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________________ September-2005 75 पत्रचर्चा (१) पाठक रघुपति म. विनयसागर अनुसन्धान ३२ में पृष्ठ १८ से २१ तक साध्वी समयप्रज्ञाश्रीजी सम्पादित पाठक रुघपति कृत सुगण बत्तीसी प्रकाशित हुई है । कृतिलेखक रघुपति का परिचय देते हुए सम्पादिका ने पृष्ठ १९ पर लिखा है - पाठक रघुपति ए मूळ नाम छे । ते स्थानकवासी अथवा तेरापन्थी परम्पराना होय तेम अनुमान थाय छे । जो पूर्णतः भ्रामक होने के कारण सुधार योग्य है। १९वीं शताब्दी में स्थानकवासी और तेरापन्थी सम्प्रदाय में पाठक शब्द का प्रयोग ही नहीं होता था । पाठक उपाध्याय का वाचक है। यह केवल श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा में ही प्रयुक्त होता था । स्व. श्री मोहनलाल दलीचन्द देसाई लिखित जैन गुर्जर कविओ भाग दो पृष्ठ ५७३ और तृतीय भाग के द्वितीय खण्ड पृष्ठ १४५५ (सन् १९४४ का संस्करण) का अवलोकन किया होता तो यह भ्रम पैदा नहीं होता । रघुपति का बोलचाल का नाम रुघपति था । ये खरतरगच्छीय श्री जिनसुखसूरिजी के प्रशिष्य और विद्यानिधान के शिष्य थे । विद्यानिधान का जन्म नाम वेलजी था और संवत् १७७१ जेसलमेर में इन्होंने दीक्षा ग्रहण की थी । रघुपति की रचनाओं को देखते हुए यह निश्चित है कि ये राजस्थान प्रदेश के निवासी हों । इन्होंने दीक्षा कब ग्रहण की ? इसका कोई संकेत नहीं मिलता है किन्तु इनके द्वारा जो कुछ साहित्य मिलता है उसके आधार से कहा जा सकता है कि इनका समय १८वीं शताब्दी का अन्तिम चरण और १९वीं शताब्दी के द्वितीय चरण तक है। इनकी प्रारम्भिक रचना संवत् १७९२ में रचित गौड़ी पार्श्वनाथ स्तव और नाकोड़ा पार्श्वनाथ स्तव प्राप्त होता है । अन्तिम रचना संवत् १८३९ में रचित जिनदत्तसूरि' छन्द पद्य ३५ प्राप्त होता है। १. महोपाध्याय विनयसागर द्वारा सम्पादित खरतरगच्छ दीक्षानन्दी सूची, पृष्ठ ३३ २. महोपाध्याय विनयसागर द्वारा सम्पादित दादागुरु भजनावली, पृष्ठ ३० से ३५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520533
Book TitleAnusandhan 2005 09 SrNo 33
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2005
Total Pages102
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size5 MB
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