प्रथा अनुसार कर्ताए पोताना गुरुजनोनुं स्मरण कर्यु छे. प्रथम कृतिना अन्तिम श्लोकोमा स्पष्ट निर्देश छे के द्वीप बन्दरना संघनी विनंतिथी, कर्ताए, अजितशान्तिवत् सुविधि-पार्श्वस्तवनी रचना करी छे. जो आ स्तवरचना पूर्ण प्राप्त थई होत तो उपाध्यायजीनी एक अत्यन्त सुन्दर ने प्रासादिक रचना मळी होत. शंखेश्वर पार्श्व स्तुतिमां पण कर्तानी कमलकोमल प्रासादिकता जणाई आवे छे ज. संभवतः, उपाध्यायजीए नव्य न्यायर्नु अध्ययन करवा मांड्यु, ते पहेलांनी आ रचनाओ होय तो ना नहि.
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अनुसन्धान ३३
(१) श्रीसुविधि-पार्श्वजिनस्तवः (अपूर्णः) ।
• • • • • • . . . . . . बमानमेखलाभिरामदामवलयवल्गनावलम्बवल्गुना सुरेन्द्रपद्मलोचनाकरेण । यस्य सुन्दराभिषेककारिणा गभस्तिबिम्बचुम्बिदेवशैलदेशपेशलप्रदेशसङ्गिगाङ्गनिर्झरानुकारिणा । विराजितं विराजितं भवाहिनाशने नमामि तं नितान्तशान्तसेवधि भुजङ्गराजलाञ्छनं जिनम् ॥३१॥ नाराचकः ॥ इन्दुसुन्दरसितातपत्रपरिमण्डितौ घनभवगहनजननभयभञ्जनपण्डितौ । हारशशाङ्कपाण्डुरयशोभरशालिनी कोविदवदनपग्रहसितद्युतिमालिनौ ॥३२॥ ललितकम् ।। कृपावतारौ सुरैज्जितारौ कृतोपचारौ गताऽतिचारौ । शुचिप्रकारौ गलद्विकारौ सुखप्रचारौ समग्रसारौ ॥३३॥ वानवासिका ॥ तौ महोदयविलासभाजना-नन्दितावभिनुतौ सभाजनाः । एतयोरुपरि येऽसभाजना- स्ते भवन्ति किल रासभा जनाः ॥३४||
_अपरान्तिका ॥ स्तुतमिति जिनपतियमलं, विबुधव्रजसेव्यमानपदयमलम् । सिद्धधुनीजलविमलं सृजतु विनिद्रं हृदयकमलम् ॥३५।। आर्या ॥ सुविहितकुलकोटीरं वन्दे श्रीविजयदेवगुरुवीरम् । श्रीविजयसिंहधीरं श्रीमत्कल्याणविजयगुरुहीरम् ।।३६॥ आर्या ॥ श्रीलाभविजयविबुधा-स्तेषां शिष्या विशेषविद्वांसः । तेषां शिष्यवतंसौ विबुधौ श्रीजीतविजय-नयविजयौ ॥३७॥ आर्या ।। अलिनेव तच्चरणवर-पङ्कजपरिचरणकरणरसिकेण । श्रीसङ्घप्रार्थनयो-द्युक्तेन यशोविजयगणिना ॥३८॥ आर्या ।।
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अभ्रंलिहजिनगृहयो-रनयोः श्रीद्वीपबन्दिरोदितयोः । स्तवनाद् यदकृत सुकृतं तेनाऽस्तु स्वस्ति सङ्घाय ॥३९॥ आर्या ॥
इति श्रीअजितशान्तिस्तवच्छन्दोरीतिपरीत-श्रीसुविधिपार्श्वजिनस्तवः ॥ पण्डितनयविजयेन लिखितः ॥
(२) श्रीशङ्केश्वर पार्श्वजिन स्तुति ॥ ऐं नमः ॥
जय जोगिंदमुर्णिदचंद-देविंदपवंदिय ! जय संखेसर पासनाह ! तिहुअणअभिणंदिय ! । जणमणवंछियअत्थसत्थसुरतरु ! जणिउच्छव ! धनंतरिसमसमरसेण मह सुक्खकरो भव ॥१॥ अहवा किं मम पत्थिएण तुह थुणणसुरदुम सेवणमेव समत्थमत्थवित्थारकए मम । छायापायवमासियाण पहियाण पहस्सममहणकए णहि पत्थणा बिअ णुइस्सइ विस्सम ॥२॥ जह मज्जंति न काणणम्मि करिणो पंचायणअप्फोडियलंगूलसद्दभरिए सुहभायण । तह जिण ! तुह अभिहाणझाणपणिहाणपरायणभविअजणाण हु माणसम्मि दुरियाई विसंति ण ॥३॥ तमपडलाइं गलंति मज्झ सयलाई वि सामिय ! तुह मुहचंदनिहालणेण परिणयसमयामिय ! । अह जिण ! मह तुह आगमेसु जहसत्ति सुबंधुर भत्तिविअत्तिनिबंधबंध ! दुरिउक्करमुद्धर ॥४॥ परिअट्टेवि पहू तुमं सि लोआलोआण वि मह दुहमित्तविणासणं तु सुकरं तुह संभवि ।
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तह वि इमं मम पत्थणाइ जुज्जइ अपुणब्भवि धम्मसमुस्सिअ - सामिदासभावो बलवं भुवि ॥५॥ जय भयभंजण पासणाह ! तिहुअणमणरंजण ! जण जणवंछियकप्परुक्ख ! विगलियकम्मंजण ! | जय जिण ! दप्पयदप्पसप्पमाहप्पपभंजण ! परमसमत्तनिहाण ! झाणकयकलिमलगंजण ! ||६|| परिपेरंतफुरंतविज्जुभीसणभरि - अंबरि । घणगज्जियकयतट्टणट्ठहरिगयकयडंबरि ।
मुसलपमाणयमुक्तमेहजलधारसुपीवरि
तुज्झ खमा न हु पंकिलावि चंचलकमठासुरि ॥७॥ जय णयसुरवरवरकिरीडमणिचुंबियणहयल ! फणिफणमणिसंकंतकंतिकिम्मीरियणहयल ! अतुलसजलजलवाहसंगिअंजणगिरिमेहलनववेरुलियकरप्परोह ! फलिणीदलसामल ! ॥८॥ तुह आणाइ पिसाय भूअ अइकूर महग्गहसाइणि डाइणि डंबराइ णासइ गहविग्गह | तिहुअणजण आराहिआण भुवणत्तयसुप्पह ! तुह नामं चिय परममंतवरकज्जकरं मम (मह) ॥९॥ जे अडवीसु अडंति जंति गहणे पहलुंटणसंकप्पियणियतेणवित्तिपउरा चोरा जिण ! । ते पोरव्व ण तुज्झ णाममंतक्खरसमरणक[ण]परायणमाणसाण भयया भयभंजण ! ॥१०॥ पणवपुरस्सरकज्जसज्जलज्जानीउत्तर
अरिहं चिय सिरिपासणाहणामक्खरसइपर ।
असुरगरुलगंधव्वजक्खरक्खसवरकिंनर
नागाइसु अविलंघियाण अइरा होहिसि णर ! ॥ ११ ॥
अनुसन्धान ३३
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जय जगजणमणवंछिअत्थपूरणु चिंतामणि ! चिंतामणिणयणागहाण पउमावइ सामिणि । जय संखेसर पासणाह ! सु(स?)रणागयकामिणि कामविलासक्खुभियचित्त ! जिण ! मुणिजणगामणि ! ॥१२॥ अट्ठारसघणदोसि(स?)सोसि-केवलकिरणुक्करपसभपबोहियसमणसंघलोअणकमलायर ! । कुमइकुमइसच्छंदमंदसंकप्पसमुद्धरतिमिरतिरोहग ! पासणाह ! जय तिहुअणदिणयर ! ॥१३|| जय णयपत्थिवमत्थयत्थलंबंतसमुस्सियकप्पदुमअभिरामदामसंपूजियणियपय ! । पयडीकयपरमत्थसत्थ ! पुरिसत्थपवत्तय ! पुरिसुत्तम ! वरपुरिससीह ! सिवमग्गुवदेसय ! ॥१४|| तुह केवलकिरणोदयेण वड्डइ झाणण्णव अणवमणवमरसप्पसप्पिलहरी अपुणब्भव ! । पत्थ (पेच्छ ?)तुमं उल्लसइ मुज्झ माणसमिणमो जिण ! इय तिहुअणआणंदचंद ! मह तावनिवारण ! ॥१५॥ जइ बीहेसि भवाउ वाउचलआउअथिर-परदविणसमुल्लणदुव्वणाइदुत्थाउ जिणेसर ! । ता संखेसरपासणाह ! समरणरण[रण] किय झाणकरणएगग्गलग्गहिअओ हव ! पियवय ॥१६।। जय उन्नयकयणय-पमाणवयवयणसुगज्जिअ ! अज्जियसुकयसमुद्दलद्धसमरसभरसज्जिअ ! । मारिसजणमणसिहिपमोअतंडवपरिमंडण ! इय जिण ! रोहियबोहिबीअ ! घणदुरिअविहंडण ! ॥१७॥ जिण ! तिविहं तिविहेण तुज्झ सरणं पडिवज्जिय तज्जियमोहभडा हवंति दुरियं पि विसज्जिय ।
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अनुसन्धान ३३
जय जय मयणपहारधीर ! इय तिहुअणतारण ! तिहुअणवच्छल ! तिहुअणिक्कदुहदुरियनिवारण ! ॥१८॥ तुहमुवयारपरायणो सि उवयारपयं पुण अपुणब्भव ! भवभमणदुक्खदुहिओहमिहं जिण ! । ता भुवणत्तयवंदणिज्ज ! णिअपहमवलंबिय कुणसु सुहाई जिणिंदचंद ! विदलियसयलाहिअ ॥१९॥ अट्ठमहाभयदुट्ठकुट्ठजरपदरभगंदरअच्छिकुच्छिसुइमूलसूलपमुहाई जिणेसर ! । तुह नामक्खरसमरणेण जिययं सयलाई वि । तिमिराई विरविज्जुईइ णासंति दुहाई वि ॥२०॥ सुस्सुअसमयविहीइ भग्गभविजणभवअंतर ! परमरसायणसम ! पहाण ! तेलुक्कसुहंकर ! । वयसमयंजणअंजणेण विमलीकयलोअण ! जणगणसंथुअ ! भुवणविज्जु ! मारिसपडिबोहण ! ॥२१॥ सरणागयजणताण ! पाणसंतइसंरक्खर(ण) ! वरअद्भुत्तरसहसमाणजिणलक्खणलक्खण !। जय हयमोह हओहसोह दुहसरसंतक्खण ! तिहुअणजणआणंदकंद घण ! परमविअक्खण ! ॥२२।। तुह गुणगुणणपरायण त्थु रसणा जिणणायग ! हिययं पुण तुह झाणपुण्णमुत्तमपहसाहग !! गत्तं तुज्झ पमाण(पणाम?) भावरोमंचपसाहग- ! मि(इ)य पत्थिज्जइ देसु देव ! सासयसुहदायग ! ॥२३॥ नहि विहलं तुह पत्थणं ति वीसासवसेण उ सुहमासिज्जइ भुवणविज्ज ! निउणेण ण केण उ । इय जाणिज्जइ तहवि भूरिभत्तिब्भरभासिय हिययविजंभियमेयमेव बहु बहु भासियमिय ॥२४॥
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तुह सरणागयवच्छलस्स मह उवरि पियामह ! जुग्गाजुग्गविचिंतणं पि सुविलंबसहं कर(कह) । अहमिह पुण जाणामि जुग्गसंगय जुग्गं चिय अप्पाणं तुह पायमूलसुसरणमुवलंबिय ॥२५॥ किमु वयघोरपरक्कमेहिं कयकायकिलेसिहं जोगब्भासनिवासपासजंतियणियलेसिहि । जइ भव्वा ! भवभूअभीइभीया सिवमिच्छह ता संखेसरपासणाहणामं चिय समरह ॥२६|| घणदुरियाई जिणाई मुज्झ सिग्धं णासंति हु अणिमाइयवरअट्ठसिद्धिबुद्धी विलसंति हु । सिरिसंखेसरपासणाहसेवासुपसाइण ता किं परसुरसेवणेण इय चिंतिसु भवियण ! ॥२७॥ मुज्झ मणोरहपत्थअत्थकप्पद्रुम ! सामिय ! । मा अवहीरइ दासमिय(मेय) भासइ सिर नामिय । सिरि संखेसरपासणाह ! भवदुहभरमोअण ! सुण विन्नत्तिरहस्स तुट्ठिसुपसायपलोअण ! ॥२८|| तवगणगुरुसिरिविजयदेवसूरीसर ! वरगुणपट्टपहायरविजयसिंहसूरिंद पसाइण । इअ थुणिओ सिरिजीतविजयबुहधम्मसहोअरसिरिनयविजयमुणिंदसीसजसविजयसुहंकर ॥२९॥
इति श्रीशद्धेश्वरपार्श्वजिनस्तुतिः । गणिजसविजयकृता । पं. नयविजयगणिना लिखिता ॥
C/o. समृद्धि एपार्टमेन्ट,
'चन्दन'नी पाछळ, हाई-वे, डीसा-३८५५३५
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श्री जिनमहेन्द्रसूरिजी को प्रेषित प्राकृत भाषा का विज्ञप्ति-पत्र
म. विनयसागर विज्ञप्ति-पत्र-लेखन एक स्वतन्त्र विधा है। यह विधा साहित्यशास्त्र .. के अन्तर्गत ही है किन्तु साहित्यशास्त्र में इसका कोई उपभेद प्राप्त नहीं होता
है । जैन मनीषियों द्वारा यह विधा पल्लवित एवं पुष्पित होकर स्वतन्त्र रूप प्राप्त है । अन्य परम्पराओं में सम्भवतः इसका उल्लेख नहीं मिलता है । विज्ञप्ति-पत्र-लेखन के दो रूप प्राप्त होते है
१. जैन मुनिगणों द्वारा प्रेषित और २. जैन संघ द्वारा गणनायक एवं आचार्यों को प्रेषित । १. जैन मुनिगणों द्वारा प्रेषित :
जैन मुनिगणों द्वारा प्रेषित पत्रों में मुनिजन अपने आचार्यों । गणनायकों को जो संस्कृत, प्राकृत भाषा में पत्र लिखते थे । वे पत्र गद्य, पद्य और गद्यपद्यमिश्रित होते थे। समासबहुल अलंकारों की छटा से युक्त काव्य शैली में लिखित थे । इन पत्रों में मुनिजन अपने चातुर्मासिक धार्मिक क्रिया-कलापों, यात्रा-वृत्तान्तों, प्रवचनों, समाज द्वारा आचरित विशिष्ट कृत्यों
और शासन-प्रभावना का वर्णन करते थे । शास्त्र पठन-पाठन का भी अध्ययन-अध्यापन का भी उल्लेख होता था । इन पत्रों का प्रारम्भ तीर्थंकरो, गणधरों और आचार्यदेवों का स्मरण कर वर्तमान गच्छनायक के गुणों का उल्लेख करते हुए, प्रेषणीय स्थान/नगर के गौरव को व्याख्यान करते हुए, नामोल्लेख सहित आचार्यों को सविधि वन्दन करते हुए प्रेषित किया जाता था । तत्पश्चात् प्रेषक मुनिजनों के नाम विस्तार के साथ लिखे जाते थे । ऐतिहासिक वर्णनों का भी इनमें प्राचुर्य रहता था । अन्त में शुभकामना और आशीर्वाद चाहते हुए पत्र पूर्ण किया जाता था । ये पत्र बड़े विशाल होते थे और लघु भी । विशाल पत्रों में एक विक्रम सम्वत् १४४१ में अयोध्या में विराजमान पूज्य लोकहिताचार्य को भेजा गया था । भेजने वाले थेआचार्य जिनोदयसूरि, जो उस समय अणहिलपुर पाटण में विराजमान थे ।
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इसमें पद्य केवल ८६ है और शेष भाग गद्य में है । यह गद्य भाग भी महाकवि बाण, दण्डि और धनपाल की शैलीका अनुकरण करता है । शब्दछटा भी आलंकारिक है और ऐतिहासिक घटनाओं का भी निर्देशन है। इसमें तीर्थयात्राओं का विशिष्ट वर्णन है। (यह विज्ञप्ति-पत्र मुनिश्री जिनविजयजी द्वारा सम्पादित होकर जैन-विज्ञप्ति-लेख-संग्रह पुस्तक में प्रकाशित हो चुका
इसी प्रकार विक्रम सम्वत् १४८४ में गच्छाधिपति जिनभद्रसूरि को लिखा गया पत्र विज्ञप्तित्रिवेणी के नाम से प्रसिद्ध है । उस समय आचार्य पाटण में ही विराज रहे थे । पत्र के लेखक थे-जैन साहित्य और साहित्यशास्त्र के धुरन्धर विद्वान् उपाध्याय जयसागरजी । उन्होंने यह पत्र सिन्ध प्रदेश स्थित मलिक वाहनपुर से लिखा था ।
कई लघु विज्ञप्तिपत्र काव्यों के रूप में अथवा महाकाव्य की शैली में या पादपूर्ति-काव्यों के रूप में लिखे गये थे । ये पत्र भी ऐतिहासिक
और साहित्यिक दृष्टि से अपना विशेष महत्त्व रखते हैं । कई विज्ञप्तिपत्र चित्रकाव्यबद्ध भी होते हैं अथवा मध्य में चित्रकाव्य भी प्राप्त होते हैं । इन पत्र लेखों में विनयविजयोपाध्याय, मेघविजयोपाध्याय, विजयवर्धनोपाध्याय आदि प्रमुख हैं । इनमें से कतिपय विज्ञप्तिपत्र प्रकाशित भी हो चुके है । २. जैन संघ द्वास गणनायक एवं आचार्यों को प्रेषित :
यह पत्र चित्रबद्ध होने के कारण आकर्षणयुक्त दर्शनीय और मनोरम भी होते हैं । विशाल जन्मपत्री के अनुकरण पर विस्तृत भी होते हैं । इन विज्ञप्तिपत्रों की चौड़ाई १० से १२ इंच होती है और लम्बाई १० फुट से लेकर अधिकाधिक १०८ फुट तक होती है । टुकड़ों को सांध-सांध कर बंडल-सा बन दिया जाता है। इन विज्ञप्तिपत्रों में सबसे पहले कुम्भकलश, अष्ट मंगल, चौदह महास्वप्न और तीर्थंकरों के चित्र चित्रित किये जाते हैं। पश्चात् राजा-बादशाहों के प्रासाद, नगर के मुख्य बाजार, विभिन्न धर्मों के देवालय और धर्मस्थान, कुंआ, तालाब आदि जलाशय, बाजीगरों के खेल और गणिकाओं के नृत्य भी चित्रित होते हैं । तत्पश्चात् जैन समाज का धर्म जुलूस, साधुजन और श्रावक समुदाय के चित्र भी अंकित होते हैं । उसके
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अनुसन्धान ३३ पश्चात् जिन आचार्यों को यह विज्ञप्तिपत्र भेजा जाता है, उनके चित्र, उनके अधिकाधिक सर्वश्रेष्ठ विशेषण और उनके नाम आदि अंकित कर लेखन प्रारम्भ होता है । आचार्य के गुणों की बहुत प्रशंसा करती है । उपासकों का वर्णन करता है। धर्मकृत्यों का वर्णन रहता है और अन्त में आचार्य को अपने नगर में पधारने के लिए विस्तारपूर्वक प्रार्थना/विज्ञप्ति की जाती है । अन्त में उस नगर के अग्रगण्य मुख्य श्रावकों के हस्ताक्षर होते हैं । इन पत्रों में धार्मिक-इतिहास के अतिरिक्त समाज और राजकीय ऐतिहासिक बातें भी गर्भित होती है ।
इन विज्ञप्तिपत्रों का प्रारम्भ प्राय: संस्कृत भाषा में और अन्तिम अंश देश्य भाषा में होता है। ये विज्ञप्तिपत्र अधिकांशतः चित्रित प्राप्त होते है और कुछ अचित्रित भी होते हैं । बहुत अल्प संख्या में ये पत्र प्राप्त होते हैं ।
चर्चित पत्र : प्रस्तुत पत्र प्रथम प्रकार का है। इस पत्र को पाली में स्थित पं. जयशेखर मुनि द्वारा जैसलमेर में विराजमान गच्छनायक श्रीपूज्य जिनमहेन्द्रसूरि को भेजा गया है । विक्रम सं. १८९७ में लिखित है । इस पत्र की मुख्य विशेषता यह है कि यह प्राकृत भाषा में ही लिखा गया है। अन्त में पाली नगर के मुखियों के हस्ताक्षरों सहित आचार्य के दर्शनों की अभिलाषा, पाली पधारने के लिए प्रार्थना अथवा अन्य मुनिजनों को भिजवाने के लिए अनुरोध किया गया है । इस पत्र में कोई भी चित्र नहीं है। पत्र की लम्बाई १ फुट तथा चौड़ाई १० इंच है। यह पत्र मेरे स्वकीय संग्रह में है।
पत्र का सारांश प्रारम्भ में दो पद्य संस्कृत भाषा में और शार्दूलविक्रीडित छन्द में है । प्रथम पद्य में भगवान् पार्श्वनाथ की स्तुति की गई है और दूसरे पद्य में जैसलमेर नगर में चातुर्मास करते हुए श्री पूज्य जी के पादपद्मों में प्राकृत भाषा में यह विज्ञप्तिपत्र लिखने का संकेत किया है । . इसके पश्चात् प्राकृत भाषा में शान्तिनाथ भगवान् को नमस्कार कर जैसलमेर नगर में विराजमान गणनायक के विशेषणों के साथ गुण-गौरव । यशकीर्ति का वर्णन करते आचार्य जंगमयुगप्रधान श्रीजिनमहेन्द्रसूरि जो कि
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पाठक, साधुगणों से परिवृत हैं, से प्रार्थना की गई है कि पाली नगर का श्रीसंघ भक्तिपूर्वक वन्दन करता हुआ निवेदन करता है और लिखता है कि आपके प्रसाद से यहाँ का श्रावक समुदाय सुखपूर्वक है और आप श्री साधु-शिष्यों के परिवार सहित सकुशल होंगे।
“पयुर्षण के धार्मिक कार्य-कलापों सम्बन्धित आप द्वारा प्रेषित कृपापत्र प्राप्त हुआ और इस पत्र के साथ आपश्री ने श्रावकों के नाम पृथक पत्र भेजे थे, वे उन्हें पहुंचा दिये गये है। आपके पत्र से हमें बहुत आनंद हुआ और शुभ भावों की वृद्धि हुई ।"
“यहाँ भी पयुषण पर्व के उपलक्ष्य में तप, नियम, उपवास और प्रतिक्रमण भी अधिक हुए । कल्पसूत्र की नव वाचना हुई । व्याख्यान सुनकर अनेक श्रावकों ने कन्द-मूल, रात्रि-भोजन आदि अकरणीय कार्यों का त्याग किया । बहुत लोगों ने छठ, अट्ठम, दशम, द्वादश आदि अनेक प्रकार की तपस्या की । चम्पा नाम की श्राविका ने मासखमण किया । ७१ श्रावकों ने सम्वत्सरी प्रतिक्रमण भी किया । प्रतिक्रमणों के उपरान्त चार श्रावकों ने - गोलेछा भैरोंदास, छोटमल उम्मेदमल कटारिया, गुमानचन्द बलाही, शोभाचन्द सुकलचन्द चौपड़ा ने श्रीफल की प्रभावना की । पंचमी को स्वधर्मीवात्सल्य हुआ जिसमें ३०० श्रावकों ने लाभ लिया ।"
"आषाढ़ सुदि २ बुधवार से जयशेखरमुनि के मुख से आचाराङ्ग सूत्र का व्याख्यान और भावना में महीपाल चरित्र श्रवण कर रहे है । बहुत लोग व्याख्यान श्रवण करने के लिए आते है । अभी आचाराङ्ग सूत्र का लोकविजय नामक द्वितीय अध्ययन के दूसरे उद्देशकों का व्याख्यान चल रहा है । सम्वत्सरिक दिवसों में हमारे द्वारा जो कुछ अविनय-अपराध, भूल हुई हो, उसे आप क्षमा करें, हमें तो आपका ही आधार है। हमारे ऊपर आपका जो धर्म-स्नेह है, उसमें कमी न आने दें । जैसलमेर निवासी भव्य लोग धन्य हैं, जो आप जैसे श्रीपूज्यों के नित्य दर्शन करते है और श्रीमुख से निःसृत अमृत वाणी सुनते हैं । आपके साथ विराजमान वाचक सागरचन्द्र गणि आदि को वन्दना कहें ।"
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अनुसन्धान ३३
विक्रम सम्वत् १८९७ कातिक सुदि सप्तमी रविवार को जयशेखर मुनि ने यह विज्ञप्ति पत्र लिखा है ।
इसके पश्चात् राजस्थानी भाषा में श्रीसंघ की ओर से विनती लिखी गई है । इसमें लिखा है कि "आपने इस क्षेत्र को योग्य मानकर पं. नेमिचन्दजी, मनरूपजी, नगराजजी और जसराजजी को यहाँ भेजा है, उससे यहाँ जैन धर्म का बहुत उद्योत हुआ है और व्याख्यान, धर्म-ध्यान का भी लाभ प्राप्त हआ है। पहले यहा पर उपाश्रय का हक और खरतरगच्छ की मर्यादा/समाचारी उठ गई थी । इनके आने से सारी समस्या हल हो गई। आपसे निवेदन है कि पाली क्षेत्र योग्य है। इनको दो-तीन वर्ष तक यहां रहने की इजाजत दें ताकि यह क्षेत्र सुधर जाए और बहुत से जीव धर्म को प्राप्त करें ।" - इसके पश्चात् मारवाड़ी (मुडिया) लिपि में पाली के २८ अग्रगण्यों के हस्ताक्षर हैं। उनमें से कुछ नाम इस प्रकार है - नाबरीया भगवानदास, संतोषचन्द प्रतापचन्द, अमीचन्द साकरचन्द, गोलेछा भैरोलाल रिखबचन्द, कटारिया शेरमल उम्मेदचन्द, कटारिया जेठमल, लालचन्द हरकचन्द, संघवी रूपचन्द रिखबदास, गोलेछा सागरचन्द आलमचन्द आदि ।
विशेष : इस पत्र में चार यतिजनों के नाम आए है - पं. नेमिचन्द, मनरूप, नगराज, जसराज के नाम आए है । इन चारों के नाम दीक्षावस्था के पूर्व के नाम हैं । खरतरगच्छ दीक्षानन्दी सूची पृष्ठ १०१ के अनुसार सम्वत् १८७९ में फागुण वदी ८ को बीकानेर में श्री जिनहर्षसूरिने शेखरनन्दी स्थापित कर जयशेखर को दीक्षा दी थी । जयशेखर का पूर्व नाम जसराज था और सुमतिभक्ति मुनि के शिष्य थे और जिनचन्द्रसूरि शाखा में थे ।
___श्री जिनमहेन्द्रसूरि श्रीपूज्य जिनमहेन्द्रसूरि को यह विज्ञप्ति पत्र लिखा गया था अतः श्रीजिनमहेन्द्रसूरि का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है :
___अलाय मारवाड़ निवासी सावणसुखा गोत्रीय शाह रूपजी की पत्नी सुन्दरदेवी के ये पुत्र थे। जन्म सम्वत् १८६७ था । मनरूपजी इनका जन्म नाम था । सम्वत् १८८५ वैशाख सुदी १३ नागौर में इनकी दीक्षा हुई थी
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और दीक्षा नाम था - मुक्तिशील । दीक्षानन्दी के अनुसार इनकी दीक्षा १८८३ में सम्भव है । गच्छनायक श्री जिनहर्षसूरि का सम्वत् १८९२ में स्वर्गवास हो जाने पर मिगसर वदी ११ सोमवार १८९२ में मण्डोवर दुर्ग में इनका पट्टाभिषेक हुआ । यह महोत्सव जोधपुर नरेश मानसिंहजीने किया था, और उस महोत्सव के समय ५०० यतिजनों की उपस्थिति थी । यही से खरतरगच्छ की दसवीं शाखा का उद्भव हुआ । मण्डोवर में गद्दी पर बैठने के कारण यह शाखा मण्डोवरी शाखा कहलाई । इधर यतिजनों में विचार-भेद होने के कारण बीकानेर नरेश के आग्रह पर जिनसौभाग्यसूरि गद्दी पर बैठे ।
श्री जिनमहेन्द्रसूरि के उपदेश से जैसलमेर निवासी बाफणा गोत्रीय शाह बहादरमल, सवाईराम, मगनीराम, जौंरावरमल, प्रतापमल, दानमल आदि परिवार ने शत्रुजय तीर्थ का यात्रीसंघ निकाला था । इस संघ में ११ श्रीपूज्य, २१०० साधु-यतिगण सम्मिलित थे । इस संघ में सुरक्षा की दृष्टि से चार तोपें, चार हजार घुड़-सवार, चार हाथी, इक्यावन म्याना, सौ रथ, चार सौ गाड़ियाँ, पन्द्रह सौ ऊँट साथ में थे । इसमें अंग्रेजों की और से, कोटा महारावजी, जोधपुर नरेश, जैसलमेर के रावलजी और टोंक के नवाब आदि की ओर से सुरक्षा व्यवस्था थी । इस यात्री संघ में उस समय १३,००,०००/- रू. व्यय हुए थे । यही बाफणा परिवार पटवों के नाम से प्रसिद्ध है और इन्हीं के वंशजों ने उदयपुर, रतलाम, इन्दौर, कोटा आदि स्थानों में निवास किया था और राजमान्य हुए थे । इनके द्वारा निर्मित कलापूर्ण एवं दर्शनीय पाँच हवेलियाँ जैसलमेर में आज भी पटवों की हवेलियों के नाम से प्रसिद्ध है, और अमरसागर (जैसलमेर) के दोनों मंदिर इसी पटवी परिवार द्वारा निर्मित है । इसी पटवा परिवार ने लगभग ३६० स्थानों पर अपनी गद्दियाँ स्थापित की थी और गृहदेरासर और दादाबाड़ियाँ भी बनाई थी । इन्हीं के वंशजों में सर सिरहमलजी बाफणा इन्दौर के दीवान थे, श्री चाँदमलजी बाफणा रतलाम के नगरसेठ थे और दीवान बहादुर सेठ केसरीसिंहजी कोटा के राज्यमान्य थे । उदयपुर में भी यह १. म० विनयसागरः खरतरगच्छ का इतिहास, पृ. सं. २५२-२५३.
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अनुसन्धान ३३
परिवार राज्यमान्य रहा है । वर्तमान में इन पाँचों भाईयों के वंशज भिन्नभिन्न स्थानों इन्दौर, रामगंज मंडी, झालावाड़, कलकत्ता, आदि में और रतलाम- कोटा परिवार के बुद्धिसिंहजी बाफणा विद्यमान हैं । इस तीर्थ-यात्रा का ऐतिहासिक वर्णन जैसलमेर के पास स्थित अमर - सागर में बाफणा हिम्मतराजजी के मंदिर में शिलापट्ट पर अंकित है । इस शिलापट्ट की प्रशस्ति श्री पूरणचन्दजी नाहर द्वारा सम्पादित जैन लेख संग्रह, तृतीय खण्ड, जैसलमेर के लेखांक २५३० पर प्रकाशित है ।
स्वनामधन्य मुंबई निवासी सेठ मोतीसा के अनुरोध पर जिनमहेन्द्रसूरिजी बम्बई पधारे और सम्भवतः भायखला दादाबाड़ी की प्रतिष्ठा भी इन्होंने की थी । सम्वत् १८९३ में शत्रुंजय तीर्थ पर सेठ मोतीसा द्वारा कारित मोती - वसही टोंक की प्रतिष्ठा भी इन्होंने करवाई थी । सम्वत् १९०१ पोष सुदि पूनम को रतलाम में बाबा साहब के बनवाये हुए ५२ जिनालय मन्दिर की प्रतिष्ठा भी इन्होंने करवाई थी । इस प्रतिष्ठा के समय इनके साथ ५०० यतियों का समुदाय था । सम्वत् १९१४ भाद्रपद कृष्णा ५ को मण्डोवर में आपका स्वर्गवास हुआ । जोधपुर नरेश, उदयपुर नरेश आपके परम भक्त थे | आपके द्वारा प्रतिष्ठित सैकडों मूर्तियाँ आज भी प्राप्त हैं । इनके पाट पर क्रमशः जिनमुक्तिसूरि, जिनचन्द्रसूरि और जिनधरणेन्द्रसूरि विराजमान हुए । वर्तमान में इस शाखा में कोई श्रीपूज्य नहीं है । प्रायः यति समाज भी समाप्त हो चुका है ।
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मूल विज्ञप्तिपत्र इस प्रकार है :
श्रीगौतमाय नमः
॥ नमः श्रीवर्धमानाय सर्वकलनाय || ॥ प्रत्यूहव्यूहप्रमथनाय श्रीसाधुगणाधीशाय नमः ॥
स्वस्तिश्रीवरवर्णिनी प्रियतमं विश्वत्रयैकाधिपं, प्रत्यूहप्रशमाय कामदमपि प्रेष्ठं परं कामदम् । प्रास्ताकं पुरुहूतपूजितपदं पार्श्वप्रभुं पावनं, प्रख्यातं प्रणिपत्य सत्यमनसा कायेन वाचापि च ॥१॥
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सत्यासेचनके सुजेशलमहादुर्गे पुरे तस्थुषां, चातुर्मास्यविधानसाधनकृते श्रीपूज्यराजामिदम्, विज्ञप्तिच्छदनं प्रमोदसदनं पत्पद्मयोः प्राभृतीकुर्वे प्राकृतबन्धुरं गुरुधियः शश्वत् क्रियासुः कृपाम् ॥२॥
द्वाभ्यां युग्मम् सोत्थि सिरिसंतिजिणं पणमिऊण सिरिजेसलमेरुणयरपवरे पुज्जा परमपुज्जा उत्तमा उत्तमुत्तमा जातिसंपन्ना कुलसंपन्ना बलसंपन्ना रूवसंपन्ना लज्जालाधवसंपन्ना सुयपुण्णा जियकोहा जियमाणा जियमाया जियलोहा जियनिद्दा जियइंदिया जियपरीसहा खंतिप्पहाणा मुत्तिप्पहाणा भव्ववरपुंडरीया पवरमुहसिरीया सुगहियचरित्तहिरीया पुण्णचंदविसालकंतवयणा अमियमहुरवयणा करुणा भरमंथरनयणा अमियवरगुणभायणत्तणेण अहरीकयगयणा अणेगच्छेगकरविचित्तनायकहणेण रंजियसयलसयणा महिसन्नाणज्झाणसप्पहविद्धंसकयहत्थदुट्ठमयणा कयाखिलजयजंतुजयणा निद्देसट्ठियनरनियरेहि सययकयभयणा सज्जनगुणाणुरत्ता सयलसुहलक्खणलियगत्ता कारुण्णदेसण्णया सत्थीकयसव्वअइदुग्घडसत्थघडण(णा)वक्खाणविहिम्मि विहियपडुनिरुत्ता आइण्णवलेसमुक्किट्ठसूरिगुणजुत्ता चेट्ठिगियाईणं लद्धलक्खत्तणेण वित्तासियनियडिधुज्जधुत्ता नियभिहाणसईवासइसमरियसुद्धसुत्ता विस्सविस्सपसरिय-पवरपण्डुरजसेण विजियमत्तसुत्ता अट्ठमिहिमकिरण-पमाणपडिपुण्णपुण्णभाला गरिट्ठगुणविसाला सव्वसमयमाणसके लिकरणरायमराला विसयविवागपयडीकरणाकलुससलिणेण विज्झवियवम्महजलणजाला जियदुद्धरमयणा भवियवरपुण्डरीयविबोहणे सहस्सकिरणा चंदेव सीयलीकयक-सायपरिभवियसयलसत्तगणा वियसियकुमुयनयणा महुरवरवयणरंजियसयणा नाणाइप्पहाणा गुणलयणा सयलसूरिगुणनिहाणा, किं बहुणा ? जाव कुत्तियावणब्भूया जिणागमजलनिहिपारगा भट्टारगकुलप्पवरा जंगमजुगप्पहाण-भट्टारगा सिरि १०८ सिरिसिरिसिरिसिरिसिरिजिणमर्हिदसूरिसूरिनायगा सुविणीयपाठगवाचगसाहुसीसगणसपरिवारा तेपई सिरिपल्लियपुरिवराओर दंसणाभिलासी २. भिन्न लिपि में किनारे पर किसी ने "पल्लयपुरिवराओ" के स्थान पर
"खाचरोधनगराओ" लिखा है। वह भ्रामक है। क्योंकि आगे पत्र में संघ की ओर से "पालीखेत्र लायक है जीणसु पालीखेत्र में" लिखा गया है ।
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अनुसन्धान ३३ चलणपरियरियापरायणो आणाकारी सयलसावगजणसंघो सिरिपुज्जाणं वरभत्तीए अभिवंदिऊण विण्णत्ति विण्णवइ । तंजहा-मायंडमंडलावत्तप्पमाणपयाहिणेण परिमिया भुज्जो भुज्जो दुवालसावत्तवंदणावसेया। तहा इत्थ सिरिपुज्जाणं पसायओ सावगाणं सयलसुहमत्थि । सिरिपुज्जाणं साहुसीसपरियरसहियाणं सुहसायकुसलखेमाण पवत्तिं सया समीहाओ(मो?) । अवरं च-सिरिपुज्जाणं पज्जोसवणसव्वोदंतसंसूयगो किवापत्तो समागओ । अन्ने जे सावगाणं नामेणं पत्ता दिना ते सव्वेर्सि हत्थे पत्तेयं समप्पिया । पत्तमज्झत्थसमायारवायणाओ अईव आणंदो सिरिपुज्जचलणफासणक्कप्पो पयडीहुओ, बहूणं भव्वाणं सुहभावणा विवड्डिया । तहा य
इत्थ सिरिपज्जोसवणापव्वराओप्पहाणप्पबलवरतवनियमपोसहोववास पडिक्कमणेहिं महिमभरो जाओ । सिरिकप्पसुत्तस्स नव वक्खाणा बहुअविग्घेण अईवदित्ता जाया । वक्खाणं सोऊण बहूहि जणेहि कंदमूलराइभोयणपमुहमकज्जं परिहरियं । तहा य
सावय-सावियाण मज्झे छट्ठ-अट्ठम-दसम-दुवालसाइबहुविहो तवो जाओ। मासक्खमणमेगं चंपाभिहाणयाए सावियाए कयं । तहा संवच्छरिपडिक्कमणं एगसत्तरिसावगेहिं कयं । तत्थ य चत्तारि सावगेहि-गोलेछा भैरुदास, कटारीया छोटमल्ल उमेदमल्ल, बलाही गुमांनचंद, चोपडा सोभाचंद सुकलचंदनामेहिं सव्वेसि पडिक्कमणकारगाणं सिरिफलाणि पत्तेयं दिनाणि । संवच्छरिपारणगे पंचमिदिणे सव्वेहिं खरतरगणसावगेहिं साहम्मियवच्छलं कयं, तत्थ सावगा तिन्नि सया भुत्ता । अईव सोहा पाउब्भूया इच्चाइ धम्मकिच्चाणि हरिसेण संजाया। तहा
आसाढसुदिबीयबुहवाराओ सिरिआयारपढमअंगो वक्खाणे संघेण जयसेहरमुणिसगासाओ मंडाविओ, उवरिं महीवालचरित्तो भावणाहिगारे वच्चिज्जइ । तत्थ बहवे सावगा सुणणत्थमागच्छंती । जिणवाणीनीरकन्नफासाओ कम्मपंकमलसरीरत्थं धोवंति । संपयं लोगविजयाभिहाणबीयज्झयणस्स बितिउद्देसगस्स वक्खाणं हवइ । सिरिपुज्जाणं पभावओ बहुजणाणं धम्मफलं बोहिबीयमूलं वड्डिस्सइ एसा सिद्धंतसुणणदुल्लहसामग्गी अम्हारिसाणं मंदभग्गजणाणं पुज्जप्पभावं विणा अन्नत्थ कत्थ मिलइ । तहा य -
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जं किंचि संवच्छरंसि सावगेहि सिरिपुज्जाणं दुटुं विणयपडिवत्तिरहियं समायरियं सेत्तं गणवईहिं खमियव्वं उवसमियव्वं खमियमुचियढे सुयसायरटे बउसुयहरटे पसायपरटे सिरिपुज्जाणं सावगा खमंति उवसमंति, सिरिपुज्जेहि वि उवसमियव्वं । वयं सेवगा म्हि सेवगाणं भवयाणमेव लज्जा अत्थि, अम्हाणं तु सिरिमयाणमेव आधारोत्थि । किंबहुणा लिहिएण ? सावगजणेसु किवापीइभावो वड्डेयवो, न छड्डेयव्वो सिणेहो, तुब्भे खमासायरा गुणग्गाहिणो गुणनिहिणो परुवयारपरा विज्जह । तहा य 'जोगखेमकरो नाहो' इय निरुत्ती सिरिमएसु विज्जए । धन्ना तत्थ पुरनिवासिणो भवियजणा जे सिरिपुज्जाणं दंसणं निच्चं करिति, तुज्झ वयणकमलविणिग्गया अमयसरोवमा वाणी सुणंति । अम्हाणं दंसणाभिलासा एवं । यतः -
यथा चकोरस्तुहिनांशुबिम्बं, यथा रथाङ्गो दिवसाधिनाथम् ।
यथा मयूरो जलदं समन्तात्, तथा भवद्दर्शनलालसोऽहम् ॥ पुण पत्तप्पदाणेण धम्मनेहलया विवड्डणीया । यतः
मनोभूमौ जाता प्रकृतिचपला या विधिवशात्, गुरो वृद्धि नेया प्रचुरगुणपुष्पप्रसविनी । तथा संसेक्तव्या स्मृतिमुपगतैर्वाक्यसलिलै
येथेयं न म्लानिर्भवति मृदुलस्नेहलतिका । तहा अम्हाओ पुज्जभत्ती हीणपुन्नत्तणओ किमवि न संपज्जइ तस्सावराहो खमियव्वो । तहा तत्थ वायगसिरि ५ सागरचंदगणिमादीणं सव्वसाहूणं वंदणा कहेयव्वा । इत्थजोग्गं भत्तिकिच्चं लिहेयव्वं । पयमत्तक्खरहीणाहियस्सावराहो सोहेयव्वे(सहेयव्वो?) । वरिसे अट्ठारसयसत्तणउयाहिए कत्तिय-धवलसत्तमीए रविवारदिणे एसो विण्णत्तिलेहो जयसेहरेण मुणिणा लिहिओ ।
तथा श्रीसंघनी वीनती आ है - अठै श्रीसंघनै कीरपा कर वंदावसी। अप्रं च अठारा खेत्र जोग्य जांणने श्रीजी महाराज पं । श्री नेमचंदजी मनरूपजी नगराजजी जसराजजी नै मेलाया सो श्री जयनधरमनो बोहत उदोत हुवो । श्रीसंघ सरावक सरावीका ने वखांण वांणी सुणने धरमध्यांननो
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अनुसन्धान ३३ लाभ विशेष हुंवो, सु आवता चोमासारो आदेश ईणांने ही लीखावसी । आगे तो सारी(थारी?) मरजादा । उपासरारो हक सारो उठ गयो थो सो ईणांने मेलणासुं सारी वातरी मरजादरी वधोतर हुई । पंडित है, पालिखेत्र लायक है, जीणसु पालीखेत्र में तो वरस दोय तीन अठे ईणांनै ही रखायां खेत्र सुधरसी ने घणा जीव धरम पांमसी, वडो लाभ उपजसी । । लीखतु नाबरीया भगवानदास संतोकचंद री वंदणा वर १०८ अवधारसी
घणा मानसुं | ल ॥ परताबचंद ........ .... रा वंदणा बंचावसी १०८ । ला सा. अमीचंद साकरचंद नी वंदणा वार १०८ अवधारसी घणा
बहुमानथी द० लखमीचंद । लखतु गोलेछा भेरोंदास रखबचंद रा वंदणा १०८ वंचीओ धरम सनेह
रखावसी । लीखतु कटारीया सेरमल उमेदमलरी वंदणा १०८ वार अवधारसी । लीखतु कटारीया जेठमल फतहमलरी वंदणा १०८ वार वंचावसी धरम
सनेह रखावसी । लीखतु संघवी भीवराज नवलमल अर संघवी समस्तकी वंदणा १०८
अवधारसीजी घणा मान स द० नवलमल रा छ: ..... | लीखतु ........... | लीखतु लालचन्द हरकचन्द हलावार की वंदणा १०८ वार अवधारसी । लीखतु संतोकचन्द .......... नथमल गुलेछा री वंदणा १०८ वार अवधारसी । लीखतु भंणसाली रूपचन्द रखबदास री वंदणा १०८ वार अवधारसी | लीखतु पारसचन्द सूरचन्द सुकलचन्द री ........... वंदणा १०८ वार
अवधारसी । लीखतु ...... ...... लालचन्द मोतीचन्दरी वंदणा १०८ वार अवधारसी । लीखतु .................... वंदणा १०८ वार अवधारसी ..
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। लीखतु पुगलिया धनसुख री वंदणा १०८ वार अवधारसी करपा करने
पधारसी और......
। लीखतु गोलेछा अगरचन्द आलमचन्द री
अवधारसी
। लीख सुभकरण सेसकरण - लूणियारी वंदणा मालम १०८ वार होसी हस्तखत निहालचन्दरा छ :
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। लीखतु नथमल चपरोर वंदणा
१०८ वार अवधारसी
। लीखतु नगारामरा वंदणा वंचावसी वार १०८ वार वंचावसी धरम सनेह रखा जण वैसे ही रखावसी
.....
वंदणा १०८ वार करने
*.........
। लीखतु साल लखमीचन्द अर समसतरी वंदणा १०८ वार वंचावसी
। लीखतु पारख उमेदमल री वंदणा १०८ वार वंचावसी
। ली खजांची माणकचन्द अगरचन्द री वंदणा १०८ वार वंचावसी वंदणा श्री १०८ वार वंचावसी
। ली माणकचन्द कुनणमल
। लीखतु कांकरीया भींवराज री वंदणा १०८ वार वंचावसी वंदणा १०८ वार वंचावसी घणा मानसु करी ने
। लीख
। लीख नाहटा दौलतराम बुधमल जेठमल री वंदणा १०८ वार वंचावसी अवधारसी धमसनेह रखावसी,
लखतु लधाराम री वंदना वार १०८ अवधारसी धमसनेह रखावसी जी मोहणोत आज्ञाकारी वनेचन्द री वंदणा वार १०८ मालम होसी ।
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जिनभक्तिमय विविध गेय-रचनाओ
सं. मुनि कल्याणकीर्तिविजय
(१) पञ्चजिनस्तोत्राणि श्री आदिनाथ-शान्तिनाथ-नेमिनाथ- पार्श्वनाथ तथा महावीरस्वामीएम पांच जिनेश्वरोनी स्तवना आ पांच स्तोत्रोमां अपभ्रंशभाषामां करी छे. अत्यन्त भाववाही तथा मधुर रचना छे. परंतु कर्तानो उल्लेख क्यांय नथी. कदाच-छेल्ला स्तोत्रमा आवता उत्तम / कल्लाण शब्दोथी कर्ताए पोतानुं नाम जणाव्यु होय. विद्वानो प्रकाश पाडे.
प्रत्येक स्तोत्रमा ते ते भगवानना सम्यक्त्व पाम्या पछीना भवोनी गणना दर्शावी साथे ज तेमनां माता-पितानां नाम, पांच कल्याणकोनी तिथिओ, लाञ्छन- वर्ण-शरीरनी ऊंचाई-आयुष्य व. विगतोनी सुन्दर गूंथणी करी छे.
प्रतिपरिचय : चाणस्माना ज्ञानभण्डारनी पोथीनी झेरोक्ष नकल परथी आ रचनाओ सम्पादित थई छे. कुल पत्रो ८ (आठ) छे. तेमां पहेलां श्रीसोमप्रभसूरि विरचित यमकमय जिनस्तुतिचतुर्विंशतिका छे, त्यार बाद वस्तु छन्दोमय बीजी स्तुतिचतुर्विंशतिका छे, अने छेल्ले आ पांच स्तोत्रो छे. लेखन शुद्धि सारी छे. अक्षरो पण सुन्दर तथा सुवाच्य छे. लेखनशैली जोतां प्रायः १७मा सैकामां लखाई होय तेवू अनुमान थाय छे.
(२) अज्ञातकर्तृक-षड्भाषाबद्धश्रीचन्द्रप्रभस्तवः
आ स्तवमां संस्कृत-प्राकृत-शौरसेनी-मागधी-पैशाचिकीचूलिकापैशाचिकी तथा अपभ्रंश एम संस्कृतमां तथा प्राकृतनी छ भाषामां एक / बे श्लोको द्वारा श्रीचन्द्रप्रभस्वामीनी स्तुति करवामां आवी छे. समसंस्कृतप्राकृतभाषामां बे श्लोकोथी स्तुति करी छेल्ले फरी संस्कृत श्लोकथी उपसंहार करवा द्वारा स्तवनी समाप्ति करी छे. कुल पद्यो १३ (तेर) छे. शैली अत्यन्त रोचक छे. छन्दोनी पसंदगी पण ते ते भाषाने अनुरूप ज करी छे. कर्तानो कोई उल्लेख नथी.
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प्रतिपरिचय : वढवाणना ज्ञानभण्डारनी प्रतिनी झेरोक्ष नकल परथी आ कृतिनुं सम्पादन कर्यु छे. कुल २ (बे) पत्रो छे. अक्षरो सुवाच्य तथा सुन्दर छे. लेखनमां थोडी अशुद्धिओ रही गई छे. १२ मा पद्यमां छेल्लो शब्द भुरुहकुंजर छे तेना स्थाने बीजो कोई शब्द होवो जोईए. लेखनदोषथी भूल रही गई जणाय छे. प्रतिनुं लेखन गोंडलनगरमां थयुं छे. ___ (३) श्रीरामविजयजीकृत - विविधनामगुम्फित - श्रीजिनस्तवना
आ स्तवनामां जिनेश्वरभगवन्तनां जुदां जुदां ५२ (बावन) नामोथी स्तुति करवामां आवी छे. भाषा हिन्दी छे. शैली मधुर तथा भाववाही छे. कुल ७ कडी छे. कर्तानो उल्लेख अन्तिम कडीमां रांम एवा शब्दथी को छे, तेना उपरथी पं. सुमतिविजयजी कविना शिष्य पं. श्रीरामविजयजी होय तेवू अनुमान थई शके.
वढवाणना ज्ञानभण्डारनी प्रतिनी झेरोक्ष नकल परथी आ रचना सम्पादित थई छे. कुल पत्रो २ (बे) छे. बीजा पत्रमा षड्भाषाबद्ध श्रीचन्द्रप्रभस्तव छे. अक्षरो सुन्दर छे. तेनुं लेखन गोंडलनगरमां थयुं छे, तेवू प्रान्ते लखेल पुष्पिकाथी जणाय छे. लेखनकाळ १८मो सैको होवानुं अनुमान थाय छे. (१) पञ्चजिनस्तोत्राणि
श्री आदिनाथस्तोत्रम् जय जयपईव ! कुंतलकलाव-विलसंतबहुलकज्जलसहाव ! । कलहूयकंति ! मरुदेवि-नाभि-निवतणय ! रिसहवसहंक ! सामि ! ॥१॥ धण-मिहुण-तियस-नरनाह-देव-निववयरजंघ-मिहुणे-स चेव । सोहम्म-विज्ज-अच्चुय-चक्कि-सव्वट्ठसिद्धि-अवयरी(रि)अ इत्थि ॥२॥ आसाढबहुल चवीउ चउत्थि, कसिणट्ठमि जायउ मास चित्ति । इक्खागु भूमि नयरी विणीय, धणु पंचसय तिहि तणु पणीय ॥३॥ चित्तट्ठमि गिन्हइ सामि दिक्ख, चउ सहस समन्निय कसिण पक्खि । इग्यारसि बहुली फग्गुणस्स, संपज्जइ केवलनाण तस्स ॥४॥
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अनुसन्धान ३३
माह वदि तेरसि उज्जल-निय-जसि पुव्वलक्ख चुलसीय-जू(जु)य । जय पढमजिणेसर ! सू(सु)अभरहेसर !, करि पसाउ निम्मलचरी(रि)य ॥५॥
॥ इति श्रीआदिनाथस्तोत्रम् ॥
श्रीशान्तिनाथस्तोत्रम् ॥ वीससेण-अइरादेविनंदण ! तणुहरण ! जय अपुव्वहरिणक-अखंडियतणुकिरण ! । सिरिसिरिसेण-कुरुनर-सोहम्म-खयरनिवपाणय-सो अपराजी(जि)य-अच्चुयइंदभव ! ॥१॥ विज्जाहिव-गेविज्ज-नरवइमेहरहसव्वट्ठ अवयन्नउ गयउर संतियह । भाद्रवए वदि-सातमि सामी चवण तुह जिट्ठ-कसिण-तेरसि-निसि जायउ जम्भमहो ॥२॥ जिट्ठ-चउद्दसि-बहुलीय संजमसिरि वरीय पोस-सुदि-नउमि-दिणि केवलवरि वरीय । जिट्ठ-कसिण-तेरसिनिसि कंचणकंतितणु मुक्खसुक्ख पहु पामीय छंडिय कम्मवण ॥३॥ चउसट्ठि सहस-अंतउर चुलसीयलक्खयहय-गय-रहवर छन्नवइकोडि-पायक तह य । नवनिहि चऊदरयण छक्खंड-सभूमिवर धम्मचक्कि सोलसमु पंचम चक्कहर ॥४॥ चालीसधणुहदेहो, लक्खं वरिसाण जीवियं जस्स । सो संतिनाहदेवो, करेइ संघस्स सिवसंती ॥५॥
॥ इति श्रीशान्तिनाथस्तोत्रम् ॥
श्रीनेमिनाथ स्तोत्रम् ॥ पंचजन्नि-आउरिय-संख जिणि दिणह अज्ज वि जसु पय सेवइ लंछणमिसि जिणह ।
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रायमई-मणवल्लह सोहगसुंदरह नेमि-चरीयन्निज्जइ फलिणी-सामलह ॥१॥ आसि धणो तसु दइया धणवई, सुहमसुर चित्तगइविज्जाहर-रयणमइ, महिंदसुर । अपराजी(जि)य-प्री(प्रि)य-प्रीयमइ पायारणह संखनिवो तसु जसुमइ प्री(प्रि)य, अपराजी(जि)यह ॥२॥ नवमभवे सोरियपुरि समुदविजय-घरणि सिवादेविराणी नंदण जायु कुल-तसुण । कत्ती किसिण दुवालसि अपराजी(जि)य-चवणु श्रावणसिय पहु पंचमि मंदरगिरि-ण्हवण ॥३॥ सी(सि)य-छट्ठि सावण सहससमन्निय-वयगहणं रेवइ गिरिवरि सामी रायमह-परिहरणं । दिण चउपन्न-अणंतर आसोऽमावसह केवलनाणी विहरइ तणु जसु दस धणुह ॥४॥ जीविय वरिस-सहस्सं आसाढे अट्ठमीय सियपक्खे । संपत्तं सिद्धिसुहं उज्जिते नमह नेमिजिणं ॥५॥
॥ इति नेमिनाथस्तोत्रम् ॥
श्रीपार्श्वनाथस्तोत्रम् ॥ सामि-सामलय-तणु-कंति-किरणावली, जयउ विलसंत-कल्लाण-घण-मंडली । जयउ धरणिंद-फणि-रयण-रय-विज्जला, भवियघ(ज?)ण-मोर नच्चंति हरिसुज्जला ॥१॥ नाह मर(रु) भूइ-भवि भमी(मि)य वणि गयवरो, देव-सहसार विज्जाहरज्यूअ(हरऽच्चुअ)-सुरो । विज्जनाहो य गोविज्ज कणयापहो चक्कवट्टी य पाणयविमाणच्चुउ(ओ) ॥२॥
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अनुसन्धान ३३
चित्त-चउत्थीइ कसिणाइ वाणारसीनयरि निव-आससेणस्स वामा सई । पोसदसमीइ कसिणाइ जम्मुत्सवो तास इग्यारसी गिण्हए संजमो ॥३॥ कसिण-चउत्थीइ चित्तस्स तुह केवलं सुद्ध-अट्ठमिहिं श्रावणह पत्तो सिवं । नाह-तणुमाण नव-हत्थ फणिलंबणो वरिससउ आउ जिण नयण-आणंदणो ॥४॥ जिण विघन-विणासण-पाव-पणासण पास पसन्नउ होउ महो । पउमावइदेवी जसु पयसेवी मनवंछित-सुह देउ महो ॥५॥
॥ इति श्रीपार्श्वनाथस्तोत्रम् ॥
श्रीमहावीरस्तोत्रम् ॥ जयउ सो सामी वीरजिणंदो, पिक्खिय लंछणि जासु मइंदो । संगमकामिणि-मणि-मणि-वासो, कामकरी किम करइ उल्हासो ॥१॥ नयसार-सोहमि-मिरीय-सुबंभे, कोसी(सि)य-सुर-वसुमित्त-सुहम्मे । अग्गिजोई-ईसाण-ऽगिभूई, सिरिभारदह-महिंद-चउगई ॥२॥ थावर-सुर-वसुभूइ य सक्के, हरि-नारय-सीह-नारय-चक्के(क्की?) । सकीय नंदण-पाणय-चवीउ, देवाणंदा-ऊ(उ)अरि अवयरिउ ॥३॥ सी(सि)यछट्ठि-ऽसाढह वसीउ बियासी-दिणि आणेई हरिणेगमेसी । कुंडगामि सिद्धत्थह नरवइ-वालंभ-त्रिसला तसु कुक्खि आवइ ॥४॥ चैत्र-सी(सि)य-तेरसि जायु जम्म, मेरु-कंपावी(वि)य सुणीइ रम्म । छप्पियनंदण दईय जसोआ, नंदिवर्धन पहो जाणे भाया ॥५॥ बहुल-दसमि पहु मगसिरमासह, दिक्ख लेउ सही(हि) या उवसग-सहस । सिय-वइसाह-दसमिइं केवल, कत्ती(त्ति)यऽमावस सुद्ध-सी(सि)य-निम्मल ॥६।।
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इय जिणवीरह कणयसरीरह सत्तहत्थ - उच्चत्ततणु ।
जय गणहरगोयम ! जगि जस उत्तम फली (लि) य-सयल - कल्लाणवण ॥७॥
॥ इति श्रीमहावीरस्तोत्रम् ॥
(२) अथ चन्द्रप्रभुस्तव[:] षड्भाषाबन्ध[द्धः ] लिख्यते ॥ नमो महसेननरेन्द्रतनु (नू)ज ! जगज्जनलोचनभृङ्गसरोज ! | स(श) रद्भवसोमसमद्युतिकाय ! दयामय ! तुभ्यमनन्तसुखाय ! ॥१॥ सुखीकृतसादरसेवकलक्ष ! विनिर्जितदुर्जयभावविपक्ष ! | सुरासुरवृन्दनमस्कृत ! नन्द महोदयकल्पमहीरुहकन्द ! ॥२॥ ॥ इति संस्कृतभाषा ॥
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[ छन्द: पज्झटिका ]
जय नीरसीय (निरसिय) तिहुयणजंतुभंति ! जय मोहमहीरुहदलणदंति ! | जय कुंदकलीसमदंतपंति ! जय जय चंदपह ! चंदकंति ! ॥३॥ जय पणयपाणिगणकप्परुक्ख ! जय जगडियपयडकसायपक्ख ! | जय निम्मलकेवलनाणगेह! जय जय जिणंद ! अपडिमदेह ! || ४ || ॥ इति प्राकृतभाषा ॥ विगद - दुहहेदु-मोहारिकेदूदयं दलिद-गुरु-दुरिद-मद- विहद-कुमुदख (क्ख) यं । नाध ! तं नमदि जो सदद- नद- वच्छलं लहदि नी (नि) व्वुदिगदि (दिं) सो ददं निम्मलां (लं) ॥५॥ इति सू( शू ) रसेनीभाषा ॥ असुल-सुल - विसल-नल- लाय - सेविदपदे नमिल - जयजंतु - तुदि
दी (दि)न्न - शिवपुल - पदे ।
चलण-पू(पु)ल-निलद - संसालि-सलसीलुहे देहि मह शामि ! तुं शालशासद - पदे ॥ ६ ॥ ॥ इति मागधि ( धी ) भाषा ॥
[ छन्दः त्रोटकः ]
तलिताखिल-तोस-तया - सतनं मद (त) नानल-नील - ममानगुणं । नालिनारुण-पात-तलं नमते जिन ! जो इध तं स शि(सि) वं लभते ||७||
॥ इति पैसाचकी ( पैशाचिकी ) भाषा ॥
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अनुसन्धान ३३
[ छन्दः त्रोटक: ] कलनालिकनातुल-तप्प-हलं लचनीकल-चालु-यसप्पसलं । ललनाचन-कीत-कुनं लुचिलं चिनलाचमहं समलामि चिलं ॥८॥
॥ इति चौलिकापैशाचिकीभाषा ||
[ छन्दः द्विपदी ] सासयसुक्खनिहाणं नाह ! न दिठो(ट्ठो) जेण तुह । पुण्यविहूणो जाण निप्प(प्फ)लजमु(म्मु) तिह नरपसुह ॥९॥ निम्मल तुह मुहचंद्रु जे पहु ! पिक्खई(इ) पससिरई । ईय निरुवमआणंदु तिह मन सांमी विफू(प्फु)रई ॥१०॥
|| इत्यपभ्रंसि( शे) ॥ हारी(रि)हार-हरहास-कुंद-सुंदर देहभय (मय !) केवलकमलाकेलिनी(नि)लय ! मंजुलगुणगणमय ! । कमलारुणकरचरण ! भरधरणधवलबल ! सिद्धिरमणीसंगमवी(वि)लासलालस ! मलमवदल ॥११॥ भवदव-नवजलवाह ! विमलमंगल-कुलमंदिर ! वामकाम-कलकेलिहरण-हर ! वरगुणबंधुर ! | मंदिरगीर(मंदरगिरि)-गुरुसार ! सबलकर-भु(भू)रुहकुंजर ! देहि महोदयमेव देव ! मम भुरुहकुंजर(?) ॥१२॥
॥ इति समसंस्कृतभाषा |
[ छन्दः घत्ता ] इति जगदभिनन्दन ! जनहदि नन्दन ! चन्द्रप्रभुजिनचन्द्रवर ! घट(ड्)भाषाभिष्टुत ! मम मङ्गलयुत ! सिद्धिसुखानि वी(वि)भो ! वितर ॥१३॥
॥ इति श्रीषड्भाषाबद्ध-चन्द्रप्रभस्तवमिदम् ॥ लि. श्रीगौडलनगरे ॥
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(३) श्रीरामविजयजीकृत - विविधनामगुम्फित-श्रीजिनस्तवना
अथ जिनस्तवना लिख्यते ॥ मुंनिध्येय नमो, सुरगेय नमो, पतितपावन सुचिनांम नमो । चिंतितसकलमनोरथपूरण, कल्पतरुपरिणाम नमो |मुं० ॥१॥ जिन मुंनी(नि)नाथ जिनेस्वर संकर, परमातम अरिहंत नमो । पारंगत परिमेष्ठि अधि(धी)स्वर, भयभंजण भगवंत नमो ||मुं० ॥२॥ संभु स्वयंभु जगतप्रभु अभयद, वि(वी)तराग गुंणसिंधु नमो । बोधदायक त्रिहुंकाल के ग्यायक, असरण-सरण सुबंधु नमो मुं० ॥३॥ केवलकमलाकंत महोदय, सिद्ध बुद्ध सर्वज्ञ नमो । ति(ती)र्थंकर ति(ती)र्थेस्वर ईश्वर, पुरुषोत्तम परमज्ञ नमो |मुं० ॥४॥ आसअनंत अचिंतगुंणाकर, निरमोहि-अविकार नमो । पूर्णानंद सयंबुद्ध साहिब, योगीसर जी(जि)तमार नमो ||मुं० ||५|| लोकालोकप्रकासक भासक, आनंदघन अविनास नमो । देवाधिदेव एक सरण तेरो, क्षायकभाव-विलास नमो |मुं० ॥६|| ईत्यादिक सुभनाम के धारक, करु प्रणिपति त्रिहुं काल नमो । रांम कहें तेरा सेवक उपर, करुणा दि(दी)नदयाल नमो |मुं० ॥७॥
॥ इति श्रीजिनस्तुति ॥
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महोपाध्याय श्रीमेघविजयगणिरचितः सेवालेखः ।
सं. विजयशीलचन्द्रसूरि महोपाध्याय श्रीमेघविजयजी ए १८मा शतकमां थयेल जैन साधुविद्वानोना वृन्दमां एक यशोज्ज्वल अने अग्रगण्य विद्वान् साधुपुरुष छे. तेमनी रचनाओ तेमने संस्कृतना महान् कविराजोनी हरोळमां मूकी आपे तेवी प्रगल्भ अने प्रासादिक होय छे.
तेमनो सत्तासमय १७मा शतकनो पश्चार्द्ध अने १८मा शतकनो पूर्वार्द्ध छे. तेमणे अनेक विषयो पर अनेक रचनाओ संस्कृत आदि भाषाओमां करी छे, तेमना समयमां संस्कत-काव्यात्मक पत्रलेखननी प्रवृत्ति खूब विकसेली हती. अनेक विद्वान् मुनिराजो पोतपोताना गुरुजनो पर लांबा अने विद्वत्तानी चमत्कृतिओथी भरपूर एवा पत्रो लखता-मोकलता. आ पत्रोने 'विज्ञप्तिपत्र' ना नामे ओळखवामां आवे छे. पोतानामां रहेल सर्जनात्मक उन्मेषने उजागर करवानुं आ पत्रलेखन एक सबळ माध्यम आ समयमां बनी रहेलुं, महोपाध्याय मेघविजयजीए पण आवा अनेक पत्रो लख्या हता, जेमांना बे विज्ञप्तिपत्रो - १. मेघदूत समस्यापूर्ति-विज्ञप्तिलेख अने २. विज्ञप्तिका एवा नामे श्रीजिनविजयसम्पादित 'विज्ञप्तिलेखसंग्रह' (ई. १९६०, सिंघी सिरीझ)मां प्रकाशित छे. प्रथम पत्र औरङ्गाबादथी गच्छपति विजयप्रभसूरि उपरनो छे, तो द्वितीय पत्र द्वीपपत्तने (दीवबन्दरे) विराजता गच्छपति श्रीविजयदेवसूरि उपर लखायेल छे. लेखन/रचना-वर्ष कोई पत्रमा नोंधायेल नथी. बन्ने पत्रोमां अनुक्रमे १३० तथा १२५ पद्यो छे, जे काव्यतत्त्वनी दृष्टिए अद्भुत गणाय तेवां छे. तेमां पण प्रथम पत्र तो कविकुलगुरु कालिदासना मेघदूतकाव्यनी पादपूर्तिरूप छे, जे अनेक रीते महत्त्वपूर्ण छे. ए पत्रना छेडे तेमणे एक ,श्लोकमां' आपेली नोंध प्रमाणे तेमणे माघकाव्यनी पादपूर्तिरूप विज्ञप्तिपत्र विजयदेवसूरि उपर लखेलो हतो. आ पत्र अद्यावधि उपलब्ध या प्रकाशित होवानुं जाणमां नथी. विज्ञप्तिलेखसंग्रहना प्रास्ताविकमां श्रीजिनविजयमुनिए नोंध्युं छे ते प्रमाणे, १. माघकाव्यं देवगुरोर्मेघदूतं प्रभप्रभोः ।
समस्यार्थं समस्यार्थं निर्ममे मेघपण्डितः ॥ (विज्ञप्ति लेखसंग्रह, पृ. १०६)
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तेमणे एकत्र करेल तथा प्रगट करवा धारेल पत्रसंग्रह ( बीजो भाग) मां ए पत्र - काव्य होई शके. परन्तु ते सामग्री आजे तो कालग्रस्त थई दीसे छे. कोई संग्रहमां आ पत्र के तेनी नकलरूप प्रत होई शके. कोई बुधजन ते प्रकाशित करशे तो बहु आनन्द थशे.
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अहीं प्रगट थतो पत्र ते अद्यावधि अज्ञातप्राय एवो 'सेवालेख' नामक पत्र छे, जे बर्हानपुरे चोमासुं रहेला श्रीमेघविजयजीए दीवबन्दरे विराजमान गच्छनायक श्रीविजयप्रभसूरि उपर लखेल क्षमापना - पत्ररूप छे, अने तेनुं श्लोकमान १९० छे.
आ सेवालेखनी एकमात्र प्रति श्रीकान्तिविजयजी भण्डार ( वडोदरा के छाणी) मां छे, अने त्यां तेनो क्रमांक २२६३ / २ एम छे. तेनी झेरोक्स नकल परथी आ सम्पादन करवामां आव्युं छे. आ प्रति प्राचीन नथी, परन्तु वीसमा शतकनी होय तेम जणाय छे, कदाच श्रीकान्तिविजयजीए ज तेनी नकल लखावी होय तो बनवाजोग छे. प्रति अशुद्ध घणी छे. छ पत्रनी प्रत छे.
प्रारम्भना ३३ श्लोकोमां जिनप्रतिमा अने तेना परिकरनुं वर्णन छे, अने ३४ थी ५३ मां मनमोहन पार्श्वनाथनुं वर्णन छे. ५२मा श्लोकमां अन्य जिनबिम्बोनो पण उल्लेख थयो छे. कुल ५३ पद्योमां जिनवर्णन थयुं छे.
ते पछी सौराष्ट्रदेशनं अने द्वीपबन्दरनुं वर्णन छे (५४-७६). ते पछी बर्हानपुरनुं वर्णन छे (७७-९०). ते शहेरमां साधु (शाह) रूपजीनो उपाश्रय छे (९१), तेमां व्याख्यागवाक्ष अर्थात् व्याख्याननी पाट छे तेमज तेना उपर चन्द्रोदय - चंदरवो होवानुं पण वर्णन थयुं छे (९३-९४). व्याख्यान श्रवण करनारा प्रबुद्ध श्रोताओ द्वारा 'तहत्ति' शब्द द्वारा अपाता, वक्तानो उत्साहउन्मेष वधारनारा होंकारा नुं पण बयान थयुं छे अहीं (९७). ९८-९९ मां धनजी, जिनदास जेवा श्रावकोनां नामो वणवामां आव्यां छे. १०१मां श्राविकाओनी तपश्चर्या विशे निर्देश थयो छे. बुरानपुरनो शासक अवरंगशाह होवानो निर्देश ११३ अने ११७ द्वारा मळे छे. ११८मां पोताना गुरुना आदेशथी आ लेख लखी रह्या होवानुं, पोताना नाम साथे, कर्ता निर्देशे छे.
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अनुसन्धान ३३ ११९ मा पद्यथी समाचारवर्णन थाय छे. पन्नवणा सूत्र, जीवाभिगमसूत्र वगेरे आगमशास्त्रो पर व्याख्यान चाली रह्यां होवाना (१२९-३०), तथा पाणिनिव्याकरण-महाभाष्य, सिद्धहेमव्याकरण तथा अनुभूतिस्वरूपाचार्यना ग्रन्थोनुं अध्ययन शिष्योने चालतुं होवाना (१३१) तेमज साहित्यग्रन्थोनो तथा नयवादनो अभ्यास चालतो होवाना (१३२) समाचार मुख्य छे. योगोद्वहन तथा उपधाननी क्रियाओना (१३३), स्नात्रना तथा अष्टाह्निका महोत्सवोना (१३४-३५) तथा पर्युषणापर्वना पण समाचार लख्या छे. चैत्यप्रवाडी (१४१-४६)नी पण विगते नोंध छे. १४७मां वार्षिक प्रतिक्रमणनी तथा खमतखामणांनी वात थई छे.
१४८ थी पारणानुं वर्णन थयुं छे. धनजी श्रावके स्थानिक तपस्वीओनां पारणांनो अने कल्लूश्रावके देशावरना आराधकोनां पारणांनो लाभ लीधो छे (१४९). १५१ थी १५६ मां भोजनना मीठां पक्वान्नोनुं रोचक वर्णन थयुं छे. तेमां पण 'जलेबी' नामनी परदेशी मीठाईनुं वर्णन अद्भुत छे : "साकरघीथी मिश्रित जलेबीनां त्रण वलयो ते त्रण रेखाओथी वीटायेल ह्रींकाररूप बीजमन्त्र-समान दीसे छे. ह्रींकारनो प्रयोग यन्त्रोमां पिशाचादि तत्त्वोनो नाश करवा माटे थाय छे तेम आनो प्रयोग क्षुधा नामक पिशाचीना नाश माटे छे," आम वर्णवीने कवि पोतानी प्रतिभानो नवलो चमकारो देखाडे छे. पद्य १५५मां 'पीरस' क्रिया माटे 'परीप्सितं'नो प्रयोग ए जैन संस्कृतनी आगवी लाक्षणिकता दर्शावतो प्रयोग छे. आ पछीना श्लोकोमा गुरुवर्णन छे, अने अन्तिम बे पद्योमा उपसंहार थयो छे.
कुल श्लोको १९० छे, केमके १५३ मा श्लोकना बे पाठ छे. तेने जो गणनामां न लईए तो १८९ श्लोको गणाय तेम छे.
सेवालेखनु समग्र वाचन करतां ते एक सरस अने समर्थ काव्यरचना होवानुं प्रतीत थया विना रहेतुं नथी. कर्ता कविए ठेरठेर पोतानी चमत्कृतिजनक कविप्रतिभा पाथरी छे, तेवं आ अशुद्ध वाचना वांचतां पण स्फुटपणे समजाय छे. जो आनी शद्ध वाचना मळे तो तो केवी मजा पडी जाय ! अस्त.
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सेवालेखः ॥
स्वस्ति श्रीः प्रसभं सभासु भगवत्पादाग्रजाग्रन्नखान् दृष्ट्वा तत्र हिमांशुमण्डलमिलत्प्रेमानुलोम्यादिव । आगत्य स्थिरतारता समभवन्नित्या श्रमाशाऽ श्रमात् प्रीति संस्पृशती सितांशुनलिनस्थानद्वयीसम्भवाम् ॥१॥
यद्वा
स्वस्तिश्रिया बोधिविधोर्मृगोऽयं भ्रातुः करक्तेन चिदाग्रहेण । नष्टोऽप्यनुष्टः समतिष्टदिष्टा - र्हदास्यपीयूषमयूखदृष्टैः ॥२॥ वैकुण्ठकण्ठं परिहृत्य स ( ? ) तस्मात् पयोधिपुत्री जिनपादपद्मे । स्थिता तमाधाय मृगं मृगाङ्गः शङ्के बभूवाऽभयदस्ततोऽयम् ॥३॥ श्रियः स्थितेश्चिह्नमिहास्ति हस्ती सिंहासने वाहनमेतदीये । परेऽपि नागाः कमलाऽभिषेक - क्रियानुरागादिह किं भजन्ति ॥४॥ पयोधिपुत्र्या इति सन्निधाने ऽप्यहो ! महीयान् महिमा जिनस्य । यद् गीयते योगिवरैरजस्रं शिवः स्वरूपेण महाव्रतीति ॥५॥ महाव्रतित्वं किमवेत्य सत्या - नुरागयोगादिह पार्वतीयम् । देव्या: स्वरूपात् प्रभुमभ्युपेता विचित्ररूपत्रिदशैः परीता ॥६॥ असह्यवीर्यप्रभयानुविद्धां भयानुविद्धाङ्गभृतां नितान्तम् । रक्षासु दक्षां समवेत्य गौरीं सिंहो मनस्ताल इवाऽत्र तस्थौ ||७|| सिंहोऽद्वितीयः प्रभया द्वितीयः सिंहासनेऽस्य प्रतिमेव रेजे । श्रीवीरलक्ष्मेव निजं सिसक्षुः किमाविरासीदविहार्यधैर्यः ॥८॥ दि (दे) ही महोत्साह इवैष सिंहः स्याद्वाहनं चेज्जिनसेवनेन । तदाऽन्तरिक्षाक्षयमार्गमेन- मुल्लङ्घ्य वेगात् समुपैमि पारम् ॥९॥ इतीव विस्तीर्णसहस्रचञ्चत्करः प्रभाकृत् किमुपाजगाम । भामण्डलस्य च्छलतोऽच्छमूर्तिः सप्ताश्वसंवाहनकर्मखिन्नः ॥१०॥ मन्येऽस्य भूयः प्रसरत्य ( प्र ? ) तापसन्तापतः क्लिश्यतु मैष लोकः । जिनप्रणामे तदसावशोक - व्याजेन किं नन्दननिष्कुटोऽगात् ॥११॥
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अनुसन्धान ३३
तद्गन्धसम्बन्धपरम्पराभि-राकृष्टचेता इव नाकिनेता । किमुह्यमानः सहजेन भानो- नोदिताशेषतमाः समायात् ॥१२॥ तत्प्रेमपीयूषभराभिमत्ता रम्भा इवेयुर्जिनपूजनार्थम् । पुष्पाण्युपादाय विधाय माला-मालापरम्यास्त्रिदशाभिगम्याः ॥१३॥ भानुप्रभोज्जृम्भिसहस्रपत्र-नेत्रा: स्वनेत्राणि] समुल्ललन्ती(न्ति) । ताः प्रेक्ष्य सम्यग् निजनेत्रसाम्य-प्रेक्षाकृतेऽस्थान्मृगयुग्ममेतत् ॥१४॥ तत्सङ्गमायेव निजैणबालं कृताशयं शीतरुचिर्विचार्य । किमातपत्रत्रयकैतवेन त्रिमूर्तिभर्ता समुदीत एषः ॥१५॥ करप्रसारात् किममुष्य पुष्यत् श्रीधर्मचक्रव्यपदेशनेन । सपल्लवं कैरवमेतदुच्चै-श्चिराय रोचिः शुचि संचिनोति ॥१६॥ निजोदयस्याऽव्यभिचारिचिह्न-मालोच्य काम: समयं सकामम् । ववर्ष रोषादिव पुष्पबाणै-जेतुं जगत्यां विजयी जिनेन्द्रम् ॥१५(१७)। अयं प्रभुश्चामरचामरौघैः संवीज्यमानः कृतदिव्यरूप: । आरुह्य सिंहासनसिंहमुच्चै-रवादयद् दुन्दुभिमन्तरिक्षे ॥१६(१८)। तत्राद एव स्मरनिर्जयाय बभूव शक्तस्तत एव युक्तम् । जगत्प्रभोः पाणितले शयालु-सनस्तदीयध्वज एष पीनः ॥१७(१९)। अदानमीनस्फुरितप्तिशोभ-स्मराभवत्पाणिपया(यो)जराजि । जिनार्यपर्या(र्य?)ङ्कसरो विरेजो(जे) रजोवियुक्तद्युतिपूरनीरम् ॥१८(२०)। श्रीदक्षिणामुख्यपुर(रे?) निवासी, जिनोऽस्त्यगस्तिस्तत एव मन्ये । पयोनिधिः पूर्वनिपान(त?)भीतोऽन्वास्तेऽत्र पर्यङ्कसरःश्रिया किम् ?
॥१९(२१)। संक्रान्तकान्तद्युतिपल्लवश्री-कंकेल्लिरूपामरवृक्षलक्ष्यः । छत्रत्रयस्य प्रतिबिम्बनेन यः सम्भवं सूचयति स्म राज्ञः ॥२०(२२)। नागादिदेवप्रतिमाविशेषै-र्यो मथ्यमानः प्रतिबिम्बवेषैः । चलाचलैः कान्तिजलैरजस्रं संक्षोभशोभामुदयाम्बभूव ॥२१(२३)।। शिलान्तरोट्टङ्कितहस्तिमल्ला चित्रार्पितोच्चैःश्रवआदिबिम्बैः । आलोड्य धामं छुरयं सकंछु(?) र्बभाविहेषत्स्मितपुष्पयोगात् ॥२२(२४)।
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प्रादुष्करोतीव दिवोऽम्बुजाक्षीः साक्षी यतोऽयं प्रणमद्वधूनाम् । वपुःप्रतिच्छन्दभरच्छलेन प्रसूनपुञ्जेन स फेनपिण्डः ॥२३(२५)॥ जिनेन्द्रमूर्तेः पुरतः स्फुरन्तः स्नेहप्रिया: स्वप्रतिमाक्रियाभिः । उभिषं वाडवहव्यवाहं प्रज्ञापयन्तीव नमज्जनानाम् ॥२४(२६)। जिनस्य शीर्ष ननु शातकुम्भः कुम्भः स पर्यङ्कपयोधिमध्ये । संक्रान्तमूर्तिर्वरपूर्णकुम्भ-समुद्भवं ख्यापयतीव मन्ये ॥२५(२७)। प्रसारयामास दिशां चतुष्के कीर्तीः स मूर्तीरिव य: स्वकीयाः । मुक्तावलीशालिविभूषणानां परिस्फुरबिम्बकदम्बकेन ॥२८॥ उद्यद्दिवारत्नसपत्नपाद-द्वयी नखाङ्करमयूखपूरैः । प्रवाललीला(लां) विदधेऽत्र सिन्धौ मूतॆरिवार्हद्वदनेन्दुरागैः ॥२९।। स्नात्रार्थिनः पूर्णकरीरहस्तान्न मन्यते कः समवेक्ष्य तत्र । सुधार्थधावद्विबुधान् विधानै-रम्भोधिमन्थप्रसृतावधानैः ॥३०॥ रसाग्रहादेव नवग्रहाः किं स्थितास्तमालोक्य तटस्थरीत्या ? | जिघृक्षवः श्राद्धवधूविकीर्णान्। वर्धापनामौक्तिकसौधबिन्दून् ॥३१॥ पर्यङ्कपाथोवि(नि)धिमुल्लसन्तं मंशुरूपै(?)श्चलाचलैर्वीचिभिारुाल्लसन्तम् । हसन्तमेकत्रिदिवे वसन्तं जनं घनै रत्नधनैः श्वसन्तम् ॥३२॥ स्वस्तिश्रियाऽऽलोक्य निजैः प्रसङ्ग-मभङ्गमुत्सङ्गगतं मनोऽन्तः । विचिन्तयन्त्येव पितुविशेष-प्रीत्याऽधितष्ठे जिनपादपद्ये ॥३३॥
अथाऽस्मिन्नेवाधिकारे श्रीमनमोहनपार्श्ववर्णनम् ॥ अथात्र विश्वत्रितयी जनानां प्रियां प्रियान्तां समवेक्ष्य साक्षात् । स्वयं सिसक्षुर्मनमोहनाख्य-पार्श्वश्रिया श्रीपतिराजगाम ॥३४॥ जाग्रद्दशा ह्यस्य दशावतारा भवावतारा इव मूर्तिभाजः । अगण्यपुण्यर्द्धिसमृद्धियोगा-ज्जाता नृणां दुर्नरकादिभित्त्यै ॥३५॥ अस्याऽभिधानाक्षरसन्निधान-व्यामुह्यमाना अपि मानवौघाः । सव्यासमुक्तीन्दुमुखी विलास-चातुर्यकेली कलयन्ति चित्रम् ॥३६।। शेषोऽपि निःशेषभुजङ्गरत्नं यत्नेन पर्यवैविधां विधित्सुः । निषेवते देवमिमं फणाभिः छत्रस्य शोभां रचयन्नदम्भाम् ॥३७||
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अनुसन्धान ३३
मन्ये तदुत्सङ्गरुचां प्रचारै-रुद्यद्भिरिन्दुप्रतिमानुसारैः । परीवृतोऽयं भगवान् बभूव श्यामोऽपि नामोदितशुभ्रधामा ॥३८॥ नाथस्य नामापि सुधाब्धिपाथः, पापाग्निसन्तापविनाशनाय । यत्कण्ठपीठे लुलितं जनाः स्यु-निरञ्जनास्तेऽञ्जनरूपिणोऽपि ॥३९॥ भक्तिप्रसक्तैर्मनुजैर्जिनस्य विधीयते पूजनकर्म मोदात् । तेनेव वाल्हीकविलेपनेन प्रभुः स पीताम्बरतां बभार ॥४०॥ फणाशिरःस्थाष्णुसुराध्वरत्न-सपत्नरत्नावलिरुल्लसन्ती । आरात्रिकस्यात्र बिभर्ति लीलां, प्रभोः पुरस्तान्नितमां तमोघ्नी ॥४१॥ ज्वलद्विचित्रौषधिलब्धभासं श्रीमान् जिनः कोटिशिलां विलासात् । समुद्दधारेव मणीविचित्र-फणातपत्रव्यपदेशतः किम् ? ॥४२॥ फणामणिश्रेणिमिषेण मन्ये तारा बभूवुर्वसुधावताराः । प्रभोधरोद्धारधुरन्धरस्य किमस्य वक्त्रे शशिनिश्चयेन ॥४३॥ अनेकशो भासुरसंभू(?)तानि, व्यगाहतास्य त्रिपदी जगन्ति । आविर्बभूवुर्भुवनस्य भावा दिव्याः करस्था इव तज्जनानाम् ॥४४॥ किमातपत्रत्रयकैतवेन त्रयं समुद्धृत्य वसुन्धरा सा:(या:?) । कन्दायिस्यन्दविमुक्तशेषं(?) दधौ जिनेन्द्रः पुरुषोत्तमत्वम् ॥४५|| उरीकृताशेषविशेषरोचि-निधाय शेषाहिफणाकिरीटम् । मणिप्रभोद्दीपितदिग्विभागं विवाहरूपं विदधे जिनेन्द्रः ॥४६॥ स्वस्तिश्रियाः पाणिनिपीडनस्य महे महोत्साहधरं तदेनम् । मत्वेव नेमिर्भगवानजन्य-हन्तात्र जन्योऽजनि सोदरत्वात् ॥४७॥ स पाञ्चजन्यो हरिशङ्खरत्न-माध्मायि यनेमिजिनाधिराजा । तत् श्वाससौरभ्यभरातिलोभा-लक्ष्मश्रियाऽशिश्रियदंहिपद्मम् ॥४८।। जिनांहिपद्मद्वयजन्मशोभा-पराभिभूतं किमु पुण्डरीकम् । त्रिरेखदम्भाद्विनयेन किञ्चित् संकुच्य सेवां तनुते तदीयाम् ॥४९|| गलस्थलेनस्तदियं त्रिरेखी स्वरत्रयस्योदयमत्र वक्ति । त्रिरेखरेखास्तव तद् वृथेति आध्माय शङ्ख वदति स्म नेमिः ॥५०॥
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स्वस्तिश्रियामाश्रयसन्निभेऽस्मिन् पुरे त्रयीयं जिननायकानाम् । वृत्तादिवा-त् समगच्छताऽस्य विश्वत्रयीमण्डनतां वदन्ति ॥५१॥ अन्येऽपि मन्ये सुमति - स्वयम्भू - श्रीवासुपूज्य - त्रिशलाङ्गजाद्या: । जिना जगत्यग्र्यपदं तदेतद् विचिन्त्य बिम्बैः सुजनं पुनन्ति ॥५२॥ तत्त्वार्थ-तत्त्वाध्यवसायधीर - स्तान् वस्तुतो भक्तिनमस्कारा- (?) । विधेयभावेन विधेयमेतत् सोऽहं समीहे विगतान्तरायम् ॥५३॥ इति श्रीजिनवर्णनद्वापञ्चाशिका ॥
स्वस्तिश्रिया स्वीयशरीरजाया जनाश्रयोऽध्यापनहेतवेऽयम् । सज्जीकृतोऽम्भोनिधिनाऽधुना किं स्फुरत्सुराष्ट्राविषयस्य लक्षात् ॥५४॥ प्रदक्षिणार्चिर्निचयं तपोऽग्नि विधाय संवीतवलक्षवासाः । द्विजेशवत् सूरिपुरन्दरोऽयं तनोति तत्रागमनोऽत्र पाठाम् (?) ॥५५॥ युग्मम् ॥ देशा निवेशा इव नाकभाजां पीयूषपानप्रणिधानगोष्ठ्याम् । रसप्रवेशोल्लसदुच्चतालाः सहस्रशः सन्ति वसन्ति भूम्याम् ॥५६॥ राष्ट्रः सुराष्ट्रा जगतीप्रतीतो नूनं सुधर्मा जयति द्विधापि । यत्र नगरे प्रभु नाकनेता (?) मुदा विहारं कुरुते पवित्रः ॥५७॥ देशः सुराष्ट्राभिधयाऽभिधेयं व्यनक्ति सौभाग्यसुखाद्यमेयम् । भेदोऽप्यभेदोऽभिधयाऽभिधेयस्याख्यायते तेन तथाऽनुमेयः ॥५८॥ सत्यापयत्यस्य समस्तदेशा - धिपत्यमुच्चित्य विभामचिन्त्या[म्|| सिद्धाचलः काञ्चनमौलिलीला मुत्तुङ्गशृङ्गः कलयन्नजस्रम् ॥५९॥ पयोनिधिश्चञ्चलवीचिहस्तै - नृत्यन्मृदङ्गध्वनिगर्जितेन । पुरोऽस्य देशस्य महोत्सवानां नित्यत्वमाविः कुरुते प्रजासु ॥६०॥ पुरी सुरीणामपि वर्णनीया द्वीपाख्यया यद्विषयेऽस्ति शस्ता । समागता सिन्धुदिदृक्षयाऽसौ प्रभावभृत् पुण्यजना प्रभेव ॥ ६१ ॥ पीनोज्जयन्ताचल - सिद्धशैल-स्वरूपविस्फारिपयोधरायाः । देशश्रिया द्वीपपुरं तदेतत् विराजते वक्त्रसहस्रपत्रम् ॥६२॥
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अनुसन्धान ३३
स्वस्सत्पुरीयं परमर्द्धिपूर्णा नित्यं निरालम्बतयेव खिन्ना । पयोनिधे: सनिधिमेत्य मन्ये स्थिता यतोऽस्यां विबुधा वसन्ति ॥६३|| वादेन भग्ना जलधौ निमग्ना लङ्काऽथ तां जेतुमनाः पुरीयम् । पटालयान् श्रृङ्खलकोष्ठकस्य च्छलादिवाऽदापयदब्धितीरे ॥६४॥ रत्नाकरोऽब्धिर्जनसन्निवेशो द्वीपोऽप्ययं तन्मिलनाय पूर्वम् । प्रसारयामास भुजं स एव बिभर्ति शोभा परिखाऽब्धिदम्भात् ॥६५॥ द्वीपेन सार्द्ध नगरी गरीयः श्रिया विवाद सृजती सुराणाम् । नंष्ट्वा ययौ क्वापि नभःप्रदेशे तदन्तरीयं परिखा पयोधिः ॥६६॥ देशा नरेशा इव यनिदेशा-नुवर्तिनः पोतमिषात् करीन्द्रान् । उपाहरन्ते पुरचक्रभर्तु-र्दी - - - पूज्यांहिकिरीटमौलैः ॥६७॥ यत्राङ्गनाश्च(च?)ङ्गिमसङ्गमेन पराजितां वीक्ष्य सुतां पयोधिः । तद्रूपसम्पत्तिषु मन्दमोह - - - कृष्णाय दत्त(ते)स्म जरनराय ||६८॥ द्वाषस्सवषु वरा (द्वीपः स सर्वेषु वरो)ऽस्ति जम्बू-द्वीपो यथाऽन्दुकृतप्रकाशः । द्वीपस्तथा सर्वपुरावनीपौरामेय-वामेयजिनाप्तवासः ॥६९॥ पयोनिधिस्तुङ्गतरङ्गहस्तै-य॑त्सालमुत्सारयितुं प्रवृत्तः । वेलाबलेनाप्यफलप्रयत्नो, लज्जावनम्रोऽथ निवर्तते द्राक् ॥७०॥ यद्वासिहारिव्यवहारिलोकै- स्वत्रिपद्याश्रयणात् सदङ्गैः । पराजिताः सन्ततदानवृत्त्या मतङ्गजा तन्न विशन्ति मन्ये ॥७१॥ विद्याविनोदैः समयं नयन्तः श्रीमद्गुरोः सेवनंया(नमा)श्रयन्तः । साभोगभोगैर्नितमार्जयन्त: सुखं वसन्ति व्यवहारवन्तः ॥७२॥ विचारचातुर्यदशां(शा)दशां(शा)स्या-दानप्रवाहैर्विहिताब्दहास्याः । श्रीपूज्यतीव्रद्युतिपाददास्या-न्नित्यं प्रसन्नीभवदम्बुजास्याः ॥७३|| गीतार्थसार्थस्य गुणैर्मणीभिः कण्ठस्य येषां प्रभवेद् विभूषा । ते कस्य न स - - नोपकार- संस्कारिणः श्राद्धवराः सुखाय ॥७४|| तदीयचातुर्यमरालबालो-ऽस्माकं मनोम्भोरुहि यच्चिखेल । तत्पक्षशुभ्रत्वगुणप्रसङ्गात् वलक्षताऽद्यापि च लभ्यतेऽत्र ॥७५।।
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उपासिका: श्रीगुरुवक्त्रपद्म-श्रुताक्षयस्यन्दमरन्दपानात् । भृङ्गाङ्गनावत् पुरकाननेऽस्मिन् प्रोद्भावयन्ते सुरभिस्वभावम् ॥७४|| यत्रालयः पालयतां यतित्वं क्वचिच्चतुत्यस्रसुवृत्तरूपैः । नानाविमानाकृतिभृद् व्यक्ति स्वस्याश्रयत्वं विबुधेश्वराणाम् ॥५॥ महोदधेः श्रीवसुधावधेर्वा यो देहलीदीप इव प्रकाशी । द्वीपोऽवनीपेन तपोधनानां विभूष्यते श्रीमति तत्र चित्ते ॥७६।।
__ अथ बन्नपुरवर्णनम् ॥ स्वस्तीन्दिरोद्वाहजनाश्रयेऽस्मिन् संस्थानमष्टापदाशाब्दभास्ते । प्रोत्तुङ्गशृङ्गा भगवद्विहारा-स्तदत्र सारिश्रियमाश्रयन्ति ॥७७|| श्रद्धा-परिज्ञान-चरित्ररूपै-रक्षैः [पुरास्कृत्य दिवं शिवं वा । दक्षोऽत्र लोको रमते विहार- सारीषु नानाम्बरचित्ररूपैः ॥७८|| यत्राऽर्हदुच्चैस्तरचैत्यपंक्ति-मुक्तालतावद्वि-लादिदीपे । पुरी स्मिती(तां)भोजदृशः प्रशस्त-तन्मण्डपोत्तुङ्गपयोधरायाः ॥७९॥ यत्राऽर्हतां सुन्दरमन्दिराली, पालीव पुण्याम्बुमहासरस्याः । यां प्राप्य सर्वो भविनां प्रयाति, भवाटवीभ्रान्तिभवः प्रयासः ॥८॥ सूर्याश्मसन्दर्भितभित्तिभागे तापोऽपि सूर्योदय - - - - - | ....... नृत्यद(?)धनवीजनेना-पनीयतेऽर्हद्भवनैरमुष्याः ॥८१॥ विशालसौधोज्ज्वलचन्द्रशाला-विलासिनी काचिदवल्यबोधम् (?) । - - - बिम्बं तदभूत् कलङ्क-स्तदीयनेत्राञ्जनरञ्जनेन ॥८२।। सर्वः सुपर्वोचितवि(वे)षशाली, जनस्तदाच्युतसव(स्सदाऽस्त्युत्सव) सज्जनोऽत्र । शृङ्गारतामेति समग्रपुर्याः चातुर्यसर्वस्वमिवाङ्गसङ्गि ॥८३॥ स्त्रियोऽपि नेपथ्यविशेषभाजो रथ्यासु सानाध्य(थ्य)भृतः स्फुरन्त्यः । हरन्ति चेतांसि दिवापि यूनां स्मराम्बुधेरुत्कलिकास्वरूपा: ॥८४|| अप्रत्नरत्नप्रतिबद्धसौधे दैवात् कथञ्चिद्विजनेऽपि जाते । भुजङ्गसङ्गेऽपि न पांशुलानां स्वाभीष्टसिद्धि प्रतिबिम्बभीतेः ॥८५||
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अनुसन्धान ३३
निर्दह्यमानागुरुधूमभूम्ना घनान्धकारे समुदित्वरेऽत्र । वृष्टिर्मरुत्कीर्णशशाङ्करन-पयःपृषद्भिर्नियतैव रात्रौ ॥८६॥ चकोरकान्ता द्विजराजतेज-स्तथा रथाङ्गाह्ववधूदिनेशम् । समीहते तद्द्वयमोदमेषा पुरीन्दुसूर्याश्मरुचा तनोति ॥८७|| मणीमये कुट्टिमभूमिभागे कृतावतारा निशि यत्र ताराः । मनोभवेन प्रतिसद्म मुक्ताः प्रसूनबाणा इव रेजुरुच्चैः ॥८॥ यद्वासवेश्मन्यपि दम्पतीनां रहो रते विस्फुरितं बभूव । संकान्तमेतन्मणिभित्तिभागे कौशल्यमावि:कुरुते परेषाम् ॥८९॥ परस्परात्मु(मु)त्सवसन्निधाने यद्रक्तचूर्णोत्किरणं जनानाम् । जाते प्रभातभ्रम एव तस्मा-निःशोकतां याति च कोकलोकः ॥९०॥ यत्रास्ति नव्यः खलु भव्ययोग्य: उपाश्रयः साधुजनस्य भोग्यः । मूतैर्यशोभिर्धवलः सुसाधोः श्रीरूपजीकस्य यथार्थनाम्नः ॥११॥ यो राजधानीव जिनेन्द्रधर्म-महीशितुर्निर्मलशासनस्य । यद्वा सुधर्मेव सभा सभासी स्थितोऽत्र वज्री भगवनिदेशः ॥९२।। द्वारत्रयेणाऽभिपतज्जनाली-सरित्त्रयस्यात्र भवन् प्रसङ्गः । प्रयागतां वैश्रमणालयस्य व्याख्यागवाक्षस्य जने व्यनक्ति ॥१३॥ व्याख्यागवाक्षः प्रकटो वटोऽयं सचित्रपत्रप्रकराप्तशोभः । सच्छायभावेन रराज तस्मा-च्चन्द्रोदयस्यात्र विभा विशीर्णा ॥९४॥ पुष्पैः फलैः सत्किशलैर्दलैर्वा समन्वितौ चित्र-वसालवृक्षौ । पार्श्वस्थितौ श्रीगुरुभक्तिभाजां सदाफलित्वं वदतः स्फुटोक्त्या ॥९५।। सिद्धान्तशास्त्रश्रुतिपूर्णकर्णाः श्राद्धा गुरूणां बहुदानकर्णाः । गीतार्थसार्थस्य विशेषवाचो-ऽलङ्काररूपा व्यवहारभाजः ॥९६।। यन्मानसोद्यत्कषपट्टिकायां सुवर्णपिण्डस्य भवेद्विशुद्धिः । कथाप्रसङ्गस्य 'तथास्तु'वाचो यत्सन्निधानात् समुदेति बुद्धिः ॥९७॥ शय्यातरोदाहरणे धुरीणः प्रवीणभावान सुवर्णदासी । (?) श्राद्धोऽनुरक्तो मविसंवरेध(?) वृद्धः समृद्धो धनजीति नाम्ना ॥९८॥
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घनं धनं प्राप्य जिनस्य दासः श्रेष्ठी-दिष्टो यतिमार्गभेदे । शिवोऽवगौरी-तिरुज्ज्वलश्रीः कौलेयको वैश्रवणः स्वरूपात् ॥९९॥ अर्हद्गुरुज्ञानसमुच्चयानी(?) साधारणं वानुभवन्ति सारम् । तेनैव तद्भाविभवस्य वृद्धि-वृद्धार्हतानामनुमीयतेऽत्र ॥१००॥ श्राद्धा(य)श्च काश्चिद् गुरुभक्तियुक्ता मुक्तालतां तनिव (?)सद्गुणौघाः । तपोविशेषैः किमु दिक्पटानां स्वं मुक्तरूपं कथयन्ति साक्षात् ॥१०१॥ श्राद्धा(ड्य)श्चतस्रो विशिखा इवात्र स्वरूपतस्तीर्थमहापुरस्य । तपो विचित्रं प्रणयन्ति पुण्य-सुरद्रुमस्येव विशालशालाः ॥१०२।। वैराग्यवरस्यदशां स्पृशन्त्यः क(का?)श्चिद् गृहा एव तपोधनानाम् । . आदाविवान्तेऽपि भजन्ति मौनं क्षणस्य गानेऽर्थविचिन्तयेव ॥१०३॥ स्वर्णं न रूप्यं यदि वाऽदनाय स्यादित्यवेत्येव युगं तदत्र । शालेस्तुबर्याश्च मिषेणमन्ये संयुज्य भोज्याय नृणां बभूव ॥१०॥ शाल्योदनस्तौबररूपमिश्रो यद् भुज्यते साज्यतया विशेषात् । पद्मावदाता यदि वास्ति लेश्या तद्भोजमानामिह भोजनानाम् ॥१०५।। यस्मिन्ननेकस्मितरश्मिवेश्म- चान्द्रेन्द्रनीलादिमणीसमूहान् ।
दृष्ट्वा बुधाः सिन्धुमतोऽधिकं नो वदन्ति रत्नाकरवर्णनेन ॥१०६॥ . तथा हि
महोदधेस्तन्मथनव्यथायां प्राप्तानि रत्नानि चतुर्दशैव । अत्रान्वहं रात्रिकरत्नराजी पान्थैर्गृहीतापि तथाऽनुभूता ॥१०७|| स्वर्गेऽपि नास्मादधिका विभूति-र्यद्वादशैवांशुकरा हि तस्मिन् । उच्चैःश्रवो-देवगजेदवो(जादयो?)ऽपि, तत्रैकरूपा इति कीर्त्यते जैः ॥१०८॥ प्रत्यापणं रत्नविवेचकानां शीतांशुभास्वन्मणयो ह्यनेके । हरेर्गजाश्वस्य जये समर्थं नरेश्वरस्याऽश्वगजं सहस्रम् ॥१०९।। यत्रोच्छलत्तुङ्गतुरङ्गरूपैः क्षुण्णा खुरैर्व्याकुलितेव भूमिः । समीरणोदीरितरेणुदम्भा-दम्भोधिमध्येन नु पित्सतीव ॥११०॥ आश्वासनायेव भुजं गजेन्द्राः स्वगण्डदानोदकवर्षणेन । विधाय किञ्चित् सरसां विवेकः शनैः शनैस्ते पदमादधानाः ॥१११॥
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अनुसन्धान ३३
प्रादुर्भवत्किञ्चिदरालदन्त-च्छलादिवाऽऽकृष्य विधुं वियत्तः । उत्क्षिप्तशुण्डाः करिणः सृजन्ति दृष्टेन्दुदर्श कुहुमंगमैआत् (?) ॥११२॥ पुरीपुरन्ध्या वसुधाधवेन केनाप्यद्दत्तां कटिमेखलां द्राक् । वप्रश्रियादादवरंगसाहिः कूलङ्कषा चारुदुकूलवत्याः ॥११३॥ यस्य प्रतापोग्रहुताशनाग्रे, भ्राताऽनुजस्तन्मयतामवाप । जितोऽग्रजन्माऽप्यमुना रयेण चक्री यप्तद्यौ (?)(च पूज्यो?) वहलीनृपेण ॥११४|| एतत्प्रबन्धप्रतिबन्धबद्ध-सन्धो जरासन्ध इवाऽवलिप्तः । नासीरसीनोल्लिखितोऽप्यभीते-मरुस्थलेशः स विसंस्थुलोऽभूत् ॥११५।। आचन्द्रसूर्यस्पृहणीयतेजाः सर्वत्र सम्प्राप्तजयोऽपि किञ्चित् । न लोकबाधाय बभूव नीति-रहो महोत्साहकरी न कस्य ॥११६॥ प्रजाव्रजानीतिसुभिक्षभावाद् यद्भाग्ययोगोऽनुमितो गरीयान् । स शास्ति शास्ता ह्यवरंगसाहिः पुरीमिमामिन्द्रपुरीमिवेन्द्रः ॥११७॥ प्रबर्हबर्हानपुरादथाऽस्मात्, गुरोनिदेशं समवाप्य शिष्यः । प्राप्तो विशेषाद्विनयावनम्रः, करोति विज्ञप्तिमिमां स मेघः ॥११८॥
अथ समाचाराः ॥ अनाद्यविद्येव तिमिश्रवल्ली, रूढातिगाढेऽम्बरकक्षकक्षे । तारावतारप्रसवैरुपेता कन्या रजन्या परिवर्तिताऽत्र ॥११९।। जाते प्रभातेऽथ सहस्ररश्मिः पूर्वाचलोत्तुङ्गशिलाचले द्राक् । उत्तेजयंस्तीक्ष्णमयूखखड्गान् जहार दावानलवत्तदैनाम् ॥१२०॥ नभःसरस्याः सलिले ललन्त्य-स्ताराबलाकावलयः समन्तात् । दैवात् प्रविष्टे रविहस्तिमल्ले उड्डीय ताः क्वापि गता अलक्षाः ॥१२१॥ घने वनेऽस्मिन् गगने समज्या, नक्षत्रनाथस्य निशाचरस्य । शूरागमादेव जवेन नंष्ट्वा , क्वाप्यस्तशैलान्तरिता बभूव ॥१२२।। निःशूरभावेऽपि तमोनिवृत्तिः कृता कथञ्चिद् द्विजनायकेन । स(सा?)केवलादेव कलङ्कसङ्गाद् वैवर्ण्यमापद्दिवसाननेऽस्मिन् ॥१२३।।
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लब्धे सुराज्ये द्विजनायकेन मतानि नानाव्रतिनां ग्रहौघाः । स्याद्वादरूपेऽभ्युदिते सहस्र - भानौ तदेतत् सकलं विलीनम् ॥ १२४॥ संमुह्य चन्द्रो दिनवृत्तिमस्याः श्रियं प्रियायै प्रददौ रजन्यै । इतीव वैराद् ग्रहमौक्तिकानि लात्वा दिनेशो रजनीं व्यनैषीत् ॥१२५॥ शैलाधिपत्यं किल हेलिमौलि: पूर्वाचलस्य प्रथयांचकार । चन्द्रानने तेन विवर्णताऽभूत्, किमस्तशैलाधिपतेः प्रभाते ॥ १२६ ॥ कुमुद्वतीनां कमला नलिन्यै बलात् समादाय खगेन दत्ता । रोलम्बमाला किमितीव राज्ञे वक्तुं गता तेन विवर्णताऽसौ ॥१२७॥ राजाग्रजो मेऽस्तगिरेर्गृहासु मृगाजिनी पाण्डुमहोविभूतिः । शमीव शेतेऽर्क इतीव मत्वा पूर्वाद्रिसिंहासनमध्यतिष्ठत् ॥ १२८ ॥ जनैश्च तस्मिन् समये सलील श्लीलैः सभायामवभासितायाम् । प्रज्ञापनाज्ञाननिदानसूत्रं स्वाधीयते कालकसूरिसृष्टम् ॥ १२९ ॥ पीवार्थजीवाभिगमस्म ( माग ? ) मस्य, व्याख्यानमाख्यानकभावमिश्रम् । सभ्येभ्यचेतोहरणाय नित्यं प्रणीयते ध्वस्तसमस्तमिश्रम् ॥१३०॥ ततः पुनः पाणिनिभाष्य- हेमचन्द्रा - ऽनुभूतिप्रतिपादितानि । सवार्त्तिकं (क) व्याकरणान्यमूनि शिष्याः पठन्त्यत्र मनीषिमुख्याः ॥ १३१ ॥ साहित्यशास्त्राण्यपि शैव- जैन- सम्पादितान्यत्र यथाप्रयोगम् । नयांश्च केचित् परिचिन्तयन्ति, स्वीयान् विशेषात्तदिवाऽन्यदीयान् ॥१३२॥ योगोपधानोद्वहनादिकृत्यै- लोकम्पृणैर्दानतपोगुणैश्च ।
भावैर्विशुद्धैः समयं नयन्ति विमुक्तशोका इह सङ्घलोकाः ॥१३३॥ स्याद्वादिनां भव्यधनव्ययेन स्त्रात्राणि गात्राणि पवित्रयन्ति ।
वर्याः सपर्या विधिकर्मचर्याः, शिवाय भव्याः प्रणयन्ति नव्या: ॥१३४॥ अष्टाहिकापर्वणि निर्जराणां, नन्दीश्वरद्वीपवरे यथैव । स्यादुत्सवस्तद्वदिहापि नित्यं श्राद्धव्रतानां वरिवर्ति मोदः ॥ १३५ ॥ क्रमोदयी वार्षिकपर्वराजो विश्वाधिपत्ये सहसाऽभिषिक्तः । चतुर्थ- षष्ठाऽष्टमकैस्तपोभि-र्योधैः सुबोधैरिव सम्परीतः ॥१३६॥
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अनुसन्धान ३३
तच्छासनोड्डामरडिण्डिमस्यो-दोषेण दोषेण विवजितेन । जातोऽत्र जन्तुव्रजजातिबाधा-विधानदुर्ध्यानविधेनिषेधः ॥१३७॥ नेत्रद्वयेनेव मुखं मृगाक्ष्याः पाञ्चालराजेव मुखद्वयेन । राजद्वयेनेव गिरिः सुराणां, तथा स कल्पद्वितयेन रेजे ॥१३८|| सहस्रपादो दिवसश्रियश्च ज्योत्स्नाभरस्येव च पूर्णिमिन्दोः । अष्टाहिकायाः खलु पर्वराजः(ज)-साधारणो भूषणभूष्यभावः ॥१३९॥ अष्टाभिरुद्यन्महिषीभिरिन्द्रो वृषध्वजो मूर्तिभिरष्टभिर्वा । यथाऽष्टभिः सिद्धिभिरङ्ग ! योगी, तथैष रेजेऽष्टदिनेन्दिराभिः ॥१४०॥ यथा गिरीशः सरिता सुराणां स्वर्णाचलञ्चूलिकया यथैव । बभौ तथा वार्षिकपर्वराजः सांवत्सरिक्या किल सच्चतुर्थ्या ॥१४१।। कल्पैरनल्पैः कलितो मुनीनां कल्पः स्फुरन् पर्युषणाभिधानः । राज्ञः पुरोधा इव निर्विरोधः पुरस्कृतस्तत्र जनस्य शान्त्यै ॥१४२।। सांवत्सरिक्यां गजवाजिपूर्वं चैत्र(त्य?)प्रपाटीकपटेन मन्ये । स पर्वराजोऽखिलदिग्जयाय समं प्रतस्थे ध्वजिनीप्र(व)जेन ॥१४३॥ गच्छत्समागच्छद्तुच्छरूपाः(पो)ऽन्यगच्छसङ्घो ननु तावदेव । चतुःपथान्तर्लभतेऽवकाश-मुपस्थितो यावदयं न सङ्घः ॥१४४॥ अनेकवादित्रविचित्रनृत्यैः प्रस्तूयमानो गुरुसङ्घचक्री । चैत्यप्रपाटीकरणाय जज्ञे शूरो हि सा- [साक्षात्?ाकिमु गाङ्गपूरः ॥१४५॥ चतुष्पथेति प्रथिते तदानीं संकी -इति (संकीर्णता?) पौषधिकैस्तथाऽभूत् । आस्थानयोगो(गा)द्गगने लि(ऽनि?)लोऽपि, कुर्वनिवालक्ष्यत पर्वतुल्याम् (?)
॥१४६॥
परस्परक्षान्तिरथ्या(पा)यशान्ति-स्तथा प्रतिक्रान्तिरपि त्रयीयम् । शक्तित्रयीवाऽऽब्दिकपर्वराजः समर्थमर्थं रचयांचकार ॥१४७|| ततो जनामोदकमोदकौघैः सार्मिकाणां भवति स्म भक्तिः । शिवाध्वगानां भवतादमीषां पाथेयमादेयतयेति मत्वा ॥१४८॥ प्रातर्लसत्पारणकं दिदेश सांवत्सरिक्या धनजी: स्वगेहे । वैदेशिकानां नृपमान्यकल्लू-श्राद्धाग्रणी: कारयति स्म भक्तिम् ॥१४९॥
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धनस्तु मुख्यो निजमुख्यतायाः शृङ्गाररूपां कुरुते स्म भक्तिम् । दानेऽद्वितीयः सुखातोऽ?Jद्वितीयो युक्तं यदम्बा हमरी प्रसन्ना ॥१५०॥ जलेबिकीः शर्करया घृतेन सिद्धाः प्रसिद्धाः प्रथमं प्रदत्ताः । क्षुधापिशाचीहननाय यन्त्र-हींकाररेखा इव वृत्तरूपाः ॥१५१॥ (क्षुधापिशाचीहननाय मन्ये चक्राण्यमूनीव जनैर्वृतानि || पाठान्तरम् ॥) प्राज्याज्यसामोदकमोदकानां श्रेणिर्जनानां मदतं(नं) ततान । .. श्रीधर्मकल्पद्रुमजा फलानां पंक्तिस्थपुण्यैरिव ढौकितासौ ॥१५२॥ स्वाद्यानि वाद्यानि न भोज्यलक्ष्म्याः हरन्ति चेतांसि न सज्जनानाम् । क्षुधाहवेनेव शरैः सरन्ध्रा-ण्यस्या- रेतृणिभटा इवाऽत्र (?) ॥१५३।। (खाद्यानि वाद्यानि ततानि पूर्वं सिद्धानि लक्ष्म्याः सुखभक्षिकायाः । छिद्रालिदम्भादिव दायकानां यशःप्रशस्त्यक्षरसंयुतानि || पाठान्तरम् |) यशोभिरेवाऽङ्गधरैः पयोभिः संयुज्य भूयः पृथुकान् सखण्डान् । सन्तर्पयामासुरनेकजन्तून् श्राद्धा जिनेन्दोर्मतमुनयन्त्यः ॥१५४|| प्रसीदनं सप्रहितं हितार्थं परीप्सितं व्यञ्जनराजियुक्तम् । भौमाग्निमुक्तं ह्युदरानलस्य मित्रस्य तुष्ट्यै किमुपायनं द्राक् ॥१५५॥ भोज्यानि सर्वाण्यपि बाष्पदम्भात् स्वयं विविथूनि मुखे जनानाम् । रोषादिवोष्णानि जवात् क्षुधाया जिघांसया मोदमहोदयानि ॥१५६।। इत्यादिकृत्यानि गुरोर्गरीयः-प्रसादतो विघ्नविवर्जितानि । जातानि तद्व(त्त)त्समयोचितानि तान्याद्रियन्ते प्रभुताद्भुतानि ॥१५७||
__ अथ श्रीगुरुवर्णनम् ॥ माहागुरोः सेवनया नयानां निधानभूम्या मनुजस्य यस्य । स्यात् संस्तवः संस्तवनीयनामा भवेद् गुणै रत्नगणैर्धनाढ्यः ॥१५८॥ रेवाऽस्ति सेवा गुरुपुङ्गवाना-मानन्दहेतुः कविकुञ्जराणाम् । प्रवृत्तिहेतुः क(क्व)चनाऽरिजन्यः पराभवो यन्न भवेदमीषाम् ॥१५९।। यस्यां रसान्तबहु मज्जनेन संचित्य रोचिस्तनु सज्जनेन । औत्रत्यलाभात् कलभोऽपि यूथा-धिनाथलक्ष्मीमुररीकरोति ॥१६०॥
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अनुसन्धान ३३
मदात् करेण क्षिपते वराङ्गे रेजो(जे?)गजस्तद्विगतप्रभोऽपि । अस्यां निमग्नः शुचिभूतकायो मेघ:(घ)श्रियं संचिनुते नवीनाम् ॥१६॥ मातङ्गरूपेऽपि यदीदृशी स्या-देतत्प्रसङ्गात् सुभगत्ववृत्तिः । तद्राजहंसे जलदुग्धसग्धौ विवेकिता किञ्चन नात्र चित्रम् ॥१६२।। निम्नं विधाय स्वशिरो गजोऽस्यां ललन् निजं पङ्कमपाचकार । उच्चैस्ततो गोत्रमनेकसाला-न्वितं भजत्येष विशेषशोभः ॥१६३।। अस्यास्तु दूरे निवसन् कवीन्द्र-द्विपाधिप: सत्रिपदीविभूतिः । भद्रोत्तमोऽप्याश्रयते विभूषां न तादृशीं तत्स्मरणात् शाङ्गः ॥१६४।। त्वत्सेवया नर्मदया दयालो ! बालोऽपि किञ्चिद्शतरोऽहमुच्चैः । संपावितस्तद्रसभावनेन गतोऽभितापोऽपि कलिप्रसूतः ॥१६५।। सेवारसे वासनया यदीयं मनो विलिप्तं सुधयेव देव ! । ते स्युनरा निर्जररूपभाज आजन्मतः सर्वसुपर्वसेव्याः ॥१६६।। मरुत्तस(सा?)र्थेन गुरुगरीयान् निषेवितः श्रीविजयप्रभाह्नः । मनीषितास्तस्य समृद्धयः स्यु- नित्योदयिन्यो नहि तत्र चित्रम् ॥१६७॥ सेवासुखास्वादनतुन्दिला ये तेषां परेषां न सुखोदयानाम् । लिप्सा भवेत् क्वापि सुधासु धारा-स्वादेन किञ्चित् स्वदते तदन्यत् ॥१६८।। कश्चिद्वणिक्कर्मस(सु)नमसाध्य(?) शौर्य पुनः कश्चिदुपाद्रियेत । कश्चित् कृषिस्तद्वयमेव सेवा-महो महसव(महस्सर्व?) सदर्थसिद्ध्यै ॥१६९।। श्रीमद्गुरूणामिह सेवनेन स्याद् गौरवेणाऽन्वित एव मर्त्यः । कर्पूरगन्धप्रतिबन्धसन्धि स्यात् कोलकं वासतया सुगन्धि ॥१७०|| हितामृतेनेव निसृष्टवृष्टि-दृष्टिगुरूणां मयकानुभूत् स (काऽनुभूता?) । तस्यां रसः सर्वसुखातिशायी नाद्याप्यसौ विस्मृतिमेति चित्ते ॥१७१॥ श्रीखण्डकर्पूरहिमेन्दुभावान् संयोज्य मन्ये घटितोऽस्ति?) सौम्यः । कृपाकटाक्षेषु ततस्त्वदीये-ष्वहो सुधापूर इवोज्जजृम्भे ॥१७२।। दुर्वादिवृन्दा अपि ते निरीक्ष्य, श्रद्धाचरित्रादिगुणौघमुक्ताः । त्वद्वर्णनाकैतवतः स्वकण्ठे कृष्ट्वैव सम्यक्त्वमिहाऽर्जयन्ति ॥१७३।।
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जयन्ति ते गौरववाग्विलासा माधुर्यतः स्पृष्टसुधातिहासाः । निशम्य सम्यग् भववह्नितप्ता-स्तान् वस्तुतः शीतलतामयन्ते ॥१७४|| मनोरथैर्यो विषमोऽपि पन्थाः समादृतः कस्यचिदुत्तमस्य । सोऽयं भवान्येव निषेवया ते प्रसाध्यते बाध्यतरोग्रशक्त्या ॥१७५।। श्रीदेवसूरिः कुमुदेन्दुजेता प्राच्यः परस्त्वद्गुरुरर्कजेता । श्रीदेवसूरिश्च ततोऽधिकश्री-र्गाम्भीर्यतो निर्जितसर्वसिन्धुः ॥१७६।। जातौ च तौ द्वावपि देवरूपौ मुनीशितस्त्वं तु ततोऽधिकोऽसि । वीराभिधानेन समग्रदेवा-तिशायिवीर्योद्भवसूचनेन ॥१७७|| कालानुभावेन तु यत्तु कश्चि-नाथ ! त्वदाज्ञामवमन्यतेऽपि । व्यामोहहेतुः सुधियां न तत्कि वीरस्य नाज्ञाविमुखो जमालिः ॥१७८॥ मन्यामहे तन्मनुजानिहिश(?) धन्यांस्तवासेवनतत्परा ये । तदन्तराये सहसम्पराये येषां रतिस्ते पशवो नृपाशाः ॥१७९।। प्रसन्नता क्वापि मुखे मुनीन्दो ! राकाशशाङ्कादतिरेकिणी या । दृष्टापि दृष्ट्योर्मुदमातनोति तनूभृतां श्रीगुरुभक्तिभाजाम् ॥१८०।। तवैव सेवाविधये विधात्रा विनिर्मिताश्चन्दनदीपनाद्याः । भावाः स्वभावादपि पूज्यपाद-पूजाविधानैः सफलीक्रियन्ते ॥१८१॥ प्रभोर्यशोभिर्भुवनैरशोभि सर्वैः सुपर्वेशगजानुरूपैः । विधुर्वियुक्ताङ्गिविशोषदोषैः श्यामोऽपि किञ्चिद्धवलस्तदाऽभूत् ॥१८२॥ वियोगिनीभिर्विधुरेष शप्त-स्तदस्य वक्षः स्फुटितं प्रतीमः । नो चेत् कथं श्रीगुरुवक्त्रपद्म-स्पर्धी विधत्ते शकलीकृतोऽपि ॥१८३।। सेवा त्वदीया मलयानिलस्य परिस्फुरन्ती लहरीव लोके । दारिद्मसन्तप्तवपुष्मती द्राक् प्रमोदमुत्सादयति स्म लक्ष्म्या ॥१८४॥ पूर्वाणि पात्राणि लतेव सेवा प्रचित्य रोचिनिचयाल्लसन्ती । फलैः पुनर्योजयति स्म नव्य-पात्राण्यहो भाग्यविजृम्भितानि ॥१८५॥ सेवाख्यरेवास्वरसाभिसारा-त्तटस्थशिष्यावनिजन्मवृन्दम् । उद्भावयन्ती फलसम्पदाढ्य-मापल्लवं संहरतेऽद्भुतं तत् ॥१८६।।
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अनुसन्धान ३३
सेवा सुराणां सरिदित्यवैमि यतोऽत्र नित्यं विबुधा रमन्ते । विशुद्धभावैः श्रमणानुगामि-वृन्दानुभूता कमलोद्भवाय ॥१८७।। सेवारेवापुलिनललनैर्भद्रभावानुभावात् । येषां चेतो हसति लसति श्रीमुनीन्द्रेगस्तारागे । विश्वे विश्वेऽनुभवविभवं ते जना एजनाभिमुक्तं व्यक्तं दधति नितरामन्तरेणाऽन्तरायम् ॥१८८।। परीष्टिरङ्गीष्टविधीविधान-कल्पद्रुकल्पा किल यद्गुरूणाम् । तैः सूरिचन्द्रैर्गतसर्वतन्दै-ज्ञेयः प्रणाम: स्वशिशोस्त्रिसायम् ॥१८९॥
इति श्रीसेवालेखकाव्य सम्पूर्णम् ॥
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सं. मुनि धर्मकीर्तिविजय
आ एक संग्रहग्रन्थ छे जेमां ७१ सुभाषित - श्लोकोनो संग्रह करवामां आव्यो छे, तेमां पण मुख्यत्वे समस्याओ, प्रहेलिकाओ, श्लेषकाव्यो व. नो समावेश थाय छे. अने आ रीते तेनुं 'चित्रकाव्यो' एवं नाम पण सार्थक थाय छे.
ग्रन्थनी शरुआत विविध खाद्यपदार्थो तथा पक्षिओनां नामोथी गर्भित, श्रीकृष्णनी स्तुतिथी थाय छे बन्ने श्लोकोनी सरळ व्याख्या पण साथे आपेल छे. त्यार बाद एक संस्कृत समस्या तथा एक प्राकृत सुभाषित मूक्यां छे; अने ते पछी विषयवार, विविध समस्या व थी गर्भित श्लोको मूकवामां आव्या छे. विषयोनो क्रम तथा श्लोकोनी संख्या आ प्रमाणे छे :
विषय
श्लोक संख्या
अन्तर्लापिका बहिर्लापिका
चित्रकाव्यानि
१.
२.
३. कर्तृगुप्त
४.
कर्मगुप्त
करणगुप्त
सम्प्रदानगुप्त
अपादानगुप्त
५.
६.
७.
८. सम्बन्धगुप्त ९. अधिकरणगुप्त १०. सम्बोधनगुप्त
११. क्रियागुप्त
१२. कर्तृसम्बन्धाधिकरणगुप्त
१३. मात्राच्युतक
१४. बिन्दुगुप्त
१५. बिन्दुमजाली (बिन्दु मयाली ? )
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अनुसन्धान ३३
१६. दीयमानाक्षर १७. हीयमानाक्षर १८. अपहुति १९. कथितापहृति २०. गतप्रत्यागत २१. प्रहेलिका २२. अर्थी(र्थ)प्रहेलिका २३. दूरान्वयिजाति २४. भावगूढ २५. समस्या २६. पादत्रयरूप समस्या २७. श्लेष
कुल ६७ आ श्लोकोमाथी केटलाक श्लोकोना कर्ता व. नो निर्देश संग्रहकारे ज करेलो छे. आमांना २५ श्लोको सुभाषितरत्नभाण्डागार (सु.र.भा.)मां नाना-मोटा फेरफार साथे संगृहीत छे. (तेनो तथा सु.र.भा.ना आधारे ज केटलाक श्लोकोनां शार्गधर पद्धति-भोजप्रबन्ध व. मूळ स्थानोनो निर्देश ते ते स्थळे टिप्पणीमां करेल छे.)
केटलीक समस्याओना उकेलो प्रतिमा संग्रहकारे ज आप्या छे. तथा केटलीक समस्याओना उत्तरो सु.र.भा.ने आधारे ते ते स्थळे टिप्पणीमां आपेल छे.
लेखनमां अशुद्धि घणी छे. शक्य स्थळोए शुद्धि करवानो प्रयत्न कों छे.
प्रतिपरिचय : आ संग्रहग्रन्थनी मूल प्रतिना कुल पत्रो ९ छे. अक्षरो सुवाच्य छे. तेनुं लेखन सं. १७७६ ना आसो सुद ११ना रविवारे थयुं छे एम प्रान्ते लखेल पुष्पिकाथी जणाय छे.
संग्रहकारना नाम व. नो कोई निर्देश नथी, छतां ग्रन्थारम्भे 'श्रीगौतमाय
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नमः' एम श्रीगौतमस्वामिने नमस्कार करवामां आव्यो छे तेना परथी एम अनुमानी शकाय छे के कोई जैन पण्डिते (मुनि/गृहस्थे) आ संग्रह कर्यो हशे.
श्री गौतमाय नमः ॥
अथ चित्रकाव्यानि लिख्यन्ते । लक्ष्मीवन् कृतकु कू रसू रणदही दूध[क] क्षमः पापडी
___ लाडूढोकलघी वडाञ्छन वडी खाजाम्बुदालीरुचिः । मण्डाशाकरखण्डनो विविभुना क्षीरावसातुल्य मां
सासुं हालितडिन्नभाङ्गवसनोऽव्याः सेवकं सारवान् ॥१॥
लक्ष्मीरस्याऽस्तीति लक्ष्मीवान्, तस्य सम्बोधन] लक्ष्मीवन् !! अवगतं लाञ्छनं यस्म(स्मा)दसौ अवलाञ्छनस्तस्य [सम्बोधनाहे अवलाञ्छन !! क्षीरे आवसती[तिक्षीरवास(क्षीरावस)स्तस्य सम्बोधनं हे क्षीरावस(से)ति । न विद्यते तुल्यो यस्य स अतुल्यस्तस्य सम्बोधन(नं) हे अतुल्य ! । ह इति स्फुटत्वम् । मां सेवकमव्या:-रक्ष । किम्भूतः ? कृतकूः-कृतं को:-पृथ्वि(थ्)व्याः अवनंरक्षणं येन(नाऽ)सौ कृतकूः । पुनः किम् त्वं? असूः-सूयते-उत्पद्यते ऽसौ सूः, न सूः असूः । पुनः किम् ? रणदहिन्- रणं-सङ्ग्रामं वदन्ती(ददति)ते रणदाः- शत्रवः, तान् हिनस्तीति रणदहिन्-शत्रुहः इत्यर्थः । पुनः किम्? दूधक्- दुह्यं(व)-दुःखं-पाप-परितापं वा दहतीति अदुधूक(दूधक्) । पुनः किम् ०? क्षम:-क्षमाऽस्याऽस्तीति क्षमः । डलयोरने(भे)दत्वात् पापलीः । [ यदुक्तम्-]
बवयोर्डलयोश्चैव रलयोः सशयोस्तथा ।
अभेदमेव वाञ्छन्ति येऽलङ्कारविदो जनाः ॥
लुञ् छेदने, पापं लुनातीति पापली: । पुनः किम् ? इलाट-- इलायां-पृथिव्यामटती'ति इलाट । पुनः किम् ? [विाविभुना-वीनां-पक्षी(क्षि)णां विभुर्गरुडः, तेनोढः । पुनः किम् ? अकलघी- अकं-दुःखं लघयतीति अकलघी । [वडी] बवयोरभेदः, बली-बलमस्याऽस्तीति बली । पुनः किम्? खाजाम्बुदालीरू(रु)चिः-खे-आकाशेऽजती(न्ती)ति खाजा(जाः) गगनचराः, ये
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अनुसन्धान ३३
अम्बुदा (दास्) तेषामाली - पङ्क्तिस्तस्या रुगिव रुक् यस्याऽसौ घनश्याम इत्यर्थः । किम्० ? मण्डाशाकरखण्डन:- मण्डाश्चारुणुदिय: (श्चाणूरादयः ?) तेषामाशाःइच्छास्तासामोका(माक) र : - समूहस्तं खण्डयतीति मण्डाशाकरखण्डनःमल्लेच्छासमूहनाशकर इत्यर्थः । हे क्षीरसागरे आ समन्ताद्भावेन वस्य ( स ) तीति हे क्षीरावस ! | हे अतुल्य !- नाऽस्ति तुल्यो यस्याऽसौ हे अतुल्य ! किम्० माम् ? सासु (सुं)-असवः प्राणास्तैः सह वर्तमानम् । पु० ? अलितडिन्निभाङ्गवसन:- अङ्गं न (च) वसनं चाऽङ्गवसने, अलिश्च तडिच्चाऽलितडितौ, तयो: निभाऽऽभा, तद्वन्निभा ययोस्तेऽलितडिन्निभे अङ्गवसने यस्याऽसौ अलितडिन्निभाङ्गवसनः । पु० ? सारवान् - सारो बलमस्याऽस्तीति सारवान् - पालनसमर्थ इत्यर्थः ॥१॥
कोल कृतिरपारेवो मोरोहंसो जलोदरी । कंसारिरात्तडीडो-बो वाघ (श्च) लो भूकलोऽवतु ॥२॥
कंसारिः-श्रीकृष्णः । वो- युष्मान् (न)वतु, बवयोरैक्यं रक्षतु । कोलकृति:- कोलस्य रूपं यस्य सः । आ (अ) पारेव:-आ (अ) पारे० संसारेऽवति रक्षति । तथा मोरोहंसः -मा- लक्ष्मीः, तस्याः उ[:] - वक्षः, तत्र हंस इव हंसः । तथा [जलोदरं - [जलं गृहं यस्याः सः । किम् ? आत्तलीलः - आत्ता - अङ्गीकृता लीला - विलासो येन सः । तथा किम्० ? वाश्वल:- निश्चये [न] अश्वं लुनातीति (?) । तथा किम् ? भूकलः - भुवं कलयति - उद्धरति । किम् ? कंसारिः ।
१.
पाण्डवानां सभामध्ये दुर्योधनः समागत: । ' तस्मै गां च हिरण्यं च रत्नानि विविधानि च ॥ मह देसु रसं धम्मे तमवसमासंगमागमाहरणे । हरवहुसरणं तं चित्तमोहमवसरउ मे सहसा ||३||
'आगताः पाण्डवाः सर्वे दुर्योधनसमीहया' इति सु.र.भा. १९३ / १, शार्ङ्गधरपद्धतौ ५३४; यो धनसमीहया आगतस्तस्मै सर्वे पाण्डवा: गां च सुवर्णं च विविधानि
रत्नानि च अदुः
इति सु.र.भा. ॥
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अथाऽन्तापिका
रवे: कवेः किं समरस्य सारं 'कृषेर्भयं किं *प्रमुषन्ति 5भृङ्गाः । 6खलाद् भयं विष्णुपदं च केषां
भागीरथीतीरसमाश्रितानाम् ॥४॥ अथ बहिर्लापिकामित्रामन्त्रय मञ्जुजीवितसमां दक्षक्रतू कीदृशौ
कीदृक्षौ मरुकीकंटो(कटौ) शिखिरुतिः का काममामन्त्रय । कौ नक्तं विरहातुरौ चरति कस्तोये मिलित्वा भृशं
लिप्यभ्यासपरायणा गुरुगृहे किं वा पठन्त्यर्भकाः ॥५॥ क का कि की कु कू के कै को कौ कं कः - कालिदासस्य ॥५॥ त्रय्याद्याः के धनं किं भवति मृगमदे को गुणः काऽथ माया
केऽगाधाः किं तृषाणां जलमलघुसुखं योषितां केन दीनः । कः के देवारयः किं निमिपुरमदितिब्रूहि केषां जनेत्री
क्व काको वैष्णवास्ये बुध ! वसति जपो मध्यवर्णैः पदानाम् ॥६॥
त्रय्याद्याः- ओ ओ ओ (ॐ) । धनं किं - कनकम् । मृगमदे को गुणः- आमोदः । माया का - शम्भवा । अगाधाः के- सागराः । तृषाणां जलं किं - जीवनम् । योषितां केन सुखं - कान्तेन । दीनः कः-प्रवासी। देवारयः के - असुराः । निमिपुरं किं - विदेहः । अदितिः केषां जनेत्रीदेवानाम् । काकः क्व गच्छति-वियति । वैष्णवास्ये पदानां मध्यवर्णैः कृत्वा को जपो वसति - ॐ कारादि वियत्पर्यन्तानां पदानां मध्यवर्णे उपात्ते "ॐ नमो भगवते वासुदेवाये"ति द्वादशा(शव)ो विष्णुमन्त्रो भवति ॥६॥
२. १. रवेः भा, २. कवेः कान्तिः, ३. समरस्य रथी-योद्धा, ४. कृषेर्भयम्-ईति:
अनावृष्ट्यादिः, *'किं किमुशन्ति' इति सुभाषितरत्नभाण्डागारे (सु.र.भा.), ५. भृङ्गा रसमुशन्ति वाञ्छन्ति, ६. खलाद् भयम्- आश्रितानाम्, ७. विष्णुपदं च
भागीरथीतीरसमाश्रितानाम् - इति सु.र.भा. || ३. सु.र.भा. पृ. १९७/श्लो. २१; शार्ङ्गधरपद्धतौ ५५४ ।
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अनुसन्धान ३३
श्रीरुपास्ते कामीशानं कमीशानं च पार्वती ।
'अमुं निगदितं प्रश्न यो जानाति स पण्डितः ॥७|| अथ कर्तृगुप्तम्
शरदिन्दुकुन्दधवलं 'नगनिलयरतं मनोहरं देवम् ।
यैः सुकृतं कृतमनिशं तेषामेव प्रसादयति ॥८॥ मनः कर्तृपदम् ॥८॥ अथ कर्मगुप्तम्
मांसं भुझ्व द्विजश्रेष्ठ ! सन्त्यज्याऽखिलसत्क्रियाम् ।
संदिष्टं ब्रह्मणा पूर्वं द्विजानां गृहमेधिनाम् ॥९॥ मां लक्ष्मीमिति कर्म ॥९॥ अथ करणगुप्तम्
मदमत्तमयूरस्य मलयस्य गिरेस्तटे ।
सीताविरहसंतप्तं रामं मुहुरमूमुहत् ॥१०॥ मयूरस्य गिरा कृत्वा इ:-कामो रामममूमुहदित्यन्वयः ॥१०॥ अथ सम्प्रदानगुप्तम्
अम्भोरुहमये स्नात्वा वापीपयसि कामिनी ।
ददाति भक्तिसम्पन्ना "पुष्पं सौभाग्यकाम्यया ॥११॥ अये-कन्दर्पायाऽम्भोरुहं ददातीत्यन्वयः ॥११॥ अथाऽपादानगुप्तम्
सरसीतोयमुद्धृत्य जनः कन्दर्पकारकम् ।
पिबत्यम्भोजसुरभि स्वच्छमेकान्तशीतलम् ॥१२॥ सरसीतः कं-जलमुद्धत्येति संबन्धः ।
सरसीत इत्यपादानम् ॥१२॥ १. श्री: उम्-विष्णुम, पार्वती अम्-शङ्करम् ॥ ४. 'पुत्रसौभाग्यकाम्यया' इति सु.र.भा. ॥ २. 'नगरपतिनिलयं' इति सु.र.भा.। ५. सु.र.भा. १९४/३१ ।। ३. सु.र.भा. १९४/२५ ॥
६. सु.र.भा. १९४/३४
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[अथा सम्बन्धगुप्तम्
बालया पृथिवीपाल ! व्या(व्य)लोक्यत तयाननम् ।
तत: प्रभृति तां निन्ये स्मरः स्वशरवेध्यताम् ॥१३॥ ते आननमिति सम्बन्धः ॥१३|| [अथाऽधिकरणगुप्तम्
या कटाक्षछटापातैः पवित्रयति मानवम् ।
एकान्ते रेपिर्तप्रीतिरस्मि सा कमलालया ॥१४॥२ ए-विष्णुरूपिणि कान्ते इत्यधिकरणम् ॥१४॥ अथ सम्बोधनगुप्तम्- धर्मदासस्य
हारकेयूररत्नानि धनानि विविधानि च ।
ब्राह्मणेभ्यो नदीतीरे ददाति व्रज सत्वरम् ॥१५॥ ब्राह्मणेति सम्बोधनम् ॥१५॥ अथ क्रियागुप्तम्
दामोदरधृताशेषजगत्त्रय ! जनार्दनः(न!) ।
संसारापारपाथोधिमज्जनप्रभवं भयम् ॥१६-१॥ मा दा इति क्रिया ॥१६-१॥
पामारोगाभिभूतस्य श्लेष्मव्याधिमयस्य च । ...
यदि ते जीवितस्येच्छा तदा भोः] शीतलं जलम् ॥१६-२॥ शीतलं जलं मा पा इति क्रिया ॥१६-२॥
कान्तया कान्तसंयोगे किमकारि नवोढया ।
अत्रापि कथितं श्लोके यो जानाति स पण्डितः ॥१६-३॥ अत्रापीति क्रिया ॥१६-३॥ १. 'रोपितप्रीति०' इति सु.र.भा. ॥ २. सु.र.भा. १९४/३८ ॥ ३. 'व्याधिनिपीडित ! इति सु.र.भा. ॥ ४. सु.र.भा. १९४/१७; जल्हणस्य सूक्तिमुक्तावल्याम्-९८-१ ॥ ५. १९३/७ सु.र.भा. ।
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कर्तृसम्बन्धाधिकरणगुप्तम्- यथा
कावेरीरम्यराजीवविलसद्गन्धबन्धुना । मधुमाससमीरेण वर्द्धते कुत्र कस्य का ||१७||
कौ - पृथिव्याम्, एः कामस्य, ई: शोभा ।
मात्राच्युतकम्
-
दशान्तरस्थितान् भावान् का (क) लातीतानपि स्फुटम् । कवलज्ञानतो योगी प्रत्यक्षानिव वीक्षते ॥
अत्र देशकालकेवलाः ॥१७- २॥
बिन्दुगुप्तम्
अनुसन्धान ३३
यथा 'सत्प्रभवः स्निग्धः सन्मार्गविहितस्थिति: । तथा सर्वाश्रयः 'सत्यमय (यं) मे वकुलद्रुमः ॥ १८-१॥३ बिन्दुमजाली (मयाली?)
ठिठठठठूठाठट्टं ठठ ((ठिट्ठ) ठिठो ठट्ठठीठठिठः । ठठाठठगिठठाठठा] ठठठीउठठोठठठः ॥ त्रिनयनचूडारलं मित्रं सिन्धो[:] कुमुद्वतीदयितः । अयमुदयति घुसृणारुणा रमणीवदनोपमश्चन्द्रः ॥४ अयं कुमुद्वर्ती मुदयतीत्यर्थे बिन्दुच्युतकमपि भवति ॥ अथ दीयमानाक्षरम्
सानुजः काननं गत्वा नैकैसेयान् जघान कः ।
मध्ये वर्णकृ(त्र)यं दत्त्वा रावणः कीदृशो द ||१९||
राक्षसोत्तमः ॥१९॥
१. " सत्प्रसवः' इति सु.र.भा. ॥
२. अत्राऽनुस्वारत्यागेन 'अयमेव कुलद्रुमः' इति स्थितमर्थात् - अयं पुमान् कुले द्रुम इव
द्रुमो वृक्षः इति सु.र.भा. ॥
३. १९५ / ४ सु.र.भा. ॥
४. २९९ / ११ सु.र.भा. ॥
५. विकासाद्या (निकसाया ) अपत्यानि निकसा: ( नैकसेयाः) राक्षसास्तान् ।
६. १९९ / २८ सु.र.भा. ।
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अथ हीयमानाक्षरम्
नतनाकिमौलिमणिमण्डलीविभा
__ भरभासुराङ्घिसरसीरुहासना । तव शर्मणे भवतु भारती भृशं
दृढजाड्यखण्डनदिनेशभाततिः ॥२०-१॥ अत्र मञ्जुभाषिणि(णी) छन्दसि प्रतिपामा(दा)द्याक्षरद्वयपातेन रथोद्धतावृत्तम्, अन्त्याक्षरद्वयपातेन नन्दिनीवृत्तम् ॥२०-१॥
गङ्गोपलक्षित उमाहृदयाम्बुजार्को
नित्यं विभाति शशिखण्डशिरोविभूषः । देवस्तु यो विषमनेत्रलसन्मुखश्री:
कल्याणदो भवतु वः सहतादिवर्णः ॥२०-२॥ अथाऽपहुतिः -
सीत्कारं शिक्षयति व्रणयत्यधरं तनोति रोमाञ्चम् । नागरिक: किं मिलतो नहि न हि सखि ! हैमनः पवनः ॥२१-१॥१ इह पुरोऽनिलकम्पितविग्रहा मिलति का न वनस्पतिना लता ।
स्मरसि किं सखि ! कान्तरतोत्सवं नहि घनागमरीतिरुदाहता ॥२१-२॥ अथ कथिताऽपह्नुतिः
आदौ श्लोकेऽत्र निर्दिष्टं विजानन्तु महाधियः ।
कस्मात् कस्मिन् समुत्पन्ने सरागं भुवनत्रयम् ॥२२-१॥ आत्-कृष्णात्, औ-कामे ॥२२-१॥
पृथ्वीसंबोधनं कीदृक् कविना परिकीर्तितम् ।
केनेदं मोहितं विश्वं प्रायः केनाऽऽप्यते यशः ॥२२-२॥ १. १८६/३ सु.र.भा. । २. १८६/१३ सु.र.भा. ।। ३. 'कविना' =हे को ! हे पृथ्वि !, इना कामेन, कविना काव्यकर्ता - इति उत्तरः ।
सु.र.भा. ॥ ४. १९६/६ सु.र.भा. ॥
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अनुसन्धान ३३
अथ गतप्रत्यागतम् -
यनादन्वेषकाग्नाद्या(का ग्राह्या) लेखकैर्मसिमल्लिका ? |
घनान्धकारे निःशङ्कं मोदते केन बन्धुकी ॥२३॥ नालिकेरजा ॥२३॥ अथ प्रहेलिका
आद्यन्तस्यायिनी नित्यं कमला त्वयि वर्द्धताम् । अमध्यमं च सुकृतं भजस्व वसुधाधिप ! ॥२४-१॥ पङ्कजस्य स्थितो मध्ये सत्यलोकान्तमास्थितः । कल्पानामादिभूतश्च क एष नाः पितामहः ॥२४-२॥ य एवाऽऽर्दि(दिः) स एवाऽन्त्यो मध्यो भवति मध्यमः ।
'एतावदपि न जानाति स किं पश्यति मानवः ॥२४-३|| अथाऽऽर्थी प्रहेलिका
सदारिमध्याऽपि न वैरयुक्ता नितान्तरक्ताऽपि सितैव नित्यम् ।
यथोक्तवादिन्यपि नैव दूती का नाम कान्तेति निवेदयाऽऽशु ॥२५॥ अथ दूरान्वयिजाति
ज्येष्टो मासोऽनुगा शय्या कम्बलो यस्य शङ्करः । इति स्तात् बाणजन्मेशपिता पुत्रो विनायकः ॥२६-१|| धम्मिलस्य प्रेक्ष्य निकामं कुरङ्गशावाक्ष्याः । रज्जुन्यपूर्वबन्धव्युत्पत्तेर्मानसं शोभाम् ॥२६-२॥
१. प्रशस्ता मस्मि(सि)रिति मसिमल्लिका-इति प्रतिटिप्पण्याम् ॥ २. य एतन्नाभिजानीयात् तृणमात्रं न वेत्ति सः । इति सु.र.भा. ॥ ३. तृणमात्रं न वेत्ति सः । किं नाम तृणम् ? यवस(सम्) यवसं तृणमर्जुनमित्यमरः ।
इति प्र.टि. ॥ ४. १८५/१८ सु.र.भा. ॥ ५. 'सारिका' इति सु.र.भा. ॥ ६. १८५/३२ सु.र.भा. ॥
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चित्रं विचित्रभेदं यत्कविभिर्बहुधोदितम् ।
ग्रन्थगौरवभीत्यैव मयेह तदुपेक्षितम् ॥२६-३॥ इति श्रीभट्टगोविन्दसङ्ग्रहीते 'सभ्याभरणे' चित्रमरीचिः । अथ भावगूढम्
'काचित्कान्ता रमणसविधे प्रेषयन्ती करण्डं प्रायोवस्थाकलितमलिख व्यालमस्योपरिष्टात् । गौरीनाथं तदनु चकिता चम्पकं गात्रहेतून्
पृच्छत्यार्यान् निपुणधिषणान् मल्लिनाथ: कवीन्द्रः ॥१॥ करण्डस्थपुष्परक्षार्थमेतानलिखदिति भावः ॥१॥
विक्रीय विस्पृष्टमुखेन बाला मालाकृतः कैरवकोरकाणि । विक्रेतुकामा विकचाम्बुजानि
चेलाञ्चलेनाऽऽननमावृणोति ॥२॥ विकसितकमलानां मुखचन्द्रदर्शनात् सङ्कोचनभीत्येति भावः ॥२॥
काचित् प्रयुक्ता खलु देवरेण गृहाण शस्त्र व्रज राजमार्गम् । विलोक्य शय्यामिति लज्जिता सा
स्मेरानना नम्रमुखीबभूव ॥३॥ शय्यायां तस्याः पुंभावचिह्न दवा(दृष्ट्वा) देवरेणोपहसितेति भावः ॥३॥
प्राचीनस्मृतविरहव्यथातिभीत: काकुत्स्थः कृतकु(कु)तुकाक्षिनिमीललीलः । संपूर्ण(णे)शशिनि चिराय लग्नदृष्टेः
प्रेयस्याः स्थगयति लोचने कराभ्याम् ॥४॥ कनकमृगवत् मृगाङ्कमृगमपि याचयिष्यतीति भावः ॥४॥ १. काचिद् बाला रमणवसतिं प्रेषयन्ती करण्डं, सा तन्मूले सभयमलिखत्
व्यालमस्योपरिष्टात् । गौरीनाथं पवनतनयं चम्पकं चाऽस्य भावं, पृच्छत्यार्यान् प्रति कथमिदं मल्लिनाथ: कवीन्द्रः ॥ इति सु.र.भा. १९१/८४ ॥
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अनुसन्धान ३३
'शिरसि देवनदी पुरवैरिणः सपदि वीक्ष्य धराधरकन्यका । निबिडमानवती रमणाङ्गके
क्वचन चुम्बनमारभते स्म सा ॥५॥ क्रोधातिशयेन सविषो गलश्चुम्बित इति भावः ॥५॥
........ नागराज भवति प्रत्यर्थिविध्वंसनव्यापारे क(कृ)तनिश्चये सति सतां दारिद्यविध्वंसके । तत्कान्ता क्षितिधृत्तटीषु मणिभिर्नीलैः सुरम्यास्वहो कोकान् षट्पदमालिकाश्च कमलान्यालोकयन्त्यद्भुतम् ॥६॥
स्तनात्मकमुखप्रतिबिम्बावलोकनात् यद्वा नीलमणिजनितान्धकारे दिनज्ञानाय कोकसंयोगं षड्पदप्रचारं कमलविकाशं च विलोकयन्तीति भावः ॥६॥
दृष्टोऽयं सरिताम्पति: प्रियतमे बद्धोऽत्र सेतुर्मया कान्त(न्ता)क्वेति मुहुर्मुहुः सकुतुकं पृष्टे परं विस्मिते । अत्राऽऽसीदयमत्र नाऽत्र किमिति व्यग्रे निजप्रेयसि व्यावृत्त्याऽऽस्यसुधानिधि समभवन्मन्दस्मिता जानकी ॥७॥
स्वमुखचन्द्रदर्शनाभितजलधिकल्लोलाच्छादितस्य सेतोः प्रकटनाय क(?)मुखवव्यावृत्तिरिति भावः ॥७॥
समुद्धतानां दनुजेश्वराणां विमर्दने यस्य चकास्ति धैर्यम् । स श्रीपतिः किं निजनामधेयं
पटुर्जपद्भ्यो नितरां बिभेति ॥८॥ वैकुण्ठे सम्मर्दो भविष्यतीत्याशयेनेति भावः ॥८॥
अन्योन्यं भुजगवराः शङ्करसर्वाङ्गभूषणीभूताः ।
पश्यन्तो वदनानि प्रायः कम्पं भजन्ति को हेतुः ॥९॥ नीलकण्ठं विलोक्य केनाऽयं दंशापराधः कृत इति ॥९॥ १. १९०/७५ सु.र.भा. ॥
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मलयाद्रिसमुद्भूते मन्दं चलति मारुते । निनिन्द वानरान् काचित्कामिनी यामिनीमुखे ||१०|| मलयाद्रिः सेतुबन्धनाय कथमेतैर्न नीत इत्याशयः ॥ १०॥
अथ समस्या:
तत्र तावद्वैदिकी
'कामं कामदुधे (घं) घुक्ष्व ( धुङ्क्ष्व ) मित्राय वरुणाय च । वयं वीरेश (धीरेण ) दानेन सर्वान्कामानशीमहि ॥ १ ॥ २
तं नमामि महादेवं यन्नियोगादिदं जगत् । कल्पादौ भगवान् धाता यथापूर्वमकल्पयत् ॥२॥
गायका यूयमायात यदि मा गति लिप्सकः । धनदस्य सखा सोऽयमुपास्मै गायता नरः ॥ ३॥
नदीप्रवाहवेगेन प्रोन्मूल्यन्ते महाद्रुमाः । वेतसा नैव बाध्यन्ते अरेदो नामिनो गुणः ॥ ५ ॥
अधरः किश(स)लयमङ्घ्री पद्मौ कुन्दस्य कोरकान् दन्ताः । कः कौ के कं कौ कान् हसति हसतो हसन्ति हरिणाक्ष्याः ॥४॥
न लोपो वर्णानां न हि च परतः प्रत्ययविधिनिपातो नाऽस्त्येव क्षणमपि न भग्नाः प्रकृतयः । गुणो वा वृद्धिर्वा सततमुपकाराय जगतां मनोर्दाक्षीपुत्रादपि तव समर्थः पदविधिः ॥६॥ *
इति भावदशकम् ।
२. १८१ / २ सु.र.भा. ॥
३. क्वचिदपि इति सु.र.भा. ॥
४. १०६/१५३ सु.र.भा. ॥
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१.
अत्र 'कामं कामदुघं धुङ्क्ष्व, मित्राय वरुणाय च सर्वान् कामानशीमहि' इति च
समस्या - इति सु.र. भा. ॥
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अनुसन्धान ३३
'सर्वस्य द्वे सुमतिकुमती सम्पदापत्तिहेतोवृद्धो यूना सह परिचयात् त्यज्यते कामिनीभिः । एको गोत्रे स भवति पुमान् यः कुटुम्बं बिभर्ति
स्त्री पुम्वच्च प्रभवति यदा तस्य गेहं विनष्टम् ॥७॥ अथ पादत्रयरूपारामं लक्ष(क्ष्म)मपूर्वजं रघुवरं सीतापति सुन्दरं
नारीपीनपयोधरोरुयुगलं स्वप्नेऽपि नाऽऽलिङ्गितम् । वातघ्नं कफनाशनं कृमिहरं दुर्गन्धनिर्नाशनं · ताम्बूलं न तु येन लक्षितमसौ वातात्मजो दृष्टवान् ॥१॥ असंभृतं मण्डनमङ्गयष्टे
रनासवाख्यं करणं मदस्य । कामस्य पुष्पव्यतिरिक्तमस्त्रं
सरस्वती श्रीर्ललना नवीना ॥२॥ अथ श्लैषा(श्लेषाः)
घनबालमनोहारि सुमनोभिनिषेवितम् । बहुधा तु लसत्कान्ति पुस्तकं मस्तकायते ॥१॥ उन्मीलत्तिलकं काऽपि (क्वाऽपि) क्वचित् प्रस्फुरितालकम् । क्वचित् पत्रावलीकीर्ण(ण) स्त्रीमुखं पर्वतोपमम् ॥२॥ . गोलब्धजन्मा मधुरः शिखिप्रीतिविवर्द्धनः । उन्मीलदर्जुनच्छायो नवनीतायते गिरिः ॥३॥ कलानिधिकरस्पर्शात् प्रसन्नोल्लासितारका । बिभ्राणाम्बरमानीलं कामिनी यामिनीयते ॥४॥
१. सर्वस्य द्वे सुमतिकुमती सम्पदापत्तिहेत, एको गोत्रे प्रभवति पुमान् यः कुटुम्बं
बिभर्ति । वृद्धो यूना सह परिचयात् त्यज्यते कामिनीभिः, स्त्रीपुंवच्च प्रभवति
यदा तद्धि गेहं विनष्टम् ॥ इति चत्वारि पाणिनेः सूत्राणि समस्या-इति सु.र.भा. ॥ २. बाल्यात् परं साधु वयः प्रपेदे - इति सु.र.भा. || ३. २५५/२० सु.र.भा. ।
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।
मणिभिरष्टभिर्युक्ते प्रणमत्या(मन्त्या) हरान्तिके । सुकेश्या कबरीभारे सन्त्यष्टौ हरमूर्तयः ||५|| ईदृशे मलिने मुण्डे सर्वधर्मबहिष्कृते । पतिता मस्तके नो चेत् विद्युत्काकेन भक्षिता ||६|| श्रुत्वा सागरबन्धनं दशशिरः(राः) सर्वैर्मुखैरेकधार
भूयः पृच्छति वर्तिकं च चकितो भीत्याकुलः सम्भ्रमात् । बद्धः सत्यमपांनिधिस्सलिलधिः कीलालधिस्तोयधिः
पाथोधिर्जलधिः पयोधिरुदधिः वारांनिधिर्वारिधिः ॥७॥ इन्दुरिणरत्नमश्वतिलकः श्रीपारिजातस्सुधा
वर्गस्वर्गपरिच्छदः समजनि त्वतः(त्तः) सुरैः प्रार्थितात् । धिग्लोकं तव यस्तथाऽपि तनुते तोयानामावली
मम्भोधिर्जलधिः पयोधिरुदधि(धिः) वारांनिधिर्वारिधिः ॥८॥ कान्ते ! त्वत्कुचचूचुका तदुपरि स्मेरा च हारावली
त्वद्वक्त्रं तरुणाङ्गि ! बिम्बितमनुच्छायालताश्यामताम् । त्वं सर्वाङ्गमनोरमे त्रिजगतां बध्नासि वृष्ट्या यतो - जम्बूवज्जलबिन्दुवज्जलजवज्जम्बालवज्जालवत् ॥९॥ ज्ञेयं दुर्जनमानसं परिणतिश्यामं न मैत्रीस्थिरं
भूयोऽपि स्फुटमस्फुटं च गुणवत्सन्दूषणं(णे?) सङ्गतः (तम्) । संरोधि व्रणमण्डलस्य सहसा नित्यं परेषां बुधे जं०.... [ जम्बूवज्जलबिन्दुवज्जलजवज्जम्बालवज्जालवत् ॥१०॥ कैषा भूषा नवीना तव भुजगपते ! भूषयामास शम्भु
भूत्या मन्मौलिमालां सदशनवशतान्नक्षपातान् विजित्य ।
१. एकदा इति सु.र.भा. । २. तूर्णं - इति सु.र.भा. ॥ ३. वार्तिकान् स चकितो - इति सु.र.भा. ॥ ४. ०निधिर्जलनिधिः-इति सु.र.भा. ॥
५. १८३/६१
स.र.भा.
॥
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अनुसन्धान ३३
गौर्यामानं ज दृष्टा (?) ....... सङ्ख्यका नित्यमेवं
शीर्षाणां चैव वन्ध्यामसनवतिरभूल्लोचनानामशीतिः ॥११॥ निरङ्के दोषेशे मृगमदकलङ्क वितनवै
प्रियेत्युक्ते वेदौ कृतशिखरबिन्दौ गिरिजया । कर्प(प)र्दश्रीगङ्गाधरहरशिरस्यद्भुतमभूत्
धनुःशृङ्गे भृङ्गेस्तदुपरि गिरिस्तत्र जलधिः ॥१२।। उद्दामार्काशुदीप्यद्दिनमणिमणिभिः भस्मितान्ते समन्तात्
__ वायुव्याधूयमानज्वलदनलकणाकीर्णधूलिप्रपणे । 'कान्तार(रेऽ)स्मिन् तृषार्ते मयि पथिक ! भवेत्का(क्वा)ऽपि पाथोप्यतेना(?)
शूच्यग्रे कूपषट्कं तदुपरि नगरी तत्र गङ्गाप्रवाहः ॥१३॥ नीपाभट्टस्येतौ ॥ ये तापं शमयन्ति सङ्गतिभृतां ये दानशृङ्गारिणि(णो)
येषां चित्तमतीव निर्मलमभूद्येषामभग्नं व्रतम् । ये "सर्वे सुखयन्ति सङ्गतिजनं ते साधवो दुलभा(र्लभाः) गङ्गावज्जल(गज)गण्डवत्गगनवत् गाङ्गेयवत् गेयवत् ॥१४॥५
इति श्रीचित्रकाव्यसंपूर्णम् । संवत १७७६ वर्षे प्रथम-आश्वनसित-११, रवौ लिखितममृतपुरमध्ये । श्रीवासुपूज्यप्रसादात् । शुभं भवतु । श्री(श्रि)योऽस्तुं (स्तु) ॥
१. कान्तारेऽस्मिन् नृपात्ते पथि पथिकभवे काऽपि पाथोदसेना
सूच्यग्रे कूपषट्कं तदुपरि नगरी तत्र गङ्गाप्रवाहः - इति सु.र.भा. ॥ २. १८४/७४ सु.र.भा. ॥ ३. निर्मलतरं - इति सु.र.भा. ।। ४. सर्वान् सुखयन्ति हि प्रतिदिनं - इति सु.र.भा. ॥ ५. १८२/४८ सु.र.भा. ॥
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रागमाला - शान्तिनाथ स्तवन ॥
'रागमाला' ए पंदरमा-सोळमा शतकमां प्रवर्तेलो एक विषय (थीम) छे. मुघल- कालमां शास्त्रीय संगीतने मळेली सर्वोच्च लोकप्रियता ए तेनुं निदान छे. आ समयमां रागोनां चित्रो सर्जायां, जे रागमाला - चित्रावलि तरीके पोथीचित्रो के लघुचित्रो (मिनिएचर पेइन्टिंग्स रूपे) उपलब्ध तेमज प्रकाशितरूपे पण उपलब्ध छे. आ विषयने केन्द्रमां राखीने तत्कालीन कविओए 'रागमाला 'ना नामे शृङ्गाररसमय काव्यरचनाओ पण करी छे. तो जैन मुनिओए पण ए विषयने अर्थात् संगीतना रागोने माध्यम बनावीने प्रभुभक्तिरसमय 'रागमाला' ओ रची छे. एवी ज एक 'रागमाला' अहीं प्रकाशित करवामां आवे छे.
आ रागमाला जैनोना सोळमा तीर्थंकर शान्तिनाथनी स्तुति / विज्ञप्ति रूपे रचाई छे. ३१-३२ कडीओमां पथरायेल आ रागमालामा १४ रागोनो समावेश छे, जेमां १. सामेरी, २ असाउरी, ३. रामगिरि, ४. राजवल्लभ, ५. गुडी, ६. देशाख, ७. परदु धन्यासी, ८. धोरणी, ९. केदारा गोडी, १०. मल्हार, ११. श्रीराग, १२. टोडी, १३. कल्याण, १४. धन्यासी - एटला रागो जोवा मळे छे. कर्ताए दरेक पदनी छेल्ली पंक्तिमां ते ते रागनुं नाम वणी लीधुं छे. क्वचित् प्रथम पंक्तिमां पण वण्युं छे : 'रामगिरि' नुं, तो गुडी रागनुं नाम जोवा नथी मळतुं.
आना कर्ता, तपगच्छपति विजयदानसूरिना शिष्य पं. जगराजना शिष्य मुनि सहजविमल छे एम, 'कलश'नी कडी द्वारा जाणवा मळे छे. रचनानो संवत तो सोंधायो नथी, परन्तु अनुमानतः आ रचना सोळमा सैकानी होय ए वधु सम्भवित छे. विजयदानसूरिनो सत्ताकाल १५ मो - १६मो शतक छे, अने तेमना प्रशिष्ये, तेमना शासनकाळमां ज आनी रचना करी होवानुं 'कलश' परथी ज नक्की थाय छे.
आ रचना, खंभातना श्रीपार्श्वचन्द्रगच्छना ज्ञानभण्डारनी वि. २, पो. ६४ नी क्रमांक ८३१ नी प्रतिमांथी ऊतारेल छे. ३७ पत्रनी ए प्रतिनुं नाम 'स्तवनसंग्रह' छे. तेमां पुष्पिका तो नथी, पण अनुमानतः ए १७मा शतकमां लखाएली हशे तेम जणाय छे. तेना प्रथमना अढी पत्रमां आ 'रागमाला'
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लखायेल छे.
अलबत्त, प्रतिना अक्षर खूब सुन्दर होवा छतां, प्रत खूब अशुद्ध छे. अशुद्धिओ सुधारीने नकल करवी ए जरा विकट काम जणायुं छे.
आ प्रतनी झे० नकल वर्षो पूर्वे उपाध्याय श्री भुवनचन्द्रजी द्वारा मळेली, तेना आधारे आ सम्पादन कर्तुं छे. बीजी प्रतोनो आधार लईने पाठशुद्धि करवानो पूरो अवकाश छेज प्रतनी नकल आपवा बदल ज्ञानभण्डारना कार्यवाहकोनो आभारी छू.
अनुसन्धान ३३
राग असाउरी ॥
मति निरमल जिननामिं कीजइ, लहिइ अति आनंद । अचिरामाता उअरि धरीया, विश्वसेन - कुलचंद ||३||
श्रीराग सामेरी ॥
वंछितपूरण मनोहरूं सयलसंघ - मंगलकरू जिनवरू चउवीसि नितुं वंदिइ ए ॥१॥ ब्रह्मवादिनी मनि धरूं निजगुरुचलणे अणसरूं सा मेरी मति एणि परि निरमल करू ए ॥२॥
जसु नाम सुणंता सिवसुख लहिइ, सिझइ वंछित काम ।
सो शांतिनाथ सोलमो, तवीजे असारी अरिभिराम (असाअरी अभिराम ? ) ||४||
राग रामगिरि ॥
अभिराम गिरिवर मेरुशृंगि जनम महोच्छव सार ।
चउसठि सुरपती करइ उच्छव जव जनमिया जगदाधार ॥५॥
इम करीइ उच्छव मात पासि, थापिया जिनराय ।
अति गहिय समकित निरमलू निजठामि सुरपती जाइ ||६||
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राजवल्लभ राग ॥
दिनदिन वाधइ दीपतु ए, शांतिकुअर गुणवंत ।
सकल कला मुखचंदलु रे, त्रिभुवन मन मोहंत ॥७॥ यौवन पहुता राया तणी रे, परणी कुमरी जाम । राजवल्लभ भय (मय ? ) दीपतु, मंडलीक थया ताम ॥८॥
राग गुडी ॥
एणी परि राज करंता सीमाढा सवे । सेवक थइ आवी मिल्या ए ॥ ९ ॥
सुखीय थया तव लोक, तस्कर परचक्र । उपद्रव तेहना सवि टल्या ए ॥
पुरव पुण्यप्रमाण आयुधशालाइ । परदलना मद मोदनु ( मोडतु ? ) ए ॥ चक्र उपन्नं सार उगशेरी दिनकार । सहसकिरण जस छोरनु ए ॥१०॥
राग देशाख ॥
चक्र लेइनि चालिआ तव षटखंड जीत्या (जीत) चक्रवर्ति थया पांचमा, प्रभु त्रिजग वदीत ॥११॥ वैताढवासी जे नरवरुं वलता ते मिलिया । देसा खयरी विद्याधरा ते सवि पाच्छा वलया ॥१२॥ विजय करी घरि आविआ बंदी करई जइकार । वधावइ वरकामिनी बोलइ मंगल च्यार || १३ || पंच विषय सुख भोगवि सोवनवन तनु चंग | गजपुरि नयरि वसंत केदारो कउ रागउग ||१४||
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अनुसन्धान ३३
राग परदु धन्यासी ॥ देवलोकांतिक इम कहि ए जागो जागो जोगिंद, विषयसुख परिहरु ए । त्रिभुवननि हितकारणि ए, तारणि भवजल एह संजम सहि वरु ए। दान संवच्छरि तुं दयां ए उरण कीधो लोकनु । जय जय सुर करि ए । परिदोल विबुधा सुणिए धन्यासी दमिश्रनु(?) । थ(प्र) भु संज्यम वरइ ए ॥१६॥
राग धोरणी ॥ सीह तणी परि एकलु, विचरइ देसविदेस । घनघाती क्रम खय क्रिया ध्यान सुकल विसेसो रे, केवलश्री वरि निवड मिथ्यात अनेको रे, तिम दूर करइ ।।१७।। सुरनर किंनर तिहा मिलि, रचइ समोश्रण सार । तिहा बेसी प्रभुजी कहें, धर्म ज च्यार प्रकार रे, त्रिभुवन तारेवा । सिद्ध धोरणी जिनराउ रे, विघन निवारेवा ॥१८॥
राग केदारा गोडी ॥ साधु साध्वी श्रावकश्राविका, थापिउं संघ उदार रे । मुगतिमारग चलावतु आप दयासिरदार रे ॥१९॥ कुमति-राहुनइ सिहारउ ऊगोरी भानु तिंग रे । केदारा गउरी नांटिक करइ, सुरतणी बाली निज अंग रे ॥ शांतिजिनेश्वर सेवीइ ॥२०॥
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राग मल्हार ॥ सुरराजि सिरुसखित्त(?) चरणां-तलिं कनककमल ज करि निरमल पुण्य पोति भंडार, भवजलनिध सुर एणी जुगतिं तरि ॥२१॥ तिहा कुसुमगंधि बहिकि अति, ध्वजा दंड उपरि ऊची लहकंति । भामंडल तेजइ झलहलंति, विश्वसेन मल्हार नीकु दीपंत ॥२२॥
श्रीराग ॥ इसी युगति आठ प्रतिपाली टाली बहु मिथ्याते घन । समेताचलनि शृंगि मनोहर पहुता साथि साधु जन || सेव करइ नरा सोधइ(?) कोडाकोडि अमर सिंहा आवि गावइ
सुर श्रीराग करी अणसण लेइ करम खपेइ जिनवर मुगतिरमणि ज वरी
सिद्ध हवा भवजल तरी ॥२३॥
राग टोडी ॥ सो शांतिनाथजिन राव सुणु हमारा एकाग्रचितु नितु सेव करु तुहारा ।। संसारसागर दु(?) पारग तारि सामी करुणानिधि करि कृपा मुझ पारगामी ॥२५॥ चउरासी लष्य जीवाज्योनि भम्यु हूं देवा कीनी सदा हरिहरादि मुधा सेवा । तू मइ लह्यो नयनभूषण नाथ आज कर्मसंतति टोडी करूं आप काज ॥२६॥
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अनुसन्धान ३३
राग कल्याण ॥ भवियण जण सुणउ हितवात खरी प्रभु सेवउ मन एकांत करी । यम अलिअ विघन सवि जाइ टरी लच्छी घरि आवइ रंग भरी ॥२७|| जस धा(ध?)न्य अनोपम कलपतरु चिंतामणि सम उपमान हरु । सदा सेवीत सुरनर सुंदरु सो सयलसंघ कल्याणकरू ॥२८॥
राग धन्यासी ॥ इम राग कुसुममाला करी पूजा कीनी मइ अतिखरी । मुगतिसिरि दिउ दान ए गा(सा?)मी ए ॥२९।। भवि विधिरता ते धन्या, सिर नामइ तुह एकमना । तेहना वंछित काम सवि सरइ ए ॥३०॥
कलस ॥ तपगच्छनायक मुगतिदायक सकल गुणमणिसागरु श्रीविजयदानसुरिंद्रगच्छपति संप्रति सोहम गणधरु । जगराज पंडित तणइ सीसिं सहजविमल इम वीनवइं ए वीनती जे भणइ भावें अनंत सुख सो अनुभवई ॥३१॥
इति श्री रागमाला-शांतिनाथस्तवनं समाप्तः ॥
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श्रीसूरचन्द्रोपाध्यायनिर्मितम् प्रणम्यपदसमाधानम्
म० विनयसागर
प्राचीन समय में उपाध्यायगण/गुरुजन व्याकरण का इस पद्धति से अध्ययन करवाते थे कि शिष्य/छात्र उस विषय का परिष्कृत विद्वान् बन जाए। प्रत्येक शब्द पर गहन मन्थन युक्त पठन-पाठन होता था । जिस शब्द या पद पर विचार करना हो उसको फक्किका कहते थे । इन फक्किकाओं के आधार पर छात्रगण भी शास्त्रार्थ कर अपने ज्ञान का संवर्द्धन किया करते थे । कुछ दशाब्दियों पूर्व फक्किकाओं के आधार पर प्रश्न-पत्र भी निर्मित हुआ करते थे, उक्त परम्परा आज शेष प्रायः हो गई है । उसी अध्यापन परम्परा का सूरचन्द्रोपाध्याय रचित यह प्रणम्यपदसमाधानम् है ।।
उपाध्याय सूरचन्द्र खरतरगच्छाचार्य श्री जिनराजसूरि (द्वितीय) के राज्य में हुए । सूरचन्द्र स्वयं खरतरगच्छ की जिनभद्रसूरि की परम्परा में वाचक वीरकलश के शिष्य थे और इनके शिक्षागुरु थे - पाठक चारित्रोदय । वाचक शिवनिधान के शिष्य महिमासिंह से इन्होंने काव्य-रचना का शिक्षण प्राप्त किया था । इनका समय १७वीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध और १८वीं शताब्दी का प्रारम्भ है । सूरचन्द्र प्रौढ़ कवि थे और इनका स्थूलिभद्रगुणमाला काव्य भी प्राप्त होता है, जो कि मेरे द्वारा सम्पादित होकर सन् २००५ में शारदाबेन चिमनभाई एज्युकेशन रिसर्च सेन्टर, अहमदाबाद से प्रकाशित हो चुका है । कवि के विशिष्ट परिचय के लिए यह ग्रन्थ द्रष्टव्य है :
प्रणम्यपदसमाधानम् में प्रणम्य परमात्मानम् इस शब्द पर गहनता से विचार किया गया है । प्रणम्य परमात्मानम् पद्य कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्रसूरिजी रचित सिद्धहेमशब्दानुशासन की लघुवृत्ति का मंगलाचरण भी है और सारस्वत व्याकरण का मंगलाचरण भी है। इसी लेख में 'प्रणम्य प्रक्रियां ऋजु कुर्वः' इससे स्पष्ट होता है कि सूरचन्द्र ने सारस्वतप्रक्रिया के मंगलाचरण पर ही विचार किया है ।
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अनुसन्धान ३३
पश्चिमी भारत में पाणिनीय व्याकरण का विशेष प्रचार नहीं था । गुजरात में श्री हेमचन्द्रसूरि रचित सिद्धहेमशब्दानुशासन का और राजस्थान में प्राय: करके व्याकरण के प्रारम्भिक अध्ययन के रूप में सारस्वत व्याकरण का पठन-पाठन होता था । इसीलिए सारस्वत व्याकरण के मंगलाचरण पर ही सूरचन्द्र ने विचार-विमर्श किया है/ फक्किका लिखी है । प्रारम्भिक जिज्ञासुओं के लिए पठनीय होने के कारण ही प्रस्तुत की जा रही हैं ।
प्रान्त पुष्पिका में 'पण्डित सूरचन्द्रेण कृतं' और 'पं. चि. भाग्यसमुद्रवाचनार्थं' अंकित किया है । इससे स्पष्ट है कि यह लेखक द्वारा जालौर में स्वलिखित एक पत्रात्मक प्रति है और श्री लोंकागच्छीय श्री कनकविजयजी के संग्रह में यह प्रति प्राप्त थी । मार्च ५२ में प्रवास काल में मैंने इसकी प्रतिलिपि की थी । अन्यत्र इसकी प्रति प्राप्त नहीं है । प्रणम्यपद समाधानम्
प्रणम्य परमाधीशं, सूरचन्द्रेण साधुना । प्रणम्य परमात्मानमित्यस्यार्थोऽत्र चिन्त्यते ॥
ननु भो विद्वन् । पूर्वं शास्त्रस्यादौ शास्त्रकाराः मङ्गलार्थं कञ्चिन्मङ्गलवाचकं शब्दं प्रतिजानाति इति सर्वशिष्टाचारः । अत्र ह्येतत्क्रममुत्क्रम्य श्रीमदाचार्यधुय्यैः, 'प्रणम्य' इति पदस्य शास्त्रस्यादौ वर्त्तमानत्वेपि 'प्र' इत्युपसर्गः पूर्वं कथं प्रतिज्ञात: ? । उपसर्गो हि न मङ्गलार्थो लोके रूढः, "उपसर्ग उपद्रवः" इति निघण्टुवचनात् । वैयाकरणेतरसूरयो हि शास्त्रादौ अमङ्गलशब्द विहाय मङ्गलशब्दमेव सर्वे निवेशयन्ति, तच्चात्र न दृश्यते तत्र को हेतु: ?, प्रोच्यते । नास्य नामकोषसम्बन्धिनी उपद्रवाभिधेयोपसर्गसंज्ञा, किन्तु 'उपसर्गाः क्रियायोगे' इति पारिभाषिकी प्रस्योपसर्गसंज्ञा । एवं चेत् लौकिकी पारिभाषिकी वा प्रस्योपसर्गसंज्ञा, एवं चेत् लौकिकी पारिभाषिकी वा प्रस्योपसर्गसंज्ञा श्रुतिकरुः सम्पनीपद्यते एव । नैवं प्रस्य महामङ्गलरूपत्वादिदं शास्त्रादौ मङ्गलमित्येव विवक्षितम् । यतः - “प्रशब्दश्चाथशब्दश्च" इति पुराणविचक्षणा आचक्षते ।
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ननु च शास्त्रान्तरेषु “ओंकारश्चाथशब्दश्च" इति पाठो दृश्यते, ततोऽयं पाठोप्ययुक्तः,नैवं प्रशब्दशब्दनेन, साक्षात् ओंकार एवोपात्तः, यतःओंकारापरपर्यायो प्रणव-शब्दोस्ति, तस्य पदैकदेशे समुदायोपचारात् । यद्वा"अवयविनि वर्तमानाः शब्दाः अवयवेष्वपि वर्तन्ते" इति वचनात् भीमोभीमसेन इत्यादिन्यायाद्वा प्रणवैकदेशे प्रशब्दे प्रणवे समुदायोपचारात् प्रशब्देन प्रणवग्रहणं सिद्धम् । सिद्धे च तस्मिन् ओंकारस्यैव उपादानं अङ्गीकृतं, तदङ्गीकारे च "कारश्चाथ शब्दश्च" इति पाठोऽपि आदृत इति ।
प्रशब्दश्चाथ शब्दश्चेति पाठस्य ओंकारश्चाथेति पाठेन एकार्थीभावात् नायमयुक्तः पाठ इति । एवं चेत्तर्हि भवतु नाम प्रणवे माङ्गल्यं, प्रकृते किम् ?, उच्यते-प्रस्य प्रणवशब्दस्यादौ स्थितत्वात् प्रणवकृतं माङ्गल्यं प्रशब्देपि अस्तीति प्रशब्दो माङ्गलिक इति । एवं तहिं भवतु ।
. शास्त्रादौ मङ्गलार्थो यः 'प्र'उपन्यासः, परं 'प्रणम्य' इति पदं समस्तं असमस्तं वा ? किंप्रत्ययान्तं सिद्ध्यतीति प्रोच्यताम् ? प्रणमनं पूर्वं प्रणम्येति प्रथमातत्पुरुषेण समस्तं पदं, क्यप् प्रत्ययान्तं चेति । कथमत्र क्यप् ? अस्य तत्पुरुषेण समस्तत्वात् समासे क्यबिति क्यप् । एवं चेत् क्यप: कित्वात् लोपस्तु अनुदात्ततनां इति मलोपः क्रियताम् । मैवं वोच:-लोपस्त्विति तु ग्रहणं व्यवस्थाविभाषार्थं, तेनाऽत्र न मलोपः, पक्षे 'प्रणत्य' इत्यपि भवति । णत्वं तु प्रादेश्च तथा तौ इत्यनेन सिद्धमेव ।।
ननु 'प्रणम्य' इत्यत्र का विभक्तिः ? किं वचनं ? चेति निगद्यताम्, उच्यते- तत्र विभक्तिः प्रथमा । प्रथममिति कथमत्र विभक्तिप्रतीतिः ?, उच्यतेप्रणम्य इति पृथक्पदत्वात् विभक्तिमन्तरेण च न पदत्वापत्तिः "विभक्त्यन्तं पदम्" इति वचनात् ।
एवं चेत्तर्हि त्यादीनामपि विभक्तिसंज्ञा अस्त्येव, तर्हि "त्याद्यन्तं उत स्याद्यन्तं" इति, तत्र आद्यं न सम्भवति साक्षात् एव तदन्तत्वाभावात् । स्याद्यन्तं चेत् तस्यापि प्रत्यक्षानुपलक्ष्यमाणत्वात् न सम्भवः ।
नैवम्- "कृत्तद्धितसमासाश्च" इति कृतां नामसंज्ञात्वात् स्यादिर्भवत्येव । एवं चेत्तत्र का विवक्षामाश्रित्य विभक्ति-उत्पत्तिविधीयते ?, उच्यते विभक्त्यर्थप्रधाननिर्देशमाश्रित्य, स च विभक्त्यर्थः प्रातिपदिकार्थः सन्मात्रलक्षण:
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सम्पन्न इति । प्रातिपदिकार्थे सन्मात्रे प्रथमैव विभक्तिः, एवं चेत् प्रथमाया द्विवचनं बहुवचनं वा क्रियताम्, किमेकवचनेन ? सत्यं सङ्ख्याविशेषाभावा सर्वा । किं तर्हि एकवचनमेव ? तस्य उत्सर्गत्वेन विधीयमानत्वात् । तथा चोक्तम् - "एकवचनमुत्सर्गतः करिष्यत" इति प्रथमाविभक्त्यैकवचनान्तत्वं सिद्धिमिति ।
एवं चेत्तर्हि विभक्तिः कथं न दृश्यते ? इत्युच्यते क्त्वाद्यन्तं चेत्यव्ययसंज्ञत्वात् विभक्तेर्लुक् ।
ननु नहि साक्षात् क्त्वा दरीदृश्यमानोऽस्ति तत्कथं, अव्ययत्वम् ? सत्यं, क्त्वास्थाने जायमानः क्यबादेशः क्त्वावन्मन्तव्यः । स्थानस्थानिनोरभेदोपचारात् स्थानिवद्भावात् इत्यर्थः । ततः क्त्वाद्यन्तं चेत्यव्ययत्वेन "अव्ययाद् विभक्तेर्लुक्” इति लुक् ।
ननु अत्र य: क्त्वास्थानीयः क्यब् उच्यते स कर्त्तरि कर्मणि भावे वा प्रयुज्यते, प्रोच्यताम् । “अनिर्दिष्टार्थाः प्रत्ययाः स्वार्थे भवन्ति" इति वचनात्, स्वार्थो भावः, ततोऽत्र भावे एव क्त्वाप्रत्ययः, कर्तृकर्मणोरनभिधानात् तत्र न भवति ।
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।
एवं चेत्तर्हि भावस्य कर्मविहीनत्वात् 'परमात्मानं' इत्यनेन सकर्मणा पदेन सह कथंकारं योगो विधीयते, भावे नित्यं कर्मणोऽविद्यमानत्वं • आकाशकुसुमवत् त्रिलोक्यां इति । नैवं यतः सकर्मकाणां धातूनां पुरस्तात् भावविवक्षया उत्पादितः कृत्प्रत्ययः प्रत्ययस्वाभाव्यादेव कर्मत्वं न अपाकरोति । यदाहुः- “सकर्मकाणामुत्पन्न" इत्यादि । तेन नमेः सकर्मकाद्धातोर्भावेपि विहितः, क्त्वा सकर्मैव भवतीति, 'परमात्मानं' इत्यत्र युक्तत्वम् ।
एवं चेत् क्यपः कृत्प्रत्ययत्वात् कर्मणि षष्ठी युज्यताम्, तथा च सति प्रणम्य परमात्मन इति पदेन भवितव्यम्, न द्वितीयान्तेन इति । कर्तृकर्मणोः "कृद्योगे षष्ठी" भवतीति वैयाकरणाः । नैवम् - "कर्तृकर्मणोः " अक्तदौ कृति षष्ठी" इति सूत्रे अक्तादौ इति निषेधसामर्थ्यात् क्तादिप्रत्यययोगे न कर्मणि षष्ठी, अक्तादिरित्यत्रादिशब्दः क्तसमानप्रत्ययसमुच्चयनार्थः तथा च सति भावेपि विहितः क्त्वाप्रत्ययस्थानीयसकर्मैव भवतीति युक्तम् परमात्मानमिति कर्मवचनमिति ।
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ननु अत्र क्त्वाप्रत्ययः कुत्र काले प्रयुज्येत ?, उच्यते-अव्यवहितपूर्वकालापेक्षया क्त्वाप्रत्ययः सिद्धः । यथा- प्रणम्य प्रक्रियां ऋजुं कुर्वः, इति। तत्र प्रणमनानन्तरमेव प्रक्रियार्जवकरणमित्यर्थप्रादुर्भावः स्यात्, तेन अव्यवहितपूर्वकालापेक्षिक्त्वाप्रत्ययोऽत्र ।
ननु चेत् यदि पूर्वकालापेक्ष एव क्त्वाप्रत्ययः प्रादुःष्यात्, तदा मुखं व्यादाय स्वपिति, अक्षिणी सम्मील्य हसतीत्यादौ पूर्वकालमन्तरेणापि क्त्वाप्रत्यय उपलभ्यते । मुखव्यादानाक्षिसम्मीलनक्रिययोः स्वापरसनक्रिययोश्चैककाले एव प्रत्यक्षेण कक्षीक्रियमाणत्वात् । नच मुखव्यादानानन्तरं स्वपनं, अक्षिसम्मीलनानन्तरं च हसनमित्यर्थाऽऽविर्भावोऽभिष्यात् । द्वयोः क्रिययोः समानकाले एव दृश्यमानत्वेन आनन्तर्यक्रियानुपलब्धेरिति । नैवम् - इहापि पूर्वकालापेक्षाऽस्त्येव । कथं स्वापक्रियायामुखव्यादानादुत्तरकालीनत्वाद्भवति, मुखव्यादाने पूर्वकालताप्रवृत्तिरेवं हसनक्रियाया अपि अक्षिसम्मीलनात् उत्तरकालीनत्वात् स्यात्, अक्षिसम्मलीने पूर्वकालताप्रवृत्तिरिति सिद्धोऽत्र पूर्वकालापेक्षया क्त्वाप्रत्ययस्थानीयः क्यप् इति ।
इति प्रणम्यपदसमाधानम् लेशतः कृतं पं. सूरचन्द्रेण
श्रीरस्तु लिखितं श्रीजावालपुरे पं. चि. भाग्यसमुद्रवाचनार्थमिति शुभं भवतु । किं तद्वर्णचतुष्टये नवनजवर्णैस्त्रिभिभूषणं,(?)
आद्यैकेन महोदयेन विहगो मध्यद्वये प्राणदः । व्यस्ते गोत्रतुरङ्गचारिमखिलं प्रान्ते च सम्प्रेषणं, ये जानन्ति विचक्षणाः क्षितितले तेषामहं किङ्करः ॥
[ कुवलयम् ] शुभंभवतु लेखकवाचकयोः
Clo. 13-A, मेन मालवीय नगर
जयपुर-३०२०१७
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अनुसन्धान ३३
ट्रंक नोंध
(१) भद्रेश्वरमा उपलब्ध बे गुरुमूर्तिओ भद्रेश्वर (कच्छ)ना जैन मन्दिरना पुनरुद्धार-कार्य दरम्यान पायानुं खोदकाम करतां मळी आवेल खण्डित शिल्पावशेषोमां बे गुरुमूर्तिओ पण मळी छे. बन्ने खण्डित छे : एकना हाथ-पग तूटेला छे, तो बीजी- मस्तक ज नथी. विधर्मी मूर्तिभंजको, ज आ कृत्य होवानुं प्रथम दृष्टिए ज समजी शकाय छे.
प्रथम मूर्ति नागेन्द्रगच्छना आचार्य सोमप्रभसूरिनी छे. बाजठ ऊपर, एक पग नीचे लटकती मुद्रामां बेठेली आ गुरुमूर्तिनुं मुखारविन्द सौम्य अने शान्त मुद्राथी अंकित छे. खण्डित एवा डाबा पगनी नीचे ठवणी ऊपर पोथी अने तेनी समीपे बेठेल रजोहरणान्वित साधु-शिष्य पण जोवा मळे छे. प्रतिमानी पाटली परनो लेख आ प्रमाणे उकले छे :
___ "सं० १३३३ श्रीनागेंद्रगच्छे श्रीसोमप्रभसूरयः।" 'कुमारपाल प्रतिबोध वगेरेना प्रणेता सोमप्रभाचार्य करतां आ आचार्य जुदा छे; आशरे एक सैकानो ते बनेमां फेर छे. (टाईटल-१ परनुं चित्र जुओ).
बीजी मूर्ति, मात्र धड छे, मस्तकविहोणुं. तेमां बे हाथ तथा बे पग अखण्ड छे. बाजठ पर बेठेल आकृतिमां जमणो पग नीचे लटकतो छे, अने डाबा हाथमा माळा छे. (जुओ टाईटल-४ परनुं चित्र). पलांठीनो लेख आ प्रमाणे वंचाय छे :
__"संवत् १३३१ वर्षे वैशाखाद्ये श्रीभद्रेश्वरे देवश्रीमहावीरचैत्ये पं. वदनचंद्रमूर्तिः । शिष्येण जयचंद्रेण कारापिता ॥" - आ लेखथी एक ऐतिहासिक तथ्य ए जाणी शकाय छे के १४मा शतकमां पण, भद्रेश्वरमां, महावीरस्वामी- ज चैत्य हतुं, पार्श्वनाथ, नहि. आ तथ्य भद्रेश्वर तीर्थना इतिहास विषेनी अमुक मान्यताओ- धरमूळनुं परिवर्तन करावे तेवू छे.
__ - शी.
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पत्रचर्चा (१)
पाठक रघुपति
म. विनयसागर
अनुसन्धान ३२ में पृष्ठ १८ से २१ तक साध्वी समयप्रज्ञाश्रीजी सम्पादित पाठक रुघपति कृत सुगण बत्तीसी प्रकाशित हुई है । कृतिलेखक रघुपति का परिचय देते हुए सम्पादिका ने पृष्ठ १९ पर लिखा है - पाठक रघुपति ए मूळ नाम छे । ते स्थानकवासी अथवा तेरापन्थी परम्पराना होय तेम अनुमान थाय छे । जो पूर्णतः भ्रामक होने के कारण सुधार योग्य है। १९वीं शताब्दी में स्थानकवासी और तेरापन्थी सम्प्रदाय में पाठक शब्द का प्रयोग ही नहीं होता था । पाठक उपाध्याय का वाचक है। यह केवल श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा में ही प्रयुक्त होता था । स्व. श्री मोहनलाल दलीचन्द देसाई लिखित जैन गुर्जर कविओ भाग दो पृष्ठ ५७३
और तृतीय भाग के द्वितीय खण्ड पृष्ठ १४५५ (सन् १९४४ का संस्करण) का अवलोकन किया होता तो यह भ्रम पैदा नहीं होता ।
रघुपति का बोलचाल का नाम रुघपति था । ये खरतरगच्छीय श्री जिनसुखसूरिजी के प्रशिष्य और विद्यानिधान के शिष्य थे । विद्यानिधान का जन्म नाम वेलजी था और संवत् १७७१ जेसलमेर में इन्होंने दीक्षा ग्रहण की थी । रघुपति की रचनाओं को देखते हुए यह निश्चित है कि ये राजस्थान प्रदेश के निवासी हों । इन्होंने दीक्षा कब ग्रहण की ? इसका कोई संकेत नहीं मिलता है किन्तु इनके द्वारा जो कुछ साहित्य मिलता है उसके आधार से कहा जा सकता है कि इनका समय १८वीं शताब्दी का अन्तिम चरण
और १९वीं शताब्दी के द्वितीय चरण तक है। इनकी प्रारम्भिक रचना संवत् १७९२ में रचित गौड़ी पार्श्वनाथ स्तव और नाकोड़ा पार्श्वनाथ स्तव प्राप्त होता है । अन्तिम रचना संवत् १८३९ में रचित जिनदत्तसूरि' छन्द पद्य ३५ प्राप्त होता है।
१. महोपाध्याय विनयसागर द्वारा सम्पादित खरतरगच्छ दीक्षानन्दी सूची, पृष्ठ ३३ २. महोपाध्याय विनयसागर द्वारा सम्पादित दादागुरु भजनावली, पृष्ठ ३० से ३५
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अनुसन्धान ३३
रघुपति की जो छोटी-मोटी अनेक रचनाएं प्राप्त होती हैं वे निम्न
१. उपदेशबत्तीसी २. उपदेशपच्चीसी .३. उपदेशरसालबत्तीसी ४. करणीछंद ५. कुंडलियाबावनी, पद्य-५८, सं. १८०८ ६. गुरुदेवसवैया, गाथा-१ ७. गौडीपार्श्वनाथ पंचकल्याणकछन्द, पद्य-६५ ८. गौडीपार्श्वस्तव, सं. १८९१ ९. जिनदत्तसूरिछन्द, पद्य-३५, सं. १८३९ १०. जिनदत्तसूरिस्तवन, गाथा-८ ११. जैनसारबावनी, पद्य-६२, सं. १८०२ १२. नंदीसेणचौपाई, पद्य-८ । १३. नवकारसवैया, पद्य-८ १४. नाकोडापार्श्वस्तव, सं. १७९२ १५. प्रस्ताविकछप्पयबावनी, पद्य-५८, सं. १८२५ १६. बहत्तर मिथ्यात्वभेदस्तव, पद्य-३१ १७. भोजनविधि, पद्य-५१ १८. रत्नपालचौपाई, सं. १८२९ १९. राणकपुरआदिजिनस्तवन, सं. १७९८ २२. श्रीपालचौपाई, सं. १८०६ २०. विक्रमपुरशान्तिजिनस्तव, सं. १८१७ २३. सुभद्राचौपाई, सं. १८२५ २१. विमलजिनस्तव, सं. १७८८ २४. सुगणबत्तीसी
सुगणबत्तीसी का आद्यन्त जैन गुर्जर कवियो भाग-२ पृष्ठ ५७४ पर प्रकाशित है । जैन गुर्जर कवियों भाग-३, खण्ड-१, पृष्ठ-१२४ पर रघुपति कृत सुभद्रा चौपाई की आद्यन्त भाग दिया है । उसे देखने से सारे सन्देह का निराकरण हो जाएगा ।
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पत्रचर्चा (२) वाचक लब्धिरत्नगणि खरतरगच्छ के थे ।
म० विनयसागर
सुप्रतिष्ठित विद्वान श्री एम.ए.ढ़ाकी एवं जितेन्द्र शाह द्वारा सम्पादित और शारदाबेन चिमनभाई एजूकेशनल रिसर्च सेन्टर अहमदाबाद से 'निर्ग्रन्थ' का तृतीय अंक (१९१७-२००२) प्रकाशित हुआ है । यह अंक वस्तुतः पठनीय एवं संग्रहणीय है ।
निर्ग्रन्थ के पृष्ठ २२१-२४० पर वाचक लब्धिरल कृत 'कृष्ण रुक्मिणी सम्बन्ध' प्रकाशित हुआ है। इसके लेखक/सम्पादक कनुभाई ब्र. सेठ हैं । श्रीकनुभाई ने इस कृति का सम्पादन सावधानी पूर्वक अत्यन्त परिश्रम के साथ किया है । सम्पादनपद्धति, कथासार, काव्यसमीक्षा के साथ मूल कृति प्रदान की है । अन्त में पाठान्तर एवं कठिन शब्दार्थ भी दिया
सम्पादक ने पृ. २२८ पर इस रचनाकार के सन्दर्भ में जो अभिमत प्रकट किया है उससे ऐसा प्रतीत होता है कि उन्हें जैन शासन की गच्छपरम्पराओं के इतिहास की पूर्ण जानकारी नहीं है। उन्होंने लिखा है उसका तात्पर्य यह है :
कर्ता ने स्वयं की गुरुपरम्परा में गच्छ का नाम नहीं दिया है, किन्तु जिनराजसूरि और जिनसागरसूरि नाम देने के पश्चात् खेमकीर्ति शाखा के धर्मसुन्दर और धर्ममेरु सदृश नाम देकर स्वयं को अन्तिम मुनि का शिष्य बताया है । उत्तर मध्यकालीन की उपलब्ध साहित्य की गुर्वावलियों को देखनेपर कर्त्ता लब्धिरत्न किस गच्छ में हुए हैं इसका निर्णय नहीं किया जा सकता । (क्या वे इस काल में बृहद् तपागच्छ में जो लब्धिसागर हुए हैं, वही हैं ?) रचनास्थान नवहरनगर का निश्चय करना बाकी है।"
यह सत्य है कि कर्ता ने स्पष्ट रूप से गच्छ का उल्लेख नहीं किया है किंतु अपने परमाराध्य दादागुरुदेवों का पद्यांक ४ में उल्लेख किया
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अनुसन्धान ३३
है.........
गौतम सुधरम आदि करि, श्रीजिनदत्त सुरिन्द,
श्री जिनकुशलसुरिस नई,समरणि हुइ आणन्द । तत्कालीन गच्छनायक का उल्लेख करते हुए अपनी शाखा और गुरुजनों के नाम लेखक ने प्रदान किये हैं........ .
वर्तमान गुरु जग माहि जाणीयइ, श्रीजिनराज सुरिन्द. श्री जिनसागरसूरि सदी सरूं, आचारिज आणन्द । १०८ खेमकीरति शाखाए अति भलुंड, श्री धर्मसुन्दर गुरु राय । धर्ममेरु वाणीरिस गुणनिलउं, तासु सीस मनि भाय ॥१०९
इस उद्धरणोंसे स्पष्ट है कि कर्ता लब्धिरत्न खरतरगच्छ में हुए हैं। खरतरगच्छ की परम्परा के अनुसार दादा जिनदत्तसूरि (दीक्षा ११४३, स्वर्गवास १२११ वि.सं.) और दादा जिनकुशलसूरि (जन्म १३३७, स्वर्गवास १३८९ वि.सं.) परम प्रभावक आचार्य हुए । भारतवर्ष के कोने-कोने में दादावाड़ियों में इनके चरण एवं मूर्तियाँ आज भी पूजित हैं।
श्री जिनराजसूरि और श्री जिनसागरसूरि के सन्दर्भ में 'खरतरगच्छ का इतिहास' में स्पष्ट उल्लेख मिलता है - अकबर प्रतिबोधक युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि के पट्टधर जिनसिंहसूरि के पट्टधर जिनराजसूरि हुए। इनका जन्म सं. १६७४ बीकानेर में हुआ था। सं० १६५६ में इन्होंने दीक्षा ग्रहण की । १६७४ में ये गच्छनायक आचार्य बने और सिद्धसेन को आचार्य बनाया गया नाम जिनसागरसूरि रखा । जिनराजसूरि का स्वर्गवास सं. १७०० में हुआ ।
जिनसागरसूरि का जन्म सं. १६५२ में बीकानेर में हुआ । १६६१ में इन्होंने दीक्षा ग्रहण की । दीक्षानाम सिद्धसेन था और १६७४ जिनसागरसूरि के नाम से आचार्य बने । जिनसागरसूरि से ही खरतरगच्छ की ८वीं शाखा आचार्य शाखा निकली ।
दादा जिनकुशलसूरि की परम्परा में उपाध्याय क्षेमकीर्ति हुए । उन्हीं के नाम से क्षेमकीर्ति शाखा का प्रादुर्भाव हुआ । इस परम्परा में अनेक
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सुप्रसिद्ध विद्वान् हुए हैं। यह शाखा आज भी उपशाखा के नाम से विद्यमान है। इसी क्षेमकीर्ति शाखा में धर्मसुन्दर के प्रशिष्य और धर्ममेरु के शिष्य वाचक लब्धिरत्न गणि हुए हैं। अतः यह निर्विवाद सत्य है कि लब्धिरल गणि खरतरगच्छ की परम्परा में क्षेमकीर्ति शाखा में हुए हैं ।
कर्ता ने रचनास्थान का नाम नवहर नगर दिया है । यह आज नौहर के नाम से प्रसिद्ध है जो बीकानेर स्टेट में है । शादुलपुर स्टेशन से हनुमानगढ़ जाने वाली रेलवे का स्टेशन है । हा, मुनिसुव्रत मन्दिर के स्थान पर आज पार्श्वनाथ का मन्दिर विद्यमान है ।
श्री कनुभाई से मेरा अनुरोध है कि अपने सन्देह का निराकरण करते हुए कर्ता की गच्छ और गुरु परम्परा एवं स्थान का संशोधन करने का कष्ट करें।
पुनश्च- उक्त लेख मैंने निर्ग्रन्थ के सम्पादक श्री जितेन्द्रभाई शाह को भेजा था । इस सम्बन्ध में लेख के सम्पादक श्री कनुभाई सेठ का दिनांक १०-०१-०३ को पत्र प्राप्त हुआ जिसमें उन्होंने लिखा :
____ आप का पत्र श्री जितुभाई से मिला । आभार : आपने जो सुझाव दिया है वह सोचनीय है । मै अभी इस बारे में संशोधन करुंगा और जो कुछ तथ्य मिलेगा वह आपको निवेदित करुगा।
ढाई वर्ष के अन्तराल में भी उन्होंने अपने लेख और विचारों में संशोधन किया हो ऐसा प्रतीत नहीं होता । इसी कारण यह चर्चा लेख रूप में प्रस्तुत है।
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विहंगावलोकन-३०
उपा. भुवनचन्द्र आ अंकमां प्रगट थयेली, म. विनयसागरजी द्वारा सम्पादित 'धर्मलाभशास्त्र' कुतूहल जगावे एवी रचना छे. रचयिता महो. मेघविजयजीनी बहुमुखी प्रतिभा विद्वज्जगत्मां जाणीती छे. प्रस्तुत कृति ज्योतिषशास्त्रना अभ्यासीओ माटे रसप्रद बनशे.
श्री विनयसागरजी द्वारा प्रस्तुत 'वाचक प्रमोदचन्द्र भास' एक ऐतिहासिक साधन लेख महत्त्वपूर्ण छे. प्रमोदचन्द्र वाचक विशे पार्श्वचन्द्र गच्छना साहित्यमा उल्लेख मळे छे. भासना कर्ता करमसीहे 'रोहिणी चोपाई' (र.सं. १७३०)रची छे अने ते 'जैन राससंग्रह' (सं.श्री सागरचन्द्रसूरि)मां प्रकाशित छे.
. मध्यकालीन गुजराती साहित्यना भण्डारमा महत्त्वपूर्ण उमेरो करती एक दीर्घ रचना 'वासुपूज्य जिन पुण्यप्रकाश' आ अंकनी मुख्य कृति छे. कृति अनेक रीते विशिष्ट छे. कर्ता मुनिवर प्रौढ-शास्त्रज्ञ-कवि छे, तेवी प्रचुर समासो, संस्कृत शब्दो, संस्कृत शैली आ म. गुजराती कृतिमां ऊतरी आव्या छे; तेम छतां रचना भारेखम नथी बनी; म. गुजरातीने आंच नथी आवी. सम्पादिकाए कर्ता अने तेमनी अन्य कृतिओ विशे वधु माहिती आपवा जेवी हती.
स्तवनमां देशी, ढाळ अने रागोनो ढगलो छे. आ स्तवननी ढाळोनी देशीओ घणी खरी आज सुधी वपराती-गवाती आवी छे. ए बतावे छे के आ रचना सारा एवा समयगाळा सुधी जैन जगतमां प्रचलित रही हशे. "भाई धन्त सुपन... (पृ. ४०), 'प्रथम एरावण दीठो.... (पृ. ३९) जेवी देशीओ अन्य कृतिओमां खूब वपराई छे. केटलीक प्रचलित देशीओनां शास्त्रीय नामो अहीं नोंधाया छे. उदा. : 'आप स्वभावमां रे अवधू...' ए सज्झायनी देशी जेवी देशी अहीं ३४मा पाने जोवा मळे छे, जेनो राग 'अधरस' अहीं नोंधायो छे.
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जनी देशीओ-ढाळोना वाचनमां-पाठनिर्णयमा बम
मध्यकालीन गुजरातीनी जैन कृतिओना सम्पादन माटे जैन परम्पराना शब्दो, जैन कथासाहित्य, जूनी देशीओ-ढाळोनी समज, जैन जीवन वगेरेनो परिचय होवो जरूरी गणाय. अन्यथा कृतिना वाचनमां-पाठनिर्णयमा बाधा अनुभवाय. प्रस्तुत सम्पादनमा आवी बाधा नडी छे. देशीओनुं स्वरूप समजमां आवे तो पाठनिर्णयमा सुगमता थाय; आवा केटलांक स्थानो जोईए :
पृ. २० 'आव्यउ आरय खेतर'. अहीं देशीना आधारे आंकणीनी रचना समजी लेवाय तो साचो पाठ 'खेतर' नहीं पण 'खेत रे' ज होय एम स्पष्ट समजी शकाय.
पृ. २१ 'देखो सुअणो...'मा 'सुअणा' जोइए, अर्थनी दृष्टिए अने आगळनी पंक्तिमा 'सुअणा' छ ज एना आधारे नक्की थई शके. आंकणी आ रीते वांचवी जोईती हती :
देखो सुअणा पुण्य विचारी,
वन सूतो पण पूरव पुण्यई, हूओ राजनो धारी... पृ. ३५ : क. १८६ना चरण खोटां वंचायां छे. कडीनुं स्वरूप जोतां चरण आ रीते होय
देवो पण्यनिधान चंद्रासास विमानमां ए.
सुरशय्याथी ऊठि पुण्यविचार ज्ञानमा ए ॥१॥ पृ. ३७ कडी २११ आ रीते वांचवी जोइए -
सोभागिणी जाणे, एणइ कारणि हुं आव्यो,
तुझ प्रथम सुपनमां, वरगुण लक्षण भाव्यो. पृ. ३९. कडी २३९मां देशीना शब्दो सेळभेळ थई गया छे तेथी कडीनुं माप जळवातुं नथी. 'धवल विमल सोहामणो रे' - एटला शब्दो देशीना समजवा जोईए । कडी सम्भवत: आ रीते होई शके -
पुण्यई विमला डोहला रे जया सफला होइ; धन्य जीव्युं जग मनोरथ
कां नवि कां नवि सफला होई तो. १
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अनुसन्धान ३३
पुण्य करो जगि जीवन ए, पुण्यई ए पुण्यइं मंगलं होइ तो,
पुण्यइं घरी मणि डाबडा ए... कडी २४० आंकणी ज छे, तेने क्रमांक आपवो न जोईए ।
पृ. ५७ कडी ४४१ मां बने चरणना प्रास मळता नथी, त्यां एक पंक्ति छूटी गई लागे छे. अने तेथी ज क. ४४३ मां एक ज चरण छपायुं छे. कडी ४४७ आ रीते वांचवी जोइए -
चंपा सन्ति रे सुरा, मिलीया ते अणवेसरा,
सुरवरा अवधि जाणी आवीआ रे... पृ. ६०. क. ४९३ आ रीते होवा सम्भव
भाई हमेथी तुं नीकी, वपुरी भाई... जस घरि जोईई सुखमंगल वासो,
सुणवो तेणइ वासुपूज्य पुण्यप्रकाशो;
भूलभरेला वाचनना कारणे शब्दोमां गरबड़ सारा प्रमाणमां छे.शक्य शुद्ध पाठ साथेनी एक यादी - कडी अशुद्ध
सूचित विवाहारी
विवहारी १८ सची विबुद्धि
सचीवि बुद्धि सो रीए
सारी ए (ढाळनुं बंधारण लक्ष्यमां लीधुं होत तो शक्य शुद्ध पाठनी कल्पना सहेलाईथी थई शकत.) मिथ्यामतिउ वरं
मिथ्यामति उपरंत तनरोगो
न रोगो जीवन ही
जीव नही खेतर
खेत रे लीलापान
लालापान
४०
४३ -
४४
४५
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oc
वनि
०
०
११०
११६
चेद्रअ
भोहए
१२२ १४४ १४६ १६० १७३ १७९
१९५
वति गुहमुखि
गुरुमुखि तो हइ
तोहइ विमंता
वमंता पठु
पटु
चेइअ राव रे
रीव रे
मोहए हूंति: पाप
हूं निःपाप घरि नइ
घरि जई ए गुण वीसइ
ए गुणवीसइ सीट
सीह तातई
तांत आ पंक्ति आम होवा सम्भवसंयम जिहां केशनइ पणि कुणनइ नवि अपराधि रे ग्रहगणवर तइ
ग्रहगण वरतइ पातकिनी
पताकिनी चाटइ रे
चाइड रे त्रीजी पंक्तिमां गरबड छे. भासा
भास वारतो
वास तो हुती सलाख
दुतीस लाख 'कुलचंदो'ना प्रास प्रमाणे मळती आवे एवी एक पंक्ति अहीं खूटे छे, कडी २५०-२५१-२५२ आ ज कारणे अव्यवस्थित रहे छे. न लाडई
नलाडइं कांबइए
कांबालाइए
१९७ २०१
२०३
२४३
२४५ २५०
२५१ २६९
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२७५
२७६
ली धरई विघन बाधई सत्तरि..... तोसार
२८९
लीधई विघनानाबाधई सत्तरिधनुषा तोखार देता वधामणडां बहु
२९७
देवा
३०२
३०७
३१२
३२६
३४९
वधामणां डाबहु ऊगद ऊवट(?) लण्हवण तोकणि तारई घमरीय पीस्यो सुसीलमां परवच्यो जनती अवतंस वियरी जिन चउस्यइ निरधार हणइ उपर शोसि
ण्हवण तोरणि तीरइं अमरीय पीरस्यो सुसालमां परवर्यो जननी अवतार वयरी
३५१
३५२
३५५
३५६
३७१
जिम
३७४
३८६
३८४
३८६ ३९३ ३९५
चढस्यइ निराधार इणइ ऊपर शोभि दुरित चकडोलि पूरवधर धसइ
हुरित
४२८
४३८
चकनोलि पूखधर घसइ
३५०
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४५४ जगदीस रे
जगदीसरो ४६२ सुरनरि दामली
सुरनरिंदा मली
वास आ उपरांत 'वरगडवा गाय' (क. ३११), विहवलां (क.५२) शशि त(ठ)इ (२०८) जेवां स्थानो विचार मागे छे.
४६५
वाल
विहंगावलोकन ३१-३२
उपा. भुवनचन्द्र
अनु० ३१ ना प्रारम्भे बे संस्कृत निबन्धो प्रसिद्ध थया छे. वि. नेमिसूरीश्वरजी अने तेमनी शिष्य मंडळीए शास्त्र-साहित्यना क्षेत्रे सारं खेडाण करेलुं. अनेक नवीन कृतिओनुं सर्जन अने प्रकाशन तेमना द्वारा थयेटु. अद्यावधि अप्रगट रहेली बे रचनाओ श्री शीलचन्द्रसूरि द्वारा प्रकाशित थाय छे ते आनन्ददायक घटना छे. 'मूर्तिमन्तव्यमीमांसा'मां विजयोदयसूरिजीए मूर्ति विशे नवा ज दृष्टिकोणथी चर्चा करी छे. भारतीयेतर धर्मो अने प्रजाओना सन्दर्भमां जैन मुनि द्वारा मूर्ति-प्रतिमा विषयक आवी विचारणा कदाच आमां ज पहेली वार थई हशे. समये समये प्रसार पामता साहित्यशैली-विचारना माध्यमे धर्मोपदेश-तत्त्वचिन्तन- कार्य करता रहेQ एवी श्रमण संघनी परम्परा आचार्यश्रीए आगळ धपावी छे ए जोई शकाय छे..
'नेमिनाथादि स्तोत्रत्रय'नां सम्पादके ते ते कृतिना कर्ताओ विशे ऐतिहासिक विगतो जे रीते एकत्र करीने आपी छे ते रीत अनु०मां प्रगट थती सर्व कृतिओना सम्पादक-संशोधकोए पण अनुसरवा जेवी छे. बेशक, आ माटे 'जैन गुर्जर कविओ', जैन संस्कृत साहित्यनो इतिहास', 'जैन परंपरानो इतिहास''पट्टावली समुच्चय' जेवा सन्दर्भग्रन्थोनो उपयोग करवो पडे.
'नेमिजिन स्तोत्र'मां श्लो. २, च. ८मां एक अक्षर खूटे छे. 'शङ्कि'
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अनुसन्धान ३३ ने स्थाने 'शङ्कित' होई शके. श्लो. ६ च. २मां 'द्रवितं' ने स्थाने 'द्रविणं.' शब्द उचित बने. 'गौतमगणधरस्तव' (सूरप्रभगणि कृत)मां श्लो. ६ मां - 'सर्पिर्मधु- स्वादीय:परमानपूर्णजठराः' एवो समास वांचवो जोइए. 'स्वादु' ने ईयस् प्रत्यय लाग्यो छे. श्लो. ७मां '-दिन' छे त्यां 'अदित' (दा धातुनुं अद्यतनी, रूप) स्पष्ट रीते बंध बेसे छे.
'संघयात्राना ढालिया' नामक प्रलंब गुजराती रचना अनेक रीते रसप्रद-ध्यानाकर्षक थाय एवी छे. राजनगर-अने गुजरात-काठियावाडना पणतत्कालीन श्रावकवर्गनी धार्मिक गति-विधि- दोढसो वर्ष पूर्वेनुं रम्य शब्दचित्र आ कृतिमां अंकित छे. सम्पादकश्रीए आखी कृतिनो सारांश, उचित टिप्पणी साथे आप्यो छे, नोंधपात्र तारण पण आप्यां छे. कर्ता श्रावक कवि छे, जैनत्वना रंगे रंगायेला छे तेथी हृदयनी ऊर्मिओ कृतिमां बळकट रूपे ऊतरी आवी छे. गुजरातीनुं तत्कालीन स्वरूप तो आमां सचवायुं ज होय, विशेषमां जैनसमाजना रीति-रिवाज, जनमानसनी छाया, सरकारी तंत्र वगेरे वातो पण आ कतिमां जोवा-जाणवा मळे छे. ढा. १०मां अम्बिकाना वृत्तान्तमां 'करपीअधम कुल-देश'नी वात करतां 'कछ-सिंध-काबुल' देशोनो उल्लेख कविए कर्यो छे. ए समये राजनगरना जैनोमां 'कच्छ' माटे आवो ऊतरतो ख्याल प्रवर्ततो हतो. सम्पर्कनो अभाव तथा चडियातापणाना तत्कालीन ख्याल वगेरे आनी पाछळनां कारणो होई शके.
'चतुर्विंशतिनमस्कार' चौदमा-पंदरमा शतकना जैन भक्तिभावनुं प्रतिबिम्ब झीलती रचना छे. प्रभुस्तवननो महिमा दर्शावती आ कृतिमां परमात्माना गुणवर्णन/महिमा जेवी वातो क्यांय नथी देखाती, ए ध्यानमा लेवा जेवं छे. गा. १०मां 'तेसु कयत्थ' छे ते ठेकाणे 'ते सुकयत्थ' वधु सार्थक लागे छे.गा. ११मां 'चलु' छे त्यां 'बलु' होवू घटे. 'ताहअण'नी जग्याए 'ताह आण' होवानी शक्यता छे..
2. ढा. १०मा बल' देशोनो उल ख्याल
अनु० ३२मां जैन मुनि उदयरत्नकृत 'जोगमायानो सलोको' घणी बधी रीते सूचक-मार्मिक कृति गणाय. यति-गोरजीनो युग जैन श्रमणसंघमां सारा एवा लांबा गाळा सुधी चाल्यो छे. यतिवर्गमां यन्त्र-मन्त्र-तन्त्र अने
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देव-देवी उपासना सारी रीते व्याप्त हता. प्रस्तुत रचना ए पृष्ठभूमि पर रचाई छे. कविने संघबहार मूकवामां आवेला ए घटनाना कारण तरीके आवी 'अन्याश्रय' ( वीतराग देव सिवायना देवोनो आश्रय )नी प्रवृत्ति होइ शके एवो विचार सम्पादक श्री राज्यगुरुए दर्शाव्यो छे. किन्तु ते समयनी यतिओनी प्रवृत्ति जोतां आवी अन्य उपासनानो झाझो छोछ आचार्यादिने न पण होय अने संघ बहार करवानुं कारण कोई बीजुं ज होय एवी सम्भावना पण नकारी शकाय नहि.
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कडी ७१. मांनो 'चेंते' शब्द कच्छी भाषानो न होइने 'चिते' (विचारे) नो ज उच्चारभेद होय एवी सम्भावना वधु छे. कच्छीमां 'चेंते ( कहेतो हतो ) एकवचननुं रूप छे, ज्यारे अहीं प्रयोग बहुवचननो छे - 'अमे' शब्द कडीमां ज छे. वळी कविनुं गुजराती परनुं प्रभुत्व जोतां ते आवो भाषा संकर करे एवी शक्यता ओछी ज छे.
गरदी (क.७०), खेरु (७१), जोपें (७८) जेवा शब्दो शब्दकोशमां लेवा जेवा छे. छाली (क. ४१) नो अर्थ 'बकरी' छे. 'नाहर' (४१) वाघ के वरू जेवुं प्राणी होइ शके.
'सुगणबत्तीसी' अने 'सूतकचोपाई' शुद्ध रूपे मूकाया छे. बन्ने रचनाओ प्रमाणमां अर्वाचीन होवाथी भाषा स्वयंस्पष्ट छे अने अशुद्धि प्रवेशी नथी.
'मेघदूत' ना अभिनव अर्थघटन करती बे कृतिओ एक ज अंकमां प्रगट करीने सम्पादके सारो जोगानुजोग ऊभो कर्यो छे. व्याकरण - काव्यअलंकार - छन्द-शब्द कोश वगेरे साहित्यना अंगोनुं सुदीर्घ- सविस्तर परिशीलन होय अने ज्ञानावरणीयनो क्षयोपशम विशिष्ट कोटिनो होय त्यारे अने तो ज आवी जटिल रचना सर्जी शकाय ए विद्वानोना मस्तिष्क केवां तीक्ष्ण, कल्पनाशील अने स्फूर्तिमान हशे तथा संस्कृत भाषा केटली नमनीयता धरावे छे ते आवी कृतिओमां प्रत्यक्ष थाय छे. व्युत्पन्न (अभ्यासी) अने प्रत्युत्पन्न (चबराक - Smart) मस्तिष्क धरावता विद्वानोनो आ साहित्यविनोद आश्चर्य प्रेरे एवो छे. श्री समयसुन्दर तथा श्री मानसागर - बन्ने विद्वानोए विलक्षण अर्थघटनोना आधार रूपे ढगलाबंध शब्दकोशोना उद्धरणो, अनेक न्यायो, अन्य कविओना
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अनुसन्धान ३३
प्रयोगो वगेरे रजू कर्या छे. चित्रकाव्यो-कूटकाव्योने स्पर्शता न्यायो अने नियमो समजवा जेवा छे.
__ भाषाना प्रयोगविषयक नियमो- - 'द्वौ नौ प्रकृत्यर्थं सूचयतः' (पृ. ४२) - बे नकार मूळ वातने सूचवे
छे अर्थात् हकारात्मक अर्थ जणावे छे. (अन्यत्र आ सूत्रमा 'प्रकृतमर्थं एवो पाठ जोवामां आवे छे अने ए वधु संगत जणाय छे.) 'यत्र नान्यत् क्रियापदं तत्रास्ति-भवतीति क्रिया अनुक्तापि प्रयोक्तव्या' (पृ. ४३)- जे वाक्यमा क्रियापद अपायुं न होय तेमां अस्ति, भवति क्रियापद समजवां. 'यत्तदोनित्यसम्बन्धात्' (पृ. ४५) - यत् अने तत् (जे-ते) सर्वदा सम्बन्धित होय छे. 'भीमो भीमसेनः' (पृ. ४५) - शब्दना भागथी पण आखो शब्द सूचवी शकाय छे. 'भीम' कहेवाथी आखुं मूळ नाम भीमसेन सूचित थाय छे. 'एते चतुर्दशापि पादपूरण-भर्त्सनामन्त्रणनिषेधेषु' (पृ. ४७) - अ, आ वगेरे चौदे स्वरोनो प्रयोग श्लोकना पादपूरण माटे थई शके छे, तिरस्कार-ठपको, सम्बोधन अने निषेध-मनाईना अर्थमां पण थई शके छे. 'गत्यर्थानां ज्ञानार्थत्वात्' (पृ. ६३), 'गत्यर्थानां प्राप्त्यर्थकत्वात्' (पृ. ६९) - गति अर्थवाळा धातुओ ज्ञान अने प्राप्ति अर्थमां पण प्रयोजी शकाय छे. 'तत्स्थे तद्व्यपदेशात्' (पृ. ७९) - स्थानवाचक शब्द ते स्थानमा रहेल वस्तुनो बोधक बनी शके छे. 'जातेरैक्यात्' (पृ. ७९) - समग्र जाति जणाववी होय त्यारे एकवचन वापरी शकाय, केमके जाति 'एक' ज होय छे.
आमांना घणाखरा नियमो संस्कृत सिवायनी भाषाओमां पण एकसरखी रीते कार्यरत होय छे. आ विवरणोमां उद्धृत थयेला केटलाक श्लोको/सूत्रो
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पण रसप्रद छे :
चारणा यं प्रशंसन्ति, यं प्रशंसन्ति मद्यपाः ।
बन्धुक्यो यं प्रशंसन्ति तमाहुः पुरुषाधमम् ॥ (पृ. ४८) 'जेनी प्रशंसा भाटचारण, दारूडिया के वेश्याओ करती होय ते माणसने नीच समजवो.'
__ 'ध्वजान्तो धर्मः, गजान्ता लक्ष्मीः' (पृ. ५४) धर्ममां छेल्ली वस्तु ध्वज छे, लक्ष्मी (संपत्ति)मां छेल्ली वस्तु हाथी छे.
'पाण्योरुपकृति सत्त्वं, स्त्रियो भग्नशुनो बलम्' (पृ. ६५) - हाथोनो उपकार, स्त्रीनुं सत्त्व अने हाडका भांगेल कूतरानुं बल जोवानां होय.
मध्यकालीन साहित्यना प्रखर विद्वान, आन्तरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त विद्यापुरुष श्री हरिवल्लभ भायाणीना विद्याव्यासंगनो परिचयात्मक आलेख श्री हसु याज्ञिक जेवा अधिकारी जनना हाथे लखायेलो आ अंकमां वांची मन महोरी ऊठ्यु. भायाणी साहेबना प्रदाननी विशिष्टता, मूल्यवत्ता, मौलिकता आ आलेखमां सारी पेठे ऊपसी आवी छे. सम्पादकश्रीने विनंति करवानुं मन थाय छे के भारतीय विद्याना, तेमां ये जैनविद्याना क्षेत्रे चिरंजीवी कार्य करी गयेला पुरोगामी विद्वज्जनो-गुरुजनोना कार्यनो परिचय करावता आलेखो अधिकारी विद्वानोना हस्ते लखावी 'अनुसन्धान'मां आपो.
C/o. जैन देरासर, नानी खाखर-३७०४३३ (जि. कच्छ, गुजरात)
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नवां प्रकाशनो
गङ्गेशनिबद्धः तत्त्वचिन्तामणिः ( उपाध्यादिबाधान्तः) वाचकगुणरत्नविनिर्मिता- सुखबोधिकाटिप्पनिकासहितः सम्पादक - नगीन जी. शाह प्रकाशक - मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली साइझ - २४.५ x १८.५ cms. पृष्ठ ६१५, किंमत - Rs. 995
नव्यन्यायना विख्यात ग्रन्थ तत्त्वचिन्तामणि उपर वाचक गुणरत्ने रचेली अप्रकाशित बृहत् टीका सुखबोधिका टिप्पनिकानुं मारु सम्पादन हमणां ज प्रकाशित थयुं छे.
आ वाचक गुणरत्न कोण ? खरतरगच्छाधीश्वर युगप्रधान श्रीजिनचन्द्रसूरिना शासनकाळमां जिनमाणिक्यसूरिना शिष्य श्रीविनयसमुद्रगणी थया; आ विनयसमुद्रगणीना शिष्य ते ज आ गुणरत्नगणी (ई.स. सोळमी शताब्दीनो उत्तरार्ध). तेमणे ज केशवमिश्रनी तर्कभाषा उपरनी गोवर्धने लखेली तर्कप्रकाशिनी टीका उपर तर्कतरंगिणी नामनी टीका नव्यन्यायनी शैलीमां रची छे. सुखबोधिका अने तर्कतरंगिणी बन्नेमां ते जेमनी पासे विद्या शीख्या हता ते मैथिल गृहस्थ पण्डितो, आदरपूर्वक नाम लई स्मरण करे छे. तर्कतरंगिणीमां ते लखे छे : श्रीमन्नारायणत्मजपुष्करमिश्रमुखादधिगम्य वाचकगुणरत्नगणिना व्याख्यातं [प्रमाणम् । सुखबोधिकाना अन्ते ते लखे छे : अतिप्रयासेन मया विनिर्मिता सुखबोधिका टिप्पनिका मुदैषा । चिन्तामणौ ग्रन्थमणौ निशम्य श्रीरामकृष्णमुखारविन्दात् ॥ अवयवप्रकरण उपरनी टीका तेमणे कृष्णदुर्ग (=किशनगढ)मां लखी हती तेम तेमणे ज अवयवप्रकरणने अन्ते जणाव्युं छे. परामर्शप्रकरणना अन्ते तेमणे लख्युं छे : इति परामर्श प्रकाशिका । वळी, केवलान्वयिप्रकरणना अन्ते पण तेमणे लख्युं छे : इति केवलान्वयि ग्रन्थप्रकाशिका । आ उपरथी जणाय छे के तेमणे टीकार्नु कामचलाउ नाम प्रकाशिका राख्युं हतुं परंतु टीका पूर्ण थये स्थिर नाम तेमणे सुखबोधिका टिप्पनिका निश्चित कर्यु, आ ज वाचक गुणरत्ने काव्यप्रकाश उपर १०,५०० श्लोकप्रमाण धरावती सारदीपिका नामनी टीकानी रचना
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वि.सं. १६१०मां (ई.स. १५५३मा) करी छे. आ टीका अप्रकाशित छे अने तेनी हस्तप्रत पूनाना भाण्डारकर इन्स्टीट्युटमा छे. शशधराचार्यनी नव्यन्यायनी कृति न्यायसिद्धान्तदीप उपर टिप्पन लखनार वाचक गुणरत्न आ वाचक गुणरत्नथी भिन्न छे.
नाम मुजब सुखबोधिका टिप्पनिका केवळ टिप्पनरूप टीका नथी परंतु विस्तृत विवरणरूप टीका छे. ते मूळ कृतिने विशद रीते अने प्रमाणभूततापूर्वक समजावे छे. नव्यन्यायना गहन अध्ययनने ते प्रदर्शित करे छे. ते सूक्ष्म समस्याओने विस्तारथी स्पष्टताथी समजावे छे, समान जणाती के एक जेवी लागती विभावनाओ अने परिभाषाओनो सूक्ष्म भेद स्पष्ट करे छे, पाठान्तरनी चर्चा करे छे, प्रमाणभूत ग्रन्थो अने ग्रन्थकारोने समर्थनमां उद्धृत करे छे अने समर्थपणे केटलाक व्याकरणना मुद्दाओने समजावे छे. ते शंकाओ अने प्रश्नो ऊभा करी पछी तेमनुं विशद तर्कसंगत समाधान करे छे. तत्त्वचिन्तामणि पर रचायेला विशाळ टीकासाहित्यमां आ सुखबोधिकार्नु प्रदान नोंधपात्र छे, विधायक छे अने विशिष्ट छे.
नव्यन्याय ओ भारतीय तर्कशास्त्र, एक गंभीर अने सूक्ष्म तम रूप छे. तेनी शरुआत ई.स.नी १२मी शताब्दीथी थई. परंतु तेनो प्रधान ग्रन्थ तत्त्वचिन्तामणि तो ई.स. १३५० आसपास रचायो. तेना कर्ता छे गंगेश उपाध्याय. ते न्यायसम्मत चार प्रमाणोनुं नव्यन्यायनी शैली अने पद्धतिले निरूपण करे छे. ते चार प्रमाणो छे प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान अने शब्द. परंतु तत्त्वचिन्तामणिनो अनुमानखण्ड अध्ययन-अध्यापनमां केन्द्रस्थाने रह्यो छे. तेथी अनुमानखण्ड उपर संख्याबंध टीकाओ रचाई छे. प्रस्तुत टीका सुखबोधिका अनुमानखण्डनी ज टीका छे. नव्यन्यायनी पद्धतिनी अति गंभीरता अने सूक्ष्मताने कारणे अनुमानखण्ड उपर विवरणात्मक गहन टीका रचवी ए तो विद्वत्तानी आकरी कसोटी छे. आवी टीकानी रचना जैन साधु वाचक गुणरत्ने करीने जैनोनी विद्याप्रियतानुं गौरव कर्यु छे अने जैनोनी ज्ञानसाधनाने प्रगट करी छे.
नव्यन्यायमां जैन साधुओनो फाळो नोंधपात्र छे. सौ प्रथम ई.स. १४ मी शताब्दीमां गुणरत्नगणीओ शशधरना न्यायसिद्धान्तदीप उपर टिप्पन लख्यु.
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अनुसन्धान ३३
पछी भुवनसुन्दरसूरिओ (आनु. ई.स. १३९० - १४५०) नव्यन्यायनी पद्धति अने शैलीमा वादीन्द्रनी कृति महाविद्याविडम्बन उपर टीका रची. ते श्रीहरिभद्रसूरिकृत षड्दर्शनसमुच्चय उपर तर्करहस्यदीपिका टीकाना रचनार गुणरत्नसूरिना शिष्य हता. पछी बीजा एक गुणरत्रगणीओ ई.स. सोळमी शताब्दीमां केशवमिश्रनी तर्कभाषा उपरनी गोवर्धनकृत टीका उपर तर्कतरंगिणी टीका नव्यन्यायनी पद्धति अने शैलीमां लखी, अने तेमणे ज गंगेशना तत्त्वचिन्तामणि उपर सुखबोधिकानी रचना करी. काळक्रममां त्यार पछी आवता उत्कृष्ट कोटिना महान चिन्तक अने तार्किक न्यायविशारद उपाध्याय यशोविजयजीओ नव्यन्यायनी शैलीमां अनेक ग्रन्थो रच्या. ते ग्रन्थोमां नोंधपात्र छे अनेकान्तव्यवस्था, भाषारहस्य, प्रमाणरहस्य, न्यायालोक अने न्यायखण्डखाद्य.
नगीन शाह
२३, वालकेश्वर सोसा.,
अमदावाद - १५
焱燚
१. धर्मशिक्षा प्रकरणम् ; कर्ता : जिनवल्लभसूरि; वृत्तिकारः उपाध्याय जिनपाल गणि; सं. म. विनयसागर प्र. प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर, ई. २००५ विक्रमना ११मा शतकमां थयेला खरतरगच्छीय विद्वान जैनाचार्यनी धर्मबोधप्रद उत्तम संस्कृत पद्यरचना तथा तेना परनी प्रगल्भ वृत्तिनुं पठनीय
प्रकाशन.
आंबावाडी,
२. शुभशीलशतक ( प्रथम ); कर्ता : शुभशील गणि; हिन्दी अनुवाद : म. विनयसागर प्र. प्राकृत भारती, जयपुर; ई. २००५.
१६मी शताब्दीमां थयेल तपागच्छीय पं. शुभशील गणिए पञ्चशतीप्रबोध प्रबन्ध नामे सरस प्रबन्धग्रन्थ रच्यो छे, जे प्रकाशित छे (सं. मृगेन्द्र मुनिं ). तेमां ५०० थी अधिक कथा - प्रबन्धो संस्कृत भाषामा आलेखायेला छे, जेमां घणाबधा ऐतिहासिक पण छे. आ प्रबन्धो भाषाकीय दृष्टिए पण अभ्यसनीय छे.
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आ ग्रन्थनो हिन्दी अनुवाद पांच भागमां थई रह्यो छे, तेनो प्रथम भाग ते आ ग्रन्थ, आमां १०० कथा-प्रबन्धोनो सरल-सरस हिन्दीमां अनुवाद प्रकाशित छे.
३. आख्यानकमणिकोशः; कर्ता : आ. नेमिचन्द्रसूरि; वृत्तिकार : श्रीआम्रदेवसूरि; सं. मुनि पुण्यविजयजी; प्र. प्राकृत ग्रन्थ परिषद्, अहमदाबाद; पुनर्मुद्रण : ई. २००५, सं. २०६१
प्राकृतभाषानिबद्ध आ कथाग्रन्थ ए १२मा सैकानी उत्तम रचना छे. तेनुं प्रथम ई. १९६२ मा प्रकाशन थयुं हतुं. पण ते अलभ्य थतां तेनुं पुनर्मुद्रण करवामां आव्युं छे. आमां रहेल अशुद्धिओनुं शुद्धीकरण करवापूर्वक आ प्रकाशन थयुं छे, जे आ ग्रन्थने वधु उपयुक्त बनावी जाय छे.
परिशिष्टोथी समृद्ध छे आ ग्रन्थ, पद्यात्मक आ ग्रन्थनां सर्व पद्योनो अकारादिक्रम थवो जरूरी गणाय.
४. कादम्बरी : कर्ता : बाणभट्ट; वृत्तिकारः उपाध्याय भानुचन्द्र गणि- सिद्धिचन्द्रगणि; सं. मुनि हितवर्धनविजय; प्र. कुसुम अमृत ट्रस्ट, वापी; ई. २००५; भाग १ तथा २.
ई. १९४० मा प्रकाशित आ ग्रन्थ नवेसरथी मुद्रित थतां भणनारा जिज्ञासुओने सुविधा मळी छे. अलबत्त, सम्पादके नवी विशिष्ट प्रतिओनो उपयोग करीने पूर्व सम्पादन करतां कांईक नावीन्य के विशेषता आण्यानुं जणातुं नथी. पूर्व-सम्पादके पोताना सम्पादनमा करेला टिप्पणो द्वेषप्रेरित होवानुं तथा आक्षेपात्मक होवानुं तथा तेने आ आवृत्तिमांथी रद कर्यां होवानुं सम्पादकना निवेदन थकी जाणवा मळे छे. वस्तुत: ते टिप्पणो राख्यां होत अने तेमां खरेखर अनुचित वातो होय तेनो उत्तर पण विशेष टिप्पणोरूपे अपायो होत, तो विद्वानोने नीरक्षीरविवेक करवानी सुविधा रहेत. पूर्वग्रह ए बधां क्षेत्रोमां वापरवानुं साधन नथी, ए समजाय तो सम्पादनोमां वधु अधिकृतता आणी शकाय.
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५. अष्टसहस्री तात्पर्यविवरणम् १-२; कर्ता : उपा. यशोविजयगणि; सं. मुनि वैराग्यरतिविजय; प्र. प्रवचन प्रकाशन, पूना; ई. २००४, वि.सं. २०६०.
'आप्तमीमांसा' (समन्तभद्राचार्य) उपर विद्यानन्द स्वामी-रचित वृत्ति. उपरनी आ वृत्ति छे. नव्य न्यायनी विदग्ध अने पाण्डित्यसभर शैलीमां रचायेल आ विवरण दायकाओ पूर्वे पूज्यपाद गीतार्थ-शिरोमणि आचार्य श्रीविजयोदयसूरिजी महाराजे सम्पादित करी प्रकाशित करावेल. ग्रन्थकारना स्वहस्तलिखित आदर्शनी अनुपस्थितिमां आवा आकरग्रन्थनुं सम्पादन करवू ए कांई नानीसूनी वात तो नहोती ज. दायकाओ-पर्यन्त तेनुं आलम्बन लईने ज अभ्यासीओ चाल्या छे. अलबत्त, ते पूज्यवर्यश्रीने पूनाना भाण्डारकर शोध संस्थानमां आ विवरणनी कर्ता द्वारा लखायेल प्रति होवानी जाण तो हती ज. परन्तु ते समये ते प्रति मेळववानुं तेओ माटे अशक्य बन्युं हतुं.
ए प्रतिनी फोटोप्रति, ते पूज्यपुरुषना ज समुदायवर्ती एक श्रुतरसिक आचार्यश्रीने प्राप्त थई, अने तेमना द्वारा ते पहोंची प्रस्तुत आवृत्तिना सम्पादक मुनि पासे. तेओए तेना आलम्बने आ महाग्रन्थनुं अद्यतन पद्धतिथी सम्पादन कर्यु छे, अने अनेक परिशिष्टादिथी समृद्ध एवा आ ग्रन्थ, सुन्दर प्रकाशन कराव्युं छे, जे अभ्यासी जनो माटे खूब उपयोगी बनी रहे तेम छे.
६. श्रीसूर्यसहस्रनामसङ्ग्रहत्रयम्; सं. आ. धर्मधुरन्धरसूरि; प्र. जैन विद्या शोध संस्थान, ओस्तरा (जोधपुर); ई. २००४, वि.सं. २०६०
उपाध्याय भानुचन्द्रगणिकृत सूर्यसहस्रनाम-टीका, हेमविजय गणिकृत तेमज आचार्य जिनसेनकृत सूर्यसहस्रनामो, एम ३ रचनाओगें हस्तप्रतोना आधारे सम्पादन आ ग्रन्थमा थयुं छे. उपयोगी प्रकाशन.
७. गूर्जर साहित्यसंग्रह (यशोवाणी); कर्ता : उपाध्याय श्रीयशोविजयजी; सं. पं. भद्रंकरविजयजी तथा मो.द. देशाई; पुनः सम्पादक : आ. श्री प्रद्युम्नसूरि. प्र. श्रुतज्ञान प्रसारक सभा-अमदावाद; ई. २००५, सं. २०६१
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उपाध्याय यशोविजयजीनी गुजराती भक्तिपरक तथा वैराग्य तेमज अध्यात्मपरक गुजराती लघुरचनाओना विशद संचयरूप ग्रन्थ. प्रथम सं. १९९२मां ते प्रगट थयेलो. आ आवृत्ति ते तेना पुनः मुद्रणरूप होवा छतां तेनी सुघड तथा सोहामणी साजसज्जाने कारणे वधु उपादेय लागे छे. तेमां ग्रन्थकारना जीवनप्रसंगोनां रंगीन चित्रो मूकवामां आव्यां छे, जे पुस्तकनी आकर्षकता वधारनार छे. ग्रन्थान्ते सातेक लघुरचनाओ पूर्तिरूपे मूकेल छे, जे सम्पादकना कहेवा प्रमाणे प्रथम ज प्रकाशन पामी छे. आ ७ पैकी 'विमलाचलमंडण ऋषभदेवस्तवन' ए 'अनुसन्धान"-३ मां प्रगट थयानुं अने ते संस्कृत भाषाबद्ध फग्गुकाव्यात्मक रचना होवानुं आ क्षणे सांभरे छे. बन्ने वाचनाओ मेळववानुं रसप्रद बनी शके.
८. द्रव्य-गुण-पर्यायनो रास : (स्वोपज्ञ टबा तथा विवेचन सहित) १-२; रासकर्ता : उपाध्याय यशोविजयजी; विवेचनकार (गुजराती) : पं. धीरजलाल महेता; प्र. जैन धर्म प्रसारण ट्रस्ट, सूरत; ई. २००५, सं. २०६१
जैन संघना घणा घणा अभ्यासीओ, जैन तत्त्वदर्शनना आ ग्रन्थअध्ययन करतां होय छे. आ रास-ग्रन्थ गुर्जर भाषाबद्ध गेय रचना होवा छतां, तेमां जैन दर्शनना गहन तार्किक पदार्थो तथा तेना अनुषंगे अन्य अनेक दर्शनोना भावोनी जे गुंथणी थई छे ते उकेलवानुं तथा भणवानुं अल्पमति जीवो माटे सरल नथीज. ते माटे विस्तृत-विशद विवेचननी आवश्यकता वर्ताती हती, ते आ ग्रन्थ द्वारा पूर्ण थाय छे. खूब उपकारक ग्रन्थ,
९. कैलास श्रुतसागर ग्रन्थसूची - १-२-३ खण्ड; प्र. महावीर जैन आराधना केन्द्र, कोबा-गांधीनगर, ई. २००४, सं. २०६१
कोबास्थित विशाल हस्तप्रतभण्डारमांनी जैन प्रतिओना वर्णनात्मक अने अद्यतन पद्धतिथी करवामां आवेल सूचिपत्रना दळदार-वजनदार ग्रन्थो. संशोधको तथा अभ्यासीओ माटे अत्युपयोगी प्रकाशन.
___ आर्ट पेपरनो उपयोग ग्रन्थने वजनदार बनावी शके. पण सादा कागळनो उपयोग थाय तो आवा ग्रन्थो अनेक रीते हळवा बनी रहे.
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नूतन प्रकाशन
पण्डित देवविमलगणि विरचितं
महाकाव्यम् ॥
श्रीहीरसुन्दर
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सटिप्पणीकं 'हीरसौभाग्य' उपरि लघुवृत्तिसमेतम् ॥
द्वितीयो विभागः
सम्पादक :
मुनि रत्नकीर्तिविजय:
प्रकाशक :
श्रीजैन ग्रन्थ प्रकाशन समिति
खम्भात
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________________ संवतीमावावबशा मददावारतापपबदना (गुरुमूर्तिः भद्रेश्वरः सं. 1331)