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________________ 66 अनुसन्धान ३३ राग परदु धन्यासी ॥ देवलोकांतिक इम कहि ए जागो जागो जोगिंद, विषयसुख परिहरु ए । त्रिभुवननि हितकारणि ए, तारणि भवजल एह संजम सहि वरु ए। दान संवच्छरि तुं दयां ए उरण कीधो लोकनु । जय जय सुर करि ए । परिदोल विबुधा सुणिए धन्यासी दमिश्रनु(?) । थ(प्र) भु संज्यम वरइ ए ॥१६॥ राग धोरणी ॥ सीह तणी परि एकलु, विचरइ देसविदेस । घनघाती क्रम खय क्रिया ध्यान सुकल विसेसो रे, केवलश्री वरि निवड मिथ्यात अनेको रे, तिम दूर करइ ।।१७।। सुरनर किंनर तिहा मिलि, रचइ समोश्रण सार । तिहा बेसी प्रभुजी कहें, धर्म ज च्यार प्रकार रे, त्रिभुवन तारेवा । सिद्ध धोरणी जिनराउ रे, विघन निवारेवा ॥१८॥ राग केदारा गोडी ॥ साधु साध्वी श्रावकश्राविका, थापिउं संघ उदार रे । मुगतिमारग चलावतु आप दयासिरदार रे ॥१९॥ कुमति-राहुनइ सिहारउ ऊगोरी भानु तिंग रे । केदारा गउरी नांटिक करइ, सुरतणी बाली निज अंग रे ॥ शांतिजिनेश्वर सेवीइ ॥२०॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.520533
Book TitleAnusandhan 2005 09 SrNo 33
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2005
Total Pages102
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size5 MB
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