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________________ अनुसन्धान ३३ है......... गौतम सुधरम आदि करि, श्रीजिनदत्त सुरिन्द, श्री जिनकुशलसुरिस नई,समरणि हुइ आणन्द । तत्कालीन गच्छनायक का उल्लेख करते हुए अपनी शाखा और गुरुजनों के नाम लेखक ने प्रदान किये हैं........ . वर्तमान गुरु जग माहि जाणीयइ, श्रीजिनराज सुरिन्द. श्री जिनसागरसूरि सदी सरूं, आचारिज आणन्द । १०८ खेमकीरति शाखाए अति भलुंड, श्री धर्मसुन्दर गुरु राय । धर्ममेरु वाणीरिस गुणनिलउं, तासु सीस मनि भाय ॥१०९ इस उद्धरणोंसे स्पष्ट है कि कर्ता लब्धिरत्न खरतरगच्छ में हुए हैं। खरतरगच्छ की परम्परा के अनुसार दादा जिनदत्तसूरि (दीक्षा ११४३, स्वर्गवास १२११ वि.सं.) और दादा जिनकुशलसूरि (जन्म १३३७, स्वर्गवास १३८९ वि.सं.) परम प्रभावक आचार्य हुए । भारतवर्ष के कोने-कोने में दादावाड़ियों में इनके चरण एवं मूर्तियाँ आज भी पूजित हैं। श्री जिनराजसूरि और श्री जिनसागरसूरि के सन्दर्भ में 'खरतरगच्छ का इतिहास' में स्पष्ट उल्लेख मिलता है - अकबर प्रतिबोधक युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि के पट्टधर जिनसिंहसूरि के पट्टधर जिनराजसूरि हुए। इनका जन्म सं. १६७४ बीकानेर में हुआ था। सं० १६५६ में इन्होंने दीक्षा ग्रहण की । १६७४ में ये गच्छनायक आचार्य बने और सिद्धसेन को आचार्य बनाया गया नाम जिनसागरसूरि रखा । जिनराजसूरि का स्वर्गवास सं. १७०० में हुआ । जिनसागरसूरि का जन्म सं. १६५२ में बीकानेर में हुआ । १६६१ में इन्होंने दीक्षा ग्रहण की । दीक्षानाम सिद्धसेन था और १६७४ जिनसागरसूरि के नाम से आचार्य बने । जिनसागरसूरि से ही खरतरगच्छ की ८वीं शाखा आचार्य शाखा निकली । दादा जिनकुशलसूरि की परम्परा में उपाध्याय क्षेमकीर्ति हुए । उन्हीं के नाम से क्षेमकीर्ति शाखा का प्रादुर्भाव हुआ । इस परम्परा में अनेक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520533
Book TitleAnusandhan 2005 09 SrNo 33
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2005
Total Pages102
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size5 MB
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