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________________ September-2005 77 पत्रचर्चा (२) वाचक लब्धिरत्नगणि खरतरगच्छ के थे । म० विनयसागर सुप्रतिष्ठित विद्वान श्री एम.ए.ढ़ाकी एवं जितेन्द्र शाह द्वारा सम्पादित और शारदाबेन चिमनभाई एजूकेशनल रिसर्च सेन्टर अहमदाबाद से 'निर्ग्रन्थ' का तृतीय अंक (१९१७-२००२) प्रकाशित हुआ है । यह अंक वस्तुतः पठनीय एवं संग्रहणीय है । निर्ग्रन्थ के पृष्ठ २२१-२४० पर वाचक लब्धिरल कृत 'कृष्ण रुक्मिणी सम्बन्ध' प्रकाशित हुआ है। इसके लेखक/सम्पादक कनुभाई ब्र. सेठ हैं । श्रीकनुभाई ने इस कृति का सम्पादन सावधानी पूर्वक अत्यन्त परिश्रम के साथ किया है । सम्पादनपद्धति, कथासार, काव्यसमीक्षा के साथ मूल कृति प्रदान की है । अन्त में पाठान्तर एवं कठिन शब्दार्थ भी दिया सम्पादक ने पृ. २२८ पर इस रचनाकार के सन्दर्भ में जो अभिमत प्रकट किया है उससे ऐसा प्रतीत होता है कि उन्हें जैन शासन की गच्छपरम्पराओं के इतिहास की पूर्ण जानकारी नहीं है। उन्होंने लिखा है उसका तात्पर्य यह है : कर्ता ने स्वयं की गुरुपरम्परा में गच्छ का नाम नहीं दिया है, किन्तु जिनराजसूरि और जिनसागरसूरि नाम देने के पश्चात् खेमकीर्ति शाखा के धर्मसुन्दर और धर्ममेरु सदृश नाम देकर स्वयं को अन्तिम मुनि का शिष्य बताया है । उत्तर मध्यकालीन की उपलब्ध साहित्य की गुर्वावलियों को देखनेपर कर्त्ता लब्धिरत्न किस गच्छ में हुए हैं इसका निर्णय नहीं किया जा सकता । (क्या वे इस काल में बृहद् तपागच्छ में जो लब्धिसागर हुए हैं, वही हैं ?) रचनास्थान नवहरनगर का निश्चय करना बाकी है।" यह सत्य है कि कर्ता ने स्पष्ट रूप से गच्छ का उल्लेख नहीं किया है किंतु अपने परमाराध्य दादागुरुदेवों का पद्यांक ४ में उल्लेख किया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520533
Book TitleAnusandhan 2005 09 SrNo 33
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2005
Total Pages102
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size5 MB
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