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________________ September-2005 93 आ ग्रन्थनो हिन्दी अनुवाद पांच भागमां थई रह्यो छे, तेनो प्रथम भाग ते आ ग्रन्थ, आमां १०० कथा-प्रबन्धोनो सरल-सरस हिन्दीमां अनुवाद प्रकाशित छे. ३. आख्यानकमणिकोशः; कर्ता : आ. नेमिचन्द्रसूरि; वृत्तिकार : श्रीआम्रदेवसूरि; सं. मुनि पुण्यविजयजी; प्र. प्राकृत ग्रन्थ परिषद्, अहमदाबाद; पुनर्मुद्रण : ई. २००५, सं. २०६१ प्राकृतभाषानिबद्ध आ कथाग्रन्थ ए १२मा सैकानी उत्तम रचना छे. तेनुं प्रथम ई. १९६२ मा प्रकाशन थयुं हतुं. पण ते अलभ्य थतां तेनुं पुनर्मुद्रण करवामां आव्युं छे. आमां रहेल अशुद्धिओनुं शुद्धीकरण करवापूर्वक आ प्रकाशन थयुं छे, जे आ ग्रन्थने वधु उपयुक्त बनावी जाय छे. परिशिष्टोथी समृद्ध छे आ ग्रन्थ, पद्यात्मक आ ग्रन्थनां सर्व पद्योनो अकारादिक्रम थवो जरूरी गणाय. ४. कादम्बरी : कर्ता : बाणभट्ट; वृत्तिकारः उपाध्याय भानुचन्द्र गणि- सिद्धिचन्द्रगणि; सं. मुनि हितवर्धनविजय; प्र. कुसुम अमृत ट्रस्ट, वापी; ई. २००५; भाग १ तथा २. ई. १९४० मा प्रकाशित आ ग्रन्थ नवेसरथी मुद्रित थतां भणनारा जिज्ञासुओने सुविधा मळी छे. अलबत्त, सम्पादके नवी विशिष्ट प्रतिओनो उपयोग करीने पूर्व सम्पादन करतां कांईक नावीन्य के विशेषता आण्यानुं जणातुं नथी. पूर्व-सम्पादके पोताना सम्पादनमा करेला टिप्पणो द्वेषप्रेरित होवानुं तथा आक्षेपात्मक होवानुं तथा तेने आ आवृत्तिमांथी रद कर्यां होवानुं सम्पादकना निवेदन थकी जाणवा मळे छे. वस्तुत: ते टिप्पणो राख्यां होत अने तेमां खरेखर अनुचित वातो होय तेनो उत्तर पण विशेष टिप्पणोरूपे अपायो होत, तो विद्वानोने नीरक्षीरविवेक करवानी सुविधा रहेत. पूर्वग्रह ए बधां क्षेत्रोमां वापरवानुं साधन नथी, ए समजाय तो सम्पादनोमां वधु अधिकृतता आणी शकाय. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520533
Book TitleAnusandhan 2005 09 SrNo 33
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2005
Total Pages102
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size5 MB
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