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अगरचन्द्र नाहटा अभिनन्दन शान्ता
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श्री अगरचन्द नाहटा अभिनदन ग्रन्थ
( द्वितीय भाग)
प्रधान सम्पादक
डॉ० दशरथ शर्मा
सम्पादक-मण्डल डॉ० भोगीलाल सांडेसरा श्री रत्नचंद्र अग्रवाल डॉ० ए० एन० उपाध्ये डॉ० बी० एन० शर्मा श्री नरोत्तमदास स्वामी डॉ. कृष्णदत्त वाजपेयी
डॉ० मनोहर शर्मा
प्रबंध-सम्पादक श्री रामवल्लभ सोमानी
प्रकाशक
श्री हजारीमल बाँठिया
संयोजक श्री अगरचंद नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ प्रकाशन समिति
बीकानेर ( राजस्थान )
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प्रकाशक श्री हजारीमल बाँठिया संयोजक, श्री अगरचंद नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ प्रकाशन समिति । बीकानेर ( राजस्थान)
प्राप्तिस्थान : १. श्री अभय जैन ग्रन्थालय
नाहटोंकी गवाड़, बीकानेर ( राजस्थान ) २. नाहटा-बन्धु
५२।१६ शक्करपट्टी, कानपुर-१ फोन : ६६१३४ ३. नाहटा ब्रदर्स
४. जगमोहन मल्लिक लेन कलकत्ता-७ फोन : ३३४७५५
प्रथम संस्करण सन् १९७७ ई०
मूल्य : प्रथम खंड १०१) द्वितीय खंड १००)
दोनों खंड १५१)
मुद्रक : बाबूलाल जैन फागुल्ल महावीर प्रेस, भेलूपुर, वाराणसी-१ फोन : ६५८४८
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सिद्धान्ताचार्य श्री अगरचन्दजी नाहटा
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संपादकीय निवेदन सिद्धान्ताचार्य, संघ रत्न, जैन इतिहास रत्न, राजस्थानी साहित्य वाचस्पति, विद्यावारिधि, साहित्य वाचस्पति (हि० सा०) श्री अगरचंद नाहटा देश के प्रतिभासंपन्न विद्वान् हैं। उनका व्यक्तित्व बहुमुखी है। वे कला के महान् प्रेमी व मर्मज्ञ,पुरातत्त्व और इतिहास के गंभीर अनुसंधानकर्ता, प्राचीन साहित्य और प्राचीन ग्रन्थों के अध्यवसायी अन्वेषक, संग्राहक एवं उद्धारक, मातृभाषा राजस्थानी और राष्ट्रभाषा हिन्दी के श्रेष्ठ सेवक और अग्रणी साहित्यकार; मननशील विचारक, विशिष्ट माधक, सफल व्यापारी और कर्मठ कार्यकर्ता हैं । उनका जीवन 'सादा जीवन और उच्च विचार' इस उक्ति का श्रेष्ठ निदर्शन है। वे भारत के गौरव हैं । ऐसे विशिष्ट महापुरुष को यह अभिनंदन ग्रन्थ समर्पित करते हुए हमें गर्व का अनुभव हो रहा है।
श्री नाहटाजी का जन्म आज से ६७ वर्ष पूर्व वि० सं० १९६७ सन् (१९११ ई०) की चैत्र वदि ४ को राजस्थान के बीकानेर नगर में सम्पन्न जैन परिवार में हुआ था। पारिवारिक परिपाटी के अनुसार आपकी स्कूली शिक्षा अधिक नहीं हुई। पाँचवीं कक्षा की शिक्षा पूर्ण होने के पश्चात् सं० १९८१ में जब आपकी अवस्था १४ वर्ष की थी, पैत्रिक व्यवसाय-व्यापार में दीक्षित होने के लिए आपको बेलपुर कलकत्ते भेज दिया गया। स्कूली शिक्षा अधिक न होने पर भी अपनी अद्भुत लगन और अपने अध्यवसायपूर्वक निरन्तर अध्ययन के फलस्वरूप आपने अपने ज्ञान की परिधि को बहुत विस्तृत कर लिया।
सं० १९८४ में, १७ वर्ष की अवस्था में, आप श्री आचार्यप्रवर श्री कृपाचंद्रसूरि के संपर्क में आये । यह आपके जीवन का एक महत्त्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ। उसने आपके सामने आत्म शोध और साहित्य शोध का नया क्षेत्र खोल दिया; आपके जीवन की दिशा को व्यापार से बदलकर शोध-खो मोड़ दिया। व्यापार से आपने मुंह नहीं मोड़ा पर अध्ययन और अनुसंधान ही अब जीवन का मुख्य ध्येय बन गया । इस क्षेत्र में भी आप सफलता की चोटी पर पहुँचने में समर्थ हुए। चार सौ (४००) से ऊपर पत्र पत्रिकाओं में ४००० से ऊपर लेख लिखकर एक कीर्तिमान स्थापित किया । आपने सहस्रशः ग्रन्थों का तथा शतशः प्राचीन साहित्यकारों का अन्धकार से उद्धार किया।
__ नाहटाजी की कुछ उल्लेखनीय उपलब्धियों का उल्लेख इस प्रकार किया जा सकता है१. हस्तलिखित ग्रन्थों की खोज
पिछले पचास वर्षों में नाहटाजो ने सैकड़ों ज्ञात और अज्ञात हस्तलिखित ग्रंथ-भंडारों की छानबीन की और सहस्रशः प्राचीन, नये और महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों का पता लगाकर उनका उद्धार किया है। इनमें अज्ञात ग्रन्य भी हैं और ज्ञात ग्रन्थों की विशेष महत्त्वपूर्ण प्रतियाँ भी, जिनमें पृथ्वीराजरासो, वीसलदे-रास, ढोलामारू रा दूहा, वेलि क्रिसन रुकमणी री जैसे पूर्व ज्ञात ग्रन्थों की अनेक महत्त्वपूर्ण नयी प्रतियों; सूरसागर, पदमावत, बिहारी सतसई जैसे ग्रन्थों की प्राचीनतम प्रतियों तथा चंदायन, हम्मीरायण क्यामखाँ रासो एवं छिताईचरित जैसे अभी तक अज्ञात अथवा कम ज्ञात ग्रन्थों की विशेष रूप से उल्लेखनीय प्रतियों के नाम गिनाये जा सकते हैं ।
नाहटाजी जब यात्रा में जाते है तो गंतव्य स्थानों पर जहाँ किसी हस्तलिखित ग्रन्थ-भंडार की सूचना उन्हें मिलती है वहाँ पहुँचकर उसको अवश्य देखते हैं और वहाँ विद्यमान महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों का विवरण संकलित करके उसको प्रकाशित करवाते हैं।
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२. हस्तलिखित ग्रन्थभंडारों की सूचियों का निर्माण
नाहटाजी ग्रन्थभण्डारों की छान-बीन कर के नये ग्रन्थों और नयो प्रतियों को प्रकाश में ही नहीं लाये किंतु रातदिन परिश्रम करके उनने अनेकों भंडारों के ग्रन्थों की विवरणात्मक सूचियाँ भी प्रस्तुत की। ३. अभयजैन ग्रन्थालय नाम से हस्तलिखित ग्रन्थों के विशाल भंडार की स्थापना
अपने स्वर्गीय बड़े भ्राता अभयराजजी नाहटा को स्मृति में अभय जैन ग्रंथालय और अभय जैन ग्रंथमाला की स्थापना की गई।
अपने साहित्यिक जीवन के आरंभ से ही नाहटाजी ने हस्तलिखित प्रतियों की खोज और संग्रह के काम का श्रीगणेश कर दिया था। धीरे-धीरे उनके ग्रंथालय में लगभग पैसठ हजार हस्तप्रतियों का संग्रह हो गया। ये ग्रंथ संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, हिन्दी, राजस्थानी, गुजराती, पजाबी, काश्मीरी, कन्नड़, तमिल, अरबी, फारसी, बंगला, अंग्रेजी, उड़िया, आदि विविध भाषाओं के और विविध विषयों के हैं। अनेक ग्रन्थ ऐसे हैं जो अत्यंत महत्त्वपूर्ण होने के साथ-साध दुर्लभ भी हैं। अनेक ग्रंथ तो अन्यत्र अलभ्य ही हैं। इनके अतिरिक्त मध्यकालीन और उत्तरकालीन परालेखों (विविध प्रकार के दस्तावेज, प व्यापारिक पत्र, पट्ट-परवाने, बहियाँ आदि कागजपत्रों) का बड़ा भारी संग्रह भी ग्रंथालय में एकत्रित है। ४. अभय जैन ग्रन्थालय के अंतर्गत मुद्रित पुस्तकों का संग्रह
इसमें शोधकार्य के लिए आवश्यक संदर्भ-ग्रंथों, और शोधोपयोगी प्राचीन इतिहास, पुरातत्त्व, कला, साहित्य आदि विविध विषयों की पुस्तकों का बृहत् संग्रह है। ग्रन्थों की संख्या ४५ हजार से ऊपर है।
उक्त दोनों ही लक्षाधिक ग्रंथों के संग्रहों से शोध-विद्वान् और शोध-छात्र भरपूर लाभ उठाते हैं । ५. पत्र-पत्रिकाओं की पुरानी फाइलों का संग्रह
अभय जैन-ग्रन्थालय में विविध विषयों की पत्र-पत्रिकाओं की, विशेषतः शोधपत्रिकाओं की, पुरानी फाइलें बड़े परिश्रम के साथ प्राप्त करके संग्रहीत की गयी हैं। ये फाइलें शोध-विद्वानों के बड़े काम की है क्योंकि साधारणतया पत्रिकाओं के पुराने अंक सहज ही प्राप्त नहीं होते । ६. शंकरदान नाहटा कलाभवन की स्थापना
नाहटा जी अद्वितीय संग्राहक हैं, उन्होंने अपने पिताश्री की स्मृति में एक महत्त्वपूर्ण कलाभवन की स्थापना की। इसमें प्राचीन चित्र, मूर्तियाँ, सिक्के आदि, छोटी-बड़ी कलाकृतियों तथा अन्यान्य संग्रहणीय वस्तुओं का अच्छा संग्रह किया गया है । व्यक्तिगत संग्राहलयों में यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण एवं उल्लेखनीय है । ७. विविध विषयों पर ४००० से ऊपर शोधपरक एवं अन्यान्य निबंधों' का लेखन और प्रकाशन
इन निबंधों की क्षेत्र-सीमा बहुत विस्तृत है। उनमें विभिन्न भाषाओं के विभिन्न ग्रंथकारों और उनके ग्रंथों, तथा पुरातत्त्व, कला, इतिहास, साहित्य, लोक साहित्य, लोक-संस्कृति आदि विविध विषयों के विभिन्न पक्षों पर नयी-से-नयी जानकारी दी गयी है। इस निबंधों को मुख्यतया चार विभागों में बांटा जा सकता है
१. पुरातत्त्व, कला, इतिहास । १. इन निबन्धों की सूची शीघ्र ही प्रकाशित की जायेगी।
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२. साहित्य-संस्कृत साहित्य, प्राकृत साहित्य, अपभ्रंश साहित्य, प्राचीन राजस्थानी, गुजराती एवं हिंदी साहित्य, ग्रंथकार और उनके ग्रंथ ।
इन निबन्धों की सूची शीघ्र ही प्रकाशित की जायेगी। ३. लोक जीवन, लोक संस्कृति, लोक-साहित्य । ४. धर्म, दर्शन अध्यात्म, आचार-विचार, लोक व्यवहार ।
ये निबंध देश के विभिन्न स्थानों से प्रकाशित होने वाली ४०० से ऊपर पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हए हैं। इतने अधिक एवं विविध विषयक शोध-निबंध विश्व में शायद ही किसी दूसरे विद्वान् ने लिखे हों। ८. बीकानेर राज्यभर के जैन अभिलेखों (शिलालेखों, मूर्तिलेखों, धातुलेखों) का विशाल संग्रह और प्रकाशन । ९. अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रंथों का विस्तृत प्रस्तावनाओं के साथ संपादन । १०. शोधार्थियों का तीर्थस्थान
नाहटाजी का स्थान शोधविद्वानों और शोधछात्रों के लिए मानो कल्पवृक्ष ही है। यही कारण है कि उनके यहाँ शोधार्थी लोग बराबर आते रहते हैं। शोधार्थियों को जो सहायक सामग्री, ग्रंथ आदि चाहिए वह अधिकतर उनके पुस्तकालय में उपलब्ध हो जाती है। यदि नहीं होती है तो ज्ञान के विश्वकोश-रूप नाहटाजी से सहज ही पता लग जाता है कि कहाँ-कहाँ उपलब्ध हो सकती है। वे स्वयं भी अनेक बार अन्यान्य स्थानों से शोधार्थी के लिए व्यवस्था कर देते हैं। कोई मुद्रित पुस्तक प्राप्त नहीं होती है तो पुस्तक को अपने पुस्तकालय में मंगवाकर उसे सुलभ कर देते हैं। अनेक बार नाहटाजी अपनी निजी प्रतियाँ भी उपयोग के लिए शोधार्थियों को भेज देते हैं। शोधार्थी विद्वानों और छात्रों को उनके यहाँ शोध-सामग्री ही नहीं प्राप्त होती किंतु निवास और भोजन की व्यवस्था भी वे प्रायः स्वयं ही अपने यहाँ कर देते हैं ।
शोध-छात्रों के साथ नाहटाजी का व्यवहार अतीव उदारता पूर्ण और सहानुभूति-पूर्ण होता है । वे उनकी सब प्रकार की सहायता करने को सदा तत्पर रहते है। नाहटाजी से उन्हें शोध-सामग्री और आवश्यक पुस्तकें ही प्राप्त नहीं होतीं किन्तु विषय-निर्वाचन से लेकर अंत तक निर्देशन भी मिलता है। छात्रों के घर चले जाने के बाद भी अनेक बार पत्र द्वारा उनकी प्रगति का हाल पूछते हैं और यदि नयी जानकारी ज्ञात होती है तो उसकी सूचना भी तुरंत देते हैं। शोधविद्वान् और शोधछात्र नाहटाजी के पुस्तकालय को इच्छाफल-दाता तीर्थस्थान मानते हैं। ऋषि तुल्य डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल और श्री हजारीप्रसादजी द्विवेदी ने उन्हें औढरदानी बतलाया है। ११. अद्भुत स्मृति कोष
___ अद्भुत स्मरण शक्ति के धनी श्री नाहटाजी जिस ग्रंथ का भी एक बार अवलोकन कर लेते है उसके वाक्यांशों तक का संदर्भ उनके मानस पटल पर स्थायी रूप से अंकित हो जाता है । फलस्वरूप श्री नाहटाजी ने जहाँ अलभ्य ग्रंथों का संग्रहालय स्थापित किया है वहाँ वे स्वयं भी एक चलते फिरते ज्ञान भंडार, ज्ञान कोष बने हुए हैं। यह प्रकृति की आपको अनुपम देन है। १२. महान् आत्मसाधक
साहित्य शोध के साथ-साथ श्री नाहटाजी आत्मानुभूति के क्षेत्र में भी संतवत् ऋषितुल्य महान् साधक हैं। प्रतिदिन प्रातः २-३ बजे से आपका स्वाध्याय, ध्यान, मनन, चिन्तन का साधना परक क्रम प्रारंभ होता है जो दिनचर्या की अन्य गतिविधियों के साथ निर्बाध रूप से रात्रि शयन तक चालू रहता है। अनुभूति की यह स्थिति विरल साधकों को ही प्राप्त होती है।
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१३. जन-जन के प्रेरणा स्रोत
श्री नाहटाजी ने स्वयं तो अपनी कर्मठता और अध्यवसाय से अतुलनीय उपलब्धि की ही है पर साथ ही संपर्क में आने वाले सभी व्यक्तियों को नानाविध प्रेरणा देकर चिंतन, अध्ययन, लेखन, शोध आदि किसी न किसी विशिष्टकार्य की ओर प्रवृत्त किया है। १४. सरस्वती एवं लक्ष्मी दोनों के लाडले सपत
प्रायः यही देखा-पाया जाता है कि सरस्वती के आराधकों पर लक्ष्मी की कृपा कम ही रहती है एवं लक्ष्मी के उपासकों पर सरस्वती का वरद हस्त कम ही रहता है पर नाहटाजी इसके विरल अपवादी है, आप दोनों देवियों के समान रूप से लाडले सपूत हैं। साहित्य तपस्वी के साथ-साथ कुशल व्यापरी भी हैं। १५ इधर साहित्य सेवियों में आध्यात्मिक साधक विरल ही होते हैं पर नाहटाजी दोनों क्षेत्रों में समान रुचि, गति एवं अधिकार रखते हैं। धर्म और दर्शन भी उनके जीवन-प्राण हैं। प्रातः २-३ बजे से सामायिक स्वाध्याय, भजन-पूजन, व्रत-नियम की आराधना-साधना का प्रवाह चालू होता है। साथ ही साहित्य सेवा भी चलती रहती है। नाहटा जी लेखक के साथ-साथ गंभीर चिन्तक एवं मनीषी हैं । निरन्तर स्वाध्यायशील, अन्वेषक एवं साधक हैं।
ऐसा विरल एवं विलक्षण व्यक्तित्व, बहुमुखी प्रतिभा, अनेकानेक विशेषताओं का सुभग संयोग बहुत ही कम पाया जाता है।
ऐसे साहित्य तपस्वी, आत्मानंदी साधक का अभिनंदन एक गुणपुंज विभूति का अभिनंदन है।
माँ भारती के ऐसे कर्मठ का और देश के ऐसे प्रतिभा-संपन्न विद्वान् का समुचित अवसर पर समुचित अभिनंदन करने का विचार नाहटाजी के सुहृदों, सहयोगियों और प्रेमियों के मन में बहुत समय से उठ रहा था। उनके एकमात्र भान्जे (भगिनी पुत्र) श्री हजारीमल बांठिया ने इस विचार को मूर्त रूप देने का बीड़ा उठाया। उनके प्रयत्न के फलस्वरूप एक तदर्थ समिति बनायी गयी। इस समिति ने अभिनंदनसमारोह की रूपरेखा बनायी। नाहटाजी की षष्टयब्द-पूर्ति की तिथि निकट आ रही थी अतः निश्चय किया गया कि अभिनंदन-समारोह षष्टयब्दपूर्ति की तिथि पर ही मनाया जाय और तभी उन्हें एक अभिनंदन-ग्रंथ भी भेंट किया जाय। समिति के सामने बहुत बड़ी समस्या अर्थ की थी परंतु कर्मठ श्री बांठियाजी ने आवश्यक अर्थ-संग्रह का भार अपने पर लेकर समिति को इस ओर से भी निश्चिन्त कर दिया ।
तदनंतर तदर्थ समिति के स्थान पर भारत के प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के तत्कालीन सभापति डॉ० श्री दौलतसिंहजी कोठारी की अध्यक्षता में औपचारिक अगरचंद नाहटा अभिनंदनोत्सव-समिति का गठन किया गया जिसके पदाधिकारी इस प्रकार थे
अध्यक्ष डॉ० दौलतसिंह कोठारी उपाध्यक्ष विद्यावाचस्पति पं० विद्याधर शास्त्री मंत्री श्री भंवरलाल कोठारी
आचार्य नरोत्तमदास स्वामी
डॉ० छगन मोहता सहमंत्री श्री मूलचंद पारीक
श्री प्रकाशचंद सेठिया श्री जसकरण सुखाणी
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कोषाध्यक्ष श्री लालचंद कोठारी संयोजक श्री हजारीमल बांठिया
इनके अतिरिक्त अनेक विद्वानों, साहित्यकारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, संसद-सदस्यों, नेताओं, पत्रसंपादकों तथा जाने-माने धनी-मानी महानुभावों ने सहर्ष समिति के संरक्षक बनना स्वीकार किया।
इस अभिनंदनोत्सव समिति ने अभिनदन-ग्रंथ के लिए संपादक-मंडल का गठन किया जिसके सदस्य निम्नलिखित विद्वान् बनाये गयेअध्यक्ष-डा० दशरथ शर्मा-भूतपूर्व अध्यक्ष, इतिहास-विभाग जोधपुर विश्वविद्यालय तथा निदेशक
राजस्थान राज्य प्राच्यविद्या-प्रतिष्ठान (अब स्वर्गस्थ) सदस्य-डा० आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये, कोल्हापुर
डा० भोगीलाल सांडेसरा, बड़ोदा डा० रत्नचन्द्र अग्रवाल, जयपुर डा० कृष्णदत्त बाजपेयी, सागर
डा० बी० एन० शर्मा, दिल्ली स्थानीय संपादक-प्रो० नरोत्तमदास स्वामी, बीकानेर
डा० मनोहर शर्मा, बिसाऊ, बीकानेर प्रबंध-संपादक-श्री रामवल्लभ सोमाणी, जयपुर संयोजक-श्री हजारीमल बांठिया
अभिनन्दन-ग्रन्थ के तैयार होने और छपने में बहुत अधिक समय लग गया। आवश्यक आर्थिक व्यवस्था करने और छपाई में विशेष विलंब हआ। नाहटाजी की षष्ट्यब्द पूर्ति की तिथि आयी । बीकानेर में अभिनन्दन का आयोजन तो हआ पर ग्रन्थ समर्पित नहीं किया जा सका।
निश्चय किया गया कि अभिनन्दन ग्रन्थ को दो भागों में प्रकाशित किया जाय और अभिनन्दन का उत्सव भी दो वार करके मनाया जाय । तदनुसार अप्रेल १९७६ में, जब अभिनन्दन ग्रन्थ के प्रथम भाग का मुद्रण पूरा हो गया तो, अभिनन्दनोत्सव के प्रथम समारोह को नाहटाजी की जन्मभूमि और कर्मभमि बीकानेर में मनाने का आयोजन किया गया। इस समारोह का विवरण इस द्वितीय भाग के परिशिष्ट में दे दिया गया है।
अभिनन्दन ग्रंथ के दो भाग है-प्रथम भाग व्यक्तिगत है, उसमें जीवनी, आशीर्वाद, शुभकामनाएँ, संदेश श्रद्धांजलियाँ और संस्मरण दिये गये हैं। दूसरे भाग में नाहटाजी के सम्मान में लिखित विद्वानों के शोध-निबंधों का संकलन है । इस भाग के तीन खंड है-पहले खंड में पुरातत्त्व, इतिहास तथा कला संबंधी निबंध है, दूसरा खंड भाषा और साहित्य विषयक निबंधों का है और तीसरे में विविध विषयक संकीर्ण लेख है । प्रत्येक खंड में अपने अपने विषयों के धुरंधर विशेषज्ञ विद्वानों की रचनाएँ संकलित हुई हैं।
अभिनन्दन-ग्रंथ के लिए संस्मरण और शोध-निबंध बड़ी संख्या में प्राप्त हुए। आर्थिक स्थिति इस योग्य न थी कि सभी रचनाओं को अभिनन्दन ग्रन्थ में स्थान दिया जा सकता। यदि सब निबंधों को स्थान दिया जाता तो पृष्ठ-संख्या चार-पाँच हजार तक जा पहुँचती । अतः केवल कतिपय चुने हुए शोध निबंध ही ग्रन्थ में दिये जा सके हैं। ग्रन्थ के लिए पूर्व निर्धारित दर्शन, धर्म आदि विषय महत्त्वपूर्ण निबंध प्राप्त हुए थे पर उन्हें भी इस ग्रंथ में सम्मिलित नहीं किया जा सका।
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अभिनन्दन ग्रंथ के लिए रचनाएँ विशेष अनुरोध के साथ मंगवायी गयी थीं। हमें अत्यन्त खेद है कि हम, आर्थिक स्थिति के कारण उन सबका उपयोग नहीं कर सके। उनके विद्वान् लेखकों से क्षमा मांगने के अतिरिक्त अब हमारे लिए दसरा चारा नहीं है।
अभिनन्दन-ग्रन्थ के प्रकाशन में भी अप्रत्याशित देर हो गयी। अनेक लेख हमारे पास कई वर्ष पूर्व आ चुके थे। उनके लेखकों का धैर्य निस्संदेह कड़ी कसौटी पर कसा गया है। अनेक लेखकों से उपालंभ भरे पत्र भी मिले और अब भी मिल रहे हैं । मैं सभी महानुभावों से हृदय से क्षमायाचना करता हूँ।
लेखों को संगृहीत करने में डा० बी० एन० शर्मा तथा डा० कंसारा आदि ने बड़ी सहायता दी। उनका सहयोग अगर नहीं होता तो इतने अच्छे लेख प्राप्त नहीं हो पाते।
संपादन-कार्य में प्रधान संपादक डा० दशरथ शर्मा तथा डा० रत्नचन्द्र अग्रवाल से बराबर मार्गदर्शन मिला । श्री नरोत्तमदास स्वामी और डा० मनोहर शर्मा से लेखों के चयन और संपादन में जो सक्रिय सहयोग मिला उसके लिए, मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि, किन शब्दों में आभार प्रकट करूं। वे अपने ही हैं-इतने अधिक अपने हैं कि उनके प्रति आभार प्रकट करने की औपचारिकता बरतना उनके अपनेपन के महत्त्व को कम करना होगा।
श्री नाहटाजी जैसे महापुरुष का अभिनन्दन करके हम उनकी गरिमा की वृद्धि नहीं करेंगे; उनका सम्मान करके वास्तव में हम अपना ही सम्मान करेंगे, यह अभिनन्दन तो वस्तुतः हमारे हृद्गत भाव-सुमनों का सुरभित गुच्छक मात्र है।।
यह विशेष रूप से स्मरणीय है कि श्रीनाहटाजी के अध्ययन और शोध-खोज-रत कर्मठ जीवन के पचास वर्ष इसी वर्ष संवत् २०३४ में पूर्ण हो रहे हैं। इस साहित्य साधना व आत्मसाधना की स्वर्ण जयन्ती के उपलक्ष्य में अभिनन्दन ग्रन्थ का यह द्वितीय भाग प्रकाशित एवं समर्पित किया जा रहा है।
रामवल्लभ सोमाणी
प्रबन्ध-सम्पादक
नाहटाजो के प्रेरणा-स्रोत जीवनसूत्र
१. करत-करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान ।
रसरी आवत-जात ते, सिल पर परत निसान ।।
२. काल करै सो आज कर, आज कर सो अब्ब ।
पल में परलै होयगी, बहुरि करंगो कब्ब ।। ३. एकै साधे सब सधै, सब साधे सब जाय ।। ४. रे मन । अप्पह खंच करि, चिता-जालि म पाडि । फल तित्तउ हिज पामिसइ, जित्तउ लिहिउ लिलाडि ।।
(श्रीपाल चरित्र)
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श्रीमती इंदिरा गांधी 'अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन ग्रन्थ' का २१-४-७८ को विमोचन करती हुई।
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अनुक्रमणिका
द्वितीय खण्ड खण्ड १ : इतिहास और पुरातत्त्व
१. प्रतिहार काल में पूजित राजस्थान के कुछ अप्रधान देवी-देवता
डॉ० दशरथ शर्मा २. मध्यकालीन मारु-गुर्जर चित्रकला के प्राचीन प्रमाण
डॉ० उमाकांत प्रेमानन्द शाह ३. पल्लू की प्रस्तर प्रतिमाएं
श्री देवन्द्र हाण्डा ४. ओसियां
डॉ० ब्रजेन्द्रनाथ शर्मा ५. मध्यप्रदेश की प्राचीन जैन कला
प्रो० कृष्णदत्त वाजपेयी ६. प्राचीन व्रजमण्डल में जैनधर्म का विकास श्री प्रभुदयाल मीतल ७. भारतीय नौसेना ऐतिहासिक सर्वेक्षण
श्री गायत्रीनाथ पंत 6. Chandra Images From Rajasthan R. C. Agrawala 8. Prehistoric Background of Rajasthani Culture
V. N. Misra १०. Mewar Painting
Kuwar Sangram Singh ११. Coins of The Malavas of Rajasthan Shri Kalyan Kumar Das Gupta १२. Tantric Culture Eastern India Dr. Upendra Thakur १३. The Five Apabhramsa Verses
Composed by Muñja, the Paramara King of Malava
Shri H. C. Bhayani १४. Jainism And Vegetarianism
Dr. A. N. Upadhye 84. Viśvāmitra in the Kalpasūtras Dr. Umesh Chandra Sharma १६. The Quest for a Proper Perspective in Vedic Interpretation
Prof. N. M. Kansara १७. 8th Century Document on means of Earning Money
Prof. Prem Suman Jain १८. The Problem of Apadha in the Rgiveda
Dr. Smt. Y. S. Shah १९. A Method of Grow Crooked Bamboos for Palanquin Beams
Shri K. V. Sarma २०. राजस्थान के शिलालेखों का वर्गीकरण श्री रामवल्लभ सोमानी
खण्ड २ : भाषा और साहित्य २१. पाणिनिकाल एवं संस्कृत में द्विवचन
श्री उदयवीर शास्त्री २२. संस्कृत के दो ऐतिहासिक चम्पू
डॉ० बलदेव उपाध्याय
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२३. महो०क्षमाकल्याण गणि की संस्कृत साहित्य-साधना डॉ० दिवाकर शर्मा
१४६ २४. प्राकृत के कुछ शब्दों की व्युत्पत्ति
डॉ. वसंत गजानन राहूरकर
१५३ २५. अपभ्रंश कथा काव्यों की भारतीय संस्कृतिको देन डॉ० कस्तूरचन्द कासलीवाल
१५५ २६. अपभ्रंश का एक अचर्चित चरितकाव्य डॉ० देवेन्द्रकुमार शास्त्री
१६. २७. राजस्थान का युग-संस्थापक कथा-काव्यनिर्माता हरिभद्र
(स्व०) डॉ० नेमीचंद्र शास्त्री २८. तथाकथित हरिवंशचरियं की विमलसूरिकर्तृता : एक प्रश्न (स्व०) डॉ० गुलाबचंद्र चौधरी
१७८ २९. महाकवि रडधू की एक अप्रकाशित सचित्र कृति 'पासणाहचरिउ'
प्रो० डॉ० राजाराम जैन ३०. शत्रुञ्जय तीर्थाष्टक
महो० विनयसागर
१८८ ३१. दिल्ली पट्ट के मूलसंघीय भट्टारक प्रभाचन्द्र और पद्मनन्दि
पं० परमानन्द जैन शास्त्री ३२. अमरु शतक की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि
डॉ० अजयमित्र शास्त्री
१९८ ३३. 'कान्हड़दे प्रबन्ध' और उसका ऐतिहासिक महत्त्व डॉ. सत्यप्रकाश
२०७ ३४. कान्हड़दे प्रबन्ध-सांस्कृतिक दृष्टि से
मूल लेखक-डॉ० भोगीलाल सांडेसरा अनुवादक-श्री जयशंकर शर्मा
२११ ३५. रामरासोकार महाकवि माधवदास दधिवाडिया श्री सौभाग्यसिंह शेखावत ३६. मेवाड़प्रदेश के प्राचीन डिंगल कवि
श्री देव कोठारी ३७. राजस्थानी बातों में पात्र और चरित्र-चित्रण डॉ० मनोहर शर्मा
खण्ड ३ : विविध ३८. जैनतर्कशास्त्र में हेतु प्रयोग
डॉ० दरबारीलाल कोठिया ३९. जैन दर्शन में नैतिक आदर्श के विभिन्न रूप डॉ० कमलचन्द सौगानी ४०. ऐतरेय आरण्यकमें प्राण-महिमा
आचार्य विष्णुदत्त गर्ग ४१. प्राचीन भारतीय वाङ्मय में प्रयोग
श्री श्रीरंजन सूरिदेव
२७२ ४२. श्री वल्लभाचार्यजी महाप्रभुजीका जीवन वृत्त अध्या० केशवराम का० शास्त्री ४३. द्वैत-अद्वैत का समन्वय
श्री आनन्दस्वरूप गुप्त ४४. चित्रकाव्य का उत्कर्ष-सप्तसन्धान महाकाव्य श्री सत्यव्रत तृषित
२९७ ४५. शिवराज भूषण में गुसलखाना का प्रसंग श्री वेदप्रकाश गर्ग
३०८ ४६. होथल निगाभरी और ओढ़ आम की सुप्रसिद्ध लोक
कथा का वस्तुसाम्य एवं इसके आधार पर विचार श्री पुष्कर चन्दरवाकर ४७. 'तेजा' लोक गीत का एक नया रूपांतर श्री नरोत्तमदास स्वामी ४८. रणछोड़ भट्ट कृत कुमारकाव्य और महाराणा
प्रतापसे सम्बन्धित दो विवादास्पद प्रश्न , डॉ० ब्रजमोहन जावलिया परिशिष्ट १. अगरचन्द नाहटा अभिनन्दनोत्सव समारोह का विवरण शुभ-कामना संदेश परिशिष्ट २, बीकानेर में आयोजित अभिनन्दन समारोह के निमित्त सहयोगदाताओं की शुभ नामावली
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प्रथम खण्ड
इतिहास और पुरातत्त्व
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प्रतिहार काल में पूजित राजस्थान के कुछ अप्रधान देवी-देवता
डा० दशरथ शर्मा
ईश्वरको सर्वत्र देखने वाले हिन्दू धर्मके लिए सभी पूज्य देव-देवियोंमें ईश्वरत्वकी भावना करना आसान रहा है। चाहे मनुष्य किसी नामसे अपने इष्टदेवका पूजन करे, पूज्य वस्तु वही ईश्वरतत्त्व है । इसीलिए श्रीकृष्ण भगवद्गीता में कह सके हैं :
येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विताः ।
तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम् ।। ९.२३ ।। पूजन निष्काम हो तो श्रेष्ठ है । उसीसे कर्मकी हानि, और मुक्तिकी प्राप्ति हो सकती है किन्तु फल प्राप्तिके इच्छुक व्यक्ति प्रायः अनेक देव मूर्तियोंका पूजन करते ही हैं ( ७.२० ); और उन्हें अपने लक्ष्यानुसार ईश्वरीय नियम द्वारा विहित प्राप्ति भी होती है।
प्रतिहार कालमें वैदिक धर्मानुसारिणी जनता प्रायः विष्णु, शिव, सूर्य और शक्तिकी पूजक थी। इनके एकत्वकी भावना उनके हृदयमें दृढ़ मूल हो चुकी थी। अन्यथा यह कैसे सम्भव होता कि पिता एक देवका तो पुत्र अन्य किसी इष्टदेवका पूजन करे ? प्रतिहार-राज देवशक्ति विष्णुका तो उसका पुत्र वत्सराज महेश्वरका भक्त था । वत्सराजके उत्तराधिकारी नागभट द्वितीयने भगवतीका पूजन किया तो उसके उत्तराधिकारी रामभद्रने सूर्यका। रामभद्रका पुत्र सम्राट् भोज भगवती-भक्त था; किन्तु अपने अन्त:पुरमें उसने अपनी रानियोंके लिए भगवान नरकद्विष विष्णुको प्रतिमाका स्थापन किया था। महेन्द्रपाल प्रथमने भी भगवतीकी आराधना की; किन्तु उसका पुत्र विनायकपाल आदित्यका और विनायकपालका पुत्र महेन्द्रपाल द्वितीय महेश्वरका पुजक था।
ब्रह्माका भी यत्र तत्र पूजन वर्तमान था । किन्तु हरिषेणीय बृहत्कथाकोश, कुवलयमाला, जिनेश्वरीय कथाकोशप्रकरण, उपमितिभवप्रपञ्चा आदि जैन ग्रंथोंके साक्ष्यसे यह सिद्ध है कि प्रतिहार-युगमें ब्रह्मापजकोंकी संख्या प्रायः नगण्य थी। अभिलेखादि पुरातात्त्विक सामग्रीके आधारपर भी हम इसी निष्कर्ष पर पहँचते हैं। ब्रह्मा वेदोंके द्रष्टा है। जब वेदों का स्थान प्रायः स्मृतियों और पुराणोंने ग्रहण कर लिया तो सावित्रीपति ब्रह्माके गौरवमें कुछ अपकर्ष होना स्वभावतः निश्चित ही था ।।
किन्तु पुराणोक्त अनेक देवों और देवियोंका पूजन इस समय खूब बढ़ा। इनमें कुछ शिवकुलमें संख्यात है। अमरकोशने शिव और पार्वतीके ठीक बाद गणपतिको लेते हुए विनायक, विघ्नराज, द्वैमातुर, गणाधिप, एकदन्त, हेरम्ब, लम्बोदर, गजानन आदि उनके आठ नाम दिए हैं जिससे सिद्ध है कि पांचवीं शताब्दी में गणपतिका स्वरूप प्रायः बही था जो अब है और तद्विषयक अनेक पौराणिक कथाएँ पूरी तरह
१. विष्ण, शिव, सूर्य आदिके प्रधान देवोंके विवरणके लिए Rajasthan Through the Agos देखें। २. पृष्ठ, ६८।
इतिहास और पुरातत्त्व : ३
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प्रसत हो चुकी थीं। क्षीरस्वामीने उनका 'आखुरथ' नाम भी दिया है। आठवीं शताब्दी के महान् जैन साहित्यकार और दार्शनिक हरिभद्रसूरिने धूर्ताख्यानमें गणपतिके पार्वतीके मलसे उत्पन्न होनेकी कथा दी है। कुवलयमालाकथामें विनायक उन देवताओं में परिगणित हैं जिनका विपत्ति के समय लोग ध्यान करते थे। गजेन्द्ररूपमें अनेक लोकदेवताओंके साथ इनकी चत्वर में पूजा होती। स्कन्दपुराणादिमें जो इनका विशद वर्णन है वह प्रायः सभी को ज्ञात है ।।
कक्कुकके धरियाले स्तम्भके संवत् ९१८के प्रथम अभिलेखका आरम्भ विनायकको नमस्कारसे होता है। इसी यशःस्तम्भ पर चतुर्मुख विनायककी सुन्दर मूर्ति है। नृत्य मुद्रामें गणपति की मूर्तियां भी पर्याप्त जनप्रिय रही होंगी। ये हरस, आबानेरी, आदि अनेक स्थानों से मिली है। मण्डोर रेल्वे स्टेशनके निकट पहाड़ी पर शिव समेत गणपति और मातृकाओं की मूर्तियां भी दर्शनीय हैं। महाराजा जयपुरके संग्रहमें गणपतिनृत्यमुद्रामें सप्तमातृकासहित शिव उल्लेखनीय हैं।' अटरूमें भी इसी तरह गणपति की अनेक प्रकारकी प्रतिमाएं मिली है, जो गणपति पूजाके विशेष प्रचार की द्योतक है । कहीं स्थानक, कहीं आसीन, कहीं शक्तियुत, तो एक स्थानमें चतुर्बाहु रूपमें ये गरुडासीन भी हैं ।
स्कन्द, कुमार या कात्तिकेय भी शैववर्गमें है । गुप्तकालमें स्कन्दके पूजनका बहुत अधिक प्रचार था । दो गुप्त सम्राट् स्कन्द और कुमार इन्हींके नामसे अभिहित हैं। कालिदासने इन्हींके गौरवगानमें कुमारसम्भव की रचना की। यौधेयों के ये इष्टदेव थे। अमरकोशने गणपतिके आठ तो स्कन्दके सतरह नाम दिए हैं। किन्तु प्रतिहारकालमें स्कन्दकी यह जनप्रियता बहुत कुछ लुप्त हो चुकी थी। किसी प्रतिहार सम्राट्ने स्कन्दको इष्टदेवके रूपमें ग्रहण न किया । उपमितिभवप्रपञ्चा, यशस्तिलक, बृहत्कथाकोश, जिनेश्वरीकथाकोश प्रकरण आदि ग्रंथों में उनका स्थान नगण्य है। रोहीतक किसी समय स्कन्दका मुख्य स्थान था । किन्तु यशस्तिलकने स्कन्दकी गौणताके कारण यहाँ चण्डमारीको प्रतिष्ठित कर दिया है। कुवलयमालामें अनेक अन्य देवताओंके साथ स्कन्दका नाम है। स्कन्दपुराणके कौमारी खण्डमें स्कन्द की पर्याप्त प्रशंसा वर्तमान है; किन्तु उसमें भी स्कन्दके पूजनादिका विशेष विधान और वर्णन नहीं है। हरिभद्रसुरिने कुमारकी उत्पत्ति की कथा देते हुए उसका स्थान दक्षिण देशके अरण्यमें रखा है ( ३.८३ )। शायद इससे यह अनुमान करना असंगत न हो कि हरिभद्रके समय स्कन्दकी पूजाका प्रचार मुख्यतः दक्षिणमें था। स्कन्दकी गुप्तकालीन मूर्तियां अवश्य राजस्थानमें प्राप्य हैं।
सूर्यकुलीन देवोंमें रेवन्तका उल्लेख कुवलयमालामें है। बृहत्संहिता और विष्णुधर्मोत्तरपुराणमें रेवन्त की मूर्तिका विधान है। कालिकापुराण के अनुसार इनका पूजन द्वारके निकट पूर्ण जलपात्र रखकर भी किया जाता । जलपात्र में उनकी उपस्थिति मान ली जाती । जनताका विश्वास था कि आकस्मिक विपत्तियोंके समय रेवन्त विपद्गत व्यक्तियोंकी रक्षा करते हैं। इसलिए यह समुचित ही था कि समुद्र में तुफान आनेपर कुवलयमाला कथाके जलयात्रियोंने रेवन्तकी प्रार्थना आरम्भ की। अमरकोशमें रेवन्तका नाम नहीं है। अन्यत्र इन्हें सूर्य और संज्ञाका पुत्र और गृह्यकोंका राजा कहा गया है जिससे प्रतीत होता है कि प्रथमत: मणिभद्रादिकी तरह ये भी जनदेव थे और समयानुक्रमसे सूर्यकलमें परिगणित हुए।
२. पृष्ठ, २, १४, २५६ । २. देखें डॉ० रत्नचन्द्र अग्रवालके लेख, मरुभारती, ८, २, २९, आदि; जर्नल ऑफ इण्डियन हिस्ट्री, २८,
पृष्ठ ४९७ आदि। ३. मरुभारती, ८,१,६७ ।
४ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ
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इसी प्रकार अनेक अन्य देव हैं । जिनके लिए जैन ग्रंथोंमें व्यन्तर संज्ञा प्रयुक्त है । भारतमें आजकल मदन (कामदेव) की पूजा नहीं होती; किन्तु प्रतिहारकाल तक इस पूजाका पर्याप्त प्रचार था। चैत्र शुक्ला त्रयोदशी मदन त्रयोदशीके नामसे प्रसिद्ध थी। मदन पुष्पधन्वाके नामसे प्रसिद्ध है। किन्तु उपमितिभवप्रपञ्चादिसे प्रतीत होता कि मदन इक्षुधन्वा भी थे। मदनके पूजागृहका तोरण इक्षुका बना होता, और उसमें अशोकके नव-पल्लवोंकी बन्दनवार होती। अगर, सुगन्धित पुष्प और कपूरसे स्थान सुवासित रहता और भक्तगण इक्षुरस-पूर्ण भाण्ड, शालिधान्य और अनेक मिष्टान्न उपहारके रूप में समर्पित करते । कन्याएँ सुन्दर वरकी अभिलाषासे और विवाहित स्त्रियां अपने सौभाग्यकी रक्षाके लिए मदनका पूजन करतीं। भारतीय साहित्य मदनपूजनके वर्णनसे पूर्ण है। कर्कोटनगरसे प्राप्त मकरध्वजीय कामदेव और रतिका उल्लेख डॉ० रत्नचन्द्र अग्रवालने किया है।
व्यन्तरोंमें यक्ष मुख्य हैं। इनकी पूजा भारतमें प्राचीन समयसे चली आ रही है। अनेक जैन कथाओंमें यक्ष पूजाका वर्णन है । ज्ञानपञ्चमीसे प्रतीत होता है कि मथुरामें मणिभद्रके पूजनका पर्याप्त प्रचार था। मणिभद्रकी धार्मिक जनोंपर पर्याप्त कृपा रहती है। समराइच्चकहामें एक विचित्रप्रकृतिक क्षेत्रपालका वर्णन है जिसे छोटी-मोटी दुष्टता करने में ही आनन्द आता। जिनेश्वरीय कथाकोशमें क्षेत्रपाल द्वारा आवेश और पउमसिरिचरियमें क्षेत्रपालकी नटखट वृत्तिका वर्णन है। राजस्थानमें क्षेत्रपाल अब भी पूजित है; पर उसके रूप में कुछ अन्तर अवश्य हुआ है ।
यक्षोंमें सबसे महत्त्वपूर्ण कुबेर थे । चित्तौड़ क्षेत्रसे प्राप्त उदयपुर म्यूजियमकी कुबेर प्रतिमाका शिल्पसौष्ठव में अदभुत है । इसके मुकुट और मस्तककी जिनमूर्ति हमें कुवलयमालाके वर्णनका स्मरण दिलाती है। कुमार कुवलयचन्द्रको वनमें ऐसी ही एक यक्षप्रतिमा मिलती है जिसके मुकुट में मुक्ताशैल विनिर्मित अर्हत्प्रतिमा है । उसे नमस्कारकर कुमार सोचने लगता है "अरे, यह आश्चर्य है कि दिव्य यक्षप्रतिमाके मस्तकपर भगवान्की प्रतिमा है। या इसमें आश्चर्य ही क्या है कि दिव्य ( देवादि ) भी भगवान्को मस्तकपर धारण करें । वे तो इस तरह धारणके योग्य ही है।"२ कुबेरकी ऐसी मूर्तियां अन्यत्र अब तक नहीं मिली हैं । किन्तु कुवलयमालाकथाके वर्णनसे सम्भावना की जा सकती है कि ऐसी कुछ मूर्तियां आठवीं शताब्दीके राजस्थानमें रही होंगी।
____ अजमेर न्यूजियममें कुबेरकी मूर्तियां हैं। इनमें एक ललितासनमें स्थित है। इसके दाहिने हाथमें बिजोरा और बाएँमें लम्बी थैली है। म्यूजियमकी दूसरी कुबेर मूर्ति अढ़ाई दिनके झोंपड़ेसे प्राप्त हुई है। इसमें कुबेर प्रफुल्ल कमलपर खड़े हैं । नरहड आदि राजस्थानके अन्य स्थानोंसे भी कुबेरकी प्रतिमाएं मिली है।
__ कुवलयमालाकथामें यक्ष, राक्षस, भूत, पिशाच, किन्नर, किंपुरुष, गन्धर्व, महोरग, गरुड़, नाग, अप्सरस आदि अनेक अन्य व्यन्तरोंका निर्देश भी है जिनका सामान्यजन स्वार्थसिद्धिके लिए पूजन करते । किन्तु इस आधारपर उनके विषयमें कुछ अधिक कहना असम्भव है । नागपुर, अहिच्छत्रा, अनन्तगोचर आदि नामोंके आधारपर यह अवश्य कहा जा सकता है कि प्राचीन राजस्थानमें नागपूजाका पर्याप्त प्रसार रहा होगा। . नवग्रह पूजनका इस कालमें रचित धार्मिक साहित्यमें विधान है। भरतपुर क्षेत्रसे प्राप्त नवग्रहोंमें
१. विशेष विवरणके लिए Rajasthan Through the Ages देखें। २. पृ० ११५ । ३. रिचर्चर्ट, १. २३-२४ ।
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केतुका अभाव' ओर बघैरासे प्राप्त नवग्रहों में उसकी विद्यमानता है । अढ़ाई दिनके झोंपड़ेसे सप्तनक्षत्रयुक्तं एक विशिष्ट फलककी प्राप्ति हुई है ।" इसमें सातनक्षत्र - मघा, पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाति, और विशाखा सुखासन में स्थित हैं; और इसी पर काल, प्रभात, प्रातः, मध्याह्न, अपराह्न और संध्या उत्कीर्ण हैं । शिल्प और उत्कीर्ण मूर्तियोंकी दृष्टिसे यह फलक अद्वितीय है ।
अन्य अप्रधान हिन्दू देवताओंमें हम दिक्पालोंकी गणना कर सकते हैं । नरहड़से वायु और वरुणकी उत्कीर्ण प्रतिमाएँ मिली हैं जो प्रतिमाविज्ञानकी दृष्टिसे ध्यान में रखने योग्य हैं । दिनप्रतिदिन नवीन साहित्य के प्रकाश और पुरातत्त्व विभाग के शोधकार्यसे हमारा देव और देवयोनिविषयक ज्ञान बढ़ रहा है । विष्णु, महेश्वर, सूर्य, अर्हत् आदिके विषयकी विपुल सामग्री छोड़कर हमने इस लेख में केवल अप्रधान देवोंके विषय में कुछ शब्द लिखे हैं । विषयकी पूर्णता इस विषयके विद्वानों द्वारा हो सकेगी ।
भीनमाल में चण्डीनाथ मंदिरकी बावलीके सामनेके चबूतरे पर आसवपेयी कुबेरकी प्रतिमा है जिसका समय डॉ० एम० आर० मजमुंदार के अनुसार सातवीं और आठवीं शताब्दी के बीच में होना चाहिए। ओसिया में पिप्पलाद माता के मुख्य मंडपके सामने चबूतरे पर महिषमर्दिनी, गणेश और कुबेरकी बृहत्काय प्रतिमाएँ हैं । सकराय माताके सबसे प्राचीन अभिलेख में धनद यक्षके आशीर्वादकी कामना की गई। भदमें भी ओसियांकी कुबेरकी कुम्भोदर मूर्ति वर्तमान है । बांसीसे प्राप्त यक्ष प्रतिमा भी प्रायः सातवीं आठवीं शताब्दीकी है। अनेक अन्य यक्ष और कुबेर प्रतिमाओंके विशेष विवरण के लिए डॉ० रत्नचन्द अग्रवालका इसी सम्बन्ध में इंडियन हिस्टॉरिकल क्वार्टरली, १९५७ में प्रकाशित लेख पठनीय है ।
कृष्णनगर, दिल्ली ३१. ३. १९६४
९. वही, १.२० ।
२. वही, २. ११ ।
६ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन ग्रन्थ
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वोत्रिपतिमानि गनिको नाममा पुनरोदरीत।। राजमिरमानामारनीयालकाहरूललाहर लिनीसदी नितालावन
सामाजायंकालना मलदलाउदिरालाला
रामरक्षनालय पारा सुयगाह
१-२. सं० १०७८ के दानपत्र में सपक्ष मनुष्याकृति गरुड़ मुद्रा
(परमार भोजदेव की राजमुद्रा ईस्वी सन् १०२१)
NIVARUITARANSISTANI THSwasanचालकाला ORTAIMARA राम को रायाNDROID32.काव्यगादाम 927लाम SURATuzा की मालबालिशबियाला INTERसालि निकमgagnायधीमाम
०ddog কৰাকৈ ৰাখিদে-ঈনীয়
३. सं० १००५ (ई० सन् ९४८) परमार सोयक हरसोल से प्राप्त दानपत्र में गरुड़मुद्रा
LamalnesindiaBRDS
সুস ইসলামী समूमुरमुरादाहरण
सं०१०७८ के दानपत्र में समक्ष मनुष्याकृति गरुड़ मुद्रा (परमार भोजदेव की राजमुद्रा
ई० सन् १०२०)
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सास्यालो BANASXIETYAKAMRIMARRANSEE
यालयमा नयाघादलरामराम
वाली वकालालको या सवालकमलदला दिन
वसायकलिसकर ৭ নবের্তোবাহাত্রার
४. सं० १०२६ (ई० सन् ९७०) परमार सीयक का दानपत्र
समालोसपनेतगामतिरासामा लेता एएगपरलक्षासमक्षालगाया। पहाधिताल सिर पर नरमायाया दामनुमंतर पालनीयशात
मुका माला सरावादि समयमा यसायरा मिसभा नसानसायाला टानी हरनाल पुराजीनालिवमाधयक्षमा नभाता वति प्रतिमा जानिकालाममा:एन राहदाना रस्माकुलममुरारमुरादारानानाम मकानागादिनी याल शायरियालन हुररतलायासन यलोरयशःपारपात
नामनिवासमाविनापरवानामानायाशाशनरोगरा माया मारपीस पालीकाकालपालनाचानाकाम लाला शिलालयिंगगातागवण्डातनासकालमिसरा
नाराये पर करनीयतिलामालाना संत भगरमा सयभाडामुंगलमहाशा रीकामोरवयव
REAL
रा
५. मं० १०७६ (ई० सन् १०१९-२०) बाँसवाड़ा में प्राप्त ताम्रपत्र मे
चामा माता मामाभदादर
नाटकायाप्रमा पातपूत्रवादतन झातागतिलो प्रधाननगाव सानाधिनमा रापमपनात
६. महाकुमार हरिश्चन्द्र का भोपाल में प्राप्त ताम्रपत्र
वि० सं० १२१४ (ई० सन् ११५७) के आसपास
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मध्यकालीन मारु-गुर्जर चित्रकलाके प्राचीन प्रमाण
डॉ० उमाकान्त प्रेमानन्द शाह
मध्यकालीन पश्चिमभारतीय चित्रकला हमें लघु-चित्र ( miriature paintings ) रूपमें, विशेषतः हस्तलिखित जैन ग्रन्थोंमें, मिलती है। उस कलाको पश्चिमभारतीय चित्रकला, अपभ्रंश शैली, गुजराती चित्रकला आदि नामोंसे भिन्न-भिन्न विद्वानोंने पेश की है। किन्तु, ज्यादा करके वह पश्चिमभारतीय चित्रकला नामसे पहचानी गई है। वह कला मुख्यतः राजस्थान और गुजरातके जैन भंडारोंमें और राजस्थान और गुजरातमें लिखी हुई प्रतियोंमें मिलती है इसलिए मैं उसको मध्यकालीन मारु-गुर्जर चित्रकला नामसे पहचानना पसंद करता हूँ। यह शब्द प्रयोग, जहाँ तक मुझे याद है, कवि श्री उमाशंकर जोशीने गुजराती
और राजस्थानीका मूल स्रोतरूप भाषा, जिसको टेसिटोरीने Old Western Rajasthari कही है, उसके लिए प्रयुक्त किया था। वास्तवमें प्राचीन और मध्ययुगमें गुजरात राजस्थानका भाषाकीय. कलाविषयक और अन्य सांस्कृतिक ऐक्य रहा था। इसलिए भी मारु-गुर्जर शब्द प्रयोग ज्यादा वास्तविक लगता है।
इस चित्रशैलीके विषयमें बहुत लिखा गया है। डॉ० कुमार स्वामी, डॉ० ब्राउन, डॉ. मजमुंदार, श्री०ओ०सी० गांगुली, डॉ० मोतीचन्द्र, डॉ. बॅरेट, डॉ० सिलने, श्रीकाल खंडालावाला आदि विद्वानोंके संशोधन आदिके परिणामरूप यह बात स्पष्ट हुई थी कि इस शैलीके जो उपलब्ध लघुचित्र है उनमेंसे सबसे प्राचीन है संवत् ११५७ ( ई०स० ११०० ) में भृगुकच्छमें लिखित विशीथचूणिकी ताडपत्रीय प्रति' जिसमें पत्रोंके बीचमें कमलआदिके सुशोभन हैं। एक दो गोलाकृति सुशोभनोंके बीच में पशु (हाथी ), नरनारी आदि भी हैं। किन्तु, ई०स० ११२७ वि०सं० ११८४ में लिखित ज्ञाता और दूसरे अंगसूत्रोंकी ताडपत्रीय प्रति ( खंभात के शान्तिनाथ जैन भंडारमें सुरक्षित ) में दो चित्र मिले हैं जिनसे इस कलाका विशेष परिचय होता है । इसमें प्रथम चित्र तीर्थंकर भगवान्का है और दूसरा सरस्वती या श्रुतदेवता का।
करीब इसी समयके भित्तिचित्र उत्तरप्रदेशके ललितपुर जिलेके मदनपुरमें विष्णुमंदिरके मंडपमें मिले हैं। वह मंदिर मदन वर्माके राज्यकालमें ई०स० ११३० से ११६५ के बीच बना। चित्र भी करीब इसी समयके आसपास बने होंगे। इन चित्रोंमें पंचतंत्रकी कथाके चित्र हैं। चित्रोंमें यहो मारु-गुर्जर चित्रकलाकी विशेषतायें उपलब्ध होती हैं।
___इलोराको कलासमन्दिरगुहाके भित्तिचित्रोंमें मध्यके स्तरमें गरुडोपरिस्थित विष्णुके चित्रमें लम्बा नोक
१. देखो, मोतीचन्द्र, जैन मिनिएचर पेइन्टीन्गझ् फ्रॉम वेस्टर्न इन्डिया, ( अमदाबाद, १९४९ ), पृ० २८
२९, चित्र नं० १४ । २. वही, चित्र नं० १५ । ३. वही, चित्र नं० १६, पु० २८ । ४. स्टेला कामरिश, ए पेइन्टेड सीलिंग, जर्नल ऑफ ये इण्डीअन सोसायटी ऑफ ओरिएन्टल आर्ट, वॉल्युम,
७.१० १७६ और चित्रप्लेट ।
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दार ( Penrfed ) नाक आदि विशेषतायें स्पष्ट रूपसे विकसित हैं। अतः ई०स० ८वीं सदी और ११वीं सदीके बीच इस चित्रशैलीका प्रादुर्भाव हो चुका था यह निश्चित है। किन्तु, ग्रन्थस्थ चित्रकलाके इतने प्राचीन अन्य प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं।
इस शैलोके अन्य प्राचीन प्रमाण, खासतौर पर जिसका समय निश्चित है ऐसे प्रमाणकी खोजमें डॉ० मंजूलाल मजमंदारने एक नयी दिशाकी ओर हमारी दष्टि खींची है। प्राचीन ताम्रपत्रीय दानपत्रोंराज्यशासनोंमें अन्तमें कभी-कभी दान देनेवाले राजाकी राजमुद्राका चिह्न रेखाकृतिमें उत्कीर्ण रूपसे मिलता है। ऐसे उदाहरणोंमें हमें रंगमिलावट और चित्राकृति वैविध्य नहीं मिलता, किन्तु रेखांकनको परिपाटी, उस शैलीकी रेखांकन विशेषताका प्रमाण मिल जाता है। मारुगुर्जर शैलीकी जो विशेषतायें हैं उनमें नोकदार नाक, अर्द्धसन्मुख मुखाकृतिमें दूसरी आँखको भी दिखाना (farhor eye extended in space) और मुखकी और शरीरकी आकृतिमें विशेषतः कोणांकन ( angularitces ) दिखलाना, आदि हमें ऐसे ताम्रपत्रोंके रेखांकनोंमें दृष्टिगोचर हो सकते हैं। इस तरह डॉ. मजमूंदारने दो प्राचीन शासनोंकी ओर निर्देश किया है.२ जिनमें एक है परमार राजा वाकपतिराजका संवत् १०३१ = ई०स० ९७४ में उत्कीर्ण दान शासन जो उज्जयनी नगरीसे दिया गया है और दूसरा है परमार भोजराजका शासन जो संवत् १.७८ = ई०स० १०२१ में धारा नगरीसे दिया गया है जिसमें नागह्रदको पश्चिम पथकमें वीराणक गाँव दान में दिया है। इन दोनोंमें परमारोंकी राजमुद्राका चिह्न गरुडाकृति उत्कीर्ण है, और गरुडके हाथमें सर्प है। गरुडको वेगसे आकाशमें विचरता हआ, मनुष्याकृति और सपक्ष दिखाया है। यहाँ यह दोनों आकृति चित्र १ और चित्र २ में पेश की हैं।
इन चित्रोंसे यह स्पष्ट है कि यह चित्रकला दशवी सदी के उत्तरार्द्ध में मालव प्रदेश और परमारोंके आधीन प्रदेशमें प्रचलित हो चुकी थी।
इस दृष्टिसे मैंने उत्कीर्ण दानपत्रोंकी ओर खोज करने का प्रयत्न किया जिनमें ऐसे राजचिह्न उत्कीर्ण किये हों। इससे अब हम निश्चित रूपसे कह सकते हैं कि ई०स० ९४८ में ( अतः दशवीं शताब्दीके मध्यकालमें ) इस शैलीका आविष्कार और प्रचार हो चुका था। संभवतः दशवीं शताब्दीके सारे पूर्वार्द्ध में इस शैलीका होना माना जा सकता है क्योंकि राजमुद्रामें इसका आविष्कार होना तब ही हो सकता है जब उसको कलाकारों और कलापरीक्षकोंने अपनाया हो । साबारकांठा जिला ( उत्तर गुजरात ) हरसोला नामक प्राचीन नगरके किसी ब्राह्मणके पाससे मिला हुआ यह शासन हरसोला प्लेट्स ऑफ सीयक इस नामसे रायबहादुर के०एन० दीक्षितजीने और श्री०डी०बी० डीसकालकरने प्रसिद्ध किया था, वह शासन सीयकने महीनदीके तट पर अपने कॅम्पमेंसे निकाला था और दान में इसी प्रदेशमें मोहडवासक ( हालका मोडासा ) के पासके गाँव दिये गये हैं। इस शासनमें उत्कीर्ण गरुडाकृति मालव या गुजरातके किसी कांस्यकारने
१. मोतीचन्द्र, वही, पृ० ११-१२ और चित्र नं. ४ । २. डॉ० एम०आर० मजमुंदार, गुजरात-इट्स आर्ट-हॅरिटेइज, प्लेट १ और प्लेट १३ । इन दोनों दानपत्रकी
मूलप्रसिद्धिके लिए देखो, एन० जे० कीर्तने, श्रीमालव इन्स्क्रीप्शन्स, इन्डीअन एन्टीक्वेरी, वॉ०६,
पृ० ४९-५४ और प्लेटस्, यहाँ पर दिए हुए चित्र नं० १-२ इसी चित्रोंकी कॉपीसे साभार उद्धृत हैं। ३. देखो, के०एन० दीक्षित और डी०बी० डीसकालकर, दुहरसोला प्लेट्स ऑफ परमार सीयक, एपिग्राफिया
इन्डिका, जिल्द १९, १० २३६ से आगे, और प्लेट ।
८ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ
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उत्कीर्ण की होगी क्योंकि मालवके राजाने यह शासन गुजरातमें अपने कैम्पमेंसे निकाला था। अत: इस शासनमें दिखाई देती गरुडाकृतिकी कला गुजरात और मालवा दोनोंमें प्रचलित होनेका सम्भव है। यह आकृति यहाँ चित्र ३ रूपसे पेश की है।
चित्र ३ की गरुडाकृति पूरी एकचश्म नहीं है। सवाचश्म जैसी लगती है और परली आँख ही दिखाई देती है। गाल ( check ) नहीं किन्तु उसकी और मुखकी सीमारेखासे ऐसी बाहर वह परलो आँख नहीं है जितनी पिछले समयके मारु-गुर्जर चित्रोंमें मिलती है । अतः हम यह कह सकते हैं कि ई०स० ९४८ के आसपास मुखकी सीमारेखाके बाहर परली आँख लाना अगर शुरू भी हुआ हो, तो फिर भी इतना प्रचलित, इतना सर्वमान्य नहीं हुआ था।
वास्तवमें जहाँ तक परली आँखको सीमारेखासे बाहर दिखाने की बात है वहाँ तक तो चित्र १ में बताया हुआ ई०स० ९७४ में खुदा हुआ गरुड और चित्र ३ के गरुड में कोई ज्यादा भेद नहीं है। किन्तु शरीर रचना और मुखाकृति आदिमें सविशेष भेद है। चित्र ३ वाले गरुड की बालक जैसी आकृति मनोज्ञ है, सजीव तो है ही। चित्र १ के गरुडकी आकृतिमें angularites बढ़ गई है, नाक ज्यादा लम्बा और तीक्ष्ण अन्त ( Printed end ) वाला है।
चित्र ४ में पेश किया हआ ताम्रपत्र वि०सं० १०२६ = ९६९ ई०स० में परमार सीयक द्वारा दिया हुआ दानपत्रका है। इस आकृतिके मिलने से स्पष्ट हो गया है कि ई०स० ९६९-९७० में परली आँखको मुखरेखासे बाहर दिखाना शुरू हो गया था, प्रवलित भी हो गया था और राजमुद्रामें भो यह शैली स्वीकृत हो गई थी। अतः इस शैलीका आविष्कार ई०स० १५० और ९७० के बीच में होकर इसका सर्वमान्य स्वीकार प्रचार हो चुका था ऐसा मानने में हमें कोई बाधा नहीं है । इस दानपत्रका यह पत्र अभी अहमदाबादके श्रीलालभाई दलपत भाई भारतीय संस्कृति विद्यालयमें संग्रहीत है।
इसी शैलीका प्रचार और विकास हमें एक और दानपत्रमें मिला है। वह है भोजदेवका बाँसवाडाका दानपत्र जो वि० सं० १०७६ -- ई०स० १०१९-२० में दिया गया।२ वह पत्रकी गरुडमुद्राको चित्र नं. ५ में यहाँ पेश किया है।
एक और दानपत्र में भी इस मारु-गुर्जर शैलीकी गरुडाकृति मिली है। वह है भोपालसे मिला हुआ महाकुमार हरिश्चन्द्रका दानपत्र जिसके सम्पादक डॉ० एन० पी० चक्रवर्तीने उसको करीब ई०स० ११५७ में दिया गया माना है। इसका समय ज्ञातांगकी ताडपत्रीय प्रतिमें चित्रित सरस्वतीका समय जैसा होता है । आकृति यहाँ पर चित्र ६ में पेश की है।
१. डी० बी० डीसकलकर, एन ऑड़ प्लेट ऑफ परमार सीयक, एपि० इन्डि०, जिल्द १९, पृ० १७७ से
आगे और प्लेट । २. प्रो० इ० हुलूटझ्, बाँसवारा प्लेट्स् ऑफ भोजदेव, एपि० इन्डि०, वॉ० ११, पृ० १०१ से आगे
और प्लेट । ३. एन०पी० चक्रवर्ती, भोपाल प्लेट्स् ऑफ महाकुमार हरिचन्द्रदेव, एपि० इन्डि०, वॉ० २४, पृ० २२५ से
आगे और प्लेट् ।
इतिहास और पुरातत्त्व : ९
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उमाकान्त शाहने अपने बनारस ओरियन्टल कॉन्फ्रेन्सके कलाविभागके अध्यक्ष पदके व्याख्यानमें कुछ वर्ष पहले जैसलमेरकी वि०सं० १११७ में लिखी हुई ओघनियुक्तिको ताड़पत्रीय प्रतिके चित्रोंको पेश करके बताया था कि इन चित्रोंकी शैली वह मारु-गुर्जर ( जैन, वेस्टर्न इन्डीअन, राजस्थानी, अपभ्रंश, गुजराती आदि नामोंसे पुकारी जाती ) शैली नहीं है और वह शैली गुर्जर-प्रतिहारोंके समय में सारे पश्चिम भारत में जो प्रचलित शैली थी उसका आखिरी स्वरूप है । ' यह बात इन चित्रोंसे स्पष्ट हो जाती है । क्योंकि, उस जैसलमेर के ओघनियुक्तिके चित्रोंकी शैली और चित्र १ से ६ की शैली स्पष्ट रूप से भिन्न I
१. देखो, उमाकान्त शाह, प्रोग्रेस ऑफ स्टडिझ इन फाइन आट्स एन्ड टेक्निकल साइन्सीझ, जर्नल ऑफ दि ओरिएन्टल इन्स्टीट्यूट, बड़ोदा, वॉ० १८, अंक १-२ का परिशिष्ट, पृ० १ ३६, विशेषतः पृ० १९, और प्लेट्स् ।
१० : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन ग्रन्थ
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१. पल्लू ब्रह्माणी मन्दिर के उत्तर-पश्चिम स्थित शिल्प
२. पल्लू गाँव में स्थित प्राचीन शिल्प
३. पल्लू गाँव के घर की दीवाल में बना प्राचीन शिल्प
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४. विभिन्न मुद्रा में दुर्गा (?) की ३
मूर्तियाँ परिचारिका युक्त (पल्लू ) शिल्प का १ हिस्सा
६. पल्लू १. स्वम्भ छतरी में लक्ष्मी अलंकृत (परिचारिकायुक्त उभय पक्ष में ) २ नृत्य-गीत रत नर नारी समूह
५. नोहर (गंगानगर ) ध्यानमुद्रा स्थित लक्ष्मी व नृत्यमुद्रा युक्त
७. पल्लू - धनुर्धर
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प्रतिमाबमानी मदिर
पल्लू
sto/
८. पल्लू-दाता या द्वारपाल
९. ब्रह्माणी माता के मन्दिर स्थित श्वे० जैन प्रतिमाएँ
१ पद्मासन १ खड्गासन
१०. पल्लू-स्तम्भ-तोरणयुक्त प्राचीन शिल्प
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पल्लू की प्रस्तर प्रतिमाएं
श्री देवेन्द्र हाण्डा पल्लू का नाम वहाँसे प्राप्त जैन सरस्वती प्रतिमाओंके कारण कला एवं पुरातत्त्व जगत्में सुविदित है. परन्तु बहुत कम लोगोंको अवगत होगा कि पल्लू मध्ययुगीन कलाकेन्द्र होने के साथ-साथ एक महत्त्वपूर्ण धर्मस्थान भी रहा है और लगभग दो सहस्राब्दियोंसे मनुष्य तथा प्रकृतिके आघात-प्रतिघात सहन करता हुआ बसा चला आ रहा है. प्रस्तुत लेखमें पल्लूसे प्राप्त प्रागवशेषोंके आधारपर इसकी प्राचीनता, मत्तिकला, धार्मिक महत्ता आदि का ब्योरा विज्ञ पाठकोंके सम्मुख प्रस्तुत किया जा रहा है.' पल्लू की स्थिति
पल्लू उत्तरी राजस्थानमें श्री गंगानगर जिलेकी नौहर तहसीलमें एक ऊंचे थेड़पर बसा छोटासा गाँव है जो सरदारशहर-हनुमानगढ़ सड़कपर सरदारशहरसे लगभग ४० मील उत्तर हनुमानगढ़से लगभग ५५ मील दक्षिण तथा नौहरसे लगभग ५० मील दक्षिण-पश्चिम कोणमें मरुप्रदेशमें स्थित है ।
नामकरण
___ स्थानीय अनुश्रति तथा 'पल्ल की ख्यात'से पता चलता है कि इसका पुराना नाम कलर गढ़ (या कोटकलर) था और उत्तरमध्यकालमें यह जाटोंका एक महत्त्वपूर्ण ठिकाना था। कलूर गढ़के जाटों तथा पूगलके भाटियोंमें पारस्परिक वैमनस्य था। भाटियोंको नीचा दिखानेके लिए जाटोंने अपनी वीरांगणा राजकुमारी पल्लका भाटी राजकुमारसे विवाहका षड्यन्त्र रचा। इसमें एक निश्चित योजना के अनुसार 'कंवर कलेवे में भाटी राजकुमार तथा वर-यात्रामें आये भाटी सरदारोंको विष दे दिया गया। रात हुई तो राजकुमारी पल्लूको सुहागरातके लिए भेजा गया ताकि इस बात का निश्चय भी हो सके कि राजकुमार मर गया है या नहीं। परन्तु अपने पति के अनिन्द्य एवं अप्रतिम सौन्दर्य तथा अपने पिताकी कुभावना जानकर पल्लूका मन विचलित हो उठा और उसने सारी कथा शेष बचे भाटी वीरोंको कह दी । राजकुमार तथा उसके साथी सरदारों का उपचार कर लिया गया तथा जाटों का सफाया किया जाने लगा। एक एक कर पल्लूके सातों भाई भी मारे
१. जैन सरस्वती प्रतिमाओंको प्रकाशमैं लाने वाले डा० एल० पी० टेस्सिटरीके बाद पल्लकी सांस्कृतिक
धरोहरकी रक्षा करने वाले व्यक्तियोंमें यदि सर्वप्रमुख नाम देखा जाए तो वह है पल्लू पञ्चायत समितिके भूतपूर्व मन्त्री नौहर निवासी श्री मौजीराम भारद्वाजका जिन्होंने कई वर्ष तक पल्ल में रहकर वहांकी सांस्कृतिक तथा ऐतिहासिक सामग्रीकी सुरक्षाके लिए अनेक विध प्रयत्न किए एवं वहां के सिक्के तथा मूत्तियां राष्ट्रीय संग्रहालय (नई दिल्ली), राजस्थान पुरातत्त्व विभाग, संगरिया संग्रहालय, गुरुकुल संग्रहालय, झज्झर (हरियाणा) तथा विभिन्न रुचिवान् व्यक्तियों तक पहुँचाये, प्रस्तुत लेखकी अधिकतर सामग्री एवं बहुमूल्य सूचनायें मुझे श्री मौजीरामजी से ही प्राप्त हई हैं अतः उनके प्रति अपनी हार्दिक कृतज्ञता प्रकट करता हूँ।
इतिहास और पुरातत्त्व : ११
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गये और कलूर गढ़ भाटियोंके अधीन हो गया । भाटियोंने पल्लू के शौर्यको चिर स्थायी बनाने के लिए कलूर गढ़ का नाम बदलकर पल्लू गढ़ रख दिया जो अभी तक चला आ रहा है ।"
पल्लूका समीकरण खरतरगच्छपट्टावलिके पल्हूपुर तथा चौहान अभिलेखीय स्थल प्रह्लादकूप से भी किया गया है । किरातकूप से किराडू तथा जांगलकूपसे जांगलू के समान प्रह्लादकूप से पल्लू की व्युत्पत्ति भाषा वैज्ञानिक दृष्टिसे तर्क-संगत जान पड़ती है । परन्तु कलूरगढ़ नाम की व्युत्पत्ति अज्ञात है । गढ़ (=कोट) से स्पष्ट है कि उत्तर मध्यकाल में यहांपर जाटोंका किला था । आज भी यदि पल्लू के थेड़का निरीक्षण ध्यानपूर्वक किया जाये तो इस किले की रूपरेखा कुछ स्पष्ट हो जाती है। चौकोर किलेके चारों किनारों पर गोल बुर्जों तथा चारों ओर परिखाकी सम्भावना चतुष्कोण थेड़ के किनारोंपर गोल-गोल बाहर को बढ़े हुए मिट्टी के ढेरों तथा चारों ओर के निकटवर्ती गड्ढोंसे सहज अनुमेय है । जाटोंका यह किला सम्भवतः निम्नांकित आकृतिका था
कलूर में 'ऊर' भाग सम्भवतः पुर का अवशेष है ।
प्राचीनता
पल्लूके थेड़के ऊपर तथा इर्द-गिर्द कुछ दूरी तक इसकी प्राचीनताके परिचायक पुराने मृद्भाण्डोंके टुकड़े विकीर्ण हैं । थेड़ तथा आस-पास की भूमिसे अबतक प्राप्त अवशेषों में प्राचीनतम है इण्डो-ग्रीक राजा फिलोक्सिनोस (Philoxenos) की एक ताम्र- मुद्रा जो इस बात की परिचायक है कि पल्लू ईसा पूर्व द्वितीय
२. परमेश्वरलाल सोलंकी, “पल्लू घाटी और उसकी कलाकृतियां", वरदा, वर्ष ४, अंक २ (अप्रैल १९६१) पृष्ठ २०-२१ ।
३. Dr. Dasharatha Sharma, Early Chauhan Dynasties, Delhi, 1959, pp. 312 and 314.
१. मौजीराम भारद्वाज, 'पल्लू गांवका ब्राह्मणी मन्दिर", सत्य विचार (बीकानेर), दिनांक ८.६.६५, पृष्ठ ३ ।
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शताब्दी में अस्तित्व में आ चुका था। थेड़के दक्षिण-पश्चिम भागसे प्रस्तुत लेखकको शङ्ग-कुषाणकालके रक्त वर्ण मृद्भाण्डोंके टुकड़े भी प्राप्त हुए हैं जो ताम्र-मुद्रासे अनुमेय प्राचीनताकी पुष्टि करते हैं ।
श्री मौजीरामजी के सौजन्यसे प्राप्त पल्लके १०० सिक्कोंमें कुषाण तथा इण्डो-सासानियन राजाओं के ताम्बेके सिक्के (१२ + ५) पल्लूके द्वितीय शती ईसा पूर्वसे तृतीय-चतुर्थ शती ईस्वी तक निरन्तर बसे रहनेका प्रमाण हैं । परन्तु इसके पश्चात् ऐसा जान पड़ता है कि लगभग पांच शताब्दियों तक पल्लमें कोई बस्ती नहीं रहो क्योंकि इस कालके न तो कोई सिक्के ही मिले हैं और न कोई अन्य अवशेष ही', फिर भी उत्खननके अभावमें निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता। नवीं-दसवीं शताब्दीमें पल्ल फिर बस गया और विभिन्न राजाओं के उत्थान-पतन देखता हुआ यह तबसे निरन्तर बसा चला आ रहा है । मुहम्मद बिन साम की मुद्राओं से ऐसा प्रतीत होता है कि मुस्लिम अक्रमण यहां भी हुआ था और सम्भवतः यहांपर मन्दिर मूत्तियोंको खण्डित किया गया । सामन्त देव तथा सोमल देवी की विभिन्न मूल्यों को लगभग ४५ (२० + २५) ताम्र-मुद्राओंके आधारपर यह कहा जा सकता है कि उनके समय में पल्लू एक प्रसिद्ध स्थान था । जौनपुरके हुसेनशाहकी दो ताम्र-मुद्राएं इस बातकी द्योतक है कि चौदहवीं-पन्द्रहवीं शताब्दी में पल्लू तथा आस-पासके क्षेत्रके लोगोंका जौनपुरसे सम्भवतः व्यापारिक सम्पर्क था ।२
पल्लू की प्रस्तर प्रतिमाएं शैव प्रतिमाएँ
पल्लू की कलाकृतियोंमें प्राचीनतम है यहांसे प्राप्त भरे वर्ण के बालका प्रस्तरका अभिलिखित कीर्तिस्तम्भ, ३३"x १२" के चौकोर इस कीर्तिस्तम्भके एक ओर लिङ्ग रूप में शिव-पूजन करते हुए एक दम्पति का चित्रण किया गया है तथा दूसरी ओर गणपतिका। स्त्री तथा पुरुष दोनों 'लांग'की धोती पहने दिखाये गये हैं। कण्ठहार, कर्ण कुण्डल, भुजबन्ध, करधनी आदि आभूषणोंसे सुसज्जित इन मत्तियोंका अंकन क्षेत्रीय वस्त्राभूषणोंकी दृष्टिसे महत्त्वपूर्ण है। कीर्तिस्तम्भ पर दम्पति वाली ओर तीन पंक्तियों के अभिलेखमें केवल प्रथम पंक्ति ही सुपाटय है जिसपर इसकी तिथि विक्रम संवत् १०१६ कार्तिक सुदि ११ अंकित है । कीतिस्तम्भ दसवीं शताब्दीमें पल्लू क्षेत्रमें शिवपूजनका परिचायक होनेसे धार्मिक दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है । डा० हरमन गोयट्ज़का विचार है कि शाकम्भरी तथा अजमेरके चौहानोंने जांगल देशसे लगभग दसवीं शताब्दी में प्रतिहारोंको हटाकर अपना अधिकार जमाया और इस क्षेत्रमें शैव मन्दिरों की स्थापना की।४ पल्लका मन्दिर सम्भवतः उन्हीं में से एक है जिसकी कुछ मूर्तियाँ अब भी इधर-उधर बिखरी पड़ी हैं । इनमें महत्त्वपूर्ण प्रतिमाएं निम्नलिखित हैं
१. उमा-महेश्वरकी हल्के भूरे रंगकी आडावळा पत्थरकी प्रतिमा जो अब बीकानेर संग्रहालयमें है,
१. श्री मौजीरामजीके द्वारा राजस्थान पुरातत्त्व विभाग को लगभग २४५ सिक्के दिये गये थे जिनका
पूरा विवरण विभागके द्वारा अभी तक प्रकाशित नहीं किया गया है क्योंकि इन मुद्राओंको अभी रासायनिक विधिसे साफ किया जा रहा है। पल्लूकी कुछ मुद्राएं "नगरश्री' संग्रहालय, चूरूमें हैं तथा कुछ
अन्य विभिन्न व्यक्तियोंके पास । इन सिक्कोंमें चौथीसे नवीं शती तकका कोई सिक्का उपलब्ध नहीं है । २. हसेन शाहकी ताम्र-मुद्राएं धानसिया (तहसील नौहर, जिला श्री गंगानगर)से भी प्राप्त हुई हैं। ३. V. S. Srivastava, Catalogue And Guide To Ganga Golden jubilee Museum,
Bikaner, Jaipur, 1961, p25, (185 B. M.) and plate, परमेश्वरलाल सोलंकी, वही, पृष्ठ २२। ४. H. Herman Goetz, Art and Architecture of Bikaner state, Oxford, 1950.
इतिहास और पुरातत्त्व : १३
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इसमें नन्दी पर सवार शिव पार्वतीको अपनी जंघा पर लिए बैठे हैं, दाईं ओर दण्डधारी ब्रह्मा दिखाए गए हैं तथा नन्दीके नीचे एक उपासक और एक उपासिका । २
२. पल्लू के ब्रह्माणी मन्दिरकी दीवारमें जड़ी निम्नांकित प्रतिमाएँ ( चित्र १ ) -२
(क) जटामुकुट पहने एक आलेमें चित्रित पार्वतीकी एक सुन्दर स्थानक मूर्ति जिसकी बाईं टाँग टूटी हुई है । कर्णकुण्डल, कण्ठहार, सुन्दर एवं सुशोभित अधोवस्त्र तथा नूपुर स्पष्ट दिखाई देते हैं, दाएँ हाथ में कमण्डलु (?) दिखाया गया है और बाएँ में सर्प । दक्षिण पादके समीप एक छोटी-सी अस्पष्ट प्रतिमा है जो नन्दीकी हो सकती है, बाईं ओर एक सुचित्रित धज्जेके नीचे आलेमें दो स्त्रियाँ दिखाई गई हैं और दाई ओर इसी प्रकारके आलेमें एक स्त्री ।
(ख) भूरे रंगकी बालुका प्रस्तरकी २'६' x १' ६" आकारको खण्डित चतुर्भुजी प्रतिमा सम्भवतः शिवकी है। मुकुट, कर्णकुण्डल, कण्ठहार, भुजबन्ध तथा अधोवस्त्र दर्शनीय हैं । बाईं ओर तथा सिरके पीछे लता - वेष्टणकी सज्जा है। बाएँ पाँवके पास बाईं ओर मुख किए नन्दीकी छोटी-सी प्रतिमा है ।
(ग) जटामुकुट, कर्णकुण्डल, कण्ठी तथा कण्ठहार, भुजबन्ध, करधनी तथा अधोवस्त्र पहने ध्यान मुद्रा में बैठी प्रतिमा सम्भवतः पार्वतीकी है । प्रतिमा दाईं ओर तथा नीचे से खण्डित है ।
(घ) एक छोटेसे आलेमें त्रिभंग मुद्रामें जटा मुकुट, कर्णकुण्डल, कण्ठी, कण्ठहार, करधनी तथा अधोवस्त्र पहने यह प्रतिमा भी सम्भवतः पार्वतीकी
1
(ङ) नन्दीकी खण्डित प्रतिमा ।
३. एक स्थानीय ग्रामीणके घरमें लगी हुई कङ्कर- पत्थरकी एक चौखट जिसमें बीचके आलेमें सिंहकी खाल के आसन पर पद्मासन में शिव आसीन हैं । चतुर्भुजी इस प्रतिमाके ऊपरी दाएँ हाथमें त्रिशूल है तथा ऊपरी बाएँ हाथमें कोई अस्पष्ट वस्तु, अन्य दोनों हाथ पद्मासन मुद्रामें अंक में एक दूसरे पर रखे हैं । शिव जटा मुकुट, कर्णकुण्डल, कण्ठहार आदि अलंकरण धारण किए हैं तथा भुजाओं में सर्प वेष्टण है । दोनों ओर नृत्य-मुद्रामें एक-एक पुरुष दिखाया गया है । इन पुरुषोंने सुन्दर पारदर्शी अधोवस्त्र पहिन रखे हैं । कंकर पत्थरकी होनेके कारण यह मूर्ति काफी घिसी हुई है ( चित्र २ ) ।
४. एक घरकी दीवारमें लगी यह प्रतिमा सम्भवतः सिंहवाहिनी दुर्गाकी है । चतुर्भुजी देवी वाममुख सिंह पर सुखासन में विराजमान है । उसके ऊपरी दक्षिण हस्त में खड्ग है तथा निचले हाथमें चक्र (?), ऊपरी वामहस्त में पुस्तककेसे आकारकी कोई वस्तु है और निचला हाथ वाम जंघा पर टिका है। बाईं ओरके संलग्न आलेमें हाथ में खड़ा दण्ड लिए पत्थर की यह प्रतिमा भी काफी घिसी हुई है, है ( चित्र ३ ) ।
देवीकी ओर मुख किए एक स्त्री दिखाई गई है । कंकरफिर भी मूर्तिकारकी कुशलताकी स्पष्ट झलकी प्रस्तुत करती
५. इस खण्डित चौखटके मध्य में तीन आलोंमें विभिन्न मुद्राओंमें तीन स्त्रियों, सम्भवतः दुर्गाके विभिन्न रूपोंका अंकन है । इसे दक्षिण हस्त में खड्ग तथा वाम हस्तमें ऊपरी प्रतिमामें शक्ति ( या कमल ) तथा नीचेकी दो प्रतिमाओं में ढाल लिए युद्ध - मुद्रा में दिखाया गया है, अधोवस्त्र का अंकन बहुत ही भव्य है । तीनों प्रतिमाओं में दोनों ओर विभिन्न मुद्राओंमें परिचारिकाएँ खड़ी हैं जो हाथोंमें वाद्य यन्त्र लिए हैं या नृत्य - मुद्रा में हैं ( चित्र ४ ) ।
१. परमेश्वरलाल सोलंकी, वही ।
२. सभी चित्र भारतीय पुरातत्त्व विभाग के सौजन्यसे प्राप्त हुए हैं ।
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६. बीकानेर संग्रहालयमें हलके लाल-भूरे बालुका प्रस्तरकी गरुड़ासनमें बैठे चतुभुज कीचककी दो प्रतिमाएँ भी सम्भवतः पल्लके शिव मन्दिरका ही भाग हैं। इन मूर्तियोंमें कीचकका "पेट निकला हुआ है और सिर पीछे भोत पर टिका है। कानोंमें कुण्डल, हाथोंमें भुजबन्ध और मणिमाला, सिर पर मुकुट व छाती और पेटके मध्य बन्धा दुपट्टा बड़ा ही मनोहर है।"१ वैष्णव प्रतिमाएँ
पल्लूसे कुछ वैष्णव प्रतिमाएं भी मिली हैं जिनका विवरण इस प्रकार है
१. एक खण्डित चौखटके मध्य एकके ऊपर एक चार आलोंमें लक्ष्मी अंकित है, चतुर्भुजी इस देवीके ऊपरी दोनों हाथोंमें कमल दण्ड हैं तथा निचले दाएं हाथ वरद मुद्रामें एवं निचले बाएँ हाथ कमण्डलु पकड़े हैं जो बाई जंघाओं पर टिके हैं, लक्ष्मी सुखासनमें बैठी है, उसका वाम पाद आसन पर टिका है तथा दक्षिण पाद नीचे भूमि पर । दोनों ओर एक-एक परिचारिका दिखाई गई है। ये परिचारिकाएँ दो विभिन्न मुद्रा-वर्गों में एकके बाद एक बारी बारी से दिखाई गई है ( चित्र ५ )।
२. एक स्तम्भ अलंकृत छज्जेमें एक ऊँचे मञ्च पर बैठी चतुर्भुजी देवी जिसके ऊपरी दोनों हाथोंमें सनाल कमल हैं तथा निचला दक्षिण हस्त वरद मुद्रामें तथा वामहस्त कमण्डलु पकड़े है, लक्ष्मी प्रतीत होती है । देवी मुकुट, कर्णकुण्डल जो कन्धों पर टिके हैं, भुजबन्ध, मणिबन्ध, कण्ठी तथा कण्ठहार एवं नूपुर पहने सुखासनमें विराजमान है । दोनों ओर नृत्य मुद्रामें दो-दो परिचारिकाएँ हैं जिनकी शिरःसज्जा तथा वस्त्राभूषण समान हैं। नीचेकी पट्टिकामें सस्तम्भ आलोंमें और उनके अन्तरिम स्थानोंके बीच वाद्ययन्त्र लिए तथा नृत्य करते हुए आठ स्त्रियोंको विभिन्न मुद्राओंमें अंकित किया गया है। बाएं हाथकी अन्तिम मूर्ति ऊपरी भागसे खण्डित है। यह पट्टि का मध्य-युगीन संगीतके वाद्य-यन्त्रों तथा तत्कालीन फैशनको दृष्टिसे महत्त्वपूर्ण है । ( चित्र ६ )।
यालीढ आसनमें विष्णके वाहन गरुडकी भरे बालका पत्थरकी यह प्रतिमा जो अपने बाएँ हाथमें एक सर्प पकड़े है तथा दायाँ हाथ सिर पर रखे है पुरुष-रूपमें गरुड़ का एक सुन्दर उदाहरण है। गरुड़ कण्ठहार, भुजबन्ध, कङ्गन एवं अन्य वस्त्राभूषण धारण किए है। पीछेकी ओर कंघी किए बीचमें मांगकी रेखा बनाए बालोंको ऊपर करके फीतेसे बांधा गया है। नासिका कुछ टूट गई है। पंख पीछेको फैले हुए हैं। ग्यारहवों शताब्दीकी यह मूर्ति पल्लू क्षेत्रकी मध्य-युगीन मूर्तिकलाका एक उत्कृष्ट उदाहरण है ( चित्र ७ )। यह प्रतिमा श्री मौजीराम भारद्वाजके द्वारा राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्लीको समर्पित की गई थी और अब यह संग्रहालयकी प्रवेश-द्वारसे लगी वृत्ताकार दीपिकामें प्रदर्शित है। जैन प्रतिमाएँ
पल्लका नाम भारतके पुरातात्त्विक-मानचित्र पर १९२५-२६ में डा० एल. पी. टैस्सिटरी द्वारा यहाँसे दो जैन सरस्वती मूत्तियाँ प्राप्त करने पर आ पाया था। इनमेंसे एक अब बीकानेर संग्रहालयमें है
१. वहीं। २. ब्रजेन्द्रनाथ शर्मा, "राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली में मध्यकालीन राजस्थानी प्रस्तर प्रतिमाएं" मरुभारती,
अक्तूबर १९६४, पृष्ठ ८४; ' 'Some Medieval Sculptures from Rajasthan in the Nationai Museum, New Delhi", Roop Lekha, vol.xxxv, Nos. 1-2, pp.30-1.
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तथा दूसरी राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली में सुशोभित हो रही है । लगभग एक-सी ये दोनों मूर्तियाँ कला एवं सुन्दरताकी दृष्टिसे विश्वविख्यात हैं । "
ये प्रतिमाएँ श्वेत संगमरमर से बनी हैं। इनमें चतुर्भुजी सरस्वती देवी त्रिभंग मुद्रामें एक कमलपर खड़ी दिखाई गई । देवी अपने ऊपरवाले हाथोंमें कमल तथा पुस्तक और नीचेवाले हाथोंमें अक्षमाला तथा कमण्डलु लिए है । देवीके सिरपर रत्नजटित सुन्दर मुकुट है, कानों में कुण्डल, कण्ठ में हार, हाथों में कङ्गन तथा पावों में पायल, मणि मेखलासे सुशोभित साड़ी अपने में अनुपम छटा संजोए है । पीठ पर सरस्वतीका वाहन हंस तथा एक मानवीय चित्र उत्कीर्ण हैं तथा सिरके पीछे प्रभामण्डल के दोनों ओर मालाधारी विद्याधर, मुकुटके ऊपर पद्मासनमें 'जिन' की एक लघु प्रतिमा है तथा पैरोंके दोनों ओर हाथों में वीणा लिए परिचारिकाएँ खड़ी हैं। पास ही दानकर्त्ता एवं उसकी पत्नी हाथ जोड़े अंकित किए गए हैं। बीकानेरवाली प्रतिमा सुन्दर प्रभातोरणमें सुसज्जित है जिसपर वाहनारूढ़ परिवारदेवता, गजसवार तथा कायोत्सर्ग मुद्रामें जैनतीर्थङ्कर छोटे-छोटे आलों में प्रदर्शित हैं । इसको "The greatest masterpiece of Medieval Indian art” कहा गया है । 3
पल्लू के ब्रह्माणी मन्दिरमें ब्रह्माणी देवी तथा उसकी बहिन समझकर पूजी जानेवाली प्रतिमाएँ वास्तव में जैनतीर्थङ्करोंकी प्रतिमाएँ हैं जिन्हें वहाँके धूर्त पाखण्डी पुजारियोंने घाघरा ओढ़ना पहनाकर रूप परिवर्तित कर मन्दिर में स्थापित कर रखा है । इनमें एक स्थानक मूर्ति है तथा दूसरी पद्मासनमें, स्थानक तीर्थङ्कर प्रतिमा धोती पहिने है । दोनों पाँवों के पास एक-एक परिचारककी लघुप्रतिमाएँ हैं । कन्धोंके ऊपर दोनों ओर माला लिए उड़ने की मुद्रामें विद्याधर अंकित हैं तथा छत्रके दोनों ओर शुण्डिका ऊपर उठाए एकएक गज प्रतिमा, प्रतिमाके आधार में दाएँ हाथमें शक्ति लिए सुखासनमें एक देवी (?) अंकित है ।४
पद्मासनवाली जिन प्रतिमा के आधार पर दो सिंह अंकित हैं, दोनों ओर स्थानक मुद्रामें एक-एक लघु जिन प्रतिमा तथा उनके ऊपर पद्मासनमें एक-एक अन्य लघु प्रतिमा उत्कीर्ण है । छत्र के ऊपर बद्धाअलि एक किन्नर (?) प्रतिमाके दोनों ओर हाथों में माला लिए एक-एक विद्याधर अंकित है । (चित्र ८ ) |
यह किसीको ज्ञात नहीं कि ये मूर्तियाँ कबसे इस मन्दिर में स्थापित हैं। वर्तमान ब्रह्माणी मन्दिर थेड़के ऊपर स्थित है और १९वीं शताब्दी में इसका निर्माण हुआ था। जैन सरस्वती प्रतिमाओंसे पल्लू में एक या एकाधिक सरस्वतीके भव्य मन्दिरोंके अस्तित्वका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है । पल्लू पर मुसलमानोंके किसी आक्रमणमें ये मन्दिर ध्वस्त किए गए होंगे। मूत्तियोंको खण्डित किए जाने की आशंका से सम्भवतः पुजारियोंने दोनों सरस्वती प्रतिमाओं को कहीं दबा दिया हो, तभी तो ये मूर्तियाँ अखण्डित मिल पाई हैं; यहाँ सरस्वती ( ब्रह्माणी ) के मन्दिरकी सत्ताकी अनुश्रुति बनी रही होगी और कालान्तरमें थेड़ से प्राप्त तीर्थंकर - प्रतिमाओं को ही धूर्त पुजारियोंने अपने स्वार्थ एवं भोली जनताको ठगनेके लिए देवी रूप देकर स्थापित कर दिया होगा -
?. Goetz, op. cit., pp. 58 and 85; K. M. Munshi, Saga of Iudian Sculpture, pl. 8; Stella Kramrisch, Sculpture, of India, pp. 184-5, plate XXXIV. 84; Srivastava, op. cit., p. 13, plate 1.
२. ब्रजेन्द्रनाथ शर्मा, वही, पृष्ठ ८२-४ तथा ३०-१ ।
3. Srivastava, op. cit. I
४. संगमरमर की ऐसी ही एक प्रतिमा नौहर के जैनमन्दिरकी एक दीवार में जड़ी हुई है ।
१६ . अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन ग्रन्थ
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अन्य प्रतिमाएँ
पल्लसे कुछ ऐसी प्रतिमाएँ भी मिली हैं जिनका सम्बन्ध किसी धर्म या सम्प्रदाय विशेषसे स्थापित नहीं किया जा सकता। इनमें महत्त्वपूर्ण प्रतिमाएं निम्नांकित हैं
१. एक चतुष्कोण आधार पर खड़े दाढ़ी-मूंछोंवाले बद्धाञ्जलि दानीकी प्रतिमा जिसके सिरपर टोपकी तरहका शिरस्त्राण है, सिरके पीछे प्रभामण्डल है, कण्ठमें हार, भुजाओंमें भुजबन्ध तथा मणिबन्ध है तथा सुन्दर अधोवस्त्र धारण किए हैं। पार्श्व चैत्यसे उद्भूत कमलपर एक छोटी-सी प्रतिमा वाम-स्कन्धके पास सुशोभित है और बद्धाञ्जलि एकापर लघ-प्रतिमा दक्षिण पादके समीप खड़ी है। कंकर-पत्थरसे बनी इस प्रतिमामें इस क्षेत्रको शिल्पकारीकी कलात्मक वास्तविकता तथा कलाकारकी सजनात्मक प्रतिभाकी स्पष्ट झलकी मिलती है।
२. १५" x ७१' आकारकी एक प्रस्तर चौखट जिसपर परिचारिकाओं सहित एक स्त्री अपने शिशुको स्तन-पान करा रही है।
३. पालकी में बैठी एक स्त्रीकी प्रतिमा जिसे दो सेविकाएँ उठाए लिए जा रही हैं। पालकीके नीचे एक छोटा-सा बालक कलश लिए जा रहा है। कंकर-पत्थरकी यह छोटी-सी प्रतिमा अपने अत्यन्त जटिल एवं कलात्मक सम्पादनके लिए महत्त्वपूर्ण है।
४. एक अलंकृत आलेमें मुकुट, कर्णकुण्डल, कण्ठहार, भुजबन्ध, मणिबन्ध, घुटनोंसे ऊपरतकका छोटा-सा पारदर्शी अधोवस्त्र तथा घुटनोंसे नीचे तक लटकती हुई माला पहिने, दायाँ हाथ जंघा पर रखे तथा वक्ष तक उठे वामहस्तमें रज्जकी सी आकृतिकी कोई वस्तु पकड़े विभङ्ग मुद्रा में खड़े दानी ( या द्वारपाल ) की कंकर-पत्थरकी यह प्रतिमा भी मूत्तिकारकी कुशलता तथा सृजनात्मक प्रतिभाका परिचय देती है । ( चित्र ९)।
५ एक अलंकृत आलेमें शोभित खण्डित मूत्ति जिसके दोनों ओर विविध प्रकारके वस्त्राभूषण धारण किए तीन-तीन सेवक-सेविकाओंकी खण्डित प्रतिमाएँ हैं सम्भवतः किसी बृहत्स्तम्भका आधार भाग है। वस्त्राभषणोंकी विविधताके लिए यह महत्त्वपर्ण है। ( चित्र १० )।
इनके अतिरिक्त पल्लसे प्राप्त लगभग ६४ वास्तु-शिला-खण्ड जो किसी समय पल्लूके भव्य मन्दिरोंके भाग रहे होंगे श्री मौजीराम भारद्वाज द्वारा संगरिया संग्रहालयको दिए गए थे। इनका विस्तृत विवरण प्राप्त नहीं है।
जैन प्रतिमाओंको छोड़ कर अन्य सभी प्रतिमाएँ तथा वास्तु-शिला-खण्ड लाल या भूरे बालुका पत्थरके हैं या पाण्डु वर्ण कंकर-पत्थरके । तिथिक्रमसे इन सब अवशेषोंको दसवींसे बारहवीं शताब्दीके बीच रखा जाता है, अवशेषोंसे स्पष्ट है कि इस समय पल्ल एक समृद्ध एवं महत्त्वपूर्ण कलाकेन्द्र तथा धार्मिक स्थल था। आज अगर पल्लूके बृहत् एवं उच्च थेड़का उत्खनन किया जाय तो निश्चय ही यहाँसे राजस्थानके इतिहास, कला तथा संस्कृति पर नवोन प्रकाश डालनेवाले अनेकानेक महत्त्वपूर्ण अवशेष प्राप्त होंगे। १. B. N. Sharma, "Some Unpublished Sculhtptures From Rajasthan," The
Researcher, vol. V-VI ( 1964-65), p. 34, plate XI | २. Srivastava, op. cit., p. 141 ३. यह प्रतिमा श्री मौजीराम भारद्वाज द्वारा सरदारशहरके श्री बभूतमल दूगड़को भेंट दी गई और उन्होंने
आगे इसे श्री ओमानन्द जी सरस्वतीको उपहार देकर गुरुकुल संग्रहालय, झज्झर ( हरियाणा ) पहुँवा दिया है।
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ओसियां
डा० ब्रजेन्द्रनाथ शर्मा ओसियाका वर्तमान ग्राम जोधपुरसे ३२ मील उत्तर-पश्चिममें स्थित है। प्राचीन शिलालेखों एवं प्रशस्तियों में इसका नाम उपेश, उपकेश, उवसिशल आदि मिलता है। ओसियाके प्राचीन इतिहासके बारेमें विशेष जानकारी प्राप्त नहीं है। परन्तु इतना ज्ञात है, कि आठवीं शताब्दीमें यह प्रतिहार साम्राज्यमें था। प्रतिहारोंके समयके बने लगभग एक दर्जन मन्दिर आज भी वहाँ विद्यमान हैं, जो उस समयकी उच्चतम भवन निर्माण कलाके परिचायक हैं। प्रतिहारोंकी शक्तिका ह्रास हो जाने पर ओसियां विशाल चौहान साम्राज्यका एक अंग बन गया था। बारहवीं शताब्दीके उत्तरार्धमें यह चौहान राजा कुमार सिंहके शासनमें था। इस समय तक यह एक विशाल नगरके रूपमें परिवर्तित हो चुका था और इसकी सीमायें दूर-दूर तक फैल गई थीं। उत्थानके बाद पतन प्रकृतिका शाश्वत नियम है । यही हाल ओसियांका भी हुआ ।' उपकेशगच्छप्रबन्ध'से विदित होता है कि तुर्की सेना इस स्थानसे सन् ११९५में होकर गुजरी और उसने इस महत्त्वपूर्ण एवं सुन्दर नगरको नष्ट कर डाला। यहाँके निवासी ओसवाल जैनी भी इसे छोड़कर दूर-दूरको पलायन कर गये।
__ मध्य प्रदेशमें स्थित खजुराहोकी भाँति ओसियां भी स्थापत्य एवं मूर्तिकलाके लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। खजुराहोकी भांति यहाँ भी हिन्दू एवं जैन मन्दिर हैं। ओसियाँके कई मन्दिर तो खजुराहोके मध्यकालीन मन्दिरोंसे कई शताब्दी प्राचीन हैं। उत्तरी भारतमें एक ही स्थान पर इतने अधिक मन्दिरोंका समूह खजुराहोके अतिरिक्त उड़ीसामें भुवनेश्वरमें ही प्राप्त है। परन्तु ओसियां में ही पंचायतन मन्दिरोंकी शैली सर्व प्रथम यहाँके हरिहर मन्दिर प्रस्तुत करते हैं। इन पर उत्कीर्ण देव प्रतिमाओंका अब हम संक्षेपमें वर्णन करेंगे। हरिहर मन्दिर नं. १ ( चित्र १)
यह मन्दिर ओसिया ग्रामके बाहर अलग स्थित है। मन्दिरके गर्भगृहमें कोई प्रतिमा नहीं है, परन्तु द्वार-शीर्षके ऊपर गरुडारूढ़ विष्णु की प्रतिमा है । इसके नीचे चन्द्र, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु तथा केतु आदि नवग्रहोंका अंकन है। द्वार शाखाओं पर बेल-बूटे, नाग-दम्पतियों तथा नीचे गंगा व यमुना का अपनी सेविकाओंके साथ चित्रण है। इसके बांई ओर ही भीगी वेणियोंसे जल निचोड़ती एक सुन्दरी विशेष रूपसे दर्शनीय है । इस मन्दिरके बाह्य भाग पर नीचे वाली लाईनमें अपने वाहन भैसे पर विराजमान तथा हाथमें खट्वांग लिये यमको मूर्ति है। इससे आगे गणेशकी प्रतिमा है। मध्यमें त्रिविक्रमकी कलात्मक प्रतिमा है जिसमें उनका बायां पैर ऊपर उठा हुआ है। इससे आगे चन्द्रकी बैठी मूर्ति है, जिनके शीर्षके पीछे अर्द्ध-चन्द्र स्पष्ट है। अगली ताखमें अग्निकी मूर्ति है, जिनके पीछेसें ज्वाला निकल रही है। यह अपने वाहन मेढे पर विराजमान है। इस मन्दिरके पीछे ऐरावत हाथी पर बैठे इन्द्र हैं और मध्यमें विष्णु तथा शिवको सम्मिलित प्रतिमा हरिहरकी है ( चित्र २)। यह सुन्दर प्रतिमा कलाकी दृष्टिसे अनुपम है। इनके दाहिनी ओर त्रिशूलपुरुष तथा नन्दि और बाईं ओर गरुड़ है ( चित्र ३ ) । इनसे आगे सूर्यकी स्थानक तथा १८ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ
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नन्दि पर बैठे शिवकी मूर्तियाँ हैं । मन्दिरके दाहिनी ओर कुवेरकी मूर्ति है । इसके बाद महिषासुरमर्दिनीकी चर्तुभुजी प्रतिमा है। इन्होंने एक हाथसे महिषमें त्रिशूल घुसेड़ रखा है तथा दूसरे हाथसे उसकी पूंछ पकड़ रखी है । इस आशयकी मूर्तियां मथुरासे भी प्राप्त हुई हैं । मध्यमें भगवान् विष्णु के नरसिंह अवतारकी मूर्ति है, जो गोदीमें लेटे दानव हिरण्यकशिपुका पेट फाड़ रहे हैं । इनके आगे वाली ताखमें बहुमुखी ब्रह्माकी मूर्ति है, परन्तु इसमें महत्त्वपूर्ण यह है कि इनके दाढ़ी नहीं है, जैसा सामान्यतः ब्रह्माकी मूर्तियोंमें देखनेको मिलता है । इनके साथ दो दिक्पालोंकी मूर्तियां हैं, जो काफी खण्डित हो गई हैं ।
इस मन्दिरके ऊपर वाली पंक्तिमें श्रीकृष्णके जीवनसे सम्बन्धित अनेक दृश्य उत्कीर्ण हैं, जिनका अनेक वैष्णव पुराणों जैसा कि भागवत पुराण आदिमें विस्तृत वर्णन मिलता है। इन दृश्योंमें कृष्ण जन्म, पूतना-वध, शकट-भंग, कालिय-दमन, अरिष्टासुर-वध, वत्सासुर-वध, कुवलयापीड-वध, गोवर्धनधारी कृष्ण, आदि अनेक दृश्य अंकित हैं।
हरिहर मन्दिर नं. १ के चारों ओर एक-एक लघु देवालय है, जिसमें से एक तो पूर्ण रूपसे नष्ट हो गया है । इन पर बनी मूर्तियोंमें कंकाली महिषासुर मर्दिनी तथा शृङ्गार-दुर्गा विशेष रूपसे उल्लेखनीय हैं । १२ भुजाओं वाली शृङ्गार दुर्गा जो सिंहवाहिनी है, अपने एक हाथसे मांग निकाल रही है तथा बायें हाथसे पैरमें पायल पहिन रही हैं । इस आशयकी अन्य मूर्तियों आबानेरी तथा रोडासे भी प्राप्त हुई है, जो सभी समकालीन ( ८ वीं शती ईसवी ) हैं। मुख्य मन्दिरके पीछेके बाईं ओर वाले लघु देवालयमें सूर्यकी स्थानक तथा सूर्य व संज्ञाके पुत्र अश्वारोही रेवंतकी भी कलात्मक प्रतिमायें हैं । पीछेके दाहिनी ओर वाले लघु देवालय पर स्थानक विष्णु तथा गरुड़ासन विष्णुकी मूर्तियां विशेष महत्त्वकी हैं। मुख्य मन्दिरके सामने कौनों पर नृत्य गणपति एवं बैठे कुवेर की मूर्तियां हैं, जो सुख एवं सम्पदा की द्योतक हैं । इसी मन्दिरके बाईं ओर बुद्धावतारकी ध्यानमुद्रामें मूर्ति है । हरिहर मन्दिर नं. २
. इस मन्दिरके पार्श्व भाग पर भी कृष्णलीलाके विभिन्न दृश्योंके अतिरिक्त, अष्ट-दिक्पाल, गणपति, त्रिविक्रम, विष्णु, हरिहर, सूर्य, शिव, महिषासुरमर्दिनी, नरसिंह भगवान् एवं ब्रह्मादिकी मूर्तियां है । यह भी पञ्चायतन प्रकारका मन्दिर था। यहीं पर हमें शिव-पार्वतीके विवाह 'कल्याण सुन्दरका दृश्य देखनेको मिलता है, जैसी कि प्रतिमायें कामां (भरतपुर), कन्नौज, तथा अलोरा आदि में स्थित हैं। हरिहर मन्दिर नं०३
इस मन्दिर पर भी उपर्युक्त वर्णित दोनों मन्दिरोंकी तरह न केवल कृष्णलीलाके 'अनेक दृश्य मिलते हैं, वरन् अष्ट-दिक्पाल, शिव, नरसिंह, त्रिविक्रम, सूर्य, गणेश व महिषासुरमर्दिनीकी भी मूर्तियां देखनेको मिलती हैं।
मन्दिर नं०४ एवं ५ में मूर्तिकला पहिले की ही तरह है। मन्दिर नं०४ में सबसे ऊपरी भागमें विष्णु की खड़ी प्रतिमा है। मन्दिर नं० ५ ओसियांमें बनी बावड़ीके समीप है। इस पर भी दिक्पालोंके अतिरिक्त गणेश, सूर्य, विष्णु एवं महादानवका विनाश करती महिषासुरमर्दिनीकी प्रतिमायें हैं। सूर्य मन्दिर
सूर्य पूजा राजस्थानमें विशेष रूपसे प्रचलित थी, जैसा कि वहाँके प्राचीन मन्दिरों एवं प्राप्त प्रतिमाओंसे विदित होताओसियांका सर्य मन्दिर जो १० वीं शतीमें निर्मित हआ प्रतीत होता है, कलाकी दृष्टिसे वहाँके सभी मन्दिरोंमें श्रेष्ठ है। परन्तु अभाग्यवश इसके गर्भग्रहमें भी सूर्यकी प्रतिमा नहीं रह पाई
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है। द्वारशाखाओं पर बनी गंगा व यमुनाकी मूर्तियां भी प्रतिहारकालीन कलाका श्रेष्ठ उदाहरण है। यदि इस मन्दिरका निरीक्षण बाईं ओर से आरम्भ करें, तो सर्व प्रथम सर्प-फणोंके नीचे खड़े बलरामकी मूर्ति मिलेगी। इसके बाद दिक्पाल निऋत व कुबेरकी मूर्तियां है । अगली प्रतिमामें 'गणपति अभिषेख' दिखाया गया है। इससे अगली पृथ्वीका उद्धार करते भगवान् वराहकी मूर्ति है, जैसी उदयगिरी व एरण तथा महाबलिपुरम्में है । मन्दिरके पृष्ठ भाग पर अश्वारोही रेवन्तकी मूर्ति है, जिनके साथ 'शिकार पार्टी' तथा कुत्ता भी दिखाया गया है। इनके साथ ही सूर्यकी खड़ी प्रतिमा है, जिनके दोनों हाथ खण्डित हो चुके हैं । अगली मूर्ति में एकमुखी दाढ़ीवाले ब्रह्मा दिखाये गये हैं। इस प्रकारकी ही अन्य प्रतिमा तीर्थराज पुष्करमें भी एक लघु देवालय में सुरक्षित है । मन्दिरके दाहिनी ओर भी नरसिंह अवतार, पार्वती, विष्णु तथा अपने वाहन मकर पर खड़े वरुणको मूर्तियाँ हैं। परन्तु इनमें सबसे सुन्दर मध्यमें स्थित दशभुजी देवी महिषासूरमदिनीकी मूर्ति है, जो खड्ग, ढाल, धनुष, बाण आदि अनेक आयुध पकड़े है। सामनेवाले एक हाथ में पकड़े त्रिशूलसे वह महिषका बध कर रही है, जिसका कटा सिर उनके बायें परके पास पड़ा है और कटे धड़से खड्गधारी महिषासुर मानव रूप लेकर देवीसे युद्ध करने को तत्पर है । कुशल कलाकारने देवीको घोर संग्राम में लीन होनेपर भी उनके मुख पर शांत भाव ही प्रकट किया है, जो इस मूर्तिकी विशेषता है ( चित्र ४ ) इस प्रकारकी अन्य सुन्दर प्रतिमायें जगतके अम्बिका मन्दिर पर भी विद्यमान हैं। पिप्पलाद माता मन्दिर
सूर्य मन्दिरके दाहिनी ओर गाँवके समीप ही पिप्पालाद माताका पुनीत एवं पवित्र मन्दिर है । इस मन्दिरका सामनेका बहुत अधिक भाग खण्डित हो चुका है। मन्दिरके स्तंभ बड़े ही कलात्मक है। इसके गर्भगृह में एक वेदिका पर कुवेर, महिषासुर-मदिनी एवं गणेशकी विशाल प्रतिमायें है। धनद कुबेर अपनी पत्नी हरीतिके साथ दाहिने हाथमें चषक तथा बायेंमें धनकी थैली पकड़े बैठे हैं। महिषमदिनी तलवार, ढाल, चक्र, घंटा, तथा धनुष लिये हैं और सामनेवाले दाहिने हाथसे महिषका संहार कर रही है। इनके बाई ओर बैठे लम्बोदर गणेश अक्षमाला, परशु, दन्त तथा मोदक लिए हैं। मथुरा तथा उत्तरी भागके अन्य भागोंसे प्राप्त प्रतिमाओंमें साधारणतया कुबेर, गजलक्ष्मी तथा गणेशकी सम्मीलित प्रतिमायें मिली है, परन्तु महिषमदिनी नहीं मिली हैं। जयपुरके निकट सकरायमाता मन्दिरके विक्रम संवत् ७४९ के एक शिलालेखमें कुबेर, गणेश तथा महिषासुरमर्दिनीकी वन्दना की गई है। सम्भवतः इसीको ध्यानमें रखकर कलाकारने पिप्पलादमाताके मन्दिरमें इन तीनोंकी मूर्तियाँ एक साथ स्थापित करी थी । चित्र ५)। इसी मन्दिरके बाहरी भाग पर भी अष्ट दिक्पालों तथा शिवकी मूर्तिके अतिरिक्त एक अन्य महिषासुरमर्दिनीकी सुन्दर प्रतिमा उत्खनित है। इनके अतिरिक्त कुछ अन्य मन्दिर भी हैं, परन्तु वह बहुत अधिक महत्त्वके नहीं हैं । सचियायमाता मन्दिर
राजस्थानमें और विशेषकर मारवाड़ क्षेत्रमें सचियायमाताकी पूजा विशेष रूपसे प्रचलित थी। शिलालेखोंमें इनके लिए 'सच्चिका' तथा 'संचिका' आदि नामोंका उल्लेख हआ है। सचियायमाताका मन्दिर ओसियां ग्रामके मध्य एक ऊँची पहाड़ी पर बना है। इस मन्दिरकी स्थापना संभवत: आठवीं शताब्दीमें करी गई थी और उस समयसे बारहवीं शताब्दी तक इसके निरन्तर वृद्धि एवं सुधार होते गये। मन्दिरके गर्भगृहमें उस समय काले पत्थरकी रत्नजटित प्रतिमा प्रतिष्ठित है, जो सोलहवीं शताब्दीसे पूर्वकी प्रतीत नहीं होती। इसकी सुरक्षाके लिए चाँदीके द्वार हैं । अब भी प्रति वर्ष इसकी पूजा हेतु सहस्रों भक्तजन आते हैं, परन्तु किंवदन्तियों के अनुसार कोई भी ओसवाल देवीके शापके कारण ओसियाँ में स्थायी रूपसे नहीं रहता है। प्रस्तुत प्रतिमामें भी देवीका महिषासुरमर्दिनीका ही स्वरूप है। २० : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ
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इस मन्दिर में देवीके सौम्य एवं अघोर रूपोंवाली भी अनेक प्रतिमायें हैं । मन्दिरके बाह्य भागपर अनेक पौराणिक कथाओंके दृश्य अंकित हैं । इनके अतिरिक्त शिव-नटेश, सूर्य, गजानन, वराह, नरसिंह, शेषशायी विष्णु, महिषासुरमर्दिनीकी प्रतिमायें है। एक स्थान पर सागर - मन्थनका भी चित्रण है। इनके साथ हो साथ हिन्दूधर्मके विभिन्न देवताओंकी जैसे हरिहर, हरिहर पितामह, लक्ष्मीनारायण, उमामहेश्वर तथा अर्धनारीश्वर शिवकी भी मूर्तियाँ बना है । दिक्पालोंके अतिरिक्त लोक जीवनसे सम्बन्धित भी अनेक दृश्य हैं। मिथुन दृश्योंकी भी झाँकी यहाँ प्रचुर मात्रा में देखनेको मिलती है । मन्दिर में प्रवेश द्वारके बाईं ओर पवन पुत्र हनुमान्को भी आदमकद प्रतिमा रखी है ।
ओसियाके जैन मन्दिरोंमें महावीरजीका मन्दिर विशेष रूपसे महत्त्वपूर्ण है । यहाँ पर पहिले से ही जैनियोंके श्वेताम्बर सम्प्रदायको प्रमुखता थी, जैसा कि इन मूर्तियों को देखने से विदित होता है । मन्दिरके अन्दर व बाहरी भाग पर अनेक जैन देवी-देवताओंकी मूर्तियोंके अतिरिक्त सामाजिक जीवनके दृश्य उत्कीर्ण हैं, जो उस समयके लोगोंके जीवनके अध्ययनके लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है । जैनमूर्ति कला के अध्ययन के लिये भी यह मन्दिर विशेष महत्त्वका है, जिसका अभी तक पूर्ण रूपसे अध्ययन नहीं हो पाया है ।
इस प्रकार हमें ओसियां में विभिन्न धर्मोका समन्वय देखनेको मिलता है। यहां पर न केवल हिन्दू व जैनधर्म ही पनपे थे, वरन् हिन्दूधर्मक विभिन्न सम्प्रदाय जैसे वैष्णव, शैव, शाक्त, सौर, एवं गाणपत्य के अनुयायी भी एक दूसरे के धर्मोका आदर करते हुए रहते हैं, इस धारणाके अनुसार कि एक ही देवके अनेक रूप हैं, अत: चाहें उसकी पूजा किसी भी रूपमें क्या न की जाये, वह एक ही देवता की होती है :
'एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति'
— ऋग्वेद, १, १६४, ४६
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मध्यप्रदेश की प्राचीन जैन कला
प्रो० कृष्णदत्त वाजपेयी
ललित कलाओं के विकासकी दृष्टिसे भारतके मध्यवर्ती क्षेत्रका विशेष महत्त्व है। प्रागैतिहासिक युगसे लेकर उत्तर-मध्यकाल तक इस भूभागमें ललित कलाएँ अनेक रूपोंमें संवर्धित होती रहीं। नर्मदाके उत्तर विध्यकी उपत्यकाओंमें आदिम जन एक दीर्घकाल तक शिलाश्रयोंमें निवास करते थे। वे अपनी गुहाओंकी दीवालों और छतोंपर चित्रकारी करते थे। अधिकांश प्राचीन चित्र आज भी इन गुहाओंमें सुरक्षित हैं और तत्कालीन जन-जीवन पर रोचक प्रकाश डालते हैं ।
इस क्षेत्रमें से होकर अनेक बड़े मार्ग जाते थे। ये मार्ग मुख्यतः व्यापारिक सुविधा हेतु बनाये गये थे। धर्म-प्रचार तथा साधारण आवागमनके लिए भी उनका उपयोग होता था। एक बड़ा मार्ग इलाहाबाद जिलेके प्राचीन कौशाम्बी नगरसे भरहुत ( जि. सतना ), एरन (प्राचीन ऐरिकिण, जि० सागर ), ग्यारसपुर तथा विदिशा होते हुए उज्जैनको जाता था। उज्जैनसे गोदावरी-तट पर स्थित प्रतिष्ठान ( आधुनिक पैठन ) नगर तक मार्ग जाता था । अन्य बड़ा मार्ग मथुरासे पद्मावती ( ग्वालियरके पास पवाया ), कान्तिपुरी ( मुरेना जिलेका कुतवार ), तुम्बवन ( तुमैन, जि० गुना ), देवगढ़ ( जि० झांसी ) होता हुआ विदिशाको जाता था। तुम्बवनसे एक मार्ग कौशांबीको जोड़ता था। इन मार्गों पर अनेक नगरोंके अतिरिक्त छोटे गाँव भी थे। व्यापारी तथा अन्य लोग जो इन मार्गोंसे यात्रा करते थे, इन मार्गों के उपयुक्त स्थानों पर मंदिरों, स्तूपों, धर्मशालाओं आदिका निर्माण कराते थे। बड़े नगरों, गांवों तथा वन्यस्थलों में अनेक मंदिरों आदिके अवशेष मिले । इनमें जैन स्मारकों तथा कलाकृतियोंकी संख्या बहुत बड़ी है। तुमैन, देवगढ़, चंदेरी, थबौन, अहार, विदिशा, खजुराहो आदि स्थान जैन वास्तु तथा मूर्तिकलाके प्रमुख केन्द्र बने । मध्यकालमें देशके विभिन्न भागोंमें जैन धर्मका जो इतना अधिक प्रसार हुआ उसका एक मुख्य कारण व्यापारियों द्वारा बहुत बड़ी संख्यामें जैन मंदिरों, मठों, मूर्तियों आदिका निर्माण कराना तथा विद्वानोंको प्रोत्साहन प्रदान करना था।
मध्यप्रदेश क्षेत्रमें भरहुत तथा सांची बौद्धकलाके आरंभिक केन्द्रोंके रूपमें प्रख्यात हैं। विदिशा, एरन, भुमरा, नचना आदि अनेक स्थलों पर वैष्णव तथा शवधर्मोका विकास मौर्य युगसे लेकर गुप्त-युग तक बड़े रूपमें हुआ। जहां तक जैन धर्मका संबंध है, अनुश्रुति द्वारा इस क्षेत्रमें इस धर्मके उद्भव तथा प्रारंभिक विकास पर रोचक प्रकाश पड़ता है। जैन साहित्यमें विदिशा नगरीका उल्लेख बड़े सम्मानके साथ किया गया है, और यह कहा गया है कि इस नगरीमें भगवान् महावीरकी पूजा प्रारंभमें 'जीवन्तस्वामी के रूपमें होती थी । अनुश्रुतिके आधारपर, अवन्तिके शासक प्रद्योतने इस प्रतिमाको शेरुक ( सिंध-सौवीर राज्य )से लाकर विदिशामें प्रतिष्ठापित किया था। इस प्रतिमाके सम्मानमें रथयात्राओंके उत्सव बड़े समारोहके साथ निकलते थे।
विदिशाके अतिरिक्त उज्जयिनी ( उज्जैन ) में भी जैनधर्मके प्रारंभिक प्रचारका उल्लेख 'कालकाचाय-कथानक' आदि ग्रन्धों में उपलब्ध है।
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शुग-सातवाहन काल ( ई० पूर्व दूसरी शतीसे लगभग २०० ई० तक )में विदिशामें यक्ष-पूजाका प्रचलन था। यक्षों तथा यक्षियोंकी अनेक महत्त्वपूर्ण मूर्तियां विदिशासे मिली हैं। कुछ वर्ष पूर्व बेतवा नदीसे यक्ष-यक्षीकी विशाल प्रतिमाएँ प्राप्त हुई, जो अब विदिशाके संग्रहालयमें सुरक्षित हैं। नाग-पूजाका भी प्रचार विदिशा, पद्मावती, कान्तिपुरी आदि स्थानोंमें बड़े रूप में हुआ। नाग-नागियोंकी प्रतिमाएँ सर्पाकार तथा मानवाकार दोनों रूपोंमें बनायी जाती थीं।
शक-कुषाण-युग ( ई० पूर्व प्रथम शतीसे द्वितीय शती ई०के अंत तक )में कला-केंद्रके रूपमें मथुरा की बड़ी उन्नति हुई । वहां जैन तथा बौद्ध धर्मोंका असाधारण विकास हुआ। मूर्ति शास्त्र के महत्त्वकी दृष्टिसे मथुरामें निर्मित प्रारंभिक जैन एवं बौद्ध कलाकृतियां तथा वैदिक-पौराणिक देवोंकी अनेक प्रतिमाएँ उल्लेखनीय हैं। विविध भारतीय धर्म पूर्ण स्वातंत्र्य तथा सहिष्णुताके वातावरणमें साथ-साथ, बिना ईर्ष्या-द्वेषके मथुरा, विदिशा, उज्जयिनी आदि अनेक नगरोंमें शताब्दियों तक पल्लवित-पुष्पित होते रहे। यह धर्म-सहिष्णुता प्राचीन भारतीय इतिहासकी एक बहत बड़ी विशेषता मानी जाती है ।
शक-कुषाण कालमें मथुराके साथ विदिशाका संपर्क बहत बढ़ा। इन वंशोंके शासकोंके बाद विदिशामें नाग राजाओंका शासन स्थापित हुआ। उनके समयमें मथुरा कलाका स्पष्ट प्रभाव मध्यभारतके पद्मावती, विदिशा आदि नगरोंकी कलाकृतियों में देखनेको मिलता है। कलामें बाह्य रूप तथा आध्यात्मिक सौंदर्यके साथ रसदृष्टिका समावेश इस कालसे मिलने लगता है, जिसका उन्मेष गुप्तकाल ( चौथीसे छठी शती ई० में विशेष रूपसे हुआ।
मुख्यतः मथुरामें जैन तीर्थंकर प्रतिमाओंको विशिष्ट लांछन या प्रतीक प्रदान करनेकी बात प्रारंभ हई । श्रीवत्स चिह्न के अतिरिक्त विविध मंगलचिह्न तथा तीर्थंकरोंसे संबंधित उनके विशेष प्रतीकोंका विधान उनकी प्रतिमाओंमें मथुराकी प्राचीन कलामें देखनेको मिलता है। जैन सर्वतोभद्र (चौमुखी) प्रतिमाएँ भी मथुरामें कुषाणकालसे बनने लगी । इसका अनुकरण अन्य कला केन्द्रोंमें किया गया।
कुछ वर्ष पूर्व विदिशासे तीन दुर्लभ तीर्थकर मूर्तियों की प्राप्ति हुई। इन तीनों पर ब्राह्मी लिपि तथा संस्कृत भाषामें लेख खुदे हैं । दो प्रतिमाओं पर तीर्थंकर चन्द्रप्रभका नाम तथा तीसरी पर तीर्थंकर पुष्पदंतका नाम उत्कीर्ण है। लेखोंसे ज्ञात हुआ है कि तीनों मूर्तियोंका निर्माण गुप्तवंशके शासक 'महाराजाधिराज' रामगुप्तके द्वारा कराया गया। यह रामगुप्त गुप्तसम्राट चंद्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्यका बड़ा भाई था। उक्त लेखों तथा रामगुप्त नामवाले बहुसंख्यक सिक्कोंसे रामगुप्तकी ऐतिहासिकता सिद्ध हो गयी है।
इन तीनों मूर्तियोंकी कला निस्संदेह मथुरा शैलीसे प्रभावित है। ध्यानमुद्रामें पद्मासन पर स्थिति, अंगोंका विन्यास, सादा प्रभामंडल आदिसे इस बातकी पुष्टि होती है । मथुराकी प्रारंभिक मूर्तियोंकी तरह ये तीनों प्रतिमाएं भी चारों ओरसे कोरकर बनायी गयी हैं। प्रत्येक तीर्थकर मूर्तिके दोनों ओर चॅवर लिए हुए देवताओंको प्रदर्शित किया गया है। मूर्तियोंकी चौकी पर चक्र बना है। विदिशासे प्राप्त ये तीनों नवीन मर्तियाँ स्थानीय मटमैले पत्थरकी बनी हैं। उनके लेख सांची तथा उदयगिरिके गुप्तकालीन ब्राह्मी लेखों जैसे हैं।
गुप्तयुगमें जन कलाकृतियोंका निर्माण विवेच्य क्षेत्रके विविध भागोंमें जारी रहा। विदिशाके पास उदयगिरिकी गुफा संख्या २० में गुप्त-सम्राट् कुमारगुप्त प्रथमके शासन-कालमें तीर्थंकर पार्श्वनाथकी अत्यंत कलापूर्ण मूर्तिका निर्माण हुआ । पन्ना जिलेमें सहेलाके समीप सीरा पहाड़ीसे एक तीर्थंकर प्रतिमा मिली है, जिसका निर्माणकाल लगभग ५०० ई० है।
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झांसी जिलाकी ललितपुर तहसील में स्थित देवगढ़में गुप्तकालमें तथा पूर्वमध्यकाल ( लगभग ६५० से १२०० ई० ) में कलाका प्रचुर उन्मेष हुआ । गुप्तकालमें वहां विष्णु के प्रसिद्ध दशावतार - मंदिरका निर्माण हुआ । अगले कालमें यहां बेतवा नदीके ठीक तट पर अत्यंत मनोरम स्थल पर जैन मंदिरोंका निर्माण हुआ । यह निर्माण कार्य सातवीं से बारहवीं शती तक होता रहा । इस कार्य में शासकीय प्रोत्साहनके अतिरिक्त व्यव - सायी वर्ग तथा जनसाधारणका सहयोग प्राप्त हुआ । फलस्वरूप यहां बहुसंख्यक कलाकृतियां निर्मित हुई । देवगढ़ में जैन धर्मके भट्टारक संप्रदायके आचार्योंने समीपवर्ती क्षेत्रमें जैन धर्मके प्रसार में बड़ा कार्य किया ।
चंदेरी, थूबोन, दुधई, चांदपुर आदि अनेक स्थलोंसे जैन धर्म संबंधी बहुसंख्यक स्मारक तथा मूर्तियां मिली हैं । ये इस बातकी द्योतक हैं कि पूर्व मध्यकालमें जैन धर्मका अत्यधिक विकास हुआ। पूर्व में खजुराहो ( जि० छतरपुर ) इस क्षेत्रका एक केंद्र बना, जहां मंदिरोंके अतिरिक्त अनेक कलात्मक मूर्तियां दर्शनीय हैं । पूर्व तथा उत्तर मध्यकाल ( १२०० से १८०० ई० ) में मध्यप्रदेश के अनेक क्षेत्रों में कलाका प्रचुर विकास हुआ । अहार, बीना-वारहा, अजयगढ़, बानपुरा, मोहेन्द्रा, तेरही, दमोह, गंधरावल, ग्वालियर ग्यारसपुर भानपुरा, बड़ोह-पठारी आदि कितने ही स्थलोंसे जैन कालकी प्रभूत सामग्री उपलब्ध हुई है । इसे देखने पर पता चला कि वास्तुकला तथा मूर्तिकला अनेक रूपों में यहां विकसित होती रही । अधिकांश मंदिरोंका निर्माण नागर-शैली पर हुआ । मूर्तियोंमें प्रतिमा-लक्षणोंकी ओर विशेष ध्यान दिया गया ।
पूर्व युगों के अनुरूप बहुसंख्यक मध्यकालीन जैन कलाकृतियां अभिलिखित मिली । उन पर अंकित लेखोसे न केवल धार्मिक इतिहासके संबंध में जानकारी प्राप्त हुई है अपितु राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक तथा भाषात्मक विषयों पर रोचक प्रकाश पड़ा है । मध्यप्रदेश के विभिन्न सार्वजनिक संग्रहालयों तथा निजी संग्रहों के अतिरिक्त कलाकी विशाल सामग्री आज भी विभिन्न प्राचीन स्थलों पर बिखरी पड़ी है, जिसकी समुचित सुरक्षाकी ओर अब तुरंत ध्यान देना आवश्यक है ।
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प्राचीन ब्रजमंडलमें जैनधर्मका विकास
श्री प्रभुदयाल मीतल, मथुरा जैन तीर्थंकरोंका सम्बन्ध-जैन धर्मके २४ तीर्थंकरोंमेंसे कईका घनिष्ठ सम्बन्ध शरसेन जनपद अर्थात् प्राचीन व्रजमंडलसे रहा है। जिनसेन कृत 'महापुराण' में जैन धर्म की एक प्राचीन अनुश्रुतिका उल्लेख हुआ है। उसके अनुसार आदि तीर्थंकर भगवान् ऋषभनाथके आदेशसे इन्द्रने इस भूतलपर जिन ५२ देशोंका निर्माण किया था, उनमें एक शूरसेन भी था, जिसकी राजधानी मथुरा थी। सातवें तीर्थंकर सुपार्श्वनाथका मथुरा से विशेष सम्बन्ध रहा था, जिसके उपलक्षमें कुवेरा देवीने यहाँपर एक स्तूपका निर्माण किया था।
समें सुपार्श्वनाथजीका बिम्ब प्रतिष्ठित था। वह स्तूप जैन धर्मके इतिहासमें बड़ा प्रसिद्ध रहा है। चौदहवें तीर्थकर अनन्तनाथजीको स्मृति में भी एक स्तुपके बनाये जाने का उल्लेख मिलता है। बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथजी जैन मान्यताके अनुसार वासुदेव कृष्णके भाई थे, जो शूरसेन जनपदके प्राचीन शौरिपुर राज्य ( वर्तमान बटेश्वर, जिला आगरा ) के यादव राजा समुद्रविजयके पुत्र थे। उनके कारण शूरसेन प्रदेश और कृष्णका जन्मस्थान मथुरा नगर जैनधर्मके तीर्थस्थान माने जाने लगे थे। तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथजी और अन्तिम चौबीसवें तीर्थंकर एवं जैनधर्म के प्रतिष्ठाता महावीरजीका मथुरामें विहार हआ था। जिस कालमें भगवान् महावीरजी मथुरा पधारे थे, उस समय यहाँके राजा उदितोदय अथवा भीदाम, राजकुमार कंवल और शंवल, नगर सेठ जिनदत्तके पुत्र अर्हदास तथा अन्य राजकीय पुरुष एवं प्रतिष्ठित नागरिक जैनधर्ममें दीक्षित हए थे । उनके कारण साधारण जनतामें भी जैनधर्मका प्रचार होने लगा था।
जम्बूस्वामीका साधना-स्थल-भगवान् महावीरके प्रशिष्य सुधर्म स्वामीसे प्रव्रज्या लेकर जम्बू स्वामीने मथुराके चौरासी नामक स्थलपर तपस्या की थी। २. वर्ष तक मुनिवृत्ति धारण कर तपस्या करनेसे वे कैवल्यज्ञानी हए थे। ४४ वर्ष तक कैवल्यज्ञानी रहने के उपरान्त उन्हें सिद्ध पद प्राप्त हुआ था। इस प्रकार ८० वर्षकी आयुमें उन्होंने मोक्ष लाभ किया। जम्बू स्वामी जैनधर्मके अन्तिम केवली माने गये हैं। उनकी तपस्या और मोक्ष-प्राप्तिका केन्द्र होनेसे मथुराका चौरासी नामक स्थल जैनधर्मका 'सिद्ध क्षेत्र' माना जाता है।
जम्बू स्वामी के प्रभावसे सद्गृहस्थोंके अतिरिक्त दस्युओंके जीवनमें भी धार्मिकताका उदय हुआ था। उस समयके कई भयंकर चोर अपने बहुसंख्यक साथियोंके साथ दुष्प्रवृत्तियोंको छोड़कर तप और ध्यानमें लीन हुए थे। मथुराके तपोवनमें उक्त दस्युओंको भी साधु-वृत्ति द्वारा परमगति प्राप्त हुई थी। कालान्तरमें जब चौरासीमें जम्बू स्वामीके चरण-चिह्न सहित मन्दिर बना, तब उनके समीप उन तपस्वी दस्युओंकी स्मृतिमें भी अनेक स्तूप बनवाये गये थे ।
देव निर्मित स्तूप-सातवें तीर्थंकर सुपार्श्वनाथजी की स्मृतिमें कुवेरा देवीने मथुरामें जिस स्तूपका निर्माण किया था, वह अत्यन्त प्राचीन कालसे ही जैनधर्मके इतिहास में प्रसिद्ध रहा है। 'मथुरापुरी कल्प' से ज्ञात होता है कि तेईसवें तीर्थकर पार्श्वनाथजीके समय में उसे ईंटोंसे पुननिमित किया गया था। वह जैनधर्मका सबसे प्राचीन स्तूप था, जो कमसे कम तीन सहत्र पूर्व बनाया गया था।
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आधुनिक कालके अनेक विदेशी पुरातत्त्व वेत्ताओंने मथुराके कंकाली टीलाकी खुदाई की थी। उसमें जैनधर्मसे सम्बन्धित बड़ी महत्त्वपूर्ण वास्तु-सामग्री प्राप्त हुई। उस सामग्री में कुषाण कालीन एक मूर्तिकी अभिलिखित पीठिका है, जो इस समय लखनऊ संग्रहालय ( संख्या जे० २० ) में है। उस पीठिकाके अभिलेखसे ज्ञात होता है कि कुषाण सं०७१ ( सन् १५७ ई० ) में कोट्टिय गणकी वैर शाखाके आचार्य वृद्धहस्तिके आदेशसे श्राविका दिनाने उक्त अहंत प्रतिमाको देव निर्मित 'वोद्व स्तूप में प्रतिष्ठापित किया था ।
इस अभिलेखसे सिद्ध होता है कि कुवेरा देवोके स्तूपका नाम 'वोद्व स्तुप' था और यह मथुराके उस स्थलपर बनाया गया था, जिसे अब कंकाली टोला कहते हैं। दूसरी शताब्दी में ही वह स्तूप इतना प्राचीन हो गया था कि उसके निर्माण-काल और निर्माताके सम्बन्धमें किसी को कुछ ज्ञान नहीं था। फलतः उस कालमें उपे देव निर्मित स्तूप कहा जाने लगा था।
उक्त स्तूपके सम्बन्धमें मान्यता है कि पहले एक मूल स्तुप था, बादमें पांच बन गये। कालान्तरमें अनेक छोटे-बड़े स्तुप बनाये गये, जिनकी संख्या ५०० से भी अधिक हो गयी थी। उन स्तूपोंके साथ-साथ जैनधर्म के अनेक देवालय और चैत्य भी वहाँ पर समय-समय पर निर्मित होते रहे थे। उन स्तूपों और देवालयोंमें विविध तीर्थंकरोंकी प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित की गई थीं। उन सबके कारण वह स्थल मथुरा मंडलमें ही नहीं, वरन् समस्त भारतवर्ष में जैनधर्मका सबसे महत्त्वपूर्ण केन्द्र हो गया था। इसका प्रमाण वहाँके उत्खननमें प्राप्त सैकड़ों मूर्तियाँ और वास्तु-कलावशेष है । जैनधर्मसे सम्बन्धित इतनी अधिक और इतने महत्त्वकी पुरातात्त्विक सामग्री किसी अन्य स्थानसे प्राप्त नहीं हुई है। जैन मूर्तियों के साथ ही साथ कुछ मूर्तियाँ बौद्ध और हिन्दू धर्मोसे सम्बन्धित भी मिली हैं, जो उस कालके जैनियोंकी धार्मिक उदारता और सहिष्णुताकी सूचक हैं । ऐसा जान पड़ता है, उस स्थलके भारतव्यापी महत्त्वके कारण अन्य धर्मवालोंने भी अपने देवालय वहाँ बनाये थे।
जैनधर्ममें तीर्थ-स्थलोंके दो भेद माने गये हैं, जिन्हें १-सिद्ध क्षेत्र और २-अतिशय क्षेत्र कहा गया है। किसी तीर्थंकर अथवा महात्माके सिद्ध पद या निर्वाण-प्राप्तिके स्थलको 'सिद्ध क्षेत्र' कहते हैं, और किसी देवताकी अतिशयता अथवा मन्दिरोंकी बहुलताका स्थान 'अतिशय क्षेत्र' कहलाता है। इस प्रकारके भेद दिगम्बर सम्प्रदायके तीर्थों में ही माने जाते हैं, श्वेताम्बर सम्प्रदायमें ये भेद नहीं होते हैं । दिगम्बर सम्प्रदायके उक्त तीर्थ-भेदके अनुसार मथुरा सिद्ध क्षेत्र भी है और अतिशय क्षेत्र भी। 'सिद्ध क्षेत्र' इसलिये कि यहाँके 'चौरासी' नामक स्थल पर जम्बू स्वामीने सिद्ध पद एवं निर्वाण प्राप्त किया था। यह 'अतिशय क्षेत्र इसलिये है कि यहाँ के कंकाली टीलेके जैन केन्द्र में देव निर्मित स्तूप के साथ-साथ स्तूपों, देवालयों और चैत्योंकी अनुपम अतिशयता थी।
कंकाली टीलाके उत्खननमें सर्वश्री कनिंघम, हाडिंग, ग्राउस, बर्गेस और फ्यूर जैसे विख्यात विदेशी पुरातत्त्वज्ञोंने योग दिया था । वहाँसे जो महत्त्वपूर्ण सामग्री प्राप्त हुई थी, उसमेंसे अधिकांश लखनऊ संग्राहलयमें है । उसका अल्प भाग मथुरा संग्रहालयमें है, और शेष भाग भारत तथा विदेशोंमें बिखरा हुआ है । इसका परिचयात्मक विवरण डॉ० विसेण्ट स्मिथकी पुस्तक, लखनऊ संग्रहालयके विवरण और डॉ० वोगल कृत मथुरा संग्रहालयके सूचीपत्रसे जाना जा सकता है ।
कंकाली टीला प्रायः 1500 वर्ग फीटका एक ऊबड़-खाबड़ स्थल है। इसके एक किनारे पर कंकाली नामकी देवीका एक छोटासा मंदिर बना हुआ है, जिसके नामसे इस समय यह स्थल प्रसिद्ध है। इसकी खुदाई में 47 फीट व्यासका ईटोंका एक स्तुप और दो जैन देवालयोंके अवशेष मिले है। इसमेंसे जो सैकड़ों
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मूर्तियाँ, वास्तु खंड और कलावशेष मिले हैं, उन सबका परिचय देना संभव नहीं है । इस संबंध में पूर्वोक्त विवरण पुस्तिकाओंसे जाना जा सकता है ।
मूर्तियों में जो सर्वाधिक महत्त्वकी हैं, उनका संक्षिप्त परिचय यहाँ प्रस्तुत हैं । कंधों तक जटा फैलाए हुए आदि तीर्थंकर ऋषभनाथजीकी मूर्ति, बलभद्र- वासुदेव के साथ अंकित २२ वें तीर्थंकर नेमि - नाथजी की मूर्ति, और सर्प - फणोंसे आच्छादित २३ वें तीर्थंकर पार्श्वनाथजीकी मूर्ति तो अपने विशिष्ट चिह्नोंसे पहिचान ली गई हैं । इनके अतिरिक्त अन्य तीर्थकरोंकी जो बहुसंख्यक मूर्तियाँ हैं, वे विशिष्ट चिह्नोंके अभावमें नहीं पहिचानी जा सकती हैं। जिन मूर्तियोंपर उनके नाम अंकित हैं, उन्हें पहिचान लिया गया है | ये तीर्थंकर मूर्तियां कैवल्य प्राप्ति के लिये दंडवत् खड़ी हुई और ध्यानावस्थित अवस्था में बैठी हुई— इन दोनों मुद्राओंमें मिली हैं । जैन देवियोंकी मूर्तियों में सर्वाधिक महत्त्वकी सरस्वती प्रतिमा है, जो लखनऊ संग्रहालय ( सं० जे० २४ ) में है । यह अभिलिखित है, और अबतक मिली हुई सरस्वतीकी मूर्तियों में सबसे प्राचीन है । दूसरी आदि तीर्थंकर ऋषभनाथको यक्षिणी चक्रेश्वरी देवीकी प्रतिमा है, जो दसवीं शती की है, और इस समय मथुरा संग्रहालय में प्रदर्शित हैं । इनके अतिरिक्त सर्वतोभद्र अर्थात् चतुर्मुखी मूर्तियां भी हैं । इनमें से अनेक मूर्तियोंपर उनके निर्माण-काल और निर्माताओंके नाम अंकित हैं । इनसे जैन मूर्ति कलाके विकासको भली भांति समझा जा सकता है ।
मूर्तियोंसे भी अधिक महत्त्वके वे आयाग पट हैं, जो जैन मूर्तियोंके निर्माणके पूर्व की स्थिति के परिचायक है । जब जैनधर्म में मूर्तियोंका प्रचलन नहीं हुआ था, तब शिलाखंडोंपर जैनधर्मके मांगलिक चिह्नोंका अंकनकर उन्हें तीर्थंकरोंके प्रतीक रूप में पूजाके लिये प्रतिष्ठित किया जाता था । उक्त शिलाखंडोंको 'आयाग पट' कहते हैं । इस प्रकारके कई पट कंकालीकी खुदाई में मिले हैं, जो लखनऊ और मथुरा के संग्रहालयों में प्रदर्शित हैं । उक्त पूजनीय पटोंके अतिरिक्त अनेक कलात्मक पट भी कंकाली से मिले हैं । उनमें सबसे प्राचीन पट शुंगकाल ( दूसरी शती पूर्व ) के हैं । ऐसे एक शिलापटमें भगवान् ऋषभनाथजीके समक्ष नीलांजना अप्सराके नृत्यका दृश्य अंकित है । यह प्राचीन भारतीय नृत्यकी मुद्राका अंकन है, जो मथुरा मंडलके विगत कलात्मक वैभवको प्रकट करता है । शुंग कालीन एक अन्य शिलापट किसी धार्मिक स्थलका तोरण है । इसके एक ओर यात्राका दृश्य है, और दूसरी ओर सुपर्णों तथा किन्नरों द्वारा स्तूप के पूजनका दृश्य है । अनेक पटोंपर सुंदरियोंकी विभिन्न चेष्टाओं और मुद्राओंके दृश्य अंकित हैं । इनसे प्राचीन जैनधर्मकी कलात्मक अभिरुचिका भली-भांति परिचय मिलता है ।
मथुरामंडल के वे दोनों जैन केन्द्र - १. जम्बू स्वामीका निर्वाण स्थल और २. देवनिर्मित स्तूप तथा उसके समीप बने हुए बहुसंख्यक देवालयोंसे समृद्ध कंकाली टीला - अपने निर्माणकालसे अनेक शताब्दियों पश्चात् तक समस्त जैनियोंके लिये समान रूप से श्रद्धास्पद थे । मगध जनपद और दाक्षिणात्य क्षेत्रोंके जैनसंघ कालांतर में दिगंबर और श्वेतांबर नामक दो संप्रदायों में विभाजित हो गये थे, किन्तु प्राचीन व्रजमंडलका जैनसंघ उस भेद-भावसे अछूता रहा, और यहाँ के देव स्थान सभी संप्रदाय वालोंके लिये पूजनीय बने रहे थे ।
प्राचीन व्रजमंडल में जैनधर्मकी इन महत्त्वपूर्ण उपलब्धियोंके साथ ही साथ इस भू-भागमें समय-समय पर ऐसी अनेक महत्त्वपूर्ण घटनाएँ भी हुई है, जिन्होंने जैनधर्मके इतिहास में गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त किया है । यहाँ पर ऐसी कतिपय घटनाओं का उल्लेख किया जाता है ।
'सरस्वती' - आन्दोलन और 'जिन वाणी' का लेखन - जैनधर्म के मूल सिद्धांत भगवान् महावीर
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द्वारा कथित अर्धमागधी प्राकृत भाषामें हैं, जिन्हें 'जिन-वाणी' अथवा 'आगम' कहा जाता है । वैदिक संहिताओंकी भाँति जैन आगम भी पहले श्रुत रूप में थे । सम्राट् अशोकने बौद्धधर्मके प्रचारार्थ अपने साम्राज्य के विविध स्थानों में जो धर्म-लेख लिखवाये थे, उनसे जैनधर्मके विद्वानोंको भी आगमोंको लिखित रूपमें सुरक्षित करने की आवश्यकता प्रतीत होने लगी; किंतु जैनाचार्योंके प्रबल विरोधके कारण उन्हें लिपिबद्ध नहीं किया जा सका था। जब कई शताब्दियों तक अन्य स्थानोंके जैनाचार्य आगमोंको लिपिबद्ध नहीं कर सके, तब मथुरामंडल के जैन विद्वानोंने उक्त प्रश्नको उठाया, और 'सरस्वती आंदोलन' द्वारा इस विषयका नेतृत्व किया था ।
विद्या बुद्धि और ज्ञान-विज्ञानकी अधिष्ठात्री देवीका नाम सरस्वती है । इसे ब्राह्मी, भारती, भाषा और गीर्वाणवाणी भी कहते हैं । यद्यपि सरस्वतीकी मूल कल्पना प्राचीन है, तथापि इसके स्वरूपका विकास और पूजनका प्रचार जैनधर्मकी देन है। मथुराके जैन विद्वानोंको यह श्रेय प्राप्त कि उन्होंने परंपरागत श्रुत एवं कंठस्थ 'जिन वाणी' को लिखित रूप प्रदान करनेके लिये 'सरस्वती आंदोलन' चलाया था, और मथुराके मूर्ति-कलाकारोंने सर्वप्रथम पुस्तकधारिणी सरस्वती देवीकी प्रतिमाएँ निर्मितकर उस आंदोलनको मूर्त रूप प्रदान किया था । उक्त आंदोलन का यह परिणाम हुआ कि जिन-वाणीको लिपिबद्ध करनेका विरोध क्रमशः कम होता गया । पहिले दिगंबर विद्वानोंने आगम ज्ञानको संकलित कर लिपिबद्ध किया, बाद में श्वेतांबर विद्वान् भी उसके लिये सहमत हो गये । यद्यपि इस कार्यमें कई शताब्दियों तक ऊहापोह होता रहा था ।
'माथुरी - वाचना' - दिगंबर विद्वानों द्वारा आगमोंके संकलन और लेखनसे उत्पन्न स्थितिपर विचार करनेके लिये सं 370 वि० के लगभग मथुरा में श्वेतांबर यतियोंका एक सम्मेलन हुआ, जिसकी अध्यक्षता आर्य स्कंदिलने की थी । उस सम्मेलन में आगमों का पाठ निश्चित कर उनकी व्याख्या की गई, जिसे 'माथुरी वाचना' कहा जाता है । उसी समय आगमोंको लिपिबद्ध करनेपर भी विचार किया गया, किंतु भारी मतभेद होने के कारण तत्संबंधी निर्णय स्थगित करना पड़ा । बादमें विक्रमकी छठी शताब्दीके आरंभ में सुराष्ट्रके वल्लभी नगर में देवधिगणी क्षमा-श्रमणको अध्यक्षता में श्वेतांबर मान्यताके आगमोंको सर्वप्रथम संकलित एवं लिपिबद्ध किया गया था । श्वेतांबर साधु जिनप्रभ सूरि कृत 'मथुरापुरी कल्प' में लिखा है, जब शूरसेन प्रदेश में द्वादशवर्षीय भाषण दुर्भिक्ष पड़ा था, तब आर्य स्कंदिलने संघको एकत्र कर आगमोंका अनुयोग किया था । मथुराके प्राचीन देवनिर्मित स्तूपमें एक पक्षके उपवास द्वारा देवताको आराधनाकर जिनप्रभ श्रमणने दीमकों से खाये हुए त्रुटित ' महानिशीथ सूत्र' की पूर्ति की थी ।
साहित्य-प्रणयन - जैनधर्मका प्राचीन साहित्य अर्धमागधी प्राकृत में हैं, जिसे 'जैन प्राकृत' कहा जाता है | बादका साहित्य संस्कृत, अपभ्रंश और प्रांतीय भाषाओं में रचा हुआ उपलब्ध है । प्राचीन साहित्य में प्रमुख स्थान आगमोंका है । उनके पश्चात् पुराणोंका महत्त्व माना जाता है। पुराणों में जैन तीर्थंकरों की महिमा का वर्णन किया गया है । उनके साथ राम और कृष्णका भी उल्लेख हुआ है; किंतु उनके चरित्र जैन विद्वानों ने वैष्णव विद्वानोंकी अपेक्षा कुछ भिन्न दृष्टिकोणसे लिखे हैं । वासुदेव कृष्णको तीर्थंकर नेमिनाथजीका भाई माना गया है, अतः कृष्णके पिता वसुदेव, भाई बलभद्र और पुत्र प्रद्युम्नके चरित्र लिखने में जैन विद्वानों ने बड़ी रुचि प्रकट की है । ऐसे ग्रंथों में जिनसेनाचार्य कृत 'हरिवंश पुराण' विशेष रूपसे उल्लेखनीय है । यह 66 सर्गोंका विशाल ग्रंथ । इसकी रचना सं० 840 में हुई थी । इसके आरंभिक सर्गों में अन्य तीर्थकरों का संक्षिप्त कथनकर 18 वें सर्ग से 61 सर्ग तक तीर्थंकर नेमिनाथजीका और उनके साथ वसुदेव, वासुदेव, कृष्ण, बलभद्र तथा प्रद्युम्नका अत्यंत विशद वर्णन किया गया है। सबके अंत में भगवान् महावीरका चरित्र
है ।
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उस कालके ग्रंथोंमेंसे जो ग्रंथ ब्रजमंडलमें रचे गये थे, उनका प्रामाणिक विवरण उपलब्ध नहीं है। 'ऐसा अनुमान है संस्कृत, शौरसेनी प्राकृत और शौरसेनी अपभ्रंशमें कुछ ग्रंथ अवश्य रचे गये होंगे, जो कालके प्रवाहमें नष्ट हो गये। कालांतरमें जो ग्रथ व्रजभाषामें रचे गये थे, वे अब भी विद्यमान हैं, और उनसे व्रजमंडल के जैन विद्वानोंकी साहित्य-साधनापर अच्छा प्रकाश पड़ता है।
हणों का आक्रमण-मौर्य-शुग कालके पहिलेसे लेकर गुप्त शासन के बाद तक, अर्थात् एक सहस्रसे अधिक काल तक प्राचीन व्रजमंडल में जैनधर्मसे संबंधित इमारतें प्रायः अक्षुण्ण रही थीं। उस कालमें जैन धर्मकी उत्तरोत्तर उन्नति करता रहा था। गुप्त शासनके अंतिम कालमें जब असभ्य हूणोंने प्राचीन ब्रजमंडल पर आक्रमण किया, तब उन्होंने यहाँकी अन्य इमारतोंके साथ ही साथ जैन इमारतोंको भी बड़ी हानि पहँचाई थी। यहाँका सुप्रसिद्ध देव निर्मित स्तूप उस कालमें क्षतिग्रस्त हो गया था, और अन्य स्तूप एवं मंदिर-देवालय भी नष्टप्राय हो गये थे।
देवस्थानोंका जीर्णोद्धार और धार्मिक स्थितिमें सुधार हूणोंके आक्रमणसे प्राचीन व्रजमंडलकी जो इमारतें क्षतिग्रस्त हो गई थीं, उनके जीर्णोद्धारका श्रेय जिन श्रद्धालु महानुभावोंको है, उनमें वप्पभट्टि सरिका नाम उल्लेखनीय है । 'विविध तीर्थकल्प' से ज्ञात होता है कि वप्पभट्टि सूरिने अपने शिष्य ग्वालियर नरेश आमराजसे सं० 826 वि० में मथुरा तीर्थका जीर्णोद्धार कराया था। उसी समय ईंटोंसे बना प्राचीन 'देवनिर्मित स्तूप', जो उस समय जीर्णावस्थामें था, पत्थरोंसे पुननिर्मित किया गया और उसमें भ० पार्श्वनाथजीके जिनालय एवं भ० महावीरजीके बिम्ब की स्थापना की गई थी। वप्पट्टि सूरिने मथुरामें एक मंदिरका निर्माण भी कराया था, जो यहाँपर श्वेतांबर संप्रदायका सर्वप्रथम देवालय था। .
बौद्धधर्मके प्रभावहीन और फिर समाप्त हो जानेपर मथरामंडल में जो धर्म अच्छी स्थितिमें हो गये थे, उनमें जैनधर्म भी था। 10 वीं, 11 वीं और 12 वीं शताब्दियोंमें यहाँपर जैनधर्मकी पर्याप्त उन्नति होनेके प्रमाण मिलते हैं। उस कालमें मथुरा स्थित कंकाली टीलाके जैन केन्द्र में अनेक मंदिर-देवालयोंका निर्माण हआ था और उनमें तीर्थंकरोंकी मूर्तियाँ प्रतिष्ठित की गई थीं। उस कालकी अनेक लेखांकित जैन मूर्तियाँ कंकाली टीलेकी खुदाईमें प्राप्त हुई हैं । मथुराके अतिरिक्त प्राचीन शौरिपुर (बटेश्वर, जिला आगरा) भी उस काल में जैनधर्मका एक अच्छा केन्द्र हो गया था और वहाँ प्रचुर संख्या में जैन मंदिरोंका निर्माण हुआ था।
महमूद गज़नवीके आक्रमणका दुष्परिणाम-सं० 1074 में जब महमूद गज़नवीने मथुरापर भीषण आक्रमण किया था, तब यहाँके धार्मिक स्थानोंकी बड़ी हानि हुई थी। कंकाली टीलाका सुप्रसिद्ध 'देवनिर्मित स्तुप' भी उसी कालमें आक्रमणकारियोंने नष्ट कर दिया था, क्योंकि उसका उल्लेख फिर नहीं मिलता है। ऐसा मालूम होता है, उक्त प्राचीन स्तूपके अतिरिक्त कंकाली टीलाके अन्य जैन देवस्थानोंकी बहत अधिक क्षति नहीं हुई थी, क्योंकि उससे कुछ समय पूर्व ही वहाँ प्रतिष्ठित की गई जैन प्रतिमाएँ अक्षण्ण रूपमें उपलब्ध हुई हैं । संभव है, जैन श्रावकों द्वारा उस समय वे किसी सुरक्षित स्थानपर पहुँचा दी गई हों, और बादमें स्थिति ठीक होनेपर उन्हें प्रतिष्ठित किया गया हो ।
महमूद गज़नवीके आक्रमण कालसे दिल्लीके सुल्तानोंका शासन आरंभ होने तक अर्थात् 11 वीं से 13 वो शतियों तक मथुरामंडलपर राजपूत राजाओंका शासनाधिकार था। उस कालमें यहाँ जैनधर्मकी स्थिति कुछ ठीक रही थी। उसके पश्चात वैष्णव संप्रदायों का अधिक प्रचार होनेसे जैनधर्म शिथिल होने लगा था।
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जैन तीर्थोंकी यात्रा - वैष्णव संप्रदायोंका अधिक प्रचार होनेसे इस कालमें जैनधर्मका प्रभाव तो घट गया था, किंतु जैन देवस्थानोंके प्रति जनताकी श्रद्धा बनी रही थी । वैष्णव संप्रदायोंका केन्द्र बननेसे पहिले मथुरा नगर जैनधर्म का प्रसिद्ध केन्द्र था । श्वेतांबर और दिगंबर दोनों संप्रदायोंके जैन साधु और श्रावकगण मथुरा तीर्थ की यात्रा करने आते थे । ऐसे अनेक तीर्थ यात्रियों का उल्लेख जैनधर्मके विविध ग्रंथोंमें हुआ है । सुप्रसिद्ध शोधक विद्वान् श्री अगरचंदजी नाहटाने उक्त उल्लेखोंका संकलनकर इस विषयपर अच्छा प्रकाश डाला है ।" उनके लेखसे ज्ञात होता है कि प्रथम शतीसे सतरहवीं शती तक जैन यात्रियोंके आनेका क्रम चलता रहा था । मथुरा तीर्थ की यात्रा करनेवाले जैन यात्रियोंमें सर्वप्रथम मणिधारी जिनचंद्र सूरिका नाम उल्लेखनीय
| 'युग प्रधान गुर्वावली' के अनुसार उक्त सूरिजीने सं० 1214-17 के कालमें मथुरा तीर्थकी यात्रा की थी । उक्त गुर्वावल में खरतर गच्छके 14 शताब्दी आचार्य जिनचंद्र सूरिके नेतृत्व में ठाकुर अचल द्वारा संगठित एक बड़े संघ द्वारा भी यात्रा किये जाने का उल्लेख हुआ है । वह यात्री संघ सं० 1374 में मथुरा आया था। उसने मथुराके सुपापर्व और महावीर तीर्थोंकी यात्रा की थी । मुहम्मद तुगलक के शासन काल (सं० 1382-सं० 1408) में कर्णाटकके एक दिगंबर मुनिको मथुरा यात्राका उल्लेख मिलता है । उसी काल में समराशाहने शाही फरमान प्राप्तकर एक बड़े यात्री संघका संचालन किया था। उसी संघके साथ यात्रा करते हुए गुजरात के श्वेतांबर मुनि जिनप्रभ सूरि सं० 1385 के लगभग मथुरा पधारे थे । उन्होंने यहाँके जैन देवालयोंके दर्शन और जैन स्थलोंकी यात्रा करनेके साथ ही साथ व्रजके विविध तीर्थोंकी भी यात्रा की थी । उक्त यात्रा अनंतर जिनप्रभ सूरिने सं० 1388 में 'विविध तीर्थ कल्प' नामक एक बड़े ग्रंथ की रचना प्राकृत भाषा में की थी, उसमें उन्होंने जैन तीर्थोंका विशद वर्णन किया है । इस ग्रंथका एक भाग 'मथुरापुरी कल्प' में है, जिसमें मथुरा तीर्थसे संबंधित जैन अनुश्रुतियों का उल्लेख हुआ है। इसके साथ ही उसमें मथुरामंडल से संबंधित कुछ अन्य ज्ञातव्य बातें भी लिखी गई हैं। उनसे यहांकी तत्कालीन धार्मिक स्थितिपर अच्छा प्रकाश पड़ता है ।
कृष्ण-भक्तिके प्रचार और सुलतानोंकी नीतिका प्रभाव - जब व्रजमंडलके कृष्ण भक्ति का व्यापक प्रचार हुआ, तब यहाँके बहुसंख्यक जैनी जैनधर्मको छोड़कर कृष्ण-भक्तिके विविध संप्रदायोंके अनुयायी हो गये थे । नाभा जी कृत 'भक्तमाल' और वल्लभ संप्रदायी 'वार्ता' में ऐसे अनेक जैनियोंके नाम मिलते हैं । जैनधर्मकी उस परिवर्तित परिस्थिति में व्रजमंडलके जैन स्तूप-मंदिर, देवालय आदि उपेक्षित अवस्था में जीर्ण-शीर्ण होने लगे थे । फिर दिल्ली के तत्कालीन मुसलमान सुलतान अपने मज़हबी तास्सुबके कारण बारबार आक्रमण कर उन्हें क्षति पहुँचाया करते थे । सेठ समराशाह जैसे धनी व्यक्ति समय-समय पर उनकी मरम्मत कराते थे, किन्तु वे बार-बार क्षतिग्रस्त कर दिये जाते थे । इस प्रकार मुगल सम्राट् अकबर के शासनकालसे पहिले मथुरा तीर्थंका महत्त्व जैन धर्मको दृष्टिसे कम हो गया था, और वहाँके जैन देव स्थानोंकी स्थिति शोचनीय हो गयी थी ।
कृष्ण-भक्ति वातावरण में रचित जैन ग्रंथ - श्रीकृष्णके पुत्र प्रद्युम्न के संबंध में जैन मान्यताका सर्वप्रथम व्रजभाषा ग्रंथ सुधार अग्रवाल कृत 'प्रद्युम्न चरित' है । यह एक सुन्दर प्रबंध काव्य है 'ब्रजभाषा के अद्यावधि प्राप्त ग्रंथों में सबसे प्राचीन' होने के साथ ही साथ यह हिन्दी जैन ग्रंथके रूपमें भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । इसका रचना काल १४वीं शताब्दी है । इस ग्रंथके पश्चात् जो हिन्दी जैन रचनाएँ प्रकाश में आईं, उनमें से
१. 'व्रज भारती', वर्ष ११, अंक २ में प्रकाशित - ' मथुराके जैन स्तूपादिकी यात्रा ।'
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अधिकतर मुगल सम्राट अकबरके शासनकालकी, अथवा उसके बादकी हैं। उनमें भी अधिकांश अकबरकी राजधानी आगरा अथवा उसके निकटवर्ती स्थानोंमें रची गई थीं।
अकबर कालीन स्थिति-मुगल सम्राट अकबरका शासनकाल व्रजमंडलके लिये बड़ा हितकर और यहाँके धर्म-सम्प्रदायोंके लिये बड़ा सहायक सिद्ध हुआ था। उससे जैन धर्मावलम्बी भी प्रचुरतासे लाभान्वित हुए थे। उस कालके पहिले व्रजमंडलमें मथुरा और बटेश्वर ( प्राचीन शौरिपुर ) और उनके समीपस्थ ग्वालियर जैन धर्मके केन्द्र थे । अकबरके शासनकालमें उसकी राजधानी आगरा नगर जैनधर्मका नया और अत्यन्त शक्तिशाली केन्द्र बन गया था। मथुरा, बटेश्वर और ग्वालियरका तो धार्मिक एवं सांस्कृतिक महत्त्व था; किन्तु आगरा राजनैतिक कारणोंसे जैन केन्द्र बना था।
सम्राट अकबर सभी धर्म-सम्प्रदायोंके प्रति उदार थे। वे सबकी बातोंको ध्यानपूर्वक सुनते थे, और उनमेंसे उन्हें जो उपयोगी ज्ञात होतीं, उन्हें ग्रहण करते थे। वे जैनधर्मके मुनियोंको भी आमंत्रित कर उनका प्रवचन सुना करते। उन्होंने अन्य विद्वानोंके अतिरिक्त गुजरातके विख्यात श्वेतांबराचार्य हीरविजय सूरिको बड़े आदरपूर्वक फतेहपुर सीकरी बुलाया था, और वे प्रायः उनके धर्मोपदेश सुना करते थे। इस कारण मथुरा-आगरा आदि समस्त व्रजमंडलमें बसे हुए जैनियोंमें आत्म-गौरवका भाव जाग्रत हुआ था। वे मंदिरदेवालयोंके नव-निर्माण अथवा जीर्णोद्धारके लिये भी तब प्रयत्नशील होने लगे थे। आचार्य हीरविजय सूरि जी स्वयं मथुरा पधारे थे। उनकी यात्राका वर्णन 'हीर सौभाग्य काव्य' के १४वें सर्गमें हुआ था। उसमें लिखा है, सूरि जीने मथुरामें विहारकर वहां पार्श्वनाथ और जम्बूस्वामी के स्थलों तथा 527 स्तूपोंकी यात्रा की थी।
अकबरके शासनकालसे आगरा नगर जैनधर्मका प्रमुख साहित्यिक केन्द्र हो गया था। वहाँके अनेक विद्वानों, कवियों और लेखकोंने बहुसंख्यक ग्रंथोंकी रचना कर जैनधर्मकी साहित्यिक समृद्धि करनेके साथ . ही साथ व्रजभाषा साहित्यको भी गौरवान्वित किया था।
साह टोडर और मंत्रीश्वर कर्मचंद-अकबरके शासनकालमें वे दोनों प्रतिष्ठित जैन-भक्त मथुरा तीर्थकी यात्रा करने गये थे। साहू टोडर भटानिया ( जिला कोल, वर्तमान अलीगढ़ ) के निवासी गर्ग गोत्रीय अग्रवाल जैन पासा साहके पुत्र थे। वे अकबरी शासन के एक प्रतिष्ठित राजपुरुष होनेके साथ ही साथ धनाढ्य सेठ भी थे। उन्होंने प्रचुर धन लगाकर मथुरामंडलके भग्न जैन स्तूपों और मंदिरोंके जीर्णोद्धारका प्रशंसनीय कार्य किया था। वह धार्मिक कार्य सं० 1630 की ज्येष्ठ शुक्ल 12 बुधवारको पूर्ण हुआ था। उसी समय उन्होंने चतुर्विध संघको आमंत्रित कर मथुरामें एक जैन समारोहका भी आयोजन किया था। तीर्थ-पुनरुद्धारके साथ ही साथ उन्होंने मथुराके चौरासी क्षेत्र पर तपस्या कर निर्वाण प्राप्त करनेवाले कैवल्यज्ञानी जम्बूस्वामीके चरित्र ग्रंथोंकी रचनाका भी प्रबन्ध किया था। फलतः उनकी प्रेरणासे संस्कृत और व्रजभाषा हिन्दीमें जम्बूस्वामी चरित्र उस कालमें लिये गये थे। संस्कृत 'जम्बूस्वामी चरित्र' का निर्माण उस समयके विख्यात जैन विद्वान पांडे राजमल्लने सं० 1632 की चैत्र कृ० 8 को और व्रजभाषा छन्दोबद्ध ग्रंथकी रचना पांडे जिनदासने सं० 1642 में की थी। बीकानेरके राज्यमंत्री कर्मचन्द्रने भी मथुरा तीर्थकी यात्रा कर यहाँके कुछ चैत्योंका जीर्णोद्धार कराया था। उसका उल्लेख 'कर्मचन्द्र वंशोत्कीर्तन' काव्यमें हुआ है।
पं० बनारसीदासकी महत्त्वपूर्ण देन-पं० बनारसीदास जौनपुर निवासी श्रीमाली जैन थे। वे मुगल सम्राट् जहाँगीरके शासनकालमें आगरा आये थे, और फिर उसी नगरके स्थायी निवासी हो गये थे। वे गृहस्थ होते हए भी जैन दर्शन और अध्यात्मके अच्छे ज्ञाता, सुप्रसिद्ध साहित्यकार और क्रांतिकारी विद्वान
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थे। उन्होंने जैनधर्मके अन्तर्गत एक आध्यात्मिक पंथकी स्थापना की, और अनेक ग्रंथों की रचना की थी। उनके पंथको पहिले 'अध्यात्मी पंथ' अथवा 'बनारसी मत' कहा जाता था, बाद में वह 'तेरह पंथ' के नामसे प्रसिद्ध हुआ था। उस सुधारवादी मतके कारण उस काल के दिगम्बर सम्प्रदायी चैत्यवासी भट्टारकोंकी प्रतिष्ठामें पर्याप्त कमी हुई थी।
पं. बनारसोदास हिन्दीके जैन ग्रंथकारोंमें सर्वोपरि माने जाते हैं। उनकी ख्याति उनकी धार्मिक विद्वत्तासे भी अधिक उनके ग्रन्थोंके कारण है। उनकी रचनाओंमें 'नाटक समयसार' और 'अर्थ कथानक' अधिक प्रसिद्ध हैं। 'नाटक समयसार' अध्यात्म और वेदान्तकी एक महत्त्वपूर्ण रचना है। इसका प्रचार श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों सम्प्रदायोंमें है । 'अर्ध कथानक उनका आत्म-चरित्र है, जो उनके जीवनके प्रथम अर्ध भागसे संबंधित है। यह भी अपने विषयकी महत्त्वपूर्ण रचना है। उनकी दो अन्य रचनाएं 'बनारसी नाम माला' और 'बनारसी विलास हैं। ये सब ग्रंथ पद्यात्मक हैं। इनके अतिरिक्त उनकी एक गद्य रचना 'परमार्थ वचनिका' भी है। यह जैन साहित्यकी आरंभिक हिन्दी गद्य रचनाओंमेंसे है, अत: इसका भी अपना महत्त्व है।
औरंगजेबी शासनका दुष्परिणाम-मुगल सम्राट अकबर, जहाँगीर और शाहजहाँके शासनकालमें जैनधर्मकी जितनी उन्नति हुई थी, औरंगजेबके शासनमें उससे अधिक अवनति हो गयी थी। उस कालमें व्रजमंडलके गैर मुसलिम धर्म-सम्प्रदायोंके सभी देव-स्थान नष्ट कर दिये गये थे । उक्त धर्म-सम्प्रदायोंके अधिकांश आचार्य, संत, महात्मा, विद्वान् और गुणी-जन व्रजमंडल छोड़कर हिन्दू राज्योंमें आकर बस गये थे। उस काल में जैनधर्मकी स्थिति भी अत्यन्त शिथिल और प्रभावशून्य हो गयी थी। मथुरा के प्रसिद्ध जैनकेन्द्र कंकाली टीला और चौरासीमेंसे कंकाली टीला तो पहिले ही वीरान-सा था, फिर चौरासीका सिद्ध क्षेत्र भी महत्त्वशन्य हो गया। बटेश्वर और आगरा केन्द्रोंकी भी तब प्रतिष्ठा भंग हो गयी थी।
ककालकी स्थिति-औरंगजेबी शासनकालके बादसे अंग्रेजी राज्यकी स्थापना तक समस्त व्रजमंडलमैं जैनधर्मकी स्थिति बिगड़ी हुई रही थी। अंग्रेजी शासनकालमें मथुराके सेठों द्वारा जैनधर्मको बड़ा संरक्षण मिला था। इस घराने के प्रतिष्ठाता सेठ मनीराम दिगम्बर जैन श्रावक थे। वे पहिले ग्वालियर राज्यके दानाधिकारी श्रीगोकुलदास पारिखके एक साधारण मुनीम थे। जब पारिखजी अपने साथ करोड़ोंकी धर्मादा सम्पत्ति लेकर उससे वजमें मंदिरादिका निर्माण कराने सं० 18 °0 में मथुरा गये थे, तब मनीराम मनीम भी उनके साथ थे। पारिखजी अपनी मृत्युसे पहिले मनीरामजीके ज्येष्ठ पुत्र लक्ष्मीचन्दको अपना उत्तराधिकारी बना गये थे। उनके बाद मनीराम लक्ष्मीचन्द पारिखजीकी विपुल सम्पत्तिके स्वामी हुए । उन्होंने व्यापार द्वारा उस सम्पत्तिको खूब बढ़ाया और विविध धार्मिक कार्योंमें उसका सदुपयोग किया । उन्होंने मथुराके 'चौरासी' सिद्ध क्षेत्रका जीर्णोद्धार कर वहाँ जैन मन्दिरका निर्माण कराया था। उसमें उन्होंने अष्टम तीर्थंकर भगवान् चन्द्रप्रभकी मूर्ति प्रतिष्ठित कर दिगम्बर विधिके अनुसार उनकी पूजाकी यथोचित व्यवस्था की थी। बादमें सेठ लक्ष्मीचन्दके पुत्र रघुनाथदासने वहाँ द्वितीय तीर्थकर भगवान् अजितनाथकी संगमरमर प्रतिमाको प्रतिष्ठित किया था। मथुरामंडलके आधुनिक जैन देवालयोंमें यह मन्दिर सबसे अधिक प्रसिद्ध है । यहाँ पर कार्तिक कृ० 2 से कृ० 8 तक प्रति वर्ष एक बड़ा उत्सव होता है, जिसमें रथयात्राका भी आयोजन किया जाता है।
वर्तमान स्थिति-इस समय मथुरामें जैनधर्मका प्रसिद्ध केन्द्र चौरासी स्थित जम्बूस्वामीका सिद्ध क्षेत्र ही है। यहाँ पर 'अखिल भारतीय दिगम्बर जैन-संघ' का केन्द्रीय कार्यालय है। साप्ताहिक-पत्र 'जैन३२ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ
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संदेश' इसी स्थानसे प्रकाशित होता है। यहाँके 'ऋषभ ब्रह्मचर्याश्रम' में जैनधर्म और संस्कृत भाषाके साथ ही साथ वर्तमान प्रणालीकी शिक्षा दी जाती है। इस स्थानके 'सरस्वती भवन' में जैनधर्मके ग्रन्थोंका अच्छा संग्रह है।
व्रजमंडलमें जैनधर्मका सबसे बड़ा केन्द्र आगरा है। यहाँ पर मध्यकालसे ही जैन धर्मावलम्बियोंकी प्रचुर संख्या रही है। जैन-ग्रन्थकार तो अधिकतर आगराके ही हुए हैं। इस समय वहाँ जैनधर्मको अनेक संस्थायें हैं, जो उपयोगी कार्य कर रही हैं। वहाँका जैन कालेज ग्रन्थभंडार भी प्रसिद्ध है।
मथुराके कंकाली टीलाका जैनकेन्द्र, जो 'देव निर्मित स्तूप' तथा अन्य स्तूपों और मन्दिर-देवालयोंके कारण विगतकालमें इतना प्रसिद्ध रहा था, इस समय वीरान पड़ा हआ है। आश्चर्यकी बात यह है, जिस कालमें वह नष्ट हआ. उसके बादसे किसीने उसका पनरुद्धार कराने की ओर ध्यान नहीं । सेठोंने भी उसके लिये कुछ नहीं किया, जबकि उन्होंने 'चौरासी' के सिद्ध स्थलका पुनरुद्धार कराया था। वास्तविक बात यह है कि कई शताब्दियों तक उपेक्षित और जड़ पड़े रहने के कारण कंकाली टीलाको गौरवगाथाको लोग भूल गये थे। मथुराके सेठोंके उत्कर्ष-कालमें भी यही स्थिति थी। यदि उस समय उन्हें इस स्थलकी महत्ताका बोध होता, तो वे अपने विपुल साधनोंसे वहाँ बहुत कुछ कर सकते थे ।
___ अबकी बार मथुरामें श्रीमहावीर जयन्तीका जो समारोह हुआ था, उसकी अध्यक्षता करने के लिए मझे आमंत्रित किया गया यद्यपि मैं जैन धर्मावलम्बी नहीं है। मैंने उस अवसरका सदुपयोग कंकालीकी गौरव-गाथा सुनाने में किया। उपस्थित जनसमुदायने मेरी बात बड़े कौतूहलपूर्वक सुनी। उन्हें इस बातका विश्वास नहीं हो रहा था कि मथरामें किसी समय इतने महत्त्वका स्थल था। उत्सवकी समाप्तिके पश्चात् अनेक व्यक्तियोंने मुझसे पूछताछ की। जब मेरे बतलाये हुए ऐतिहासिक प्रमाणोंसे उन्हें विश्वास हो गया, तब वे उक्त स्थलका पुनरुद्धार करानेको व्यग्र होने लगे। उसी कालमें मुनि विद्यानन्दजी मथुरा पधारे थे। उनके समय इस चर्चाने और जोर पकड़ा। अब ऐसी स्थिति बन गई है कि निकट भविष्यमें इस पुरातन स्थलका पुनरुद्धार हो सकेगा।
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भारतीय नौसेना ऐतिहासिक सर्वेक्षण
श्री गायत्रीनाथ पंत समुद्रका आकर्षण अनादिकालसे मनुष्यको आकर्षित करता रहा है-प्रेरित करता रहा है, प्रारम्भमें मनोरंजन एवं उत्सुकतावश पर तत्पश्चात् यातायात, व्यापार, समुद्रमन्थन तथा युद्ध-संचालन हेतु । मानवकी अज्ञातको खोज निकालनेकी स्वाभाविक प्रवृत्तिसे सागर भी अछूता नहीं रहा संभवत: नदियोंके किनारे रहने के कारण मानवके आदि पुरुषने मछली पकड़ने, तैरने एवं नदी पार करने के लिये किसी लकड़ी के लट्टेका सहारा लिया होगा। आवश्यकताओं, सुरक्षाकी भावना एवं सांस्कृतिक विकासके कारण इस दिशामें भी सुधार हुए । भारतीय नौकाका भी एक विकासक्रम है-स्वयंमें एक इतिहास है।
लट्रेके बाद तरणीका युग आता है। भारतकी प्राचीनतम प्रागऐतिहासिक सैंधव सभ्यतामें हमें नौकाके दर्शन होते हैं। चूँकि इस सभ्यताका उद्गम स्थल एक महान् एवं व्यापारिक नदी (सिंघ) थी इसलिये निश्चय ही जिज्ञासु मानवने इस दिशामें नाना प्रकारके प्रयोग किये और व्यापारिक सुविधाके लिये कतिपय नावोंका आविष्कार किया। यहां एक मुहरमें हमें 'मकर' के आकारकी नौकाका अंकन मिलता है जिसका आधा अंश जलमग्न है। एक नाविक ऊपरी सिरेमें बैठकर दो चप्पुओंके माध्यमसे, इसे खे रहा है। सन् १९५९-६०के मध्य किये गये पुरातत्त्व उत्खननसे लोथल ( अहमदाबाद, गुजरात )में एक 'डाक्यार्ड' का पता चला है जिससे २५०० ई० पू० में होनेवाले जल व्यापारका स्पष्ट उल्लेख मिलता है । इस डाक्याईका स्वरूप 'आयताकार' प्रकारका है एवं इसका पूर्वी लगभग ७१० फीट लम्बा है। इसमें पूर्वकी ओर एक द्वार था जिसके माध्यमसे नावें आ सकती थीं।
वैदिक साहित्यके अवलोकनसे प्राचीन भारतीय श्रेष्ठ नौका परंपराके प्रमाण मिले हैं। उस समय सागरीय व्यापार भी प्रचलित था। ऋग्वेदमें समुद्रपर चलनेवाले जलयानोंका उल्लेख मिलता है। ऋग्वेद (१,११७ ) में वणित अविश्वनोंका उल्लेख, जिन्होंने 'पंखयुक्त जहाजों' द्वारा भुज्यकी रक्षा की थी, होनेसे डॉ. दीक्षिततरने तो 'वायु-जल-व्यापार' होनेकी भी घोषणा कर दी है पर यह अधिक भावुकतापूर्ण है 'शतपथ ब्राह्मण' में स्वर्गकी ओर प्रस्थान करनेवाले जहाजका उल्लेख है। उस युगकी अन्य साहित्यिक उपलब्धियोंमें बंगाल, सिंध एवं दक्षिण भारत में होनेवाले जल-व्यापारका विवरण मिलता है । 'युक्त कल्पतरु' जहाज निर्माण विषयक एक ऐतिहासिक ग्रंथ है जिसमें जहाजोंके स्वरूप, प्रकार, उपयोगके साथ-साथ निर्माणविधिका कलात्मक विवेचन है। इसमें जहाजोंको २० श्रेणियोंमें बाँटा गया है। सबसे लम्बा १७६ बालिस्त लम्बा, २० बालिस्त चौड़ा एवं १७ बालिस्त ऊँचा होता था, जबकि सबसे छोटेकी माप १६-४-४ बालिस्त दी गई है। जहाजोंके तीन प्रमुख प्रकार थे 'सर्वमन्दिर', 'मध्यमन्दिर' एवं 'अग्निमन्दिर' । अग्निमन्दिर एक युद्धक जहाज था जिसे केवल संग्राममें ही उपयोग किया जाता था जबकि प्रथम दोनों प्रकारोंका उपयोग जल-विहार, मछली पकड़ने एवं व्यापार आदिमें होता था। संभवतः ऐसे ही किसी जलयानमें प्रथम भारतीय नाविकने सागरको हिलोरोंको झंकृतकर प्रथम जल-युद्धका आह्वान किया होगा। ऐसे ही एक
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जहाजमें राजर्षि तुगुने अपने पुत्रको शत्रु पर आक्रमण करने हेतु भेजा था। और इसी प्रकारके पूर्णरूपेण सुसज्जित एवं शस्त्रोंसे युक्त एक जहाजमें पाण्डव-बन्धुओंने पलायन किया था ।
'सर्ववातसहां नावं यंत्रयुक्तां पताकिनीम् ।
शिवे भागीरथीतीरे नरैविश्रम्भिभिः कृताम् ।। ( महाभारत, आदिपर्व ) इसी महाकाव्यमें सहदेवकी समुद्री यात्रा एवं उसके द्वारा म्लेच्छोंसे कतिपय प्रायद्वीपोंके जीत लेनेका वर्णन है। एक बार निषाधराज गुहकने हजारों कैवर्त नवयुवकोंसे ५०० युद्धक जहाजोंको तैयार करने एवं भारतसे जलयुद्ध करनेका आह्वान किया था। इस तरह वैदिक युगके ये बिखरे उदाहरण इस बातके ज्वलन्त प्रमाण हैं कि वैदिक युगमें मानवने सागरकी अतल गहराइयों पर काफी हद तक नियंत्रण प्राप्त कर लिया था।
३२५ ई० पूर्व में जहाज-निर्माणकला काफी उन्नत अवस्थामें थी और इस समय भारत विदेशी राष्ट्रोंसे जल सम्पर्क स्थापित कर चुका था। स्वयं सिकन्दरको सिंध नदी पार करनेके लिये भारतीय कारीगरों द्वारा निर्मित नावोंका सहारा लेना पड़ा था। सिंध नदीको पार करनेके लिये सिकन्दर महान्ने नावोंका पुल भी तैयार करवाया था। यदि कहीं भारतीय पोरसने भी इसी प्रणालोको अपनाकर सिकन्दरको मँझधारमें रोक दिया होता तो संभवतः इतिहासकी दिशा ही बदल गई होगी।
मौर्ययुगमें नौसेनाका राष्ट्रीयकरण कर दिया गया था और यह राज्यका एकाधिकार बन गया था। प्लिनीके अनुसार इस समयका औसतन जहाज लगभग ७५ टन वजन का था। बढ़ते हुए जलव्यापार एवं संभावित नौ-युद्धोंके कारण ही इस समय एक पृथक् नौ-विभागकी स्थापना कर दी गई थी जिसका प्रधान 'नावाध्यक्ष' कहलाता था। मोनाहनके इस विचारका, कि 'नावाध्यक्ष' पूर्णरूपेण एक नागरिक-प्रशासनिक अधिकारी था, डॉ० राय चौधरीने तर्कपूर्ण खंडन किया है और यह मत प्रतिपादित किया है कि 'नावाध्यक्ष' के अनन्य कार्यों में एक कार्य हिमश्रिकाओं ( समुद्री डाकुओं) द्वारा राष्ट्रीय जलयानोंकी सुरक्षा भी थी। चाणक्यने अपने अर्थशास्त्रमें इन समुद्री डाकुओं एवं शत्रुओंके जहाजोंको ध्वस्त करने एवं उनके द्वारा अपने बन्दरगाहोंकी रक्षा करनेका जोरदार समर्थन किया है। जब हम अशोक महान्के लंका एवं अन्य प्रायद्वीपोंसे सम्बन्धके बारेमें उसके लेखोंमें पढ़ते हैं तब उसके आधीन एक विशाल नौ-सेना विभाग होने की स्वतः ही पुष्टि हो जाती है।
प्रारंभिक कलात्मक चित्रणमें सातवाहन नरेशोंके तत्त्वावधानमें निर्मित द्वितीय शती ई०पू०के सांचोके स्तूप हमारा ध्यान आकर्षित करते हैं। सांची स्तूपके पूर्वी एवं पश्चिम द्वार पर एक छोटी सी तरणीका अंकन है जिसके छोटे चप्प उस युगमें प्रचलित नौकाके परिचायक हैं। कन्हेरीकी मूर्तिकलामें भी हमें एक जहाजके दर्शन होते हैं जो बड़ी ही जीर्ण-शीर्ण अवस्थामें चित्रित है।
द्वितीय एवं तृतीय शती ई०के आन्ध्र नरेशोंके सिक्कोंमें हमें मस्तूल युक्त जहाजका उल्लेख मिलता है। यह जहाज अर्धचन्द्राकार है एवं इसमें दो मस्तूल लम्बाकार खड़े हैं। इसके चारों ओर जलराशि है एवं उसमें इसे खेनेवाले एक चप्पूका भी आभास मिलता है। इस युगके नरेश यत्र-श्रीने 'जहाज-प्रकार का एक सिक्का भी प्रचलित किया था जो निश्चय ही उस समयके आर्थिक जीवन में जलयानोंके योगदानकी ऐतिहासिक घोषणा है।
अजन्ताके चित्रकारोंके तत्कालीन भारतकी एक सुन्दरतम एवं हृदयग्राही झांकी प्रस्तुत की है और उनकी तीक्ष्ण दृष्टिसे ये नौकाएँ भी न बच सकी। अधिकांश रूपका इनका चित्रण गुहा नं० २के भित्ति
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चित्रों ( ५२२-६५० ई० )में हुआ है । इसमें एक जहाज काफी वेगयुक्त पानी में बह रहा है पर दूसरे स्थान पर 'मकर आकार'के एक भारी भरकम जहाजको दर्शाया गया है जिसमें विजय द्वारा किये गये लंका-अभियानके संदर्भमें अनन्य सिपाहियों, घड़सवारों एवं हाथियों को इसी जहाज पर सवार चित्रित किया गया है।
पल्लवयुगीन सिक्कों ( ७वीं शती ई० में भी दो-मस्तूल युक्त जहाजोंका प्रदर्शन है। उस समय महाबलीपुरम एक प्रमुख केन्द्र था। जहाजोंके मार्गदर्शन हेतू निर्मित एक प्रकाश स्तम्भके अवशेष आज भी विद्यमान है।
गुप्तकालमें नौसेनाकी महत्ता पूर्णरूपेण सिद्ध हो चुकी थी। समुद्रगुप्तके पास अनन्य जहाज थे। चन्द्रगुप्त विक्रमादित्यने नौ-शक्तिके द्वारा ही शकोंको परास्तकर अरब सागरसे बंगालकी खाड़ी तक अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया था।
चालुक्य नरेश पुलकेशिन द्वितीयने पुरीपर नौसैनिक आक्रमण किया था और इसके वैभवको धूल धूसरित कर दिया था। यही नहीं वरन् भारतीय नौकाओंकी धूम विदेशोंमें भी मची, बौद्धकालीन जातक कथाओंमें तो अनेक बार समुद्री जलयानोंका प्रसंग आता ही है और यह भी कि इन्हीं जहाजोंमें बैठकर हमारे पूर्वज वर्मा, दक्षिण पूर्व एशिया, श्री लंका, अफ्रीका तथा चीन तक पहुँचे थे। जावाके प्रसिद्ध बोरोबदरके मन्दिरमें भारतीय जहाजोंका बहुत ही सुन्दर अंकन हुआ है। डा० राधाकुमुद मुकर्जीने इन्हें तीन श्रेणियोंमें विभाजित किया है। प्रथम कोटिमें लम्बे एवं चौड़े, दूसरे में एकसे अधिक मस्तुलवाले तथा तीसरी कोटिमें वे जहाज आते हैं जिसमें केवल एक ही मस्तूल है साथ ही इनका अगला भाग कुछ मुड़ा हुआ होता है। इसी प्रकारका एक जहाज मदुराईके प्रसिद्ध मंदिरमें भी प्रदर्शित है। जावामें प्रचलित दन्त-कथाओंके अनुसार एक बार एक गुजरात नरेशने ६ बड़े एवं १०० छोटे जहाजोंमें सेना भरकर जावापर आक्रमण कर दिया एवं इसे विजित किया तथा एक मंदिरका निर्माण यहाँ करवाया जिसका नाम 'मेंदग कुमलांग' रखा गया । भारतीय सभ्यता एवं संस्कृतिका जावा, सुमात्रा, चम्पा, मलाया एवं कम्बोज आदिमें प्रसार करनेकी दिशामें भारतीय नौ बेड़ेने एक सराहनीय कार्य किया है।
बंगाल तो जल-पुत्र ही है । अति प्राचीनकालसे ही यहाँके लोग अपनी खाड़ीके रहस्यको समझने लगे थे। कालिदासके 'रघुवंश में नायक रघु द्वारा बंग प्रदेशपर किये गये सफल आक्रमणका उल्लेख किया है जिससे पता चलता है कि बंगवासियोंके पास नौसेना भी थी।।
वंगानुत्खाय तरसा नेता नौसाधनोधतान् । निचखान जयस्तम्भान् गत्वा स्रोतोन्तरेषु सः ।।
( रघुवंश ४, ३६ ) लेखोंमें ६ठी शती ई० में भी बन्दरगाहोंकी उपस्थितिका आभास मिलता है । ५३१ ई०के ताम्रपत्रीय लेखमें, जो धर्मादित्यका है, 'नवकेशनी' अथवा जहाज निर्माण करनेवाले कारखानों तथा बन्दरगाहका उल्लेख है।
पाल नरेशों द्वारा बंगला एवं बिहार में आधिपत्य स्थापित कर लेनेके कारण उस युगमें नौसेनाकी महत्ता बहुत बढ़ गई थी और यह उनकी नियमित सेनाका एक प्रमुख अंग बन गई थी। इस संदर्भमें श्री बी० के० मजूमदार द्वारा उद्धृत तीन ताम्रपत्रों का उल्लेख असंगत न होगा। धर्मपालके ताम्रलेखमें उल्लिखित है कि उसकी विजयवाहिनी नौसेना पाटलीपुत्रसे भागीरथीके तट तक पहुंची थी । दूसरा लेख वैदयदेवका है जो कमौलीसे प्राप्त हुआ है जिसमें कुमारपालके शासनकालमें उसके प्रिय नौसैनिक द्वारा दक्षिण बंगालपर
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विजयका वर्णन है। तीसरा हरबा लेख ५५४ ई० गौड़ों द्वारा स्थापित उस नो-परम्पराका वर्णन करता है जिसे बादमें पाल एवं सेन नरेशोंने अपनाया था। सेन कालमें सम्राट विजयसेन (१०९६-११५८ ई०)ने गंगा नदी तक विस्तृत जल-क्षेत्र पर अधिकार कर लिया था।
दक्षिण-भारतीय जलयानोंका विश्वसनीय सूत्र तामिल साहित्य है । इनमें चोलकालीन प्रकाश स्तम्भ, उनकी निर्माणकला एवं उनमेंसे निकलनेवाले मार्ग दर्शक प्रकाशका सुन्दर विवरण है। चोलकालीन जहाज केवल तटों तक सीमित न रहे वरन उन्होंने बंगालकी खाडीको भी पार किया। १०वीं शतीके अन्त तक तो सारे दक्षिण भारतमें चोल नरेशोंकी धाक जम गई। राजेन्द्र महानने तो अपनी विजय शृंखलाका प्रारम्भ ही ९५० ई०में चेर नौबेड़ेको हराकर किया था। उसके पुत्र राजेन्द्र चोलदेव (९७४-१०१३ ई०)ने अनेकों प्रायद्वीपोंपर अधिकार किया था। श्री लंका भी तब उसके साम्राज्यमें सम्मिलित था । तिरुमलाई लेखके अनुसार राजेन्द्र चोलदेवने कदरम नरेशके जहाजोंको महासागर में डुबोकर उसपर विजय प्राप्त की थी।
सिंध प्रदेशने मध्यकालीन युगमें अपनी नौसैनिक प्रभुता खो दी थी। यहाँके शासक ब्राह्मण छाचके पास बहुत ही कमजोर बेड़ा था। यही कारण था कि उसके राज्यमें हमेशा समुद्री डाकुओंका भय बना रहता था।
अरबोंने भारत आक्रमणके समय अपना नौबेड़ाका भी प्रयोग किया था। ७१२ ई० में मुहम्मद बिन कासिमने थानाके निकट देवलके बन्दरगाहमें प्रवेश किया और नेरुनको रौंद डाला। तत्पश्चात् उसने नावोंका पुल बनाकर सिंध नदीको पार किया एवं अन्ततोगत्वा सम्पूर्ण सिंध प्रदेश पर अपना अधिकार कर लिया। ग्यारहवीं शतीमें सूल्तान महमदने अपना १७वां एवं अन्तिम हमला जाटोंके विरुद्ध किया था। यह एक प्रसिद्ध जल-युद्ध था। इस समय सुल्तान महमूद गजनबीने १४०० जंगी नावोंका निर्माण कराया था जिनमें प्रत्येकके आगे लोहेकी भारी कीलें लगी हुई थीं। जाटोंने ४,००० नावोंसे सुल्तानका मुकाबला किया पर सुल्तानके नावोंके समक्ष जानेवाली हर जाट नाव लोहेकी कीलोंसे टकराकर नष्ट हो गई। जाटोंकी बड़ी भयंकर पराजय हुई।
तेरहवीं शतीकी महत्त्वपूर्ण -जलघटना गुलाम वंशके सुल्तान बल्बन (१२६६-८६ ई०)का बंगालके तत्कालीन गवर्नर तुगरिल खां पर किया गया आक्रमण है। एक बड़ी भारी फौजके साथ सुल्तानने सरयू नदी पार की। तुगरिलकी हत्या कर दी गई, उसके बेड़ेको नष्ट कर दिया गया एवं उसके सैनिकोंको लखनौतीके बाजार में सामूहिक रूपसे फांसी दे दी गई । यह घटना 'लखनौती का हत्या कांड' के नामसे प्रसिद्ध है ।
चौदहवीं शतीके भारतमें जहाजोंकी मरम्मत, निर्माण, रखरखाव आदिका कार्य जोरोंपर था । मार्कोपोलोने इस कलामें भारतीय कारीगरोंकी कुशलताकी भूरि-भूरि प्रशंसा की है। उसने यहाँ पर उस समय प्रचलित जहाजोंके प्रकारोंका भी उल्लेख किया है । सन १३५३ एवं १३६० में सुल्तान फिरोजशाहने लखनौती पर आक्रमण किया था। उसका तीसरा जल-युद्ध १३७२में थट्टाके विरुद्ध हुआ। इसी शतीमें मंगोल हमलावर तैमर लंगने १३८८में सिंध नदीको नाबोंके पल द्वारा ही पार किया था। उसे गंगा नदीपर अनेक बार देशी राजाओंसे युद्ध करना पड़ा था।
___नौ-सेनाके इतिहासमें गुजरातका भी प्रमुख योग रहा। अति प्राचीन कालसे यह सामुद्रिक व्यापारके लिये अच्छे बन्दरगाह प्रदान करता आया है। सन् १५२१ ई० में गुजरात नरेशके एडमिरलने पुर्तगाली जहाजोंपर आक्रमण किया था और उसके एक जहाजको जल-समाधि दिला दी थी। पर इस दिशामें सबसे अधिक सामर्थ्यवान नरेश महमूद बर्घारा (१४५९-१५११) था। उसका नौ बेड़ा पूर्ण रूपेण अस्त्र शस्त्रोंसे सज्जित था।
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सने १५०७में उसने तुर्की सेनाकी मददसे पुर्तगालियोंपर आक्रमण किया था। इसमें मुस्लिम सेनाने विजयश्री प्राप्त की और उन्होंने बम्बईके दक्षिणमें छम्बके निकट पुर्तगालियोंके कतिपय बहुमूल्य वस्तुओंसे लदे जहाजोंको डुबो दिया था। पर यह विजय स्थायी न हो सकी। दो वर्षके पश्चात् ही सन् १५०९में काठियावाड़के ड्यू स्थान पर पुनः जल-युद्ध हुआ और पुर्तगालियोंने न केवल अपनी हारका बदला लिया वरन् मुस्लिम जल सेनाकी कमर ही तोड़ दी।
मुगल-कालमें सभी दिशाओंमें क्रान्तिकारी परिवर्तन हए। जल सेनाके महत्त्वको भी पहचाना गया। मुगल संस्थापक बाबर स्वयं एक प्रसिद्ध तैराक था और भारतकी कई नदियां उसने तैरकर पार की थीं। सन् १५२८में बाबरको कन्नौजके निकट गंगा तट पर युद्ध करना पड़ा था जिसमें उसने अपने शत्रुके ४० नोंको पकड़ लिया था। 'बाबर नामा' एक सुन्दर चित्रमें बाबर द्वारा एक घडियालके शिकार-दृश्यमें
नावोंका कलात्मक अंकन है । बाबरकी कुछ प्रसिद्ध नावों के नाम 'असायश', 'आरायश', 'श्रुश्रं गुंजायश' एवं 'फरमायश' थे।
अकबरके समय तो मीर बेलेरीके आधीन परा जल सेना विभाग ही था। इस समय कई प्रकारके जहाज थे एवं जहाज निर्माणके प्रमुख केन्द्र थे बंगाल, काश्मीर, इलाहाबाद एवं लाहौर । प्रत्येक जहाजमें १२ कर्मचारी होते थे जिनके प्रधानको 'नारवोदा' कहा जाता था। ३ जन, १५७४को किये गये पटना पर, दाऊन खांके विरुद्ध, आक्रमणमें अकबरने जिन जहाजोंका प्रयोग किया था उनमें हाथी, घोड़े एवं अन्य कार्यालयों तथा कर्मचारियोंके रख-रखावकी परी व्यवस्था थी। सन १५८०में राजा टोडरमलको गुजरातके विरुद्ध अभियानके लिये १,००० जहाजों-नावोंका लश्कर लेकर भेजा गया था। सन १५९० में खाने सामानने थट्टाके जानी बेगको एक करारी हार दी थी। इसी वर्गमें सन् १६०४में मानसिंहके नेतृत्वमें श्रीपुरके नरेश केदारराय के विरुद्ध, किया गया जल-युद्ध भी आता था जिसमें मानसिंहने १०० जंगी जहाजोंका प्रयोग किया था।
अफगानों एवं मगोंके निरन्तर आक्रमणोंके भयसे जहाँगीरको अपना 'नौवारा' ( नौविभाग) पुनः संगठित करना पड़ा। उसने १६२३में इस्लाम खांके नेतत्वमें आसामके उन विद्रोहियोंके विरुद्ध एक जहाजी बेड़ा भेजा जिन्होंने बंगाल तक अधिकार कर लिया था। इसमें लगभग ४,००० आसामियोंका वध कर दिया गया एवं उनकी १५ नावें मुगलों द्वारा छीन ली गईं। जल सेनाकी सबसे अधिक आवश्यकता शाहजहाँने अनुभव की। पुर्तगालियोंके निरन्तर हमले मुगल-सम्राटके लिये एक भारी सिर दर्द बन गया था। उनकी धृष्टता इतनी बढ़ गई कि वे मुगल सेनानियोंको बन्दी बनाकर उन्हें दासों की भाँति बेचने लगे। एक बार उन्होंने बेगम मुमताज महलकी दो अंगरक्षिकाओंको भी बन्दी बना लिया। शाहजहाँ इसे अधिक सहन नहीं कर सका । उसने कासिम खां को पुर्तगालियोंके समूल नाश करनेका भार सौंपा । २४ जून, १६३२को हुगली पर घेरा डाल दिया गया। यह तीन महीनेसे अधिक समय तक चलता रहा। १० हजारसे अधिक पुर्तगाली मारे गये एवं ४,००० से अधिक बन्दी बना लिये गये ।
जलयुद्धोंकी कहानी औरंगजेबके कालमें भी दुहराई गई। सन् १६६२ में मुस्लिम फौजोंने मीरजमलाके नेतृत्वमें कूच-विहारके नरेशके ३२३ जलयानोंका सफलतापूर्वक सामना किया था और सन् १६६४ में तो शाइस्ताखांने मुगल नौ-सेनाको कई जंगी जहाजोंसे लैस कर दिया था। औरंगजेबकी सबसे प्रसिद्ध टक्कर तत्कालीन विश्वकी सबसे महती जलशक्ति अंग्रेजी नौ-सेनासे हई। शाहजहाँने यद्यपि पुर्तगालियोंके विरुद्ध कार्यवाही की पर वह अंग्रेजोंके प्रति कृपालु था और उसने उन्हें १६५०-५१ में हगली और कासिम-बाजारमें कारखाने बनानेकी आज्ञा दे दी थी। इसी समय ईस्ट इंडिया कम्पनीने चार्ल्स द्वितीयसे बम्बईका द्वीप
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६० पौंड वार्षिक किराये पर ले लिया था। पर उनकी बढ़ती हुई उच्छखलताओंको देखकर सन् १६८५ में तत्कालीन बंगालके राज्यपाल शाइस्ताखांने अंग्रेजों पर स्थानीय रूपसे टैक्स लगाकर उनकी गतिविधियोंको नियंत्रित करना चाहा । कम्पनीने खुले रूपसे औरंगजेबकी सत्ताकी उपेक्षा की फलस्वरूप मुगल सम्राट् एवं अंग्रेजोंके बीच अर्द्ध-सरकारी रूपसे संघर्ष छिड़ गया । कम्पनीकी मददके लिये इंग्लैंडके सम्राट जेम्स द्वितीय अनेकों जंगी जहाज भेज दिये। इन जहाजोंने चटगाँव पर अधिकार कर लिया। औरंगजेबने कुटनीतिसे काम लिया और उसने सूरत, मसौलीपट्टम एवं हगलीकी अंग्रेजी फैक्ट्रियों पर कब्जा कर लिया। अंग्रेजोंके होश ठिकाने आ गये। १६८८में दोनोंमें संधि हो गई अधिकांश तट मुगलों के आधीन हो गये। अंग्रेजोंको बंगालमें एक बस्ती बनानेकी आज्ञा दे दी गई। यह छोटी सी बस्ती बादमें आधुनिक कलकत्ता नगर बन गई।
मराठोंके समय भी जल-सेना उपेक्षित न थी। सन् १६४० में शाहजी भोंसलेने पुर्तगालियोंके विरुद्ध सफल जल-युद्ध किया था। शिवाजीके सामुद्रिक अभियानोंने अंग्रेजों एवं पुर्तगालियोंकी नींद हराम कर दी थी। उन्होंने इन विदेशियोंके अनेकों जहाजोंको लूटा एवं ध्वस्त कर दिया था। शिवाजीने एक अच्छे एवं बड़े समुद्री बेड़ेका निर्माण कराया जो कोलाबामें रहा करता था। इसीसे उन्होंने जंजीराके निवासी अबीसीनियाके समुद्री लुटेरों को रोका एवं धनसे भरे मुगलोंके जहाज भी लूटे थे ।
आंग्रेकी कहानी वस्तुतः जल अभियानोंकी कहानी है। १६९४से १७५० तक आंग्रेने मालाबारसे त्रावनकोर तक अपना एकछत्र जल साम्राज्य स्थापित कर लिया था। सन् १६९८में कान्होजी आंग्रेने 'दरियासारंग'की उपाधि धारण की एवं उसे मरहठा जल सेनापति बनाया गया। सन् १७०७ एवं १७१२में दो बार बम्बईपर आक्रमण किया एवं १७१० में खंडगिरिपर अधिकार कर लिया। १७९० में अंग्रेजी जल-सेनाने कान्होजीके जहाजोंपर भारी बमबारी की एवं उसके जहाजी बेड़ेको काफी नुकसान पहँचाया पर उसने शीघ्र ही क्षतिपति कर ली। सन् १७२० में अंग्रेजों एवं पुर्तगालियोंने एक साथ मिलकर आंग्रेपर आक्रमण किया एवं विजय-वर्ग नदीपर स्थित १६ मरहठा जहाजोंको आग लगा दी गई। कान्हौजीने फिर भी साहस नहीं छोड़ा। १७२२में पुनः सम्मिलित प्रयास किया गया और कोलाबाके प्रसिद्ध मरहठा अड्डेपर आक्रमण किया। विरोधमें १७२६में कान्हौजीने बहुमूल्य वस्तुओंसे लदे हुए प्रसिद्ध अंग्रेजी जहाज 'डर्बी'को अपने कब्जेमें ले
साथ ही अनेकों पर्तगाली एवं डच जहाज भी। उस समय केवल ईस्ट इंडिया कम्पनीको अपने तटीय व्यापार की, आंग्रेसे, रक्षा करने में ५० हजार पौण्ड प्रति वर्ष व्यय करने पड़ते थे । कान्होजीकी मृत्युके पश्चात एक बार फिर १७५४ में उसके उत्तराधिकारी तुलाजी आंग्रेके हाथों डच जहाजी बेड़ेको करारी हार खानी पड़ी।
पुर्तगाली हमेशा ही भारतकी समृद्धिको ललचाई आँखोंसे देखते रहे हैं । राजकुमार हेनरीने, जो एक प्रसिद्ध नाविक था, अपना सारा जीवन पुर्तगालसे भारतको होनेवाले सीधे जलमार्गके खोजने में ही व्यतीत कर दिया। उसकी मृत्युके पश्चात् उसके साहसी नाविकोंने यह प्रयास जारी रखा और २० मई सन् १४९८को वास्कोडिगामा सफल हो ही गया और कालीकट पहुँच गया। सन् १५००में पुर्तगालियोंने पेड्रो अलवारिस कैबालके नेतृत्वमें एक बड़ा जहाजी बेड़ा भेजा जिसने भारत के एक अंशमें पुर्तगालियोंका आधिपत्य किया एवं उनके लिये बस्ती बनाई । अलमेड़ा एवं अलबुकर्कके समय भारतमें पुर्तगाली जहाजी बेड़ा काफी सक्रिय रहा पर १६१२ ई० में अंग्रेजोंने पुर्तगालियोंको एक भयंकर जल-पराजय दी एवं सुरतपर अधिकार कर लिया। १६१५में अंग्रेजोंने पुनः पुर्तगालियोंको हराया एवं आरमिजपर अधिकार किया । १६२२ ई० में अंग्रेजोंकी
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पुर्तगालियोंपर निर्णायक विजय हई। इसके पश्चात् औरंगजेबकी मृत्युके आधी शताब्दी बाद ही जब बंगालपर भी अंग्रेजोंका अधिकार हो गया तब जहाजरानीके अधिष्ठाता अंग्रेजोंकी सामरिक शक्तिके आगे समस्त भारतने घुट ने टेक दिये और धीरे-धीरे सारा भारत लाल हो गया।
अंग्रेजोंके आधीन जहाजरानीमें विशेष प्रगति हुई। भारत में अंग्रेजी जलसेनाकी कहानीका प्रारम्भ सन १६१३ ई०से होता है। जबकि कम्पनीकी व्यापारिक रक्षा एवं पुर्तगाली तथा समुद्री डाकुओंके भयसे एक 'स्ववाड्रन' की स्थापना की गई थी। सन् १६१५में इसे स्थायी कर दिया गया और कुछ ही समय बाद 'बम्बई मेरीन' के नामसे बम्बईमें जहाज निर्माण कारखाना भी स्थापित कर दिया गया और उसका निदेशक श्री डब्ल्यू पेटको बनाया गया। इसी समय सूरत के डाक्यार्डमें फेमजी तथा जमशेदजीके नेतृत्वमें १०० टन वजनके दो जहाज निर्मित हुए। १९वीं शतीके आरम्भ तक इन पारसी परिवारोंने अंग्रेजी सरकारके लिये केवल सूरतमें ही ९ व्यापारिक, ७ फ्रिगेट एवं ६ अन्य छोटे जहाज बनाये थे। १७८०में मैसूर नरेश हैदर अलीके आक्रमणोंसे बंगालके तटकी सुरक्षा खतरे में पड़ गई अतः सिलहट, चिटगांव एवं ढाकामें जहाज निर्माणके कारखाने खोले गये । पर इस क्षेत्र में सबसे अधिक ख्याति अजित की कलकत्ताने। १७८१से १८००के बीच कलकत्तामें ३५ जहाजोंका निर्माण हुआ और इसके पश्चात् प्रति वर्ष लगभग २० जहाज निर्मित होते रहे।
ईस्ट इंडिया कम्पनीके इस जहाजी बेड़ेने प्रथम एवं द्वितीय वर्मा युद्ध तथा प्रथम चीनी युद्ध में सक्रिय भाग लिया और लाल सागर, पशियाकी खाड़ी एवं पूर्वी अफ्रीकाके किनारों तक टोह लगाई। १८४०के पश्वात् कम्पनीकी जहाजरानीका पतन प्रारम्भ हो गया और अप्रैल १८६३में यह पूर्णरूपेण बन्द कर दिया गया जब भारतीय शासन ब्रिटिश सम्राट् द्वारा संचालित होने लगा। इस युगके प्रमुख जहाज प्रकारोंमें 'ग्रेब' ( तीन पतवारवाले नोकीले जहाज ) "पिनासी' या 'यच' ( एक मस्तूलवाला पर कई कमरोंमें विभाजित ) 'पत्तोआ' ( एक मस्तूलवाला पर कई तख्तियोंपर निर्मित ) आदि थे। इनके अतिरिक्त 'बौंगिल्स, 'डोनी', ब्रिक' आदि छोटे जहाज भी थे।
प्रारम्भमें नो बेड़ा समुद्र के ऊपरी तल तक लड़ने में ही सीमित था। प्रथम विश्वयुद्धने अस्त्र-शस्त्रकी दिशामें व्यापक प्रेरणा दी। फलस्वरूप प्रत्येक क्षेत्रमें शोध किये गये एवं भयानक अस्त्रोंकी रचना की गई। इसी समय पनडुब्बियोंकी खोज हुई जिसने नौ बेड़ेके इतिहासमें क्रान्ति ला दी। आक्रमण एवं रक्षात्मक दोनों दृष्टिकोणोंसे इसका महत्व बहुत था। पनडुब्बीकी कल्पना अठारहवीं शतीके आरम्भमें डा० एडमन्ड हेलीने की थी जो अपने साथ ५ आदमियोंको ७० फीट पानीके नीचे ले गये थे और जहाँ वे १० मिनट तक रहे थे। इस कार्यमें प्रयुक्त पहली मशीन 'कार्नोलियस डेबेल'ने ईजाद की जिसने जेम्स प्रथमको १५ फीट पानीके नीचे विहार करवाया था। पानीके अन्दर आक्रमणको संभावनाको सबसे पहले 'डेविड बुशनल'ने खोजा जिसने 'टटिल' नामक मशीन तैयार की पर आधुनिक पनडुब्बियोंके स्वरूपकी रचनाका समस्त श्रेय 'राबर्ट' फुल्टन' को है।
साधारणतया ये पनडुब्बियां डीजल या बैटरीसे चलती है पर अब अणुचालित पनडुब्बियोंका भी व्यापक रूपसे प्रयोग होने लगा है। यह पानीके ऊपर एवं काफी नीचे तैर सकती हैं, एक स्थानपर स्थिर रह सकती हैं एवं पुनः सतहपर वापस आ सकती हैं। इनमें ऐसे आधुनिकतम यन्त्र लगे हैं कि रातमें भी ये बेरोकटोक चल सकती हैं, पानीके अन्दरसे ही सतहपर चलनेवाले जहाजोंको नष्ट कर सकती हैं, दूरसे ही शत्रुके बन्दरगाहोंको ध्वस्त कर सकती हैं एवं ऊपर उड़नेवाले गगनविहारी वायुयानोंको हमेशाके लिये जलसमाधि दिला सकती हैं। यद्यपि अब इन्हें नष्ट करनेके लिये 'टारपीडो' एवं 'ऐन्टी सबमेरिन'का भी प्रयोग हो गया है पर विश्वके लगभग तीस लाख वर्गमीलमें विस्तृत जल क्षेत्रकी अतल गहराईसे एक पनडुब्बीको
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ढूंढ़ निकालना उतना ही दुष्कर है कितना अनाजके ढेरसे खोई हुई एक सुई। अब सतहके ऊपर चलनेवाले भारी भरकम एवं पूर्णरूपेण युद्धास्त्रोंसे सज्जित जलयानों के लिए निरन्तर खतरा बना हुआ है। कोई भी पनडब्बी, किसी भी समय एवं किसी भी दिशासे इनपर आक्रमण कर सकती है और जलमग्न होनेपर विवश कर सकती है।
द्वितीय विश्वयुद्ध के पूर्व नौबेड़ेका मुख्य साधन 'युद्धपोत' था। इसकी रचना इतनी सुदृढ़ थी कि यह एक किलेकी भांति था। इसमें प्रहारके लिये शक्तिशाली तोपें एवं 'तारपीडो' लगे थे। पनडुब्बी एवं विमानके आक्रमणोंसे सुरक्षाके लिये इसके साथ 'फ्रिगेट' 'डेस्ट्रायर' (ध्वंसक) एवं क्रसर होते थे जो छोटे होनेके कारण अधिक गतिशील थे । ब्रिटेनके दो विशालकाय तोप 'प्रिंस आफ वेल्स' एवं 'रिपल्स' जिन्हें विगत यद्ध में सिंगापुर भेजा गया था इन्हीं उपकरणोंके अभावमें जापानी विमानोंका शिकार बन ग प्रयुक्त तोपें एवं हथियार निष्क्रिय रहे ।
यद्धके लिये प्रयोग किये जानेवाले नोपोतोंके निर्माणके बीच सन्तुलन रखना आवश्यक है। उदाहरणार्थ तीन-चार हजार टन वजनके एक जहाजकी यदि सुरक्षामें ही ध्यान दिया जाय तो वह क्षतिग्रस्त होनेसे तो बच जायेगा पर शत्रके जहाजोंको क्षति पहुँचाने में असमर्थ रहेगा इसके विपरीत यदि रक्षा उपकरण नहीं है तो संहार शक्ति प्रबल होने पर भी संभव है शत्रुका पहला गोला ही उसे नष्ट कर दे अतः सन्तुलन नितान्त आवश्यक है।
जल युद्ध प्रायः समान वर्गवाले नौपोतोंके मध्य होता है । युद्धपोत युद्धपोतसे, क्रूसर-क्रूसरसे एवं अन्य वर्गोंके नौपोत अपने समकक्ष नौपोतोंसे टकराते हैं। जहाँ ऐसे सादृश्यका अभाव होता है वहाँ 'क्रूसर' जैसे दो और तीन जहाज मिलकर एक युद्धपोतका मुकाबला करते हैं। इसका कारण स्पष्ट है एक युद्धपोत एक
से अधिक वजनका विस्फोटक गोला प्रायः ७० मीलकी दूरी तक फेंक सकता है और क्रसर उससे कम दूरी तक फेंक सकता है और 'ड्रेस्ट्रायर' एवं 'फ्रिगेट' तो केवल ५० पौंडका गोला ७ मील तक ही फेंक सकते हैं। यदि कोई 'डेस्ट्रायर' किसी 'युद्धपोत'से भिड़ जाये तो 'डेस्ट्रायर' की मारसे पूर्व ही वह युद्धपोत द्वारा विनष्ट कर दिया जायेगा। यही कारण है कि नौसैनिक युद्ध में जहाज अपने वर्गके पोतोंसे ही भिड़ते हैं।
वर्तमान युगमें नौसैनिक युद्धका स्वरूप पूर्णरूपेण बदल गया है। अब सुदृढ़ता एवं आत्मरक्षाकी क्षमता घटाये बगैर तेज पनडुब्बियों द्वारा आक्रमणको सहन करनेकी क्षमताको बढ़ाना अनिवार्य हो गया है। नौ बेड़ेकी छोटी 'यूनिटोंने अपने ऊपर 'पनडुब्बी ध्वंसक' तथा 'विभान ध्वंसक'का काम भी ले लिया है। यह काम "फ्रिगेट' करते हैं जो शत्रुकी पनडुब्बियोंसे अपनी रक्षा करते हैं। समुद्री बन्दरगाहों एवं शकी तटवर्ती सेनाके बीच संकट उत्पन्न करनेके लिये 'सर' नामक जलयानोंका प्रयोग होता है। पर नौबेडेकी कहानीका अन्तिम चरण 'विमान वाहक' है।
अब स्वतंत्र भारतीय सरकार भी नौसेनाके महत्त्वको समझने लगी है । २६ जनवरी, सन् १९५० में गणतन्त्रकी घोषणाके साथ ही हमारी 'नौसेना'का भारतीयकरण कर दिया गया एवं उसमें से 'रायल' शब्द हटाकर इसे 'भारतीय नौसेनाके नामसे सम्बोधित किया गया। २७ मई, १९५१ में तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ० राजेन्द्र प्रसादने सशस्त्र सेनाके कमाण्डरके रूपमें नौसेनाको राष्ट्रपतिकी ध्वजा प्रदान की। सबसे पहले सन् १९४८ में ब्रिटेनसे ७१३० टन वजनका एक युद्धपोत 'एच० एम० एस० एचलिस' मंगाया गया जिसका नाम बदल कर 'आइ० एन० एस० देहली' रखा गया। इस जहाजने पिछले युद्ध में 'लिट' नदी पर काफी
हा हा
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सराहीय काम किया था। इसके पश्चात् भारतीय सरकारने तीन विध्वंसक जहाज प्राप्त किये इनके नाम 'सैदरहम', 'रिडाउट' और 'ऐडरबाट' को बदलकर क्रमशः 'राजपूत', रणजीत ‘और राणा' रखे गये। इसके साथ ही हन्ट श्रेणीके अन्य तीन विध्वंसक जहाज रायल नेवीसे खरीदे गये जिनके नाम गोदावरी', 'गोमती' और 'गंगा' नामक नदियोंके नाम पर रखे गये।
भारतीय नौबेड़ेकी आधनिकीकरणकी दिशामें विविध प्रकारके नवीन जहाज भी मँगवाये गये। इसमें कैयन, फ्रिगेट और सुरंग सफा करनेवाले जहाज थे। १९५७ के अन्तिम दिनोंमें 'कालोनी श्रेणीका युद्धपोत' आई० एन० एस० मैसूर शामिल हुआ । ८७०० टन वजनके इस जहाजका पूर्ववर्ती नाम एच० एम० एस० नाइजीरिया था। हमारे पास भारी सामानों, ट्रैक्टरों, बुल्डोजरों तथा अन्य बृहदाकार मशीनोंको एक स्थानसे दूसरी जगह ले जानेकी समस्याका समाधान 'आई० एन० एस० मगर' के द्वारा हुआ। इस जहाजने द्वितीय विश्वयुद्ध में भी सफलतापूर्वक प्रदर्शन किया था। यह अपने तरहका भारतमें अकेला 'लीण्डग शिप टैक' नामक जहाज है।
सबसे अन्त में भारतीय बेड़े में सम्मिलित होनेवाली विख्यात जहाज आई० एन० एस० विक्रान्त है। यह २०,००० टन वजनका 'विमानवाहक' जहाज है और इसका पूर्ववर्ती नाम 'एच० एम० एस० हरकूलिस' था। मार्च, १९६१ में इसे भारतीय नौसेनाने इंग्लैंडमें बुक कराया था जो ३ नवम्बर, १९६१ को बम्बई पहुँचा। यह 'मैजिस्टिक' श्रेणीका 'विमानवाहक' है और इसे पूर्णरूपेण आधुनिकतम शस्त्रास्त्रोंसे लेस किया गया है। इस विमानमें सी० हाक 'जेट लड़ाकू विमान', बेक्वेट एलिजे' नामक टोह लगानेवाला विमान और सुरंग भेदी विमान है । यह भारतीय नौसेनाका 'फ्लेगशिप' है।
अब जहाज निर्माणको दिशामें भी भारत आत्मनिर्भर होने के लिये सचेष्ट है । पूनासे कुछ दूर स्थित खड़गवासलामें स्थित राष्ट्रीय प्रतिरक्षा एकेडमीका १९४९ में पुनर्गठन किया गया जहाँ सेनाके तीनों अंगोंके भावी अफसरोंको प्रशिक्षण दिया जाता है। इसके साथ ही आई० एन० एस० शिवाजी लोनावाला ( पूनाके निकट ) में मेकेनिक प्रशिक्षण संस्थान तथा आई० एन० एस बलसुरा ( इलेक्ट्रिक स्कूल, जामनगर ) आदि में भी देशकी आवश्यकता पूरी करने में संलग्न है। इस समय कोचीनका केन्द्र सबसे बड़ा है जहाँ सभी तरहकी ट्रेनिंग की जाती है। यह केन्द्र आधुनिकतम साज सामानोंसे सुसज्जित है । अब यहाँ कामनवेल्थ तथा अन्य विदेशी राष्ट्रोंके छात्र भी ट्रेनिंग लेने आते हैं।
अब बन्दरगाहों एवं डाकयार्डों पर भी सुधार किया जा रहा है। बम्बई डाकयार्डको काफी आधुनिकतम बनाया गया है। अब यहाँ 'क्रसर एवं फ्रिगेट' के जाने की भी व्यवस्था है। मई, १९५३ में कोचीनमें 'शोर बेस्ड फ्लीट रिक्वायरमेन्ट यूनिट' स्थापित की गई थी जिसका भारतीय नाम 'आई० एन० एस० गरुड़' रखा गया है। यह युनिट बन्दरगाहोंकी समस्याओंका अध्ययन करता है। प्रारंभमें उसके पास 'सी लेन्ड' एवं 'फ्रीफ्लाई' नामक एयरक्राफ्ट ही थे पर अब इसमें वैम्पायर जेट भी शामिल कर लिये गये हैं ताकि नौसेना संबंधित हवाई ट्रेनिंग भी दी जा सके। कोचीनमें कतिपय अन्य एयर ट्रेनिंग स्कूल भी खोले गये हैं साथ ही जल-नभकी बढ़ती हुई आवश्यकताओंको पूरा करनेके लिये दक्षिण भारतके कोयम्बटूर नामक स्थान में 'आई० एन० एस० हंस' नामक एक एयर स्टेशन स्थापित किया गया था जिसे अब गोवामें स्थानान्तरित कर दिया गया है।
इस योजनाको, नौसेनिक जहाज भारतमें ही बने, प्रारंभ तो तभी कर दिया गया था जब यहां एक 'सर्वे-शिप' ( टोह लेनेवाले जहाज ), एक मूरिग जहाज एवं कतिपय 'आक्सलरी नवल क्राफ्ट' बने थे। ये सभी विशाखापट्टम कलकत्तामें निर्मित हुए थे। अब डिस्ट्रायर एवं फ्रिगेट जैसे सामरिक महत्त्वके जहाजोंको
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भी पूर्णरूपेण भारतमें ही बनानेकी योजना विचाराधीन है। यह कार्य ब्रिटिश जहाज निर्माण करनेवाली कम्पनियों के साथ भारतीय 'मज़गाँव शिपयार्ड लिमिटेड' को सौंपा गया है। कलकत्ताकी 'गार्डन रीच वर्कशाप' ने भी नेवीके लिये कई 'आक्सीलरी क्राफ्ट' बनाये हैं। इस दिशामें सबसे सराहनीय कार्य किया है 'दि हिन्दुस्तान शिपयार्ड', विशाखापट्टम ने जिसने भारतीय नैवीका सर्वप्रथम 'हाइड्रोग्रेफिक' जहाज आई. एन० एस० दर्शकका निर्माण किया है। २१ फरवरी, १९६५ को इस जहाजका विधिवत् उद्घाटन तत्कालीन नौसेनाध्यक्ष पी० एस० सोमनने किया। भारतीय सागर एवं खाड़ियोंका सर्वेक्षण नौसेनाका उत्तरदायित्व है जिस कारण 'दर्शक' की प्राप्ति एक प्रसिद्ध उपलब्धि है क्योंकि इससे सर्वेक्षणके लिये आधुनिकतम उपकरणोंका उपयोग करने में नौसेनाको काफी सुविधा हो जायेगी। इसमें टोह लगानेके लिये एक हेलीकाप्टेरकी भी व्यवस्था है जिसके लिये जहाजमें विशेष उड़ान डेक एवं हैंगर बनाये गये हैं। २७,००० टनवाला यह जहाज भारतीय नौसेनाका प्रथम वातानुकूलित जहाज है। इसमें २२ अफसरों एवं २७० जवानोंके रहनेकी व्यवस्था है । प्रत्येक जवानका एक अलग बंक ( सामान रखने एवं सोनेका कक्ष ) है। इस जहाज के कर्मचारियोंका काम सागरी रास्तोंके नक्शे बनाना है ताकि नौसैनिक एवं व्यापारिक जहाज अपने-अपने मार्गों पर बिना किसी हिचकिचाहट एवं भयके आ जा सकें। लम्बा समुद्र तट होनेके कारण भारत जैसे देशके लिये निरन्तर चौकसीकी आवश्यकता है क्योंकि समुद्री तूफानों, बालूके टीलों, मँगेकी चट्टानों एवं ज्वालामुखी पहाड़ोंके निरन्तर परिवर्तनोंसे मार्ग अवरुद्ध होता रहता है। इस शाखाका प्रधान कार्यालय देहरादून में है पर ग्रीष्मकालमें नक्शे निर्माणका कार्य दक्षिण भारतकी नीलगिरि पहाड़ियोंमें स्थित 'कोनार' नामक प्रदेशका आफिस करता है । हाइड्रोग्रेफिक शाखाके तीन अन्य जहाज 'यमुना', 'सतलज' एवं 'इनवेस्टीगेटर' हैं जिन्हें विशेष तौरसे भारतीय तटों एवं इसके निकटवर्ती प्रदेशोंके निरीक्षणार्थ नियुक्त किया गया है एवं ये अपना कार्य बड़ी मुस्तैदीसे कर रहे हैं।
इस तरह भारतीय नौसेनाकी कहानी एक गौरवमयी गाथा है। ये प्रेरणाके वे पावन प्रसून है जिनके अन्तरालमें विश्व-शक्ति, व्यापारिक उत्थान, अन्तर्राष्ट्रीय सौहार्द्र एवं आर्थिक प्रगति सन्निहित है साथ ही है एक उद्घोष कि भारत अपनी आत्मरक्षामें पूर्ण सजग है और आक्रान्ताओंको अनन्त जलसमाधि दिलानेकी पूर्ण क्षमता रखता है।
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Chandra Images From Rajasthan
By R. C. Agrawala
Director, Archaeology & Museums, Jaipur. Some early images of Chandra ( Moon ), one of the prominent planets (grahas ), have already been published by Dr. M. R. Majmudar. These include an excellent Gupta stone head from Vidiśā (M. P.) and now preserved in Gwalior Museum; the male head therein is provided with a typical Gupta crown and a halfmoon (ardhachandra) mark behind; the portion below the neck is missing. Earlier representations of moon are of course not reported so far. Standing Chandra from Pahārpur (Bengal) holds a beaded rosary in the right hand, a nectar-pot (Kundikā) in the left, as also enjoined by the Agni Purāņa. The utter absence of any vehicle in the Pahārpur Chandra image is very important (Fig. 1); he is provided with the matted locks (jața) on the head while the prominent half-moon (ardha Chandra) mark appears just above the head. This led some scholars to interpret the Pahārpur relief as Chandra Sekhara Sivamūrti but the mistake was duly corrected by Majmudar 4 and Saraswati.5 Dr. Majmudar has also published a mediaeval (12-13th century) marble relief from Vadnagar,& depicting Chandra and Sürya standing side by side. The latter, appearing to right, carries two lotus-stalks in his hands whereas Chandra (to left) holds a water-pot in the stretched left hand, the right hand having been raised up to carry the beaded rosary; the crescent mark behind his head suggests identification with Chandra, the Moon-god,
The Vishnudharmottara Purana” refers to four-armed Chandra, seated on a chariot driven by 10 horses, a form which is depicted in a rather very late statue in Nagpur Museum.8 Contemporary or mediaeval icons referring to this aspect of Chandra have of course not been reported so far. A few independent carvings
1. M. R. Majmudar, Annals of Bhandarkar Oriental Research Institute, Poona,
XXIII, 1942, pp. 262-70 and plates. 2. Ibid, plate V. 3. Ibid, plate II. 4. Ibid, pp. 267-70. 5. S. K. Saraswati, Journal of the Deptt. of Letters, Calcutta, pp. 66-7. 6. M. R. Majmudar, op. cit., plate IV. It is situated in North Gujarat. 7. Book III, edited by Dr, P. B. Shah in G. O. Series, Baroda. Vols. I (1958-text
and II (1961-notes). Chapter 68, verse 5. 8. M. R. Majmudar, op. cit., plate VI.
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out
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(1) Chandra with Crescent mark on Read above From Paharpur (Bengal).
(2) Seated Brahma from Elepha
nta, sow of 'Swans' below the Lotus Seat Drawing by C. Sivarammurti.
(3) Chandra with Vahan which is near his right Leg Osian (Jodhpur).
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(4) Chandra without a vehicle, Road side Temple
(Osian-Jodhpur).
(5) Chandra Seated with two Swans below
Hari Har Temple No 1, (Osian--Jodhpur). Photo R. C Agrawal
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(6) Chandra with a Single Swan, Pen
Discoverd by
gore, Bharatpur. Sri R. C. Agrawal
(7) Standing Chandra under of Sun Temple at Chittorgarh (Rajasthan); 8th Century, Photo P. G. A., New Delhi
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from Rajasthan are, therefore, worth scrutiny in this paper. On some mediaeval reliefs also we find various representations of Chandra with its Vahana marked on the pedestal. A detailed study of such mediaeval reliefs, by Mrs. Debala Mitra, has revealed the following vehicles of Chandra.
(1) Fish; because of Chandra's association with water. According to the Vishnu Purāna (Book II, Chapter, Verse 3), the horses of Chandra sprang from the bosom of water, as rightly pointed out by Debala Mitra.?
(2) Horse; Mitra, op. cit., plate XII, fig. 12, p. 22. (3) Animal, probably lion (?), ibid, plate XVI, fig. 19, p. 23. (4) Ram (mesha), ibid, p. 20, plate IX, fig. 9.
(5) Crocodile (makara), ibid, plate XII, fig. 15, p. 22, as also on the Navagraha slab from Gorakhpur and now in Lucknow Museum.3 The crocodile is also the vehicle for Varuna, the lord of waters.
The Vishnudharmottara Purana (I, p. 191, Chapter 67, verse 1) states that the Sun and Moon are respectively other forms of Agni and Varuna, and that seems to be the reason why the crocodile was associated with Chandra on some of the Navagraha reliefs. The same Purāņa (I, Chapter 52, verse 18) also refers to Varuna's chariot driven by 7 swans yoked to it-sapta-hamsarathe tasya Varunasya mahātmanaḥ. A similar type of Hamsa-ratha is prescribed by this Purāņa (ibid, Chapter 44, verse 6) for Brahmá as well i. e. jațādharam chaturbahum saptahamse-rathasthitam. This seems to corroborate the sculptural representation at Elephanta, where we find three-headed Brahmā? seated on a lotus seat which is marked by 7 swans in a single row. (Fig. 2). The close association of Brahmā with Soma (Chandra) is very well corroborated by a literary reference in the Märkandeya5 Purana, Chapter 17, verses 10-12. These identifications and affiliations may have led to the transference of Brahmā's or Varuna's hamsa (swan) to Chandra (Moon). Fal and Bhattacharya (op. cit., p. 22) state that "Chandra rides a goose and only the Kriyasangraha Panjikā gives the number of geese as seven. This must have therefore been the literary tradition followed by the artists in Nepal”. According to them (Pal and Bhattacharya, op. cit., p. 22). "the earliest representation of Chandra riding a chariot of geese or swans occurs in the Buddhist paintings of Tun-huang, on the borders of C. Asia and China".
1. Journal of Asiatic Society of Bengal, New Series, Calcutta, VII, (1-2), 1965, pp.
13 38 and figs. 1-21. 2. Ibid, p. 19. plate VII, figure. 8. 3. P. Pal & D. C. Bhattacharya, The Astral Divinities of Nepal, Varanasi, 1969,
figure 7. 4. C. Sivaramamurti, Indian Sculpture, 1961, New Delhi, figure 10 on p. 58. 5. Cited by Pal & Bhattacharya, op. cit., p 21.
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The temple No. 2 at Osian", near Jodhpur in Rajasthan preserves, on the exterior south wall of the main sanctum, an image of standing and two armed Chandra with crescent mark at back; he carries a Kamandalu in his left hand while the right holds the aksha-mala. The relief may still be seen between the niches containing images of Trivikrama and standing Agni; the vehicle of Chandra appears to be a lion (?) here (Fig.3), which is of course conspicuous by its absence in a somewhat similar type of standing Chandra in the back niche of roadside temple at the same site (Fig. 4). Most important of course is seated Chandra on the exterior of Hari Hara Temple No. 1 at Osian (Fig. 5); the face of the moongod is partly peeled off; he has got matted locks on the head and holds a beaded rosary in the raised up right hand; the left hand carries a water-pot Below the seat of Chandra appear two swans, each facing opposite directions. This is quite an unusual sculpture (13 inches x 9 inches); the two swans may here suggest Chandra's association with sapta-hamsa-ratha. There is nothing to reflect any Buddhist impact on it; the entire complex of these temples at Osian is Brahmanical and hence the existing carving of a Chandra relief 'with two swans' on a Hari-Hara Temple at Osian is of great artistic and iconographic interest. This motif appears to have travelled to Central Asia, under the impact of Indian art traditions. The symbolic representation of Sun and Moon, as weapons carried by Siva, in earlymediaeval paintings from Dandānuiliq and Bālāwaste3 in Central Asia, should also be kept in view; Sun is represented by a 'wheel' and moon by a 'crescent' mark. The same motif should now be looked into the multi-headed representation of Siva in a Shāhi relief4, and also in the famous early Gupta SivaPārvati terracotta from Rangamahals, now preserved in Bikaner Museum. What has till now been interpreted to be Ganga or some obscure Gaņa figure, just above the central head of Siva in the Bikaner terracotta, may well be identified as the Śiva bust, carrying a wheel (Sun) in the right hand and crescent (ardha-Chandra= Moon) in the left. The Chaturmürti aspect of Śiva, in this early Siva-Pärvati relief from Rajasthan, should therefore be carefully examined. The Sun & Moon as emblems, carried by Siva in all sculptures & terracottas, may also be seen in the Chaturmürti Siva image recently discovered by Dr. N. P. Joshi at Mūsānagar,
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1. Stella Kramrisch, The Art of India, 1965 edition, plate 116, p. 209, D. R. Bhan
darkar, Archaeological Survey of India - Annual Report. 1908-9, plate 37-B. 2. Anand Coomaraswamy, A History of Indian & Indonesian Art, 1929. London,
plate 94, figure 285. 3. M. Bussagli, Painting of Central Asia, Geneva, 1963, figure on p. 60. 4. Douglas Barret, Oriental Art, London, III (2), 1957, fig. 12 on p. 58. 5. Lalit Kala, 8, 1960, plate XXIV, figure 14. I have discussed this problem in
detail in my paper published in the Bulletin of Museums and Archaeology in U. P., Lucknow, No. 3, June 1969 pp. 9-13. and plates.
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near Kanpur (U. P.); the relief is datable to the Kushāņa period; the fourth Siva bust is shown just above the central Siva-head; here also he carries the sun and moon symbols in the upper arms. The inspiration for Central Asian and Shāhi representations therefore seems to have been derived from the earlier carvings from India. The famous inscribed Varäha from Mathura Museum and datable to the Kushāņa period holds two circular discs in his upper hands, the same bear, in the circular space, carvings of a male person seated on a chariot driven by two horses. It is likely that the sculptor associated Chandra and Surya with Mahā Varäha in this particular Kushāņa panel and depicted them alike. The seven horses for Sun's chariot and ten horses for Chandra's chariot were probably not fully carved in this particular relief due to the paucity of space. The Matsya Purāna (More Edition, 247, 68) calls Varāha as the the 'holder of the eye of the day and night' and that may possibly be the reason for carving such discs, with solar figures, in the upper hands of Varāha. The entire problem needs further probe.
From Rajasthan may also be reported another interesting stone relief studded into the right exterior niche of Sun Temple at Chittor and datable to the 8th century (Fig. 6). Two armed and standing Chandra here appear in the company of an animal, which is equally unusual. The animal standing behind Chandra appears like a 'dog' (?) though we are not aware of such a Vahana for the god, Other details, including the weapons, matted locks on the head and crescent mark behind, rope-like garland hanging down to the knees etc , have been delineated quite vividly; the rosary in the right hand and a kamandalu in the left hand of Chandra are very well preserved. Hardly do we come across any Sürya temple wherein we notice an image of Chandra carved independently as the one from Chittor under review.
During my recent explorations in Bharatpur region I was able to discover at Pengore (near Kumher) a colossal stone relief where appear carving of two armed Chandra in standing pose. He holds a water-pot in the left hand and rosary in the other. The tiny figure of a single swan near his right leg is very interesting. The relief, now in Bharatpur Museum, is datable to the Pratihāra period (Fig. 7). All these are very important early-mediaeval representations of two armed moon god on Pengore panel in exterior niches of Osian temples.2 The grouping of Ganesa, Sürya, Chandra and the Guardian of Quarters including Kubera on the exteriors of
1. N. P Joshi, Mathura Sculptures, 1965, Hindi, Mathura, plate 101, Appendix 2. 2. Figure 2 has been copied from Indian Sculpture by Mr. C. Sivaramamurti. Pho
tograph of Figure 4 (Chittor Chandra) has been supplied by the Director General, Archaeological Survey of India, New Delhi, negative number being 25171962, figure 3 by the author and the rest by the Director, Archaeology and Museums, Rajasthan, Jaipur.
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these temples at Osian (distt. Jodhpur) is all the more interesting which amply proves that Chandra did not represent any Dikpala at that stage. In Hari-Hara Temple No. 1 at Osian we notice seated Chandra (Fig. 3) on the southern side of the sanctum while naravahana Kubera appears in a northern niche of the same shrine.
Let us also scrutinise the dikpalas as depicted on the upper portion of Kalyanasundara slab from Kannauj and datable to the Pratihāra period. Mr. Mohan Mukhopadhyaya has made a fresh study thereof (Journal of Indian Society of Oriental Art, Calcutta, New Series, 1967-58, Vol. II, pp. 4-6 & plate I, fig. 1) In the topmost left corner of Kannauj relief may be seen a male figure riding astride on a swan (hamsa), though some scholars have wrongly identified the same as Kärttikeya. Mr. Mukhopadhyaya likes to identify this figure as that of Chandra, the Moon god, but that does not seem to be reasonable in view of a noose (pāśa) in his right hand and not a lotus flower. The crescent mark is also absent. It probably represents Varuna, who is associated both with a noose and a swan. According to the Vishnu-dharmottara Purana, cited above, "Varuna even rides on a chariot driven by seven swans". More so, the entire grouping, in the upper portion of Kannauj relief, relates to the dikpālas, such as Indra on elephant, Vayu on horse, Yama on a buffalo, Niriti on a man (he is not Kubera,.....etc.; potbellied Kubera is there seated to right and just above appears seated Ganesa, not identified by Mukhopadhyaya. We may also note the depiction of Varuna riding on a swan likewise in the early Pratihära Kalyanasundara relief form Kämän (Bharatpur) and now preserved in the National Museum at New Delhi. Varuna in Ellora panel of course rides over a crocodile (makara). It appears that some of the Pratihara sculptors had also associated a swan with Varuna, the prominent Dikpalas in early Indian art. Varuna, therefore, should not be confused with Chandra (Moon). Dr. K. C. Panigrahi (Archaeological Remains at Bhubaneshwar. 1961, Calcutta, p. 72, figure 40) illustrates the two-armed statue which he calls. Chandra, though there is utter absence of the crescent mark and the vehicle in the photograph of Parasurameśvara relief published by him.
I have recently come across at Sikar, a 10th century panel depicting dancing Ganesa, standing Sun & Moon in a single row. Chandra here has got a crescent mark behind his head. This combination is equally unusual.
1. It is an unpublished relief studded near the stair-case of modern temple on Harsha Hill, near Sikar in Rajasthan.
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EARLY STONE AGE SITES
IN RAJASTHAN
SCALE
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TOOMILLS
SURATGARH
BIKANER
BHARATPUR
SAMBHAR ZAKE
SATA BANGANGA
JAISALMER
R JOU
NAS
CHAMBAL
JODHPUR ACHPADRA LAKE
BARMERS
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LAND OVER 5OOMETRES
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INDIA
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PROTO-HISTORIC SITES
HANUMANGARH KAUBANGAN
SCALE
IN
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DO MILLS
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SINJOR SURATGARK
BIKANER
BINNER
BHARATPUR
NON AS
samonagement
GANGA
JAIPUR
JAISALMER
R. JONEL
ANNER
CM
JODHPUR WACHRADRALAKE
R CHAMBAL
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BARMERS
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OPRE-HARAPPAN & HARAPPAN
OCHRE WASHED WARE • 4 HAR CULTURE A PAINTED GREY WARE
E
MODERN TOWNS LAND. OVER 500 METRES
SAMARBE INDIA
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MIDDLE STONE AGE SITES
CALE
WAGGAS
IN
SORM
RAJASTHAN
DOMILLS
?
BIKANER
BIKANER
BHARATPUR
ASANGAN
SAMBHAR LAKE
JAIPUR
JAISALMER
Je
NAMBA
JODHPURA
ORA ARE LUNI
..
BARMER
-SP
MODERN TOWNS LAND OVER 500METRES
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30
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SCALL
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INDIA
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JODHPUR
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UDAIPUR
SAMBINAR LAKE
BAGOR
74°
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MICROLITHIC SITES
IN
RAJASTHAN
{JAIPUR
BHARATPUR
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BANGANGA
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CHAMBAL
MODERN
LAND OVER SOOMETRES
TOWNS
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Prehistoric Background of Rajasthani Culture
V. N. Misra
University of Poona.
Every Indian knows something of the heroism, chivalry and sacrifice of the Rajputs during the Medieval period of Indian history, and feels rightly proud of them. Educated and historically or artistically conscious people also know some. thing of Rajasthan's rich and varied heritage of architecture, sculpture and painting. Historians, among whom the name of Shri Agar Chandji Nahata deserves. special mention, have utilized the evidence from inscriptions, coins, manuscripts and other historical documents to illumine the rich historical past of Rajasthan. All these evidences, rich as they no doubt are, do not take our knowledge of Rajasthan's past beyond two or three centuries before Christ. Few people so far know that the history of Rajasthan (using the word history in its comprehensive sense as the story of man's past, both written and unwritten) goes back to a very remote past, at least a thousand years from now and probably more.
The great variety and complexity characterizing the Indian ethnic and cultural landscape is an oft-repeated statement, and it holds true for Rajasthan as much as for other parts of our country, Less adequately recognized and understood are the diversities in economic, technological and material culture patterns. Any one who is seriously interested in understanding the factors and processes which have created this diversity must look beyond the confines of the brief historical period. Archaeological discoveries show that many elements of our material culture are centuries or even millennia older than the recorded historical period. Basic items of our technology, economic patterns, many of the vessels used in our homes, our food habits and even our counting and measuring systems (before the change over to metric system) can be traced to prehistoric times. Thus a knowledge of prehistory (i. e. history before written documents of any kind came into existence) is essential for understanding not only our remote past but even our living present.
Stray discoveries of prehistoric objects and sites had been made in Rajasthan in the second half of the last century and the first half of the present century. But it is the systematic exploration and excavation in the last two decades that alone have substantially contributed to our knowledge of Rajasthan's prehistoric past. The institutions which have been responsible for this research are the Arch
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aeological Survey of India, the Department of Archaeology and Museums, Rajasthan and the Deccan College Research Institute and the University of Poona. The wo k done so farhas, however, covered only a part of the State; large areas remain completely unexplored. And planned and systematic excavation which alone can throw light on the many aspects of past cultures has been done on only a few sites. Indeed it is only a beginning and much more work is needed before we can write a true prehistory for the entire State. Yet with the work done so far it is possible to see a clear outline of the cultural history of Rajasthan from the beginning of Stone Age to the time when historical records begin to be available. This essay is an attempt to put before the scholars the results of the work done so far in this field.
For the convenience of treatment we can divide the period of Rajasthan's prehistory into the following sub-periods:
Earliest hunter-gatherers: The Lower Palaeolithic.
2. Advanced hunter-gatherers: The Middle Palaeolithic.
3,
Final hunter-gatherers: The Mesolithic.
4. Beginnings of settled village life: The Chalcolithic.
5. Beginnings of urban life: The Indus Civilization.
6. Expansion of settled village life: ushering in of Iron Age.
Betore treating these periods individually it will be useful to briefly summ arise the geographical setting of Rajasthan. A culture is an expression of man's adaptation to his environment and so can be understood only in the context of that environment. Though prehistoric environments were not always the same as the present one yet they were conditioned by the existing geographical features, and so the knowledge of present-day geographical conditions is useful to that end. The dominating feature of Rajasthan's geographical setting is the Aravalli range which divides the State into two unequal but distinct halves. The western part or Marwar is mainly a flat alluvial plain marked here and there by isolated hills and in the western and northern parts by numerous sand dunes. There are no large flowing rivers in the region. In the southern part there is a network of small streams with Luni as the principal river. All of them rise in the Aravallis and carry flowing water only for a few days during the monsoon. Their beds are largely choked with sand, with pools of stagnant water here and there. Yet there is plenty of geological evidence that during the remote past when stone-age man inhabited this region the rivers were regularly flowing, and the climate must have been different. In the desert to the north and west there are a number of saline lakes which too several millennia ago were fresh-water lakes. In the northernmost part of the State is the dried-up bed of the Ghaggar (ancient Saraswati) which as late as the Vedic period was a mighty flowing river.
The climate over most of the area is arid. Rainfall is generally well below 40 cm per annum and is very uncertain. There are frequent failures of rain and consequent famines. In these conditions agriculture is always pre५० : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन ग्रन्थ
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carious and pastoralism has been an important element in the economy. The soil: however, is fertile and given adequate water can be made to yield rich harvest. This has been amply demonstrated in the Ghaggar bed in Sri Ganganagar District.
The eastern part or Mewar is mainly an undulating rocky plain. But it receives more rainfall and is consequently greener and fertile. The Chambal is the main river. It is perennial and has a large network of tributaries and sub-tributa. ries which carry water during at least half of the year. The southwestern portion of Mewar is hilly and thickly forested. At its eastern end it opens on to the fertile Malwa plain. In the north the cover of alluvium over the rocky plain' increases and the country merges into the Indo-Gangetic plain.
Much of the population is dependent on agriculture. The Brahmins, the Rajputs, the Gujars, the Jats and the Dangis are the principal agricultural communities. The Garis and the Rewaris are pastoral. The former rear sheep while the latter keep herds of camels and cattle. The hilly and forested country of the Aravallis is inhabited principally by the Bhils, the Minas and the Garasias. Bhils and Minas are also found in other parts of the State where they have settled down in peasnat villages and become integrated in the peasant society. Those in the hilly areas still retain their distinctive culture. With the decline in the forest cover and wild life their dependence on hunting has declined, but Bhils still remain expert archers and exploit the resources of the forest for their living. They are inheritors of a distinct cultural tradition which can be traced to prehistoric times. 1. Earliest hunter-gatherers : The Lower Palaeolithic
Archaeological vestiges of this period constitute what prehistorians call the Acheulian culture. They consist only of stone tools. There is no doubt that the makers and users of these tools also used other materials like wood, animal hide, bone etc. for making their tools but the passage of time and the action of natural agencies must have destroyed them completely. Of their way of life we can have some idea only on the basis of comparative study with other areas. No living sites where their tools and the food-remains could have been preserved have been discovered. Their stone tools which have survived in plenty testify to a flourishing and large Acheulian population in Rajasthan. The principal tool types are handaxes, cleavers, choppers, chopping tools, scrapers and fakes besides the cores from which these flakes were removed. They are made mostly of quartzite and occasionally of sondstone or quartz by flaking or chipping from rounded river pebbles picked up from the river bed. These tools are found in thick bouldery and pebbly deposits which overlie either the basal bedrock or a white clayey deposit which is a product of the decomposition of the bedr ock and the fluvial action. These deposits indicate a relatively dry climate which produced plenty of rock debris in the hills. The climate must have, however, been marked by heavy rains during a part of the year so that the streams could transport heavy loads of boulders into the river beds where they were deposited. The countryside must, however, have had sufficient vegetation cover to support wild life which these people hunted.
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Early man must have lived along the river banks. He utilized the pebbles from the river bed for making his tools. These tools he used for hunting and butchering animals, for skinning them and cutting their meat, and also for digging roots and tubers from the soil. He must no doubt have exploited wild fruits, seeds etc. for his food. Whether he used fire we do not know. But comparative evidence from other parts of the world would suggest that they knew the use of fire. They discarded their tools at their living and butchering sites from where in course of time they were washed down by rainwater and streams and deposited in the river beds. Only the discovery and excavation of their living camps can throw light on their living patterns. These people must have lived at least a hundred thousand years ago from now and probably earlier.
The remains of Acheulian culture have been found widely in Rajasthan but the area of their greatest concentration lies around Chitor. Here Acheulian tools have been found in large numbers in the beds of the rivers Gambhiri and Berach near Chitor itself, in the Wagan near Hajiakheri, in the Kadmali near Nimbahera, in the Berach near Chitor, Bichore and Bigod, in the Banas near Sarupganj and all the way up to Tonk and in the Chambal near Kota, Rawatbhata, etc. It appears that the Acheulian man avoided the thickly forested country of tbe Aravallis and the foothills for in spite of our intensive search only isolated tools of this culture have been found west of the Wagan river and none beyond Dabok in District Udaipur. In the north an Acheulian site is reported on the Sanwan Nadi, a tributary of the Banganga near Bangarh in District Alwar. The Lower Palaeolithie man also does not seem to have crossed the Aravallis except infrequently and did not venture into the interior ot the Marwar plain. The only pure Acheulian site known from west of the Aravallis and it is not a rich site is Govindgarh on the river Sagarmati some 15 km. west of Ajmer, Further exploration, especially in the Chambal basin, will no doubt bring many more Acheulian culture sites to light.
2. Advanced hunter-gatherers : The Middle Palaeolithic
The Acheulian culture was succeeded by a new culture which we call the Middle Palaeolithic. Before this transition took place, the rivers in Rajasthan had been active, and depositing new sediments in their beds. The older thick bouldery deposits had been covered by a white clayey deposit, and over it came fine sandy gravels. In eastern Rajasthan it is in these gravels that we find the tools of the Middle Palaeolithic. In western Rajasthan in the beds of the Luni and its tributaries there is no evidence of the older coarser gravels and the Lower Palaeolithic tools. Here the oldest deposit in the river beds is a white clay. Over this lie highly cemented fine sandy gravels, and it is in these gravels that the remains of the Middle Palaeolithic tools are found. These tools are made of finer rocks like chert and flint. They are also smaller in size than the Acheulian tools. There,
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however, does not seem to have been a break in culture for some of the older tool forms like the handaxe continued to be used alongside the new tool forms.
The tools of this new culture were made mainly out of small and thin flakes and only occasionally out of complete stone pebbles or blocks. The Levall oisian technique of removing flakes which was already in use in the Acheulian culture was now more frequently used for producing flakes. In this technique, named after a suburb of Paris where the flakes displaying it were first discovered, the outline of the final flake is determined on the core (or the parent body of the stone) beforehand by convergent flaking, and then the blake removed by a carefully struck blow. The flakes so obtained are thin and sharp-edged and of oval, pointed or circular shape. As their edges are already sharp all round they can be put to use for cutting etc. without much secondary retouch. The principal tool types of this period are a variety of scrapers (side, end and hollow type), points and borers. Blades or thin parallel-sade flakes also came to be more frequently produced in this age. The scrapers are beliicued to have been used mainly for working wood (preparing spears, etc.) skinning game and cutting meat and the borers for making holes in wood and animal hide. They indicate a greater reliance on wood for weapons and tools. The handaxes are now smaller and better made and many of them are indeed objects of beauty. Even in the Acheulian times some of the handaxes and cleavers had been very well made. Their even thickness. and perfect symmetry of outline called for skilful work which went far beyond the necessity of producing an efficient tool or weapon. It only shows that from very fearly times man had been aware of the aesthetic quality of his creations even where the end product was of a purely utilitarian nature. western Rajasthan the Middle Palaeolithic culture presents a more evolved picture. The Levallois technique here was more commonly in use. Backed knives and Bifacial points are also distinctive elements of the culture in this region.
In
The man of this period did not rely entirely on river pebbles for making his tools. He went to look for the raw material in geological formations where finer rocks occurred. Since he manufacured his tools there we, find large quantities of his tools and their debris on rock outcrops. The richest of these factory. sites are to be found in the limestone outcrops near Sojat in Pali District.
In eastern Rajasthan Middle Palaeolithic tools are found at several localities in the river Wagan near Hajiakheri in Chitor District, in river Kadmali at Nimbahera in Chitorgarh District and in the Chambal at Kota. But the Luni basin is richer in the relics of this culture. Here at some twenty sites in the Luni and its tributaries these tools have been found. The Middle Palaeolithic culture of the Luni valley is a mixture of evolved Acheulian elements and the typical tools of the Middle Palaeolithic of other regions. It includes beautifully made handaxes and cleavers as well as the small flake scrapers, points etc.
In Western Europe and West Asia the Middle Palaeolithic culture was
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followed by the Upper Palaeolithic. This period is characterized by elegant blade tools and burins (chisel-edged blade or core tools). During this period also appear for the first time men who are anatomically identical to the living human races, i.e. the Homo sapiens. Upper Palaeolithic type tools have been found at a few sites in south India. But by and large evidence for this period is lacking in India. And this observation applies to Rajasthan as well. Blades were produced in this region right from the Acheulian times and they are more common in the Middle Palaeolithic culture both in Eastern and Western Rajasthan. In the factory sites near Sojat slender blades are found together with Middle Palaeolithic and other tools. There is a strong possibility that further exploration in this region should yield the evidence of an independent Upper Palaeolithic culture. Upper Palaeolithic like blades are also present in the Middle Palaeolithic industries of the eastern region, and further investigation is needed in this area as well. 3. The Final Hunter-gatherers : The Mesolithic
Throughout the stone age while the tools have been becoming more efficient, there has also been a distinct tendency for them to get smaller and lighter. This tendency reached its climax during the Mesolithic age which began around 12,000 years ago, and persisted from a few centuries to several millennia in different parts of the world. The tools of this period are made on narrow blades or, more correctly, bladelets by steeply retouching or blunting one or more of their sides. Known as microlithis (meaning small tools) they are often of geometric shapes like crescents, triangles, trapezes, rhombs, etc. A number of such pieces were fitted in a slotted bone or wood to make tips and barbs of arrows, knives, sickles, etc. The presence of these tools at a site is almost certain proof of the use of bow and arrow and by implication of a more effiicient method of hunting. These composite tools were superior to the tools of the earlier stone ages in one more way: if a part of the tool was broken it could be easily replaced to make the tool serviceable again whereas the older single piece tools had to be discarded if their tip or edge was broken.
Rajasthan has produced unusually rich evidence of the Mesolithic age in India. Microliths had been found since 1955 in many places, especially in Mewar, They were usually found on rock elevations where necessary raw material for making them were easily available. But at these sites the material consisted mostly of cores and waste flakes and only occasionally of blades and finished tools. It was clear that these sites were essentially factory sites where prehistoric hunters, taking advantage of the easily available raw material, had manufactured their tools and taken them to their living camps for use, leaving the waste material behind. But until we found these camps we could have no idea of the way of life of the makers of these tools, nor of their antiquity. Circumstantial evidence, however, indicated that the tools were older than 2,000 B.C. In other parts of India microliths had also been used by earliest agri
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culturalists who appeared late in the third millennium B.C. or early in the second millennium B.C. But in Mewar excavation at early village sites showed that their occupants had not used microliths. Thus the microliths found at the surface sites referred to earlier could only have belonged to an older and perhaps huntingculture. And as the first agricultural settlements were known to date from the beginning of the second millennium B. C, the microliths must be older than this date.
Our search for the living camps of these microlith-using people was rewarded in the winter of 1966-67 when we discovered two such sites-Bagor in Mewar and Tilwara in Marwar. Excavation at these sites has thrown a flood of light on the way of life of the microlith-users.
Bagor is a large village on the bank of the Kothari river, a tributary of the Banas, some 25 kilometers west of the Bhilwara town. A large sand dune overlooking the river near the village had been occupied by stone-using communities for nearly five millennia from c. 4,500 B.C. onwards. The people lived on the dune over floors which were made stable by paving them with pebbles picked up from the river bed and rock slabs quarried from the schist outcrops on the opposite bank of the river. The people appear to have erected circular huts and windbreaks of wattle to protect themselves from the elements. They produced beautiful little microliths in thousands for use in their hunting and cutting tools. These microliths are made of quartz and cbert or chalcedony. The microliths and their debris lie littered on the stone floors together with animal bones and the numerous stone hammers which were used to manufacture the microliths and break the bones. The fairly uniform distribution of stone tools over the entire living area shows that every family must have been producing its own requirements of stone tools.
The economy of early Bagoreans was a combination of hunting, catching, stock-raising and collecting of wild plant food. Among the animals whose bones have been found at the site are cattle, sheep/goats, deer, antelopes, swines, canines, canines, turtle and fish. The bones are usually charred suggesting that meat was roasted on open fires. They were regularly broken and split open for the extraction of marrow. The inhabitants buried their dead within the settlement by putting the body in an extended position with its head to the west. Apparently these people had no material possessions other than their hunting and cutting tools, their humble houses, and flocks of their sheep/goats and probably cattle. Yet they were the first people in Rajasthan to have achieved a level of economic stability which enabled them to live a settled life. Thier settlement occupied an area of about 6,000 square meters. This suggests a fairly large population for a community that did not yet cultivate any food plants. These are probably also the people from whose culture should be derived the hunting and pastoral traditions still surviving in Rajasthan. Three radio-carbon dates suggest a period of about two thousand years from c. 4,500 B.C. to 2,800 B.C.
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The site of Tilwara is located on the river Luni some 16 km, west of the town of Balotra in District Barmer. The settlment lies about two kilometers southwest of Tilwara village on a sand dune in the old bed of the Luni river. But the Tilwara settlement was smaller and of shorter duration than that of Bagor, and the people here lived at a much later date. There must no doubt be older Mesolithic settlements in the region but these have not yet been discovered. The Tilwara people also made small stone tools or microliths but their tools do not always display the same high degree of excellence in craftsmanship as do those of Bagor, Besides quartz and chert these people also used for making their tools rhyolite, a locally available rock which was very hard and resistant to weathering. These people too lived in circular huts which were lined on the outer periphery with stone pebbles or kankar nodules. Outside these huts have been found several hearths with ash and charred bones inside them.
Their economy was also a combination of hunting, stock-raising and collecting. They kept sheep/goats and cattle and hunted deer, pigs, etc. These people also had the domesticated dog to help in their chase. At a later stage in the life of their settlement they were also acquainted with pottery and stone and glass beads. The Tilwara settlement is likely to date between 500 B. C. and a couple of centuries beyond the Christian era. What is the explanation for the survival of the hunting-pastoral culture to such a late date in this region? The explanation seems to lie in the geographical condition of the region. Barmer region is very arid and unfavorable for successful agricultural way of life. The present climatic conditions seem to have already been established more than two thousand years ago It was therefore unattractive for pioneering agriculturists. They did not move into this area until they had colonised more favourable areas. The stnne age huntergatherers and herders therefore continued their life undisturbed from the impact of culture contact with agriculturists until the early centuries of the Christian era. As in Mewar the present day surviving hunters and pastoralists are likely to be in the direct line of descent from their prehistoric forerunners. 4. The Beginnings of Settled Village Life : The Chalcolithic
Two areas where we have at present the earliest beginnings of full-fledged agriculture and settled village life are Mewar and the Ghaggar basin in north Rajasthan. From these regions this new pattern of economic and social organisation seems to have spread to other areas.
In this context Bagor again occupies an important place. The middle levels of the archaeological deposit at this site reveal the introduction of new material traits into the economy. These include copper/bronze tools, pottery, perforated circular stones or mace heads and plentiful use of stone beads for ornaments. There was also a change in the burial practice. The dead were now buried in a flexed position and the orientation of the body was east-west. The graves were also richly furnished with offerings. Metal tools and pottery indicate greater prosperity of
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economy and increased stability of the settlement. Ting stones or mace heads hint at the beginning of a primitive type of agriculture. Pottery is handmade and inad. equately fired. But the shapes are sophisticated and suggest an earlier period of evolution elsewhere. The pottery is completely devoid of painted decoration and bears only incised designs. To that extent it belongs to a tradition entirely different from that of the other chalcolithic cultures. Some of the shapes do show similarities with the pottery of Ahar in Mewar and Kayatha in Malwa but it is not possible to connect the pottery securely with any known site. Metal tools include concave-based and barbed arrow-heads with tell-tale similarities with the arrowheads of the Harappa culture. The highly developed nature of pottery and metal tools rules out the possibility that these items of material culture were the inven. tion of Bagoreans. They were certainly derived through culture contact with some other cominunities. Thus while Bagor itself was not a full-fledged agricultural setttlement, its early date hints at the possibility, indeed certainty, of the existence of well-developed village settlements somewhere in the region. Two radio-carbon dates from this phase of Bagor settlement are c, 2800 B.C. and 2100 B.C. Nowhere else in Rajasthan or in its immediate neighbourhood has so far any village settlement of this early date been found. Future exploration should, however, certainly bring to light settlements of this or even earlier date.
The earliest known full-fledged village settlements in the Mewar region date to about 2,000 B.C. Some fifty village settlements displaying a fairly uniform material culture have so far been discovered in the valleys of the river Banas and its tributaries in Udaipur, Chitorgarh, Bhilwara, Tonk and Ajmer Districts. But only two sites have been excavated. These are : Ahar near Udaipur and Gilund, on the river Banas in Chitorgarh District, some thirty kilometers south of Bagor. As Ahar was the first site to be discovered and as it alone has ben fairly excavated and fully published, the culture revealed at these sites has been named after this site. The Aharians were among the earliest people in India to cultivate rice. They almost certainly cultivated many other cereal and food plants. But direct evidence of agriculture in the archaeological record is always rare. Their material culture is, however, ample proof of their settled, agricultural economy. They also kept cattle and goat/sheep and to a small extent also relied on hunting. They lived in substantial houses made of mud, mud-brick and stone. At Gilund there is evidence even of the kiln-baked bricks and of monumental architecture. Their villages were of fairly large size, occupying an area of several acres. They were conversant with the art of smelting copper ores and casting metal tools. Remains of a smelting furnace and copper slag were found at Ahar. Indeed it is notable that unlike other contemporary chalcolithic peoples the Aharians made little or no use of stone tools. Their copper technology was therefore sufficiently advanced to enable the population to dispense with the use of stone tools. For this reason Ahar has been described as Copper Age culture and not as Chalcolithic ( stone and
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copper using). They also knew the art of spinning, probably of both cotton and wool and by implication of weaving. Their terra cotta spindle whorls are decorated with a variety of incised designs and suggest affinity with the prehistoric cultures of north Iran and Turkey. Their ornaments include a variety of stone-beads and their art consists of terra-cotta figurines of a variety of animals, some of them displaying a remarkable degree of realism.
The pottery of Aharian peasants was both well-made and varied in fabric, shape and decoration. The three main fabrics are: Red ware, Black-and-Red ware, and Grey ware. Red ware vessels are made of both coarse and fine clay, are generally treated with a bright red slip and are very well burnished. The vessel forms include large narrow-necked vessels with corrugated necks and shoulders, squat wide-mouthed vessels, narrow lota-like vessels, large flat platters, dishes (including some with a pedestal stand) and bowls. The decoration consists primarily of a variety af applique, incised and cut designs. Some vessels, especially in the late phase, are also decorated with painted designs in black pigment. Some vessels in red ware show clear affinities with the Harappa culture in fabric and shape.
The black-and-red ware pottery is almost entirely of table use. It includes a large variety of bowls of many sizes, small lota-like vessels and dishes (including some with a stand). The vessels are slipped in bright red, well burnished and fired by the inverted firing technique which turns the entire inner surface and the upper part of the outer surface black and the rest red. They are painted on the interior as well as the upper part of the exterior surfaces with a variety of dotted and linear designs in white pigment. Grey ware imitates the red ware in shapes and designs. but the repertoire of both forms and decorative patterns in this ware is limited. For instance, there are no large narrow-necked vessels with corrugated necks in this ware. On the other hand, some vessels of this ware are decorated with painted designs in white pigment.
Radio-carbon dates suggest a period of 2,000 B.C. to 1,200 B.C, for this culture. Further investigation in the region should throw light on the origins of this culture, its relationship with the Bagor culture as well as with the later iron using cultures.
The other area in Rajasthan were early agricultural settlements first appeared is the Ghaggar valley in the extreme north of the State. Such settlements are known all along the Ghaggar bed in Sri Ganganagar District and even extend westward into Pakistan where the river is known as Hakra. Our knowledge of this early culture is derived mainly from Kalibangan, a site located midway between Suratgarh and Hanumangarh which has been extensively excavated. There are two mounds at Kalibangan, one larger lying on the eastern side and the other smaller on the western side. While both mounds were occupied by the Harappans, the smaller mound below the Harappan remains has also revealed traces of an older culture which has so far simply been called pre-Harappan culture, but Kalibangan ५८ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन ग्रन्थ
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people seem to have been more prosperous than the Aharians. They had built a mud brick wall around their settlement for protection against floods or enemies or both. Two phases of the construction of this wall are known. Its width initially was 1.80 m. but was later increased to 3.70 m. The wall has so far been traced only in parts but on one side it extends far well over 100 meters. The houses were made of mud-bricks and were sometimes separated from each other by lanes. Houses were provided with ovens of both overground and underground varieties. Both types were made of mud walls and periodically plastered.
The pre-Harappan Kalibangan people used long chert blades as cutting tools but they were also familiar with metal and used celts and other tools of copper and possibly bronze. Their ornaments comprised bangles of copper, terra-cotta and shell, and beads of steatite, shell, carnelian and terra-cotta. They used bullock carts for transport. Terra-cotta objects found at the site include bull figurines, and toy carts. Evidence of furrow marks at the site has provided tell-tale evidence of agriculture though it is not known what plants they cultivated. As with other agricultural communities their economy was a combination of plant cultivation and animal husbandry.
The pottery of these people is varied in fabric and shape. Some six fabrics have been distinguished and numbered A to F, Pots in Fabric A are light and thin as opposed to thick and heavy pots of the Harappa culture. They are without a slip and red to pinkish in colour. Vessel forms include vases with out-turned rim, bowls with tapering concave sides, and vases with pedestalled base They are painted in black pigment, sometimes coupled with white, with a variety of geometric and naturalistic designs. Vessels in Fabric B are better made and comprise globular jars. Their bottoms are rusticated by an application of sand and clay. The painted designs comprise animals, insects, birds and flowers. Fabric C is of finer clay. The vessels comprise globular and ovoid vases with disc base, lids, straight-sided bowls and offering stands, Decoration is in black and includes geometric and naturalistic designs, among them the scale pattern so characteristic of the Harappa culture. Fabric D vessels are thick and sturdy and include heavy jars, bowls, basins and troughs. Some of these are decorated with deep incisions and wavy lines on the inner surface. Fabric E and F are relatively less common. The former is characterized by cream slip and decoration in black with geometric and naturalistic designs, and the latter is of grey colour with decoration in black.
Some of the forms and designs of Kalibangan pottery bear similarities with the pre-Harappan pottery of Kot Di ji, Amri and Harappa and several pre-Harappan sites in Baluchistan. The early peasant colonisation of the Ghaggar valley seems to be part of the extension of the peasant communities from the Baluchi hills into the plains of the Indus below. A number of radio.carbon dates from Kalibangan show that the first occupation at the site took place around 2,300 B.C. and this pre-Har
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appan culture endured till about 2,100 B. C, when it was overwhelmed by the superior Harappan culture. At the moment we have no idea whether these preHarappan people had also spread outtide the Ghaggar valley, and only future exploration will reveal it. 5. Beginnings of Urban Life : The Indus Civilization
At Kalibangan the pre-Harappan settlement was followed by a full-fledged Harappan settlement. The Harappans came from the outside for there is no evidence of the new culture having grown of the local culture. The Harappans, however, did not drive out the existing occupants of the site for elements of both cultures are seen to flourish for some time. But with the passage of time the Harappan dominance obliterated the identity of the pre-Harappan culture. As at other urban centres of the Harappa culture, like Mohenjodaro and Harappa, the Harappan settlement at Kalibangan consisted of two occupational units : a citadel and a lower town. The citadel was formed by enclosing the southern part of the pre-Harappan occupation within massive walls. Inside the fortification huge mud-brick platforms were constructed on which the buildings were raised. The citadel was roughly rhomb-shaped. The length of its individual walls varies between a hundred and 125 meters. The walls were reinforced with rectangular salients and the corners were provided with massive square towers. Two phases of construction are seen in the citadel, with the size of the bricks becoming smaller in the second phase. There is also evidence that the fortification became ineffective in the final stages of the settlement. There were entrances on the northern and southern side to the citadel.
Considerable brick-robbing at the site has obliterated the details of the structures raised over the mud-brick platforms. But these probably included, in the excavators, a building meant for ritualistic purposes. The presence of an elaborate drainage at successive levels is one of the grounds of this surmise. Within the enclosure of a room were found rectangular fire-places aligned in a row. These were later cut through by a drain. A well was also found on the citadel. .
The larger eastern mound contains the remains of a lower town. It has revealed the typical Indus chess-board plan with oblong blocks of houses subdivided by lanes and thoroughfares. The main arterial thorough-fares ran in a north-south direction. The width of the streets and thorough-fares ranged between 1. 80 m. and 7. 20 m. The thorough-fares were generally unmetalled except in the last phase when the metalling material was terra-cotta nodules and bricks laid on edge. Throughout the occupation the streets and thoroughfares were rigorously maintained without any alteration and the only encroachment on them was of rectangular troughs and bazar platforms.
Houses were made of mud-bricks arranged in regular courses of headers and stretchers; the use of burnt brick was restricted to drains and wells. Their
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alignment was different from that of the pre-Harappan houses. Each house possessed one courtyard, five to seven rooms aligned on three sides, a curious fire altar and sometimes a well. In the grid plan cach house faced at least two streets if not three. The floors were made of rammed clay and paved with terra-cotta nodules and charcoal. This practice survives in the region to this day. Paved platforms were also made on the front side of some of the houses. The roof of the houses was possibly made of mud laid over a cushioning of reeds supported over wooden rafters, the remains of which have survived embedded in mud. The discovery of a well preserved stair-case with four treads intact in one house suggests the possibility of houses with two storeys. Houses were generally provided with covered burnt brick drains. In one house the drain was of wood, a log of wood scooped into a U shape. The streets were generally not provided with drains and the house drains discharged into soakage jars buried in the streets Each house had, in one of the rooms, one or more fire-places. These were shallow oval or rectangular pits in which fire was made and in the centre a cylindrical (sun-baked or pre-fired) or rectangular (baked brick ) block was fixed. Terra-cotta cakes have also been found in these pits. Apparently, the fire-places were part of some elaborate ritual.
The pottery found at the site is typical of the Harappa culture. It is sturdy in fabric, has a red-slipped outer surface and is decorated with geometric and naturalistic designs in black pigment. The most common designs are intersecting circles, scales, pipal leaves and rosettes, The vessel forms are typical of the Harappa culture and include goblet with pointed base, perforated cylindrical jar, dish-on-stand, cylindrical beaker, tall jar with S shaped profile, etc.
Agriculture was no doubt the mainstay of the economy of such a prosperous society though at present we have no evidence of the food grains they cultivated. Stock-raising was an important part of the economy and hunting also played some role. Among the animals of which the bones have been found at the site are : zebu or Indian domestic humped cattle, Indian buffalo, pig, goat, sheep, elephant, domestic ass, barasingha, Indian rhinoceros, chital, turtle and among birds, fowl.
The material culture of the Harappans was quite varied. Objects recovered from the excavation include chert blades and cores, personal ornaments like beads of semi-precious stones, gold, faience, steatite, and terra cotta. bangles of shell, copper and terra cotta, chert cubical weights, household tools or copper and bronze, terra cotta figurines of humans, animals and birds, and typical Harappan seals and sealings. Some of the animal figurines show a very vigorous and naturalistic rendering of the body. Some of the seals bear reed impressions on one face suggesting the type of packages they were employed to seal. Also noteworthy is the finding of a cylinder seal from the site. The evidence for textiles is provided by the impressions of a woven cloth on a copper object. There are a variety of terra-cotta cakęs, triangular and circular, including ill-shaped nodules. These are
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incised on both faces with some elusive figures, one of which is horned. Miscellaneous terra-cotta objects include a feeding bowl and gamesmen.
A cemetery found just 300 m. west of the citadel mound has thrown light on the burial practices of the Kalibangan Harappans. Three types of burials are revealed : 1. extended inhumation; 2. pot burial and 3, rectangular burial. The second and third types have not yielded skeletal remains yet from the cirumstantial evidence they appear to have been some kind of burials only. In the first type of burial the grave consists of an oblong pit in which the skeleton was laid in an extended position with the head to the north. Pots were arranged near the head as well as the feet. In one case as many as seventy pots were kept with the skeleton. Other grave goods associated with different burials include a bronze or copper mirror, one shell ring 6.5 cm in diameter and found near the left ear and beads of gold, jasper, agate, carnelian and steatite. Pot burials have been found for the first time at a Harappan site. In this type the urn was placed in a circular or oval pit and around the urn were placed pots varying from 4 to 29 in number. Other associated objects include shell bangles, beads and steatite objects. The third type of burial consists of rectangular or oval grave with its longer axis oriented north-south. These graves too were devoid of any skeletal material. The grave goods consisted of pottery and in one instance of a fragmentary shell bangle, a string of steatite disc beads, besides one of carnelian.
Kalibangan was not a solitary Harappan settlement in the Saraswati valley. Some 25 settlements are known in the Saraswati and the Drishadvati valleys. Most of the latter are small mounds, representing tiny peasnat settlements. The total picture is thus similar to that revealed in Sind or Saurashtra, namely, of a large town surrounded with numerous ancillary villages. Mr. B. B. Lal has suggested that if Mohenjodaro and Harappa were two metropolitan capitals of the Indus Empire, Kalibangan might have been a provincial capital guarding the Saraswati valley,
A large number of C-14 dates from Kalibangan give a time spread of roughly between 2,100 B, C. and 1,800 B. C. for the Harappan settlement. It is not clear how and why the Harappan culture in this area came to an end. One theory is that the changes in the river courses led to a sharp decline in the volume of water in the Saraswati and thereby forced the people to move to other areas.
Far to the east of Kalibangan the site of Noh, about six kilometers west of Bharatpur on the Agra road might give some answer to this problem. Limited excavation at this site which was occupied over a long period has revealed at the base of the deposit a layer containing what has come to be known as Ochre Coloured Pottery. No complete shapes are available, but the ware is similar to that found at Atranjikhera in western Uttar Pradesh and other sites. Ochre Coloured Pottery was first found in early fifties at Hastinapura in Meerut District of Uttar Pradesh below the Painted Grey ware levels. Since then the pottery has been found at a number of sites in western U. P., Haryana and Punjab. At Atranjikhera and
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Noh the pottery occurs below a deposit that contains Black-and-Red ware which in turn lies below the Painted Grey ware. Unfortunately, so far at nearly all the sites where the Ochre Coloured Pottery has been found, it occurs in silty layers which appear to have been formed by river floods. Thus very little is known of the original nature of the pottery and the other items of material culture associated with it. But scholars who have considerable experience of handling Harappan pottery are inclined to believe that the Ochre Coloured Pottery is a degenerated version of Harappan pottery which has lost its original colour and sturdiness due to its long stay in the waterlogged Gangetic silt. The site of Noh located midway between the Harappan sites of the Saraswati valley and the O. C. P. sites in the Jumna valley would fit in well with this theory, and suggest that the Harappans from the Saraswati valley as also those from west Punjab moved towards the east in their decadent days. More field work in north Rajasthan is needed to throw light on this interesting problem. 6. The Spread of Settled Village Life : The Beginnings of Iron Age
While, as we have already seen, large areas of Rajasthan were colonised by peasant farmers during the Chalcolithic period, the universal extension of agricultural way of life had to wait for the introduction of irom tools. Iron was more plentifully available and cheap, and so only with its discovery could common man afford metal tools. With the universal availability of metal tools it became possible for peasant farmers to clear newer lands for agriculture and establish new settlements there. This event in north India is believed to have taken place around the beginning of the first millennium B. C. or soon thereafter for the first reliable evidence of iron in this area is associated with the Painted Grey ware. This ceramic, first found at Ahichchhatra in northern Uttar Pradesh in the early forties, has since been discovered at numerous sites in the Sutlej and Ganga basins. Many of these sites are closely linked with the story of the great epic, Mahabharata. In Rajasthan the Painted Grey ware is now known from many sites in two areas : The Saraswati valley in the west, and north-eastern region in the east. While in the Saraswati valley there is a clear break between the Harappan occupation and the Painted Grey ware, in the evidence from Noh, limited though it is, reveals a continuity from the 0. C. P. to Painted Grey ware. At this site these two cultural phases are intervened by a deposit yielding black-and-red pottery. This pottery is said to be unpainted unlike that from Ahar and other sites. Nothing more is known about this pottery and its associations. But eastern Rajasthan is an important area for resolving the question of the relationship between the black-and-red ware and the Painted Grey ware.
In eastern Rajasthan Painted Grey ware is known from a number of sites in Bharatpur, Jaipur and Ajmer districts. Excavations have been done only on two sites, namely, Noh near Bharatpur and Bairat in District Jaipur. These are, however, so far of a limited nature and do not throw much light on the way of life of the
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users of this ware. Besides the fine Painted Grey ware they used black-and-red ware. They were fully acquainted with iron tools. Axes, spear-heads and arrowheads of this metal have been found. Other finds are stone-beads, cotta discs of indeterminate use, bone styluses and copper objects. Charred rice has also been found at Noh.
The dating of the Painted Grey ware has been a matter of controversy. Radio-carbon dates from Noh and other sites indicate a date of around 800 B. C. for the beginning of this ware.
The Painted Grey ware was followed by the appearance of a very high quality ceramic known as the Northern Black Polished ware in about 500 B. C. With this ceramic also come to light for the first time coins and many other items of material culture. The first urban settlements after the Chalcolithic Harappan cities came into existence, and civic life spread widely in north India. Historically identifiable dynasties now come to light, and from here onwards we enter the historical period the study of which is outside the scope of this paper. At Noh northern Black Polished ware deposits overlie the Painted Grey ware deposits and are succeeded by layers of Sunga-Kushana remains. In south Rajasthan the capital city of Madhyamika (present day Nagari near Chitor) came into existence soon after. In the Saraswati valley there was a revival of settlements in the Kushana period perhaps due to new changes in the river courses. By the beginning of the Christian era settled village life based on agriculture, animal husbandry and iron technology had been established over most of Rajasthan. But this consummation was the result of a long drawn out struggle that prehistoric man had waged against his environment. The kingdoms, empires, and all the great achievements of historical timesin architecture, sculpture, painting, literature, and so on—could be possible only on the firm foundations of settled life and a secure economic basis which had been laid by our prehistoric ancestors. It has been said that prehistory underlies all civilization, and this statement most suitably applies in the case of Rajasthan.
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Prehistoric Background of Rajasthani Culture
Description of Illustrations Fig. 1. Map of Rajasthan showing Early Stone Age sites. Fig. 2. Map of Rajasthan showing Middle Stone Age sites. Fig. 3. Map of Rajasthan showing microlithic sites. Fig. 4. Map of Rajasthan showing Proto-historic sites. Plates Pl. I.
Pleistocene deposits of the river Gambhiri near Chitorgarh. Man in the picture is pointing to a stone implement in the gravel with
his left hand. Pl. II
Pleistocene deposits of the river Banas near Sarupganj. The figure at the bottom stands against the gravel deposit bearing Acheulian
tools. Pl. III. Lower Palaeolithic tools, choppers and chopping tools,
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PI, IV.
PL. V.
Pl. VI.
Pl. VII.
Pl. VIII.
Pl. IX.
Pl. X.
Pl. XI.
Pl. XII.
PL. XIII.
Pl. XIV.
Pl. XV.
Pl. XVI.
Pl. XVII.
Pl. YVIII.
Pl. XIX.
Lower Palaeolithic tools: Abbevillian and Early Acheulian hand
axes.
Lower Palaeolithic tools: Advanced Acheulian hand-axes. Lower Palaeolithic tools: cleavers, Levallois flakes and blades. Middle Palaeolithic tools: Wagan and Kadamali rivers. Middle Palaeolithic tools. Wagan and Kadamali rivers. Middle Palaeolithic tools: handaxes and cleavers. Luni river.
Middle Palaeolithic tools: Luni river. Middle Palaeolithic tools: Luni river. Middle Palaeolithic tools: Luni river. Stone Floor. Bagor.
Microliths. Bagor. Pottery Phase II, Bagor.
Copper tools, Phase II. Bagor. Chalcolithic Structures. Ahar. Pottery. Ahar. Kitchen floor. Ahar.
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Mewar Painting Kumar Sangram Singh of Nawalgarh Mewar, the land of Sisodia Rajputs, made great contributions to the Indian chivalry and patriotism. They faced the onslaught of the invading Muslim invaders to save their religion and sovereignty, whereas their women walked smilingly to perform Johar. Today the name of the invaders, their grandeur & kingdoms have disappeared completely, whereas the land of the Sisodias-Mewarstill remains very much alive and is prospering, with the efforts of all clans and castes.
Along with bravery, the rulers and the people were great worshippers of arts, literature and architecture. They made a great contribution to the cultural heritage of the country. Today we find oldest paintings from this region in Rajasthan,
Geographically Mewar enjoys a very important position, the hills, forests and lakes have made it a very fertile land, a good hide out in event of danger, without creating any food scarcity. Even during troubled times the artists and artisans continued their creative pursuits.
Amongst the Diwans of Iklangji, Rana Kumbha (1433-1468) was a great scholar, fond of music and a great builder. He wrote commentaries on Kumar Sambhava and Gita Govinda. Today his victory tower stands majestically at the Chittorgarh Fort. Then comes Rana Sanga (1509-28) amidst the first Mewar Rulers to face the Mughals. Bhojraj, his son, married the famous poetess MIRA whose devotional songs are sung from North to South and East to West of this vast country.
He was followed by a few rulers. Then came Maharana Udai Singh to face the armies of Akbar and who shifted his capital by founding the city of Udaipur, which is known as the Venice of India, as it has beautiful lakes, with houses and the majestic palace situated on the lake and the Jag Mandir as a pearl, in the midst of the famous Pichola lake. The painting upto this period belongs to Western Indian Style (Jain Scool) (Plate 1) and cannot be called as purely Mewar as the style was prevalent in Gujrat, Mewar, Marwar, Jaisalmer and other parts. Earliest being SUPASANAHA CHARIYAM dated 1423 of Mewar origin. and later the works of art of 1525 to 75 A. D. illustrating Geet Govind, Chaur panchacika etc were executed.
Now comes the period of the great Maharana Pratap (1572-1597) who was ६८ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ
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à very bold man and had never learnt to bend before any power or force, at any cost. He faced the worst days, as did his people but under no circumstances he was prepared to yield and believed in keeping the banner of Mewar high. He received full co-operation, in facing powerful emperor Akbar, from his supporters, his people and specially the Bhils which fought shoulder to shoulder with his other soldiers. The battle of Haldighat was nobody's victory or defeat. He changed his capital from Udaipur to Chavanda to give a tough and rough time to his foes.
Maharana Pratap did not get much time of leisure to patronize arts as he was always busy in protecting his land and people from slavery and insult. We do find traces of Kulladar style (Plates 2) in about (1575-80). Unfortunately not a single authentic and contemporary portrait of this great son of Bharat has been traced so far, whereas portraits of many contemporaries to him at the court of Akbar have been found including those of Paja Man Singh of Amber (Bharat Kala Bhawan Collection-Varanasi) and of Raja Faisal Durbari (Chaster Betty CollectionDublin Ireland).
He was succeeded by his son Amar Singh (1597-1620) and circumstances compelled him to accept the sovereignty of the Mughals. The result was that the relations with the Mughal Emperor became closer and there was peace in the land of Mewar. The attention of the Ruler and his people were diverted from wars to creative side. Thus we find a set of Raga-Mala painted at Chavanda in 1605, From this set of dated paintings, one is in the collection of Shri Gopi Krishna Kanodia (Calcutta). These paintings are in typical Mewar style and were executed by Nirsaradi.
The areas influenced by the Mewar style are the whole of Udaipur, Banswara, Partapgarh, Dungarpur, Kushalgarh, and Shahpura. Being the neighbours of Mewar even the Malaea, Bundi, Sirohi Schools and Godvar district of Jodhpur did adopt certain qualities of the Mewar School.
Mewar played an important and a predominant role in evolving an individual style in Rajasthan from the traditions of the western India School (Plate 3) the other areas also by the beginning of the 17th century developed their own modes of expression in different styles according to their local traditions. They used bright colours, had a simple way of depicting the subject but is still full of great artistic qualities. According to Dr. Moti Chandra—“The beginning of the Mewar school, at least as seen in 1605, verge on a folkstyle, in which all the expedients of careful draughtsmanship or perspective are held subservient to the Joie de Vivre of folk art, We find a lot of material of Maharana Jagat Singh I (1628-61) (Plates No. 4, 5, 6, and 7) period for study. By the middle of the 17th century the art of painting of Mewar got more sophisticated and started adopting the qualities of the Moghal school.
In the period of Mahaiana Raj Singhji (1661-81) the statue of Srinathji was
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installed at Nathdwara and the Vaishnava doctrinaire of the Vallabhacharya sect spread in the area, with Krishna becoming the supreme God and the Bhagwat Puran becoming the gospel of the Vaishnavas. We find many illustrated Bhagwats in various collections which are the splendid examples of art at its zenith. The Ramayana also became popular. The Ragamala and Barah-Masa also became very common. The theme of the Barah Masa was always very romantic and depicted the departure of a hero and the heroine finds one or the other pretext to stop him from leaving the home. In this theme festivals and seasons play a very important part in favour of the heroine.
The other important subject executed by the Mewar artists was the Ra sikapriya of Keshvadasa. The works depict the classification of heroes and heroines, their mutual fascination, attachments, separations and reunions. Jaideva's Gita Govinda describing the love of RADHA and KRISHNA was also favourite due to the commentaries by Maharana Kumbha in Rajasthani language.
The mid- 17th century paintings of Mewar have brilliant colours such as lacquered red, saffrom, yellow, brown and lapis lazuli. The same painting may have. two different backgrounds depicting two different subjects divided or partitioned by a tree or any other object. The figures have prominent noses with the nose-ring projecting out and not touching the chesk of the lady. The faces are oval with fish-stylized eyes but easily recognizable, find a variety of creepers and plants. The hills and rocks are depicted very simply and generally pink or mauve in colour.. Water is painted black with strokes of white to depict waves and foam at the The faces are always profile and the paintings have less perspective. The main incident has greater importance than others in the same painting. The emotion is not depicted by expression but through the colours, surroundings and gestures or persons. The artists also dainted the animals and birds found in Mewar or kept by persons in that area as pets. The night sky is dark with moon and stars where as the hot season is depicted by a golden sun, just like the emblem of Mewar rulers. People are shown wearing the round Jama with a decorated patka and a turban representing the Akbar and Jahangir period. Earlier works have the pointed or the CHAKDAR JAMAH. Women are shown with skirts which has strips or plain or with floral patterns, the bodices (cholis) and a transparent Odhnis (wimples). The black pompons and tassels are very common up to the mid-17th century on the arms and wrists. The building, domes, arches, pillars etc. are not very decorative but are simple and pleasing (Plate 8).
LORD KRISHNA plays an important part as a lover or as a romantic person, he is a hero in all such subjects and also in the Ragamala and Baraha-Masa. The canvas becomes wider in scope by the middle of the 17th century and upto 1725. In later period very big size paintings were also executed. The artists painted court life depicting love-affairs, hunting expedition, processions, maffils, picnics, accidents, fights, battles, marriages in an artistic manner and present to us an ७० : अमरचन्द नाहटा अभिनन्दन ग्रन्थ
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appropriate commentary on the social life in Mewar. The artists adopted very simple way of depicting their subjects in the best aesthetic manner. They lacked high technical excellence if one compares it with the contemporary Mughal draughtsmanship, perspective and fine finish. They applied on the canvas glowing colours which made a painting very charming and attractive. The paintings do not appeal to the court alone but to people in general because the subjects are well known to the people and they are wells-acquainted with and love them.
The period between 1652 to 1698 is a bit confusing a much dated material is not available, even then from the style and subjects some works could be placed in that period, for example the Gita Govinda paintings in my collection, some paintings in the Bharat Kala Bhawan collection and the Bhagavata Purana in Shri Gopi Krishna Kanodia collection
In the beginning of the 18th century paintings became very popular but quality suffers at the expense of quantity. Not only the rulers of Mewar patronised art but also the Thikanadars, business communities, religious leaders and others. Now more attention was paid to the social and court life of Mewar. Amarsingh period artists executed paintings in a different manner, using less colour and more in Shah-Kalam. Even his dog, monkeys and other animals were finely painted on big size canvases.
Maharana Sangramsingh II (plate 9) was very found of getting his portraits executed. The artists used large size canvases for portraits. They applied thick colours to depict different types of jewelleries and even used beatel wings to depict emeralds. The events connected with his life were also painted in large numbers, he is shown going out in procession, attending maffils and shooting wild animals. Many manuscripts too were illustrated and Written during his reign.
The art continued to be patronised during Jagat Singh II period and many dated material is available in Saraswati Bhandar There was less patronage between 1762 to 1760 A.D. When Arsi came to the throne again the art of painting received patronage. He was a ruler fond of hunting (plate 18 ). The artists depicted grass and bushes not with the help of a brush but with a cloth pad which was filled with cotton and dipped in green colour for giving patches on the paintings (plates 11 and 12). The effect is quite fascinating and natural. The same style was continuing during Hamit's time who was not a great patron of art).
Bhim Singh (1778-1828) was again a great patron of art and the atelier was probably headed by some competent artist who painted many paintings showing the Maharana returning successfully after hunts. The works are in big size and nice in colour scheme, composition and technique. Other artists of his court painted the life of Mewaris in general and have shown the Rasa in his harem with his queen (plates 13, 14, 15),
We find a lot of porrtraits of Maharana Jawan Singh (1828-1834) period
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but the art now starts deteriorating in all respects, may be because a treaty was signed with British Government, and like other rulers of Rajasthan the Maharanas of Udaipur also started leaning towards the European art which was realistic and new to the Indian people. The traditional artist started losing the royal patronage, except when religious paintings were required (plate 16).
The palaces started to be decorated by European works which were either Litho prints or etchings or oil paintings. These were the techniques unknown to the local artists and they felt lost themselves and could not fulfil the desire and tastes of the feudal lords which was changing rapidly with the impact of the foreign cultures, even then to earn their bread and livelihood the artists kept on painting according to the whims and wishes of the rulers.
The quality suffered because they started using machine-made papers, brushes and pigments. Same was the fate of technique. Swaroop Singh and Sambhusingh were still fond of paintings which were confined only to hunting scenes and court life which continued to be painted even as late as late Maharana Bhopalsinghji's times. The artists continued to work under the royal patronage with lost traditions, till the independence was achieved in 1947, and the States were merged with the Indian Union. The retrenchment badly hit them and they were thrown out of employment, no body to sympathise with or patronise them. They adopted different professions and gave up that which they had followed and practised for centuries.
Another important centre of painting was Nathdwara where many artists still continue to work. In early days the work was as good as rest of the area (plate 18) but after 1850 it adopted a commercial leaning which completely ruined the art at that place. Though the talent is still there yet there is no body to guide them about technique and other important sides of art. Only tradition subject they paint is the image of Shri Nathji, rest of their works are neither traditional mor realistic.
The paintings executed at the courts of Pratapgarh, Deogarh and Shahpura slightly differ in style from what we call as Udaipur style. The artists at Pratapgarh named Kripa Ram (plate 21) was very good and always placed his seal at the back of the painting. The Jagirdars Ragho Das and Gokul Das at Deogarh were great patrons of art (plates 17, 19, & 20). The Shahpura artists painted elephants and literary painting in a very fine way.
Important Sets & Collections
Saraswati Bhandar' Udaipur 1. Gita Govida : 171+ by Bhatta Roopji : 173 illustrations. 2. Bihari Satsai S. 1776/1719 A. D. by Jaggan Nath : 643 illustrations. 3. Panchatantra : Late 17th Century : 583 illustrations. 4. Prithvi Raj Raso : Late 17th Century : 628 illustrations.
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5. Kashi Khand : 337 illustrations. 6. Shakunavati : 106 illustrations. 7. Kaji Dopiaya Mullah : 263 illustrations. 8. Hari Vansha : 677 illustrations. 9. Ikling Mahatma : 73 illustrations. 10. Gajendra Moksa : 17 illustrations. 11. Gaj Chikitsa : 139 illustrations. 12. Ashwa Laksana : 86 illustraions. 13. Yoga Vashistha : 34 illustrations. 14. Frobodh Chandrodaya : 10 illustrations. 15. Ekadashi Mahatmya : 134 illustrations. 16. Brihatakatha : 64 illustrations. 17. Krishna Awatar Charitra : 154 illustrations. 18. Raga Mala : 251 illustrations. 19. Kadambari : 66 illustrations. 20. Saranga Tatwa : 100 illustrations.
Saranga Tatwa : 136 illustrations.
Saranga Tatwa : 54 illustrations. 23. Saranga Dhar : 66 illustrations. 24. Saranga Dhar : 107 illustrations, 25. Kaliya Daman : 102 illustrations. 26. Panchakhyana : 448 illustrations. 27. Panchakhyana : 125 illustrations. 28. Raghuvansha : 150 illustrations. 29. Triya Vinod : 165 illustrations. 30. Gita Govinda : 224 illustrations. 31. Bihari Satsai : 392 illustrations. 32. Naishadh : 42 illustrations. 33. Sundar Sringar : 234 illustrations. 34. Veli Krishna : Rukmani-ke : 95 illustrations. 35. Prithvi Raj Raso : 628 illustrations. 36. Bhagwad Gita : 717 illustrations. 37. Maha Bharata : 3159 illustrations. 38. Rasik Priya : 88 illustrations. 39. Krishna Charitra : 328 illustrations. 40. Bara Masa : 112 illustrations. 41. Varaha Purana : 26 illustrations. 42. Arsha Ramayana : 72 illustrations. 43. Bhagwat : 10 illustrations. 44. Gokulavana : 4 illustrations. 45. Darshanas : 108 illustrations.
इतिहास और पुरातत्त्व : ७३
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46. Darshanas : 32 illustrations. 47. Arsha Ramayana : 36 illustrations 1703/1651 Painted at Chittorgarh. The
Balkand with Prince of Wales Museum, Bombay, dated 1649 paintings
by Manohar. 48. Raga Mala : 251 illustrations --- dated 1768 for Maharani Ranawatji by
Bhai Dau s/o Ram Kishan.
Udaipur Museum
1. Krishna Charitra 2. Sarang Tatwa 3. Panchatantra 4. Malti Madhava 5. Sarang Dhar
145 illustrations (Arsiji).
54 illustrations (Arsiji). 152 illustrations (18th cent), 67 illustrations (18th cent). 66 illustrations (18th cent).
Umed Bhawan Colleetion---Jodhpur 1. Rasik Priya illustration 1640 2. Raga Mala illustration 1640 3, Bhagavata illustration.
National Museum of India - New Delhi Raga Mala (Gem Palace Raga) 1650 A. D. 2. Raga Mala illustrations : 1628 by Sahibdin.
Rasikpriya 'series : 1650 A. D. 4. Bhagavata Purana Leaves : 1700 A. D.
3.
Rasil
Bharat Kala Bhawan--Varanasi 1. Raga Mala Series: 1628 by Sahibdin-1628. 2. Rasik Priya Series : 9650 A. D. 3. Bhagvata Purana Series: 1700 A. D.
Motichand Khazanchi-Bikaner 1. Paga Mala illustrations by Sahibdin : 1628. 2. Rasikpriya illustrations : 1650 A. D. 3. Bhagwat Purana illustrations : 1700 A. D.
Kumar Sangram Singh Collection-Jaipur 1. Illustration to Gita Govinda 1650-60 2. Illustration to Kumar Sambhava 1650-60 3. Illustration to Geet Gauri 1675 4. Illustration to Raga Mala
1700 5. Illustration to Ekadashi
1750
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6. Many other dated paintings from 1625 to 1800 with names of artists,
depicting all types of subjects connected with literature, court and sociallife of Mewar are available in this collection.
Patrons—(Rulers) 1. Maharanas of Udaipur. 2. Maharawals of Dungarpur. 3. Maharawals of Banswara. 4. Maharawals of Pratapgarh. 5. Raja of Kushalgarh. 6. Rajadhiraj of Shahpura. 7. Maharaj of Nathdwara and Kankroli.
Patrons—(Jagirdars) 1. Bedla. 2. Deogarh. 3. Delwara.
Bansi. 5. Ghanerao (later it was transferred to Jodhpur state). 6. Badnor
Kelwa. 8. Amet. 9. Kanor. 10. Begun. 11. Bhinder. 12. Asind.
Other Collections Illustrated Bhagwata from Udaipur, dated 1648 and painted by Manohar
Prince of Wales Museum, Bombay. 2. Illustrated Bhagwata : Kotha Library. 3. Illustrated Ramayana : painted by Manohar dated 1649 Prince of Wales
Museum, Bombay. Rasikpriya : H. H. The Maharaja of Bikaner Collection of the Mid.
17th Century. 5. Sur Sagar Illustrations : 1650 Shri Gopi Krishan Kanodia Collection : Calcutta.
Maharanas of Mewar
1. Udai Singh 2. Pratapsingh I 3. Amarsingh I
1541-1572. 1672-1597. 1597-1621.
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4. Karan Singh 5, Jagatsingh I 6. Rajsingh I 7. Jaisingh 8. Amarsingh II 9. Sangramsingh II 10. Jagatsingh II 11. Pratapsingh II 12. Rajsingh II 13. Arsi 14. Hamirsingh 15. Bhimsingh 16. Jawansingh 17. Sardarsingh 18. Swroopsingh 19. Shambhusingh 20. Sajjansingh 21. Fatehsingh 22. Bhopalsingh 23. Bhagwatsingh
1621-1628. 1628-1661. 1661-1681 1681-1700 1700-1716. 1716-1734. 1737-1752. 1752-1755. 1755-1762. 1762-1772. 1772-1778. 1778-1828. 1828-1838. 1838-1842. 1842-1861. 1861-1874. 1874-1884. 1884-1933. 1933-1956.
1956
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Coins of The Malavas of Rajasthan Kalyan Kumar Dasgupta, M.A., D. Phil.
Department of Ancient Indian History
and Culture, University of Calcutta Identical with the Malloi of the Classical accounts, the Mālavas of indigenous tradition were one of the celebrated tribes of ancient India remembered in history for their stubborn resistance to Alexander the Great in the fourth century B. C. Though their opposition to the Macedonian hero failed, they elicited admiration of foreign observers for their excellent fighting qualities.1 During this period they were living in the Central Punjab, between the Chenab and the Ravi and the memory of their association with the State lingers in the name Malwa denoting the region comprised of the districts of Ferozepur and Ludhiana, the old States of Patiala, lind, Nabha and Malerkotla, The memory of the early Punjab association is further preserved in the name of the dialect Malawai used in the region extending from Ferozepur to Bhatinda.? The tribe, however, subsequently migrated to Rajasthan most probably owing to the pressure of Greek invasions under Demetrius, Apollodotus and Menander. Hencerth Rajasthan became their field of activity and the Malavagana vishaya, an expression used in a third century record seems to have been made up of a considerable portion of southeastern Rajasthan comprising parts of the old States of Udaipur, Jaipur, and Tonk and the district of Ajmer. Still later they occupied the north-west part of Central India, the region which came to be known by the nams Malava after them. In the early mediaeval period Malwa roughly denoted the region between the Gangetic Valley & and the Vindhyan mountain on the one hand and Bundelkhand and the Aravalli range on the other.5
Credit goes to the Mālavas for having issued extensive coinage. And indeed, they were one of the few tribal peoples of ancient India to have issued coins. So far more than 6000 coins issued by them have been recovered, all from
1. See R. C. Majumdar (edited), Classical Accounts of India, pp. 66, 68,
138, 199 etc. 2. George Abraham Grierson, Linguistic Survey of India. IX, 1, p. 709. 3. K. K. Dasgupta, The Malavas, pp. 4-5, 23. 4. Ibid , p. 5. 5. Ibid., p. 6.
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eastern and south-eastern Rajasthan, the noted findspots being Karkotanagar or simply Nagar ( 15 miles to the south-west of Uniyara and about 25 miles to the south-south-east by south of Tonk ) and Raich ( 34 miles from Nagar ),' Of these a piece weighing only 1,7 grain and having a diameter of 2 inch constitutes 'one of the smallest coins in the world.'? While the majority of coins bear the tribal name (e. g. Jaya Malavana or Jayah Malav änām ). on some are inscribed legends of a peculiar character, such as Bhapamyana, Mapojaya, Magajaśa etc.A lead seal, discovered at Rairh and now in the Amber Museum, Rajasthan, bears the legend Malavajanapadasa, thus recalling the legend Sibijanapadasa appearing on the coins of another Rajasthan tribe, the Sibis.
Generally Mälava coins are of round shape, but rectangular pieces are also not uncommon. The device and symbols appearing on them are human bust (an interesting feature, since it is frequently found on Satrapal coins, rarely on tribal issues ), sqatting male figure, bull, peacock, lotus flower, pinnate palm leaf, vase with or without foliage, undulating line (a prominent feature of the Rairh specimens ) and 'cross and ball' or the so-called Ujjain symbol. Toe date of the Mälava coinage ranges between the second century B. C. and fourth century A. D.
The earliest form of the tribal name, as R. O. Douglass would have us believe, is Malaya, i. e. Malaya, which he finds on a few specimens in the collection of Nelson Wright. wiala, occurring on some other coins of the same collection, is regarded by Douglas? as the name of a king, the founder
1. Ibid., p. 1. Also Alexander Cunningham (edited ). Archaeological Survey of
India, Reports ( henceforth CASR), VI, p. 162 f. and K. N. l'uri. Excavations at
Rairh, (henceforth ER ) 2. Dasgupta, The Malavas, p. 6, pl. II, 19-20; Vincent A. Smith, Catalogue of
Coins in the Indian Museum ( henceforth CCIM ), p. 178, no. 106. 3. Dasgupta, The Malavas, p. Ilf, pl. II, 23 pl. III, 25-35. 4. Puri, ER, p. 71. pl. XXVI, no. 22, Iso Dasgupta, The Malavas, p. 1, pl. II, 17.
For the Šibi coins see John Allan, Catalogue of Coins in the British Museum, Ancient India ( henceforth CCBM ), p. 213, pls. XLIV; CCIC, p. 180, INST),
IX, XIV. 5. Numismatic Supplement XXXVII, p. 45. Regarding the names Malaya and Malava
D. C. Sircar ( See Age of the Imperial Unity, p. 163 ) suggests that the latter like the former which is known to be the name of a mountain range, is probably derived from Dravidian word malai meaning 'hill'. This can have at
best only speculative value. 6. The Nasik inscription of Ushavadāta contains the form Malaya, see Epigraphia
Indica VIII, p. 71 f. 7. Op. cit., p. 45.
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of the tribe, but it appears to have been intended to be Malaya or Malava. The legends which are generally met with on the Mālava coins are Malavānām jayah? (i. e. 'let the Mālavas be victorious') and its variant Malavaganasya jayah (i. e. let the Mälava-gana be victorious' ). The legends are paralleled by those on the coins of the Arjunāyanas and the Yaudheyas.? The significance of them is understandably clear, But expressions like Bhapaṁyana, Gajuva, Gojaua, Gojara, Maha ( a ) rāya ( ma is not clear ). Jamaha, Jamapaya, Magachha, Magaja, Magajasa, Magojaba, Majupa, Mapaka, Mapojaya, Maraja, Masapa, Pachha, Paya, Yama ( may be read backwards as Maya ) and Maraja found on a distinct group of Mālava coinage (the attribution of these coins to the Mālavas is not only on the basis of provenance, type and fabric. but also on the explirit occurrence of the tribal name along with one of the above-mentioned legends, infra have for a long time been a riddle to scholars. Attempts have been made by scholars to solve the riddle, though without any substantial success as yet.
While Carlleyle4 first discovered the Mālava coins in thousands at Karkotanagar, he recognised in these legends the names of about forty Mālava chiefs, Smith traces only nineteen or twenty (if Yama is read as Maya or Maya as Yama, the number will be nineteen) such names on the coins all of which he regards as of foreign origin. If these legends stand for names at all, as Carlleyle and Smith think, it is true that they sound rather un-Indian. And if they are regarded as names of foreign rulers, it is a problem, to use the words of Allan, "what invaders could have struck them. They are too late for the Hüņas; in addition, out of over twenty names, not one bears any resemblance to any Śaka or Hüņa name." Allan' further points out that these legends cannot be regarded as names of rulers
1. Mälava coins, generally being small, legends on them are mostly incomplete
or found in shortened form. Thus we come across Malava jaya or Mālavana jaya, Sometimes Malavahna jaya is met with, which seems to be a mistake Similarly Malava java or simply Māiava appears to be a shortened form of a completes legend like Malavānām jāya. The lack of space if the obvious reason
for such shortened forms. 2. For the Arjunāyana coins, see CCBM, p. 121. pl. XIV, 10-11, and CCIM. p.
165, pl. XX. 10; for the Yaudheya coins, see CCBM, p. 265f, pls. XXXIX-XL; CCIM, P, 180f, pl, XXI; INSI, II. XIII, XVIII etc. Also see my article on the
Arjunāyanas, 'ournal of the Oriental Institute, June, 1971 ( in press ). 3.. KP. Jayaswal reads Bhampāyana, Hindu Poliiy (henceforth HP, third
impression ), p. 381. 4. CCSR, TI, p. 174. 5. CCIM, p. 163. 6. CCBM, p. cvi. 7. Ibid., p. cvii.
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since "in not one there is any trace of a genitive". According to him? most of these legends are to be treated as "meaningless attempts to reproduce parts of Malavānām jaya" and this suggestion, he avers, "may account for so many of the legends beginning with ma and for the frequency of ma as another letter of the inscription, and indeed, for the limited number of consonants which form these inscriptions". Allan is thus disinclined to regard these legends as names, far less names of foreign rulers,
The legends are, therefore, to be taken either as personal names or as attempts to reproduce a complete legend like Malavānāṁ jaya partially. One point, however, is to be noted in this connection : the letter ma frequently occurs, as many as sixteen times, in a group of twenty legends and on eleven occasions it is initial letter. The frequency of this letter drew the attention of two Indian scholars, Jayaswala and Bhandarkar, who discussed the meaning and significance of theslegends before the publication of Allan's Catalogue. Jayaswal, who regarded these legends as personal names, suggested that these "seem to be abbreviations-marajaMahārāja; cf. Mahārāya'... Mapojaya, Mapoya and Magaja are probably Maha(Mahārāja) aya, Ma (Mahārāja) Paya and Ma (Mahārāja Gaja. Similarly, Magajaśa= Ma (Maha) Gaja (
Gajaśa), Gajava=Gaja-pa" etc. Bhandarkar4 took the letter ma as the abbreviation not of Maha or Mahārāja, but of the tribal name, Malava and he interpreted the remaining letters also as contractions of words like gana, jaya, etc.; for instance gargaña, ja=jaya. Magaja thus standing for Malava-ganasya jaya. Bhandarkar thus attempted to improve upon the suggestion of Jayaswal.
The smallness of the size of the Mālava coins and the consequent lack of space thereon give the suggestions of Jayaswal and Bhandarkar an appearance of probability. Allan", however, objects to the view of Jayaswal on two grounds. first, even if ma is taken to stand for Mahārāja, the remaining letters of the legends do not offer any intelligible names and, second, there is no instance of a contraction in Indian numismatics. As to the second objection of Allan, it may be pointed out that though we have no definite instance of a contraction or abbreviation, its probability cannot be totally ignored. Allan's first argument has of course some force. Apparently unaware of Bhandarkar's suggestion, he has not referred to some of the letters, other than ma, having been interpreted as abbreviations of words
1. Ibid. 2. HP, p. 381. 3. For Bhandarkarś suggestion see Annals of Bhandarkar Oriental Research
Institute, XXIII, p. 224. 4. Loc. cit. 5. Op. cit., p. cvii. 6. Cf. Mahārāja Gana on the Nāga coinage as an abbreviation for Mahārāja
Ganendra, see S, K. Chakraverty, Ancient Indian Numismatics, p. 194,
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like gana and jaya. In spite of it, his objection cannot be disregarded, for the ingenious method of interpretation employed by Jayaswal and improved upon by Bhandarkar fails to explain letters like chha, pa, bha and sa, on whose meaning no light has been thrown. It is, therefore, difficult to regard the legends concerned as abbr eviations of complete legends like Maharaja-paya or Malavagaṇasya jaya.
While Allan's objection to the view that these legends are not abbreviations has some weight, his own suggestion is open to criticism. It is difficult to understand how it could be possible for mint-masters to systematically make "meaningless attempts to reproduce parts of Malavanām jaya (are in Malatagaṇasya jaya) the letters chha, pa, bha, and sa are conspicuous by their absence. The difficulty that appears as insuperable in accepting Allan's view is that there is at least one coin in the Indian Museum1 which definitely bears the name of the tribe Malava along with one of the curious expressions Majupa, thereby showing that Majupa can in no way be regarded as a meaningless attempt to reproduce parts of Malavanam jaya. Thus we are to revert to the main suggestion offered by Carlleyle and Smith that these legends stand for names of Malava chiefs. But we differ from Smith who regards these chiefs as of foreign extraction. Apparently these names sound non-Indian, but a foreign origin cannot be established merely on the basis of names, specially when no successful attempt has been made to connect them with any foreign stock. While it has not so far been proved that they were of foreign extraction, the probability of their belonging to a non-Aryan stock may be
considered.
Words of non-Sanskritic origin, like the present legends, are not altogether absent in Indian numismatics. An analogous case is furnished by words like Ralimasa (or Talimata), Dojaka, Atakataka, etc. appearing on a group of negama coins found at Taxila. They have been taken by scholars as proper names, either of the names of persons or of places. On this analogy, therefore, the outlandish words on Malava coins may be regarded as proper names and, as has been suggested above, they seem to be the names of Malava chiefs, probably of non-Aryan origin. NonSanskritic personal names like Magasa (Bhavishya Purana) Mankana (Mahabharata and the Puranas), Majjala (Mahabharata), etc. also tempt us to consider the legends on Malava coins as personal names.
Incidentally, it will be of interest to the recent discovery of a few coins with the legends Hamugama, Valaka, Mahu, Dasa and Sauma at Ujjayin! and Vidis. According to K. D. Bajpai these legends stand for personal names and since they sound un-Indian, like the legends on our coins, they are to be attributed to Saka chiefs ruling from 200 to 100 B. C. It is not necessary to suppose that there was a Saka infiltration on this ground. Indeed, there is no definite evidence of the Saka
1. CCIM, p. 175, no. 70.
??
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occupation of Malwa before the beginning of the second century A. D. Hence the theory of the Saka domination over Malwa in the second century B. C., as propounded by Bajpai, seems to be untenable.
Against taking the legends on the Mälava coins in question as personal names one may point out, as Allan has done. that they are without any normal genitive suffix. But actually there are definite instances of personal name in coinlegends having no genitive suffix. The Näga coinage, to which some of the Malava coins are closely related, is an illustration on the point. The non-use of the genitive sign is a feature shared by both the Malava and the Naga coinages generally unnoticed by scholars. Names like Hamuguma, Vataka, Mahu as found on coins recently discovered and noted above furnish another example of the non-use of genitive suffix. Hence there is no strong case against the view of the legends being regarded as personal names.
Further, it will be an oversimplification of the chronological problem presented by these coins if they are assigned without any differentiation to one specific period, the third-fourth century A. D. Some of these coins, as we have mentioned before, are earlier than the rest. Thus there is no question of accommodating so many rulers in a limited period, a difficulty which some scholars have experienced in recent times.
To sum up, the coins bearing enigmatical legends like Bhapatyana, Mapojaya, Magaja, Jamaka etc. should be attributed to Malava chiefs. Some of them such as the one bearing Yama may be placed in pre-Christian centuries, while others such as the one bearing Magojava may be assigned to the third-fourth century A. D.
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Tāntric Čult in Eastern India
Dr. Upendra Thakur Professor and Head of the Department of Ancient Indian and Asian Studies, Magadh University, Bodh-Gaya.
BIHAR The Tantras may rightly be termed as "so many encyclopaedias of the knowledge of their time" as they deal with all matters of "common belief and interest from the doctrine of the origin of the world to the laws which govern kings and the societies... medicine and science generally. The Tantra is... the repository of esoteric belief and practices, particularly those relating to yoga and mantra-tattva".1 In them we find the description of the Supreme Being, the creation and destruction of the Universe, ihe classification of creatures, the origin and worship of the gods, the heavenly bodies different worlds and hells, man and hells, man and woman, cakra (centre of the human body), dharma, aśramas and the sacraments, mantra, yantra (magic diagram on which to worship), various forms of spiritual training, Japa, Vrata, worship (internal and external), medicine, science and many other things.
It has been argued that the Tantras are a recent Śästra and are largely the creation of the people of Eastern India which is supposed to be its stronghold. The antiquity of the Tantra has, however, been proved beyond doubt to be as ancient as the Sruti itself. In fact, not only in Eastern India, But throughout the whole of India the upper classes of Hindu community are governed by the Tantric religion as far as initiation (dikşā) is concerned. There are Säktas, Vaişņavas and Saivas all over the country, The Śāktas are initiated by the Sakti-mantra, the Vaisnavas by the Visņu-mantra and the Saivas by the Siva-mantra. All these mantras are the exclusive properties of the Tantra. Like Mithilā, Madras, Bengal, Bombay, Kāšī (Banaras), Kashmir, Assam and other fuch notable places of India have Śaktas, Vaişņavas and Saivas in a large number following the Tántric system. It is, therefore, absurd to argue that this system is the exclusive creation of the people of
1. Bhattacharya, Matykabheda Tantram, Intro. 3, Avalon, Principles of Tantras
(Tantra-tattva) pref. Iff, 49-50 2. Bhattacharya, Intro. 7ff, Avalon, Intro. 58ff, D. N. Bose, Tantras : Their Philo
sophy and Occult Secrets, pp. 2ff, Upendra Thakur, Studies in Jainism and Buddhism in Mithila, chap. II, pp. 29-38.
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Eastern India only. Sädhakas have appeared on the scene almost everywhere, and the Maithila Sadhakas and Panditas, like those of Bengal and other places, have "only prepared compendia and developed the practical side of it to a considerable extent" for the benefit of humanity at large.
It is interesting to note that the Sakti devatã (the Mother-Goddess) is worshipped and reverenced and the Saktipīthas (the seat of the Mother-Goddess) are established in almost all parts of India : Kāmakhyā is worshipped at Kāmarüpa; Vindhyavāsini on the Vindhya hills; Yogamāyā and Pūrņamāsī at Vịndāvana; Annapürnā, Sainkatā, Tripurābhairavi, sixtyfour Yoginis, Kālabhairavi, Durgā, Śstalā, Mangalā and other Devis at Kāśí; Guhyesvari in Nepal; Gāyatri and Sāvitri in Rajputana; Lalitā at Prayāga; Ugratārā in Mithilā (Tirhut); Jayakāli in Calcutta; Jvālāmukhi’ and Chinnamastā in and near Jalandhar; Kșirabhavāni near Kashmir and other Devis in almost all parts of India. Vimala, Sarasvati, Bhuvanesvarī, Kali and Lakşmi are worshipped and paid obeisance to in Utkala, the seat of Lord Jagannātha 3 To say that Raghunandana Bhattacārya of Bengal was the first to prescribe for the worship of Durgā, as provided for in the Tantra, would be quite wrong and misleading, for we know that previous to him many other thinkers in Mithilā, Bengal and elsewhere had done so. Vidyāpati. Śridatta, Harinātha Upād hyāya, Vidyādhara, Ratnākara, Bhojadeva, Jimātavāhana, Halāyudha, Vācaspati Miśra, Madhavācārya and even Sankarācārya had admitted the authority of the
Tantra while explaining philosophical doctrines. Vācaspati Miśra, the celebrated Maithila thinker and commentator on the six Darśanas, has in his commentary on the Patañjali-Darśana recommended Dhyana of Devatās as prescribed in the Tantras. Moreover, many well-known books written in Mithilā and elsewhere, before the age of Raghunandana, contain provisions for Durga-Pūjā, such as the Durga-bhakti-tarangini, Samvatsarapradipa, Kalakaumudi, Jpotisānava, Smytisāgara, Kalpa-taru, Kętya-masārņava, Kytyaratnakara, Kytyatattvārņava, Durgabhaktiprakaśa, Kala-nirnaya, Pūja-ratnakara and others pertaining to the worship of Durgā and Kāli.5
The Bengali practice of worshipping earthen images of Durgā or Kāli with great pomp and ceremony is followed all over eastern India. It is true that this practice does not receive the same favour, as in Mithilā and Bengal, in other parts of India but it is also true that she is everywhere worshipped in ghatas (earthen
1. Bhattacharya, 7, Avalon. 5 ff, Also, C. S. B. Dasgupta, Obscure Religious "ults,
13ff. 2. Jvālāmukhi, Candi. Tārā, Kāli, Durgā etc. are also worshipped in Mithilā at
different places. (Vide-U. Thakur, op cit, p. 31 fn 5). 3. For further details, see Avalon, 63-54, U. Thakur, Op. cit, pp. 31-32 4. Cf. Avalon, 67. 5. For other details, see Ibid., 65ff, U-Thakur, pp. 31-32.
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jars). Shrines containing her images are reverentially visited, nine-day Vratas performed, fasts duly observed and the sacred Candi read on the Mahāştami day. Even now women folk bathe in the rivers or tanks early every morning for the first nine days of the bright fortnight of the month of Asvina and worship the small images of the Devī, made of clay, with all devotion. All these undoubtedly show that this practice of worshipping the Devi has been followed from times immemorial.
The most peculiar characteristic of this religion is that women and Śūdras are not at all prohibited from practising the Sadhana. The Rudrayamala says that a woman may also be a Guru who is a Kulīna (practising Kulācāra), of auspicious appearance, fair-faced and lotus-eyed, endowed with intellect, calmness of mind, proficient in mantras and in their meanings, ever engaged in japa and devoted to the worrhip of her Istadevatā.1 The Gautamīya Tantra declares that the people of all castes, irrespective of sex, may receive its mantras. In the Cakra there is no caste at all, even the lowest Caņdāla being deemed, whilst therein, higher than the Brāhmaṇas. The Mahānirvāna Tantra' says: "That low Kaula who refuses to initiate a Candāla or a Yavana into the Kaula dharma, considering them to be inferior, or a woman out of disrespect for her, goes the downward way. All two-footed beings in this world, from the vipra (Brāhmaṇa) to the inferior castes, are competent for Kulācāra." This is no doubt the most revolutionary aspect of this religion which in the course of centuries attracted millions of follou ers to its fold.
Another great factor that contributed to its tremendous growth and popularity is that in the Tantras, the duties of each of the castes as well as those of the king are not prescribed much differently from Manu, the great law-giver. The Mahānirvāna Tantra speaks very highly of the family life. It rigorusly prescribes that one should never be allowed to take to ascetic life who has children. wife or such like near relations to maintain. We have in the ninth chapter of the Mahānirvana Tantra (Saṁskāras) "sacraments from conception until marriage". entirely in consonance with Brāhmaṇic texts. In the tenth chapter we have the direction for the disposal and the cult of the dead (Sraddha). "A peculiarity of the Saktas in conncetion with marriage consists in the fact that side by side with the Brāhma marriage for which the Brāhmaṇic prescriptions are valid, there is also a Saiva marriage, that is, a kind of marriage for a limited period which is only permitted to the members of the circle (cakra) of the initiates. But children out of such marriage are not legitimate and do not inherit.4" Thus, the Brāhmaṇic raw also applied to the Śāktas and as such the section concerning civil and criminal law
1. Ibid. 807-08 ff. 2. Cf. "Sarva varnādhik āraśca nārinānu yogyameva ca". 3. Chap, XIV, Vs. 137 and 134. 4. Avalon, 117. It is, however, incorrect to call them illegitimate children, on
the other hand, off-springs of a Brahma marriage are preferential inheritors.
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in the eleventh and twelfth chapters of the Mahānisvāna T antra substantially agrees with Manu.
The prevalent Vedic ritualism of the day was too powerless to face the new communities springing up all over the country. From the Karmakända we have, there, to turn to Jñānakānda in the Vedic-religion which finds elaborate representation in the Upanişads. Besides the earliest ritualism of yajñas being philosophised upon in the earlier Upanişads, we find that the foundation for a new elaborate ritualism was fully laid in many of the latr Upanişads. Keeping in view the new changes, the philosophy of pañca-upāsanā (five-fold worship viz. the worship of Śiva, Devi, Sun, Gaņeśa and Vişnu) was developed out of the mystery of Praņava ('Om') of which some features are also to be clearly seen in the Brāhmaṇas, As a matter of fact, such upakaraṇas of Tantric worship as grass, leaves, water etc. seem to have been adopted from the Vedic worship along with their appropriate incantations This may thus be regarded as the earliest configuration which Tantricism had on the eve of "these silent but mighty social upheavals through which the Aryanisation of vast and increasing multitudes of new races proceeded in pre-Buddhistic India, and which had their culmination in the eventful centuries of the Buddhistic coup-de-grace.”2
The great problem to be tackled was the aryanisation of this new India that was rising and surging furiously from every side against the fast-dwindling centres of the old Vedic orthodoxy struggling hard for its existence. The religious movements of the Bhāgavatas, Śaktas, Sauras, Šaivas. Gāņapātyas. Jainas and Buddhists absorbed many of the non-Aryan races and cast their life in the mould of the Vedic spiritual ideal which largely minimised the gulf existing between them and the Vedic orthodoxy, ending in their gradual amal amalgamation in the course of a few centuries Thus, the pre-Buddhistic phase of Tantric worship is a fact to be reckoned with in the early history of India much before the appearance of the Buddha. I ts foundation wrs so widely and firmly established that, notwithstanding the ceaseless cfforts, Buddhism could not dislodge it, but was in turn itself swallowed up by this Tantric worship within a short span of a few centuries. This wonderfully transformed Buddhism soon appeared on the arena in its new attractive garb as the Mahāyāna.3
The worship of Sakti was predominant throughout eastern Indi a. Like the worship of Śiva, the worship of Sakti was equally widespread. There is, however, a great difference in that there is a marked paucity of legends and stories recording attainment of Siddhis by the worshippers of lord Siva whereas the stories regarding Säkta devotees attaining miraculous powers are numerous.
1. Cf. the discourse about the conception of Śiva. 2. Avalon, op. cit., p. 554. 3. For other details see Ibid. 556 ff, U. Thakur op. cit, p. 37.
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This is probably because Šakti was supposed to give Siddhis only, but the god who could award mukti or salvation was Lord Siva, which was certainly a higher thing. Some of the greatest saints and upā sakas of Mithilă, such as Devāditya, Vardhamāna, Madana, Upādhyāya, Gokulanātha Upādhyāya, Mahārāja Rāmeśvara Simha, Gananātha Upadhyāya, Lakşmīnátha Gosain and a host of others, were associated with Śakti. Every house-hold has a Gosāuni (Sakti goddess). There are still many pīthas and centres of Tantricism where Sadhakas from different parts of the country come to practise Sadhana. Moreover, the first verse taught to a child is in praise of Sakti. The popularity of Aripana or Alipana (painted Yantras on the ground); the names of Maithilis and Bengalis such as Tantradhari, Tantranātha, Śaktinātha, Khadgadhārī, Tárācaraṇa, Adya-carana etc, the Sābara rites of women, the vogue of fish and meat eating, Pāga or Tántric head-dress, the offering of sweet cooked rice in milk and the feeding of Kumāris (Virgins) known as Pātari ceremony on all auspicious occasions, the widespread public worship of the earthen images of Durga in Daśaharā or Vijaya-daśami, the worship of the Lingam (a veritable Tántric symbol), the Mātrkā Pūjā, the performance of NaināYugina and the prevalence of Dikșa (Istamantragrahana)--all these briefly point to the great importance of the Sakti cult in the life of the people of eastern India But, all told, the fact remains that the glory and honour that the Tantras had, and received, in the time of those great Sadhakas and Mahārājas Krşnacandra and Sivacandra of Bengal and Lakşmiśvara Simha and Rameśvara Sinha of Mithilā no longer exist. This is the reason why the Tántric Sadhakas of Bengal and Mithila are not so well-known at present.
This reverence for and adoration of Sakti has immensely influenced the script and literature of the land. Not only there are a large number of Tantric works written and compiled in Sanskrit, not only there are almost all writers praising. Sakti or the Primal (Adya) Energy, but the very script of eastern India has developed in accordance with Tāntric Yantras. The history of this peculiar development of the Varnas has been elaborately dealt with in the Kamadhenu and the Varnoddhāra Tantra 1 The añji (F) sign in the beginning of Maithili alphabet is also due to the Tántric influence, for it represents the Kundalini (Mülādhāra).2
Another very important result of this Tántric predominance has been the composition of popular songs of the Goddess Durgā in local literature, without which no auspicious religious ceremony can ever begin. Besides a large number of songs, there is a great number of documents relating to incantations and charms which, though not fully understood now by the experts of the Mantra-Sāstra, nonetheless, serve their purpose very efficaciously. 3
1. Also cf. Woodroffe, The Garland of Letters (Varnamala). 2. Journal of the Assam Research Society, Vol. I, p. 3; U. Thakur, op. cit. pp. 42-43. 3. JBRS., XXXIII. pts.-i-ii, pp. 50-52.
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Thus, the influence of the Tantric practices has been so great upon the life of the people of eastern India, particularly Mithila, Bengal and Assam, that all their daily activities are practically dominated and governed by the principles of the Tántric religion. The Kaula and Daśa-mahāvidyā, however gained wide popularity in course of time. The Kaulas became the protagonists of Vāmācāra or Vāmamārga sect and Daśa-mahāvidyā. Kāli, Tārā and Bhuvāneśvari have now prominent place in the life of the people. Agama does not necessarily mean "a sacred book appealed to by Vämācārins" as opposed to Nigama of the followers of Dakşiņācāra. Nor is the term Vāmācārin itself a synonym for Kaula, for a person may be the first without being the second.
In ancient times Dakşiņācāra was more popular and widely practised. It produced great Sadhakas. But in course of time (probably about a century ago) people came to be intensely influenced by the Vāmācāra practices. The mode of worship in the two mārgas is quite different. It is true, one who follows the Vāmācāra attains Siddhi soon; but it is very difficult to practise it successfully and as such there is every chance of a fall in this mārga. Vašiştha and other Sadhakas followed Dakşiņācāra and were great devotees of the goddess Tārā. Great Sadhakas have from timg to time appeared on the scene and inspired people to practise this religion. Dakšiņācāra was therefore, (and is atill) looked upon with high regard innumerable Sadhakas followed this path, whose life-history, full of miraculous feats and wonderful achievements, ahs now passed into legends handed down from generation to generation and is yet an object of popular study and reverence.
Side by side with Dakşiņācăra, Vāmācāra and Kaula also gained much popularity and soon gave rise to Abhicāra-Karma2 (black magic, mummery, witchcrafts etc.) among the low classes and women. This had no doubt a dongerously demoralising effect on the morale of the common people, and it was this Karma that largely contributed to the unpopularity of the Tantras in general and the growing hatred for the Sadhakas in particular. Indeed, the divine qualities inherent in this sect are very difficult to practise, and, therefore, in the absence of the right interpretations and understanding people took to degrading forms of debauchery
1. Umesha Miśra, Maithila Samskrti o Sabhyata (in Maithili), pt. II. p. 181 U.
Thakur, op. cit pp. 44-45. 2. This Abhicāra-karma was unfortunately the indirect result of the Arimardana
Homa or Nigraha Homa i. e. "the object of punishing an enemy" fully dealt with and enumerated in the thirtyfirst chapter (Arimardana Homa) of the celebrated work Tantrarāja-Tantra (The King among Tantras), edited by Sir John Woodroffe (Arthur Avalon). verses 3-6 of this Chapter speak of certain things which should be known regarding the enemy before a Homa is begun (Ibid., pp. 94-95)
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under the garb of the Tantric Sadhana. The result was obvious. The divi e Tantras came to be stigmatised as a libidinous phallic necromancy.
Lakşmidhara, in his commentary on the thirty-first verse (śloka) of Saundarya Lahari of Sankarācārya ahs given the names of sixty-fore Tantras, i. e. Candrakala, Jyotsnavati, Kalanidhi, Kularnava, Kuleśvari, Bhuvaneswari, Barhaspatya and Durvā samata, in which the Brāhmaṇas, the Kşatriyas, the Vaiśyas, the Sūdras and even the mixed castes have been given equal rights to perform meditation.1 The first three are advised to attain Siddhi through Dakşiņācara practices and the Śüdras and the mixed castes are required to undergo Sādhana through Vámācāra. It is due to this liberal attitude that there has been no sect-rivalry since hoary past to the present day. One finds Saivas, Sāktas and Vaisnavas living together in perfect harmony in one and the same family. Whenever fish or meat is prepared in one family the members, though belonging to the different sects, sit together in one row and take their meals ungrudgingly, the only difference being that the Vaişnavas keep away from taking fish or meat. The Brāhmaṇas daily worship the Sālagrama (Visņu) and rub Srikhandacandana and ashes (bh7sma) of Siva on their forehead, arms, ears and other parts of body. Side by side with these gods, they worship Istadevī, the symbol of Sakti and also put vermillion marks on their forehead. Durga Pūjā is celebrated with the same zeal and vigour as Křsņāstami or Janmāştami and Sivarātri.? All this has resulted in wonderful blending of different religious sects and perfect harmony among their followers, a feature hardly to be seen elsewhere. Even the most orthodox Brāhmaṇas participate in Muslim religious festivals and also those of the low castes, and vice-versa. It is, therefore no exaggeration to say that in this part of the country we have the real Indian culture in all its broad aspects, still flourishing, to which the celebrated Tantric religion has made its singular contributions.
1. Umesha Miśra, op. cit., p. 18ff. 2. U. Thakur, op. cit. p. 45.
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The Five Apabhramsa Verses Composed by Munja, the Paramara King of Malava.
H. C, Bhayani
Gujarat University, Ahmedabad. As an instance of the Sarnkirņa type of the Catuspadi Dhruvā used in the Apabhramsa Sanidhibandha, Hemacandra has cited under Ghandonuśāsanal 6, 22 the following verse that illustrates an admixture of two different varieties of Catuşpadi.
Cūdullau bāhoha.jalu mayaņā kamcua visamathaņa ia Mursjini raia wūhadā
pamca vi kāmahu pamca sara
'cūdullau, bahoha-jalu, nayana, kamcua and vişama-thana these five Dohās, like the five arrows of the Love-god, were composed by Muñja'.
This verse has a unique historical importance in that it records the suthor: ship of some Doha verses composed by Vāk pati Muñja, the famous Paramāra king of Mālava, who flourished during 975-995 A. D. He enjoyed great fame in legend and history for his romance, heroism, literary talent and patronage to literature. The laudatory verse gives five Pratikas or characteristic words one from each of the five verses of Muñja which had become famous among the literary circles due to their poetic excellence. It was a traditional device to record in a fool-proof manner the authorship of some isolated Muktaka-like verses. Now the problem is that of identifying the five Apabhrarśa verses credited to Muñja. Fortunately for us Hemacandra seems to have preserved them for the posterity. The cüdullau-and the bahoha-jalu verse are given in the chandonusā sana at the same place as the commemorative stanza noted above, i. e. under 6, 22.
The cüdullan verse occurs also in the Siddhahema under 8, 4, 395 with slight slight variation in the third Päda. The text according to the Chandonuša sana is as follows:
Cadullau cuņņihoisai muddhi kaoli nihittau
'1. Velankar's edition, Singhi Jaina Series No : 49, 1961, Pp, 209. 2. See e. g. Prabandhacintamani of Merututunga (ed. Muni Jinavijaya 1933); P.11,
where verses no. 10 and 19 give the pratikas or characteristic words of some famous Gāthās of Sātavāhana which have been given under verses no, 11 to 18,
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niddaddhan sāsāndaliņa
baha-salila-samsittan
The Siddhahema has kavoli for kaoli and sāsānala-jalajhalakkiau for the third Páda.
The verse can be translated as follows:
'O simple girl, your bracelet, positioned as it is under your cheek will be reduced to powder, having been (first heated by fiery sighs and then sprinkled with water of your tears'.
The second i. e, the bahoha-jalu verse is as follows:
tain tettiu bāhaha-jalu sihiņaitari vi na pattu chimichimivi chimivi ganidatthalili simisimivi simivi samattu
Translation : Even though it was a flood of tears, it interspace her breasts it boiled up just on the cheeks sounding chimi chimi and so disappeared sounding simi-simi'.
The remaining three verses are to be identified from among citations given in the Apabhranusa section of the Siddhahema. There is some uncertainty about the identification of the third i. e. the nayanā-verse. Probably it is the same as the one cited under 8, 4. S14 to illustrate the use of prātva. It is as follows:
amsu-jale prālva goriahe sahi uvvattā nayansara tem samnpesia
demti tiricchi ghatta para
Translation : 'It seems that the arrows of glances of the fair damsel are deflected due to the stream of tears-hence, even though charged straight, they strike sideways'.
The fourth verse, i. e. the kamcua-verse is the same as the one cited under Siddhahema 8, 4, 431. It is as follows:
pahia ditthi goradi ditthi maggu niamta amsūsasehi kamcuā
timtuvvāņa karamta
'O wayfarer, did you meet my fair lady?' 'Oh yes, I saw her gazing at the road (of your return), and drenching and drying her blouse in turn with her tears and sighs'.
Lastly, the visama-thana verse is the same as the one cited under Siddhahema 8, 4, 350 (as also under 362). It is as follows:
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phodeņti je hiadaü appaņaū tāhā parāi kavana ghện rakk hějjahu lovaho appaņā
bālalė jāyā visama thana
Translation : Those who burst open their own heart-what compassion can they have for others ? Men, be on your guards-the breasts of the young girls have become terrific.'
Apart from the evidence from the Chandonuśasana, some further evidence, although indirect, is now available in support of Muñjś authorship of the abovequoted verses. The Apabhramsa poem Jambūsāmcariya was composed by Vira in V. S. 1076 ( = 1020 A. D.)1 Vīra was connected with the places called Simdhuvarisi and Gulakheda in the Mālava country, which was ruled by King Bhoja from 1010 to 1055 A, D. Bhoja was preceded by Sindhurāja (995-1010 A. D.) and the latter by Muñja (975-995 A, D.) The Jamūsāmicariya was composed some twetyfive years after the death of Muñja. Now from this work of Vira it can be seen quite clearly that not only he was familiar with important literary works of his times including the Apabhramsa works of Puşpadanta (C. 930-980) and Svayambhū (end of the ninth century), but he was also intimately influenced by them. Jambūsāmicariya reveals numerous borrowings in ideas and words, from earlier well-known Apabhramśa, Prakrit and Sanskrit works. Thus Vira cannot but be famliiar with the Apabhramśa compositions of the royal poet Mañja, who was famous also for his literary patronage--so much so that later on it was extolled in such terms as 'gate Muñje yasaḥ.puñije niralamba sarasvati', ? i. e. 'with the departure of the glorious Munja, the Goddesss of Learning has become a homeless wanderer. And from one passage of the Jambūsāmicariya we get an actual indication of the influence of Muñja's Apabhramsa poems.3 Describing the love-lorn condition of the ladies of Rājagpha at the sight of Jambūsvåmin, the poet says:
kähi vi virahāṇal sampalittu amsujalohaliñ kavolelkhittu pallattai hatthu karamtu suņņu damtimu cüdullau cuņņu euņņu kahi vl harsyanmdaņarasu ramei laggamtu anglě chamachamachamei
(Jambūsāmcariya, 4, 11, 1-3).
Translation : 'In the case of some lady the fire of separtion so flared up that it reduced to powder the ivory bracelet that was drenched with tears due to
1. Edited by V. P. Jain, Bharatiya Jñänapitha, Varanasi, 1968. 2. Prabandhacintamani, F. 25, line 2. 3. In this connection it is also significant that Vira has stated that he was closely
associated with the state business. See Jambūsāmicariya, Prasasti, V. 5.
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its contact with the cheek, thus rendering the hand bare. The sandal paste âpplie: to the body of some other lady emitted sizzling sounds'.
These lines clearly echo the ideas and the wording of the Cūdullau-verse and the bahoha-jalu-verse of Muñja quoted above. Especially Cūdullau and Chamachamachamei in the Jambūsamicariya passage are tell-tale words, and the sequence of the two poetic images here is the same as given in the commemorative verse recorded in the Chandonusasana. It means that to both of these authorities the two Muñja stanzas were known from a source where they appeared in this very order. 1
The evidence from the Jambūsāmicariya confirms the Chandonuśasana stanza abont Munja's authorship of particular Apabhramsa verses, and it also establishes the fact that the Cüdullau-verse and the bahajalu-verse were closely associated and along with some other verses of Muñja they formed a close group.
1. It should be noted that the Gatha-Dhavala no. 6 (kasarekkacakkaoete.) at the
Jamtusäni cariya very closely resembles the Doha-Dhavala under Siddhahema 4, 5, 350 (dhanaln bisūrai Damiaho etc.), they also must have a common source,
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Jainism And Vegetarianism
Dr. A. N. Upadhye
Vegetarianism is understood with different significations in different contexts, but, viewed in the back-ground of Jainism, it rmounts to using a strictly vegetarian diet either in the procurement or in the constitution of which no harm or injury to apparently living beings is involved directly or indirectly. It is closely linked up with ihree fundamental principles of Jainism: Ahimsa or Noninjury, Samyam or Self-control and Tapas or Austerity.
Ahimsa is the basic principle on which the Jaina moral code is built. In sinple words, 'Live and let live' is the creed of Jainism. As every one of us wants to live, enjoy pleasures and escape pain, so every other living being wants to live, enjoy comforts and avoid pain. If we want to exercise our right to live, we must concede the same right to others as well. It is a simple moral law of reciprocity. Naturally man has no right to slaughter animals for his food or for his pleasure, If he does so by his superiority in the cadre of biological evolution, his action is not justi. fiable in any way. And if he wants to lead a life of justice and equity in society, he must have the highest respect for the entire animal world, nay the sanctity of life as such. This necessitates that he musttake to a vegetarian diet.
Man is endowed with the faculty of discrimination between right and wrong, just and unjust, and fair and unfair. His superiority as man depends on his ability to exercise this faculty with the utmost sincerity. As an enlightened member of society he cannot afford to arrogate to himself privileges and prerogatives which are not available to others. An individual cannot enjoy any rights. without the responsibilities accruing from them in fact, every respectable citizen has more duties than rights. He is expected to lead a life of self-control. Such a self-control, according to Jainism, amounts to various kinds of restrictions. in the matter of foodx, in acquiring possessions, and in the enjoyment of pleasures. Moderation is the first step on the path of self-control. By observation, the Jaina teachers have concluded that animal food not only involves destruction of life but it is also stimulative to the animal passions, and every one, therefore, who wants to lead a sober, sensible and religious life should live on a vegetarian diet.
Austerities of various kinds are prescribed in Jainism, and a pious Jaina. is expected to observe different austerities such as fasting, eating less than one's
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fill, putting restrictions on the use of certain items of food, and renouncing delicacies : in fact, he is to eat to live but not live to eat. Of course these auste rities are intended only for those who are sufficiently advanced on the path of religious life.
This doctrine of non-injury has led the Jaina Teachers to study in detail the whole range of the animal world and to classify the various living beings under different grades according to their development ane sense-faculties. This was a practical necessity. If injury to living being is to be avoided gradually, it was necessary to study what the various living beings are and how they stand graded. Living beings fall into two broad classes, Trasa or mobile and Sthāvara or immobile. Trasa beings are those which possess two, three, four and five sense-organs. Sthāvara beings are those which have cnly one sense-organ, namely, that of touch, and they are of five kinds : earth-bodied, water-bodied, fire-bodied, air-bodied, and vegetables. Jaina Teachers had realized long back that plants had life, and they had treated them as one-sensed beings.
When the Jaina Teachers studied the animate world in such detail, complete abstinence from injury to beings, in a strict sense, was practically impossible. Naturally every individual could not avoid injury to living beings in an absolute sense. The religious devotees, according to Jainism, are broadly divided into two groups, namely, monks and householders, again with various stages in themselves. A monk observes the vow of Ahimsa in a very strict sense : in fact, he is not liable to any injury to living beings, even in their potentiality, in his diet. To put it plainly, he does not 'use in his food seeds which are capable of growing into plants. Thus a monk avoids all kinds of harm to livings being, both Trasa and Sthāvara.
The case of a house-holder is slightly different. He has social obligations and practical duties. Naturally according to his religious stage, he does his best and avoids injury to Trasa beings. It is not always possible for him to avoid injury to Sthavara beings. But even there he is ever struggling to see that he minimizes harm unto Sthāvara beings. Naturally in his diet he does not use such fruits, roots and Egreen vegetables as contain living organisms.
The above details make it abundantly clear that Jainism not only insists on strict vegetarian food, but even there those items of vegetarian stuff which involve harm unto subtle organisms are also to be avoided by a pious Jaina. Apart from its religious aspect, vegetarian food has its value in various ways. It is only a strict vegetarian that can assure himself that he is a cultured citizen who is not living at the cost of any other life in this commonwealth of animate beings. Further, the vegetarian diet is conducive to a dispassionate and balanced mind and a detached
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and equable attitude. It is thus the baser emotions and lower instincts are sublimated resulting in nobler virtues of universal kindness, equality, and brother-hood.
It is admitted by all that nowhere else, as in India, has the doctrine of Ahimsă, universal non-injury or non-violence, had so great and long continued an influence on national character. It is therefore, in the natural course of our national history and heritage that outstanding men and women of our land should adhere to vegetarianism, both in public and private, so that they might create a kindlier atmosphere round about them and prove themselves standards of high thinking and plain living
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Visvamitra in the Kalpasutras Dr. Umesh Chandra Sharma, M, A., Ph. D., Senior Research Fellow, Centre of Advanced Study in Sanskrit, University of Poona,
Poona-7. The Sütras. as it is quite natural, generally provide important data about the gotra and pravara system among the Viśvāmitras. They have devoted a considerably large portion for the Viśvāmitras who occupy a significant place in our national and cultural history.
The SŚs, however, appear to be an exception in this connection. It devotes a major portion to the legend of Sunaśśepa's sacrifice and the important role played by Viśvāmitra in it. The narration runs parallel to that of the AB. The language and the style are also the same. It is certainly a repetition from the latter except minor verbal differences here and there which are of no importance. Viśvāmitra officiated as a Hoty priest in the said sacrifice (where Sunaśśepa was offered as a victim), Jamadagni, Vasistha and Ayāsya being the other prominent priests. Sunaśśepa could not be sacrificed partly due to good offices of Viśvāmitra. He adopted him as his own son and accorded to him the highest place among his sons. He was called Devarāta after this and became a famous Kuśika.
The Sūtras deal in detail with the gotra and the pravara systems of the family of the Viśvāmitras. These are as follows
1. The Kuśikas have three rşi-pravaras-Vaiśvāmitra, Daivaräta and Audala.
2. Viśvāmitra, Devaśravas nnd Devataras--these are sraumata-Kāma.
1. ŚŚS XV. 17-57. Cf. also AB VII, 13-18. 2. According to the Bauss() 31, the following are mentioned as the Kuśikas
Kuśikas, Párnajanghas, Vārak yas, Audaris, Māņis, Bșhadagnis, Alavis, Aghattis, Apadyapas, Antakas, Kamantakas, Vāşpakis, Cikitas, Lāmakayanas, Salankāyanas, Sankāyanas, Laukas, Gauras, Saugantis, Yamadūtas, Anabhimlātas, Tárakāyanas, Cauvalas, Jabalis, Yajñavalkyas. Vidandas. Bhauvanis, Saubabhravis. Aupadahanis, Audum baris, Bhārisţikis, Syameyas, Caitreya 3, Sālāvatas, Mayüras, Saumatyas, Citratantus, Manutantus, Mantus, others
denoting the word 'Tantus' in the end, Bābhrvyas, Kalāpas and Utsaris. 3. BauśS(P) 31, ĀDSS XXIV. 9. 2, HirśS XXI. 3. 12.
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kāyanas. They have the following three rși-pravaras-Vaiśvāmitra, Daivaśravas and Daivataras.
3. The Katas also have three rși-pravaras-Vaiśvāmitra; Katya and Ātkıla, 3
4. The Dhanañjayast have these three sși-pravaras—Vaiśvāmitra, Madhucchandas, and Dhānañjaya.
5. The Aghamarşaņa-Kuśikas have the following three rşi-pravaras-Vaiśvā. mitra, Āghamarşaņa and Kausika.5
6. The Purana-Vāridhāpayantas have two rși-pravaras-Vaiśvāmitra and Paurana.
7. The Ajas also have three si-pravaras-Vaiśvāmitra, Madhucchandas and Ājya.?
8, The Astaka-Lohitas have three rși-pravaras Vaiśvāmitra, Āştaka and Lauhita.
9. The Raukşaka-Raiņavas have three 'și-pravaras-Vaišvämitra, Raukşaka and Raiņava.
10. The Indra-Kausikas also have three ysi-pravaras-Vaisvämitra, Aindra and Kausika 10
11. The Rauhinas have three rşi-pravaras-Vaišvāmitra, Madhucchandas and Rauhiņa. 11
12. The Sälankāyanas also have three rşi-pravaras-Vaiśvāmitra, Salaņkāyana and Kausika.12
1. Bauss(P) 33, Após XXIV. 9. 3, ASŚS XII. 14. 3. 2. Katas, Sairindhas, Karabhas, Vājāyanas, Sarhiteyas, Kaukrtyas. Saiśireyas,
Audumbarāyanas, Pindagri vas, Nārāyanas and Närātyas—these are the Katas. 3. Bauss(P) 35, ApS XX. 9. 11, HstŚS XXI. 3. 12, VÁŠS XII. 14. 6. 4. The Dhānañjayas are Kárişis, Āśvavatas, Tulabhyas. Saindhavāyanas. Uştrākṣas
and Mahāk sas. 5. Bauss(P) 36, ĀPŠS XXIV. 9. 6, HirŚs XXI. 3. 12, AsŚS XII. 14. 4. 6. Bauss 36, Āpss XXIV. 9. 13, HirŚs XXI. 3. 12, ĀŠŚS XII, 14. 6. 7. Bauss(P) 40, APŠS XXIV. 9. 9-10, HirśS XXI. 3. 12, The AsŚS XII. 14. 5 and
Daivarāta to this list. 8. Bauss(P) 37. ĀpśS XXIV. 14. 4. 9. Bauss(P) 34. According to Āpss XXIV. 9. 7-8 and Hiršs XXI. 3. 12, only two
are there-Vaišvāmitra and Astaka. According to ASŚS XII 14. 4. the three
pravaras are Vaiśvāmitra, Madhucchandas and Āştaka. 10. Bauss(P) 34. According to AśśS LII. 14. 6., the Renus have three pravaras
Vaišvāmitra, Gāhina and Raiņava. 11. BauSS(P) 39. 12. ASŚS XII. 14. 4.
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13. The Hiranyaretases have three rși-pravaras-- Vaišvāmitra, Hiranya and Retas.
17. The Suvarṇaretases also have three rși-pravaras-Vaiśvāmitra, Sauvarņa and Retas. 2
15. The Kapotaretases have three rşi-pravaras-Vaišvă mitra Kāpota and Retas.3
16. The Ghịta-kauśikas also have three rși-pravaras-Vaiśvāmitra. Ghārta and Kausika.
17. The Sathara-mātharas also have three si-pravaras-Vaiśvāmitra, Sathara and Mathara.5
18. The Sahula.mahulas have three rși-pravaras-Vaiśvāmitra, Sāhula and Māhula.
This is the picture of the pravara system of the Vaiśvāmitra in the Sūtra literature. The Sätras refer to Vaiśvāmitra in other connections also. In the AgGS, he is mentioned among the Saptarsis, the others being Jamadagni, Bharadvāja, Gautama, Atri, Vasiștha and Kaśyapa. The context is the Adhyāya-Utsarjanam (leave after completion of studies). In this rite seats are prepared by the student for the above-metioned Rşis?
The BauŚS refers to the selection of the priests. It enjoins that Adhvaryu priest should be an Angiras, the Brahmā priest should be a Vásiştha, the Hot! should be a Vaiśvāmitra and the Udgāt? should be an Ayāsya. Again, in the context of the Rși-stoma, Viśvāmitra is connected with the seventeenth stoma.'
It has been prescribed in the Sūtra texts that a person desiring victory over enemies should perform the rite known as “Sanjaya' of Viśvāmitra.10, It has been stated in the TNB (XXI. 12. 1-4) that Viśvāmitra performed this four-day rite, defeated his rivals with its grace and got kingdom.
The Vaiss mentions that four chief priests should be descendants of Vasiştha, Bhỉgu, Angiras and Ayāsya respectively, remaining twelve priests can
1. Ibid, XII. 14. 6. 2. Mass XI. 8. 5. 17. 3. Ibid. XI. 8. 5. 18. 4. Ibid. XI. 8. 5. 19. 5. Ibid. XI. 8. 5. 20. 6. Ibid. XI, 8. 5. 31. 7. Ibid. XI. 8. 5. 22, 23. For the exhaustive list of the pravaras of the Viśvamitras,
see OHN BROUGH, Early Brahmanical System of Gotra and Pravara. Camb
ridge, 1953, p. 35. 8. ĀgGS. 1. 2. 2. 9. Bauss. II. 3. 10. Ibid XVIII. 22.
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be selected from among the Kaśya pas, Bharadvājas, Bhrgus Angirases. One authority says that Hoty should be a descendant of Viśvāmitra.
A tarpana should be made to Viśvāmitra after daily bath according to the VaiGS and VaiDS.2 In connection with the upakarana-visarjana, Viśvāmitra is prayed. 3
The MiDa mentions that because a Vaišvāmitra should necessarily be a Hot priest, therefore, the descendants of Bhrgu, Sunaka and Vasiştha do not have the right to be appointed as HotỊ priests.
Thus, it can be said in conclusion, that the Viśvāmitra family is one of the most important families of ancient India. There were several gotras and pravaras among the Viśvāmitras. It has been prescribed in the Kalpasūtras that a descendant of Viśvāmitra should officiate as Hotr priest in the sacrifices. Some of the gotras and pravaras of Viśvāmitra pravara system are followed among the Brāhmaṇa families of the present day India also. For instance the surname 'Kausika' is applied by some of north Indian Brāhmaṇas.
Abbreviations AB
Aitareya Brāhmana. ĀgGS Āgniveśya Ghya Sūtra. ADÁS Apastamba Srauta Sūtra. AŚŚs Āśvalayana Sgauta Sūtra. Bauss Baudhayana Srauta Sutra. Bauss (p) Baudhayana Srauta Sutra (pravara-Khanda) Hirss Hiranyakest Šrauta Sutra. Mass Manava Srauta Sūtra. MiDa Mimaisa Darsana. SSS
Sankhayana Srauta Sutra. TMB Tandya Maha Brahmani. VaiDS
Vaikhānasa Dharma Sutra. VaiGS Vaikhanasa Greya Sutra.
1. ĀDÁS. XXII. 20. 2, ĀŠŚS X. 2. 25, HirŚS XVII. 7. 12. 2. Vaiss XII. 1. 3. VaiGS I. 4, VaiDS II. 13. 4. BhGS, III. 10. 5, MiDa VI. 6. 26. * I am grateful to Dr, V. G. Rahurkar, my supervisor, for useful suggestions in
writing this paper.
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The Quest for a Proper Perspective in
Vedic Interpretation Prof. N. M. Kansara,
Ahmedabad The general impression that the proper interpretation of the Vedas is fraught with innumerable difficulties has persisted since the time of Yăska-about the eighth century B. C. Yaska's Nirukta, Pāṇini's Astādhyāyi, and the Vedic commentaries of Skandasvāmi, Udgitha, Venkatamadhava and Sāyaṇa do help us to some extent in affording a hazy glimpse into various aspects of the teachings of the Rgveda. But the difficulty lies in the fact that there is a yawning gap of at least a thousand years between, on the one hand, the authors of the abovementioned Vedängas and, on the other hand, the original seers of the Mantras; and this has mooted the question as to whether the commentators who came much later in point of time could have grasped the original sense or flavour of the Vedas.
Western Indologists have been constantly hurling this question, with renewed vigour, on our face since more than half a century. And a few indigenous supports too were quite handy for their purpose : Thus, Kautsa in Yaska's Nirukta is held to have branded the Mantras as "meaningless";1 the Mundakopnişad relegated the Vedas to an inferior position in comparison to the Upanişadic lore,2 the Bhagavadgitā was found to have thoroughly thrashed the Vedas as being mere "flowery speech" of the immature fools. And, finally, the ritualistic interpretation of the Rgveda at the hand of no less an indigenous scholar like Säyaņa confirmed and ultimately uprooted the possible hope of ever searching for, or discovering, any mystic or philosophical values, except a few stray and crude ideas in it. The dictum of multifarious interpretative tendency (sarvatomukhā vai vedah) as inherent in the Vedas, and resorted to by the coinmentators to extract their own outlook or interpretation, has added to the already prevalent confusion. The rejection of the Vedas as unauthoritative by the Buddhists and the Jains since
1. Yāska's Nirukta, I, v, 15 : 34r: f H-IT: 2. Mundakopanişad, I, 4-5: fa alcool la H aafaat aafa qir tau 711811
तत्रापरा ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्ववेदः शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्त छन्दो ज्योतिषमिति । अथ परा यया
तदक्षरमधिगम्यते ।।५।। 3. Bhagavadgitā, II, 42 : Alaat great ar 599 rifer: 1 FIATCHIAT: TURİ Alisataifa sfà ll etc., and II, 45 : iyozlararaai...etc.
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very early times has also added weight to the general outlook of the Western Indologists regarding the non-mystic, non-philosophical, matter-of-fact and worldlyand hence "healthy"-approach of the Vedas towards life, thus testifying to the primitive nature of it.
Dr. Louis Renou has painstakingly tried to lay bare the "striking paradox" with regard to the Vedas in that, on the one hand, they are revered or recognised as the omniscient, infallible, eternal principle,...as the source itself of Dharma, as the authority from which arises the totality of Brahmanic disciplines, on the other hand, the philological traditions, relating to the Vedas, that form the very substance of the constituent texts, are from the very early date, weakened, if not altered or lost, even in the most orthodox domains, the reverence to the Vedas has come to be a simple "raising of the hat", in passing, to an idol by which one no longer intends to be encumbered later on.1
It is generally conceded without controversy that the text of the Rgveda and other Vedas as we possess to-day, as one that has come down to us in the uninterrupted oral tradition, has remained uncorrupted for over at least last two thousand years, thanks to the text-preservative device of eightfold Vikṛtis. Inspite of all these efforts of thousands of years on the part of Veda-reciters, aspersions are now being cast on the very authenticity of the uncorrupted nature of the text of the Rgveda by some Indologists who, of late, have been busy at going back to the so-called "rsi-kavi original form of the RV" on the ground of its presupposed rhythmical regularity, the present traditional oral text actually preserved and written down being only a "palimpsest". This is nothing short of an onslaught at the root of the authenticity of the notion of "uncorrupted text" which has so far been confidently accepted as "our basis...and which, even if we hold it in a few instances doubtful or defective, does not at any aate call for that often licentious labour of emendation to which some of the European classics lend themselves."4
Now, as regards the labours of many European and American scholars in unravelling the past of India, particularly the scholars like Sir Charles Wilkins, Sir William Jones, Sir Thomas Colebrooke, Friedrick Schlegel, James Prinsep, August Wilhelm Von Schlegel, Franz Bopp, Wilhelm Humboldt, Friedrick
1. Louis Renou, The Destiny of the Veda in India, 1955, pp. 1-2,
2. cf, Bgveda-Samhita, ed. by Satavalekar, 1 57, p. 7.4: a
cât na: 1 mét fagar: site: muqai neft'fa: 11
ferrer wat gust
3. Fr. Esteller, The Quest for the Original
gveda, an article in B. O. R. I.
Annals, Vol. L, 1909, cf. his other articles listed by Dr. R. N. Dandekar in Vedic Bibliography, Vol. II, pp. 3-4.
4. Shri Aurobindo, On the Vedas, 1956, p. 21.
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Ruckert, Eugene Burnouf, Major General Alexander Cunningham, Franz Kielhorn, Hermann Jacobi, Major Seymour Sewell and many others will always be remembered by the students of Indian history with gratitude and admiration,1 But, as has been pointed out by Shri K. C. Varma and Pandit Bhagavaddatta," there was another band of scholars whose labours, though valuable in many respects, have been vitiated by political or religious or theological bias, and they were not objective in their studies hut were propagandists for the perpetuation of foreign domination of India and endeavoured to convert India to what they considered to be the "true faith", and it is rather strange that an appreciable number of Western authors who have written about India, during the last half a century or so, have been inspired mainly by the latter band. The very Boden Professorship of Sanskrit at the University of Oxford was founded by Colonel Boden with the special object of promoting the translation of the Scriptures into Sanskrit, so as "to enable his countrymen to proceed in the conversion of the natives of India to the Christian Religion" as has been specifically stated most explicitly in his Will (dated August 15, 1811). Professor H. H. Wilson, the first holder of the Boden Chair and the first noble English translator of the RV along with Sayana's commentary, wrote his book, The I eligions and Philosophical Systems of the Hindus', in order "to help candidates for a prize of 200/- given by John Muir, a well-known old Hailey man and great Sanskrit scholar, for the best refutation of the Hindu Religious system."4 Rudolf Roth, who jointly edited with Otto Böehtlingk, the famous St. Petersberg Sanskrit-German Thesaurus, gave out his considered belief that a conscientious European exegete may understand the Veda much more correctly and better than Sayana, and further gave his ruling as a "conscientious European", in his "search for the meaning which the poets themselves gave to their songs and phrases", that the "writings of Sayana and of other commentators must not be an authority to the exegete, but merely one of the means of which he has to avail himself in accomplishment of his task..." The concrete result of the labours of this scholar was the Sanskrit Wörterbuch that has been held to this day as one of the most authoritative basis of modern Vedic exegesis.
1. K. C, Varma, Some Western Indologists and Indian Civilization, an article in "India's Contribution to World Thought and Culture", the Vivekananda Commemoration Volume, p. 165,
2. ibid.. also Pandit Bhagavaddatta, Bharatavarsa-ka Brhad Itihasa, Vol. I, pp. 52-71.
3. Monier Williams, A Sanskrit-English Dictionary, Oxford, 1899, Preface to the New Edition, p. ix.
+. Eminent Orientalists, Madras, p. 72:
5. Theodor Goldstücker, Panini, Varanasi. 1965, p. 266,
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Now, as has been explicitly testified by Theodor Goldstücker, with regard to this Sanskrit Wörterbuch, no other work has come before the public with such unmeasured pretension of scholarship and critical ingenuity as this Wörterbuch, and which has, at the same time, laid itself open to such serious reproaches of the profoundest grammatical ignorance. And further, Goldstücker considers his duty to do so when he exposes Dr. Böethlingk to have been a Sanskrit scholar "incapable of understanding even easy rules of Pāṇini, much less those of Katyāyana, and still... capable of making use of them in the understanding of classical texts."2 And the real worth of the magnum opus of both these scholars has been brought out by Goldstücker int hese words : "It is one of my most serious reproaches against the Sanskrit Wörterbuch, that it not only creates its own meanings, and by applying them to the most important documents of the literature, practically falsifies antiquity itself, but deliberately, and nearly constantly, supresses all the information we may derive from the native commentaries.... Yet while the reader may peruse their Dictionary page after page, sheet after sheet, without discovering a trace of these celebrated Vaidika commentaries, while the exceptions to this rule are so rare as to become almost equal to zero, Professor Weber dares to speculate on the credulity of the public in telling that this Dictionary ALWAYS quotes the native exegesis !"3
Roth was supported by a self-opinionated American scholar, William Dwight Whitney, who stated that the "principles of the German School are the only ones which can ever guide us to a true understanding of the Veda." And this method consisted of the road which is prescribed by philology : to elicit the sense of the texts by putting together all the passages which are kindred either in regard to their words or their sense" and guess the sense of a word by "having before them ten or twenty other passages in which the same word recurs." Goldstücker has called the bluff of Roth's claim by pointing out to the fact that there are many instances in which a Vaidika word does not occur twenty or ten, nor yet five or four, times in the Sarhitās; how does Roth, then, muster his ten or twenty passages, when, nevertheless, he rejects the interpretation of Sāyaṇa.5 One wonders how Madhava-Sāyana. one of the profoundest scholars of India, the exegete of all the three Vedas and of the most important Brāhmaṇas and a Kalpa work, the renowned Mīmānsist, the great grammarian who wrote the learned commentary on the Sanskrit radicals had not the proficiency of combining in his mind or otherwise those ten or twenty passages of his own Veda, which Professor Roth 1. Ibid., p. 272. 2. Ibid., p. 275. 3. Ibid., p. 286. 4. American Oriental Society Proceedings, October, 1867, quoted by Pandit
Bhagavaddata, op. cit., p. 39 ft. nt.. 5. Theodor Goldstücker, op. cit., p. 270.
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has the powerful advantage of bringing together by means of his little memo randa :1
Even the much-extolled Max Müller himself was, unfortunately, a bigoted and dogmatic Christian? as would be testified by some of his fulminations which make interesting reading as examples of a distorted judgment :
(a) "History seems to teach that the whole human race required gradual education before, in fullness of time, it could be admitted to the truths of Christianity's
(b) “A large number of Vedic hymns are childish in the extreme : tedious, low, commonplace."4
(c) "The ancient religion of India is doomed and if Christianity does no, step in, whose fault will it be?"5
Sir Monier-Williams, the successor of Professor H. H. Wilson to the Boden Chair at Oxford and the author of the Sanskrit-English and English-Sanskrit Dictionaries, minces no words when, in his defence against personal criticism to which he had for many years been content to acquiesce without comment, declares by way of an explanation in the following words :
"I have made it the chief aim of my professional life to provide facilities for the translation of our sacred Scriptures into Sanskrit, and for the promotion ot a better knowledge of the religions and customs of India, as the best key to a knowledge of the religious needs of our great Eastern Dependency. My very first public lecture delivered after my election in 1860 was on 'The Study of Sanskrit in relation to Missionary Work in India' (published in 1861)."
Not only that, he has further expressed his cherished aspirations as follows:
"When the walls of the mighty fortress of Brahmanism are encircled, undermined, and finally stormed by the soldiers of the Cross, the victory of Christianity must be signal and complete."?
1. Ibid. 2. Kailash Chandra Varma, op. cit., p. 195. 3. Max Müller, A History of Ancient Sanskrit Literature, p. 32. +. Pandit Bhagavaddatta, op. cit., p. 39, quoted from Chips from a German
Workshop, Second Edition, 1866, p. 27; also India, What It Can Teach Us,
Lecture iv. 5. Ibid. p. 38, quoted from a letter of Max Müller to Duke of Argyll, Under Secre
tary of State for India (dated the 16th December, 1868). 6. Monier-Williams, Sanskrit-English Dictionary, Preface to the New Edition,
pp. ix-x. 7. Pandit Bhagavaddatta, op. cit., p. 9, १४
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Even Winternitz is not free from the theological bias, when he upholds the sublimity of the poetry of the Old Testament and fails to allude to the sublimity of the Bhagavadgitā or the Năsa diya-sūkta, 1 the latter being, in contrast, adjudged by no less a historian than Will Durant as the loftiest poem, 2 and which Zenaide A. Ragozin finds "reaching the utter most bounds of philosophical abstractions .... never obscure, unless to the absolutely uninitiated."
As a net result of this combined and organized conspiracy of the past few generations of European Indologists in the direction of undermining the supreme sanctity of fundamental Scriptures of ancient Indian religion, the hymns of the Rgveda are nowadays almost readily accepted by educated Indians and most of the modern Sanskrit scholars to be nothing more than the sacrificial composition of a primitive and still bar barous race, written around a system of ceremonial and propitiatory rites, addressed to personified Powers of Nature and replete with a confused mass of half-formed myths and crude astronomical allegories yet in making; and that it is in the later hymns that the first appearance of deeper psychological and moral ideas are perceived, which, some think, are borrowed from the hostile Dravidians, identified with "robbers" and "Veda-haters" freely cursed in the hymns themselves. 4
As has been very succinctly put by Shri T. V. Kapali Sastry, Europe, inspite of the scrupulous care associated with all scholarly labours that it brought to bear upon its Vedic studies, could not escape the limitations of its temperamental mould which is in fact diametrically opposed to the Indian spirit; it surmounted the difficulties in understanding the texts by partly drawing upon conjectures and; partly on certain inexact sciences, very often conjectural-comparative philology comparative mythology or comparative religion. 5 Indian students and seekers of knowledge of the Vedas especially in the last century followed the lines of European scholarship and swallowed as gospel-truth European opinion because it had gained in prestige by its association in their minds' with European science and culture which is a different matter altogether, estimable indeed, based as they are on different firmer grounds. Now, there is no reason why we should continue to repeat the same song of the nineteenth century Europe, be it the theory of imaginary migration of imaginary Indo-European race, the fancifully "reconstructed” IndoEuropean language, the imaginary chronology and consequent relative contemporaneity of the Rgveda in relation to Avesta and Ancient Greek of Homer, the pre
1. Dr. M. Winternitz, History of Indian Literature. Vol. I, p. 79. 2. Will Durant, Story of Civilization, p. 409. 3. Vedic India, 1195, pp. 426-427. 4. Shri Aurobindo, op. cit., p. 3. 5. T. V. Kapali Sastry, Lights on the Veda, Pondichery, 1961, p. 10. 6. Ibid., p. 11.
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Vedic chronological position of the Indus Valley civilization and also the Hittite one, and above all the unquestionable air of authority of St. Petersberg SanskritGermam Wörterbuch, the compilers of which last have been called the "Saturnalia of Sanskrit Philology" by Goldstücker. The religious prejudices of these scholars have been passed down to the last few generations of Indian Indology as "scientific" and hence "impartial" to such an extent that a modern critical Indologist like J. Gonda observes with astonishment: "It is indeed somewhat strange that scholars should have acquiesced for nearly a century in translation and interpretative method of Rudolf Roth and Hermann Grassman","
It is for these reasons that a penetrating fresh inquiry into, and thorough revision of the opinions among scholars about the Vedic culture and Vedic worship is a desideratum, especially when times and conditions have changed; new facts and evidences have accumulated, modern sociologists have revised their oldworld opinions of past generations of scholars in regard to human origins, the history, polity, psychology, religion and life in general of at least some of the early races and peoples whom we call primitive."
What, then, is the way out? Are we to continue to take the tradition. about this most ancient sacred Scripture of India, the Rgveda, as the repository of the mystic wisdom of ancient seers of remote age, to be a big hoax carefully perpetuated for thousands of years? Are we to rely upon the "impartiality" and "authoritative" scholarship of the generations of European scholars of last one century in the face of overwhelming evidence to the contrary recorded by themselves in their own works and memoirs? The choice is too clear to be elaborated further. As has been aptly put by Shri G. K. Pillai, slightly in a different context, prejudices and preconceived notions should be given up, and one should approach the shrine of truth with the object of finding out the truth."
What, then, are going to be our tools? The question is not so baffling as might have been a century ago. Hundreds of scholars both Indian and non-Indian have contributed their mite to the study of the Vedas and have fashioned fresh tools in the forms of publication of a highly correct edition of the Rgveda, of the commentaries of Sayana, Venkatama dhava, Udgitha, Skandasvamin and Dayananda Sarasvati, of the completely revised and fully exhaustive indices and concordance of the whole range of Vedic literature right from the Samhitas to the Vedängas, of the studies of various Brahmaņas, Aranyakas and Upanisads, of the critical studies of various aspects of Vedic thought by scholars like Anand Coomaraswamy, Shri Aurobindo, Shri V. M. Apte, Shri B. K. Chattopadhyaya, Dr. J. Filliozat, J.
1. Theodore Goldstücker, op. cit., p. 290.
2. J. Gonda, The Vision of the Vedic Poets, The Hague. 1963, p. 7.
3. T. V. Kapali Sastry, op. cit., pp. 10-11.
4. Govind Krishna Pillai, Vedic History, Allahabad, 1959, p. 3.
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Gonda, Dt. V. Raghavan, Swami Prabhavananda, Swami Satprakashananda, Professor H. D. Velankar, Dr. Vasudeva Sharan Agrawala, Pandit Satavalekar, Pandit Yudhisthira Mimāmsaka, Shri K. C. Varadachari, Dr. T. G. Mainkar and a host of others. All the help that can be requisitioned from the text-critical, exegetical, literary, linguistic, grammatical, lexicographical, historical, sociological, psychological and parapsychological studies of the ancient world should be most welcome, without, of course, losing the sight of the essentially mystic nature of the language and thought-content of the text, which should no longer be regarded as being a mere oldest linguistic record of primitive Indo-Aryans. At the same time the ancient interpretative traditions of the Brāhmaṇas. Aranyakas and Upanişads, of the Nighantus, the Prātiśākhyas, the Niruktas, the Paņinian and other contemporary ancient schools of Sanskrit Grammar, should also be given due weight in view of their comparative chronological vicinity to the Vedas. The Brāhmaṇas need no longer be mere "twaddles", since, on the contrary, they are now known to have preserved for us the proofs of living mystic tradition in continuity of the Vedas and afford a glimpse into the mystic background of the eternal sacrifice in Nature and its relation to the sacrificial ritual, and held a key to the Adhidaivika and the Adhyātmika aspects of Vedic mysticism.1 And Yāska's Nirvacanas need no longer be the damned "fantastic, arbitrary and almost lawless" etymologies 2 in view of the fact that Váska never intended to attempt at "deriving" the same obscure Vedic words from alternative strange roots and thus exhibit his uncertainty and ignorance; he rather tried to indicate the different shades of the meaning of the word in question by giving the corresponding equivalent sense-roots prevalent in his own day and thus supplement the vedic exegesis at a point where the contemporary Vyakarana had exhausted its efforts. 8 And Pāṇini, with all his minute details about the Vedic idiom, grammar and accent, can help the Vedic interpreter of the RV to a great extent, as has been duly demonstrated by scholars like Dayananda Sarasvati, Goldstücker, Paul Theime, Dr. Vishvobandhu, Dr. S. S. Bhave and others. After all the path is now no longer so obscure if we settle to the task with proper perspective and always keep in mind the fact that we have in the hymns of the RV not merely prayers for worldly benefits, but rather "the riches of occult and spiritual truths, treasured hidden by the coverings of symbolic imagery deviced for the double values by the ancient mystics of the Rgveda."4
ŚIVĀH SANTU SATĀM PANTHĀNAH :
1. Dr. Nathulal Pathak, Aitareya Brāhmaṇa kā Eka Adhyayana, p. 185. 2. Shri Aurobindo, op. cit., p. 638. 3. Pandit Yudhisthira Mimāmsaka, Vaidic Chhandomímāmsā, p. 27. 4. T. V. Kapali Sastry, op. cit., p. 36.
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8th Century Documents on Means of Earning Money
Prof. Prem Suman Jain Shree Jain Post Graduate College, Bikaner
In ancient India though the chief source of Earning money was the buying and selling of goods, yet many other ways, right or wrong, were employed to earn it. Some of these means, which yielded good and quick returns, were ignoble, others, which were considered noble, yielded limited returns. Udyotana süri has mentioned both these types of means in his work Kuvalaya mālāka bā (779 A. D.).
Ignoble Means
When Māyāditya and Sthänu thought of earning money, the question was how to earn it. Without money, Dharma and Kāma can not be achieved'i them Māyāditya suggested 'Friend, if it is so, let us move on to Varanasi. There we shall gamble, break into the houses, snatch the ear-rings, loot the passengers, pick the puckets, indulge in jugglery and cheat the people. In other words we would do every thing by which we can earn money. Sthānu was sorry to hear all this and he dubbed these means as ignoble as they were against gentlemanliness.
---( Hoe Mahanto doso 57.23 ).
Besides these means, earning money by selling creatures and animals was also regarded as ignoble in this works The above means of earning money were prohibited by Jain writers on account of non-violent principles. In Dharmabindu and Upamitibhava-prapancakatha, the use of these means is prohibited. 4 Respectable Vocations
On being asked by Māyāditya, Sthānu described following noble means
1011S
1. HET ATT fa........afa #ht trai Etfag STBIT Ne fa Kuv. 57. 12-15. 2. 75 ga fare, a que, amefar as TH per afecset ad afurat puo' afsh, sifo
छिण्णिमो, कूडं रइमो, जणं वंचमी, सव्वहा तहा तहा कुणिमो जह जहा अन्य संपत्ती होहिइ ति
57. 16-17. 3. जइ-मउम्भत्तभणो जीवे विक्किणइ जो कयग्धोय ।
at gays, AfTE TIF gfeht 11—241.28. 4. See, Rajasthan through the Ages-Dr. Dashrath Sharma.
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which have also been sanctioned by the rishis.
-(Risihim eyam pura bhaniyam--57-23).
1. Going from one place to another (Disi gamanam)
There are many references to this means in the work. Māyāditya, Dhanadev, Sagardatta etc. The sons of merchants, have earned money by going to other countries. The reference to the assemblage of merchants of eighteen countries at one place points to first fact (152.24). In contemporary literature one comes across many references of this kinds. 1
To go to other countries for business purposes was profitable from many points of view. A man could carry on business whole-heartedly and fearlessly. living away from the cares and worries of the home. One could attract the people there by his way of living and the main thing was that a man could earn a lot by selling the home-made goods at other places at fancy prices and buying the goods of those places at cheap prices and selling them in his own country at high prices. Apart from this a man gathered a lot of experience of inter-state trade guilds. Young merchants got an opportunity to earn money by their own efforts for which they always remained eager.
(annam apuvvam attham aharami bahu-balenam 65.10).
2. Partnership (Hoe mittakaranam ca)
To do business in partnership has many advantages. First, one does not feel any danger in the journey. Secondly, if there was loss, it was shared. Thirdly, one could get advantage out of mutual common sense and business-skill. In Kuvalayamalakaha Mayaditya and Sthanu went out together as partners and they earned a lot of money (57-28). Dhandeva and, Bhadraşreshthi were also partners (66.33). Sagardatta had carried on business in a foreign country by entering into partner ship with a merchant there (105-23). In the business field partnership was one of the common practices.2
Whereas, on the one hand, partnership had its advantages, sometimes it was also disadvantageous. If the partner was not honest, one had to bear loss. Out of greed, Māyāditya had thrown his partner Sthanu into the well (61.15.19). Dhandev had also pushed Bhadrashreshthi into the deep sea (57.20). They did it so that they may not have to give their share and get the whole of it themselves.
;
1. जातक (1.404, 2:30, 3126), समराइच्चकहा, तिलकमंजरी, pp. and see for detail— S. K. Maity, Economic Life of Northern India in the Gupta Period, p. 138 etc., Roy - प्राचीन भारत में नगर तथा नगर जीवन, 323 मोतीचन्द्र - सार्यवाह, p. 162. 173, Bajpeifag, p. 152 etc. 2., VI Bhava; see Awasthi, Studies in Skanda Purana, part I, P. 113.
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There are many references to such dishonest partners in contemporary literature. 1 3. Pleasing the king (Naravar seva)
Pleasing the king is absolutely essential every-where for earning money. Whenever any merchant reached the state of the king with his caravan, he waited on the king with valuable presents and sought permission to do business in his territory. As soon as Dhandeva landed in Ratnadeepa, he took the presents, met the king and pleased him by his offerings. It is clear that the permission of a king was essential for carrying on business in his state. 4. Skill in weights and measures (kusalattanam ca mānappamānesu)
The two terms—'kusalattanam ca māņappamānesu' mean that it is very necessary to have skill in judging the goods, Only a skilful merchant can judge the worth or worthlessness of various goods. Profits can be earned only when a merchant purchases pure goods. Dhandeva's father hinted that it is very difficult to judge the quality of goods unless one has sufficient proficiency in it.
-Duppariyallam bhandam 65.15). 5. Alchemy (Dhauvvão)
The art of making artificial gold from metals by various chemicals was also a source of earning money. In the eighth century 'Dhātuvāda' was current and had been developed as an art. Udyotanasūri has given a detailed description of Dhātuvāda in his work, being practised in a secluded part of the Vindhya forest-(p. 195). It is said that the assembled Dhātuvādins or alchemists (Kemiyagāra) were failing in their attempt. Prince Kuvalayachandra tried his own knowledge and succeeded in the making of gold. It appears that one of the epithets of the Dhātavādins was Narendra, meaning a master of charms or antidotes. The word is also used in this sense in classical Sanskrit literature. Dhātuvāda is also called Narendra-Kala 197.16).4 6. Worship of the deity (Devayārāhan)
While going on a journey to earn money, many ceremonials were perfor. med. The favourable deities were worshipped. Worship of different means of deities was considered auespicious for different means of earning money. While going on their round thieves worshipped Kharpat, Mahākāla. Kātyāyani etc. 6
1. This had become a literary motif as appears from Jayasi describing a similar
situation of a storm and ship-wreck brought about by a Räksasa (Partner) 'A
cultara note'-in Introduction to Kuv. by Dr. N. S. Agrawala, p. 120. 2. See for Ratnadeep-Dr. Buddha Prakash-India and the world. 3. Att aftur, Et datu fagt Tru, Tahrt, Kuv, 67.12. 4. See for detail my thesis-A Cultural Study of Kuvalayamala Kaha. III chapter. 5. J. C. Jain- TTH face # tatu 1, p. 71
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While going to a foreign country, merchants worshipped the sea-god (Pūjūna samudda devam 105.32) and remembered other favourable deities (Sumarijjanti itha devae, 67.2). Sagaradatta had worshipped Indra, Dharnendra, Dhaņak and Dhanpal for earning money by means of mining. 1 7. Sea Voyage (Sayar-Taranam)
In ancient India there were two chief trades-local trade and foreign trade. For foreign trade one had to go beyond the seas. So sea-faring was considered essential for earning money. Sea voyage was particularly profitable because goods of one's own country could be sold in other countries at high rates and gold could be brought from beyond the seas into one's country. 2 In Kuvalayamālā. kaha there are many references to sea-voyage (67.30, 89.8, 105.31 etc.), which have been detailed by Dr. Buddha Prakash in his article recently & Though one could earn handsome profits by going across the seas one also faced many difficulties such as risking one's life. 4 8. Digging of the Rohanparvata (Rohanammi khananam)
It was believed that Rohanparvata is situated in the a boys of inferno and was made of gold. People go there and bring gold by digging and thus become rich. There are two references in Kuvalayamala where a description has been given about the Rohan Khanan, Sagardatta, on leaving home because of insults, thinks over the means of earning money sitting in a garden of Jaishrinagari. Whether he should go beyond the sea infested by crocodiles or should dig up the Rohanparvata situated in the inferno.5
The other reference is that when the poor young merchant of Champanagari were not able to earn money by other means they reached somehow other, the Rohan deep. Hearing its name their joy knows no bounds and they think that in this deep, when even the unlucky (impious) get wealth, why should not we get gems by digging the Rohandeep 6
From the above it is clear that Rohankhanana was the last means af earning money. Only a man who was not able to earn money by any other means thought of Rohankhanana and get money from there. It appears that this particular means of earning money was the symbolic of labour. It meant that just as it is very 1. UT EGF, Tht To F, THT TOTEH, Kuv. 104.31. 2. समराइच्चकहा VI Bhava. 3. "An eighth century Indian document on International Trade" published in
the Bulletin of the Institute of Traditional Cultures, Dec. 1970, Madras-4. 4. ATT GOT ga afurvi PET faifau o act, Kuv. 67.7-9. 5. ET QUATT Tu au ar taur go, 104.18. 6. एयं तं दीववरं जत्थ अउण्णो वि पावए अन्थं ।
qs a T IT FITS TUUS 11-191.12.
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difficult to bring gold from the inferno, so an unsuccessful merchant can get success by working hard again and again. 9. Other means
Besides the above means of earning money, many others have been detailed in Kuvalayamāla. The two young merchants of Champa have been shown to be using the following means which have not come earlier
9. Agriculture (kisi karisanammi) 10. Loading of animals (Āroviya goņi bhariyalla) 11. Slavery (Para gehe acchhik Samadhatta) 12. Begging (Bhikkam bhamanti) 13. Service (Dejjasu Amham Vitti) 14. Soldiery (lagga olaggium) 15, Using of Occult Powers (Anjana-jogesu) 16. Bilapravesh (Vilammi Pavisanti) 17. Mantra siddhi (Mantam gahiūna) 18. Exchange (Thora-Kammam) 19. Wrestling (Mallattanam) 20. Mining (Khannavae ; 104.20-31)
Often, even inspite of adopting these means, one could not earn money as he desired and faced disappointment. Hence he had no alternative but to seek solace in religion. For this purpose he construed the various means of earning money in a religious and moral sense. For example--
Trade--Control the shop of body by the shop keeper of heart and buy and sell the goods of virtue. In this way one will earn the profit of happiness. 1
Begging --If you have to beg then have the bowl of trust, put on the loin cloth of control and hang the sling of wisdom deed go about the houses of teachers, you will get the alms of knowledge. 2 etc.
In the opinion of Udyotanasüri all the above means are connected with violence in some form or another. Therefore, a man can not get release from this world by using them. Even then there are many worldly people who earn money by these means in order to support their families.3 Udyotana does not
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approve of these means because of the violent overtones found in them. He wanted that the people should do religious deeds by which they could achieve permanent bliss (192.24).
From the above description of the means of earning money as described by Udyotana it is clear that various means were used in ancient I ndia to earn money, chief among which were trade, agriculture, sea-voyage, arts and crafts. Mining was also in vogue. In this connection an important point to note is that in the society of the period the division of labour was not rigid on the basis of caste. A merchant could adopt any type of profession. 1 Local and foreign all sorts of trades were current. Even at that time Varanasi was a centre of attraction for pilgrims, tourists and merchants. Because of the jostling crowds frauds such as looting and cheating were practised.
1. 'India's Foreign Trade in the Ancient Period-Its Impact on Society' -Dr.
Lallanji Gopal, the Quarterly Review of Historical Studies, 1965-66, Vol. V
No. 4. pp. 186-192. ११४ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ
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The Problem of Apadha in the Rgveda
Dr. Smt. Y. S. Shah
Ahmedabad Interpretation of Vedic hymns in general and of individual words in particular, has been a knotty problem right from the day of Yaska and not all the ingenuities of the commentators of the Rgveda and scholarly labours of the Western and Eastern Orientalists have been able to unveil the mystery about a number of obscure Vedic words. One of them is the Vedic word 'Apadhā' in the RV. II, 12, 3. The word occurs in the second quarter of the above Rk which is as follows:
यो गा उदाजदपुधा वलस्य । Yo'gā' Udajad apadhā valasya. The Pada text traditionally handed down to this day runs thus : 4: TI: I Sara TTSETT FEUI Sāyaṇa interprets this quarter in the following manner :यश्च वलस्य वलनामकस्यासुरस्यापधा तत्कर्तृकान्निरुद्धा गा उदाजत् निरगमयत् ।
Here in his rendering of arqT fra:, he unwittingly reveals that the ultimate sense is 'imprisoned' and the word is an adjective of T:. But while grammatically analysing, he seems to derive it from the root 374+ to which the termination 35 is applied in the impersonal sense. The word thus becomes 399 is added. Thus it is supposed to be the ablative singular.
Venkața Madhava too renders the word as fara fren: and takes it as an adjective of T:, which he renders as 4267.
Western scholars have created more confusion in trying to identify the exact grammatical form. Thus Roth takes it to be the instrumental of 29 + ET
Ludmig2 suggests that this word is instrumental in sense and we must take it to mean wedge or key (quasi reserator).
Hillebrandts thinks that 34 is a locative from fa. Grassman4 translates it
1. Sanskrit-Wor, St Pt, 1855, p. 282 2. Peterson, Hymns from the Rigveda, Second Selection, Notes, p. 116 3. Veda Chrestomathic, p. 70 4. Worter buch Zum Rigveda, p. 71
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as 'a hiding place'. Griffith translates it as 'from the cave'. Peterson remarks that this word is a Vedic locative of the same kind as 'guha' in the next verse and translates it as 'cave':
Zimmerman translates it as 'from the enclosure'. He compares it with II, 14, 3 योगा उदाजदपू हि बुलं वः ॥
;
Macdonell also translates it as 'by the unclosing'. On the basis of feminine forms, he remarks that it can only be the instrumental singular of Apadha'. He takes 'Valasya' as objective genitive i. e. by opening ( the cave of) Vala. Velankar5 seems to follow Roth when he takes 'Apadha' as instrumental singular of Apadha on the analogy of एकया प्रति॒धा प्रतिधानेन in Vill 77
meaning
As has been seen above. Venkata Madhava" too while explaining it as faparfafica has indicated indirectly to the feminine base with 'a' ending.
It seems that ar is really : accusative plural of 441, feminine form dha by applying the affix an' in accordance with the Papinian rule
Sayana took it as irregularity for the ablative by सुपां सुतुगत पञ्चम्या आकारः । Durga, the commentator on Nirukta explains the form by by the enclosing.
as
from apa III, 3, 106.
An analogous case it that of the word fat occurring in the form of far in R V, X, 73, 11:
Nirukta.
वयः॑ सुप॒र्णा उप॑ दु॒रिषु॑ प्रि॒यमे॑षा॒ ऋष॑यो॒ नाध॑मानाः ।
अप॑ वा॒न्तर्मू हि विशु'- मुंमुख्य ऽस्मान् नि॒धये॑व व॒द्धान् ॥
The word for is found in the Naigamakanda of the fourth chapter of
Mukund Jha Bakshi in his notes on Nirukta explains निषा as "आतश्चोपसर्गे" इति ( पा. ३०१.१३६ ) के प्रत्यये अङि ( पा. ३.३.१०६) वा । टापि निधेति भवति ।
This supports our thesis about the nature of the form of ar. In point of accent too, the form अपधा resembles निधा.
1. Hymns from the Rigveda, Vol. II, p. 273
2. Peterson, op. cit,
3. Vedic Selections, Notes, p. 124
4. Vedic Reader, pp. 46 ff
5. Rksakta vaijayants, p. 72
6. Sāyana's commentary on 11/2, 3 अपना-अप पूर्वाषातेः 'आतश्रीपसमें (पा. ३.२.१०६)
इति भावेऽप्रत्ययः । सुषां सुलुगिति पञ्चम्या आकार: 1
7.
Durga's commentary on Nirukta, Adhyaya, 8, 1. Rgarthadtpika, Vol. III, p. 75.
Mukund Jha Bakshi, (Ed.,) Nirukta, p. 160
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Now the Padapāțhakāra has noticed the form as er without the final 'Visarga'. Can it not be possible that in the Samhita-Patha, there was elision of of original visarga of 3T9:, the originally intended form and anyhow the author of Padapātha missed it ?
There are many instances in which the older authors of Padapāthas differed from one another in splitting Samhită text into its component padas. This has been adduced to by Yåska himself. Thus Yiska takes note of difference of opinion of various authors of Padapātha with regard to the word आदित्य :शाकल्यायप्रभति वगृहीतम, पूर्वनिर्वचनाभिप्रायेण । गाग्र्यप्रभृतिभिरवगृहीतमिति तदेव कारणम, विचित्राः पदकाराणामभिप्रायाः, क्वचिदुपसर्गविषयेऽपि नावगृहणन्ति यथा शाकल्येन "अधीवासम्” इति नावगृहीतम्, आत्रयेण तु "अविश्वासम्" इत्यवगृहीतम् । तस्मादवग्रहोऽनवग्रहः।।
____Similarly with regard to the word भासकृत in R V I, 105, 18, Yaska takes it as an Upapada compound and hence as one word, thus : मासकृत् मासानां चार्धभासानां च कर्ता भवति चन्द्रमाः ।।
But Sikalya splits the word into two padas, as मा । स कृ त ।
Thus this possibility of the presence of originally existent but morphophonemically elided Visarga sets at rest all the unnecessary efforts of the traditional commentators and modern orientalists.
1. Nirukta. II, 13. 2. Nirukta, V, 21 3. cf. Padapatha of RV I, 105, 18 in RV. Samhita (Poona), Vol I, p. 649.
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ŚIBIKA-VAKRAVAMSA-LAKŞAŅAM : A Method to Grow Crooked Bamboos for
Palanquin Beams
K. V. Sarma Curator, Vishveshvaranand Institute, Hoshiarpur. The Sibika (palanquin) has been popular in India from early times as a mode of conveyance for the royalty and the upper strata of the society. Its use in temple festivals as a vāhana (carrier) to take the image of the deity in procession along the outer corridors of shrines and through the city for public worship is also popularly known, especially in South India. The Mayamata, is, perhaps, the earliest text on Indian architecture to give a detailed description of the Sibikā in its three types, viz., Pithi, Sikhari and Maundi, and also enunciate the measurements for their construction. Ther is a parallel description also in the Paddhti Išānaśivagurudeva 3
The basic structure of the Sibikā is succinctly indicated thus in the Višvakarma-vastuśāstra, in the context of the description of Vahanas to be used in temple festivals (ch. 8+: Kalpavrkşadivahanalaksanakramakathanam) :
शिबिकां मानवैर्धायाँ पेटिकाकारसंयुताम् ॥18॥ अथ पाविरणकहीनां वेबादिदण्डकाम् ।
भूतेशो वा वृषो नानालक्रियामण्डितो मतः ॥19 The commentary on this passage by Anantakrana Bhattāraka is elucidative and might be extracted here :
अथ शिबिकालक्षणमाह-शिबिकामिति, विविधरूपं शिबिकालक्षणं तु पुरोभागे पश्चाद्भागे दृढं संयोजितमाधारदण्डं मानवभटस्कन्धर्धायं प्रकल्पयेत्, तादृशाधारदण्डस्तु वेणुकृतो वा वटकृतो वा सोकर्यदायीति समयः । एवं मानवस्कन्धबाह्याधारदण्डसहितस्य शिबिकाख्यस्य वाहनस्य निर्माणं तु पेटिकारूपं
1. For an account of the Sibika-vahana in Vaişņavite temples, see the Vimānārcana
Kalpa of Marici, of the Vaikhānasa School (Madras, 1626), Sn, on Sibikadi
yānotsavaḥ, pp. 352-54 2. Cf. Mayamata of Mayamuni, ed. T. Ganapati Sastri, Trivandrum, 1919, Ch, 31,
verses 1-29. 3. See Išanas ivgurudeva-Paddhati of Išānaśivagurudeva, ed. by T. Ganapati Sastri,
pt, IV, Trivandrum, 1925, pp. 453-55 : Patala 40, Nityot sāza-yana-sanadi-pasala), verses 39.64.
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पार्श्वयोः प्रवेशद्वारोपेतं कार्यम् । अयमेकः प्रकारः । प्रकारान्तरेण तु पार्श्वभागावरणहीनं मध्यमस्थदेववेरस्थापनस्थकं देववेरस्य मुखमण्डलस्फुरणार्थमप्रभागे मुकुरस्यानोपेतं विविधतभित्रपट्टि कावृतपापट्टिकातलं शिविका कल्पनं प्रकल्पयेत् ||18||
किञ्चान शिविकानिर्माण क्वचित् पूर्वभागे भूतेशगणस्कन्धधारितपूर्वदण्डं वा नन्दिदेवधारितपूर्वदण्डं वा गन्धर्वकिन्नरादिदेवगणस्कन्धधारितदण्डं वा कार्यमिति विकल्पः । अतोऽत्र तु शिविकानिर्माण gefafam-qufafaherfecterengr. fasuratsafe farfeqfaffa 1119111
The essential elements of a Sibika, thus, consist of a closed box-like structure with doors or an open structure without doors, fixed on a long beam of bamboo or wood which extends on both sides of the box. The seat is placed inside the box and the whole structure is carried on the shoulders of one or more persons at each end.
Now, the palanquin with the arched beam rising majestically in a steep curve over the box and with the two extending ends too slightly inclined uqwards is artistically superior to one with just a horizontal beam. It is dfficult to prepare curved beams of wood or procure naturally curved beams of wood of sufficient length. In practice, the bamboo is used exclusively for the purpose. The required bends are often made in the bamboo by the application, at the appropriate places, of strong hear when the bamboo is yet green and has not become dry and stiff. Naturally, the bamboo gets charred and injured, to some extent, in the process. An ingenious method has been developed to solve the problem, viz., to grow bamboos with the necessary curves, of appropriate measures, at the required places, The short text, Śibika-vakravaṁta-lakṣaṇam, edited here enunciates a method to grow crooked bamboos. The method primarily consists. of driving in appropriately curved iron structures on the sides of the bamboo plantling and making the bamboo through the said structure. Directions are given towards controlling its growth, so that, ultimately, a bamboo with bends and curves at the right places and in the right measures is produced.
The work is preserved in a single manuscript, being No. 1133 belonging. to the collection of Sanskrit manuscripts of the Palace Library, Trivandrum, now deposited in the Kerala University Oriental Research Institute and Manuscripts Library, Trivandrum, 2 It is in palmleaf, in four folios, written in Malayalam script, The manuscript is well preserved and the writing is generally free from errors,
1. See Viswakarma-Vastui astram, Ed. by Vasudeva Sastri and N. S. Gadre, Tanjore, 1958 (Tanjore Sarasuti Mahal Series, No. 8503, p. 197,
2. For full details see the Descriptive Catalogue of Sanskrit Manuscripts of H. H. the Muharaja's Palace, Library, Trivandum, 1938, Vol. IV. pp 1547-58. I am thankful to the authorities of the Library for supplying me, with a copy of this manuscript.
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शिबिकावक्रवंशलक्षणम् . 'अभिवाद्य गणाधीशमभीष्टफलदायिनम् । शिबिकावक्रवंशस्य प्रमाणं किञ्चिदुच्यते ॥१॥ वेणोः शुभाइकुरं दृष्ट्रा यत्नेन परिपालयेत् । वराहशललीकीटभृगदंशाद्यपद्रवात्
॥२॥ दृढया परिवृत्या च वचाचूर्णादिभिः पुनः । हस्तोन्नतात् पूर्वमस्य . सुमुहूर्ते विनायकम् ॥३॥ सम्पूज्य जलगन्धाद्यैः सूपलाजादिभिस्तथा । बंशस्य पार्श्वयोः खात्वा यन्त्रस्तम्भौ विनिक्षिपेत् ॥४॥ यत्र रन्ध्रपथा गत्वा वक्रवेणुर्भविष्यति । यन्त्रमानमिति प्रोक्तं दशहस्तसमायतम् ॥५॥ मुनिसङ्ख्यागुलं वीथ्या तदर्धं घनमेव च । एवं स्तम्भद्वये सूत्रं सिद्ध पञ्चदशं तु वा ॥६॥ त्रयोदशं वा ह्रस्वाख्यपट्टिकास्तम्भवीथिवत् । एकाङ्गलं द्वयङ्गलं वा घनं तासामुदीरितम् ॥७॥ साधैंकहस्तं वा दीर्घ सपादं वात्र कल्पयेत् । स्तम्भयोर्मूलतस्त्यक्त्वा विंशत्यङ्गुलमात्रकम् ॥८॥ एकैकहस्तामायातां चतुरः पट्टिकां क्रियात् । पदाधिकद्विहस्तेन तस्मात् तु कुटिलायतम् ॥९॥ कुटिले पट्टिकाः सप्त पञ्चकं वा समांशके । स्तम्भयोः कल्पयेदस्मान्मलवच्चतुरोऽनके ॥१०॥ तदाधिरोहिणी वेदं यन्त्रमन्त्री भविष्यति । मूलाग्रपट्टिकाष्टानां रन्ध्राणां विधिरुच्यते ॥११॥ स्तम्भयोः पट्टिकायोगात् प्रथमे त्र्यमुलं त्यजेत् । द्वितीये च तृतीये च द्वयङ्गुलं तु चतुर्थके ॥१२॥ व्यङ्गलं कुटिलाग्रात्तु चतुर्थं पूर्ववत्तथा । त्यक्ताङ्गु लान्तरे रेखां कारयेदतिसूक्ष्मतः ॥१३॥ रेखामाश्रित्य पृष्ठे. तु. रन्ध्रान् वंशगतोपमान् । त्रियवाधिकमानेन । सुवृत्तान् वक्रगम्यकैः ॥१४॥
१. The Ms. comnences with invocatory Statement : [हरिः] श्रीगणपतये नमः। अविघ्नमस्तु ।
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कुटिलान्तःस्थिते खर्वपट्टिकासप्तके क्रमात् । घने द्वचङ्गुलमाने च रन्ध्रान् कर्तुमिहोच्यते ॥१५।। अंशाङ्कात् पट्टिकानां च कुर्यात् पूर्वापरं धनम् । तासामधश्चोपरि च वक्रगम्यायतं द्विधा ।।१६।। ऊनाधिकत्रिपादार्धाङ्गलैः कुटिलक्रमम् । स्तम्भादेकादिह प्रोक्तं पट्टिकाद्याद् यथाक्रमम् ।।१७।। सपादनवक चव पादाधिकदिवाकरः। अोंनषोडशं चैव षोडशं च ततः परम् ॥१८॥ अष्टादश
त्रिपादोनसार्धषोडशषोडशौ । अर्धाधिकमनुस्तेन सपादं तु त्रयोदश ॥१९॥ सपादनिधिशैलौ च सत्रिपादार्णवानलौ । पक्षान्तरमिहैवोक्तं चतुर्थशरयोः क्रमात् ॥२०॥ कलापञ्चदशा साधौं तत् सपादत्रयोदशम् । सपादमिहिरेणापि कुर्यान्मानं द्वयोरिति ॥२१॥ पट्टिकापञ्चके पक्षे रुद्रादित्यौ तु षोडशौ। तथैव च पुनः कुर्यात् तत्त्रयोदशभास्करी ।।२२।। रसबाणी तृतीयात् तु पक्षान्तरमथोच्यते । मनुत्रयोदशौ सूर्यदिशौ रसशराविति ।।२३।। विना पक्षान्तरेणकं वक्रक्रममथोच्यते । दशार्कषोडशाः सप्तदशं चाष्टादशद्वयम् ॥२४।। अर्धोनाष्टादशं चैव षोडशं च तिथिर्मनुः । एकादशं दशं सप्त रसमेतैश्च सप्तके ॥२५॥ पूर्वक्रमेण तद्वक्रं नृणां नेत्रप्रियावहम् । उक्तसङ्ख्याङ्गल रेवं कृत्वा रेखां ततः परम् ॥२६॥ वक्रगम्यैः सुरन्ध्राणि वेणोः पुष्टयैव पूर्ववत् । रन्ध्रुश्च वंशयात्येवं वक्रक्षेमकराय च ॥२७॥ नित्यं बंशादिकं दृष्ट्रा रज्जुकीलादिभिः सुधीः । कुर्यात् तत्रोचितं कर्म तथाप्यधिकसूक्ष्मतः ॥२८॥ पिपीलिकादंशकीटभङ्ग भ्यः परिपालयेत् । सार्धे मास्यनलाङ्कोवान् कण्टकान् दिनपञ्चकैः ।।२९।। शराङ्गलोर्ध्वमेकैकं स बहिश्चमकं त्यजेत् । त्रिमासानिड (?सेन व) चाचूर्णतैलं मासेन लेपयेत् ॥३०॥ अब्दान्ते लूनयेदग्रं रुद्रहस्तात् परं ततः । दिनवत्सरमासानां चतुर्थं वा तृतीयकम् ॥३१॥ नीत्वाथ सुमहर्ते तु दीपविघ्नेश्वरादिभिः । वेणोश्च लूनयेन्मूलं ततो तिथिदिनात् परम् ॥३२॥
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यन्त्रं चोत्पाट्य तेनैव सह भूमौ विनिक्षिपेत् । पट्टिकाभ्यस्ततः स्तम्भौ विमुच्यास्य तु कण्टकान् ।।३३।। आमूलमेव विच्छिद्य वंशान्मुच्येत पट्टिकाः । परितः कण्टकस्थानं सुशिल्पं कारयेन्मृदु ।।३४॥ किञ्चित्तु तिलजं लिप्त्वा ततः सप्तदिनात् परम् । सत्रिपादद्विहस्तं वा सपादं मूलमप्यतः ॥३५।। सवितस्त्यायतेनैव मूलाग्रे कारयेत्ततः । अयुगागुलयुक्तैर्वा हीनरिष्टायतं द्वयोः ॥३६।। स्वर्णेन रजतेनापि सूकरस्य गजस्य च । शीर्षमूलाग्रयोः कृत्वा हेमरूप्यारकूटकैः ॥३७।। बद्ध्वा त्रिबाणमुनिभिरङ्गुलरायतैर्द्वयोः । कल्पयेत शिबिकायोग्यवक्रवण महामतिः ॥३८।। उक्तं वक्रोन्नतं त्वस्य शुभं पञ्चदशाङ्गुलैः । वक्रस्यान्तःस्थितानां तु पद्रिकानां ततीयकात ॥३९॥ पट्टिकापञ्चके पक्षे द्वितीयादेव च क्रमात् । त्रयोदशं च रुद्रश्च निधिश्च शुभदोन्नतम् ॥४॥ आभ्यां तु कुटिलो[/]भ्यां निपुर्णदृष्टलक्षणैः ।। केचिद् वक्रोच्चमित्याहुस्तथा वंशश्च दृश्यते ॥४१॥ स्तम्भयोरन्तरे द्वे वा त्रयं वाकूरमस्ति चेत् । पूर्वरन्ध्रापरान्नेत्रागुलं वा?नमेव वा ॥४२।। त्यक्त्वातो वंशपुष्टयात्र कुर्याद् रन्ध्राणि पूर्ववत् । पुनरप्येवमेवैकां सुषिरालि च कल्पयेत् । तयैव गत्वा स्वाविद्धाः सम्भविष्यन्ति वेणवः ||४३।। वक्राश्चायतमूलाग्रेक्यामुलैष्टादिभिर्हताः ध्वजाद्ययुगे योन्याद्यां द्विजादिक्रमतः शुभाः ।।४४||
वंशवक्रप्रकरणम्
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राजस्थान के शिलालेखों का वर्गीकरण
डॉ० रामवल्लभ सोमानी
इतिहासकी साधन सामग्री में शिलालेखोंका स्थान अत्यन्त महत्वपूर्ण है। राजस्थानमें मौर्यकालते ही लेकर बड़ी संख्या में शिलालेख मिलते हैं । इनको मोटे रूपसे निम्नांकित भागों में बाँट सकते हैं :
१. स्मारक लेल
२. स्तम्भ लेख
३. प्रशस्तियाँ
४. ताम्रपत्र
५. सुरट्ट व अन्य धार्मिक लेख ६. मूर्ति लेख
७. अन्य
स्मारक लेखोंमें मुख्य रूपसे वे लेख हैं जिन्हें घटना विशेषको चिरस्थायी बनानेके लिए लगाये जाते हैं | राजस्थान में " मरणे मंगल होय" की भावना बड़ी बलवती रही है । युद्धमें मृत वीरोंको मुक्ति मिलनेका उल्लेख मिलता है | राजस्थानके साहित्य में इस प्रकारके सैकड़ों पद्य और गीत उपलब्ध हैं किन्तु शिलालेखोंमें भी इस सम्बन्ध में सामग्री मिलती है वि० सं० १५३०के डेंगरपुर के सूरजपोलके लेखमें उल्लेख है कि जब सुल्तान गयासुद्दीन खिलजीकी सेनाने डूंगरपुरपर आक्रमण किया तब शत्रुओंसे लोहा लेता हुआ रातिया कालियाने वीरगति प्राप्त कर सायुज्य मुक्ति प्राप्त की । लेखमें यह भी लिखा है कि स्वामीकी आज्ञा न होते हुए भी कुलधर्म की पालना करता हुआ वह काम आया । इस प्रकार देशभक्ति से ओत-प्रोत राजस्थानी जनजीवन एक अनुपम उदाहरण प्रस्तुत करता आया है। हमारे राजस्थानके स्मारक लेखोंमें इसी प्रकारके लेख हैं जिन्हें मुख्यरूपसे इस प्रकार बाँट सकते हैं : (१) सतियों के लेख (२) शृंशार लेख (३) गोवर्द्धन लेस (४) अन्य आदि ।
( सतियों के लेख राजस्थानमें बड़ी संख्या में मिले हैं । ये लेख प्राय: एक शिलापर खुदे रहते हैं । इसके ऊपर के भाग में सूरज, चाँद बने रहते हैं । मृत पुरुष और सती होनेवाली नारी या नारियोंका अंकन भी बराबर होता है । कई बार पुरुष घोड़ेपर सवार भी बतलाया गया है । १३वीं शताब्दी तकके लेखों में पुरुषोंके दाढ़ी आदि उस कालकी विशिष्ट पहिनावाकी ओर ध्यान अंगित करते हैं । इन लेखोंके प्रारूप में मुख्य बात मृत पुरुषका नाम गोत्र आदि एवं सती होनेवाली स्त्रीका उल्लेख होता है । सती शब्दका प्रयोग प्रारम्भ में नहीं होता था केवल "उपगता" शब्द या इससे समकक्ष अन्य शब्द होता था। कालान्तर में सती शब्दका प्रयोग किया गया है । इन लेखोंको "देवली संज्ञक " भी कहा जाता रहा है । १६वीं शताब्दी और उसके बादके उत्तरी राजस्थानके लेखोंमें प्रारम्भमें गणपतिकी बन्दना, बादमें ज्योतिष के अनुसार संवत्, मास, तिथि, वार, नक्षत्र, पल आदिका विस्तारसे उल्लेख मिलता है ।
१. ओझा हूँगरपुर राज्यका इतिहास |
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राजस्थानसे प्राप्त सतियोंका सबसे प्राचीन लेख सं० १०६का पुष्करसे मिला हुआ लेख था। इस लेखका उल्लेख श्री हरबिलासजी शारदाने किया था। यह लेख अब अज्ञात है । सम्भवतः ओझाजीने भी इसे नहीं देखा है अतएव इस सम्बन्धमें कुछ निश्चित तथ्यात्मक बात नहीं कही जा सकती है। अब तक ज्ञात लेखोंमें सं० ७४३, ७४५ और ७४९ के छोटी खाटूके लेख उल्लेखनीय हैं। इन लेखोंको डी० आर० भण्डारकर महोदयने प्रथम बार देखा था और सारांश प्रकाशित कराया था। ये तीनों लेख लघु लेख हैं । सं० ७४३ के लेखमें "उवरक पत्नी गद्धिणी देवी उपगता'' वणित है। धोलपुरके चण्डमहासेनके विस्तृत लेखमें इसुकके पुत्र महिषरामकी स्त्री कण्डुला, जो सती हुई थी, की मृत्युका उल्लेख है । ओसियाँसे सं० ८९५, घटियालेसे सं० ९४३, ९४७ और १०४२ के सतीके लेख मिले हैं। बीकानेरके खीदसरके कुँएके पाससे सं० १०२० का सतीका लेख मिला है। इन प्रारम्भिक सतीके लेखोंमें पति और पत्नीकी मृत्युका उल्लेख मात्र है। सं० ९४५ के घटियालेके प्रतिहार राणकके लेखमें पतिकी मृत्युका लेख अलग है और पत्नीकी मृत्युका अलग। ऐसा लगता है कि दोनोंके लिए अलग-अलग देवलियाँ बनायी गयी थीं । बेरासर बीकानेर) के सं० ११६१ के लेखमें "सुहागु राषसण" शब्द अंकित है। इससे स्पष्ट है कि पतिकी मृत्युके बाद वैधव्य दु.खसे पीड़ित न होकर पतिके साथ ही सती होने का संकेत है। घडाव (जोधपुरके समीप) सं० ११८० के ३ शिलालेख मिले हैं जिनमें गुहिल वंशी हुरजाकी मृत्युका उल्लेख है एवं कई स्त्रियोंके सती होनेका अलगअलग लेखोंमें उल्लेख है। इसी समयके वि० सं० १२१२के मंडोरके लेखमें एक लेख में कई स्त्रियोंके सती होनेका उल्लेख है। अतएव इस सम्बन्धमें कोई निश्चित नीति नहीं अपनायी गयी प्रतीत होती है।
१३वीं शताब्दीसे "देवली बनाने" का उल्लेख भी शिलालेखोंमें किया जाता रहा है। वि० सं० १२३९ के केचल्लदेवीके गढ़ (अलवर) के लेखमें राणी केचलदेवीकी मूर्ति बनानेका उल्लेख है। सामान्यतः उस समयतक लेखोंमें सती शब्दके साथ "काष्टारोहण' करना उल्लेखित किया गया है। केवलसरके वि० सं० ५३२८ के लेखमें सांखला कमलसीके साथ उसकी पत्नी पूनमदेका काष्टारोहण करना वणित है। वि० सं० १३४८ के छापरके लेखमें भी उल्लेख किया है। वि० सं० १३३० का बीठका लेख महत्त्वपूर्ण है। इसमें मारवाड़में राठौड राज्यके संस्थापक राव सीहाकी मृत्यु और उसकी स्त्री सोलंकिनी पार्वतीका सहगमन करना वर्णित है। जैसलमेर । लेख श्री अगरचंदजी नाहटाने पड़े परिश्रमसे इकट्ठ किये हैं। इन लेखोंमें भट्टिक संवत् का प्रयोग हो रहा है । वि० सं० १४१८ और भट्टिक सं० ७३८ के घडसिंहके लेखमें उसकी राणियोंके सहगमन करनेका ही उल्लेख है। १६वीं शताब्दीसे वहाँके लेखोंमें भी सती शब्दका उल्लेख हुआ है। सं० १६८०के महारावल कल्याणदासकी मृत्युपर २ सतियाँ होने का उल्लेख किया गया है।
इन लेखोंमें देवलीके लिए लोहटी शब्दका भी प्रयोग हुआ है। सं० १४१८ के रावल घडसिंहके एक लेखमें लोहटी (देवली) को महारावल केसरी द्वारा प्रतिष्ठापित करानेका उल्लेख है। सं० १३०९ के चुरू जिलेके हुडेरा ग्रामसे प्राप्त एक लेखमें “सत चढ़ना" लिखा है। यह लेख श्री गोविन्द अग्रवालने संगृहीत किया है । कुंभासरके सं० १६६९ के लेखमें माँ का पुत्रके साथ सती होना वर्णित है । इसी प्रकारके बीकानेर क्षेत्रसे और भी लेख मिले हैं। इनसे प्रतीत होता है कि माँ पुत्रके स्नेहके कारण उसकी मृत्युके बाद सती
१. वरदा वर्ष अप्रैल ६३ में प्रकाशित श्री रत्नचन्द्र अग्रवालका लेख पृ० ६८ से ७९ । २. मरु भारती वर्ष १३ अंक २ पृ०७२ । ३. रेऊ-मारवाड़का इतिहास भाग १ पृ० ४० ।
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हो गयी लेकिन ऐसे मामले राजस्थान में कम हैं । देवलियोंको बनाने के लिए "खणावित" और जीर्णोद्धारके "उधारित " शब्दों का प्रायः प्रयोग किया गया है । कई बार देवलियोंके स्थानपर छत्री और मंडप भी बनाये जाते हैं । चाड़वास के वि० सं० १६५० के २ लेखोंमें गोपालदास बीदावतने वि० सं० १६२५ में मरे श्वेतसिंह पुत्र रामसी और वि० सं० १६४५ में मरे कुम्भकर्णकी स्मृतिमें छत्रियों और मण्डपोंका निर्माण कराया था। कई बार सतियाँ अपने पति की मृत्युकी सूचना प्राप्त होनेपर होती थीं ऐसी घटनायें वहाँ होती थीं जब पतिकी मृत्यु विदेशमें हो जाती थी तब उसकी सूचना प्राप्त होनेपर उसकी स्त्री जहाँ कहीं हो सती हो जाती थी । इस सम्बन्ध में कई लेख उपलब्ध हैं । खमनोर के पास मचीन्दमें वि० सं० १६८३ (१६२६ ई०) के लेखमें भीम सीसोदिया की मृत्यु बनारस में हो जानेपर उसकी राणीके वहाँ सती होने और उन दोनोंकी स्मृतिमें वहाँ छत्री बनानेका उल्लेख है। भीम सिसोदिया, स्मरण रहे कि महाराणा अमरसिंहका पुत्र था जो खुर्रमकी सेना में सेनापति था । खुर्रमने अपने पिता जहाँगीरके विरुद्ध विद्रोह किया था तब मुगल सेना के साथ लड़ता हुआ भीम काम आया था। यह घटना सं० १६८१ में हुई थी । इस प्रकार इस घटना २ वर्ष बाद सती होना ज्ञात होता है। बीकानेर और जोधपुर क्षेत्रसे भी ऐसे कई लेख मिले हैं जिनमें दक्षिण में युद्धमें मारे जानेपर सती होनेका उल्लेख किया गया है ।
उस समय आवश्यक नहीं था कि सबकी रानियाँ सती होवें कई बार रानियाँ जिनके पुत्र या तो ज्येष्ठ राजकुमार थे या गर्भवती होती थीं तो सती नहीं होती थीं। पुरुषोंके भी प्रेमिका के साथ मरने का उल्लेख मिलता है । ऐसी घटनायें अत्यन्त कम हैं । आबू क्षेत्रसे प्राप्त और वहाँके संग्रहालय में रखे नगरनायका प्रेमीके एक लेखमें ऐसी घटनाका उल्लेख है यह लेख सं० १५६५ का है। इसी प्रकारसे ताराचन्द कावड़िया जब गौड़वाड़का मेवाड़की ओरसे शासक था तब उसकी मृत्यु सादड़ी में हो गयी थी । उसका दाह उसके द्वारा बनायी गयी प्रसिद्ध बावड़ी के पास ही हुआ था । उसके साथ उसकी पत्नियोंके साथ कई गायक भी मरे थे। दुर्भाग्यसे अब बावड़ीका जीर्णोद्धार हो जाने से मूल लेख नष्ट हो गये हैं। इन पंक्तियोंके लेखकने ये लेख वहाँ देखे थे और उक्त बावड़ीका शिलालेख भी सम्पादित करके मरुभारती में प्रकाशित कराया था। इस प्रकार इन सतियोंके लेखोंसे तत्कालीन समाजके उचिका विस्तृत ज्ञान हो जाता है। बहुविवाह प्रथा राजपूतोंके साथ वैश्य वर्ग में भी थी। ओसवालोंके कई लेखोंसे सतियोंका बड़ा सम्मान किया जाता रहा है। देवलियों की पूजा और मानसा दी जाति में सती होगी वे उसे बराबर पूजा करते रहते हैं ।
इसको पुष्टि होती है । जाती रही है। जिस
युद्धमें मरनेपर वीरोंकी स्मृतिमें भी लेख खुदानेकी परिपाटी रही है। इन लेखोंको "झुंझार" लेख कहते हैं । इनमें सबसे प्राचीन ३री शताब्दी ई० पू० का खण्डेलाका लेख है । लेखमें मूला द्वारा किसी व्यक्तिकी मृत्युका उल्लेख है जिसकी स्मृतिमें महीस द्वारा उसको खुदानेका उल्लेख किया गया है। लेख खंडित है । लेकिन इससे ३री शताब्दी ई० पू० ३ से इस परम्परा के विद्यमान होने का पता चलता है । चलु
प्राप्त वि० सं० १२४१ के लेखोंमें मोहिल अरड़ कमलके नागपुर के युद्ध में १२४३ के रैवासाके शिलालेख में चन्देल नानण, जो सिंहराजका पुत्र था की
मरनेका उल्लेख है वि० सं० मृत्युका उल्लेख है । लेखमें
१. मरुश्री भाग १ अंक १ में प्रकाशित मेरा लेख "बीदावतोंके अप्रकाशित लेख" । २. राजपूताना म्युजियम रिपोर्ट वर्ष १९३२ लेख सं० ८० ।
३. उक्त वर्ष १९३५ लेख सं० १ ।
४. अरली चौहान डाइनेस्टिज पृ० ९३-९४ |
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इसके खलवाना
बानाके युद्ध में लड़ते हुए मरनेका उल्लेख किया है। इसकी स्मृतिमें जसराक द्वारा देवली बनानेका उल्लेख है। डुगरपुरसे वि० सं० १४९८ और १५३० के लेख मिले हैं। वि० सं० १४९८ के लेखमें वर्णित है कि जब डूंगरपुर' पर शत्रुका आक्रमण हुआ तब रक्षा करते काम आनेवाले वीरोंका उल्लेख है । यह आक्रमण महाराणा कुम्भाने किया था । वि० सं० १५३० के लेखमें जैसा कि ऊपर उल्लेखित है सुल्तान गयासुद्दीन खिलजोके मालवाके आक्रमणकी ओर संकेत है। इसी प्रकार अकबर और गुजरातके सुल्तान अहमदशाहके बागदपर आक्रमण के समय मरनेवालोंकी स्मृतियोंमें लेख खुदे हुए मिले हैं। ये लेख चबूतरोंपर लगे हुए हैं। मेवाड़से भी कई लेख मिल हैं। करेड़ा जैन मंदिरमें लगे वि० सं० १३९२ के एक लेख में युद्ध में मृत वीरकी स्मृति में 'गोमट्ट" बनाने का उल्लेख है। बीकानेर क्षेत्रके उदासरसे वि० सं० १६३४ और १७५० के लेखोंमें भी ऐसा ही उल्लेख है। राजस्थानमें दीर्घकाल तक युद्ध होते रहे हैं । अतएव ऐसे लेखोंकी अधिकता होना स्वाभाविक है।
गायों की रक्षा करते हुए मरना भी गौरव और धार्मिक कर्त्तव्य माना जाता था। ऐसे कई लेख भारतके विभिन्न भागोंके मिले हैं। पश्चिमी राजस्थानमें गायोंकी रक्षा करते हुए मरना एक विशिष्ट घटना थी। इन वीरोंकी स्मृतिमें जो लेख लगाये गये हैं इन्हें "गोवर्द्धन" कहते हैं । इन स्तम्भोंपर गोवर्द्धनधारी कृष्णका अंकन होनेसे इन्हें गोवर्द्धन कहते हैं। प्रारम्भमें गायों की रक्षा करते हुए मरनेवालोंके लिए ही थे बनते थे किन्तु कालान्तरमें इनको बाहरी मुस्लिम आक्रान्ताओंके साथ मरनेवालों के लिए भी मान लिया गया। इस प्रकार इनका अर्थ व्यापक हो गया था। ये लेख राजस्थानके उत्तरी पश्चिमी सीमान्त प्रान्तसे लेकर नागौर डीहवागा साँभरके पास स्थित भादवा गाँव तकसे मिले हैं। इस क्षेत्रवासियोंको सदैव मुस्लिम आक्रान्ताओंसे लोहा लेना पड़ा था अतएव इस क्षेत्रमें ही ये लेख अधिक मिले हैं जो प्रायः १० वीं शताब्दीसे १३ वीं शताब्दी तकके हैं । इनमें जैसलमेरकी प्राचीन राजधानी लोद्रवासे सं० ९७० ज्येष्ठ शुक्ला १५ का लेख अबतक ज्ञात लेखों में प्राचीनतम है। इसमें क्षत्रिय वंशमें उत्पन्न रामधरके पुत्र भद्रकद्वारा गोवर्द्धनकी प्रतिष्ठा करानेका उल्लेख है। नागौरके पास बीठनसे सं० १००२ के लेखमें भी गोवर्द्धनके निर्माणका उल्लेख है। पोकरण जैसलमेर और मारवाड़की सीमापर स्थित है यहाँसे २ लेख मिले हैं सं० १०७० आषाढ़ सुदि ६ (२६।७।१०१२) का और दूसरा लेख बिना तिथिका है । ऐसा प्रतीत होता है कि सुल्तान महमूद गजनीके आक्रमणके समयकी ये घटनायें हैं। उसके मुल्तान आदि क्षेत्रोंपर अधिकार हो जानेके बादकी टुकड़ियोंके साथ उसका संघर्ष सोमान्त प्रान्तके निवासियोंसे हुआ था। सं०१०७० के शिलालेखमें परमारवंशी गोगाका उल्लेख है। दूसरे लेखमें गुहिलोतवंशी शासकोंका उल्लेख है। इसे अत्यन्त पराक्रमी और रणभूमिमें युद्ध करनेका उल्लेख किया है। संभवतः यह गजनीके सोमनाथके आक्रमणके समय युद्ध करते हुए काम आया हो तो आश्चर्य नहीं। जोधपरके पाससे पालगाँवसे वि० सं० १२१८ और १२४२ के गोवर्द्धन लेख मिले है । भांडियावास (नागौर) से वि० सं० १२४४ का एक गोवर्द्धन लेख मिला है। लेखमें गोवर्द्धनकी प्रतिष्ठाका सुन्दर वर्णन है। जैसलमेरमें भट्रिक सं०६८५ के कई लेख मिले हैं। इनमें स्त्रियों और गायोंकी रक्षा करते हुए प्राण देना वर्णित है । यह घटना जैसलमेर पर अलाउद्दीन खिलजीके आक्रमणके समयकी है। गायों की रक्षा करते हुए, मरना भी गौरव माना जाता था ।
१. महाराणा कुम्भा पृ० ९६-९७ । २. उपरोक्त पृ० १९९ फुटनोट ५५ । ३. वरदा वर्ष अप्रेल १९६३ १० ६८ से ७९ । ४. शोध पत्रिका वर्ष २२ अंक २ १०६७ से ६९ ।
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हर्ष सं० ८४के भरतपुरके पास कोट गांवके लेखमें ब्राह्मण लोहादित्य द्वारा गायोंकी रक्षा करते हुए मृत्युको प्राप्त करना वणित है। अजमेरके राजकीय संग्रहालयमें संगृहीत और बयानासे प्राप्त एक पूर्वमध्यकालीन शिलालेखमें भी ऐसा ही उल्लेख है। इसमें गायोंकी कई आकृतियां उत्कीर्ण है और एक पुरुष पीछे अंकित बतलाया गया है।
स्मृतिलेखोंमें साधारणतया "चरणयुगल' बनाकर उनपर छोटा लेखा खुदा रहता है। राजस्थानमें ऐसे लेख बड़ी संख्यामें मिलते हैं। इन्हें “पगलिया" कहते हैं । जैन साधुओंकी मृत्युके बाद निषेधिकायें बनायी जाती थीं जिनपर कई लेख मिले हैं।
स्तम्भलेख भी महत्त्वपूर्ण है। स्तम्भोंको कई नामोंसे जाना जाता है। यथा यष्ठि, यट्टि, लष्टि, लग केतन, यूप आदि । राजस्थानसे प्राप्त स्तम्भलेखोंको निम्नांकित भागों में बांट सकते हैं - (क) यज्ञस्तुप सम्बन्धी लेख (२) कीत्तिस्तम्भके लेख और अन्यस्तम्भ लेख
राजस्थानसे यक्षस्तुप बड़ी संख्यामें मिले हैं। ये स्तम्भ यक्षोंकी स्मृतिको चिरस्थायी रखने के लिए बनाये जाते थे। धर्मग्रन्थोंमें काष्ठके स्तम्भ बनानेका उल्लेख है। दक्षिणी पूर्वी राजस्थान से ही ये लेख अधिक संख्यामें प्राप्त हुए हैं । यक्षोंकी पुनरावृत्ति मौर्योंके बादसे हुई थी। वैदिक यक्षोंकी प्रतिक्रिया स्वरूप बौद्ध और जैन धर्मोंका उदय हुआ था किन्तु कालान्तरमें इन धर्मोंकी क्रियाओंका जनमानसपर प्रभाव होते हुए भी वे वैदिक परम्परायें छोड़ नहीं सके थे । इसीलिए समय पाकर फिर वैदिक यज्ञोंका पुनरुद्धार हुआ। यह भावना इतनी अधिक बलवती हुई कि यहाँ तक जैन शासक खारवेल तक इससे अछूते नहीं रह सके । राजस्थानमें यज्ञोंसे सम्बन्धित प्राचीनतम लेख नगरीका है। यह लगभग २री शताब्दी ई० पू० का है। इसमें 'अश्वमेध" करनेका उल्लेख है। इस प्रकारके एक अन्य लघुलेखमें वहीं वाजपेय यज्ञका उल्लेख है। शुंगकालके बाद भागवत धर्म तेजीसे बढ़ा। सं०२८२के नान्दशा के यूपलेख बड़े महत्त्वपूर्ण है। ये मालव जातिसे सम्बन्धित हैं। यहां २ स्तम्भ हैं । इनमेंसे एकके ऊपरका भाग खंडित हो गया है । दूसरे स्तम्भपर एक ही लेखको एक बार आड़ा और एक बार खड़ा खोदा गया है। एक ही लेखको २ बार खोदनेका क्या प्रयोजन रहा होगा ? स्पष्ट नहीं है। ऐसा प्रतीत होता है कि प्रारम्भमें लेख बहुत ही ऊपर खोदा गया था। जो जनसाधारण द्वारा सुविधासे पढ़ा नहीं जा सका होगा इसी कारण उसी भागको दुबारा फिर खोदा गया प्रतीत होता है। लेखके प्रारम्भमें, "प्रथम चंद्रदर्शनमिव मालवगण विषयमवतारयित्वा" शब्दोंका प्रयोग हो रहा है। संभवतः उस समय मालवोंने क्षत्रपोंको हटाकर अपने राज्यका उद्धार किया था। वरनालासे सं० २८४ और ३३५के लेख मिले हैं। सं० २८४के लेखमें ७ स्तम्भ लगानेका उल्लेख है । इस समय केवल एक ही स्तम्भ मिला है । सं०३३५के लेखमें अन्तमें "धर्मो वर्धताम्' शब्द है । इसमें त्रिराज्ञ यज्ञ करने का उल्लेख मिलता है। कोटाके बड़वा गांवसे सं० २९५के यप लेख मिले हैं। इनमें मौखरी वंशके बलवर्द्धन सोमदेव बलसिंह आदि सेनापतियोंका उल्लेख है। णिचपुरिया (नगर) के मठसे" सं० ३२१का लघु यूप मिला है। इसमें धरकके
१. एपिग्राफिआ इंडिका भाग १६ पृ० २५। आर्कियोलोजिकल सर्वे ऑफ इंडिया मेमोयर सं०४ । राजपूताना ___ म्युजियम रिपोर्ट १९२६-२७ पृ० २०४ । २. इंडियन एंटीक्वेरी भाग LVII पृ० ५६ । एपिग्राफिआ इंडिका भाग २७ में प्रकाशित । ३. एपिग्राफिआ इंडिका भाग २६ पृ० ११८ । ४. धोटाराज्यका इतिहास भाग १ परिशिष्ट सं० १ । ५. मरुभारती भाग १ अंक २ १०३८-३९ । शोधपत्रिका वर्ष २० अंक २ प०२०-२७ ।
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पुत्र अहि शर्माका उल्लेखहै । विजयगढ़का सं० ४२८का यप स्तम्भ मिला है। यह ग्राम बयानाके समीप है। इस लेखमें वारिक विष्णुवर्द्धन जो यशोवर्द्धनका पुत्र और यशोराट्का पौत्र था का उल्लेख है। इसने पुंडरीक यज्ञ किया था। इसके बाद यज्ञोंकी परम्परासे सम्बन्धित लेख अपेक्षाकृत कम मिलते हैं। यज्ञस्तूप तो बादमें नहीं के बराबर मिले हैं। एक अपवाद स्वरूप सवाई जयसिंह द्वारा किये गये यज्ञका शिलालेख अवश्य उल्लेखनीय है।
कीत्तिस्तम्भ स्थापित कराना गौरवपूर्ण कृत्य माना जाता था। राजस्थानसे अबतक ज्ञात लेखोंमें घटियालाका सं० ९१८का प्रतिहार राजा कक्कुकका लेख प्राचीनतम और उल्लेखनीय है । इस लेख में प्रतिहार राजा कक्कुककी बड़ी प्रशंसा की गयी है और उसे गुजरता, मरुवल्ल तमणी माड आदि प्रदेशोंके लोगों द्वारा सन्मान दिया जाना भी वर्णित है । वह स्वयं संस्कृतका विद्वान् था । उसने २ कीर्तिस्तम्भ स्थाषित किये थे एक मंदोरमें और दूसरा घटियालामें। चित्तौड़से जैनकीत्तिस्तम्भसे सम्बन्धित कई लेख मिले हैं। जो १३वीं शताब्दीके हैं। लगभग ६ खंडित लेख उदयपुर संग्रहालय में है। एक लेख केन्द्रीय पुरातत्त्व विभागके कार्यालयमें चित्तौड़ में है और एक गुसाईजीकी समाधिपर लग रहा है जिसे अब पूरी तरहसे खोद दिया है। इस लेखकी प्रतिलिपि वीर विनोद लिखते समय स्व० ओझाजी ने ली थी जो महाराणा साहब उदयपुर के संग्रह में विद्यमान है। उसीके अनुसार मैंने इसे अनेकान्त (दिल्ली) पत्रिका में सम्पादित करके प्रकाशित कराया है। लेखोंसे पता चलता है कि इसका निर्माण जैन श्रेष्ठि जीजाने कराया कराया था जो बघेरवाल जातिका था। कोडमदेसर (बीकानेर) में एक कीत्तिस्तम्भ बना है । यह लाल पत्थरका है। इसके पूर्वमें गणेश, दक्षिण में विष्णु, उत्तरमें ब्रह्मा और पश्चिममें पार्वतीकी मूर्ति बनी हुई है। इसमें अरड़कमलकी मृत्युका उल्लेख है। बीकानेर क्षेत्रसे धांधल राठौरोंके कई लेख पाबूजीसे सम्बन्धित मिले हैं । वि० सं० १५१५ के फलोधी के बाहर लगे एक लेख में "राठड धांधल सुत महाराउत पाबूप्रसाद मर्ति कीर्तिस्थम्भ कारावितं" 3 शब्द अंकित है। लगभग इसी समय चित्तौड़का कीर्तिस्तम्भका प्रसिद्ध लेख मिला है। यह कई शिलाओंपर उत्कीर्ण था । अब केवल २ शिलायें विद्यमान हैं। इस लेख में महाराजा कुम्भाके शासनकालकी घटनाओंका विस्तृत उल्लेख किया गया है। राणिकसरके बाहर वि. स. १५८९ का कीर्तिस्तम्भ बना हुआ है । जैन मंदिरोंके बाहर जो लेख खुदे हुए हैं इन्हें "मानस्तम्भ'' भी कहते हैं। इनके अतिरिक्त पट्टावली स्तम्भ भी कई मिलते हैं। इनमें विभिन्न गच्छोंकी पावली स्तम्भोंपर उत्कीर्ण की हुई बतलायी गयी है। ये स्तम्भ कई खण्डोंके होते हैं जो कीर्तिस्तम्भके रूपमें होते हैं। सं० १७०४ के २ स्तम्भ आमेरके राजकीय संग्रहालय में है जो चारसूसे लाये गये थे। आमेरको नसियामें १९ वीं शताब्दीका विस्तृत स्तम्भ बना हुआ है।
अन्य स्तम्भ लेखोंमें आंवलेश्वरका शिलालेख उल्लेखनीय है। इसमें कुलोनके पुत्र पौण द्वारा भगवानके निमित शैलग्रह बनानेका उल्लेख है । यह २री शताब्दी ई० पू०का है।
प्रशस्तियाँ शिलालेखोंमें सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण होती हैं। इनमें कुछ प्रशंसात्मक इतिवृत्ता भक एवं
१. एपिग्राफिआ इंडिका भाग ९ पृ० २८० । २. जैन लेख संग्रह भाग ५ पृ० ८४ । ३. जर्नल बंगाल ब्रांच रावल एशियाटिक सोसाइटी १९११ प० । ४. महाराणा कुम्भा पु० ४०१ से ४११ । १२८ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ
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कुछ ऐतिहासिक तथ्योंसे युक्त होर्ती है। राजस्थान से कई प्रशस्तियाँ मिली हैं। वि० सं० ४८० के गंगधारके' लेखमें विष्णु वर्माके मंत्री मयूराक्ष द्वारा विष्णु और मातृकाओंके मन्दिर बनानेका उल्लेख है। विष्णु वर्माका अधिकार दक्षिणी पूर्वी राजस्थान और मदसौर क्षेत्रपर था। इसके पुत्र बन्धुवर्माका लेख सं० ४९३ का मन्दसोरसे मिला है। छोटी सादड़ीसे मिली वि० सं० ५४७की प्रशस्तिमें गौरीवंशी शासकोंका उल्लेख है। इस लेख में भगवान् महापुरुष (विष्णु) के मन्दिरके निर्माणका उल्लेख किया गया है। लेखमें महाराज गोरीके पूर्वज पुण्यसोम, राज्यवर्द्धन, राष्ट्र यशोगुप्त आदिका उल्लेख है। यह औलिकर वंशके शासकोंके आधीन था। खंडेलासे प्राप्त सं० (हर्ष सं०) २०१ के लेखमें धूसरवंशके: दुर्गवर्द्धन उसके पुत्र धंगक आदिका उल्लेख है । लेख में अर्द्धनारीश्वरके मन्दिरके निर्माणका उल्लेख है । बसन्तगढ़ के सं०६८२ के लेखमें बर्मलातके सामन्त बज्रभद्र सत्याश्रयका वर्णन है और लेखमें देवीके मन्दिर में गौष्टियोंकी गतिविधिका उल्लेख है। कुसुमाका ६९३ का छेख, सामोलीका सं० ७०३ का लेख, नागदाका सं० ७१८७ का लेख, नगरका सं० ७४१ का लेख, झालरापाटनका सं० ७४६ का लेख, मानमोरीका ७७० का लेख, कन्सुवाका ७९५ का लेख, शेरगढ़का१२ ८७० का लेख, प्रतिहार 3 राजा बाऊकका सं० ८९४ का लेख, धोलपुरका ४ चण्डमहासेनका लेख सं० ८९८, आहडका सारणेश्वरका लेख५१०१० राजौरगढ़ का१६ सं० १०१६ का लेख, एकलिंग७ मन्दिरका सं० १०२८ का लेख, हर्षपर्वतका८ १०३० का लेख, बीजापुरका सं० १०५३ राष्ट्रकट१९ धवलका लेख, पूर्णपालका२० सं० १०९९ का लेख, बिजोलियाका१ सं० १२२६ का लेख,
१. गुप्ता इस्क्रिप्सन्स पृ० ७४ ।। २ ओझा निबन्ध-संग्रह भाग १ १० ८७-९० । एपिग्राफिआ इंडिका भाग ३० पृ० ११२ । ३. एपिग्राफिआ इंडिका भाग ३४ पृ० १५९ से १६२। ४. उक्त भाग ९ पृ० १९१ । ५. उक्त भाग ३४ पृ० ४७ से ४९ । ६ नागरी प्रचारिणी पत्रिका भाग १ अंक ३५० ३११ से ३२४ । अन्वेषणा भाग अंक २ । ७. एपिग्राफिआ इंडिका भाग ३ पृ० ३१-३२ । ८ भारत कौमुदी प० २७३-७६ ।। ९. इंडियन एटिक्वेरी भाग ५ पृ० १५१ । १०. टॉउ-एनल्स एण्ड एटिक्वीटिज भाग १ पृ० ६१५-६१६ । ११. इंडियन एंटिक्वेरी भाग १९ पृ० ५७ । १२. उक्त भाग १४ पृ० ४५ । . १३. एपिग्राफिया इंडिका १८ पृ० ९५ । १४ इंडियन एन्टिक्वेरी १९ पृ० ३५ । १५. वीर विनोद भाग १ शेष संग्रह । १६. एपिग्राफिआ इंडिका भाग ३ पृ० २६६ । १७. जरनल बम्बई ब्रांच रायल एसियाटिक सोसाइटी भाग २२ पृ० १६६-६७ । १८. एपिग्राफिआ इंडिका भाग २ पृ० ११९ । १९ जैन लेख संग्रह भाग २ (मनि जिनविजय) में प्रकाशित । २०. एपिग्राफिआ इंडिका भाग ९ पृ० १२ । २१. जैन लेख संग्रह भाग ४ (माणिकचन्द्र जैन ग्रन्थमाला) में प्रकाशित । १७
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आदि प्रशस्तियाँ महत्त्वपूर्ण है। आबूसे मिली प्रशस्तियाँ, १३२४ की धाघसाकी प्रशस्ति, १३३० की चीखाकी' प्रशस्ति, सं० १४९६ की राणकपुरकी प्रशस्ति, सं० १५१७ की कुंभलगढ़की प्रशस्तियोंका मेवाड़ इतिहासकी साधन सामग्री में प्रमुख स्थान है। इनमें इतिहासकी कई उलझी गुत्थियाँ सुलझाई गई है। लगभग इसी समय की कई प्रशस्तियाँ केवल प्रशंसात्मक भी है जिनमें ऐतिहासिक सत्य कम और काव्यात्मक वर्णन अधिक हैं। इनमें वेदशर्माकी बनाई सं० १३३१ की चित्तोडकी प्रशस्ति.५ सं० १३४२ की अचलेश्वरकी प्रशस्ति, १४८५ की चित्तौड़के समाधीश्वर मन्दिरकी प्रशस्ति, मुख्य है। जगन्नाथराय मन्दिरकी प्रशस्ति सं० १७०९, राजप्रशस्ति अपने समयकी महत्त्वपूर्ण प्रशस्तियाँ हैं। अनोपसिंहके समयकी बीकानेरकी प्रशस्ति भी महत्त्वपूर्ण है। इन प्रशस्तियोंमें राजाओंकी बंश परम्परा विजय यात्रायें विभिन्न युद्धों आदिका वर्णन रहता है। राजाओं या श्रेष्ठियों द्वारा कराये गये निर्माण कार्यों का भी विस्तृत उल्लेख है। इस प्रकार ये प्रशस्तियाँ मध्यकालीन राजस्थानके इतिहासकी महत्त्वपूर्ण साधन सामग्री है ।
प्रशस्तियोंमें प्रारम्भमें देवी-देवताओंकी स्तुति होती है। कई बार इसके लिए कई श्लोक होते है। बादमें राजवंश वर्णन रहता है। अगर प्रशस्ति राजासे भिन्न किसी अन्य व्यक्ति की है तो उनका वंश वर्णन आदि रहता है। इसके बाद मन्दिर बावड़ी या अन्य किसी कार्यका उल्लेख जिससे वह प्रशस्ति सम्बन्धित है रहता है। बादमें प्रशस्तिका रचनाकार और उसका वर्णन अन्तमें संवत् दिया जाता है। उदाहरणार्थ डूंगरपुरके पास स्थित ऊपर गाँवको सं० १४६१ की महारावल पाताकी अप्रकाशित प्रशस्ति, एवं १४९५ की चित्तौड़की प्रशस्तिको लें। ये दोनों लेख जैन हैं। प्रारम्भमें कई श्लोकोंमें जैन देवी-देवताओंकी स्तुतियाँ हैं। बादमें राजवंश वर्णन है। बादमें श्रेष्ठिवर्गका वर्णन है। वादमें साधुओंका उल्लेख है। इसके बाद प्रशस्तिकारका उल्लेख और अन्तमें संवत् दिया गया है। कुछ प्रशस्तियों में प्रारम्भमें भौगोलिक वर्णन भी दिया रहता है। सं० १३३१ की चित्तौड़की प्रशस्ति और १३४१ की अचलेश्वर मन्दिरकी प्रशस्तिमें प्रारम्भमें चित्तौड़ नागदा मेवाड़ भूमिको प्रशंसा की गई है। इसी प्रकार सं० १५१७ की कुंभलगढ़की प्रशस्तिमें, मेवाड़का भौगोलिक वर्णन, मेवाड़ के तीर्थक्षेत्र, चित्तौड़ दुर्ग वर्णन आदि दिये हैं। इसके बाद वंशावली दी गई है।
ताम्रपत्र या दानपत्र बहुत महत्वपूर्ण होते हैं और इनको लिखने में विशेष सावधानी बरती जाती रही है। लेख पद्धतिमें विभिन्न प्रकारके प्रारूप भी लिखे हैं ताकि इनको लिखते समय इसका ध्यान रखा जा सके। प्रशस्तियों के प्रारूपसे इनके प्रारूपमें बड़ी भिन्नता रहती है। इनमें प्रारम्भमें "स्वस्ति" आदिके
अंक रहता है। इसके बाद राजाका नाम रहता है। दानपत्र प्राप्त करनेवाले व्यक्ति
१. वरदा वर्ष ५ अंक ४ में प्रकाशित । २ वीर विनोद भाग १ शेष संग्रहमें प्रकाशित । ३. महाराणा कुम्भा पृ० ३८४ से ३८६ । ४. उक्त पु० ३९७ से ४०१ । ५. वीरविनोद भाग १ शेषसंग्रहमें प्रकाशित । ६. उक्त । ७ उक्त । ८. एपिग्राफि इंडिका XXIV पृ० ५६ । १३० : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ
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और दान में दी जानेवाली भुमि आदिका बिस्तारसे उल्लेख होता है। जैसे भूमिकी सीमायें अंकित रहती है । उसके पूर्व पश्चिम उत्तर दक्षिण में जिन-जिनके खेत या राजपथ होता था उनके नाम दिये रहते है । खेतकी संख्या या स्थानीय नाम भी दिया जाता है। ऊनालू सियालु आदि शाखोंसे जो लगान लिया जाता है उसका भी कभी-कभी उल्लेख रहता है। खेतकी लम्बाई भी कभी-कभी दर्ज रहती है। जैसे ५ हल, आदि । प्रत्येक हलमें ५० बीघा जमीन मानी जाती है। इसके बाद कुछ श्लोक जैसे "आपदत्तं परदत्तं" आदिसे शुरू होनेवाले होते हैं। इनमें वर्णित है कि यह दान शाश्वत रहे और इनको अगर कोई भंग कर देवे तो विष्ठामें कीड़ेके रूपमें उत्पन्न होवे आदि । इसके बाद "दूतक' का नाम होता है जिसके द्वारा उक्त दानपत्र दिया जाता है। ये लेख सामान्यतः एक या अधिक ताम्रपत्रोंपर उत्कीर्ण होता है। एकलिंग मन्दिरका महाराणा भीमसिंहका ताम्रपत्र जो लगभग ४ फुट लम्बा है एक अपवाद स्वरूप है। इस लेखमें समय-समयपर दिये गये दानपत्रोंको एक साथ लिख दिया गया है। राजा लोग दान मुख्यरूपसे किसी धार्मिक पर्व जैसे संक्रान्ति, सूर्यग्रहण आदि अवसरपर देते थे। इसके अतिरिक्त पुत्र जन्म, राज्यारोहण, पूजा व्यवस्था, विशिष्ट विजय रथयात्रा आदि अवसरोंपर भी दान देते थे। मेवाड़में महाराणा रायमल और भोमसिंहके समय बड़े दानपत्र मिलते हैं। रायमलके समयके दानपत्रोंमें कई जाली भी हैं। भीमसिंह दान देने में बड़े प्रसिद्ध थे। छोटी-छोटो बातोंपर दान दिये गये हैं। कई लोगोंने पुराने दानपत्र खोनेका उल्लेख करके नये दानपत्र बनवाये हैं । इनमें "भगवान राम रो दत्त" कह करके दानपत्र ठीक किये गये हैं।
दानपत्रोंका विधिवत् रेकार्ड जाता रहा था। “अक्ष पट्टलिक" नामक अधिकारीका उल्लेख प्राचीन लेखोंमें मिलता है। यह दानपत्रोंका रिकार्ड रखता था ।
इन दानपत्रोंके साथ-साथ कुछ ऐसे लेख भी मिले हैं जिनमें कुछ अधिकारियोंने अपनेको प्राप्त राशि जैसे तलाराभाव्य, आदिसे मंडपिकासे सीधा दान दिलाया है ।
परका आज्ञापत्र है। इसमें ऊपर सूरज चाँद बना हुआ है स्त्री और गन्दर्भ बना रहता है। सं० ११०४ का लेख टोकरा (आब) से मिला है। सं० १२२८ का लेख चंद्रावतीसे मिला है। कुम्भारियाजीसे सं० १३१२ और १३३२ के सुरहलेख मिलते हैं जिनमें ग्रामके ५ मंदिरोंकी पूजाके निमित्त दान देने की व्यवस्था है। बाजणवाला (गिरवरके पास) ग्राममें १२८७ का सुरहलेख है जिसपर राज-राजेश्वर आदि शब्द ही पढ़े जा सके हैं। आबूके अचलेश्वर मंदिरके बाहर कई सुरहलेख लग रहे हैं । इनमें सं० १२२३, १२२८, १३९८ १५०९ आदिके लेख उल्लेखनीय हैं । मडार ग्राममें बाहर जैराजके चौंतरेके पास सं० १३५२ का वीसलदेव द्वारा दान देनेका उल्लेख है। सं० १५०६ के सुरहलेख महाराणा कुम्भाके आबूमें देलवाड़ा, माधव, गोमुख और आबूरोड (रेल्वे हाईस्कूल) से मिले हैं । सं० १६५९ भादवा "शुक्का ७ का नाणाग्राममें सुरहलेख है इसमें मेहता नारायणदास द्वारा दान देनेका उल्लेख है । बरकानाके जन मदिर सं० १६८६ और १८ वीं शताब्दी के २ लेख महाराणा जगतसिंह (i) और (ii) के समयके हैं। चित्तौड़में रामपोलसे सं० १३९३-१३९६ के बणबीरके सुरहलेख, महाराणा आरीसिंहके समयका कालिका
१. अर्बुदाचल प्रदक्षिणा पृ० ११४ । २. उक्त पृ० १४ । ३ वरदा वर्ष १३ अंक २ में प्रकाशित मेरा लेख "अचलेश्वर मन्दिरके शिलालेख" । ४. महाराणा कुम्भा पृ० ३९२-९३ । ५ अर्बुदाचल प्रदक्षिणा लेख संदोह II १० ३६२ । ६ वरदामें प्रकाशित मेरा लेख महाराणा बणवीरके अप्रकाशित शिलालेख ।
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माताके मंदिरके बाहरका सुरहलख, महाराणा हमीरसिंह (ii) के समयके रामपोलके २ लेख एवं अन्नपूर्णा मन्दिरके बाहरके सुरहलेख मुख्य हैं। इन सारे लेखोंको मैंने सम्पादित करके प्रकाशित कराये हैं । एकलिंग मन्दिर के बाहर महाराणा भीमसिंह और सज्जनसिंहके समयके ५ सुरहलेख हैं। उदयपुर शहरमें महाराणा अरिसिंहके समयका सुरहलेख मुख्य है। भीनमालमें महाराजा मानसिंहके समयका एवं मंडोरमें महाराजा तख्तसिंहके समयके सुरहलेख भी प्रसिद्ध हैं। इन लेखोंसे तत्कालीन शासनव्यवस्थाके सम्बन्धमें प्रचुर सामग्री मिलती है। स्थानीय अधिकारियोंके नाम, पद एवं स्थानीय कर जैसे, दाग, मुंडिककर, बलावीकर, रखवालीकर, घरगणतीकर, आदि का पूरा पूरा व्यौरा रहता है । चित्तौड़, उदयपुर आदिके सुरहलेखोंमें मराठोंके आक्रमणोंका अच्छा वर्णन है । मराठा अधिकारीका सुरहलेख भी चार भुजाके मन्दिरसे सं० १८६७ का एवं गंगापुर (भीलवाड़ा) से सं० १८६२ का मिला है।
धार्मिक लेखोंमें मन्दिरकी व्यवस्था सम्बन्धी उल्लेख मिलता है। मन्दिरोंके लिए प्रायः गौष्ठिक बने रहते थे जो व्यवस्था करते थे। इनका उल्लेख ७ वीं शताब्दीके गोठ मांग लोद के लेख, खण्डेलाके हर्ष सं० २०१ के लेख, बसंतगढ़ के ६८२ के लेख, सिकरायका ८७९ के लेख आदिमें होनेसे पता
चलता है कि राजस्थानमें ७वीं शताब्दीके पहलेसे ही ऐसी व्यवस्था मौजूद थी। मन्दिर या धार्मिक संस्थानोंकी व्यवस्थाके निमित दानपत्रोंके रूपमें भी कई लेख मिले हैं। इनमें स्थानीय संस्थानोंसे कर लेकर मन्दिरको दिया जाता था। यह कार्य मण्डपिकाके द्वारा होता था। आहडका सं० १०१० का लेख, सं० ९९९ एवं १००३ का प्रतापगढ़ का लेख, शेरगढ़ दुर्गके लघु लेख, आदि उल्लेखनीय है।
सम्राट अशोकके बैराठके लेखोंमें धार्मिक आज्ञाओं एवं धर्मग्रन्थोंका उल्लेख है।
मूर्ति लेखोंमें मुख्यरूपसे जैनलेख आते हैं। राजस्थानसे ऐसे कई हजार मिल चुके हैं । इनमें बीकानेर क्षेत्रके लेख श्री नाइटाजीने सम्पादित किये हैं। पुण्यविजयजोने आबू क्षेत्रके लेख प्रकाशित किये हैं। श्री पूर्णचन्द्र नाहरने जैसलमेर एवं अन्य क्षेत्रोंके लेख सम्पादित किये हैं। दिगम्बर लेखोंमें ऐसा विशिष्ट प्रकाशन मति लेखोंका नहीं हुआ है इन लेखोंमें प्रारम्भमें अर्हतका उल्लेख होता है। बादमें संवत् बना रहता है। इसके बाद लेखमें स्थानीय राजाका उल्लेख रहता है। मूर्ति लेखमें राजा का उल्लेख होना आवश्यक नहीं है। कई बार इसे छोड़ भी दिया जाता है। इसके बाद मूर्ति बनवानेवाले श्रेष्ठिका परिचय रहता है। उसके गाँवका नाम, पर्वजोंका वर्णन, मतिका वर्णन एवं जैन आचार्य, जिनके द्वारा प्रतिष्ठा की गयी हो, का वर्णन रहता है। कई बार मूर्ति बनानेवाले शिल्पीका नाम भी रहता है। संवत् कई बार बादमें मिलता है। मूर्ति लेखोंमें एक विशिष्ट बात यह है कि उस समयके नाम प्राय: एकाक्षर बोधक होते थे। मर्ति लेखोंमें प्रायः बोली में आनेवाले शब्दोंका ही प्रयोग किया गया है जो उल्लेखनीय है । कई बार श्रेष्ठियों और उनकी पत्नियोंके नाम एकसे मिलते हैं जैसे मोहण-मोहणी आदि । बहुपत्नीवादकी प्रथाकी ओर भी इनसे दृष्टि डाली जा सकती है। जैनियोंके विभिन्न गोत्रों आदि जैन साधुगच्छोंपर भी विस्तारसे इन मूर्ति लेखों द्वारा अध्ययन किया जा सकता है। ये मर्ति लेख इस दृष्टिसे महत्त्वपूर्ण हैं । राजस्थानमें कांस्य मूर्तियोंके लेख ७वीं, ८वीं शताब्दोसे मिलने लग गये है किन्तु पत्थरकी प्रतिमाओंपर ९००के बादके ही लेख अधिक मिलते हैं। राजपूत राजाओंके शासनकालमें १०वीं शताब्दीके बाद जैन श्रेष्ठियोंने अभूतपूर्वं शासनमें योगदान दिया इसके फलस्वरूप जैन धर्मकी बड़ी उन्नति हई । मति लेखोंसे एक बार प्रतिष्ठित हुई प्रतिमाके दुबारा प्रतिष्ठित होनेके भी रोचक वर्णन मिलते हैं ।
१. शोधपत्रिका वर्ष २१ अंक १ में प्रकाशित मेरा लेख । २. मज्झमिका (१९७१) पृ० १०४ से ११० ।
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अन्य लेखों में कूप बावडियोंके, तालाब आदिके वर्णन उल्लेखनीय । प्रतिहारकालकी बावडियाँ, ओसियाँ, मण्डोर आदिसे मिली हैं । मण्डोरकी बावडीसे ७वीं शताब्दीका शिलालेख भी मिला है ।" यह लेख सं० ७४२का है और ९ पंक्तियोंका है । सं० ७४१के नगरके शिलालेखमें वापी निर्माणका श्रेय भीनमालके कुशल शिल्पियोंको दिया गया है। चित्तौड़के वि० सं० ७७० के लेखमें भी इसी प्रकार मानसरोवर के निर्माणका उल्लेख किया गया है । कुवोंके लिए अरहट शब्दों का प्रयोग भी मिलता है । जगत गांवके अम्बिका माता के मन्दिर में सं० १०१७का लघु लेख मिला है । इसमें वापी कूप तडागादि निर्माणका उल्लेख मिलता है । अहडसे प्राप्त स १००१ के लेखमें गंगोद्भव कुण्डका उल्लेख है । १०९९ का पूर्णपालका बसंतगढ़का लेख है जिसमें बावडी बनानेका उल्लेख है । बिजोलियाके मन्दाकिनी कुण्ड, जहाजपुर के कुण्ड, गंगातटके कुण्डों, आबूके अचलेश्वरके कुण्डसे भी कई लेख मिले । ये स्थान बड़े धार्मिक माने जाते रहे हैं अतएव ये लेख इस दृष्टिसे बड़े महत्त्वपूर्ण हैं । मध्यकालमें कूप तडाग और बावड़ियोंके लेख असंख्य मिले हैं। मालदेव के लेखमें बावडी में होनेवाले व्यय का विस्तारसे उल्लेख है । उस कार्यमें काम आनेवाली सारी सामग्रीका भी जिक्र है । राज प्रशस्ति में इसी प्रकारका पूर्ण व्यौरा है ।
१. सरदार म्युजियम रिपोर्ट वर्ष १९३४ पृ० ५ । २. वरदा अक्टू० ६३ पृ० ५७ से ६३ ।
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द्वितीय खण्ड
प
S
भाषा और साहित्य
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पाणिनिकाल एवं संस्कृतमें द्विवचन
श्री उदयवीर शास्त्री, गाजियाबाद पिछले दिनों जनवरी-फरवरी ७१ में फिनलैण्ड देशके निवासी डॉ. पारपोला दिल्ली आये हए थे। उनके विषयमें सुना गया, कि उन्होंने मोइन्जोदड़ो और हड़प्पा लिपि व भाषाको समझनेके लिए पर्याप्त प्रयत्न किया है। डॉ० महोदयका यह दावा मालूम हुआ, कि उक्त लिपि व भाषाको समझने में उन्होंने सफलता प्राप्त कर ली है। ईसी धारणाको स्पष्ट कर लेनेके लिए केन्द्रीय पुरातत्त्व अनुसंधान विभागके भवनमें उनके दो प्रवचन हुए, एक दिनांक १-२-७१ को, तथा दूसरा ४-२-७१ को।
गाजियाबाद निवासी श्री कैलाशचन्द्र वर्माके सहयोगसे पहले प्रवचनमें सम्मिलित होनेका मुझे सुअवसर प्राप्त हो सका। डॉ० पारपोलाका कहना है कि, मोइन्जोदड़ो और हड़प्पाकी लिपि व भाषाका किसी आर्य लिपि व भाषासे कोई सम्बन्ध न होकर द्रविड़ लिपि ब भाषासे सम्बन्ध है । आर्योंकी किसी लिपि व भाषाका प्रसार भारतमें आर्योंके कहीं बाहरसे यहाँ आनेपर हआ। उनके विचारसे आर्योंके भारतमें आनेका काल ईसापूर्व तेरह सौ वर्षसे सत्रह सौ वर्ष के अन्तरालमें है। उससे पूर्व यहाँ द्रविड़ोंका निवास था, आर्योंने आकर उन्हें खदेड़ा, और इस भूभागपर अपना अधिकार जमा लिया।
उक्त लिपि व भाषाका द्रविड़ लिपि व भाषासे सम्बन्ध है, अपने इस साध्यको सिद्ध करनेके लिए डॉ० पारपोलाने प्रमाण प्रस्तुत किया। प्राचीन द्रविड़ लिपिके उत्कीर्ण लेखोंमें द्विवचनका प्रयोग देखा जाता है, मोइन्जोदड़ो व हड़प्पाकी भाषामें भी द्विवचनका प्रयोग है, संसारकी अन्य आर्यकुलकी भाषाओंमें द्विवचनका प्रयोग नहीं देखा जाता। केवल भारतीय आर्योंकी संस्कृत भाषामें द्विवचनका प्रयोग है, ईसापूर्व सत्रहसौ वर्षके अनन्तर कालमें जब आर्य बाहरसे भारतमें आये, तब उन्होंने यहाँकी प्रचलित भाषा द्रविड़से अपनी भाषामें द्विवचन उपाहरण (BORROW) किया। भाषामें मूलरूपसे द्विवचनकी मान्यतामोइन्जोदड़ो आदिकी भाषाका द्रविड़ भाषासे सम्बन्ध समझने में पर्याप्त प्रबल प्रमाण है।
विचार करना चाहिए, इस धारणामें सचाईकी सम्भावना कहाँ तक है। डॉ. पारपोलाके भाषणके अनन्तर कहा गया, कि इस विषयमें किसीको अन्य वक्तव्य हो, तो कह सकते हैं।
पुरातत्त्व अनुसन्धान विभागके निदेशक डॉ० बी० बी० लाल महोदयने प्रथम इस अंशपर प्रकाश डाला, कि द्रविड़ भाषाके प्राचीन उत्कीर्ण लेखोंमें द्विवचनके प्रयोगको इस दिशामें प्रमाणरूपसे प्रस्तुत करना अत्यन्त शिथिल है, कारण यह है, कि द्रविड़ भाषाके अभी तक उपलब्ध लगभग ब्यालीस अभिलेखोंमेंसे केवल एकमें स्पष्ट और दूसरे एकमें अस्पष्ट द्विवचनका प्रयोग उपलब्ध है, इतना अत्यल्प प्रयोग द्रविड़ भाषामें मौलिक रूपसे द्विवचनके प्रयोगको मान्यताके लिए उपयुक्त गवाही नहीं है। यह अधिक सम्भव है, द्रविड़ भाषाके किसी अभिलेख में अन्यत्र से यह उधार लिया गया हो।
इस विषयमें अपने विचार अभिव्यक्त करने के लिए मुझे भी अवसर प्रदान किया गया। उन्हीं भावोंको यहाँ लिपिबद्ध करनेका प्रयास है । १. इसका उच्चारण 'मोहनजोदड़ो' अशद्ध है। 'दड़ो' या 'दाड़ो' दो ढेरको कहते हैं। इधर भाषामें भी
ढेरको 'दड़ा' कहते हैं । 'जो' छठी विभक्तिका चिह्न है। 'मोइन' का अर्थ है-मरे हुए। पूरे पदका अर्थ है-'मरे हुओंका ढेर'।
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भाषामें द्विवचन-प्रयोगका इतिहास जाननेके लिए हमें संस्कृत भाषाके व्याकरणपर दृष्टिपात करना होगा। उपलब्ध संस्कृत व्याकरणोंमें आचार्य पाणिनिका व्याकरण अधिक पूर्ण एवं मूर्द्धन्य है। इस विवेचनके प्रसंगसे हमारा यह समझनेका मुख्य लक्ष्य होगा, कि पाणिनिका काल क्या हो सकता है। इसी आधारपर यह समझने में सुविधा हो सकेगी, कि संस्कृत भाषामें द्विवचनका प्रयोग उधार लिया गया है, अथवा वह इसी भाषाका मौलिक रूप है ।
इस विवेचनसे पूर्व एक और बात समझ लेना उपयुक्त होगा। कहा जाता है, आर्यकूलकी भाषाओंमें सिवाय संस्कृतके अन्यत्र कहीं द्विवचनका प्रयोग नहीं है। कल्पना की जाती है, संस्कृत और उसके समकक्षकी युरोपीय भाषाओंकी जननी कोई, एक अन्य भाषा प्राचीन कालमें रही होगी, जिसमें द्विवचनके प्रयोगका अभाव था। उसीके अनुकूल उससे विकृत व परिवर्तित होनेवाली, युरोपीय भाषाओं में द्विवचनका अभाव रहा । उसी प्राचीन अज्ञात भाषासे विकृत व परिवर्तित होनेवाली संस्कृतमें यह कहोंसे उधार लिया गया है।
___ इस कथन की यथार्थताको समझनेके लिए हम भारतकी वर्तमान भाषाओंकी ओर विद्वान् पाठकोंका ध्यान आकर्षित करना चाहते हैं। इस विषयमें संभवतः किन्हीं भी विचारक विद्वानोंका मतभेद न होगा, कि दक्षिण भारतकी भाषाओंको इस विवेच्यकी सीमामें न लाकर उत्तर भारतकी जितनी प्रान्तीय भाषा है, उन सबका मूल संस्कृत है। इन भाषाओंमें मराठी, कोंकणी, गुजराती, काठियावाड़ी, राजस्थानी, पंजाबी, कश्मीरी, कनौरी, सिरमौरी, गढ़वाली, कुमायूंबी, हिन्दी (हिन्दीके अवान्तर-भेद-शूरसेनी, मागधी, अवधी आदि),उत्कल, बंगला, असमिया आदिका समावेश है। ये सब भाषा संस्कृत भाषासे विभिन्न धाराओं में परिवत्तित व विकृत होती हुई अपने वर्तमान रूपमें पहुँची हैं । इनका मूल संस्कृत होनेपर भी इनमें से किसी भाषामें द्विवचनका प्रयोग नहीं है । क्या इस आधारपर यह कल्पना की जा सकती है, कि इन भाषाओंका मूल कोई अन्य ऐसी प्राचीन भाषा रही होगी, जिसमें द्विवचनके प्रयोगका अभाव था ?
वस्तुतः ऐसी कल्पना निराधार ही होगी। इसोके अनुसार क्या यह सुझाव दिया जा सकता है कि भारतीय भाषाओंके समान आर्यकुलकी अन्य युरोपीय आदि भाषाओंका मूल संस्कृत है। अपनी विभिन्न परिस्थितियों एवं परिवर्तनकालकी आवश्यताओंको देखते हुए इन भाषाओंमें द्विवचनके प्रयोगको त्याग दिया गया । अस्तु, जो हो, इस समय यूरोपीय भाषाओंकी जननीका विवेचन इस लेखका लक्ष्य नहीं है । हमें देखना चाहिए, भारतमें संस्कृत भाषाके प्रयोगका वह कौन सा काल संभव है, जब यह कहा जा सके, कि उसमें द्विवचनका प्रयोग द्रविड़ भाषासे उधार लिया गया, अथवा उसका अपना मोलिक रूप है।
संस्कृत भारतीय आर्योंकी भाषा रही है। व्याकरण सदा सर्वसाधारण जनतामें व्यवहृत होनेवाली भाषाका हुआ करता है। अति प्राचीनकालमें संस्कृतके अनेक व्याकरणोंका पता लगता है, परन्तु इस समय संस्कृतका सर्वोपरि मूर्धन्य व्याकरण पाणिनि आचार्यका बनाया हुआ है। व्याकरणमें निर्दिष्ट शब्द प्रयोगोंकी रचनाके आधारपर यह निश्चित रूपसे कहा जा सकता है, कि पाणिनिने यह व्याकरण उस समय बनाया, जब उत्तर अथवा पश्चिमोत्तर भारत की सर्वसाधारण जनता--अपठित जनता भी--संस्कृत भाषाका प्रयोग करती थी । पाणिनिने अपनी रचना अष्टाध्यायीमें शतशः ऐसे प्रयोगोंके साधुत्वका उल्लेख किया है, जो नितांत ग्राम्य एवं प्रायः अपठित जनताके व्यवहारोपयोगी हैं । कतिपय प्रयोग इस प्रकार हैं
(१) शाक आदि बेचनेवाले कूजड़े बिक्रीकी सुविधाके लिए पालक, मूली, मेथी, धनियाँ, पोदीना आदि की गड्डी बाँधकर मूल्यके अनुसार आजकल आवाज़ लगाते हैं,-पैसा-पैसा, दो-दो पैसा आदि । पाणिनि कालमें ऐसा व्यवहार संस्कृत भाषामें होता था। उसके लिए-'मलकपणः, शाकपणः,धान्यकपणः' आदि
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प्रयोगोंके साधत्वका निर्देश पाणिनिने एक सूत्र 'नित्यं पणः परिमाणे' (३-३-६६)में किया है। इन पदोंका प्रयोग बाजारमें शाक-भाजी बेचनेवाले किया करते थे।
(२) इसी प्रकार रसोई बनानेवाले पाचक, खेती करनेवाले किसानके दैनिक प्रयोगमें आनेवाले पदोंके साधुत्व का निर्देश अनेकत्र यथाप्रसंग अष्टाध्यायी (४.२.१६-२० तथा ४.४.२२-२६)में पाणिनिने किया है। उन निर्देशों के अनुसार दही या मठेसे बना खाद्य 'दाधिकम, औदरिवत्कम्' कहा जाता था, नमकीन शाकरसको 'लवणः सूपः' कहते थे।
(३) किसानोंके धान्योपयोगी विभिन्न क्षेत्रोंके वाचक--प्रेयङ्गवीनम्, बैहेयम्, यव्यम्, तैलीनम्, तिल्यम्, आदि पदोंके साधुत्वका निर्देश पाणिनिने अष्टाध्यायी (५.२.१-४)में किया है। ग्रामीण किसान जिन खेतोंमें विभिन्न अनाज बोते थे, उन खेतोंके लिए इन पदोंका प्रयोग करते थे।
(४) इसी प्रकार कपड़े रंगनेवाले रँगरेजोंके व्यवहारमें आनेवाले 'माजिष्ठम्, काषायम्, लाक्षिकम्, रोचनिकम्' आदि पदोंके साधुत्वके लिए पाणिनिने 'तेन रक्तं रागात्, लक्षारोचना?क्' (अष्टा० ४.२.१-२) आदि सूत्र कहे हैं ।
(५) इस विषयमें दो स्थलोंका और उल्लेख किया जाता है, जो विशेष ध्यान देने योग्य हैं। व्यास नदीसे उत्तर और दक्षिण की ओर बने कूओंके नाम, बनानेवालोंके नामसे व्यवहृत होते थे। दत्तका बनवाया हुआ कुआं 'दात्तः' कहा जाता था। और गुप्तका बनवाया हुआ 'गौप्तः' (अष्टा० ४.२.७४, उदक् च विपाशः)। नदीके दानों ओरके प्रदेशोंमें व्यवहृत होनेवाले इन पदोंका स्वरूप समान था, परन्तु दोनों ओरके उच्चारणमें थोड़ा अन्तर था। उत्तरकी ओरके लोग पदके अन्तिम अक्षरपर जोर देते थे अर्थात् वे इन पदोंका अन्तोदात्त उच्चारण करते थे तथा नदीके दक्षिणकी ओरके निवासी इन पदोंके पहले अक्षरपर जोर देते थे, अर्थात् वे इन पदोंका आधुदात्त उच्चारण करते थे। उस प्रदेशमें निवास करनेवाली साधारण जनता द्वारा इन पदोंके उच्चारणकी विशेषतापर आचार्य पाणिनिने ध्यान देकर अन्तोदात्त उच्चारणके लिए 'अञ्' प्रत्यय और आधुदात्त उच्चारणके लिए 'अण्' प्रत्ययका विधान किया, जिससे पदोंका स्वरूप समान रहे, और उच्चारणका अन्तर स्पष्ट किया जा सके ।
काशिकाकारने सूत्र (४.२.७४)की व्याख्या करते हुए पाणिनिके विषयमें लिखा है-'महती सूक्ष्मेक्षिका वर्तते सूत्रकारस्य' अपने कालकी लोकभाषाके विषयमें आचार्य पाणिनिका इतनी गहराई व सूक्ष्मतासे विचार करना आश्चर्यजनक है, जो पदोंके उच्चारण भेदको भी अभिव्यक्त करनेका ध्यान रखकर उसके लिए नियमित व्यवस्था कर दी।
(६) अन्य एक प्रसंगमें पाणिनिने कहा-जातिके एक होनेसे जातिवाचक पदका एकवचनमें प्रयोग प्राप्त होता है, परन्तु लोकभाषामें एकवचन और बहुवचन दोनों रूपोंमें देखा जाता है, उसी के अनुसार आचार्यने उन पदोंके साधुत्वका निर्देश किया-'जात्याख्यायामेकस्मिन् बहुवचनमन्यतरस्याम्' (अष्टा० १.२.५८) जैसे-'यवः सम्पन्नः, यवाः सम्पन्नाः । ब्रीहिः सम्पन्नः, ब्रीयः सम्पन्नाः', आज भी किसान यही प्रयोग करता है-जो पक गया, जौ पक गये, काट डालो। धान पक गया, धान पक गये, इत्यादि । आजके
और पाणिनिकालके व्यवहारमें कोई अन्तर नहीं, केवल भाषामें अन्तर है। आजका किसान हिन्दी बोलता है, उस समयका संस्कृत बोलता था। उसी व्यवहारके अनुरूप पाणिनिने नियमों का निर्देश किया।
पाणिनि व्याकरणकी उक्त अन्तःसाक्षियोंके आधारपर यह स्पष्ट होता है कि पाणिनिके कालमें
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संस्कृत लोक व्यवहारमें आनेवाली जनसाधारणकी भाषा थी। पाणिनिके यथार्थ कालका परिचय प्राप्त करनेके लिए इस स्थितिपर ध्यान देना होगा।
आज पाणिनिका काल ईसापूर्व पाँचवीं-छठी शताब्दी माना जाता है, इस विचारको प्रस्तुत करनेवाले विद्वानोंका कहना यह है, कि पाणिनिका काल ईसापूर्व पांचवीं-छठी शतीके और इधर नहीं खींचा जा सकता, लिहाजा वही समय मान लिया गया। भगवान् बुद्धका भी तथाकथित काल यही माना जाता है । पर यह सर्वसम्मत निर्विवाद सत्य है, कि भगवान् बुद्धके तथाकथित कालमें उत्तर अथवा पश्चिमोत्तर भारतके निवासी सर्वसाधारणकी भाषा संस्कृत नहीं थी। उस समय जनसाधारणके व्यवहारकी भाषा पाली अथवा प्राकृत थी। उस समयका बौद्ध साहित्य इसी भापामें उपलब्ध होता है। भगवान् बुद्धने अपने विचारोंके साधारण जनतामें प्रचार-प्रसारके लिए उसी भाषाका अवलम्बन किया, जो जनताके व्यवहारको भाषा थी। इसलिए पाणिनि का वह काल होना किसी प्रकार संभव नहीं है।
इस तथ्यको सभी विद्वान् स्वीकार करते है, कि उस कालकी पाली व प्राकृत भाषा उससे प्राक्तनकाल की जनभाषा संस्कृतका ही विकृत रूप है। संस्कृत भाषासे प्राकृतका वह रूप विकृत होने में कितना समय लगा होगा, इसका निश्चयपूर्वक कह सकना तो कठिन है, पर मोटा अन्दाज़ एक आधारपर लगाया जा सकता है । खजुराहोंमें उत्कीर्ण लिपि व उसकी भाषा वर्तमान नागरी लिपि व हिन्दी भाषासे बहुत समानता रखती है, उस भाषाको वर्तमान रूपमें आने के लिए लगभग एक सहस्र वर्ष लग गये हैं। संस्कृत और बुद्धकालकी प्राकृत भाषामें उससे भी कहीं अधिक अन्तर है। संस्कृतको विकृत व परिवर्तन होकर उस रूपमें आनेके लिए कमसे कम हजार-बारह सौ वर्षका समय अवश्य माना जाना चाहिए।
इसके अनुसार तथाकथित बुद्धकालसे लगभग बारह सौ वर्ष पहले पाणिनिका काल माना जाना चाहिए। तब सत्रहसौ-अठारहसौ वर्ष ईसापूर्व के लगभग पाणिनिका काल आता है। डॉ० पारपोलाका कहना है, कि आर्य भारतमें ईसापूर्व तेरह सौसे सत्रह सौ वर्ष के बीच आये। यदि अधिकसे अधिक पहलेका समय भी भारतमें आर्योंके आनेका मान लें, तो पाणिनि द्वारा व्याकरण-रचनाका तथा आर्योंके भारतमें आनेका एक ही समय रहता है ? तब क्या यह कहा जायेगा, कि भारतमें आर्योंके आनेके साथ ही साथ पाणिनि अपने व्याकरणको लेकर यहाँ आया ? क्योंकि जिस भाषाका वह व्याकरण है, वह भाषा उन आर्योंकी मानी जाती है, और है भी, जिनके विषयमें यह कहा जाता है, कि ये भारतमें कही बाहरसे आये।
व्याकरणके विषयमें यह कथन सर्वथा असंगत व निराधार है, कि भारतमें आर्योके आगमनके साथ यह आया। अष्टाध्यायी व गणपाठमें उत्तर भारत व पश्चिमोत्तर भारतके अनेक नद, नदी, नगर, उपवन व विशिष्ट व्यक्तियोंके नामोंका उल्लेख हुआ है, जिससे यह स्पष्ट होता है, पाणिनिने इस व्याकरणकी रचना यहीं रहते की । इसके साथ यह भी विचारणीय है कि आर्योंने ईसापूर्व सत्रहवीं शताब्दीमें यहाँ आते ही उत्तर भारतकी समस्त साधारण जनता को संस्कृत कैसे सिखा दी ? उपर्युक्त विवरणसे स्पष्ट है पाणिनि व्याकरणकी रचनाके समय उत्तर व पश्चिमोत्तर भारतको सर्वसाधारण जनता किसान, खेतिहर, मजदूर, शाक सब्जी बेचनेवाले कुँजड़े तथा कपड़े रंगनेवाले रंगरेज, व रसोइये आदि तक की दैनिक व्यवहारकी भाषा संस्कृत थी । सत्रहवीं-अठारहवीं ईसापूर्वकी शताब्दीमें भारत आते ही आर्योंने सबको संस्कृत सिखा दी, क्या उनके पास कोई जादूकी छड़ी थी, जो हिलाते ही समस्त उत्तर भारत संस्कृत बोलने लगा ?
वास्तविकता यह है, कि आर्य भारतमें बाहरसे कहीं नहीं आये, सदासे यहीं रहते हैं । द्वापर युगके अन्तकाल तक अर्थात् अबसे लगभग पाँच सहस्र वर्ष पूर्व तक यहाँकी सब जनता संस्कृत भाषाका प्रयोग करती थी। भारत युद्धके अनन्तर विशिष्ट व्यक्तियोंके न रहने और युद्धोत्तरकी आपदाओंने जनताको अवि
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द्यान्धकारमें ला पटका । लगभग डेढ़-दो सौ वर्ष बीतते-बीतते पाणिनिका प्रदुर्भाव हुआ, शब्दशास्त्रमें निष्णात होकर उसने देखा, कि सर्वसाधारण भाषामें तेजीसे परिवर्तन होनेकी आशंका है। विद्वत्समाजका संपर्क न रहनेसे प्रयोगमें विकार आनेको है। उस कालमें पाणिनिने व्याकरणकी रचना कर संस्कृत भाषाको सुसंबद्ध, व्यवस्थित व सुरक्षित बना दिया । उस समय तेजीसे भाषामें परिवर्तन हो रहा था, इसमें यह भी प्रमाण है, कि पाणिनिके तत्काल अनन्त र अन्य अनेक परिवर्तन व विकारोंकी व्यवस्थाके लिए आचार्य कात्यायनको अपने वार्तिकसन्दर्भकी रचना करनी पड़ी। तब कहीं आज तक संस्कृत भाषा उसी रूपमें सुरक्षित है। विकृत व परिवर्तित होती हुई वह भाषा अपने निरन्तर प्रवाहमें बहती आज वर्तमान प्रान्तीय भाषाओंके रूपमें आ पहुँची है।
अपने संघटनमें संस्कृत कभी द्रविड़ भाषासे प्रभावित नहीं हुई। इसकी रचना अपने रूपमें मौलिक व स्वतंत्र है। कालान्तरमें अन्य भाषाओं के शब्दोंको इसने आत्मसात् किया हो, यह साधारण बात है, इस विषयमें कुछ नहीं कहना । संस्कृतमें द्विवचनका प्रयोग अपनी मौलिक रचनाके अनुकूल है। कहींसे उपाहत व अनुकृत नहीं। इसके प्रयोगका मूल आधार क्या है इसका विवेचन इस समय लक्ष्य नहीं, पर निःसन्देह उसका आधार विचारपूर्ण, विज्ञानमूलक व दार्शनिक भित्तिपर अवलम्बित है । इस लेख द्वारा केवल इस तथ्य पर प्रकाश डालनेका यत्न किया है, कि अबसे पांच सहस्र वर्ष पूर्व भारतमें जनता द्वारा संस्कृतमें द्विवचनका प्रयोग अपना मौलिक है। मोइनजोदडोके लेख अभी अज्ञात व अपठित हैं, उनके विषयमें पूर्ण जानकारीकी बात कहना दुस्साहस व सत्यज्ञानकी विडम्बनाका ही द्योतक है । प्रयत्नका मार्ग सबके लिए खुला है।
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संस्कृतके दो ऐतिहासिक चम्पू
डॉ० बलदेव उपाध्याय संस्कृतमें ऐतिहासिक काव्योंकी गणनामें इन महत्त्वपूर्ण चम्पुओंका भी समावेश नितान्त आवश्यक है। इन दोनों चम्पुओंके रचयिता दक्षिण भारतके निवासी थे जिनमें एक तो हैं महिला और वह भी राजाकी पट्टमहिषी, और दूसरे है पुरुष और वह भी चरितनायकके सान्निध्यमें रहनेवाले विद्वान् । इनमें से प्रथमका नाम है वरदाम्बिका परिणय चम्पू और दूसरेका आनन्दरंगविजय चम्प । संक्षिप्त परिचयसे भी उनका ऐतिहासिक महत्त्व भलीभांति जाना जा सकता है।
'वरदाम्बिकापरिणय' चम्पकी रचयित्री हैं तिरुमलाम्बा, विजयनगरके शासक राजा अच्युतरायकी धर्मपत्नी। ग्रन्थके अन्तमें निर्दिष्ट परिचयमें ये अपनेको 'विविध विद्याप्रगल्भराजाधिराजाच्युतराय-सार्वभौम-प्रेमसर्वस्वविश्वासभू' कहा है जिससे इनकी राजाकी पट्टमहिषी होनेकी बात स्पष्टतः द्योतित होती है । तिरुमलाम्बाको काव्यप्रतिभा सचमुच श्लाघनीय है। एक बार ही सुनकर नव्य काव्य, नाटक, अलंकार, पुराणादिकोंकी धारणा करने में वे अपनेको जो समर्थ बतलाती है तो यह विशेष अत्युक्ति नहीं है। यज्ञ यागादिकोंमें ब्राह्मण वर्गको दान देने तथा उनसे आशीर्वादसे सौभाग्य पानेका वे स्वतः उल्लेख करती हैं। विजयनगरके कविजनोंके आश्रयदाता इतिहासविश्रुत राजा कृष्णदेव राय (ई० सन् १५०९-१५३०) के अनन्तर अच्युतराय १५२९ ईस्वीमें राजगद्दीपर बैठे तथा १५४२ ई० तक शासन किया । इन्हींकी पट्टमहिषी होनेका गौरव तिरुमलाम्बाको प्राप्त है। अच्युतराय इतिहासमें साधारण कोटिके शासक माने जाते हैं। इस तथ्यका समर्थन यह चम्पकाव्य भी करता है, क्योंकि वह उनके किसी पराक्रम-प्रदर्शक शूरकार्यके विषयमें सर्वथा मौन है।
गद्य-पद्यकी मिश्रित शैलीमें निबद्ध यह काव्य आश्वास या उच्छ्वासमें विभक्त न होकर एक ही प्रकरणवाला मनोरंजक ग्रन्थ है। इसके आरम्भमें चन्द्रवंशका थोड़ा वर्णन है और विशेष वर्णन है अच्युतरायके पज्य पिता राजा नसिंहका जिन्होंने दक्षिण भारतका दिगविजय कर अपना प्रभुत्व प्रतिष्ठित किया । इन्हींकी धर्मपत्नी ओंबाम्बाके गर्भसे तिरुपतिके आराध्यदेव भगवान् नारायणकी कृपासे अच्युतरायका जन्म हआ। राज्यपर अभिषिक्त होनेके बाद राजाने कात्यायनीदेवीके मन्दिरमें एक सुकुमारसुभगा वरदाम्बिका नाम्नी राजकन्याको देखा और उसीके साथ राजाके विवाहके वृत्तका विस्तृत वर्णन इस चम्पूमें किया गया है। इस लघुवृत्तको लेखिकाने अपनी नैसर्गिक आलोकसामान्य प्रतिभाके सहारे खूब ही पुष्ट तथा विशद किया है। वीररस (नसिंहका वर्णन) तथा श्रृंगाररसका चित्रण बड़ी सुन्दरतासे किया गया है। ऋतुवर्णनभी चमत्कारी है।
तिरुमलाम्बाका यह चम्पूकाव्य विशेष साहित्यिक महत्त्व रखता है। इसमें पद्योंकी अपेक्षा गद्यका ही प्राचुर्य है । समासभूयस्त्व (समासकी बहुलता), जिसे अलंकारके आचार्य गद्यका जीवातु मानते हैं, इसमें
१. सम्पादक डॉ० सूर्यकान्त मूल अंग्रेजी अनुवादके साथ, चौखम्भा प्रकाशन, वाराणसी, १९७० । १४२ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ
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सम्पर्णरूपसे विद्यमान है। वर्णनकी कलामें कविको लोकातीत सामर्थ्य प्राप्त है। अच्युतरायके शारीरिक सौन्दर्यका, अंग-प्रत्यंगका, जितना आलंकारिक तथा विस्तृत विवरण तिरुमलाम्बाने किया है, उतना शायद ही किसी स्त्री कविकी लेखनीसे प्रसूत हो। लम्बे-लम्बे समास, शब्दोंका विपुल विन्यास, नवीन अर्थोकी कल्पनायें समस्त विशेषता इस चम्पूको महत्त्वशाली बना रही हैं। गद्यके सौन्दर्यका परिचय तो काव्यके अध्ययनसे ही प्राप्य है। पद्योंका अलंकार चमत्कार इन उद्धरणोंकी सहायतासे सहज ही अनुमेय है।
तालाबमें स्नान करनेवाली रानीकी उपमा मेघके भीतर कौंधनेवाली बिजलीके साथ कितनी उपयुक्त है
महः सरोवारिषु केलिलोला निमज्जनोन्मज्जनमाचरन्ती । बलाहकान्तःपरिदृश्यमाना सौदामिनीवाजनि चञ्चलाक्षी ॥
(श्लोक १५१) यह मालोपमा भी अपनी सुन्दरताके लिए श्लाघनीय है
दुग्धाम्बुराशिलहरीव तुषारभानुम् अर्थं नवीनमनघा सुकवेरिवोक्तिः । प्रत्यङ्मुखस्य यमिनः प्रतिभेव बोधं प्रासूत भाग्यमहितं सुतमोम्बमाम्बा ॥
(श्लोक ६०) इस कमनीय कल्पनाका सौन्दर्य निःसन्देह प्रशंसाका पात्र है। सन्ध्याका समय है । आकाश बहुमूल्य नीलमका केसर भरा बाक्स है। सूर्य ही जिसका माणिक्यका ढक्कन है । बाल चन्द्रमाने अपनी चपलतावश उस ढक्कनको हटा दिया है जिससे केसर सायं सन्ध्याके रूप में चारों ओर छिटका हुआ बिखर गया है। सन्ध्याके स्वरूपका बोधक यह रूपक कितना सुन्दर तथा कितना नवीन निरीक्षणसे प्रसूत है
अरविन्दबन्धु-कुरुविन्द-पिधाने चपलेन बालशशिना ब्यपनीते । घुसृणं वियन्मघवनीलकरण्डात् गलितं यथा घनमदृश्यत सन्ध्या ॥
(श्लोक १५७)
दूसरा ऐतिहासिक चम्पू आनन्दरंगविजय' चम्पू ऐतिहासिक दृष्टिसे सातिशय महत्त्वशाली है। इसके प्रणेता श्रीनिवास कवि हैं जिन्होंने अपने आश्रयदाता आनन्दरंग पिल्लै के विषयमें यह महनीय चम्प लिखा है। आनन्दरंग पिल्लै (१७०९-१७६१ ई०) १८वीं शतीमें एक विशिष्ट राजनयिक, व्यापारी तथा पाण्डिचेरीके फ्रांसीसी गवर्नर प्रसिद्ध डूप्लेके भारतीय कारिन्दा थे जिन्होंने फ्रान्सके शासनको सुदृढ़ तथा विस्तृत बनाने में विशेष योग दिया था। ये साहित्यके भी उपासक थे। इनके द्वारा निर्मित तथा तमिल भाषामें निबद्ध डायरी (दैनन्दिनी) का अनुवाद मद्रास शासनकी ओरसे बारह जिल्दोंमें प्रकाशित हआ है । यह दैनन्दिनी प्रतिदिनकी घटनाओंका निर्देश करती है जो उस कालकी सामाजिक, आर्थिक तथा राजनैतिक दशा जानने के लिए नितान्त उपयोगी है। इन्हींके जीवनचरितका रमणीय वर्णन श्रीनिवास कविने किया है। ग्रन्थके अन्तमें उन्होंने अपने पिता गंगाधरकी प्रशस्ति एक पद्यमें दी है।
आनन्दरंगविजय चम्पू आठ परिच्छेदों (स्तवकों) में विभक्त है। इसकी रचनाका समय ४८५४
१ डॉ० राघवनके सम्पादकत्वमें मद्राससे प्रकाशित १९४८ । २ 'डायरी ऑफ आनन्दरंग पिल्लै के नामसे १२ जिल्दोंमें यह ग्रन्थ मद्रास शासन द्वारा प्रकाशित है
(१९०४-१९२८)।
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कलिवर्ष अर्थात् १७५२ ईस्वी है। चरितनायकके उत्कर्षकालका वर्णनपरक यह काव्य उनकी मृत्युसे नौ साल पहिले निर्मित हआ था। आरम्भके स्तवकोंमें आनन्दरंगके जन्म, यौवन तथा विवाहका वर्णन बड़े विस्तारके साथ कविने किया है। इस चम्पूके षष्ठ-सप्तम स्तवकोंमें दक्षिण भारतमें १८वीं शतीमें होनेवाले का टिक युद्धोंका वर्णन तथा आनन्दरंगका उनमें महनीय योगदानका विवरण बड़े विस्तारसे किया गया है। इस वर्णनमें अनेक नवीन ऐतिहासिक तथ्योंका उद्घाटन है जिनकी जानकारी परिचित इतिहाससे नहीं होती। अंग्रेजों तथा फ्रान्सीसियों में होनेवाले तत्कालीन इतिहासके परिज्ञानके लिए यह चम्पू अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सिद्ध होता है।
ऐतिहासिक वृत्तके वर्णनके निमित्त समुचित गद्य-पद्यका प्रयोग यहाँ बड़े विवेकके साथ किया गया है । न लम्बे-लम्बे समासोंकी भरमार है और न श्लेषादि द्वारा अप्रचलित शब्दोंका प्रयोग। भाषापर कविका अधिकार है । शैली प्रसादमयी है। नये-नये विषयोंका भी समावेश मनोरंजक ढंगसे किया गया है। आनन्दरंगने पाण्डिचेरीमें अपने लिए विशाल वैभवपूर्ण महल बनवाया था जिसके ऊपर एक बड़ी घड़ी लगा रखी थी। उस युगके लिए नितान्त अभिनव इस वस्तुका वर्णन कविके शब्दोंमें देखिये। कितना विशद तथा आकर्षक है
निर्यत्नं यत्र घण्टा ध्वनति च भवने बोधयन्ती मुहुर्तान् दैवज्ञान् हर्षयन्ती समयमविरतं ज्ञातुकामानशेषान् । प्राप्तुं श्रीरङ्गभूपात् फलमनुदिनमागच्छतां भूसुराणां तत् सिद्धि सूचयन्ती प्रकटयतितरामद्र तां रागभङ्गीम् ॥
_ (अनंगरंग चम्पू ४।२२) फ्रान्सीसी शासकके लिए कविने 'हणराज' शब्दका प्रयोग किया है । इस युगमें विधर्मी विदेशी व्यापारियों के लिए 'हण' शब्दका प्रयोग होने लगा था। वेंकटाध्वरीने भी अपने विश्वगुणादर्श चम्पमें इसी शब्दका प्रयोग अंग्रेजोंके लिए किया है । शरद्के वर्णनमें यह उपमा बड़ी सामयिक हैआसीन्निर्मलमम्बरं मन इव श्रीरंगनेतुर्महत्
तत्सम्पत्तिरिवाभिवृद्धिमगमत् क्षेत्रेषु शस्यावलिः । हंसास्तत्र तदाश्रिता इव जना हृष्टा बभूवुस्तरां । भ्रष्टश्रीरदसीयशत्रुततिवत् जाता मयूरावलिः ॥
-५।५८ इस पद्यमें ऋतुका वर्णन आनन्दरंगके प्रसंगीय वस्तुओंके साथ बड़ी सुन्दरतासे सम्पन्न है ।
युद्धवर्णनमें बड़ा जोर-शोर है और नवीन तथ्योंका आकलन भी है। निजामपुत्रके युद्धका यह दृश्य देखिये जिसमें अपनी जान बचाने में व्यग्र योद्धाओंके द्वारा परित्यक्त मूल्यवान् आभूषणोंको चाण्डाल (जनंगम) लोग बटोर रहे थे और हूण लोग (अंग्रेज लोग) रत्नकी पोटलियोंको लूट रहे थे
प्राणत्राणपरायणारिसुभटत्यक्तोरुमूल्यस्फुरद्
भूषान्वेषिजनंगमौघनिबिडक्रोड निरस्तात्मनि ।
१. द्रष्टव्य भूमिका भाग पृ० ४८-७८ जिसमें सम्पादकने समग्र घटनाचक्रका विशद वर्णन प्रस्तुत
किया है।
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स्कन्धावारमभूत् क्षणेन समरे तस्मिन्निजामात्मजे वीरे हन्त धनोघरत्नपटलीलुण्टाकहूणोत्करम् ॥ आनन्दरंग ७५०
मद्रासका तमिल नाम 'चेन्नपट्टन' या 'चेन्नपुरी' है । इस नामके रहस्यका उद्घाटन यह चम्पू करता है । मद्रास के किले के पास ही 'चेन्नकेशव'का मन्दिर था और उन्हींके नामपर यह नगर 'चेन्नकेशवपुर' कहलाता था; उसीका संक्षिप्त रूप 'चेन्नपट्टन' है। इसका निर्देश दो बार इस चम्पूमें है । फलत: इतिहास तथा साहित्य दोनों दृष्टियोंसे यह चम्प महत्त्व रखता है ।
१. ( क ) प्रध्वस्तसाध्वसः चेन्नकेशवपुरमेत्य, पु० ६७ ।
(ख) आनिनाय स पुरं नवमेतत् चेन्नकेशवपुरार्यकसार्थम्, पु० ६९ ।
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महोपाध्याय क्षमाकल्याण गणि की संस्कृत साहित्य-साधना
__ डॉ० दिवाकर शर्मा, एम० ए०, पी० एच० डी० बीकानेर मण्डलको अपनी विद्वत्ताकी सत्कीतिसे समस्त भारतमें प्रख्यात कर देनेवाले महोपाध्याय तमाकल्याण गणि अपने समयके जैन एवं जैनेतर विद्वानोंमें एक अग्रगण्य साहित्य-साधक माने जा सकते हैं । साहित्य-रचनाके साथ आप शास्त्रार्थके लिए भी सदैव कटिबद्ध रहते थे। आपकी इस शास्त्रार्थ-शक्ति और संस्कृत भाषणपर आपके इस असामान्य अधिकारका वर्णन करते हुए क्षमाकल्याणचरितकार कहते हैं कि क्षमाकल्याण सिंहके समान संस्कृतमें गर्जन करते हुए अपने प्रतिपक्षी पण्डितको इस रीतिसे परास्त कर दिया करते थे जैसे कि कोई दहाड़ता हआ शेर उद्दण्ड शुण्डवाले हाथीको तत्काल पछाड़ देता है।
निर्मर्षणः सिंह इवोन्मुखः क्षमाकल्याणकः संस्कृत-गाजतं दधत् ।
उद्दण्डशुण्डारमिवाशु पण्डितं सम्यग्विजिग्येऽस्खलितोरुयुक्तिभिः ।। आपका जन्म बीकानेर मण्डलके केसरदेसर नामक स्थानपर विक्रम संवत् १८०१को हुआ था। आप ओशवंशमें मालगोत्रके थे। जन्मसे ही वैराग्यमें रुचि होनेके कारण आपने ११ वर्षकी अल्पायमें ही पूज्येश्वर श्री अमृतधामजीसे विक्रम संवत् १८१२में पारमेश्वरी प्रव्रज्या स्वीकार कर ली थी। म० म० श्री रत्नसोमजी तथा उपाध्याय श्री रामविजयजी आपके गुरु थे। दीक्षा-प्राप्तिके पश्चात् आपने राजस्थान, गुजरात, मध्यप्रदेश, बिहार, विदर्भ एवं उत्तरप्रदेशादिका भ्रमण किया।
आपने यतिधर्म स्वीकार करते ही सरस्वतीकी आराधना प्रारम्भ कर दी थी जिसके फलस्वरूप आपने राजस्थानी, प्राकृत एवं संस्कृतकी सैकड़ों लघु एवं बृहद् साहित्यिक रचनाओंका निर्माण किया। साहित्यरचनाके अतिरिक्त आपने देवप्रतिष्ठा और उद्यापनादि अनेक धार्मिक कार्य करवाये। जीवनचरित सम्बन्धी सामग्रीसे यह भी ज्ञात होता है कि आपका बीकानेर, जैसलमेर व जोधा रके राजाओं द्वारा गया था।
गुरु परम्परा
आपके गुरुजन भी धार्मिक सिद्धान्तोंके प्रसिद्ध व्याख्याता थे। आपने अपनी कृतियोंकी अन्तिम पुष्पिकामें और ऐतिहासिक महत्त्वकी स्वरचित खरतरगच्छ पदावलीको प्रशस्तिमें गुरुपरम्पराका उल्लेख निम्न प्रकारसे किया है।
१. ग्रामाग्रिमे केसरदेसराह्वये भूखाष्टभूमोमितविक्रमाब्दके ( १८०१ )
श्री ओशवंशे किल मालगोत्रे जन्म प्रपेदे स मुनिः शुभेऽह्नि ||--क्षमाकल्याणचरितम् २. दृगभूमिवस्विन्दुमितेऽथ वत्सरे (१८१२) वैराग्यमाजन्मत एव धारयन् ।
धर्मामृतस्नानविवृद्धलालसे दीक्षां सिषेवेऽमृतधर्मसूरितः ।।--क्षमाकल्याणचरितम् ३. श्रीमंतो जिनभक्तिसूरिगुरवश्चांद्रे कुले जज्ञिरे तच्छिष्या जिनलाभसूरिमुनयः श्री ज्ञानतः सागराः ।
तच्छिष्याऽमतधर्मवाचकवरास्तेषां विनेयः क्षमाकल्याण: स्वपरोपकारविधयेऽकार्षिदिमां वृत्तिकाम् ।।
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जिनलाभसूरि
श्री जिनभक्त सूर
स्वर्गवास
आपका स्वर्गवास बीकानेर में रहते हुए संवत् १८७३ में हुआ था । गोलोकवासी होनेपर उर्दू के मरसियाकी तरह संस्कृत में एक शोकगीतकी अत्यन्त मार्मिक वेदनासे पूर्ण एवं गुरुगुणसे परिपूर्ण है । २
साहित्यसाधना
प्रीतिसागर
अमृतधाम
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उपा० क्षमाकल्याण
संस्कृत, प्राकृत एवं राजस्थानीपर आपका स्पृहणीय अधिकार था और आपने अपने जीवनकाल में सब मिलाकर छोटे मोटे १५० ग्रन्थोंकी रचना की थी जिनमें २९ रचनाएँ केवल संस्कृतकी हैं । आपके इस साहित्यकी स्वहस्तलिखित अनेक प्रतियाँ बीकानेरके प्रसिद्ध साहित्यसेवी जैन भास्कर श्री अगरचन्दजी नाहटाके अभयजैन ग्रन्थालय में सुरक्षित हैं । इनकी इन समस्त कृतियोंमें सबसे अधिक संख्या टीका ग्रन्थोंकी है । टीका विभिन्न प्रकारोंमें आपने टीका, वृत्ति, चूर्णि और फक्किका आदि टीकाके स्वरूपोंपर रचना की है । इन टीकात्मक रचनाओं में जो-जो विशेष रूपसे प्रसिद्ध हैं वे निम्नलिखित है और इनके साथ ही उनकी अन्य प्रसिद्ध रचनाओं का उल्लेख किया गया है ।
श्रीपालचरित्र टीका
आपके किसी शिष्यने आपके रचना की थी । यह शोकगीत
श्रीपालचरित्र मूलरूपमें प्राकृत भाषा में लिखा गया है। इसके रचयिता श्री रत्नशेखर सूरि हैं । इस ग्रन्थपर मुनिप्रवर क्षमाकल्याणने अवचूर्णि नामक टीका लिखी है । यद्यपि यह ग्रन्थ भावनगरसे पत्राकार रूप में मुद्रित है किन्तु उसमें प्रशस्ति छोड़ दी गयी है । केवल मुद्रित प्रतिके "उपोद्घात" में यह लिख दिया गया है कि "परमत्रावचूर्णिय मुद्रिता सा श्रीक्षमाकल्याणकैर्विहितेति प्रघोषः " किन्तु श्री अगरचन्द नाहटाके अभयजैन ग्रन्थालय में स्वयं टीकाकार द्वारा लिखित इसकी प्रति प्राप्त है । इस प्रतिके अन्त में प्रशस्ति दी गयी है । वर्षे नन्दगुहास्यसिद्धिवसुधा संख्ये शुभे चाश्विने मासे निर्मलचन्द्रके सुविजयाख्यायां दशम्यां तिथौ । पूज्यश्रीजिनहर्षसूरिगणभृत् - सद्धर्मराज्ये मुदा श्रीश्रीपालनरेन्द्रचारुचरिते व्याख्या समन्तात् कृता ॥
१. श्रीजिनभक्तिसूरीन्द्र - (सु) शिष्या बुद्धिवद्धियः । प्रीतिसागरनामानस्तच्छिष्या वाचकोत्तमाः । श्रीमन्तोऽमृतधर्माख्यास्तेषां शिष्येण धीमता । क्षमाकल्याणमुनिना शुद्धिसम्पत्तिसिद्धये ॥ - खरतरगच्छ - पट्टावली, पट्टावली संग्रह - पु० ३९ । २. सर्वशास्त्रार्थ - वक्तॄणां गुरूणां गुरुतेजसाम् । क्षमाकल्याणसाधूनां विरहो मे समागतः । तेनाहं दुःखितोऽजस्रं विचरामि महीतले । संस्मृत्य तद्गिरो गुर्वीर्धेर्यमादाय संस्थितः । बीकानेरपुरे रम्ये चतुर्वर्ण्य - विभूषिते । क्षमाकल्याणविद्वांसो ज्ञानदीप्रास्तपस्विनः । रिभू वर्षे (१८७३) पौषमासादिमे दले । चतुर्दशी दिन- प्रान्ते सुरलोकगतिं गताः ॥
- ऐ० जैन० काव्य संग्रह - पृ० ३० ।
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श्रीमन्तो जिन भक्तपूरि-गुरवश्चान्द्रे कुले जज्ञिरे तच्छिष्या जिनलाभसूरिमुनयः श्रीप्रीतितः सागरः । (-कल्याणाख्या स्वपाठकेन सुधियां चेतः प्रसत्त्य सदा)
इस टीकाकी रचना आपने अपने शिष्य श्री ज्ञानचन्द्रमनिके कहनेपर की थी और इसमें अन्वयकी खण्डान्वय पद्धतिको अपनाया गया है। यथा-कीदृशान् अर्हतः ? अष्टादशदोषैर्विमुक्तान् पुनर्विशुद्धं निर्मलं यत् ज्ञानं तत्स्वरूपमयानिति, पुनः प्रकटितानि तत्त्वानि यः ते तान इत्यादि ।
आपकी टीकाकी दूसरी विशेषता यह है कि वह संक्षिप्त होने की अपेक्षा विस्तृतरूपसे पाठके प्रत्येक पदकी साङ्गोपाङ्ग व्याख्या व दार्शनिक स्थलोंका विशदीकरण भी प्रस्तुत करती है। यथा-सतो भावः सत्ताऽस्तित्वमित्यर्थः,सा सर्वेष्वपि एकव वर्तते. च पुनर्द्विविधो नयः द्रव्यपर्यायादिस्वरूपः तथा कालत्रयं गतिचतुष्क पञ्चैव अस्तिकाया धर्माधर्माकाशपुद्गलजीवस्वरूपाः सन्ति, च पुनद्रव्याणां धर्मास्तिकायादीनां कालद्रव्ययुक्तानां षट्कमस्ति तथा नैगमाद्याः सप्तनयाः सन्ति ।
श्रीपालचरित-टीका इसमें बीच-बीच में अनेक सुन्दर कहावतोंका प्रयोग भी दर्शनीय है। "पानीयं पीत्वा किल पश्चाद् गृहं पृच्छ्यते” । "दग्धानामपरि स्फोटकदानक्रिया किं करोषि"
"पित्तं यदि शर्करया सितोपलया शाम्यति तहि पटोलया कोशितक्या क्षारवल्ल्या किम्" । जीवविचारवृत्ति
श्रीजिन आगमके चार अनुयोगोंमें द्रव्यानुयोग मुख्य अनुयोग है । यह वृत्ति द्रव्यानुयोग शाखाके मुख्य अंश जीवविचारपर लिखी गयी है। यद्यपि इस मुख्यांशपर अनेक विद्वानोंने टीकाएं एवं वृत्तियां लिखी हैं किन्तु मुनिप्रवर क्षमाकल्याण द्वारा रचित यह वृत्ति विद्वत् समाजमें सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है। इस वृत्तिका रचनाकाल भाद्रपद शुक्लपक्षकी सप्तमी संवत् १८५० है। परम्परानुसार वृत्तिकारने इस वृत्ति में भी अपने गुरुओंका आदरके साथ उल्लेख किया है। जिस श्लोक द्वारा गुरु-स्मरण किया गया है वह श्लोक श्रीपालचरितके श्लोकका ही २-३ शब्दोंके हेर-फेरसे किया हुआ एक रूपान्तर मात्र है।
जीवविचार भी मूलरूप में प्राकृत भाषाका ग्रन्थ है। इसके प्राकृत सूत्रोंको स्पष्ट रूपसे समझाने के लिए मुनिवरने इस वृत्तिमें संस्कृतका आश्रय लेकर जिस रीतिसे सूत्रोंके सार मर्मको प्रकाशित किया है वह सर्वथा हृदयहारी है। यथा__ "सिद्धा पनरस भेया, तित्थ अतित्थाई सिद्धभेएण । एए सखेवेणं जीवविप्पा समख्खाया"।
वृत्ति
सिद्धाः सर्वकर्मनिमुक्ता जीवाः, तीर्थंकरातीर्थकरादिसिद्धभेदेन पञ्चदश भेदा ज्ञेयाः । अत्र सूत्रे प्राकृतस्वात्करपदलोपः । तत्र तीर्थंकराः सतो ये सिद्धास्ते तीर्थकरसिद्धाः अतीथंकराः सामान्याः केवलिनः संतो ये सिद्धास्तेऽतीर्थकरसिद्धाः। आदिपदात्तीर्थसिद्धाः अतीर्थसिद्धादिपंचदश भेदा नवतत्त्वादिभ्यो ज्ञातव्याः। इत्थं संक्षेपेण एते जीवानां विकल्पाः भेदाः समाख्याताः कथिताः ।
-जीवविचारवृत्ति
१. संवद् व्योमशिलीमुखाष्ट वसुधा (१८५०) संख्ये नभस्ये सिते पक्षे पावन-सप्तमी सुदिवसे बीकादिनेराभिधे ।
श्रीमति पूर्णतामभजत व्याख्या सुबोधिन्यसो सम्यक् श्रीगुणचन्द्रसूरिमुनिये गच्छेशतां बिभ्रति ।। १४८ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ
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तकंसंग्रह फक्किका
तर्कसंग्रह फक्किकाकी रचना मुनि क्षमाकल्याणने संवत् १८२८में की थी। यह फक्किका श्री अन्नभद्र के तर्कसंग्रहकी स्वोपज्ञदीपिकाटीकाकी एक सरल टीका है। तर्कसंग्रहकी दीपिकाके प्रतिपादनपर अपनी कोई स्वतन्त्र समालोचना न लिखकर दीपिकाके भावार्थको इस फक्किकामें जिस रीतिसे स्पष्ट किया गया है वह फक्किकाकारको समझानेकी शैलीकी विशेषता है। मुनि क्षमाकल्याण दीपिकाकारके लक्षणों और स्वरचित लक्षणोंका पदकृत्य काव्यको खण्डान्वय पद्धतिका अनुसरण करते हुए कहते हैं। यथा-किं नाम उद्देशत्वम् ? "नाममात्रेण पदार्थसंकीर्तनम् उद्देशत्वं" ताल्वोष्ठव्यापारणोच्चारणं संकीर्तनम् । इहवंशे पाठ्यमानदलद्वयविभागजन्यचटचटाशब्दे अतिव्याप्तिवारणाय नामपदम्, बंध्यापुत्रे अतिव्याप्तिवारणाय पदार्थपदम्, लक्षणवाक्ये अतिव्याप्तिवारणाय मात्रपदम् ।
साध्यव्यापकत्वे सति साधनाव्यापकत्वाद् आर्द्वन्धनसंयोग उपाधिः । उपाधिके इस लक्षणपर दीपिकाकारने "उपाधिश्चतुर्विधः-केवल साध्यव्यापकः, पक्षधर्मावच्छिन्नसाध्यव्यापकः" आदिके द्वारा उपाधिका वर्गीकरण अवश्य किया है परन्तु लक्षणके प्रत्येक पदको समझानेका इसमें कोई प्रयत्न नहीं किया गया । मुनिप्रवर क्षमाकल्याणकी फक्किका इसके लिए विशेष सहायक होती है। यथा-साध्यति-साध्यो धमः, तत्समानाधिकरणो योऽत्यत्रभाव आर्दैन्धनसंयोगाभावस्तु नायाति, तहि घटपटाद्यत्यन्ताभावः तस्य प्रतियोगित्वं वर्तते घटादौ, अप्रतियोगित्वम् वर्तते आर्द्वन्धनसंयोगे ।
__इस उदाहरणसे यह सष्ट है कि मुनि क्षमाकल्याण पदपदार्थके रहस्यको पूर्णरूपेण समझा देनेकी अपूर्व क्षमता रखते हैं। गौतमीय काव्यम् टीका
'गोतमीय काव्यम्" क्षमाकल्याणजीके गुरु पाठक श्रीकूपचन्द्र गणि द्वारा विरचित एक महाकाव्य है । इसपर गौतमीयप्रकाश नामकी यह विशद व्याख्या श्री क्षमाकल्याणने १८५२में लिखी थी।
आपके द्वारा लिखित समस्त टीकाओं, वृत्तियों एवं व्याख्याओंमें यह टीका सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है। इसमें मल लेखकके गम्भीर एवं गूढ़ विचारोंको अत्यन्त सरल एवं मनोरम रूपमें स्पष्ट करनेका पूर्ण प्रयास किया गया है। इसमें जैनसिद्धान्तोंकी स्थापनाके लिए बौद्ध, वेदान्त और न्यायादि५ दर्शनोंका युक्तियुक्त
१. तद्विनेयेन क्षमादिकल्याणेन मनीषिणा । तर्कसंग्रहसूत्रस्य संवृतेः फक्किका इमाः।
यथाश्रुता गुरुमुखात् तथा सङ्कलिताः स्वयम् । वसुनेत्रे सिद्धिचन्द्रप्रमिते हायने मुदा ।।-तर्कसंग्रह फक्किका २. (अ) बाहुज्ञानवसुक्षमा (१८५२) प्रमितिजे वर्षे नभस्युज्ज्वले ।
एकादश्यां विलसत्तिथौ कुमुदिनीनाथान्वितायामिह । (आ) तच्छिष्यो वरधर्मवासितमतिः प्राज्ञः क्षमापूर्वक: कल्याणः कृतवानिमां कृति जन: स्वान्तप्रमोदाप्तये ।
बुद्धेर्मन्दतया प्रमादवशतो वा किंचिदुक्तं मयाऽत्राशुद्धं परिशोधयन्तु सुधियो मिथ्याऽस्तु मे दुष्कृतम् ॥ तथा तेषां शून्यवादिना बौद्धकदेशिनां शून्यता एव परं प्रधानं तत्त्वं विद्यते, तेषां वाचो गिरोऽर्थशन्यत्वादभिधेयहीनत्वात्कदापि कस्मिन्नपि काले न प्रतीताः स्युर्न प्रतीतियुक्ता भवन्ति । अयमर्थः ये खलु सर्वशून्यामेवास्तीति वदन्ति तेषां वाचोऽपि सर्ववस्त्वन्तर्गतत्वात् शून्या एव, ततश्चार्थशून्ये तद्वचने को विद्वान्प्रतीतिं कुर्वीतेति ॥ सर्ग ७१७३ । वेदान्तिनां मतं वेदान्तिमतं तदाश्रित्य यद्यपि ब्राह्मण आत्मन ऐक्यमेकत्वं स्थितम्, तथापि हे गौतम लिङ्गस्य चिह्नस्य भेदेन आत्मनो जीवनस्य भेदं नानात्वमवधारय जानीहि । वेदान्ति-मतं तावदिदम् “एकएव हि
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पूर्ण खण्डन जिस रीतिसे किया गया है उससे व्याख्याकारकी समर्थ विद्वत्ता, प्रौढ़ अनुभवशीलता तथा अनुपम विवेचनशक्तिका ज्ञान होता है । यशोधरचरित्रम्
मुनि क्षमाकल्याण द्वारा रचित इस चरित्र का रचनाकाल संवत् १८३९ है। इसमें एक पाप करनेसे किन-किन योनियोंमें भटकते हए उस पापका प्रायश्चित्त करना होता है इसका साङ्गोपाङ्ग वर्णन एक माता द्वारा बलात् अपने पुत्रको एक मुर्गेका मांस भक्षण करा देनेसे उनके भिन्न-भिन्न १० जन्मोंका वर्णन किया गया है। वे मयूर-श्वान, नकूल-भुजङ्ग, मत्स्य-ग्राह, अज-मेष, मेष-महिष, मुर्गा-मुर्गी आदि योनियोंमें उत्पन्न होते रहे और अपने-अपने पूर्व जन्मानुसार उनका फल भोगते रहे ।
इस चरित्रकी वर्णन-शैली और इसकी भाषापर बाण एवं दण्डीका प्रभाव स्पष्ट रूपसे परिलक्षित होता है। नीचे लिखे उपदेशमें कादम्बरीके शुकनाशोपदेशकी झलक स्पष्ट है। यथा-तात! दारपरिग्रहो नाम निरौषधो व्याधिः, आयतनं मोहस्य, सभा व्याक्षेपस्य, प्रतिपक्षः शान्तः, भवनं मदस्य, वैरी शुद्धध्यानानाम्, प्रभवो दुःखसमुदायस्य, निधनं सुखानाम् आवासो महापापस्य ।
बाण की इस अनुकृतिके साथ निम्नलिखित गद्यांशमें दशकुमारचरितकी गद्यशैली भी पूर्ण सफलताके साथ अपनायी गयी है । यथा
___ अथ एवंविधे तत्राऽतीव भयङ्करे व्यतिकरे बहुभिस्तपोधनः परिवृतः परमसंवतः सदासुदृष्टियुगमात्रभूमिस्थापितदृष्टिमहोपयोगी।' होलिका व्याख्यानम्
धार्मिक पर्वो पर व्रत-उपवासादिके महत्त्वको बतानेवाले प्रवचनों और कथाओंको जनविद्वान् व्याख्यान कहते हैं । मौन एकादशी, दीपावली, होलिका, ज्ञानपञ्चमी, अक्षयतृतीया और मेरु त्रयोदशी आदि पोंपर
भूतात्मा भूते भूते व्यवस्थितः । एकधा बहुधा चैव दृश्यते जलचन्द्रवत् यथा विशुद्धमाकाशं तिमिरोपप्लुतो जनः संकीर्णमिव मात्राभिभिन्नाभिरभिमन्यते । तथेदममलं ब्रह्म निर्विकल्पमविद्यया कलुषत्वमिवापन्न भेदरूपं प्रकाशते । सर्ग ७।७४ । यदि केवलं चक्षुरिन्द्रियग्राह्यमेव प्रत्यक्षं स्यात् तदा गन्धादि-विषये गन्धरस-स्पर्शादिविषये निरुपाधिकमुपाधिवजितं प्रत्यक्षं ज्ञानं किमुच्यते कथं प्रोच्यते ? तस्मात्प्रागुक्तमेव तल्लक्षणं ज्ञेयम् । चाक्षुषमिति चक्षुषा गृह्यते इत्यर्थे विशेषे इत्यण् । निरित्यादि । निर्गत उपाधिर्यस्मात् स्वसमीपवर्तिनि स्ववृत्तिधर्म
सङ्क्रामकत्वमुपाधित्वमिति तल्लक्षणम् । ७५० । १. (अ) वर्षे नन्दकृशानु-सिद्धि-वसुधासङ्ख्ये (१८३९) नभस्य सिते पक्षे पावनपञ्चमी सुदिवसे ।। (आ) सूरिश्रीजिनभक्ति-भक्तिनिरताः श्रीप्रीतितः सागराः
तत् शिष्यामृतधर्मवाचकवराः सन्ति स्वधर्मादराः । तत्पादाम्बुजरेणुराप्तवचनः स्मर्ता विपश्चित् क्षमा
कल्याणः कृतवान् मुदे सुमनसामेतच्चरित्रं स्फुटम् ।।-यशोधरचरित्रम्-अन्तिम प्रशस्ति । २. यशोधरचरित्रम्-पृष्ठ ४९ । ३. यशोधरचरित्रम्-पृष्ठ ३३ । १५० : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ
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इनका आयोजन विशेषरूपसे होता है। विक्रम संवत् १८३५ में रचित 'होलिका व्याख्यानम्' क्षमाकल्याण मुनिका सबसे पहला व्याख्यान है।' इसका पठन-पाठन होलिका पर्वपर किया जाता है ।
इत्थं वृथैव संभूतं होलिकापर्व विज्ञाय सुधीभिः शुभार्थ कर्त्तव्यं किन्तु तस्मिन् दिने प्रतिक्रमण-व्रतजिनपूजादिधर्मकार्य विधेयम्, यो हि होलिकाज्वालायां गुलालस्यैकां मुष्टि प्रक्षिपति तस्य दश उपवासाः प्रायश्चित्तम्, एककलशप्रमाण-जलप्रक्षेपणे शतमुपवासानां प्रायश्चित्तम्, एकपूगीफलप्रक्षेपे पञ्चाशत् वाराः होलिकायां काष्ठप्रक्षेपे सहस्रशो भस्मीभवनं भवति ।२ मेरुत्रयोदशीव्याख्यानम्
मेरुत्रयोदशीव्याख्यानम्की रचना महोपाध्याय क्षमाकल्याण द्वारा संवत् १८६० में बीकानेर प्रवासके समय की गयी थी। इसमें मेरु त्रयोदशीके व्रतसे पङ्ग त्व दूर होने की कथा कही गयी है। गांगिल । मुनिके उपदेशसे राजकुमारने यह व्रत किया था और अन्तमें स्वस्थ होकर उसने मलय देशको राज कुमारीसे विवाह कर लिया।
इस कथानकको अत्यन्त सीधे शब्दोंमें जैन श्रावकोंको समझाया गया है। कथामें व्यावहारिक शैलीके अनुरूप शब्दोंका चयन किया गया है। वाक्य छोटे-छोटे होते हुए भी अत्यन्त सरस हैं । यथाधर्मस्य मूलं दया, पापस्य मूलं हिंसा, यो हिंसां करोति, अन्यः कारयति, अपरोऽनुमन्यते एते त्रयोऽपि सदृश . पापभाजः पुनर्यो हिंसां कुर्वन् मनसि त्रासं न प्राप्नोति, यस्य हृदये दया नास्ति, यो जीवो निर्दयः सन् बहून् एकेन्द्रियान् विनाशयति स परभवे वातपित्तादिरोगभाग् भवति । चैत्यवन्दन-चतुर्विंशतिका"
चैत्यवन्दन चतविंशतिकामें महोपाध्याय क्षमाकल्याणने २४ तीर्थ करोंकी स्तति अलग-अलग छन्दों में की है। प्रत्येक चैत्यकी स्तुति ३ श्लोकों द्वारा की गयी है परन्तु मल्लिजिन चैत्यके वन्दनामें ५ श्लोक होनेसे इसकी सम्पूर्ण श्लोक संख्या ७४ है। भाषा-सौष्ठव और भावोंकी सुन्दर अभिव्यक्तिके कारण जैन स्तोत्र साहित्यमें इस स्तोत्रको सिद्धसेन दिवाकरके कल्याण मन्दिर और मेरुतुङ्गके भक्तामर आदि स्तोत्रोंकी श्रेणी में रखा जाता है।
१. (क) श्रीमन्तो गुणशालिनः समभवन, प्रीत्यादिमाः सागगस्तच्छिष्यामृतवाचकवराः सन्ति स्वधर्मादराः । तत्पादाम्बुजरेणुराप्तवचनस्मर्ता विपश्चित् क्षमाकल्याणः कृतवानिदं सुविशदं व्याख्यानमाख्यानभूद् ॥
-होलिका व्याख्यानम्-अन्तिम प्रशस्ति । (ख) संवदवाणकृशानुसिद्धिवसुवा १८३५ संख्ये नभस्येऽसिते पक्षे पावन-पंचमी सुदिवसे पाटोधिसंज्ञे पुरे ॥
-होलिका ब्याख्यानम-अन्तिम प्रशस्ति । २. होलिकाव्याख्यानम्-द्वादश कथा संग्रह-पृष्ठ २८ ।। ३. संवद् व्योमरसाष्टेन्दु (१८६०) मिते फाल्गुन मासके । असितैकादशीतिथ्यां बीकानेराख्यसत्पुरे । व्याख्यानं प्राक्तनं वीक्ष्य निबद्धं लोकभाषायां । अलेखि संस्कृतीकृत्य क्षमाकल्याणपाठकैः ।।
-मेरु त्रयोदशी व्याख्यानम्-प्रशस्ति ४. मेरु त्रयोदशी व्याख्यानम्-पृष्ठ ४ । ५. इत्थं चतुर्विंशति संख्ययैव प्रसिद्धिभाजां वरतीर्थभाजाम् ।
श्रीजैन वाक्यानुसृतप्रबंधा वृतैरहीना प्रणुतिर्नवीना । गणाधिपश्रीजिनलाभसूरिप्रभुप्रसादेन विनिर्मितेयम् । जिनप्रणीतामृतधर्मसेविक्षमादिकल्याणबुधेन मृतघमसावक्षमादिकल्याणबुधन शद्धय॥
-चैत्यवन्दन-चतुविशतिका-प्रशस्ति इतिहास और पुरातत्त्व : १५१
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इस स्तोत्रकी प्रशस्ति अथवा इसके उपसंहारमें रचनाकालका उल्लेख नहीं है। श्लोकोंकी रचनासे यदि अनुमान करें तो वे सब एक समान काव्यशक्तिसे सम्पन्न दिखाई नहीं देते। कुछमें केवल शब्दानुप्रास है और कुछ उच्चकोटिकी प्रौढि और भावभक्तिसे पूर्ण दिखाई देते हैं। इससे ज्ञात होता है कि क्षमाकल्याणने इसकी रचना एक समय न करके विभिन्न समयोंमें की है।
इस स्तोत्रमें शार्दूलविक्रीडित, मालिनी, स्रग्धरा, द्रुतविलम्बित, उपेन्द्रवज्रा, भुजङ्गप्रयात, त्रोटक, वंशस्थ, वसन्ततिलका, हरिणी, रथोद्धता, मन्दाक्रान्ता, कामक्रीडा, गीतपद्धति, पंचचामर, उपजाति और पृथ्वी छन्दोंका प्रयोग किया गया है । छन्दोंकी इस तालिकासे स्पष्ट है कि क्षमाकल्याणका प्रत्येक छन्दपर अधिकार था और कुछ छन्द तो ऐसे हैं जिनका अन्य स्तोत्रोंमें दर्शन भी नहीं होता। रचना सौन्दर्य एवं भक्ति-उद्रेक
स्तुतियोंमें क्षमाकल्याण जिन विशेषणोंका प्रयोग करते हैं वे विशेषण शरीरकी आकृतिसे सम्बन्ध न रखकर अपने इष्टदेवोंके उन गुणोंका स्मरण करते हैं जो उनके जीवनकी विशेषताके द्योतक है । संभवेश प्रशमरसमय है तो वीरप्रभु अपने ज्ञानप्रकाशसे विवेकिजनवल्लभ है।
विवेकिजनवल्लभं भुवि दुरात्मनां दुरन्तदुरितव्यथाभरनिवारणे तत्परम् । तवाङ्गपदपद्मयोर्युगमनिन्द्य वीरप्रभो प्रभूतसुखसिद्धये मम चिराय सम्पद्यताम् ।।
यद्भक्त्यासक्तचित्ताः प्रचुरतरभवभ्रान्तिमुक्ताः संजोताः साधुभावोल्लसितनिजगुणान्वेषिणः सद्य एव। स श्रीमान् संभवेशः प्रशमरसमयो विश्वविश्वोपकर्ता
सद्भर्ता दिव्यदीप्ति परमपदकृतेसेव्यतां भव्यलोकाः ।। जहाँ संभवेशकी स्तुतिमें क्षमाकल्याण भावोंसे ओतप्रोत दिखाई देते हैं वहाँ धर्मनाथ चैत्यकी वन्दनामें एक ही प्रकारके प्रत्ययान्त शब्दोंके प्रयोग और अनुप्रासकी छटामें ही आप अपनी विशेषता दिखाते प्रतीत होते हैं।
निःशेषार्थप्रादुष्कर्ता सिद्धर्भर्ता संहर्ता दुर्भावानां दूरेहर्ता दीनोद्धर्ता संस्मर्ता ।
सद्भक्तेभ्यो मुक्तेर्दाता विश्वत्राता निर्माता। ___ आपके कुछ श्लोक ऐसे भी हैं जो मधुर और कोमलकान्त पदावलीके कारण विशेष रूपसे आकर्षक माने जा सकते हैं।
विशदशारद-सोमसमाननः कमलकोमल-चारुविलोचनः ।
शुचिगुणः सूतरामभिनन्दनः जयतु निर्मलताञ्चितभधनः ।। स्तोत्रके इन कतिपय उदाहरणोंसे इस स्तोत्रको रचनशैली और इसके भावोंकी भूमिकाका सामान्य ज्ञान पाठक प्राप्त कर सकते हैं।
उपसंहारमें यही कहा जा सकता है कि इन समस्त ग्रन्थोंके अनुशीलनसे ज्ञात होता है कि महोपाध्याय क्षमाकल्याणका संस्कृत भाषापर पूर्ण अधिकार था। आपकी संस्कृत भाषा प्रत्येक विषयके प्रतिपादनमें सर्वथा प्रवाहशील रहती थी। होलिकाव्याख्यानममें यदि यह भाषा कुछ स्थलोंमें समस्त हो गयी है तो अक्षयतृतीया व्याख्यानममें यह विशेष रूपसे अभिव्यञ्जक बन गयी है। यशोधर चरित्रके उपदेशमें आपने कादम्बरीके शुकनासोपदेशका अनुसरण और अनुकरण भी परम सुन्दर रीतिसे किया है ।
कथाओंके अतिरिक्त आपने जैन चरितों, काव्यों तथा दार्शनिक ग्रन्थोंपर जिन टीकाओं एवं वृत्तियोंको लिखा है, उन सबका विवेचन भी उत्तमकोटिको टीकाशैली एवं वृत्तिशैलीके अनुकूल ही है । काव्योंमें आपकी गौतमीय काव्यकी टीका पाण्डित्यकी दृष्टिसे सर्वोत्तम है। इस काव्यमें बौद्धों, वेदान्तियों, नैयायिकों आदि समस्त दार्शनिकोंकी आलोचना सुन्दर रूप की गयी है। १५२ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ
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प्राकृतके कुछ शब्दोंकी व्युत्पत्ति
डॉ. वसन्त गजानन राहरकर, एम० ए०, पी-एच० डी०, बम्बई विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित तृतीय 'प्राकृत सेमिनार में मैंने यह शोध निबन्ध प्रस्तुत किया था। इसमें मैंने प्राकृतके शब्दचतुष्टयकी व्युत्पत्ति देनेका प्रयास किया है। इन चार शब्दोंका उल्लेख 'पाइयसहमहण्णव' में 'देशी शब्द'के रूपमें किया गया है। 'धर्मोपदेसमालाविवरण', जो जयसिंहसूरिके 'धर्मोपदेसमाला' नामक ग्रन्थपर भाष्यरूप है, अनेक आख्यानोंका संग्रह है। इन आख्यानोंमें 'गामेल्लयअक्खाणयं' नामका जो आख्यान है, उसमें ‘स अंबाडिऊण सिक्खविओ' इस वाक्यका बार-बार प्रयोग हुआ है । यहाँ 'अंबाडिऊण' शब्दकी व्युत्पत्ति क्या है, यह विचारणीय है। इस शब्दके अन्तमें जो ऊण प्रत्यय है, उससे ज्ञात होता है कि यह 'अंबाड' धातुका पूर्वकालवाचक धातुसाधित अव्यय है । 'पाइयसहमहण्णब' में 'अंबाड'का पर्यायी धातु 'खरण्ट' दिया है। यहाँपर 'निशीथचूर्णि' से एक उद्धरण भी दिया गया है-'चमढेति खरंटेति अंबाडेति उत्तं भवति ।' अर्थात चमढ, खरंट और अंबाड इस धात्त्रयका समान ही अर्थ है। खरण्टका अर्थ. अतएव, डाँटना-फटकारना, दोषी ठहराना (to reprovc, to censure) होता है। दूसरी धातु 'अंबाड'का 'तिरस् + कृ' (विद्वेष करना, शब्दोंसे मनको विद्ध करना) अर्थ दिया है।
यहाँ समस्या यह है कि 'अंबाड'की व्युत्पत्ति क्या है ? यह देशी शब्द है या नहीं, इसपर मेरा मत है कि संस्कृत शब्द 'आम्रातक'से प्राकृत नाम धातु 'अंबाड्य' बन सकता है। 'आम्रातक'का अर्थ है'The fruit of the hogplum, Spondias Mongiferra', (मराठी भाषामें इसे 'अंबाडा' कहते हैं।। इस फलका रस आम्रफल रसके समान दिखाई देता है (देखिये-आम्रम् अतति इति आम्रातकम्) ।
जब इस फलका रस निकालना होता है, तो फलको जोरसे दबाना होता है और बीजको अन्दरसे छेदकर रस निकाला जाता है। अतः इस प्रतीकके उपयोगसे 'अंबाड' धातुका अर्थ 'शब्दोंके जोरसे मनका मर्दन करना' अथवा 'मनको विद्ध करना' ऐसा हो गया होगा।
मराठी भाषामें 'ओवालणे' एक धातु है जिसका अर्थ अभिनन्दन करते समय या शुभेच्छा व्यक्त करते समय 'दीपसे चेहरेके समीप नीराजना करना होता है । इस मराठी धातुकी व्युत्पत्ति क्या होगी, इस समस्यापर जब मैंने विचार किया तो प्राकृतका 'ओमालिय' (शोभित, पजित) शब्द ध्यानमें आया। किन्तु यहाँ अर्थमें बहुत अन्तर है। संस्कृतमें मङ्खक कविका 'श्रीकण्ठचरित' नामक महाकाव्य है। इसके प्रथम सर्गके तीसरे श्लोकमें शिवके तृतीय नेत्रकी अग्निका वर्णन है। इस वर्णनमें 'उन्मालक' शब्दका प्रयोग किया गया है। यदि कोई व्यक्ति किसी अच्छी घटना या वस्तुको देखकर सन्तुष्ट हो जाता है तो किसी वस्तुकी नीराजना कर पारितोषिक दान करता है। इस पारितोषिक दानको यहाँ 'उन्मालक' कहा है। 'उन्मालक'का प्राकृत रूपान्तर क्रमशः इस प्रकार हुआ होगा-उन्मालक>उन्मालय>ओमालय>ओवाळ ।
मराठी भाषामें 'हातचा मल' नामका एक शब्द प्रयोग है। जो कार्य करने में सुकर मालूम पड़ता है
भालस्थलीरङ्गतले मुडस्य हुताशनस्ताण्डवकृत् स वोऽव्यात् । यस्मिन् रतिप्राणसमः शरीरमन्मालकायैव निजं मुमोच ॥
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इतिहास और पुरातत्त्व : १५३
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उसे हिन्दी, गुजराती तथा मराठीमें 'हाथका मैल' कहते हैं। इस शब्दकी व्युत्पत्ति संस्कृत भाषामें ढूँढ़नी पड़ेगी। आपाततः इस शब्द प्रयोगसे जैसा दिखाई पड़ता है, वैसा मल (dirt) का यहां कोई सम्बन्ध नहीं। संस्कृत शब्द 'हस्तामलक से ही उपर्युक्त शब्दका प्रत्यक्ष सम्बन्ध है, ऐसा निस्सन्देह कहा जा सकता है। 'हस्तामलक' शब्दका अर्थ है-'हाथपर रखा हुआ आँवलेका फल ।' हाथपर रखे हुए आमलक फलका सर्वांगीण दर्शन एवं ज्ञान बड़ी सरलतासे होता है। अतः यह प्रतीक संस्कृत भाषासे प्राकृत भाषामें और वहाँसे प्रादेशिक भाषाओं में संक्रान्त हुआ। संक्रान्त होते समय एक 'आ'का लोप स्वाभाविकतया हो जाता है। उदाहरणके लिए 'कादम्बरी'में जाबालिके वर्णन–'हस्तामलकवत् निखिलं जगत् अवलोकयताम्'की तुलना 'वसुदेवहिण्डी' तथा 'कुमारपालचरिय' में प्रयुक्त वाक्यांश 'मुख्खोवाओ आमलगो विअ करतले देसिओ भगवया से की जा सकती है। 'ज्ञानेश्वरी' की प्राचीन मराठीमें हम 'जैसा की हातिचा आमळे' प्रयोग मिलता है। यही मराठीमें 'हातचा मळ' हो गया।
'जोहार' शब्द 'प्रवचन-सारोद्धार' तथा 'धर्मोपदेसमालाविवरण में झुककर नमस्कार करनेके अर्थमें आता है । यथा-'वच्छ ! ता पढमं दूराओ दळूण माणणिज्ज महया सद्देन जोहारो कीरइ ।' मराठीमें भी 'जोहार' शब्दका प्रयोग इसी अर्थमें होता है । यथा-'जोहार मायबाप जोहार ।' 'पाइयसद्दमहण्णवो' तथा अनेक मराठी-शब्दकोशोंमें इस शब्दको 'देशी' माना गया है तथा मराठी-शब्दकोश इस शब्दको फारसी शब्द 'जोहार से जोड़ते हैं।
मेरा ऐसा विचार है कि यह शब्द न तो देशी है और न फारसीका ही। किन्तु व्युत्पत्तिकी दृष्टिसे संस्कृत शब्द योद्ध (योद्धा)से अधिक समीप है। प्रजा द्वारा राजाओंका संबोधन 'हे वीर (हे योद्धा) ऐसा होता था और उनको नमन किया जाता था। संस्कृत शब्द 'योद्ध'को प्राकृत शब्द 'जोहार'में सरलतापूर्वक बदला जा सकता है-योद्ध>जोहा>जोहार-तथा नमस्कार करनेसे इसको जोड़ा जा सकता है।
१. प्रस्तुत निबन्धके हिन्दी रूपान्तर करने में मेरे शिष्य डॉ० उमेशचन्द्र शर्माकी मुझे सहायता मिली। अतः
मैं उनका कृतज्ञ हूँ।
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अपभ्रंश कथा-काव्योंकी भारतीय संस्कृतिको देन
डॉ० कस्तूरचन्द कासलीवाल
प्राकृत भाषाके समान अपभ्रंश भाषाको भी सैकड़ों वर्षों तक भारतकी लोकभाषा अथवा जनभाषा होने का सौभाग्य मिला । भारतीय साहित्यमें इसकी लोकप्रियताके सैकड़ों उदाहरण उपलब्ध होते हैं । ईस्त्री ६ठी शताब्दी पूर्व ही अपभ्रंशका खूब प्रचलन हो गया था। संस्कृत और प्राकृत के साथ अपभ्रंशका भी पुराणों व्याकरणों तथा शिलालेखों में उल्लेख होने लगा था । वैय्याकरणोंने प्राकृत व्याकरणोंमें प्राकृतके साथ अपभ्रंशपर भी खूब विचार किया । प्रारम्भमें यह प्रादेशिक बोलियोंके रूपमें आगे बढ़ी । आठवीं शताब्दी तक यह जनभाषा के साथ-साथ काव्य भाषा भी बन गयी और बड़े-बड़े कवियोंका इस भाषा में काव्य- निर्माण करनेकी ओर ध्यान जाने लगा । यद्यपि अपभ्रंश भाषा में अभी तक स्वयम्भूके पूर्वकी कोई रचना उपलब्ध नहीं हो सकी है। लेकिन स्वयं स्वयंभूने अपने पूर्ववर्ती एवं समकालीन जिन कवियों का उल्लेख किया है उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि इस भाषा में ८ वीं शताब्दी के पूर्व ही काव्यरचना होने लगी थी और यही नहीं उसे साहित्यिक क्षेत्र में समादर भी मिलने लगा था ।
८वीं शताब्दीके पश्चात् तो अपभ्रंश भाषाको काव्यरचनाके क्षेत्रमें खूब प्रोत्साहन मिला । देशके शासक वर्ग, व्यापारी वर्ग एवं स्वाध्याय प्रेमी जनताने अपभ्रंशके कवियोंसे काव्य निर्माण करनेका विशेष आग्रह किया । इससे कवियोंको आश्रयके अतिरिक्त अत्यधिक सम्मान भी मिलने लगा और इससे इस भाषा में काव्य, चरित, कथा पुराण एवं अध्यात्म साहित्य खूब लिखा गया और इसी कारण उत्तरसे दक्षिण तक तथा पूर्वसे पश्चिम तककी भारतीय संस्कृतिको एकरूपता देने में अत्यधिक सहायता मिली । लेकिन ६० वर्ष पूर्व तक अधिकांश विद्वानोंका यही अनुमान रहा कि इस भाषाका साहित्य विलुप्त हो चुका है । सर्वप्रथम सन् १८८७ में जब रिचर्ड पिशेलने सिद्धहेमशब्दानुशासनका प्रकाशन कराया तो विद्वानोंका अपभ्रंश भाषाकी रचनाओंकी ओर ध्यान जाना प्रारम्भ हुआ । हर्मन जैकोबीको सर्वप्रथम जब भविसयत्तकहाकी एक पाण्डुलिपि उपलब्ध हुई तो इस भाषाकी रचनाओं के अस्तित्वको चर्चा होने लगी और जब उन्होंने सन् १९९८ में इसका जर्मन भाषामें प्रथम प्रकाशन कराया तो पाश्चात्य एवं भारतीय विद्वानोंकी इस भाषा के साहित्यको खोजने की ओर रुचि जाग्रत हुई और सन् १९२३में गुणे एवं दलालने 'भविसयत्त कहा' का ही सम्पादन करके उसके प्रकाशनका श्रेय प्राप्त किया । इसके पश्चात् तो देशके अनेक विद्वानोंका ध्यान इस भाषाकी कृतियोंकी ओर जाने लगा और कुछ ही वर्षों में राजस्थान, मध्यप्रदेश, गुजरात और देहलीके ग्रन्थालयों में एकके बाद दूसरी रचनाकी उपलब्धि होने लगी । और आज तो इसका विशाल साहित्य सामने आ चुका है । लेकिन अपभ्रंशकी अधिकांश कृतियां अभी तक अप्रकाशित हैं । ८वीं शताब्दीसे लेकर १५ वीं शताब्दी तक इस भाषा में अबाध गतिसे रचनाएँ लिखी गयीं । किन्तु संवत् १७०० तक इसमें साहित्य निर्माण होता रहा। अब तक उपलब्ध साहित्य में यदि महाकवि स्वयम्भूको प्रथम कवि होनेका सौभाग्य प्राप्त है तो पंडित भगवतीदासको अन्तिम कवि होने का श्रेय भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है । मृगांकलेखाचरित इनकी अन्तिम कृति है जिसका निर्माण देहली में हुआ था ।
उपलब्ध अपभ्रंश साहित्य मुख्यतः चरित एवं कथामूलक है । पुराण साहित्यकी भी इसमें लोकप्रियता
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रही और महाकवि पुष्पदन्तने महापुराण लिखकर विद्वानोंका ध्यान आकृष्ट किया। वैसे प्राकृत साहित्यकी सभी मुख्य प्रवृत्तियां इस साहित्यको प्राप्त हुई हैं। इसलिए एक लम्बे समय तक अपभ्रंश कृतियाँ भी प्राकृत कृतियाँ समझ ली गयीं। प्राकृत भाषाका जिस प्रकार कथा साहित्य विशाल एवं समृद्ध है तथा लोक रुचिकारी है उसी प्रकार अपभ्रंशका कथा साहित्य भी अत्यधिक समृद्ध है। उसमें लोकरुचिके सभी तत्त्व विद्यमान हैं। यह साहित्य प्रेमाख्यानक, व्रतमाहात्म्यमूलक, उपदेशात्मक एवं चरितमूलक है। विलासवईकहा, भविसयत्तकहा, जिणयत्तकहा, सिरिवालचरित, धम्मपरिक्खा, पुण्णासवकहा, सत्तवसणकहा, सिद्ध
। आदिके रूपोंसे इसका कथा साहित्य अत्यधिक समद्ध ही नहीं है किन्तु उसमें भारतीय संस्कृतिकी प्रमुख विधाओंका अच्छा दर्शन होता है। उसके साहित्यकी कितनी ही विधाओंको सुरक्षित रखा है और उनका पूर्णतया प्रतिपालन भी किया गया है। इन कथाकृतियोंसे सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियोंके खूब दर्शन होते हैं । इनमें वैभवके साथ-साथ देशमें व्याप्त निर्धनता एवं पराधीनताके भी दर्शन होते हैं। कथाओंके विवरणके अतिरिक्त काव्यात्मक वर्णन, प्रकृति चित्रण, रसात्मक व्यञ्जना एवं मनोवैज्ञानिकताकी उपलब्धि इन कथा काव्योंकी प्रमुख विशेषता है। लोक पक्षका सबल जीवन-दर्शन भी इन कथा-काव्योंमें खूब मिलता है । सामाजिक स्थिति
ये कथा-काव्य तत्कालीन समाजकी सजीव मति उपस्थित करते हैं। इनमें सामाजिक स्थिति, विबाह, सयुक्त परिवार, वर्ण, जाति, भोजन, आभूषण, धार्मिक आचरण आदिके सम्बन्धमें रोचक बातोंका वर्णन मिलता है। ये कथा-काव्य इस दृष्टिसे भारतीय संस्कृतिके मूल पोषक रहे हैं । और सारे देशको एकात्मकतामें बांधने में समर्थ रहे हैं। यहाँ अब मैं आपके समक्ष लोकतत्त्वों के बारे में विस्तृत प्रकाश डाल रहा हूँ।
देशमें कितनी ही जातियाँ और उपजातियाँ थीं। जिणदत्त चौपाईमें रल्ह कविने २४ प्रकारकी नकार एवं २४ प्रकारकी मकार नामावलि जातियोंके नाम गिनाये हैं। ये सभी उस समय बसन्तपुरमें रहती थीं। कुछ ऐसी जातियाँ भी थीं जो अशान्ति, कलह, चोरी आदि कार्योंमें विशेष रुचि लेती थीं। समाजमें जुआ खेलनेका काफी प्रचार था। नगरोंमें जुआरी होते थे तथा वेश्याएँ होती थीं। कभी-कभी भद्र व्यक्ति भी अपनी सन्तानको गार्हस्थ जीवन में उतारने के पहिले ऐसे स्थानोंपर भेजा करते थे। जुआ खेलनेको समाजविरोधी नहीं समझा जाता था । जिणदत्त एक ही बारमें ११ करोडका दाव हार गया था।
खेलत भई जिणदत्तहि हारि, जूवारिन्हु जीति पच्चारि ।
भणइ रल्हु हम नाहीं खोहि, हारिउ दव्वु एगारह कोडि ॥ इन कथा-काव्योंके पढ़नेसे ज्ञात होता है कि उस युगमें भी वैवाहिक रीति-रिवाज आजकी ही भांति समाजमें प्रचलित थे। विवाहके लिए मण्डप गाड़े जाते थे। रंगावली पूरी जाती थी। मंगल कलश और बन्दनवार सजाये जाते थे। मंगल वाद्योंके साथ भाँवरें पड़ती थीं और लोगोंको भोज दिया जाता था। बारात खूब सज-धजके साथ जाती थी। भविसयत्तकहामें धनवइ सेठके विवाहका जो वर्णन किया गया है उसमें लोकजीवनका यथार्थ चित्र मिलता है। विवाहमें दहेज देनेकी प्रथा थी लेकिन कभी-कभी वरपक्षवाले दहेजको अस्वीकार भी कर दिया करते थे। भविसयत्तकहामें सवर्ण मणि और रत्नोंका लोभ छोड़कर धनदत्तकी सुन्दर पुत्रीको ही सबसे अच्छा उपहार समझा जाता था लेकिन जिनदत्तको चारों विवाहोंमें इतना अधिक दहेज मिला था कि उससे सम्हाले भी नहीं सम्हलाता था। कोटि भट श्रीपालको भी मैना सुन्दरीके साथ विवाहके अतिरिक्त अन्य विवाहोंमें खूब धन-दौलत प्राप्त हुआ था। कभी-कभी राजा अपनी पुत्रीके विवाहमें वरको अपना आधा राज्य भी दिया करते थे।
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समाजमें बहु-विवाहकी प्रथाको मान्यता प्राप्त थी। जिसके जितनी अधिक पत्नियां होती थीं उसको उतना ही ऐश्वर्यशाली एवं भाग्यवान समझा जाता था। भविष्यदत्तके पिता दो विवाह करते हैं । जिनदत्तने चार विवाह किये । श्रीपालने भी चारसे अधिक विवाह किये थे। पदुम्न जहाँ-जहाँ भी जाते हैं उन्हें उपहारमें वधू मिलती है। इसी तरह जीवन्धरके जीवनमें भी विवाहोंकी भीड़ लग जाती है। विलासवईकहाके नायक विलासवती इन्द्रावती एवं पहुपावतीके साथ विबाह करते हैं।
पुत्रजन्मपर आजके ही समान पहिले भी खूब खुशियां मनायी जाती थीं। गरीबों, अनाथों और अपाहिजोंको उस अवसरपर खूब दान दिया जाता था। जिनदत्तके जन्मोत्सवपर उसके पिताने दो करोड़का दान दिया था।
देहि तंबोलत फोफल पाण, दीने चीर पटोले पान ।
पूत बधावा नाहीं खोरि, दीने सेठि दान कुइ कोडि ।। ज्योतिषियोंकी समाजमें काफी प्रतिष्ठा थी । भविष्यवाणियोंपर खुब विश्वास किया जाता था । राजा राजा भी कभी-कभी इन्हीं भयिष्यवाणियों के आधारपर अपनी कन्याओंका विवाह करते थे। जिनदत्तका श्रृंगारमतीके साथ, श्रीपालका गुणमाला एवं मदनमंजरीके साथ विवाहका आधार ये ही भविष्यवाणियाँ थीं। इसी तरह सहस्रकूट चैत्यालयके किवाड़ खोलने, समुद्र पार करने एवं तैरते हुए विद्याधरोंके देशमें पहुँचनेपर भी विवाह सम्पन्न हो जाते थे। श्रीपालने एक स्थानपर नैमित्तिककी भी भविष्यवाणीपर अपना पूरा विश्वास व्यक्त किया है।
णिमित्तउ जे कहइ णरेसरु, मो किस सव्वु होइ परमेसरु । शृंगार एवं आभूषणोंमें स्त्रियोंकी स्वाभाविक रुचि थी। सिरिपालकहामें गुण सुन्दरी अपनेको सोनेके आभूषणोंसे सजाती है। सोनेका हार वक्षस्थलपर धारण करती है। जिणदत्तकी प्रथम पत्नी बिमलमतीकी कंचुकी ही ९ करोड़में बिकी थी वह कंचुकी मोती, माणिक एवं हीरोंसे जड़ी हुई थी।
माणिक रतन पदारथ जड़ी, विचि विच हीरा सोने घड़ी।
ठए पासि मुत्ताहल जोड़ि, लइ हइ मोलि सु णम धन कोड़ि । धार्मिक जीवन
सभी स्त्री-पुरुष धार्मिक जीवन व्यतीत करते थे। भगवान्की अष्टमंगल द्रव्यसे पूजा की जाती थी। श्रीपालका कृष्ट रोग तीर्थकरकी प्रतिमाके अभिषेकके जलसे दूर हुआ था। गुणमालाके विवाहके पूर्व वह सहस्रकूट चैत्यालयके दर्शन करने गया था। जिनदत्त विमान द्वारा अकृत्रिम चैत्यालयोंकी एवं कैलासपर स्थित जिनेन्द्रदेवकी वन्दना करने गया था। जिनदत्तका पिता भी प्रतिदिन भगवान्की वन्दना-पूजा करता था। श्रीपाल, जीवन्धर, भविष्यदत्त, जिनदत्त, आदि सभी नायक जीवनके अन्तिम वर्षो में साधु-जीवन ग्रहण करते हैं और अन्तमें तपस्या करके मक्ति अथवा स्वर्ग-लाभ लेते हैं। भविसयत्तकहाका मूल आधार श्रुतपंचमीके माहात्म्यको बतलाना है। इसी तरह श्रीपालकी जीवन-कथा अष्टाह्निका व्रतका आधार है। पुण्णासवकहा एवं सत्तवसणकहाका प्रमुख उद्देश्य पाठकोंके जीवनमें धर्मके प्रति अथवा सत् कार्योंके प्रति रागभाव उत्पन्न करना है। सात व्यसनोंसे दूर रखने के लिए सत्तवसणकहाकी रचना की गयी। इन कथा-काव्योंके आधार
मयके राजनैतिक जीवनकी कोई अच्छी तस्वीर हमारे सामने उपस्थित नहीं होती है। देशमें छोटेछोटे शासक ये और वे एक-दूसरेसे लड़ा करते थे। जिनदत्तचरितमें ऐसे कितने हीका उल्लेख आता है। जिनदत्त जब अतुल सम्पत्तिके साथ अपने नगरमें वापस लौटता है तो वहाँका राजा उसे अपने आधा
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राजयका स्वामी बना देता है। इन कथा-काव्योंमें युद्धका अत्यन्त विस्तारसे वर्णन हुआ है। युद्धके तत्कालीन अस्त्र-शस्त्रोंके बारेमें भी इन कथा-काव्योंसे अच्छी जानकारी मिलती है । नगरमें किले होते थे, युद्धकी मोर्चाबन्दी उसमें की जाती थी।
जिणदत्तचौपईमें धनुष, तलवार, ढीकलु, गोफणी, आदि शस्त्रोंका नाम उल्लेख किया गया है। प्रत्येक शासकके पास चतुरंगी सेन होती थी। युद्धके विशेष बाजे होते थे तथा ढोल, भेरी, निशान बजनेसे सैनिकोंमें युद्धोन्माद बढ़ता रहता था। श्रीपालका अपने चर्चाके साथ होनेवाले युद्धका कविने बहुत ही सुन्दर वर्णन किया है। राजा हाथीपर बैठकर युद्धके लिए प्रस्थान करता था वह अपने चारों ओर अंगरक्षकोंसे घिरा रहता था।
जनतामें राजाका विशेष आतंक रहता था, कोई भी उसकी आज्ञाका उलंघन करनेकी सामर्थ्य नहीं रखता था। व्यापारियोंसे छोटे-छोटे राजा भी खूब भेंट लिया करते थे। भविष्यदत्तने तिलकद्वीप पहुँचकर वहाँके राजाको खुब उपहार दिये थे। इन राजाओंमें छोटी-छोटी बातोंको लेकर जब कभी युद्ध छिड़ जाता था। इनमें कन्या, उपहार आदिके कारण प्रमुख रहे है । आर्थिक स्थिति
इन कथा-काव्योंमें समूचे देश में व्यापारकी एक-सी स्थिति मिलती है। देशका व्यापार पूर्णतः वणिक वर्गके हाथमें रहता था । वणिक-पुत्र टोलियोंमें अपने नगरसे बाहर व्यापारके लिए जाते थे । समुद्री मार्गसे वे जहाजमें बैठकर छोटे-छोटे द्वीपोंमें व्यापारके लिए जाते थे और वहाँसे अतुल सम्पत्ति लेकर लौटते थे। जिणदत्त सागरदत्तके साथ जब व्यापारके लिए विदेश गया था तो उसके साथ कितने ही वणिक-पुत्र थे। उनके साथ विविध प्रकारकी विक्रीकी वस्तुएँ थीं जो विदेशोंमें मंहगी थीं और देशमें सस्ती थीं। बैलोंपर सामान लादकर वे विदेशोंमें जाते थे। द्वीपोंमें जानेके लिए वे जहाजोंका सहारा लिया करते थे। छोटे-छोटे जहाजोंका समूह होता था और उनका एक सरदार अथवा नायक होता था, सभी व्यापारी उसके अधीन रहते थे। श्रीपालकहामें धवल सेठको अतुल सम्पत्तिका वर्णन किया गया है । भविष्यदत्त, जिणदत्त और जीवन्धर आदि सभी क्षेष्ठिपुत्र थे जो व्यापारके लिए बाहर गये थे और वहाँसे अतुल सम्पत्ति लेकर लौटे थे । इन कथा-काव्योंमें जनताको आर्थिक स्थिति अच्छी थी ऐसा आभास होता है लेकिन फिर भी सम्पत्तिका एकाधिकार व्यापारी वर्ग तक ही सीमित था।
उस समय सिंघल द्वीप व्यापारके लिए प्रमुख आकर्षणका केन्द्र था। जिणदत्त व्यापारके लिए सिंघल द्वीप गया था वहाँ जवाहरातका खूब व्यापार होता था। लेन-देन वस्तुओंमें अधिक होता था, सिक्कोंका चलन कम था। उन दिनों द्वीपोंमें व्यापारी खुब मुनाफा कमाते थे। सिंघल द्वीपके अतिरिक्त भविसयत्तकहामें मदनागद्वीप, तिलकद्वीप, कंचनद्वीप आदिका वर्णन भी मिलता है।
इन कथा काव्योंमें ग्राम एवं नगरोंका वर्णन भी बहुत हुआ है। भविसयत्तकहामें गजपुर नगरमें पथिक जन पेड़ोंकी छायामें घूमते हैं । हास-परिहास करते हुए गन्नेका रसपान करते हैं। जिणदत्तचौपईमें जो बसन्तपुरनगरका वर्णन किया गया है उसके अनुसार वहाँके सभी निवासी प्रेमसे रहते थे । कोली, माली, पटवा एवं सपेरा भी दया पालते थे । ब्राह्मण एवं क्षत्रिय समाज भी चरमके संयोगसे वृत्त रहते थे । नगरके बाहर उद्यान होते थे। सागरदत्त सेठके उद्यानमें विविध पौधे थे। नारियल एवं आमके वृक्ष थे । नारंगी, छुहारा, दाख, पिंड, खजूर, सुपारी, जायफल, इलायची, लौंग आदि-आदि फलोंके पेड़ थे। पुष्पोंमें मरूआ, मालती, चम्पा, रायचम्पा, मुचकुन्द, मौलसिरी, जयापुष्प, पाउल, गुडहल आदिके नाम उल्लेखनीय हैं।
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प्रेमाख्यानक तत्त्व
अपभ्रंश भाषाके इन कथा - काव्यों में प्रेमाख्यानक तत्त्वका अच्छी तरह पल्लवन हुआ है । हिन्दी भाषामें जिन प्रेमाख्यानक काव्योंकी सर्जना हुई उसमें अपभ्रंशके कथा काव्यका अत्यधिक प्रभाव | विलासवईकहा, भविसयत्तकहा, जिणदत्त चौपई, श्रीपालकहा आदि सभी में प्रेमाख्यानक काव्य भरा पड़ा है । भविसयत्त कहा एवं श्री पालकहा में विवाह होनेके पश्चात् नवदम्पत्ति में प्रेमका संचार होता है । भविष्यदत्त वास्तविक प्रेमके कारण ही भविष्यानुरूपाको चतुरतासे प्राप्त करता है और सुमित्राको युद्ध के पश्चात् प्राप्त करता है । जिणदत्त पुतली के रूपमें चित्रित विमलमतीके रूप-सौन्दर्यको देखकर आसक्त हो जाता है, वह अपने आपको भूल जाता है और रूपातीत उस सुन्दरीको पानेके लिए अधीर हो उठता है । इसी प्रसंग में इस कथा - काव्य में विमलमतीके सौन्दर्यका जो वर्णन हुआ है वह प्रेमाख्यानक काव्योंका ही रूप है ।
चंपावण्णी सोहइ देह, गल कंदहल तिणि जसु देह । पीणत्थणि जोव्वण मयसाय उर पोटी कडियल वित्थार ||
धीरे-धीरे प्रेमकी अग्नि में दोनों ही प्रेमीऔर दोनोंका उद्यानमें साक्षात्कार हो
विमलमतीको प्राप्त करनेके पश्चात् भी जिणदत्त उसके प्रेममें डूबा हुआ रहा और अपनी विदेश यात्रा से लौटनेके पश्चात् विरहाग्निमें डूबी हुई अपनी दो पत्नियोंके साथ विमलमतीको पाकर प्रसन्नता से भर गया । विलासवती कथा तो आदिसे अन्त तक प्रेमाख्यानक काव्य है। इस कथा काव्यमें वर्णित प्रेम विवाहके पूर्वका प्रेम है । राजमार्गपर जाते हुए राजकुमार सनतकुमारके रूपको देखकर विलासवती उसपर मुग्ध हो जाती है और राजमहलकी खिड़की से ही फूलोंकी माला अपने प्रेमी के गलेमें डाल देती है । सनतकुमार भी विलासवती के रूपलावण्यको देखकर उसपर आसक्त हो जाता है। प्रेमिका जलने लगते हैं और एक-दूसरे को पाने की लालसा करते हैं जाता है लेकिन प्रेम प्रणयको तबतक आत्मसात् नहीं करते जबतक कि विवाह बन्धनमें नहीं बँध जाते । इसके लिए उन्हें काफी वियोग सहना पड़ता है । प्रेमी के वियोगसे विकल होकर विलासवती मध्य रात्रिको सती होनेके लिए श्मशान की ओर प्रस्थान कर देती है । लेकिन मार्ग में वह डाकुओं द्वारा लूट ली जाती है । और एक समुद्री व्यापारी द्वारा खरीद ली जाती है । जहाजके टूट जानेसे वह एक आश्रम में पहुँच जाती है संयोगसे नायक सनतकुमार भी अपनी प्रेमिका के वियोगसे सन्तप्त उसी आश्रम में पहुँच जाता है और विलासवीके बिना अपने जीवनको व्यर्थ समझने लगता है । अन्तमें आश्रम में ही वैवाहिक बन्धन में बंध जाते हैं । इसके पश्चात् भी एक-दूसरेका वियोग होनेपर मृत्युको आलिंगन करने को तैयार होना नायक-नायिकाके आदर्श प्रेमको प्रकट करता । इस प्रकार इन कथा - काव्योंमें जिस प्रेम कथानकका चित्रण हुआ है उसका प्रभाव हमें हिन्दी के कुछ प्रेमाख्यानक काव्योंके वर्णनमें मिलता है |
लेकिन इन सबके अतिरिक्त पुण्णासवकहा, धम्मपरिक्खा, सत्तवसणकहा जैसी कथाकृतियोंमें भारतीय जनजीवनमें सदाचार, नैतिकता, सत्कार्यों में आस्थाका रूप भरनेका जो प्रयास किया है वह भारतीय संस्कृतिके पूर्णत: अनुरूप है । यह कथाएँ जनजीवनके स्तरको ऊँचा उठानेवाली हैं तथा गत सैकड़ों वर्षोंसे श्रद्धालु पाठकों को अच्छे पथपर चलने की प्रेरणा देती हैं । इस प्रकार इन कथा काव्योंने भारतीय संस्कृति के एकरूपात्मक स्वरूपको स्थायी रखने में तथा उपका विकास करने में जो योगदान दिया है वह सर्वथा स्तुत्य है ।
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अपभ्रंशका एक अचर्चित चरितकाव्य
डॉ० देवेन्द्रकुमार शास्त्री अपभ्रंशके चरितकाव्योंकी सुदीर्घ परम्परा मिलती है, जिसका विकास प्राकृतके विकसनशील पौराणिक काव्योंसे हुआ जान पड़ता है। इन चरितकाव्योंमें महापुरुषके जीवन-विकासका वर्णन निबद्ध मिलता है। नियोजित घटनाओंमें क्रमबद्धता और पौराणिक परम्पराका यथेष्ट सन्निवेश है। इसलिए लगभग सभी चरितकाव्योंका शिल्प समान है। आकारकी दृष्टिसे ही नहीं साहित्यिक दृष्टिसे भी आलोच्य रचना महान् है । सम्पूर्ण काव्य १३ सन्धियोंमें निबद्ध है। और इसके रचनाकार है-महिन्दू । उनकी इस कृतिका नाम हैसांतिणाहचरिउ ।
अपभ्रशके इस अचचित चरितकाव्यका सर्वप्रथम परिचय पं० परमानन्दजी शास्त्रीने जैन ग्रन्थ प्रशस्ति संग्रहमें निम्नलिखित शब्दोंमें दिया था
८७वीं प्रशस्ति सांतिणाहचरिउकी है, जिसके कर्ता कवि महिन्दु या महाचन्द्र है। प्रस्तुत ग्रन्थमें १३ परिच्छेद हैं जिनकी आनुमानिक श्लोक संख्या पाँच हजारके लगभग है, जिनमें जैनियोंके सोलहवें तीर्थकर शान्तिनाथ चक्रवर्तीका चरित्र दिया हुआ है।
अभी तक यह चरितकाव्य हस्तलिखित रूपमें एक अप्रकाशित रचना है। इसकी एकमात्र प्रति श्री दि० जैन सरस्वती भण्डार, धर्मपुरा, दिल्ली में उपलब्ध है । यह हस्तलिखित १५३ पत्रोंकी रचना है। इसका अन्तरंग परिचय इस प्रकार है
सर्वप्रथम जिन-नमस्कारसे काव्य प्रारम्भ होता है । नमस्कारमें चौबीसों तीर्थंकरोंको बन्दन किया गया है । तदनन्तर सरस्वतीकी वन्दना की गयी है। आत्म-विनय प्रकाशनके साथ ही कवि अपनी रचनाके सम्बन्धमें प्रकाश डालता हआ कहता है कि मैंने कवि पुष्पदन्तके महापुराणके अन्तर्गत श्री शान्तिनाथ तीर्थकरका यह चरित सुनकर रचना की है।
कइ पुप्फयंत सिरि मह पुराणु, तहु मज्झि णिसिउमइ गुणणिहाणु । चरियउ सिरि संतिहु तित्थणाहु ।,
अह णिविडु रइउ गुणगण अथाहु । यही नहीं, कवि आत्म-विनय प्रकट करता हुआ कहता है कि काब्यके रूपमें जो कुछ कह रहा हूँ वह तुच्छ बुद्धिसे । वास्तवमें खलजनके समान यह अज्ञानका विस्तार है। उसके ही शब्दोंमें
बोलिज्जइ कव्वंकिय मएण, महु तुच्छबुद्धि खलयण अएण ।
तथा
गंभीरबुद्धि दुल्लहु ण होइ, सो तुच्छ बुद्धि सुलहउ ण जोइ ।
बुहयणहु जि एहु सहाउ हुंति, सव्वह हिययत्तणु चितवंति । १. पं. परमानन्द जैन शास्त्री : जैन-ग्रन्थ प्रशस्ति-संग्रह, दिल्ली, १९६३, पृ० १२३
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अनन्तर सज्जन-दुर्जन वर्णन है। दुर्जन-वर्णनमें कविकी उक्ति है कि जिस प्रकार पित्तका रोगी सदा सभी वस्तुओंमें कड़वेपनका स्वाद लेता है इसी प्रकार दुर्जन भी मधुर काव्यरचनाको रसहीन समझते हैं । दोष देखना ही उनका स्वभाव है । दूसरेके दोष देखने में वे पिशुनस्वभावके होते हैं ।
कविने पूर्ववर्ती अनेक कवियों का उल्लेख किया है। उन कवियों के नाम हैं-अकलंक स्वामी, पूज्यपाद, इन्द्रनन्दी, श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती, चतुर्मुख, स्वयम्भू, पुष्पदन्त, मुनि यशःकीर्ति, पंडित रइधू, गुणभद्रसूरि, और सहणपाल ।
अकलंक सामि सिरि पायपूय, इंदाइ महाकइ अट्ट हृय । सिरि णेमिचंद सिद्धतियाई, सिद्ध तसार मुणि णविवि ताई। चउमुहु सुयंभु सिरि पुप्फयंतु, सरसइ णिवासु गुणगण महंतु । जकित्ति मुणीसरु जसणिहाणु, पंडिय रइधू कइ गुण अमाणु ।
गुणभद्दसूरि गुणभद्द ठाणु, सिरि सहणपालु बहु बुद्धि जाणु । पर्वकवियोंके कीर्तनके उपरान्त कवि अपनी अज्ञानताको स्पष्ट प्रकट करता हआ कहता है कि मैंने : नहीं देखा, मैं कर्ता, कर्म और क्रिया नहीं जानता । मुझे जाति (छंद), धातु और सन्धि तथा लिंग एवं अलंकारका ज्ञान भी नहीं है। कवि के शब्दोंमें
णउ दिट्ठा णउ सेविय सुसेय, भई सद्दसत्थ जाणिय ण भेय । णो कत्ता कंमु ण किरिय जुत्ति, णउ जाइ धाउ णवि संधि उत्ति । लिंगालंकारु ण पय समत्ति, णो वुज्झिय मइ इक्कवि विहत्ति । जो अमरकोसु सो मुत्तिठाणु, णाणिउ मइ अण्णु ण णाम माणु । णिग्घंटु वियाणिउ वणि गइंदु, सुछंदि ण ढोइउ मणु मइंदु ।
पिंगल सुवण्णु तं वइ रहिउ, णाणिउ मइ अण्णु ण कोवि गहिउ । इसलिये ज्ञानी जन इस काव्य-व्यापारको देखकर कोप न करें ?
यहाँपर सहज ही प्रश्न उठता है कि जब तुम अज्ञानी हो और इस काव्य-व्यापारको जानते-समझते नहीं हो तब काव्य-रचना क्यों कर रहे हो ? रचनाकारका उत्तर है
जइ दिणयरु णहि उज्जोउ करइ, ता किं खुज्जोअउ णउ फुरइ । जइ कोइल रसइ सुमहुरवाणि, किं टिट्टिर हइ तुण्हंतु ठाणि । जइ वियसइ सुरहिय चंपराउ, किं णउ फूलइ किंसुय बराउ । जइ पडहु विवज्जइ गहिरणाउ, ता इयरु म वज्जउ तुच्छ भाउ । जइ सरवरि गमइ सहंस लील, कि णउ धरि पंगणि बह सवील । मण मित्त मुयहि तुहु कायरत्त, करि जिणहु भत्ति हय दुव्वरित्तु ।
बहु विणउ पयासिवि सज्जणाह, किं ण्हाण णु करि खलयणगणाह ।। अर्थात् यदि दिनकर (सूर्य) प्रकाश न करे तो क्या खद्योत (जुगनू) स्फुरण न करे ? यदि कोयल सुमधुर वाणी में आलाप भरती है तो क्या टिटहरी मौन रहे ? यदि चम्पक पुष्प अपनी सुरभि चारों ओर प्रसारित करता है तो क्या बेचारा टेसका फल नहीं फले ? यदि नगाड़े गम्भीर नाद करते हैं तो क्या अन्य वाद्य वादित न हों? यदि सरोवरमें हंस लीला करते हैं तो क्या घरके आँगनमें अनेक सवील (अबाबील ?) पक्षी क्रीडाएँ न करें ? इत्यादि ।
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कविने अपने परिचयके सम्बन्धमें कुछ भी नहीं लिखा। केवल सन्धिके अन्तके उल्लेखसे यह पता चलता है कि वे इल्लिराजके पुत्र थे। इसी प्रकारसे अन्तिम प्रशस्तिसे स्पष्ट रूपसे ज्ञात होता है कि वे दिल्लीके आसपासके किसी गाँवके रहने वाले थे। उन्होंने इस काव्यकी रचना योगिनीपुर (दिल्ली) के श्रावक विद्वान् साधारण की प्रेरणासे की थी। उन दिनों दिल्लीके सिंहासनपर शाहनशाह बाबरका शासन था। ग्रंथका रचना काल विक्रम संवत १५८७ है। इस काव्य रचनाका ग्रंथ प्रमाण लगभग ५००० कहा गया है। पांच सहस्र श्लोक प्रमाणसे रचना अधिक ही हो सकतीहै, कम नहीं है। क्योंकि तेरह सन्धियोंकी रचना अपने कायमें कम नहीं है।
काव्यमें निबद्ध तेरह सन्धियोंमें वर्णित संक्षिप्त विषय-वस्तु इस प्रकार है
(१) प्रथम सन्धिमें मगध देशके सुप्रसिद्ध शासक राजा श्रेणिक और उनकी रानी चेलनाका वर्णन है। राजा श्रेणिक अपने युगके सूविदित तीर्थंकर भगवान महावीरके समवसरण (धर्म-सभा) में धर्म-कथा सुनने के लिए जाते हैं। वे भगवानकी वन्दनाकर गौतम गणधरसे प्रश्न पूछते हैं। १२ कडवकोंमें समाहित प्रथम सन्धिमें इतना ही वर्णन है।
(२) दूसरी सन्धिमें विजयार्थ पर्वतका वर्णन, श्री अर्ककीर्तिकी मृक्ति-साधनाका वर्णन तथा श्री विजयांकका उपसर्ग-निवारण-वर्णन है । इस सन्धिमें कुल २१ कडवक हैं ।
(३) तीसरी सन्धिमें भगवान् शान्तिनाथकी भवावलिका २३ कडवकोंमें वर्णन किया गया हैं ।
(४) चतुर्थ सन्धि २६ कडवकोंमें निबद्ध है। इसमें भगवान् शान्तिनाथके भवान्तरके बलभद्रके जन्मका वर्णन किया गया है। वर्णन बहुत सुन्दर है।
(५) पांचवी सन्धिमें १६ कडवक हैं । इसमें वज्रायुध चक्रवर्तीका वर्णन विस्तारसे हुआ है।
(६) छठी सन्धि २५ कडवकों की है । श्री मेघरथकी सोलह भावनाओंकी आराधना और सर्वार्थसिद्धिगमनका वर्णन मुख्य रूपसे किया गया है।
(७) सातवीं सन्धिमें भी २५ कडवक हैं। इसमें मुख्यत: भगवान् शान्तिनाथके जन्माभिषेकका वर्णन है।
(८) आठवीं सन्धि २६ कडवकोंकी है। इसमें भगवान् शान्तिनाथके कैवल्य प्राप्तिसे लेकर समवसरण-विभूति-विस्तार तकका वर्णन है।
(९) २७ कडवकोंकी इस सन्धिमें भगवान् शान्तिनाथकी दिव्य-ध्वनि एवं प्रवचन-वर्णन है।
(१०) दसवीं सन्धिमें केवल २० कडवक हैं। इसमें तिरेसठ महापुरुषोंके चरित्र का अत्यन्त संक्षिप्त वर्णन है।
(११) ३४ कडवकोंकी यह सन्धि भौगोलिक आयामोंके वर्णनसे भरित है, जिसमें केवल इस क्षेत्रका ही नहीं सामान्य रूपसे तीनों लोकोंका वर्णन है।
१. आयह गंथपमाणु वि लक्खिउ, ते पाल सयइं गणि कइय ण अक्खिउ ।
विण्हेण वि ऊघा पुत्तएण, भूदेवेण वि गुणमणजुएण । लिहियाउ चित्तेण वि सावहाणु, इहु गंथु विवुह सर जाय भाणु ।। विक्कमरायहु ववगय कालइ, रिसिवसु सर भूय वि अंकालइ । कत्तिय पढम पक्खि पंचमि दिणि, हुउ परिपुण्ण वि उग्गंतइ इणि ॥
-अन्त्य प्रशस्ति
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(१२) १८ कडवकोंकी इस सन्धिमें भगवान् शान्तिनाथके द्वारा वणित चरित्र अथवा सदाचारका वर्णन किया गया है।
(१३) अन्तिम तेरहवीं सन्धिमें भगवान् शान्तिनाथका निर्वाण-गमनका वर्णन १७ कडवकोंमें निबद्ध है।
इस प्रकार इस काव्यका वर्ण्य-विषय पौराणिक है, जो लगभग सभी पौराणिकतासे भरित रचनाओंमें एक साँचेमें रचा गया है। इसमें कथा-वस्तु उसी प्रकारसे सम्पादित है। उसमें कोई विशेष अन्तर परिलक्षित नहीं होता।
कथा-वस्तुकी दृष्टिसे भले ही काव्यमें कोई नवीनता लक्षित न हो, किन्तु काव्य-कला और शिल्पकी दृष्टिसे यह रचना वास्तवमें महत्त्वपूर्ण है। आलोच्यमान रचना अपभ्रंशके चरितकाव्योंकी कोटि की है। चरितकाव्य के सभी लक्षण इस कृतिमें परिलक्षित होते हैं। चरितकाव्य कथाकाव्यसे भिन्न है। अतएव पुराणकी विकसनशील प्रवत्ति पर्णतः इस काव्यमें लक्षित होती है। प्रत्येक सन्धिके आरम्भमें साधारणके नामसे अंकित संस्कृत श्लोक भी विविध छन्दोंमें लिखित मिलता है । जैसे कि नवीं सन्धिके आरम्भमें
सुललितपदयुक्ता सर्वदोषैविमुक्ता, जडमतिभिरगम्या मुक्तिमार्गे सुरम्या।
जितमदनमदानां चारुवाणी जिनानां, परचरितमयानां पातु साधारणानाम् । इसी प्रकार ग्यारहवीं सन्धिके आरम्भमें उल्लिखित है
कनकमयगिरीन्द्रे चारुसिंहासनस्थः प्रमदितसूरवन्दै स्नापितो यः पयोभिः ।
स दिशतु जिननाथः सर्वदा सर्वकामानुपचितशुभराशेः साधु साधारणस्य ॥१०॥ जिस समय शान्तिनाथके मानसमें वैराग्य भावना हिलोरें लेने लगती हैं और वे घर-द्वार छोड़नेका विचार करते हैं तभी स्वर्गसे लोकान्तिक देव आते हैं और उन्हें सम्बोधते हैं ।
चितइ जिणवरु णिय मणि जामवि, लोयंती सुर आगइ तामवि ।
जय जयकारु करंति णविय सिर, चंगउ भाविउ तिहुयण णेसर । कि भगवन् ! आप तीर्थका प्रवर्तन करनेवाले हैं और भविकजनोंके मोह-अन्धकारको दूर करनेवाले हैं।
अपभ्रंश के अन्य प्रबन्धकाव्योंकी भांति इस रचनामें भी चलते हए कथानकके मध्य प्रसंगतः गीतों की संयोजना भी हुई है । ये गीत कई दृष्टियोंसे महत्त्वपूर्ण हैं । उदाहरणके लिए
अइ महसत्ती वर पण्णत्ती, मारुयगामिणि कामवि रूविणि । हुयवह थंभणि णीरुणिसुंभणि, अंधीकरणी आयहु हरणी। सयलपवेसिणि अविआवेसिणि, अप्पडिगामिणि विविहविभासिणि। पासवि छेयणि गहणीरोयणि, वलणिद्धाडणि मंडणि ताडणि । मुक्करवाली भीमकराली, अविरल पहयरि विज्जुल चलयरि । देवि पहावइ अरिणिट्ठावइ, लहुवर मंगी भूमि विभंगी।
कथाकाव्य और चरितकाव्यमें अन्तर जानने के लिए लेखकका शोधप्रबन्ध द्रष्टव्य है-'भविसयत्तकहा तथा अपभ्रंश कथा-काव्य', १० ७६-७९ । तित्थपवत्तणु करहि भडारा, भवियहं फेडहि मोहंधारा । गय लोयंतिय एम कहेविणु, ता जिणवरिण भरह घर देविण । सन्धि ९, कडवक १६ ।
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एक अन्य प्रकारके गीतका निदर्शन है
सरोवरं पफुट कंजरेण पिंजरं, समीयरं सगज्ज उभडं सुसायरं। वरं सुआसणं मयारि रूव भीसयं, सरं मयंस दित्तयं सुदेव गेहयं । अहिंद मंदिरं सुलोयणित्त सुंदरं, पकंत्ति जुत्तयं सुरण्ण संचयं वरं ।
ण तित्ति इंधणं हुयासणं पलित्तयं, अधूमजाल देवमग्गुणं गिलंतयं । एक अन्य रागका गीत पठनीय है
हुल्लरु सुरवइ मण रंजिएण, हुल्लरु उवसग्ग विहंजिएण । हुल्लरु मुणिमण संतोसिएण, हुल्लरु भवियण गण पोसिएण ।
हुल्लरु तिल्लोयहु विहिय सेव, हुल्लरु ईहिय दय विगय लेव । ८,२ इस प्रकारके अन्य गीतोंसे भी भरित यह काव्य साहित्यका पूर्ण आनन्द प्रदान करता है। एक तो अपभ्रंश भाषामें और विशेषकर इस भाषामें रचे गये गीतोंमें बलाघातात्मक प्रवृत्ति लक्षित होती है । आज तक किसी भी भाषाशास्त्री तथा अपभ्रंशके विद्वानका ध्यान इस ओर नहीं गया है। किन्तु अपभ्रंशके लगभग सभी काव्योंमें सामान्यरूपसे यह प्रवृत्ति लक्षित होती है। उदाहरण के लिए
इक्के वुल्लाविउ मुक्खगामि, इक्के विहसाविउ भुवणसामि ।
इक्के गलिहारु विलंवियउ, इक्के मुहेण मुहु चुंवियउ। किन्तु बलाघात उदात्त न होकर किंचित् मन्द है । इसी प्रकारका अन्य उदाहरण है
सुय सिरिदत्ता जणिय पहिल्ली, पंगु कुंटि अण्णिक्क गहिल्ली ।
पुणु वहिरी कण्ण ण सुणइ वाय, पुणु छट्ठी खुज्जिय पुत्ति जाय । तथा--
आराहिवि सोलहकारणाइ, जे सिवमंदिरि आरोहणाइ ।
तिल्लोक्कचक्क संखोहणाइ, संपुण्ण तवें अज्जिय विसेण । एवम्---
जे? बहल वारिस जाणिज्जहु, माहहु सिय तेरसि माणिज्जहु । जेट्ठहु बहल चउद्दसि जाणहु, पइसाहहु सिय पडिव पमाणहु ।
मग्गसिरहं दिय चउदसि जाणिया, पुणु एयारसि जिणवर काणिया। संगीतात्मक ताल और लयसे समन्वित पद-रचना देखते ही बनती है । यथा--
झरंति दाण वारि लुद्ध मत्त भिंगयं, णिरिक्ख एसु दंति वेयदंत संगयं । अलद्ध जुज्झु ढिक्करंतु सेयवण्णयं, घरम्मि मंद संपविस्समाणु गोवयं । पउभियं कम चलं व पिंगलोयणं, विभा सुरंधु लतकंव केसरं घणं ।
सणंकरं तुयंतु संतु लंब जीहयं, पकोवयं पलित्तु पिच्छए सुसीहयं । काव्य भाव और भाषाके सर्वथा अनुकूल है । भावोंके अनुसार ही भाषाका प्रयोग दृष्टिगत होता है। फिर भी, भाषा प्रसाद गुणसे युक्त तथा प्रसंगानुकूल है । जैसे कि--
कालाणलि अप्पउ किणि णिहित्त, आसीविसु केण करेण छित्तु । सुरगिरि विसाणु किणि मोडियउ, जममहिससिंगु किणि तोडियउ।
जो महु विमाण थंभणु करेइ, सो णिच्छय महु हत्थें मरेइ । १६४ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ
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प्रसंगतः अमर्ष संचारी भाव विभावसे संयुक्त होकर रोषके आवेगके साथ वीर रसका स्फुरण कर रहा है। इसी प्रकार अन्य रसोंसे युक्त होने पर भी रचना शान्तरस की है।
आलोच्यमान काव्यमें कई सुन्दर वर्णन है । प्रस्तुत है मगध देशका वर्णन--जहाँ पर सरोवर कमलनालोंसे सुशोभित हैं, श्रेष्ठ हाथी जहाँ पर संचार करते हैं और राजहंश उड़ानें भरते हैं । जहाँ पर क्रीड़ागिरि रति-रसका निधान है और देव-मिथुन जहाँ पर लता-मण्डपोंमें क्रीड़ाएं किया करते हैं। जलवाहिनी सरिता जहाँ पर अतिशय जल-प्रवाहके साथ बहती है मानो कामिनी-कुल पतियों के साथ विचरण करता हो । जहाँ पर नन्दन-वन फल-फूलोंसे भरित है मानो भू-कामिनी घने यौवनसे सुशोभित हो रही हो। जहाँके गो-कुलोंमें गायोंके स्तनोंसे दुग्ध झर रहा है और चपल बछड़े अपनी पूंछ उठाकर दुग्ध-पान कर रहे हैं। कविके शब्दोंमें--
तहु मज्झि सुरम्मउ मगहदेसु, महिकामिणि किउ णं दिव्ववेसु । जहि सरवर सोहहि सारणाल, गयवर डोहिय उड्डिय मराल । जहि कीलागिरि रइरस आणिहण, लइमंडवि कीलिर देवमिहुण । जलवाहिणि गणु जलु वहलु वहइ, णं कामिणिउलु पइसंगु गहइ । जहि णंदणवण फुल्लिय फल्लाइं, णं भूकामिणि जुन्वणु घणाइ ।
जहि गोउलि गोहणु पय खिरंति, करि पुच्छ चवल वच्छा पिवंति । (१,७) इसी प्रकार स्वयंवर-मण्डपमें सुलोचनाके द्वारा मेघेश्वरके कण्ठमें जयमाला निक्षिप्त करने पर अर्ककीर्ति रोषके साथ उठ खड़ा होता है, मेघेश्वर भी दर्पके साथ युद्ध के लिए उठ बैठता है। घमासान युद्ध होता है । युद्धका चित्र है
अक्ककित्तिमणु दुवणह चालिउ, दुवणु वि कत्थण चंगउ भालिउ । तियरयण समाणी एह कण्ण, सामिहि सुउ मुइ कुलेइ अण्ण । ता जाइउ संगरु अइ रउद्दु, उट्ठिउ मेहेसरु वेरि मदु ।
बहु णरवर तज्जिय वाणसंधि, रवि कित्ति लयउ जीवंतु वंधि । (२,१९) वस्तुतः उक्त पंक्तियोंमें युद्धका वर्णन न होकर उसकी तैयारीका उल्लेख मात्र है। पढने पर यह लगता है कि अब जम कर युद्ध होगा, किन्तु कवि कुछ ही पंक्तियों में युद्धोत्तर स्थितिका वर्णन भी साथमें कर देता है। इसका कारण यही है कि कथानकमें गतिशीलता नहीं है। बहुत ही बँधी हुई बातें कविके सामने हैं, जिनका साहित्यके रूपमें प्रस्तुतीकरण करना कविका उद्देश्य प्रतीत होता है। अतएव वस्तुगत विविध आयामोंका भली-भाँति चित्रण नहीं हो सका है। किन्तु इसका यह भी अर्थ नहीं है कि रचनामें मार्मिक स्थल नहीं हैं; परन्तु कम अवश्य हैं।
काव्यके वर्णनोंमें जहाँ-तहाँ लोक-तत्त्वोंका सहज स्फुरण परिलक्षित होता है। उदाहरणके लिए--
जहाँ पर नदियाँ कुलटा नारीके समान वक्र गतिसे बहनेवाली है, निकटके गाँव इतने पास हैं कि मुर्गा उड़कर एक गांवसे दूसरे गाँवमें सरलतासे पहुँच सकता है। जहाँके सरोवरोंमें विशाल नेत्रोंकी समता करनेवाले बड़े-पत्तोंसे युक्त कमल विकसित थे । जहाँ पर गोधन, गोरस आदिसे समृद्धि-सम्पन्न हैं । और जहाँ पर विख्यात उद्यान-वन आदि है। जहाँका क्षेत्र अन्न-जल आदिसे परिपूर्ण होने के कारण सदा सुखदायक है। कविके ही शब्दों में
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जहि तीरिणि गणु कुलटा समाणु, जहि वसहि गाम कुक्कुड उडाण : जहि सरस कमल कमलविसलच्छि, जहि गोवासगोहण गोहण सवच्छि । उज्जाण सवणवण जहि सविक्ख, जहि खित्त सकणजल जलसहक्ख ।
जहि णिच्च वहेइ चउत्थु कालु, तहु देसहु वण्णणु को सुसालु । (५,१) रचना प्रासादिक और सालंकारिक है । भाषाकी दृष्टिसे रचनामें क्रियापदोंकी तथा कृदन्तोंकी प्रचुरता है, जो हिन्दी भाषायुगीन प्रवृत्तिको द्योतक है । कुछ नये शब्द इस प्रकार हैं
उल्हसित-उल्लसित (९,१२) टालणु-कम्पित होना, अपने स्थानसे हटना (९,१०) उज्जालणु-उजाला करना, प्रकाशित करना (९,१०) संडु (षण्ड, सं०)-समूह (९,९) दसमउ कमलसंडु कर दल उज्जलु । (९,९) कुच्छिउ-कुत्सित (९,३) छिक (?) संघरहि छिक जं भाइएण । (९,३) तहि-तहीं, वहीं (९,४) कोइ ण राउ रंकु तहि दीसइ (९,४) सिय चंदकति सुन्दर मुहेण, उज्जल चामीयर कुंचुएण । (९,२) गिरिवरसुन्दर मणहर धणेहि, कंदलविलास वाहुल्लएहि । (९,२) खड (षड्, सं०)-छह (८,२६) तप्पर-तत्पर (८,२४) मणुयतिरिय जिणसेवण-तप्पर । (८,२४)
इस प्रकार भाषा (बलाघात, नाद-योजना, नये शब्दोंका प्रयोग), प्रसाद शैली तथा गीतादि संयोजना आदिकी दृष्टिसे उक्त रचना महत्त्वपूर्ण है। इस अध्ययनसे यह भी स्पष्ट होता है कि छठी शताब्दी तक अनवच्छिन्न रूपसे अपभ्रशके प्रबन्धकाव्योंकी परम्परा प्रचलित रही है, जिसमें काव्यात्मक विधाके रूपोंमें कथाकाव्य और चरितकाव्य जैसी स्वतन्त्र विधाएं भी जनविश्रुत रही हैं।
अभी तक सांस्कृतिक दृष्टिसे भी इस प्रकारकी रचनाओंका अध्ययन नहीं किया गया है। अतः इस ओर भी विद्वानोंका ध्यान जाना चाहिए।
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राजस्थानका युग-संस्थापक कथा-काव्यनिर्माता हरिभद्र (स्व०) डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री, एम०, ए०, पी-एच०डी०, डी० लिट्, ज्योतिषाचार्य
युग प्रधान होनेके कारण हरिभद्रकी ख्याति उनकी अगणित साहित्यिक कृतियोंपर आश्रित है। राजस्थानका यह बहुत ही मेधावी और विचारक लेखक है। इनके धर्म, दर्शन, न्याय, कथा-साहित्य, योग एवं साधनादि सम्बन्धी विचित्र विषयोंपर गम्भीर पांडित्यपूर्ण ग्रन्थ उपलब्ध हैं। यह आश्चर्यकी बात है कि 'समराइच्च कहा' और 'धूर्ताख्यान' जैसे सरस, मनोरंजक आख्यान प्रधान ग्रन्थोंका रचयिता 'अनेकान्तजयपताका' जैसे क्लिष्ट न्याय ग्रन्थका रचयिता है। एक ओर हृदयकी सरसता टपकती है, तो दूसरी ओर मस्तिष्ककी प्रौढ़ता।
हरिभद्रकी रचनाओंके अध्ययनसे ज्ञात होता है कि ये बहुमुखी प्रतिभाशाली अद्वितीय विद्वान् थे । इनके व्यक्तित्वमें दर्शन, साहित्य, पुराण, कथा, धर्म आदिका संमिश्रण हुआ है। इनके ग्रन्थोंके अध्ययनसे ज्ञात होता है कि इनका जन्म चित्रकूट-चित्तौर राजस्थानमें हुआ था। ये जन्मसे ब्राह्मण थे और अपने अद्वितीय पांडित्यके कारण वहाँके राजा जितारिके राजपुरोहित थे। दीक्षाग्रहण करनेके पश्चात् इन्होंने राजस्थान, गुजरात आदि स्थानोंमें परिभ्रमण किया।
आचार्य हरिभद्रके जीवनप्रवाहको बदलनेवाली घटना उनके धर्मपरिवर्तनकी है। इनकी यह प्रतिज्ञा थी-'जिसका वचन न समझंगा, उसका शिष्य हो जाऊँगा। एक दिन राजाका मदोन्मत्त हाथी आलानस्तम्भको लेकर नगरमें दौड़ने लगा। हाथीने अनेक लोगोंको कुचल दिया। हरिभद्र इसी हाथीसे बचने के लिए एक जैन उपाश्रयमें प्रविष्ट हुए। यहाँ याकिनी महत्तरा नामकी साध्वीको निम्नलिखित गाथाका पाठ करते हुए सुना।
चक्कीदुगं हरिपणगं चक्कीण केसवो चक्की।
केसव चक्की केसव दु चक्की केसव चक्की य । इस गाथाका अर्थ उनकी समझमें नहीं आया और उन्होंने साध्वीसे इसका अर्थ पछा। साध्वीने उन्हें गच्छपति आचार्य जिनभद्र के पास भेज दिया। आचार्यसे अर्थ सुनकर वे वहीं दीक्षित हो गये और बादमें अपनी विद्वत्ता और श्रेष्ठ आचारके कारण पट्टधर आचार्य हुए।
जिस याकिनी महत्तराके निमित्तसे हरिभद्रने धर्मपरिवर्तन किया था उसको उन्होंने अपनी धर्ममाताके समान पूज्य माना है और अपनेको याकिनीसूनु कहा है । याकोबीने 'समराइच्च कहा' की प्रस्तावनामें लिखा है-'आचार्य हरिभद्रको जैन धर्मका गम्भीर ज्ञान रखकर भी अन्यान्य दर्शनोंका भी इतना विशाल और तत्त्वग्राही ज्ञान था, जो उस कालमें एक ब्राह्मणको ही परम्परागत शिक्षाके रूपमें प्राप्त होना स्वाभाविक था, अन्यको नहीं। समय हरिभद्रके समयपर विचार करनेके पूर्व यह जान लेना आवश्यक है कि जैन साहित्य परम्परामें
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हरिभद्र नामके कितने व्यक्ति हुए और इनमें 'समराइच्च कहा ' के लेखक कथाकार कौनसे हरिभद्र हैं ? ईस्वी सन्की चौदहवीं शताब्दी तकके उपलब्ध जैन साहित्य में हरिभद्र नामके आठ आचार्योंका उल्लेख मिलता है । इन आठ आचार्यों में 'समराइच्चकहा' और 'धूर्ताख्यान' प्राकृत कथा काव्यके लेखक आचार्य हरिभद्र सबसे प्राचीन हैं। ये 'भवविरहसूरि' और 'विरहांककवि' इन दो विशेषणोंसे प्रख्यात थे ।
'कुवलयमाला' के रचयिता उद्योतन सूरिने (७०० शक ) इन्हें अपना गुरु कहा है । ' उपमितभवप्रपंच कथा' के रचयिता सिद्धर्षि ( ९०६ ई०) ने स्मरण किया है ।
मुनि जिनविजयजीने अपने प्रबन्धमें लिखा है - "एतत्कथनमवलम्ब्यैव राजशेखरेण प्रबन्धकोष मुनिसुन्दरेण उपदेशरत्नाकरे, रत्नशेखरेण च श्राद्धप्रतिक्रमणसूत्रवृत्ती, सिद्धषिहरिभद्रशिष्यत्वेन वर्णितः । एवं पडीवालगगच्छीयायामेकस्यां प्राकृतपद्धावल्यामपि सिद्धर्षिहरिभद्रयोः समसमयवत्तित्वलिखितं समुपलभ्यते "३ इससे स्पष्ट है कि भवविरह हरिभद्र बहुत प्रसिद्ध हैं । इन्होंने स्वयं अपने आपको यामिनी महत्तराका पुत्र जिनमतानुसारी, जिनदत्ताचार्यका शिष्य कहा है ।
हरिभद्र के समय सम्बन्धमें निम्नलिखित चार मान्यताएँ प्रसिद्ध हैं ।
(१) परम्परा प्राप्त मान्यता — इसके अनुसार हरिभद्रका स्वर्गारोहणकाल विक्रम सं० ५८५ अर्थात् ई० सन् ५२७ माना जाता रहा है ।
प्रमाण और न्याय पढ़ानेवाला " धर्मबोधकरो गुरु" के रूपमें
(२) मुनि जिनविजयजीकी मान्यता - अन्तः और बाह्य प्रमाणोंके आधारपर इन्होंने ई० सन् ७०० तक आचार्य हरिभद्रका काल निर्णय किया है ।
(३) प्रो० के० बी० आभ्यंकरकी मान्यता - इस मान्यतामें आचार्य हरिभद्रका समय विक्रम संवत् ८००-९५० तक माना है ।
(४) पंडित महेन्द्रकुमारजीकी मान्यता — सिद्धिविनिश्चयकी प्रस्तावना में पंडित महेन्द्रकुमारजीने आचार्य हरिभद्र का समय ई० सन् ७२० से ८१० तक माना है ।
मुनि जिनविजयजीने आचार्य हरिभद्रके द्वारा उल्लिखित विद्वानोंकी नामावली दी है। इस नामावली में समयकी दृष्टिसे प्रमुख हैं धर्मकीर्ति, (६००-६५०), धर्मपाल (६३५ ई० ), वाक्यपदीयके ता हरि (६००-६५० ई०), कुमारिल (६२० लगभग ७०० ई० तक ), शुभगुप्त (६४० से ७०० ई० तक) और शान्तरक्षित ( ई० ७०५-७३२) । इस नामावली से ज्ञात होता है कि हरिभद्रका समय ई० सन् ७०० के पहले नहीं होना चाहिये ।
हरिभद्रके पूर्व समयकी सीमा ई० सन् ७० के आस-पास है । विक्रम संवत् ५८५ की पूर्व सीमा
१. अनेकान्त जयपताका, भाग २, भूमिका, पृ० ३०,
२. जो इच्छइ भव-विरहं भवविरहं को ण वंदए सुएषं समय - सम- सत्यगुरुणोसमर मियंका कहा जस्स ||
कुवलयमाला, अनुच्छेद ६, पृ० ४,
३. हरिभद्राचार्यस्य समयनिर्णयः, पृ० ७,
४. आवश्यक सूत्र टीका प्रशस्ति भाग
५. पंचसए पणसीए' "घम्मरओ देउ मुख्खसु । प्रद्युम्न चरित, विचा० गा० ५३२.
६. हरिभद्रस्य समयनिर्णयः पृ० १७
७. विशविशिकाकी प्रस्तावना
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नहीं मानी जा सकती है । विचार सार प्रकरण में आई हुई "पंचसए पणसीए" गाथाका अर्थ एच० ए० शाहने बताया है कि यहाँ विक्रय संवत्के स्थानपर गुप्त संवत्का ग्रहण होना चाहिए। गुप्त संवत् ५८५ का अर्थ ई० सन् ७८५ है । इस प्रकार हरिभद्रका स्वर्गारोहण काल ई० सन् ७८५ के लगभग आता है।
यतिवृषभकी 'तिलोयपण्णत्ति के अनुसार वीर निर्वाण ४६१ वर्ष व्यतीत होनेपर शक नरेन्द्र (विक्रमादित्य) उत्पन्न हआ। इस वंशके राज्यकालका मान २४१ वर्ष है और गुप्तोंके राज्यकालका प्रमाण २५५ वर्ष है । अतः ई० सन् १८५ या १८६ वर्षके लगभग गुप्त संवत्का आरम्भ हुआ होगा । इस गण नाके आधारपर मुनि जिनविजयजीने ई० सन् ७७० या ७७१ के आसपास हरिभद्रका समय माना है।
हरिभद्रके समयकी उत्तरी सीमाका निर्धारण 'कुवलयमाला'के रचयिता उद्योतन सूरिके उल्लेख द्वारा होता है। इन्होंने 'कुवलयमाला'की प्रशस्तिमें इस ग्रन्थकी समाप्ति शक संवत् ७०० बतलायी है और अपने गुरुका नाम हरिभद्र कहा है ।'
उपमितिभव-प्रपञ्च कथाके रचयिता सिद्ध पिने अपनी कथाकी प्रशस्तिमें आचार्य हरिभद्रको अपना गुरु बताया है।
विषं विनिधूय कुवासनामयं व्यचीचरद् यः कृपया मदाशये।
अचिन्त्यवीर्येण सुवासनासुधां नमोऽस्तु तस्मै हरिभद्रसूरये ॥ अर्थात्---हरिभद्र सूरिने सिद्धषिके कूवासनामय मिथ्यात्व रूपी विषका नाश कर उन्हें अत्यन्त शक्तिशाली
य ज्ञान प्रदान किया था, तथा उन्हीं के लिये चैत्य वन्दन सूत्रकी ललितविस्तरा नामक वृत्तिकी रचना की थी। 'उपमितिभव प्रपंच कथा के उल्लेखोंके देखनेसे ज्ञात होता है कि हरिभद्र सूरि सिद्धषिके साक्षात् गुरु नहीं थे, बल्कि परम्परया गुरु थे।
प्रो० आभ्यंकरने इन्हें साक्षात गुरु स्वीकार किया है । परन्तु मनि जिनविजयजीने प्रशस्तिके 'अनागतं' शब्दके आधारपर परम्परा गुरु माना है। इनका अनुमान है कि आचार्य हरिभद्र विरचित 'ललित विस्तरा वृत्ति के अध्ययनसे सिद्धर्षिका कूवासनामय विष दूर हुआ था। इसी कारण उन्होंने उक्त वृत्तिके रचयिताको 'धर्मबोधक गुरु' के रूपमें स्मरण किया है ।
अतएव स्पष्ट है कि प्रो. आभ्यंकरने हरिभद्रको सिद्धर्षिका साक्षात् गुरु मानकर उनका समय विक्रम संवत् ८००-९५० माना है, वह प्रामाणिक नहीं है और न उनका यह कथन ही यथार्थ है कि 'कुवलयमाला में उल्लिखित शक संवत् ही गुप्त संवत् है ।
वस्तुतः आचार्य हरिभद्र शंकराचार्यके पूर्ववर्ती हैं। सामान्यतः सभी विद्वान् शंकराचार्यका समय ईस्वी सन् ७८८से८२० ई० तक मानते हैं। हरिभद्रने अपनेसे पर्ववर्ती प्रायः सभी दार्शनिकोंका उल्लेख किया है। शंकराचार्यने जैन दर्शनके स्याद्वाद सिद्धान्त सप्तभंगी न्यायका खण्डन भी किया है। इनके नामका उल्लेख अथवा इनके द्वारा किये गये खण्डनमें प्रदत्त तर्कोका प्रत्युत्तर सर्वतोमुखी प्रतिभावान् हरिभद्रने नहीं दिया । इसका स्पष्ट अर्थ है कि आचार्य हरिभद्र शंकराचार्यके उद्भवके पहले ही स्वर्गस्थ हो चुके थे।
प्रो. आभ्यंकरने हरिभद्रके ऊपर शंकराचार्यका प्रभाव बतलाया है और उन्हें शंकराचार्यका पश्चात्
१. सो सिद्धतेण गुरु जुत्ती-सत्थेहि जस्स हरिभद्दो। बहु सत्थ-गंथ-वित्थर पत्थारिय-पयड-सव्वत्यो ।
कुवलयमाला, अनुच्छेद ४३०पृ० २८२ २. हरिभद्राचार्यस्य समयनिर्णयः -पृ० ६ पर उद्धृत ।
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वर्ती विद्वान माननेका प्रस्ताव किया है। पर हरिभद्रके दर्शन सम्बन्धी ग्रन्थोंका आलोड़न करनेपर उक्त कथन निस्सार प्रतीत होता है।
स्वर्गीय न्यायाचार्य पंडित महेन्द्रकुमारजीने हरिभद्रके षड्दर्शन समुच्चय (श्लोक ३०) में जयन्तभट्टकी न्यायमंजरीके
गर्भितगजितारंभनिभिन्नगिरिगह्वरा । रोलम्बगवलव्यालतमालमलिनत्विषः॥ त्वंगत्तडिल्लतासंगपिशंगीतुगविग्रहा ।
वृष्टि व्यभिचरन्तीह नैवं प्रायाः पयोमुचः॥ इस पद्यके द्वितीय पादको जैसाका तैसा सम्मिलित कर लिया गया है और न्यायमंजरीका रचनाकाल ई० सन् ८००के लगभग है । अतएव हरिभद्रके समयकी सीमा ८१० ईस्वी तक रखनी होगी, तभी वे जयन्तकी न्यायमंजरीको देख सके होगें। हरिभद्रका जीवन लगभग ९० वर्षोंका था। अतः उनकी पूर्वावधि ई० सन् ७२०के लगभग होनी चाहिये ।
इस मतपर विचार करनेसे दो आपत्तियाँ उपस्थित होती हैं। पहली तो यह है कि जयन्त ही न्यायमंजरीके उक्त श्लोकके रचयिता है, यह सिद्ध नहीं होता। यतः उनके ग्रन्थमें अन्यान्य आचार्य और ग्रन्थों के उद्धरण वर्तमान हैं। जायसवाल शोधसंस्थानके निदेशक श्री अनन्तलाल ठाकुर ने न्यायमंजरी सम्बन्धी अपने शोध-निबन्धमें सिद्ध किया है कि वाचस्पति मिश्रके गुरु त्रिलोचन थे और उन्होंने एक न्यायमंजरीकी रचना की थी। सम्भवतः जयन्तने भी उक्त श्लोक वहींसे लिया हो अथवा अन्य किसी पूर्वाचार्यका ऐसा कोई दूसरा न्याय ग्रन्थ रहा हो जिससे आचार्य हरिभ्रद सूरि और जयन्तभट्ट इन दोनोंने उक्त श्लोक लिया हो यह सम्भावना तब और भी बढ़ जाती है जब कुछ प्रकाशित तथ्योंसे जयन्तकी न्यायमंजरीका रचनाकाल ई० सन् ८००के स्थानपर ई० सन् ८९० आता है।
जयन्तने अपनी न्याय मंजरीमें राजा अवन्ति वर्मन (ई० ८५६-८८३)के समकालीन ध्वनिकार और राजा शंकर वर्मन (ई० सन् ८८३-९०२) द्वारा अवैध घोषित की गयी 'नीलाम्बर वृत्ति का उल्लेख किया है । इन प्रमाणोंको ध्यानमें रखकर जर्मन विद्वान् डा० हेकरने यह निष्कर्ष निकाला है कि शंकरवर्मनके राज्यकाल में लगभग ८९० ई०के आस-पास जब जयन्तभट्टने न्याय मंजरीकी रचना की होगी, तब वह ६० वर्षके वृद्ध पुरुष हो चुके होंगे।
उपर्युक्त तथ्योंके प्रकाशमें स्वर्गीय पंडित महेन्द्रकुमारजीका यह मत कि जयन्तकी न्याय मंजरीकी रचना लगभग ८०० ई०के आस-पास हुई होगी; अप्रमाणित सिद्ध हो जाता है और इस अवस्थामें आचार्य हरिभद्रके काल की उत्तरावधि प्रामाणिक नहीं ठहरती । अतएव हमारा मत है कि 'षड्दर्शन समुच्चय' में ग्रहण
१. विंशति विशिका प्रस्तावना। २. न्यायमंजरी विजयनगर संस्करण, पृ० १२९ । ३. सिद्धिविनिश्चयटीकाकी प्रस्तावना, पृ. ५३-५४ । ४ विहार रिसर्च सोसाइटी, जनरल सन् १९५५, चतुर्थ खंडमें श्री ठाकुरका निबन्ध । ५. न्याय मंजरी स्टडीज नामक निबन्ध पूना ओरियन्टलिस्ट (जनवरी अप्रिल १९५७) पृ० ७७ पर डा०
एच० भरहरी द्वारा लिखित लेख तथा उस पर पादटिप्पण क्रमांक २।
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किये गये पद्यका स्रोत जयन्तकी 'न्यायमंजरी' नहीं अन्य कोई ग्रन्थ है, जहाँसे उक्त दोनों आचार्योंने पद्यको ग्रहण किया है।
हरिभद्रके समय निर्णय में 'नयचक्र' के रचयिता मल्लवादीके समयका आधार भी ग्रहण किया जा सकता है। 'अनेकान्तजयपताका' की टीकामें मल्लवादीका निर्देश आया है। आचार्य श्री जुगलकिशोर मुख्तार ने लिखा है- "मालूम होता है कि मल्लवादीने अपने नयचक्रमें पद-पदपर 'वाक्यपदीय' ग्रन्थका उपयोग ही नहीं किया, बल्कि उसके कर्त्ता भर्तृहरिका नामोल्लेख एवं उसके मतका खण्डन भी किया है । इन भर्तृहरिका समय इतिहास में चीनी यात्री इन्सिग के यात्रा विवरणादिके अनुसार ई० सन् ६०० से ६५० तक माना जाता है, क्योंकि इत्सिंगने जब सन् ६९२में अपना यात्रावृत्तान्त लिखा, तब भर्तृहरिका देहावसान हुए ४० वर्ष बीत चुके थे । ऐसी अवस्थामें मल्लवादीका समय ई० सन् की सातवीं शताब्दी या उसके पश्चात् ही माना जायेगा।"
डा० पी० एल० वैद्यने न्यायावतारको प्रस्तावनायें मल्लवादीके समयका निर्धारणकर यह सुझाव दिया है कि हरिभद्रका समय विक्रम संवत् ८८४के बाद नहीं हो सकता। आचार्य जुगलकिशोर मुस्तारने हरिभद्रके समय पर विचार करते हुए लिखा है - "आचार्य हरिभद्रके समय, संयत जीवन और उनके साहित्मिक कार्योंकी विशालताको देखते हुए उनकी आयुका अनुमान १०० वर्षके लगभग लगाया जा सकता है और वे मल्लवादीके समकालीन होने के साथ-साथ 'कुवलयमाला' की रचनाके कितने ही वर्ष बाद तक जीवित रह सकते हैं ।"
उपर्युक्त समस्त विचारोंके प्रकाशमें हमारा अपना अभिमत यह है कि जब तक हरिभद्रके ऊपर शंकराचार्यका प्रभाव सिद्ध नहीं हो जाता है तब तक आचार्य हरिभद्रसूरिका समय शंकराचार्यके बाद नहीं माना जा सकता । अतः मुनि जिनविजयजीने हरिभद्रसूरिका समय ई० सन् ७७० माना है, वह भी पूर्णतः ग्राह्य नहीं है । इस मतके मान लेनेसे उद्योतनसूरिके साथ उनके गुरु शिष्य के सम्बन्धका निर्वाह हो जाता है, पर मल्लवादीके साथ सम्बन्ध घटित नहीं हो पाता । अतएव इनका समय ई० सन् ७३० से ई० सन् ८३० तक मान लेनेपर भी उद्योतनसूरिके साथ गुरु-शिष्यका सम्बन्ध सिद्ध होनेके साथ-साथ मल्लवादीके सम्बन्धका भी निर्वाह हो जाता है ।
रचनाएँ
हरिभद्रकी रचनाएँ मुख्यतः दो वर्गों में विभक्त की जा सकती हैं ।
१. आगम ग्रन्थों और पूर्वाचार्योंकी कृतियों पर टीकाएँ ।
२. स्वरचित ग्रन्थ (क) सोपज्ञ टीका सहित (ख) सोपज्ञ टीका रहित ।
हरिभद्रके ग्रयोंकी संख्या १४४० या १४४४ बतायी गयी है। अब तक इनके लगभग ५० ग्रन्थ उपलब्ध हो चुके हैं। हमें इनकी कथा काव्य प्रतिभा पर प्रकाश डालना है। अतएव समराइच्च कहा, धूख्यान एवं उनकी टीकाओंमें उपलब्ध लघुकथाओं पर ही विचार करना है। निश्चयतः राजस्थानका यह कथाकाव्य रचयिता अपनी इस विषामें संस्कृतके गद्यकार वाणभट्ट रंचमात्र भी कम नहीं है। यदि इसे हम राजस्थानका वाणभट्ट कहें तो कुछ भी अतिशयोक्ति नहीं । प्राकृत कथाकाव्यको नया स्थापत्य, नयी विचार
१. जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश, पृ० ५५१-५५२ । २. जैन साहित्य इतिहास पर विशद प्रकाश, पृ० ५५३ का पाद टिप्पण |
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धारा और नया रूप देने के कारण अपने क्षेत्रमें हरिभद्र अद्वितीय हैं। हरिभद्रने स्थापत्योंको नया गठन दिया है । तरंगवतीमें पूर्वजन्मकी स्मृतियाँ और कर्म विकास केवल कथाको प्रेरणा देते हैं, पर 'समराइच्च कहा' में पूर्व जन्मोंकी परम्पराका स्पष्टीकरण, शुभाशुभ कृतकर्मों के फल और श्रोताओं या पाठकों के समक्ष कुछ नैतिक सिद्धान्त भी उपस्थित किये गये हैं। हरिभद्रके स्थापत्यकी मौलिकता
हरिभद्र मौलिक कथाकाव्यके रचयिता है। इन्होंने सर्वप्रथम काव्यके रूपमें कथावस्तुकी योजना की है । इनकी 'टेकनिक' वाणभट्टके तुल्य है। कलाके विभिन्न तथ्यों तथा उपकरणोंकी योजना अनुभूति और लक्ष्यकी एकतानताके रूप में की है। जैसे कोई चित्रकार अपनी अनुभूति को रेखाओं और विभिन्न रंगोंके आनुपातिक संयोगसे अभिव्यक्त करता है, अमूर्त अनुभूतिको मूर्तरूप देता है, उसी प्रकार कथाकाव्यका रचयिता भी भावोंको वहन करने के लिए विभिन्न वातावरणोंमें पात्रोंकी अवतारणा करता है। आशय यह है कि निश्चित लक्ष्य अथवा एकान्त प्रमाणकी पूर्तिके लिए रचनामें एक विधानात्मक प्रक्रिया उपस्थित करनी पड़ती है, जिससे कथाकाव्य रचयिताका स्थापत्य महनीय बन जाता है। हरिभद्र ऐसे प्रथम कथाकार हैं, जिन्होंने सौन्दर्यका समावेश करते समय वस्तु और शिल्प दोनोंको समान महत्त्व दिया है। इनकी दृष्टिमें वस्तुकी अपेक्षा प्रकाश भंगी अभिव्यक्तिकी वक्रता अधिक आवश्यक है । अतः भाव विचार तो युग या व्यक्ति विशेषका नहीं होता, वह सार्वजनीन और सार्वकालिक ही होता है। नया युग और नये स्रष्टा उसे जिस कुशलतासे नियोजित करते हैं वही उनकी मौलिकता होती है।
अलंकारशास्त्रियोंने भी भावसे अधिक महत्त्व उसके प्रकाशनको दिया है। प्रकाशन प्रक्रियाको शैलीका नाम दिया जाता है । अत: जिसमें अनुभूति और लक्ष्यके साथ कथावस्तु की योजना, चरित्रअवतारणा, परिवेशकल्पना, एवं भाव सघनताका यथोचित समवाय जितने अधिक रूपमें पाया जाता है, वह कथाकाव्य निर्माता उतना ही अधिक मौलिक माना जाता है।
हरिभद्रने 'समराइच्चकहा में मौलिकता और काव्यात्मकताका समावेश करने के लिए अलंकृत वर्णनोंके साथ कथोत्थप्ररोह, पूर्वदीप्ति प्रणाली, कालमिश्रण और अन्यापदेशिकताका समावेश किया है। कथोत्थप्ररोहसे तात्पर्य कथाओंके सघन जालसे है, जिस प्रकार केलेके स्तम्भकी परत एक पर दूसरी और दूसरीपर तीसरी आदि क्रमसे रहती हैं, उसी प्रकार एक कथापर उसकी उद्देश्यकी सिद्धि और स्पष्टताके लिए दूसरी कथा और दूसरी के लिए तीसरी कथा आदि क्रममें कथाएँ नियोजित की जाती है। हरिभद्रने वटप्ररोहके समान उपस्थित कथाओंमें संकेतात्मकता और प्रतीकात्मकताकी योजना की है। परिवेशों या परिवेश-मंडलोंका नियोजन भी जीवन और जगत्के विस्तारको नायक और खलनायकके चरित गठनके रूपमें उपस्थित किया है। रचनामें सम्पूर्ण इतिवृत्तको इस प्रकार सुविचारित ढंगसे नियोजित किया है, कि प्रत्येक खण्ड अथवा परिच्छेद अपने परिवेशमें प्रायः सम्पूर्ण-सा प्रतीत होता है और कथाकी समष्टि योजना-प्रवाहको उत्कर्षोन्मुख करती है। एक देश और कालकी परिमितिके भीतर और कुछ परिस्थितियोंकी संगतिमें मानव जीवनके तथ्यों को अभिव्यञ्जना की जाती है। जिस प्रकार वृत्त कई अंशोंमें विभाजित किया जाता है और उन अंशोंकी पूरी परिधिमें वृत्तकी समग्रता प्रकट हो जाती है, उसी प्रकार कथोत्थप्ररोहके आधारपर इतिवृत्तके समस्त रहस्य उद्घाटित हो जाते हैं। कथाकारकी मौलिकता वहीं समझी जाती है, जहाँ वह कथासूत्रोंको एक खूटीपर टाँग देता है।
हरिभद्रने अपनी 'बीजधर्मा' कथाओंमें काव्यत्वका नियोजन पूर्वदीप्ति प्रणाली द्वारा किया है। इस
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प्रणाली में पूर्वजन्मके क्रियाकलापोंकी जाति स्मरण द्वारा स्मति कराकर कथाओंमें रसमत्ता उत्पन्न की जाती है । इस स्थापत्यकी विशेषता यह है कि कथाकार घटनाओंका वर्णन करते-करते अकस्मात् कथाप्रसंगके सूत्रको किसी विगत घटनाके सूत्रसे जोड़ देता है। जिससे कथाकी गति विकासकी ओर अग्रसर होती है । आधुनिक कथाकाव्यमें इसे 'फ्लैशबैक' पद्धतिका नाम दिया गया है।
हरिभद्रने घटनाओंको या किसी प्रमुख घटनाके मार्मिक वर्णनको कथाके गतिमान सूत्रके साथ छोड़ दिया है पश्चात् पिछले सूत्रको उठाकर किसी एक जीवन अथवा अनेक जन्मान्तरोंकी घटनाओंका स्मरण दिलाकर कथाके गतिमान सूत्र में ऐसा धक्का लगाता है, जिससे कथा जाल लम्बे मैदानमें लुढ़कती हुई फुटबॉल के समान तेजीसे बढ़ जाता है। हरिभद्र इस सूत्रको देहली दीपक न्यायसे प्रस्तुत करते हैं, जिससे पूर्व और परवर्ती समस्त घटनाएँ आलोकित होकर रसमय बन जाती हैं।
हरिभद्रने किसी बात या तथ्यको स्वयं न कहकर व्यंग्य या अनुभूति द्वारा ही प्रकट किया है। व्यंग्यकी प्रधानता रहने के कारण 'समराइच्चकहा' और 'धुर्ताख्यान' इन दोनोंमें चमत्कारके साथ कथारस प्राप्त होता है । कथांश रहने पर व्यंग्य सहृदय पाठकको अपनी ओर आकृष्ट करता है । इस शिल्प द्वारा हरिभद्र ने अपनी कृतियोंका निर्माण इस प्रकार किया है जिससे अन्य तत्त्वोंके रहनेपर भी प्रतिपाद्य व्यंग्य बनकर प्रस्तुत हुआ है। समुद्र यात्रामें तूफानसे जहाजका छिन्न-भिन्न हो जाना और नायक और उपनायकका किसी लकड़ी या पटरेके सहारे समुद्र पार कर जाना एक प्रतीक है । यह प्रतीक आरम्भमें विपत्ति, पश्चात् सम्मिलन-सुखकी अभिव्यञ्जना करता है । 'समराइच्चकहा' में अन्यापदेशिक शैलीका सर्वाधिक प्रयोग किया गया है। प्रथमभवमें राजा गुणसेनकी अपने महलके नीचे मर्दा निकलनेसे विरक्ति दिखलायी गई है। यहाँ लेखकने संकेत द्वारा ही राजाको उपदेश दिया है। संसारकी असारताका अट्टहास इन्द्रजालके समान ऐन्द्रिय विषयोंकी नश्वरता एवं प्रत्येक प्राणीकी अनिवार्य मृत्युको सूचना भी हरिभद्रने व्यंग्य द्वारा ही दी है। हरिभद्रने कार्यकारण पद्धतिकी योजना भी इसी शैलीमें की है।
'समराइच्चकहा'की आधारभूत प्रवृत्ति प्रतिशोध भावना है। प्रधान कथा में यह प्रतिशोधकी भावना विभिन्न रूपोंमें व्यक्त हुई है। लेखकने इसे निदान कथा भी कहा है। अग्निशर्मा और गुणसेन ये दोनों नायक और प्रतिनायक हैं । गुणसेन नायक है और अग्निसेन प्रतिनायक। इन दोनोंके जन्म-जन्मान्तरकी यह कथा नौभवों तक चलती है । और गुणसेनके नौभवोंकी कथा ही इस कृतिके नौ अध्याय हैं। प्रत्येक भवकी कथा किसी विशेषस्थान, काल और क्रियाकी भूमिकामें अपना पट परिवर्तन करती है। जिस प्रकार नाटकमें पर्दा गिरकर या उठकर सम्पूर्ण वातावरणको बदल देता है, उसी प्रकार इस कथाकृति में एक जन्मकी कथा अगले जन्मकी कथाके आने पर अपना वातावरण, काल और स्थानको परिवर्तित कर देती है। सामान्यतः प्रत्येक भवकी कथा स्वतंत्र है। अपने में उसकी प्रभावान्विति नुकीली है। कथाकी प्रकाशमान चिनगारियाँ अपने भवमें ज्वलन कार्य करती हुई, अगले भवको आलोकित करती है। प्रत्येक भवकी कथामें स्वतंत्र रूपसे एक प्रकारकी नवीनता और स्फूर्तिका अनुभव होता है । कथाकी आद्यन्त गतिशील स्निग्धता और उत्कर्ष अपने में स्वतंत्र है।
स्थूल जाति और धार्मिक साधनाकी जीवन प्रक्रियाको कलाके आवरणमें रख जीवनके बाहरी और भीतरी सत्योंकी अवतारणाका प्रयास प्रथम भवकी कथाका प्रधान स्वर है। सहनशीलता और सद्भावनाके बलसे ही व्यक्तिके व्यक्तित्वका विकास होता है। धार्मिक परिवेशके महत्त्वपूर्ण दायित्वके प्रति इस कथाका रूप विन्यास दो तत्त्वोंसे संघटित है। कर्म-जन्मान्तरके संस्कार और हीनत्वकी भावनाके कारण
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अपने विकारोंको इतर व्यक्तियोंपर आक्षिप्त करना। अग्निशर्मा अपने बचपनके संस्कार और उस समयमै उत्पन्न हुई हीनत्वकी भावनाके कारण गुणसेन द्वारा पारणाके भूल जानेसे क्रुद्ध हो निदान बांधता है। गुणसेनका व्यक्तित्व गुणात्मक गुणवृद्धिके रूपमें और अग्निशर्माका व्यक्तित्व भागात्मक भागवृद्धिके रूपमें गतिमान और संघर्षशील है। इन दोनों व्यक्तित्वोंने कथानककी रूप रचनामें ऐसी अनेक मोड़ें उत्पन्न की हैं, जिनसे कार्य व्यापारकी एकता, परिपूर्णता एवं प्रारम्भ, मध्य और अन्तकी कथा योजनाको अनेक रूप और संतुलन मिलते गये हैं । यह कथा किसी व्यक्ति विशेषका इतिवृत्त मात्र ही नहीं, किन्तु जीवन्त चरित्रोंकी सृष्टिको मानवताकी ओर ले जाने वाली है। धार्मिक कथानकके चौखटेमें सजीव चरित्रोंको फिटकर कथाको प्राणवन्त बनाया गया है।।
देश-कालके अनुरूप पात्रोंके धार्मिक और सामाजिक संस्कार घटनाको प्रधान नहीं होते देते-प्रधानता प्राप्त होती है, उनकी चरित्र निष्ठाको। घटनाप्रधान कथाओंमें जो सहज आकस्मिक और कार्यकी अनिश्चित गतिमत्ता आ जाती है, उससे निश्चित ही यह कथा संक्रमित नहीं है। सभी घटनाएँ कथ्य हैं और जीवनकी एक निश्चित शैली में वे व्यक्तिके भीतर और बाहर घटित होती हैं। घटनाओं के द्वारा मानव प्रकृतिका विश्लेषण और उसके द्वारा तत्कालीन सामन्त वर्गीय जनसमाज एवं उसकी रुचि तथा प्रवृत्तियोंका प्रकटीकरण इन कथाको देश-कालकी चेतनासे अभिभूत करता है। इसके अतिरिक्त गुणसेनकी समस्त भावनाओंमें उसका मानस चित्रित हआ है। क्रोध. घणा आदि मौलिक आधारभत वत्तियोंको व्याप्ति और संस्थितिमें रखना हरिभद्रकी सूक्ष्म संवेदनात्मक पकड़का परिचायक है। धार्मिक जीवनमें भागीदार बननेकी चेतना गुणसेनकी वैयक्तिक नहीं सार्वजनीन है। हरिभद्रने चरित्रसृष्टि, घटनाक्रम और उद्देश्य इन तीनोंका एक साथ निर्वाह किया है। अग्निशर्माका हीनत्व भावकी अनुभूतिके कारण विरक्त हो जाना और वसंतपुरके उद्यानमें तपस्वियोंके बीच तापसोवृत्ति धारण कर उन तपश्चरण करना तथा गुणसेनका राजा हो जानेके पश्चात् आनन्द विहारके लिए वसंतपुरमें निर्मित विमानछन्दक राजप्रासादमें जाना और वहाँ अग्निशर्माको भोजनके लिए निमंत्रित करना तथा भोजन सम्पादनमें आकस्मिक अन्तराय आ जाना; आदि कथासूत्र उक्त तीनोंको समानरूपसे गतिशील बनाते हैं।
_इस कथामें दो प्रतिरोधी चरित्रोंका अवास्तविक विरोधमूलक अध्ययन बड़ी सुन्दरतासे हुआ है। गुणसेनके चिढ़ानेसे अग्निशर्मा तपस्वी बनता है, पुनः गुणसेन घटना क्रमसे अग्निशर्माके सम्पर्क में आता है। अनेक बार आहारका निमंत्रण देता है। परिस्थितियोंसे बाध्य होकर अपने संकल्पमें गुणसेन असफल हो जाता है । उसके मनमें अनेक प्रकारका पश्चात्ताप होता है। वह अपने प्रमादको धिक्कारता है । आत्मग्लानि उसके मनमें उत्पन्न होती है, कुलपतिसे जाकर क्षमा याचना करता है। पर अन्ततः अग्निशर्मा उसे अपने पूर्व अपमानके क्रमकी कड़ी ही मानता है। ईर्ष्या, विद्वेष और प्रतिशोधसे तापसी जीवनको कलुषित कर गुणसेनसे बदला लेनेका संकल्प करता है। यहाँसे गुणसेनके चरित्रमें आरोहण और अग्निशर्माके चरित्रमें अवरोहणकी स्थिति उत्पन्न हो जाती है। चरित्रोंके बिरोधमूलक तुलनात्मक विकासका यह क्रम कथामें अत्यन्त मनोवैज्ञानिक ढंगसे नियोजित हुआ है।
चरित्र-स्थापत्यका उज्ज्वल निदर्शन अग्निशर्माका चरित्र है। अतः अग्निशर्माका तीन बार भोजनके आमन्त्रण में भोजन न मिलनेपर शान्त रह जाना, उसे साधु अवश्य बनाता । वह परलोकका श्रेष्ठ अधिकारी होता, पर उसे उत्तेजित दिखलाये बिना कथामें उपचार वक्रता नहीं आ सकती थी। कथामें काव्यत्वका संयोजन करने के लिए उसमें प्रतिशोधकी भावनाका उत्पन्न करना नितान्त आवश्यक था। साधारण स्वरका मानव जो मात्र सम्मानकी आकांक्षासे तपस्वी बनता है, तपस्वी होनेपर भी पूर्व विरोधियों के प्रतिशोधकी
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भावना निहित रहती है। उसका उत्तेजित होना और प्रतिशोधके लिए संकल्प कर लेना उसके चारित्रगत गुण ही माने जाएंगे।
द्वितीयादि सभी भवोंमें कथानक और उसका विन्यास ऋजुरूपमें हआ है। कथाका कार्य एक विशेष प्रकारका रसबोध कराना माना जाय, तो यह कथा जीवनके यथार्थ स्वाभाविक पहलुओंके चित्रण द्वारा हमें विश्वासयुक्त रसग्रहणकी सामग्री देनी है। द्वितीय भवकी कथाका प्रारम्भ प्रेम प्रसंगकी गोपनीय मुद्रासे होता है । इस सम्पूर्ण कथा भागमें 'अहं' भावका सम्यक चित्रण किया गया है। अन्तर्कथाके रूपमें अमरगुप्त आदिकी कथाएं भी आई हैं ।
तृतीय भवमें ज्वालिनी और शिखीकी कथाके प्रेरणा और पिण्ड भाव मूलतः जीवके उसी धातु विपर्यय और निदानके चलते हैं, जो इन धार्मिक कथाओंमें सर्वत्र अनुस्यूत है । मध्यकी कथा अजितकी है जो इसी मर्मकी घटनाओंकी परिपाटीके द्वारा उद्धारित करती है। कथा इस मर्मसे प्रकाशित होकर पुनः वापस लौट आती है और आगे बढ़ती है। आगे बढ़नेपर विरोधके तत्त्व आते हैं । और इस तरह गल्प-वृक्षके मूलसे लेकर स्कन्ध और शाखाओं तकके अन्तर्द्वन्द्वका फिर शमन होता है ।
चतुर्थ भवमें धन और धनश्रीकी कथा है। इसका आरम्भ गाहस्थिक जीवनके रम्य-दृश्यसे होता है । कथा-नायक धनका जन्म होता है और वयस्क होने पर अपने पूर्व भवके संस्कारोंसे आबद्ध धनश्रीको देखते ही वह उसे अपना प्रणय अपित कर देता है। धनश्री निदान कालुष्यके कारण अकारण ही उससे द्वेष करने लगती है। कथाकारने इस प्रकार एक ओर विशुद्ध आकर्षण और दूसरी ओर विशुद्ध विकर्षणका द्वन्द्व दिखलाकर कथाका विकास द्वन्द्वात्मक गतिसे दिखलाया है।
पञ्चम भवमें जय और विजयकी कथा अंकित है। इस भवकी कथामें मूल कथाकी अपेक्षा अवान्तर कथा अधिक विस्तृत है। सनतकुमारकी अवान्तर कथाने ही मूल कथाका स्थान ले लिया है। प्रेम, घृणा, द्वेष आदिकी अभिव्यञ्जना अत्यन्त सफल है। काव्यकी दृष्टिसे इस भवकी कथावस्तुमें शृंगार और करुण रसका समावेश बहुत ही सुन्दर रूपमें हुआ है।
षष्ठ भवमें धरण और लक्ष्मीकी कथा वर्णित है । गुणसेनकी आत्मा धरणके रूपमें और अग्निशर्माकी लक्ष्मीके रूपमें जन्म ग्रहण करती है। घटना बहुलता, कुतुहल और नाटकीय क्रम-विकासकी दृष्टिसे यह कथा बड़ी रोचक और आह्लादजनक है। कथाकी वास्तविक रञ्जन क्षमता उसके कथानक गुफनमें है। स्वाभाविकता और प्रभावान्विति इस कथाके विशेष गुण हैं। पात्रोंमें गति और चारित्रिक चेतनाका सहज समन्वय इसकी जोरदार कथा-विद्याको प्रमाणित करता है। घटनाओंकी सम्बद्ध शृङ्खला और स्वाभाविक क्रमसे उनका ठीक-ठीक निर्वाह घटनाओंके माध्नमसे नाना भावोंका रसात्मक अनुभव कराने वाले प्रसंगोंका समावेश इस कथाको घटना, चरित्र, भाव और उद्देश्यकी एकता प्रदान करता है ।
सप्तम भवमें सेन और विष्णुकुमारकी कथा निबद्ध है। उत्थानिकाके पश्चात् कथाका प्रारम्भ एक आश्चर्य और कौतूहलजनक घटनासे होता है। चित्रखचित मयरका अपने रंग-बिरंगे पांव फैलाकर नत्य करने लगना और मूल्यवान हारका उगलना, अत्यन्त आश्चर्यचकित करनेवाली घटना है। हरिभद्रने प्रबन्धवक्रताका समावेश इस भवकी कथामें किया है। गुणसेनका जीवसेनकुमार, उत्तरोत्तर पूतात्मा होता जाता है। और अग्निशर्माका जीव विषेणकुमार उत्तरोत्तर कलुषित कर्म करनेके कारण दुर्गतिका पात्र बनता जाता है।
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इस प्रकार गुणसेनकी आत्माका पर्याप्त शुद्धीकरण हो जाता है। प्रतिद्वन्द्वी अग्निशर्मा वानमन्तर नामका विद्याधर होता है। और गुणसेन गुणचन्द्र नामका राजपुत्र । प्रथम भवकी कथामें जिन प्रवृत्तियोंका विकास प्रारम्भ हुआ था वे प्रवृत्तियाँ इस अष्टम भवकी कथामें क्रमशः पूर्णताकी ओर बढ़ती हैं। नवम भवकी कथा प्रवृत्ति और निवृत्तिके द्वन्द्वको कया है। समरादित्यका जहाँ तक चरित्र हैं, वहाँ तक संसार निवृत्ति है । और गिरिषेणका जहाँ तक चरित्र है, संसारको प्रवृत्ति है। समरादित्यका चरित्र वह सरल रेखा है, जिसपर समाधि, ध्यान और भावनाका त्रिभुज निर्मित किया जाता है। गिरिषेणका चरित्र वह पाषाण स्थल है, जिसपर शत्रुता, अकारण ईर्ष्या, हिंसा, प्रतिशोध, और निदानकी शिलाएँ खचित होकर पर्वतका गुरुतर रूप प्रदान करती हैं। इस प्रकार हरिभद्रने कथा, उपकथा और अवान्तर कथाके संघटन द्वारा अपने कथातन्त्रको सशक्त बनाया है। चारत्र, काव्य-रस और कथा-तत्त्वका अपूर्व संयोजन हुआ है।
भारतीय व्यंग्य काव्यका अनुपम रत्न धूख्यिान है। मानव में जो बिम्ब या प्रतिमाएँ सन्निहित रहती है, उन्हींके आधारपर वह अपने आराध्य या उपास्य, देवी देवताओंके स्वरूप गढ़ता है। इन निर्धारित स्वरूपोंको अभिव्यञ्जना देनेके लिए पुराण एवं निजन्धरी कथाओंका सुजन होता है।
हरिभद्रने अपने इस कथा काव्यमें पुराणों और रामायण, महाभारत, जैसे महाकाव्योंमें पायी जाने वाली असंख्य कथाओं और दन्तकथाओंकी अप्राकृतिक, अवैज्ञानिक और अबौद्धिक मान्यताओं तथा प्रवृत्तियोंका कथाके माध्यमसे निराकरण किया है। वास्तविकता यह है कि असम्भव और दुर्घट बातोंकी कल्पनाएं जीवनकी भख नहीं मिटा सकती है। सांस्कृतिक क्षधाको शान्ति के लिए सम्भव और तर्कपर्ण विचार ही उपयोगी होते हैं । अतएव हरिभद्र ने व्यंग्य और सुझावोंके माध्यमसे असंभव और मनगढन्त बातोंको त्याग करनेका संकेत दिया है । कृतिका कथानक सरल है । पाँच धूर्तों की कथा गुम्फित है। प्रत्येक धूर्त, असंभव अबौद्धिक और काल्पनिक कथा कहता है, जिसका समर्थन दूसरा धूर्त साथी पौराणिक उदाहरणों द्वारा करता है । कथाओंमें आदिसे अन्त तक कुतूहल और व्यंग व्याप्त है।
हरिभद्र लघुकथाकार भी है। व्यक्तिके मानसमें नाना प्रकारके बिम्ब-इमेज रहते हैं। इनमें कुछ व्यंग्योंके आत्मगत बिम्ब भी होते हैं जो घटनाओं द्वारा बाहर व्यक्त होते हैं। प्रेम, क्रोध, घृणा, आदिके निश्चित बिम्ब हमारे मानसमें विद्यमान है। हम इन्हें भाषाके रूपमें जब बाहर प्रकट करते हैं तो ये बिम्ब लघुकथा बनकर प्रकट होते है । कलाकार उक्त प्रक्रिया द्वारा ही लघुकथाओंका निर्माण करता है। इसके लिये उसे कल्पना, सतर्कता, वास्तविक निरीक्षण, अभिप्राय ग्रहण, एवं मौलिक सृजनात्मक शक्तिकी आवश्यकता होती है । वस्तुतः हरिभद्र ऐसे कथाकार हैं जिन्होंने बृहत् कथा-काव्योंके साथ-साथ लधु-कथाओंका भी निर्माण किया है । जीवन और जगत्से घटनाएँ एवं परिस्थितियाँ चुनकर अद्भुत शिल्पका प्रदर्शन किया है । हरिभद्रकी शताधिक लघु-कथाओंको मानव प्रवृत्तियों के आधारपर निम्नलिखित वर्गोंमें विभक्त किया जा सकता है। ये कथाएँ 'दशवकालिक वृत्ति' और 'उपदेश पद' में पायी जाती है-..
१. कार्य और घटना प्रधान, २. चरित्र प्रधान, ३. भावना और वृत्ति प्रधान, ४. व्यंग्य-प्रधान, द्धि-चमत्कार प्रधान. ६. प्रतीकात्मक. ७. मनोरंजनात्मक, ८. नीति या उपदेशात्मक, ९. सौन्दर्य बोधक. १०. प्रेम-मूलक,
इस प्रकार हरिभद्र राजस्थानके ऐसे कथा-काव्यनिर्माता हैं, जिनसे कथा-काव्यके नये युगका आरम्भ होता है। इस युगको हम संघात युग कह सकते हैं। हरिभद्रने कथाओंके संभार और संगठनमें एक नयी दिशा
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उपस्थित की है। शिल्प और कथ्य दोनों ही दृष्टियोंसे वे महनीय हैं। उनके पद-चिह्नोंका अनुसरण कुवलयमाला, सुरसुन्दरी चरियं, निर्वाणलीलावती आदिमें पाया जाता है। अतएव हम हरिभद्रको युग-संस्थापक युगप्रवर्तक कथा-काव्यनिर्माता मान सकते हैं। वस्तुतः वे बहुमुखी प्रतिभावान् कथारस और काव्य रसकी संगम प्रधान रचनाओंके लेखक हैं। इसे हम राजस्थानका सौभाग्य ही मानेंगे कि उसने बाणभट्टकी समकक्षता करने वाला अद्भुत कथा-काव्य निर्माता उत्पन्न किया । मैं हरिभद्रके चरण-चिह्नोंसे पवित्र हुई महाराणा प्रतापकी वीर भूमि राजस्थानको शत-शत प्रणाम करता हूँ।
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तथाकथित हरिवंसचरियंकी विमलसूरिकर्तृता : एक प्रश्न
(स्व०) डॉ० गुलाबचन्द्र चौधरी इस शताब्दीके प्रारम्भमें विमलसूरि कृत प्राकृत पौराणिक महाकाव्य पउमचरियंका सम्पादन प्रसिद्ध जर्मन विद्वान् हर्मन याकोवीने किया था जिसका प्रकाशन सन् १९१४ में भावनगरसे हुआ था। तबसे लगभग २८ वर्षों के बाद उक्त कृति और रविषेणके संस्कृत पद्मचरित (पद्मपुराण) के बीच तुलनात्मक अध्ययनके फल प्रकाशमें आये। सन् १९४२ की अनेकान्त पत्रिका, वर्ष ५ के अंक १-२ में स्व० पं० नाथूराम प्रेमीने "पदमचरितं और पउमचरियं" लेख तथा उक्त वर्ष के १०-११वें अंकोंमें पं० परमानन्द शास्त्रीने 'पउमचरियंका अन्तःपरीक्षण' नामक लेख लिखे । प्रेमीजीने अपने उक्त लेखको सन् १९४२ में प्रकाशित अपनी कृति 'जैन साहित्य और इतिहास' में भी प्रकाशित किया। इन लेखोंमें पउमचरियं और पद्मचरितके बीच साम्य और वैषम्यपर ऊहापोह किया गया है। परन्तु विमलसूरिने कोई और ग्रन्थ लिखे थे उसपर प्रकाश नहीं डाला गया। "जैन साहित्य और इतिहास के प्रथम संस्करण (१९४२)में एक स्थल (पृ० ५२०) पर प्रेमीजीने प्रश्नोत्तरमालिकाके कर्ता किसी विमलसूरिके होनेकी सम्भावनाका खण्डन किया है पर उसी ग्रन्थके परिशिष्टमें दो छोटे पैराग्राफों द्वारा उद्योतन सूरि कृत तब अप्रकाशित कृति "कुवलयमाला" (शक सं० ७००) की प्रस्तावना गत एक गाथा
बुहयणसहस्सदइयं हरिवंसुप्पत्तिकारयं पढमं ।
वंदामि वंदियं पि हु हरिवंसं चेव विमलपयं ॥ के आधारसे (उस गाथाके पाठकी बिना परीक्षा किये और उस गाथाकी स्थिति और सन्दर्भका बिना विचार किये) सम्भावना की कि बिमलसूरि कृत "हरिवंश चरियं" होना चाहिए और लिखा कि "विमलसुरिका वह हरिवंश अभी तक कहीं प्राप्त नहीं हुआ है, इसके प्राप्त होनेपर जिनसेनके हरिवंशका मूल क्या है इसपर कुछ प्रकाश पड़नेकी सम्भावना है और सम्भव है पद्मपुराणके समान वह भी विमलसूरिके हरिवंशकी छाया लेकर बनाया गया हो"।
उस समय वयोवृद्ध साहित्यिक प्रेमीजीकी उक्त सम्भावनाको किसीने चुनौती नहीं दी, बल्कि उनके अनुसरण और समर्थनमें ही सन् १९६६ तक कलमें चलती रहीं और सम्भवतः अब भी चल रही हों।
डॉ० ज्योतिप्रसाद जैनने सन् १९५७ से पूर्व लिखे अपने एक लेख-"विमलार्य और पउमचरियं"१ में और सम्भवतः उससे पूर्व लिखे अपने शोध प्रबन्ध-Studies in the Jain sources of the History of Ancient India' में उक्त सम्भावनाकी पुष्टिके साथ कुछ वकालत की है। उनका कहना है कि "कुवलयमाला"की गाथाके अनुसार विमलार्य न केवल अपने विमलांक काव्य (पउमचरियं)के रचयिता थे, वरन् सर्वप्रथम हरिवंश पुराणके भी रचयिता थे। उक्त पउमचरियंकी प्रशस्तिके "सोऊण पुन्वगए नारायणसीरिचरियाई" शब्दोंसे भी यही ध्वनित होता है कि विमलार्यने श्री नारायणके चरित (अर्थात कृष्ण
१. श्री विजय राजेन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ पृ० ४३७-४५१ । १७८ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ
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चरित या हरिवंश) की रचना पउमचरियसे भी पहले कर ली थी।" वे आगे चलकर लिखते हैं कि उद्योतन सूरिके समकालीन अपभ्रंश भाषाके महाकवि स्वयम्भू (लगभग ७७५-७९५) ने भी विमलार्यका एक प्राचीन कविके रूपमें स्मरण किया है। रविषेणका भी स्मरण किया है किन्तु विमलके पश्चाद् सम्भव है कि जिस प्रकार स्वयम्भूकी रामायण विमलके पउमचरियंपर आधारित है, उसी प्रकार उनका "रिटणेमिचरिउ" (हरिवंश) भी विमलके हरिवंशपर आधारित हो और क्या आश्चर्य कि पुन्नाटके जिनसेनके हरिवंश (७८३ ई०) का आधार भी विमलार्यका ही ग्रन्थ हो।"
डॉ. ज्योतिप्रसाद जैनकी उक्त वकालतका खण्डन पउमचरियकी अंग्रेजी प्रस्तावनाके लेखक डॉ० व्ही० एम० कुलकर्णीने अच्छी तरह किया है। वे लिखते हैं कि "The word सीरि in the verse "सोउणं पुव्वगए नारायणसीरिचरियाई" is misunderstood by Dr.J. P. Jain. The word if is an equivalent of Sanskrit af and stands for Baladeva or Haladhara, the elder brother of Narayana (or Vasudeva). Thus in the present content Narayana and Siri stand for Laksmana and Rama. It is quite clear that he has entirely misunderstood the whole point. Here Vimala Suri points only to the trustworthiness of the source of his Paumacariya. His statement that Svayambhu pays? homage first to fast (as an ancient poet) and then to fago is open to doubt, The name farefi is nowhere mentioned in the passage concerned. If he has in mind the identity of विमलसूरि and कीर्तिधर the अनुत्तरवाग्मिन् he should have made the point explicit and given his reasons for the identification”
स्व. पं० प्रेमीने जिस समय (सन् १९४२ के लगभग) विमलसूरिके हरिवंश कर्तृत्वकी सम्भावना जिस उपरिनिर्दिष्ट गाथाके आधारसे की थी उन दिनों मुनि जिनविजयजी द्वारा कुवलयमालाके सम्पादन
और प्रकाशनका उपक्रम चल रहा था। मुनिजीके समक्ष सन् १९४२ के मध्य तक कुवलयमालाको कागजपर लिखी एकमात्र हस्तलिखित प्रति थी जिसका समय १५वीं शताब्दीके लगभग माना गया है। उस प्रतिमें प्रस्तावनाकी अनेक गाथाओं (२७-४४ तक) में उद्योतनसूरिने अनेक जैन (श्वेता०-दिग०) और जैनेतर कवियों और उनकी कृतियोंका आदर पूर्वक स्मरण किया है। सन् १९४२ से पूर्व उनमेंसे कुछ कवियों और रचनाओंपर विद्वानोंने विचार भी किया है। यहाँ वह सब देना सम्भव नहीं। केवल उन दो गाथाओंपर विचार किया जावेगा जिनसे कि विमलसूरिके हरिवंश कर्तृत्वकी सम्भावना की गई है। एक गाथा, जिसकी संख्या ३६ बतलायी गई है, द्वारा कहा गया है कि "विमलांकने जैसा विमल अर्थ प्राप्त किया वैसा कौन पायेगा, उसकी प्राकृत रससे सरस मानों अमृतमयी हो। इसमें विमलांक पद द्वारा पउमचरियंका स्मरण प्रतीत होता है।' इसके बादकी गाथामें
(तिपुरिसचरियपसिद्धो सुपुरुषचरिएण पायडो लोए। सो जयइ देवगुत्तो वंसे गुत्ताण रायरिसी)
राजर्षि देवगुप्तको सुपुरुषचरितके कर्ताके रूपमें स्मरण किया गया है। इन देवगुप्तका कुवलयमालामें दो स्थानों पर उल्लेख किया गया है और इन्हें हूण नरेश तोरमाणका गुरु माना गया है। इसके बाद वह
१. डॉ० हरि० चु० भयाणीने स्वयम्भूका समय दशवीं शताब्दी बताया है। २. पुणु पहवें संसाराराएं, कित्तिहरेण अणुत्तरवाएं। पुणु रविसेणायरियपसाएं, बुहिए अवगाहिय कडुराए ॥ (पउमचरिउ, ११८)
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गाथा "बुहयणसहस्सदयियं" आदि आती है। स्व० प्रेमीजीने इसका अर्थ किया है "मैं हजारों बधजनों को प्रिय हरिवंशोत्पत्तिकारक प्रथम वन्दनीय और विमलपद हरिवंश की वन्दना करता हूँ' । इसके बाद ही वे अनुमान करते हैं कि इस गाथामें जो विशेषण दिये गये हैं वे हरिवंश और विमल पद (विमलसूरिके चरण अथवा विमल हैं पद जिसके ऐसा ग्रन्थ ) दोनों पर घटित होते हैं और निष्कर्ष निकाल बैठते हैं कि विमलसूरि कृत एक हरिवंश काव्य है । जो अभी तक अप्राप्य है ।
उस प्रारंभिक स्थितिमें जब कि कुवलयमालाको एकमात्र प्रति उपलब्ध थी, उक्त पाठको चुनौती देना संभव नहीं था पर उक्त गाथाको स्थितिको देखते हए अर्थ निकालनेकी संभावनाको चुनौती दी जा सकती थी। प्रस्तावनागत गाथाओंके क्रमको एक बार हम पुनः देखें तो सहज ही समझ सकते हैं कि विमलांकको स्मरण करने वाली गाथा (मं० ३६)के साथ "बुहयणसहस्सदयियं-हरिवंसं चेव विमलपदं" वाली गाथाका क्रम नहीं दिया गया । उन दोनोंके बीच राषि देवगुप्त वाली गाथा आती है। यदि कुवलयमालाकारको हरिवंशचरियंके कर्ताके रूपमें विमलसूरि ईष्ट थे तो विमलांकके क्रममें ही इस बातका उल्लेख होना था। इससे विमलपयंकी पुनरावृत्ति न करना पड़ता पर वैसा न कर उसका उल्लेख एक गाथाके बाद किया है। इस तरह अन्तरसे दी गई गाथामें "हरिवंश चेव विमलपयंसे विमलसूरिकृत हरिवंशका अर्थ निकालना उचित नहीं । यह निष्कर्ष क्रमिक उल्लेखसे ही संभव था न कि व्यतिक्रम द्वारा। व्यतिक्रम द्वारा उल्लेखसे तो यह सिद्ध होता है कि हरिवंशचरियं विमलसूरिकी कृति नहीं, किसी औरकी है।
गाथाके अर्थको खींच-तानकर की गई संभावनाने कालान्तरमें कैसे तिलका ताड़ रूप धारण कर लिया था यह हम देख चुके हैं। और उससे चल पड़ी अन्ध परम्पराका निराकरण समय रहते होना चाहिये ।
सौभाग्यसे सन् १९४२के अन्त में कुवलयमालाकी एक अन्य प्रति जैसलमेरके बहद भण्डारसे मुनि जिनविजयजी को ताड़पत्रपर लिखी मिली जिसका लेखनकाल सं० ११३९ था । पूर्व कागजवाली १५वीं शता०की प्रतिके आधारपर डॉ० उपाध्येने कुवलयमालाका एक प्रामाणिक संस्करण तैयार किया जिसका मुद्रण कार्य सन् १९५०-५१से प्रारंभ हो १९५९में प्रथम भाग मूलकथा ग्रन्थके रूपमें प्रकाशित हुआ। डॉ० उपाध्येने कागज पर लिखी प्रतिसे ताड़पत्रीय प्रतिको कई कारणोंसे अधिक प्रामाणिक माना है, और प्रस्तावना गत “बुहजन सहस्सदयियं" गाथाके 'हरिवंसं चेव विमलपयं'की जगह ताडपत्रीय प्रतिके आधारपर "हरिवरिसं चेव विमलपयं" पाठ निर्धारित किया है। डॉ० उपाध्येने "हरिवंसं चेव" पदको पूर्व चरणके पद ( हरिवंसुप्पत्तिकारकं )की पुनरावृत्तिके कारण अर्थमें बाधा उपस्थित करने वाला होनेसे त्याज्य बतलाया है और प्राचीन प्रतिके पाठको मान्यकर उक्त गाथाका अर्थ किया है-मैं सहस्र बुधजनके प्रिय तथा हरिवंशोत्पत्तिके प्रथम कारक, यथार्थमें पूज्य (वन्द्यमपि) हरिवर्षको उनके विमल पदों (अभिव्यक्ति के लिए वन्दना करता है। इससे तो विमलसूरिका हरिवंश कर्तृत्व एकदम निरस्त्र हो जाता है। डॉ० उपाध्येने कुवलयमाला द्वितीय भागके टिप्पणोंमें लिखा है कि उन्होंने इस सम्बन्धमें पं० प्रेमीजीसे उनके जीवनकालमें ही बात की थी और वे उक्त संभावनाको बदलनेके पक्षमें थे परन्तु १९५६में प्रकाशित जैन साहित्य और इतिहासके द्वितीय संस्करणमें अपने वार्धक्यके कारण वे वैसा न कर सके । डॉ. उपाध्येने संभवतः १९५३के पूर्व उनसे यह बात की होगी क्यों कि तब तक कुवलयमालाके प्रारंभिक फर्मे छप चुके थे। उक्त द्वितीय संस्करणमें डॉ० उपाध्येने अपनी अंग्रेजी प्रस्तावना लिखी है पर आश्चर्य कि वे उक्त संभावनाका वहाँ कुछ खण्डन भी नहीं कर सके।
कुवलयमालाके प्रथम भागके प्रकाशित हो जाने के बाद भी कुछ विद्वानोंने अपनी विद्वत्तापूर्ण प्रस्ताव
१. पृष्ठ १२६ । १८० : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ
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नाओंमें गतानुगतिकताका ही परिचय दिया है (जैसे डॉ० व्ही० एम० कुलकर्णीने पदुम चरियंकी अंग्रेजी प्रस्तावना पृ० १७-१८में और पं० अमृतलाल भोजकने चउप्पन्नपुरिस चरियंकी प्रस्तावना पृ० ४६७ में) और उक्त संभावनाकी बीन बजायी है।
इस तरह विचार करनेसे विमलसूरिका हरिवंश कर्तत्व सिद्ध नहीं होता। बल्कि हरिवंशके उल्लिखित कर्ता एक हरिवर्ष ही सिद्ध होते हैं।
उद्योतनसूरि द्वारा उल्लिखित पूर्ववर्ती कवियों और रचनाओंने कुवलयमालापर अपना प्रभाव डाला था, इस बातका दिग्दर्शन डॉ० उपाध्येने 'Kuvalayamala influenced by earlier works'-प्रकरणमें दिखाया है उसमें उनने परवर्ती रचना तरंगलोलासे मिलानकर उसकी आधारभूत "तरंगवती कथाका" प्रभाव भी दिखाया है तथा बाणकी ‘कादम्बरी', विमूलसूरिके “पदुमचरियं' जटिलके “वरांग चरित" तथा हरिभद्रसूरि कृत "समरादित्य कथा" का प्रभाव कुवलयमालापर दिखाया है। यदि हरिवर्ष कृत 'हरिवंश चरियं' उद्योतन सूरिके समयमें विद्यमान था तो उसका भी प्रभाव कुवलयमालापर और कुवलयमालाके रचना क्षेत्र जालौरके पड़ोस बढ़वानामें ५ वर्ष बाद रचित जिनसेनके हरिवंशपुराणपर भी अवश्य पड़ा होगा। कुवलयमालापर उस प्रभावकी परवर्ती रचना जिनसेनके हरिवंशसे कतिपय अंशों या विवरणोंको मिलान कर यदि दिखाया जा सके तो हरिवर्षका अनुपलब्ध हरिवंश कैसा क्या था यह अनुमान लयाया जा सकता है और जिनसेनका मूल क्या था इसपर प्रकाश पड़ सकता है। दिग० सम्प्रदाय मान्य जिनसेन रचित हरिवंश पुराण एक विशिष्ट कृति है। इसमें प्रतिकूल कुछ बातें दी गई हैं जैसे महावीरके विवाह का संकेत, नारदकी मुक्ति तथा सम्यग्दृष्टि कृष्ण द्वारा लोकमें अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिये मिथ्या मूतिके निर्माणकी प्रेरणा । इसलिए इसके मलका पता लगाना आवश्यक है । कुवलयमालामें उल्लिखित हरिवर्ष कृत हरिवंश संस्कृत और प्राकृत या किसी भाषामें हो सकता है क्यों कि उद्योतनसूरिने संस्कृत और प्राकृतके कबियोंका समान भावसे स्मरण किया है । इसलिये उसे प्राकृतकी रचना होना आवश्यक नहीं है ।
१. पृष्ठ-८६-९१ । २. The tradition of Mahavir not having married is found in the स्थानांग समवायांग
and haat texts the other tradition of his having married is well known since the days of kalpasutra. D.D.M. स्थानांग अने सूत्रकृतांग p. 330.
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महाकवि रइधूकी एक अप्रकाशित सचित्र कृति 'पासणाहचरिउ'
प्रो० डॉ० राजाराम जैन १९वीं सदीके प्रारम्भसे ही भारतीय आचार, दर्शन, इतिहास एवं संस्कृतिके सर्वेक्षण-प्रसंगोंमें तीर्थङ्कर पार्वका व्यक्तित्व बहुचर्चित रहा है। पाश्चात्त्य विद्वानोंमें कोल्ब्रुक, स्टीवेंसन, एडवर्डटॉमस, शापंटियर, गेरिनो, इलियट, पुसिन, याकोबी, एवं ब्लूमफील्ड तथा भारतीय विद्वानोंमेंसे डॉ० भंडारकर, बेल्वेल्कर, डॉ० दासगुप्ता, कोसम्बी एवं डॉ. राधाकृष्णन प्रभृति विद्वानोंने उन्हें सप्रमाण ऐतिहासिक महापुरुष सिद्ध किया है तथा उनके महान् कार्यों का मूल्यांकन करते हुए उनके सार्वभौमिक रूपका विशद विवेचन भी किया है। प्राचीन भारतीय जैनेतर साहित्य एवं कलामें भी वे किसी न किसी रूप में चर्चित रहे हैं। जैन कवियोंने भी विभिन्न कालोंकी, विभिन्न भाषा एवं शैलियोंमें अपने विविध ग्रन्थोंके नायकके रूपमें उनके सर्वाङ्गीण जीवनका सुन्दर विवेचन किया है। इसी पूर्ववर्ती साहित्य एवं कलाको आधार मानकर मध्यकालीन महाकवि रइधूने भी गोपाचलके दुर्गके विशाल, सुशान्त एवं सांस्कृतिक प्राङ्गणमें बैठकर 'पासणाहचरिउ' नामक एक सुन्दर काव्यग्रन्थ सन्धिकालीन अपभ्रंश-भाषामें निबद्ध किया था, जो अभी तक अप्रकाशित है । उसकी एक प्रति दिल्लीके श्री श्वेताम्बर जैन शास्त्र भण्डारमें सुरक्षित है। उसीके अध्ययनके निष्कर्ष रूपमें उसका संक्षिप्त परिचय यहाँ प्रस्तुत कर रहा है।
उक्त 'पासणाह चरिउ' महाकवि रइधूकी अन्य रचनाओंकी अपेक्षा एक अधिक प्रौढ़ साहित्यिक रचना है। स्वयं कविने ही इसे 'काव्य रसायन'की संज्ञासे अभिहित किया है। ग्रन्थ-विस्तारकी दृष्टिसे इसमें कुल ७७ x २ पृष्ठ है तथा ७ सन्धियाँ एवं १३६ कड़वक हैं। इनके साथ ही इसमें मिश्रित संस्कृतभाषा निबद्ध ५ मङ्गल श्लोक भी है। प्रथम एवं अन्तिम सन्धियोंमें ग्रन्थकारने अपने आश्रयदाता, समकालीन भट्टारक एवं राजाओंका विस्तृत परिचय देते हुए तत्कालीन सामाजिक, धार्मिक एवं ऐतिहासिक परिस्थितियोंकी भी सरस चर्चाएं की हैं। अवशिष्ट सन्धियोंमें पार्श्व प्रभुके सभी कल्याणकोंका सुन्दर वर्णन किया गया है और प्रसंगवश स्थान-स्थानपर चित्रों द्वारा ग्रन्थकारकी भावनाको गहन बनानेके लिए चित्रोंका माध्यम भी अपनाया गया है। प्रति प्राचीन होनेके कारण जीर्ण-शीर्ण होनेकी स्थितिमें आ रही है। इसके प्रति पृष्ठमें ११-११ पंक्तियाँ एवं प्रति पंक्तिमें लगभग १४-१६ शब्द हैं। कृष्णवर्णकी स्याहीका इसमें प्रयोग किया गया है। किन्तु पुष्पिकाओंमें लाल स्याहीका प्रयोग हुआ है और संशोधन या सूचक चिन्हके रूपमें कहीं-कहीं शुभ्र वर्णकी स्याहीका भी प्रयोग हुआ है। रइधकृत 'पासणाह चरिउ' की अन्य प्रतियाँ जयपुर, ब्यावर एवं आराके शास्त्र-भण्डारोंमें भी मुझे देखनेका सौभाग्य प्राप्त हआ है। किन्तु प्रस्तुत प्रतिकी जो कुछ विशेषताएँ एवं नवीन उपलब्धियाँ हैं वे निम्न प्रकार है :
१. प्राचीनता, २. प्रामाणिकता, ३. पूर्णता, ४. सचित्रता एवं ५. ऐतिहासिकता,
१. उक्त प्रतिके सम्बन्धमें मुझे सर्वप्रथम श्रद्धेय बाबू अगरचन्द्रजी नाहटा सिद्धान्ताचार्यने सूचना दी थी।
उनकी इस सौजन्यपूर्ण उदारताके लिए लेखक उनका आभारी है । १८२ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ
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प्राचीनता एवं प्रामाणिकता
विविध अन्तर्बाह्य साक्ष्योंके आधारपर मैंने महाकवि रइधका समय वि० सं० १४४०-१५३० के मध्य माना है । स्वयं कविद्वारा लिपिबद्ध अभीतक कोई भी रचना हमारे लिए हस्तगत नहीं हो सकी थी तथा उनके ग्रन्थोंकी प्रतिलिपियाँ भी प्रायः वि० सं० १५४८ के बाद ही की उपलब्ध होती हैं, इसके पूर्व की नहीं। किन्तु प्रस्तुत रचना इन सबके अपवाद स्वरूप ही उपलब्ध हुई है और लिपिकालकी दृष्टि से रइधूसाहित्यकी यह प्राचीन प्रतिलिपि सिद्ध होती है। इसकी पुष्पिकामें इसका प्रतिलिपि काल वि० सं० १४९८ माघवदी २, सोमवार अंकित है। इसके पाठ शुद्ध एवं लिपि सुस्पष्ट है। इसकी हस्तलिपि एवं स्याहीकी एकरूपता, लिपिकारकी सुबद्धता एवं साहित्यके प्रति उसकी आस्थापूर्ण अभिरुचि, ग्रन्थकारके जीवनकालमें ही किंवा उसके समक्ष ही अथवा निर्देशनमें लिपिबद्ध किये जाने तथा ग्रन्थकारके आश्रयदाताके धर्मनिष्ठ सुपुत्रकी ओरसे इस ग्रन्थको प्रतिलिपिको आयोजना होने के कारण इस ग्रन्थकी प्रामाणिकतामें किसी भी प्रकारके सन्देहकी स्थिति नहीं रह जाती। पूर्णता
प्राचीन हस्तलिखित ग्रन्थोंके साथ कई घोर दुर्भाग्योंमेंसे एक महान दुर्भाग्य यह भी रहा है कि वे प्राय: अपूर्ण रूपमें उपलब्ध होते हैं। कुछ साहित्यिक-द्रोही, अवसर पाते ही उनके प्रथम एवं अन्तिम या कुछ मर्मस्थलों वाले पृष्ठोंको नष्ट-भ्रष्ट, अपहृत या उनका वाणिज्य करके ग्रन्थराजके सारे महत्त्वको समाप्त कर देते हैं। फिर सचित्र ग्रन्थोंके साथ तो यह द्रोह और भी अधिक रहा है। अभिमानमेरु पुष्पदन्त कृत जसहरचरिउ, महाकवि रइधूकृत जसहरचरिउ आदि ग्रन्थ इसके ज्वलन्त उदाहरण हैं किन्तु प्रस्तुत प्रति सौभाग्यसे पूर्णरूपमें सुरक्षित है। अत: चित्रकला और विशेषतः जैन चित्रकलापर ऐतिहासिक प्रकाश डालने वाली इस प्रतिको परिपूर्णता स्वयंमें ही एक महान् उपलब्धि है। सचित्रता
प्रस्तुत ग्रन्थकी सबसे प्रमुख विशेषता इसकी सचित्रता है। सम्पर्ण ग्रन्थमें कुल मिलाकर ६४ चित्र हैं, कुछ तिरंगे, कुछ चौरंगे एवं कुछ बहुरंगे। इन चित्रोंका निरीक्षण करनेसे यह स्पष्ट प्रतिभासित होता है कि लिपिकारने लिपि करते समय पृष्ठोंपर यत्र-तत्र आवश्यकतानुसार चौकोर स्थान छोड़ दिये हैं, जिनपर चित्रकारने अपनी सुविधानुसार प्रसंगवश लघु अथवा विशाल चित्रोंका अंकन किया है। इन चित्रोंको अलंकृत बनाने का प्रयास स्पष्टरूपसे दिखाई पड़ता है। पुरुषाकृतियोंका अंकन करते समय उनके केशपाशोंको एक विचित्र पद्धतिसे पृष्ठ भागकी ओर मोड़कर बनाया गया है। दाढ़ी एवं मूंछ ऐसी प्रतीत होती है कि मानों कोई कूँची चिपका दी गई हो। नेत्र अधिक विस्तृत एवं बाहरकी ओर इस प्रकार उभरे है, जैसे उन्हें अलगसे जड़ दिया गया हो । नाक बड़ी नुकीली, टुनगे वाली तथा नीचेकी ओर झुकी हुई है । ठुड्डी आमकी गुठलीके सदृश, ग्रीवा वलियों युक्त एवं इठी हुई, हाथों एवं पैरोंकी अँगुलियाँ कुछ बेडौल तथा ऐसी प्रतीत होती है, जैसे कपड़ोंकी बत्तियाँ मढ़ दी गई हों। वक्ष स्थल इतना अधिक उभारा गया है कि वह कभी-कभी महिलाके वक्षस्थलका भ्रम पैदा कराने लगता है। वस्त्रोंमें कहीं कभी अंगरखा भी अंकित किया हआ मिलता है, वैसे इनके शरीरपर वस्त्रोंकी संख्या अत्यल्प है-एक उत्तरीय एवं एक अधोवस्त्र ।
१. दे० मूलप्रति पृष्ठ ७६.
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उत्तरीय वस्त्रका छोर पार्श्वमें अथवा पीछे की ओर फहराता हुआ अंकित है । मोटे किनारेवाले अधोवस्त्रको चुन्नट देकर पहिना हुआ दिखाया गया है । ये सभी वस्त्र कुछ मोटे किन्तु अलंकृत प्रतीत होते हैं ।
आभूषणों में कहीं-कहीं माथेपर करुँगीदार रत्नजटित स्वर्णमुकुट, कानोंमें कुण्डल तथा हाथोंमें बाजूबंद एवं कड़े पहिने हुए हैं ।
देवों एवं पार्श्वनाथके दि० मुनिपद एवं कैवल्यप्राप्ति के समय के चित्र भी इसमें अंकित किये गये हैं । देवोंको अर्धनग्न मुद्रामें प्रदर्शित किया गया है। वे एक मोटे किनारेवाला रंगीन अधोवस्त्र धारण किये हुए हैं, जो घुटने से कुछ नीचे तक लटका हुआ है तथा उसकी चुन्नट कुछ गई है । उनका बायाँ हाथ आधा गिरा हुआ एवं दायाँ हाथ तीर्थङ्करपर है । उनके माथे पर मणिरत्न जटित कुछ निचली भित्ती वाला, कर्णपर्यन्त माथा ढकने वाला, कलंगीदार स्वर्णमुकुट है । वे कानोंमें विशाल चक्राकार कर्णफूल, गलेमें सटा हुआ दो लड़ीका मोटे गुरियों वाला हार, कलाई में मोटे-मोटे कड़े एवं दो लड़ीका बाजूबन्द धारण किये हुए हैं ।
आगेकी ओर उड़ती हुई दिखाई चंवर दुराता हुआ दिखाया गया
प्रस्तुत ग्रन्थके मुखपृष्ठपर पार्श्वप्रभुका पद्मासन युक्त एक चित्र है, जिसके दोनों पावोंमें चँवर दुराते हुए पार्श्वचर-सेवक के रूपमें दो देवोंका अंकन है । पीछेकी ओर कुछ ऊँचाईपर दो ऐरावत हाथी अपने शुण्डादण्डोंमें मंगलकलश लिये हुए दिखाये गये हैं । उसकी पृष्ठभूमिमें शिखरबन्द विशाल एक तोरणोंवाला द्वार है, जिसके दोनों ओर छोटी-छोटी ३-३ मठियाँ अलिखित हैं । बीच के शिखरपर दो विशाल sarएँ विपरीतमुखी होकर फहरा रही हैं ।
व्यक्ति एक पंक्ति में तथा सभी अपने व्यक्ति स्थित हैं । पाँचों में से मध्यवर्ती देनेके कारण ऊपरकी ओर संकेत कर
तीर्थंकर मूर्त्तिके चित्रण के समय तदनुसार वातावरणकी व्यंजनाका प्रयास दिखाई पड़ता है । आजूबाजूमें चँवर, माथे पर छोटे-बड़े छतों वाला तथा मोतीकी लड़ोंसे गुंथा हुआ फुंदनों से युक्त छत्र तथा अगलबगलमें दो धर्मचक्र बने हुए हैं । प्रतिके प्रारम्भिक पृष्ठपर दो चित्र बड़े ही आकर्षक एवं भव्य बन पड़े हैं । एक चित्र में पाँच व्यक्ति अंकित हैं । एकके पीछे एक, इस प्रकार तीन एक-एक घुटने के बलपर बैठे हैं । उनके सम्मुख ही आगे पीछे अन्य दो व्यक्तिका एक हाथ तो घुटनेपर स्थित है । तथा दूसरा हाथ धर्मोपदेश कुछ समझाता हुआ दिखाया गया है । बाकी के सभी व्यक्तियोंके दोनों दोनों हाथ जुड़े हुए हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि चित्रकारने इस चित्रमें महाकवि रइधूकी गुरु परम्पराका अंकन किया है । उपदेशक के रूपमें भ० सहस्र कीर्ति हैं तथा श्रोताओं में उनके शिष्य क्रमशः भट्टारक गुणकीर्ति तथा उनके भाई एवं शिष्य भ० यशःकीत्ति तथा यशः कीर्त्तिके शिष्य खेमचन्द्र एवं महाकवि रइधू । इस चित्रवाले पृष्ठपर वर्णनप्रसंग भी उक्त व्यक्तियों का ही है । हमारे इस अनुमानका आधार पूर्ववर्त्ती अन्य सचित्र हस्तलिखित प्रतियाँ ही हैं । 'त्रिलोकसार' की सचित्र प्रतिलिपिमें उसके लेखक सि० च० नेमिचन्द्र ( ११वीं शती) एवं सुगन्धदशमी कथामें उसके लेखक जिनसागर (१२वीं शती) जिसप्रकार चित्रित हैं, ठीक वही परम्परा इस ग्रन्थ में भी अपनाई गई होगी, इसमें सन्देह नहीं । अतः यदि मेरा उक्त अनुमान सही है तब भट्टारकोंके साथ-साथ ही रइधू जैसे एक महाकविके अत्यन्त दुर्लभचित्रकी एक सामान्य रूपरेखा भी हमें आसानीसे उपलब्ध हो जाती है, जिसका कि अभाव अभीतक खटकता था । इस उपलब्धिको हम मध्यकालीन साहित्यकारों सम्बन्धी उपलब्ध अभीतक समस्त जानकारियोंमेंसे एक विशेष ऐतिहासिक महत्त्वकी उपलब्धि मान सकते हैं । दूसरा भव्य चित्र इसी चित्र की दायीं ओर चतुर्भुजी सरस्वतीका चित्रित है । उसके एक दायें हाथमें कोई ग्रन्थ सुरक्षित है तथा बायें हाथमें वीणा । बाकी दो हाथोंमें क्या है, यह स्पष्ट नहीं होता । उसके वाहनका भी
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पता नहीं लगता। उसकी पृष्ठभूमिमें एक भवन है, जिसके मध्यमें एक विशाल शिखर तथा आजू-बाजूमें ३-३ छोटे-छोटे शिखर और उनके ऊपर विपरीत मुखी छोटी-बड़ी दो-दो विशाल फहराती हुई नुकीली ध्वजाएँ हैं। अन्य कई साक्ष्योंके आधार पर यह सिद्ध होता है कि महाकवि रइधू सरस्वतीके महान् उपासक थे। उन्होंने अपनेको 'सरस्वती निलय' एवं 'सरस्वती निकेतन' जैसे विशेषणोंसे विभूषित किया है। एक स्थानपर उन्होंने यह भी लिखा है कि प्रारम्भिक जीवनमें अकस्मात् ही स्वप्नमें उन्हें सरस्वतीने आकर कवि बननेकी प्रेरणा दी थी और उसमें सभी प्रकारकी सफलता का उसने उन्हें आश्वासन दिया था। कविने उसीकी आज्ञाको मानकर कविताके क्षेत्रमें प्रवेश किया और फलस्वरूप वे विख्यात महाकविके रूपमें साहित्यिक क्षेत्रमें प्रसिद्ध हो गये । कोई असम्भव नहीं, यदि महाकवि कालिदासके समान ही महाकवि रईधूको भी सरस्वती सिद्ध रही हो। क्योंकि अपने छोटेसे जीवनकालमें ही २३से भी अधिक महान् एवं विशाल ग्रन्थोंकी रचना कर पाना सामान्य कविके लिए सम्भव नहीं था। अपभ्रंशके क्षेत्रमें इतने विशाल समृद्ध साहित्यका प्रणेता रइधूको छोड़कर अभी तक अन्य कोई भी दूसरा कवि अवतरित नहीं हुआ।
जहां तक महिलाओंके चित्रालेखनके प्रसंग हैं, उनमें उनके नेत्र मत्स्याकृतिके विशाल, किन्तु उनकी पुतलियाँ छोटी चित्रित हैं एवं कटाक्षरेखा कर्णपर्यन्त चित्रित की गयी हैं। नेत्रोंको तो इतना : गया है कि किसी अजनबीको उन्हें देखकर चश्मा लगानेका भ्रम हो सकता है। उनके केशपाश गुंथे हुए एवं माथेके पीछे कुछ ऊंचाई पर वत्तु लाकार जूड़ाकृतिमें बद्ध है। उनकी नाक बड़ी एवं नुकीली है। कहीं-कहीं नाक एवं मुख एक दूसरेमें प्रविष्ट करनेकी होड़ लगाये हुए जैसे दिखायी पड़ते हैं । ओष्ठ फैले हुए, चिबुक नुकीली एवं छोटी, श्रवण अंडाकृति वाले एवं लघु हैं, किन्तु दोनों पयोधर चक्राकार एवं बेतरह उन्नत हैं । ऐसा लगता है कि उनकी विशालता दिखाने में चित्रकारने कुछ अधिक जबर्दस्ती की है कटिभाग अत्यन्त सूक्ष्म तथा कहीं-कहीं अदृश्य जैसा प्रतीत होता है। इनकी गर्दन कुछ लम्बी एवं रेखांकित दिखायी देती है, किन्तु सभीके शरीर सुपुष्ट अंकित किये गये हैं।
महिलाओं द्वारा प्रयुक्त वस्त्रोंमें लंहगा, ओढ़नी एवं चोली जिसमें उदर भाग स्पष्ट रूपसे दृश्यमान है, प्रधान है । कहीं-कहीं ओढ़नीका अभाव भी है।
आभूषणोंकी दृष्टिसे महिलाओंके कानोमें कानोंसे भी डेवढ़ा दुगुना, चक्राकार विशाल कर्णफूल, गलेमें बड़े-बड़े गुरियों वाली एकाधिक लड़ीकी माला एवं हाथोंमें ३-३या४-४ कड़े चित्रित किये गये हैं तथा नाकमें मोतीकी छोटी पोंगड़ी धारण किये हुए है। इनके हाथों में कंगन एवं पैरोंमें कड़े हैं, ललाटपर टीका भी दिखायी देता है । देवांगनाओंके चित्रणमें उक्त महिलाओंकी अपेक्षा बहुत कम अन्तर दर्शित किया गया है ।
जहाँपर पुरुषों या महिलाओंको खड़ा अथवा बैठा दिखाया गया है वहाँ उन्हें देखनेसे ऐसा प्रतीत होगा, मानों वे चल रहे हों या चलने के लिए उत्सुक हो रहे हों । तात्पर्य यह है कि उनमें स्फूर्तिकी झलक दिखायी देती है। कहीं-कहीं पुरुष दण्ड धारण किये हुए हैं किन्तु हाथों में उसे इस प्रकार चित्रित किया गया है, मानों वे कम वजनकी मामूली कोई छोटी-मोटी दातुन या सलाई पकड़े हुए हों।
प्रकृति चित्रणके प्रसंगोंमें नदी, नद, सरोवर, उद्यान, मैदान, वृक्ष, हरी-भरी घास एवं वन आदिके रंगीन चित्रण किये गये हैं, किन्तु उन्हें जैसे नयनाभिराम, रम्य, गम्भीर एवं सजीव होना चाहिए था, उस भावका उसमें अभाव है। उदाहरणार्थ वृक्षकी आकृति ऐसी प्रतीत होती है जैसे किसी छोटी लचीली डंडीपर पत्तोंका ढेर सजा दिया गया हो। जंगलकी आकृति भी ऐसी प्रतीत होती है जैसे दीवालपर आड़ी-तिरछी रंगीन १. सम्मइजिणचरिउ १।४।२-४ । २४
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रेखाएँ खींच दी गयी हों। उद्यानके पेड़-पौधे या फुलवारी ऐसी दृश्यमान हैं जैसे घर में गमलों या गुलदस्तोंपर कुछ कृत्रिम पेड़-पौधे या फूल सजा दिये गये हों।
युद्धके प्रसंगमें चित्र-विचित्र रंगोंसे भरे हुए सैनिकोंके चित्र हैं, जिनके हाथ में ढाल-तलवार एवं भाला है। चित्रके रंगोंकी दृष्टिसे उक्त चित्रोंमें प्रायः मौलिक रंगोंका ही प्रयोग पाया जाता है जैसे लाल, पीला, एवं सफेद । चित्रोंकी भूमिमें प्रायः लाल एवं पीले रंगोंका प्रयोग है, कहीं-कहीं हरे रंगका भी । कहीं-कहीं तो चित्रोंमें ये रंग इस प्रकारसे भरे गये हैं कि लगता है जैसे लीपा-पोती की गयी हो। इनमें सुन्दरता एवं सावधानीका अभाव आँखों को बहुत खटकता है। इसका एक कारण तो यह है कि चित्रकार जीवनसे प्रेरणा न लेकर रूढ़ियोंमें बंधे रहे, और दूसरा कारण यह रहा कि उसमें आध्यात्मिक भावनाकी पुट एवं धर्म वृत्ति की गहरी छाप सर्वत्र रहनेके कारण शृंगारिकताका अंश खुलकर अपना साम्राज्य स्थापित न कर सका अथवा यों कहा जाय कि शृंगारिक वातावरण रहनेपर भी निर्वेदको झलक उसमें समाहित रही। किन्तु इन सबके बावजूद भी श्री ब्राऊन, इस्टेल्ला क्रेमरेश, नानालाल मेहता प्रभृति विद्वानोंके अनुसार जैन-शैलीके इन चित्रोंमें निर्मलता, स्फति एवं गतिवेग है। भावाभिव्यञ्जनाकी दृष्टि से ये चित्र बेजोड़ हैं । यद्यपि कम रंगोंका प्रयोग किया गया है, किन्तु यह काफी तेज है और उससे तात्कालिक रंग-प्रयोगकी विधिपर अच्छा प्रकाश पड़ता है। उनकी रेखाएं यद्यपि मोटी हैं, फिर भी उनका भद्दापन, कुशल हाथोंकी स्वतन्त्रता, इस चित्र शैलीमें चित्रित अंग-प्रत्यंगों आदिका बेडौलपना, नेत्रोंको यद्यपि बहुत ही नयनाभिराम नहीं लगता, उनमें कठपुतलियोंका आभास सा होता है, किन्तु निस्सन्देह ही इस शैलीका भी अपना एक युग माना जायेगा। अपने युगमें गुजरात, मध्यप्रदेश, मालवा एवं दक्षिणी भारतमें भी यह शैली अत्यन्त प्रचलित रही। बिहार, बंगाल, उड़ीसा, नेपाल एवं तिब्बतमें भी इसका प्रभाव पहुंचा था । कुछ विद्वानोंका तो यहाँ तक कहना है कि चित्रकलाकी उक्त शैली ने बृहत्तर एशिया, मध्यएशिया, वर्मा एवं इंडोनेशिया प्रभृति देशोंको भी बहुत कुछ अंशोंमें प्रभावित किया था ।
'पासणाहचरिउ'के चित्र क्रमागत चित्र-शैलीका एक परवर्ती रूप है, जो इतिहासकी दृष्टिसे अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। यह इसका महान् दुर्भाग्य है कि इस प्रकारकी चित्र शैलीके नामकरणकी समस्या अभी तक भी बनी हुई है। कोई इसे जैन-शैलीका, तो कोई अपभ्रंश-शैली, तो कोई पश्चिमी या गुजराती-शैलीका कहकर इसके रूपको अनिश्चित किये हुए हैं। इस दिशामें विद्वानोंको गहन अध्ययन करने की तत्काल आवश्यकता है। प्राचीन चित्रकलाको समग्र सामग्रीका संकलन एवं उसका सर्वांगीण अध्ययन विश्लेषण एवं नामकरण करके चित्रकलाके इतिहासमें उसका अविलम्ब स्थान निर्धारण किया जाना चाहिए। क्योंकि यह शैली एक ओर जहाँ प्राचीन चित्रकलाका परवर्ती रूप है वहीं रोरिक, टैगोर अवनीन्द्र, नन्दराय, यामिनीराय, रविवर्मा, रविशंकर रावल एवं अमृता शेरगिलकी आधुनिक चित्र शैलियोंका पूर्ववर्ती रूप भी सिद्ध हो सकता है। अत: जैन चित्रशैलीकी शृंखलाको जोड़ने के लिए एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक कड़ी सिद्ध हो सकती है। अतः विद्वानोंको इस उपेक्षित दिशामें कार्य करनेके लिए तत्पर होना ही चाहिए । यह समयकी मांग है। इतिहास के नवीन तथ्य
इतिहासकी दृष्टि से इस प्रतिकी सर्वप्रथम विशेषता यह है कि इसकी अन्त्य पुष्पिकामें तोमरवंशी राजाओंकी ग्वालियरी शाखाकी परम्परामें हुए महाराज डूंगरसिंहको 'कलिकाल चक्रवर्ती' पदसे विभूषित किया गया है। महाकवि रइधूके प्राप्त समस्त ग्रन्थों एवं उनकी प्रशस्तियोंके साथ-साथ तोमर राजाओंके आधुनिक शैलीमें लिखित इतिहास-ग्रन्थोंको पढ़ने का भी मझे अवसर मिला है किन्तु डंगरसिंहकी उक्त : कहीं भी देखनेको नहीं मिली । यद्यपि डूंगरसिंहके प्रबल पराक्रम एवं राज्यकी सीमा-विस्तार के कारण उसे
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उक्त उपाधि प्राप्त होनी ही चाहिए थी, ऐसी मेरी धारणा थी तथा उसकी खोज में मैं बड़ा व्यन भी था। प्रस्तुत ग्रन्थ-प्रशस्तिने उस व्यग्रताको दूर ही नहीं किया, बल्कि आधुनिक इतिहासकारोंको तोमरकालीन
नवीन रूपमें लिखने के लिए नयी प्रेरणा देकर नया प्रकाशन भी दिया है। इतिहासकी दष्टिसे निस्सन्देह ही यह एक बहुत बड़ी उपलब्धि है तथा इस रूप में एक महान् नरव्याघ्र, पराक्रमी, कर्तव्यनिष्ठ एवं जैनधर्म-परायण राजाके महान् कार्योंका सही एवं न्यायपूर्ण मूल्यांकन कर उसे यथार्थ ही गौरव प्रदान किया गया है।
इसी प्रकार तोमर राजाओंकी परम्पराका वर्णन करनेवाले कुछ ग्रन्थोंमें राजा डूंगरसिंहके पिता गणपतिदेवका नामोल्लेख नही मिलता तथा विक्रमके बाद उनके पौत्र डूंगरसिकके गद्दीपर बैठनेकी तुक समझमें नहीं आती थी किन्तु इसका स्पष्टीकरण प्रस्तुत ग्रन्थके लिपिकारकी प्रशस्तिसे हो जाता है। उसने जो लिखा है जिससे यह स्पष्ट हो जाता है कि विक्रमके बाद डूंगरसिंह नहीं, बल्कि गणपति गद्दीपर बैठे, भले ही वे अत्यल्पकालके लिए राजा बने हों और किसी कारणवश शीघ्र ही उनके पुत्र डूंगरसिंहको राजगद्दी सम्हालनी पड़ी हो । अतः वर्तमान कालमें प्रचलित तोमरोंकी वंशपरम्परा सम्बन्धी मान्यता भी उक्त प्रमाणके आधारपर भ्रामक सिद्ध हो जाती है ।
"प्रस्तुत प्रतिकी दूसरी ऐतिहासिक महत्त्वकी विशेषता यह है कि इसकी लिपिकारकी प्रशस्तियों में पैरोज (फ़िरोज) नामक सुल्तानकी चर्चा आती है। रइधूने अपने अन्य ग्रन्थोंमें भी सुल्तान पैरोज साह (फ़ीरोज़ शाह) की चर्चा करते हुए उसके द्वारा हिसारनगरके बसाये जाने की चर्चा की है। एक अन्त्यप्रशस्तिसे यह भी स्पष्ट है कि रइधूके एक आश्रयदाता तोसउ साहूका पुत्र वील्हा साहू पैरोज साहके द्वारा सम्मानित था। इससे यह प्रतीत होता है कि पैरोज साह जनसमाज एवं जैनधर्मके प्रति काफी आस्था बद्धि रखता था। असम्भव नहीं, यदि, उसके मन्त्रिमण्डलमें वील्हा जैसे कुछ राजनीतिज्ञ एवं अर्थशास्त्री श्रीमन्त जैन भी सम्मिलित रहे हों। रइधू-साहित्यके मध्यकालमें हिसार नगर जैनियों एवं जैन-साहित्यका बड़ा भारी केन्द्र था।
प्रस्तुत प्रतिकी तीसरी विशेषता यह है कि इसकी प्रतिलिपि कविके आश्रयदाता खेउसाहूके चतुर्थ पुत्र होलिवम्मुने करायी थी। ये होलिवम्मु या होलिवर्मा वही है जो सदाचारकी प्रतिमूर्ति थे तथा जिन्होंने अपने पिताकी तरह ही स्वयं भी महाकविको आश्रयदान देकर अपने जीवन में आध्यात्मिक ज्योति जगानेवाली 'दशलक्षणधर्म जयमाला" नामक रचनाका प्रणयन कराया था। इस दृष्टिसे प्रतिकी प्रामाणिकतामें दो मत नहीं हो सकते। यह भी सम्भव है कि होलिवम्मु द्वारा लिखित अथवा लिखवायी हुई अन्य रचनाएँ भी हों, जिनका प्रकाशन भविष्यके गर्भमें है।
इस प्रकार महाकवि रइधकी प्रस्तुत 'पासणाहचरिउ'को विशेष प्रतिके सम्बन्धमें यहाँ चर्चा की गयी है। उसके कलापक्ष एवं भावपक्ष अथवा अन्य विषयोंको मैंने स्पर्श नहीं किया। इसी प्रकार कविके विषयमें भी मैंने कुछ भी चर्चा नहीं की। क्योंकि यहाँ मात्र उपलब्ध नवीन सचित्र प्रतिकी सचित्रता एवं उसकी अन्त्यप्रशस्तिमें उपलब्ध तथ्योंके अनुसार उसका ऐतिहासिक मूल्यांकन करनेका यत्किचित् प्रयास किया है । कविके व्यक्तित्व एवं कृतित्वपर मैं कई शोध-निबन्धोंमें विस्तृत विचार कर चुका हूँ। यहाँ उनको पुनरावृत्ति मात्र ही होती।
१. दे० दहलक्खणजयमालका अन्तिम पद्य ।
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कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्यकी अपभ्रंश-भाषामें एक अनुपम रचना
शत्रुञ्जयतीर्थाष्टक
महोपाध्याय विनयसागर युगप्रधान दादा जिनदत्तसूरि प्रणीत 'गणधरसार्द्धशतक-प्रकरण'के प्रथम पद्यकी व्याख्या करते हुए, युगप्रवरागम श्रीजिनपतिसूरिके शिष्य श्रीसुमतिगणिने, श्रीहेमसूरि प्रणीत निम्नाङ्कित स्तोत्र उद्धृत किया है।
सुमतिगणि कृत 'वृद्धवृत्ति'का रचनाकाल विक्रम संवत् १२९५ होनेसे इस स्तोत्रका रचनाकाल १२-१३वीं शताब्दी निश्चित है । अष्टककी अन्तिम पंक्तिमें 'हेमसूरिहि' उल्लेख है। १२वीं शतीमें हेमचन्द्रसूरि नामक दो आचार्य हुए है-१. मलधारगच्छीय हेमचन्द्रसरि और २. पूर्णतल्लगच्छीय कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्रसूरि। ये दोनों समकालीन आचार्य थे और दोनों ही गुर्जराधिपति सिद्धराज जयसिंहके मान्य एवं पूज्य रहे हैं।
__मलधारगच्छीय हेमचन्द्रसूरिकी देश्यभाषाकी रचनाएँ प्राप्त नहीं है। कलिकाल सर्वज्ञकी 'देशीनाममाला' प्राकृत-व्याकरण आदि साहित्यमें अपभ्रंश कृतियोंका प्रयोग होनेसे प्रस्तुत अष्टकके प्रणेता इन्हींको माना जा सकता है।
इस अष्टकमें सौराष्ट्र प्रदेश स्थित शत्रुञ्जय (सिद्धाचल) तीर्थाधिराजकी महिमाका वर्णन किया गया है। इसकी भाषा अपभ्रंश है और देश्यछन्द-षट्पदी में इसकी रचना हुई है। अद्यावधि अज्ञात एवं भाषाविज्ञानकी दृष्टिसे इसका महत्त्व होनेसे इसे अविकल रूपमें यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है।
सं० १२०० में रचित कृतिमें उद्धृत होनेसे इसका प्राचीन मार्मिक पाठ सुरक्षित रक्खा है यह भी विशेष रूपसे उल्लेखनीय है।
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श्रीहेमसूरिप्रणीतापभ्रंशभाषामयं
शत्रुञ्जय तीर्थाष्टकम् खुडियनिविड दढनेहा नियदु वम्मह मयभंजणु, पढमपयासियधम्ममग्गु सिवपुरहसंदणु । निवसइ जत्थ जुयाइदेउ जिणवरु रिसहेसरु, सो सित्तुजगिरिंदु नमहु तित्थह अग्गेसरुं । सिरिपुंडरोय सुइ निव्वयइ जहि कारिउ भरहेसरिणं । वंदिवजइ अज्जवि सुरनरिहरिसहभवणु भत्तिब्भरिणं ॥१॥ पंचकोडिमुणिवरसमजु गुणरयणसमिद्धउ। पढमजिणह सिरिपुंडरीयगणहरु जहि सिद्धउ । पंडुसुअह पंचह वि सिद्धिकामिणि सुरकारउ ।
सो सित्त जगिरिंदु जयउ जगि तित्थह सारउ । मिल्लेविणु नेमिजिणिंद परि कित्तिभरिय भुवणंतरिहि । जो फरूसिउ नियपयपंकयहि तेवीसिहि तित्थंकरिहि ॥२॥
जहि दसकोडिहि द्रविड-वालिखिल्लहि नरनाह हो । पाविय-सिद्धि-समिद्धि खवियनियपावपवाह हा । दसरहसुय-सिरिराम भरहकय सिवसुहसंगमु ।
सो सित्तुज सुतित्थ जयउ तित्थह सव्वत्तमु । निणु गुरुमाहुप्पु जसु अइमुत्तयकेवलि कहिओ। आरुह वि जित्थु नारयरिसिहि पत्तु मुक्ख दुक्खिहि रहिओ ॥३॥
सिरिविज्जाहरचक्कवट्टि नमि-विनमि-मुणिदिहिं । विहिकोडसि सहु मुणिवराह नयसुरवर विदिहिं । जह पत्तओ सुरसुक्खु भवदुक्खनिवारणु ।
सो सेत्त ज सुतित्थ नमह सासयसुहकारणु । गुणवियलु पसु वि अणसणु करवि जहि हरिसिय सुरयणमहिउ । तित्थाणुभावमित्तिण सुहइ भुंजइ सुरकामिणिसहिउ ॥४॥
घरपरियणसुहनेह नियउ निठुरभंजेविणु । खउकंटयकक्करकरालकाणणपविसेविण । भीसणवग्यवराहभमिरतक्करजगणेविणु । गुरुगिरिवरसरसरिरउउरत्तु वि लंघेविणु।
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आरुहि वि जाव सित्त जि न दिट्ठउ रिसहजिणिंदमुह । सिरिपुंडरीउगणहरसहिउ ताव कि लब्भइ जीवसुह ॥५॥
काइ मूढ पविसहि अयाणु जि व सलहु महानलि । काइ मधु जिम्ब भमिय चित्त बुड्डहि गंगालि । काइ अकज्जि वि मूढ धरि वि सिरि गुग्गुलुजालहि ।
काइ इयर तिथिहि भमंतु अप्पहु संतावहि । कहिउ मुणिहि तित्थह पवरु तहि सित्तु जि चडे वि पुण। किर काहि न पुज्जहि रिसहजिणु जिम्ब छिदहि जम्मण जरमरण ॥६॥
काइ तेण वि हविण न जेणउ वयरिउ सुपत्तह । काइ तेण जीविइण जुगउ दालिद्द-दुहत्तह । काइ तेण जुव्वणिण जु किर बोलिउ सकलं कह ।
काइ तेण सज्जणिण हुयउ जु न विहु र पडतह । किरि काई मणुयजम्मिण न जहि वंदिउ सुरनरवरमहिउ । सित्तुजसिहरिसंढिउ रिसहु पुंडरीयगणहरसहिउ ॥७॥
अहह कवडजक्खपभाउ जहि फुरइ असंभवु । कटरि करइ जो पणयजणह निच्छउ अपुणब्भवु । अररि कलिहि अज्जवि अखंड जस कित्ति सिलीसइ।
वपुरि गुरयपुत्रिहि पि जो भवि इहि दीसइ । जहि अणेयकोडहि सहिय सिद्ध मुणीसर सुरमहिउ ।
सो नमहु तित्थ सित्तुज पर विहिय हेमसूरिहि कहिउ ॥८॥ (गणधरसार्द्धशतकबृहद्वृत्ति सुमतिगणिकृत, प्रथमपद्यव्याख्या, दानसागर जैन ज्ञान भंडार, बीकानेर ग्रन्थांक १०६१, ले० सं० १६७९ पत्रांक ३९ A)
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दिल्ली पट्टके मूलसंघीय भट्टारक प्रभाचन्द्र और पद्मनन्दि
पं० परमानन्द जैन शास्त्री प्रभाचन्द्र नामके अनेक विद्वान हो गये हैं। एक नामके अनेक विद्वानोंका होना कोई आश्चर्यकी बात नहीं है । जैन साहित्य और इतिहासको देखनेसे इस बातका स्पष्ट पता चल जाता है कि एक नामके अनेक आचार्य विद्वान् और भट्टारक हो गये हैं। यहाँ दिल्ली पट्टके मूलसंघीय भट्टारक प्रभाचन्द्रके सम्बन्ध विचार करना इस लेखका प्रमुख विषय है।
पट्टे श्रीरत्नकीर्तेरनुपमतपसः पूज्यपादीयशास्त्रव्याख्या विख्यातकीर्तिगुणगणनिधिपः सत्क्रिचारुचंचुः ।। श्रीमानानन्दधामा प्रति बुधनुतमामान संदायि वादो जीयादाचन्द्रतारं नरपतिविदितः श्रीप्रभाचन्द्रदेवः ॥
(-जैन सि• भा० भाग १ किरण ४) पट्टावलीके इस पद्यसे प्रकट है कि भट्रारक प्रभाचन्द्र रत्नकीति भट्टारकके पट्टपर प्रतिष्ठित हुए थे। रत्नकीर्ति अजमेर पटके भद्रारक थे। दूसरी पट्रावलीमें दिल्ली पट्रपर भ. प्रभाचन्द्र के प्रतिष्ठित होनेका समय सं० १३१० बतलाया है और पट्टकाल सं० १३१० से १३८५ तक दिया है, जो ७५ वर्षके लगभग बैठता है। दूसरी पट्टावलीमें सं. १३१० पौष सुदी १५ प्रभाचन्द्रजी गृहस्थ वर्ष १२ दीक्षा वर्ष १२ पट्ट वर्ष ७४ मास ११ दिवस २३ । (भट्टारक सम्प्रदाय पृ० ९१)
भट्टारक प्रभाचन्द्र जब भ० रत्नकीतिके पट्टपर प्रतिष्ठित हुए उस समय दिल्लीमें किसका राज्य था, इसका उक्त पट्टावलियोंमें कोई उल्लेख नहीं है। किन्तु भ० प्रभाचन्द्रके शिष्य धनपालके तथा दूसरे शिष्य ब्रह्म नाथूरामके सं० १४५४ और १४१६ के उल्लेखोंसे ज्ञात होता है कि प्रभाचन्द्रने मुहम्मद बिन तुगलकके मनको अनुरंजित किया था और वादीजनोंको वादमें परास्त किया था जैसा कि उनके निम्न वाक्योंसे प्रकट है
'तहिं भवहि सुमहोच्छव विहियड, सिरिरयणकित्ति पट्टेणिहियउ । महमंद साहि मणु रंजियउ, विज्जहि वाइय मणु भंजियउ ।।
-बाहुबलिचरित प्रशस्ति उस समय दिल्लीके भव्यजनोंने एक उत्सव किया था। मुहम्मद बिन तुगलकने सन् १३२५ (वि० सं० १३८२) से सन् १३५१ (वि० सं० १४०८) तक राज्य किया है। यह बादशाह बहुभाषाविज्ञ, न्यायी, विद्वानोंका समादर करनेवाला और अत्यन्त कठोर शासक था। अतः प्रभाचन्द्र इसके राज्यमें सं० १३८५ के लगभग पट्रपर प्रतिष्ठित हए हों। इस कयनसे पट्टावलियोंका वह समय कुछ आनुमानिक सा जान पड़ता है। वह इतिहासको कसौटीपर ठीक नहीं बैठता। अन्य किसी प्रमाणसे भी उसकी पुष्टि नहीं होती।
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प्रभाचन्द्र अपने अनेक शिष्यों के साथ पट्टण, खंभात, धारानगर और देवगिरि होते हुए जोयणिपुर (दिल्ली) पधारे थे। जैसा कि उनके शिष्य धनपालके निम्न उल्लेखसे स्पष्ट है
पट्टणे खंभायच्चे धारणयरि देवगिरि ।
मिच्छामय विहुणंतु गणि पत्तउ जोयणपुरि ॥ -बाहुवलिचरिउ प्र० आराधना पंजिकाके सं० १४१६ के उल्लेखसे स्पष्ट है कि वे भ. रत्नकीतिके पट्टको सजीव बना रहे थे। इतना ही नहीं, किन्तु जहाँ वे अच्छे विद्वान्, टीकाकार, व्याख्याता और मंत्र-तंत्रवादी थे, वहाँ वे
भावक व्यक्तित्वके धारक भी थे। उनके अनेक शिष्य थे। उन्होंने फीरोजशाह तुग़लकके अनुरोधपर रक्ताम्बर वस्त्र धारण कर अन्तःपुरमें दर्शन दिये थे। उस समय दिल्लीके लोगोंने यह प्रतिज्ञा की थी कि हम आपको सवस्त्रजती मानेंगे। इस घटनाका उल्लेख बखतावरशाहने अपने बुद्धिविलासके निम्न पद्यमें किया है
'दिल्लीके पातिसाहि भये पेरोजसाहि जब । चांदो साह प्रधान भट्टारक प्रभाचन्द्र तब ॥ आणे दिल्ली मांझि वाद जीते विद्यावर । साहि रीझिकैं कही करै दरसन अंतःपुर ।। तिहि समै लंगोट लिवाय पुनि चाँद विनती उच्चरी ।
मानिहैं जती जुत वस्त्र हमसब श्रावक सौगंद करी ।।'६१६ यह घटना फीरोजशाहके राज्यकालकी है. फोरोजशाहका राज्य मं० १४०८ से १४४५ तक रहा है। इस घटनाको विद्वज्जन बोधकमें सं० १३०५ की बतलाया है जो एक स्थूल भूलका परिणाम जान पड़ता है; क्योंकि उस समय तो फीरोजसाह तुग़लकका राज्य नहीं था, फिर उसकी संगति कैसे बैठ सकती है । कहा जाता है कि भ० प्रभाचन्दने वस्त्र धारण करने के बादमें प्रायश्चित्त लेकर उनका परित्याग कर दिया था, किन्तु फिर भी वस्त्र धारण करनेको परम्परा चालू हो गयी।
इसी तरह अनेक घटना क्रमोंमें समयादिकी गड़बड़ी तथा उन्हें बढ़ा-चढ़ाकर लिखनेका रिवाज भी हो गया था।
दिल्ली में अलाउद्दीन खिलजीके समय स्थित राघो चेतनके समय घटने वाली घटनाको ऐतिहासिक दृष्टिसे विचार किये बिना ही उसे फीरोजसाह तुग़लकके समयकी घटित बतला दिया गया है। (देखो, बुद्धि विलास पृष्ठ ७६) और महावीर जयन्ती स्मारिका अप्रैल १९६२ का अंक पृ० १२८)।
१. सं० १४१६ चैत्र सुदी पंचभ्यां सोमवासरे सकलराजशिरोमुकुटमाणिक्यमरीचिपिंजरीकृतचरणकमल
पादपीठस्य श्री पेरोजसाहेः सकलसाम्राज्यधुरीविभ्राणस्य समये श्री दिल्यां श्री कुन्दकुन्दाचार्यान्वये सरस्वतीगच्छे बलात्कारगणे भ. श्री रत्नकीर्तिदेवपट्टोदयाद्रि तरुणतरणित्वमुर्वी कुर्वाणे भट्रारक श्री प्रभाचन्द्रदेव तत्शिष्याणां ब्रह्म नाथूराम इत्याराधना पंजिकायां ग्रन्थ आत्य पठनार्थे लिखापितम ।
दूसरी प्रशस्ति सं० १४१६ भादवो सुदी १३ गुरुवारके दिन लिखी हुई ब्रह्मदेव कृत द्रव्यसंग्रह टीकाकी है, जो जयपुरके ठोलियोंके मन्दिरके शास्त्र भंडारमें सुरक्षित है। ग्रन्थ-सूची
भाग ३ पृ० १८० । १९२ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ
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यद्यपि राघोचेतन ऐतिहासिक व्यक्ति हैं और अलाउद्दीन खिलजीके समय हुए हैं। यह व्यास जातिके विद्वान्, मंत्र-तंत्रवादी और नास्तिक थे। धर्मपर इनकी कोई आस्था नहीं थी, इनका विवाद मुनि महासेनसे हुआ था, उसमें यह पराजित हुए थे।
ऐसी ही घटना जिनप्रभसूरि नामक श्वेताम्बर विद्वान्के सम्बन्ध में कही जाती है-एक बार सम्राट मुहम्मदशाह तुग़लककी सेवामें काशीसे चतुर्दश विद्या निपुण मंत्र-तंत्रज्ञ राघव चेतन नामक विद्वान् आया। उसने अपनी चातुरीसे सम्राटको अनुरंजिन कर लिया। सम्राटपर जैनाचार्य श्रीजिनप्रभसूरिका प्रभाव उसे बहुत अखरता था। अतः उन्हें दोषी ठहराकर उनका प्रभाव कम करनेके लिए सम्राट्की मुद्रिकाका अपहरण कर सूरिजीके रजोहरणमें प्रच्छन्न रूपसे डाल दी (देखो जिनप्रभसूरि चरित पृ० १२)। जबकि यह घटना अलाउद्दीन खिलजीके समयकी होनी चाहिये । इसी तरह की कुछ मिलती-जुलती घटना भ. प्रभाचन्द्रके साथ भी जोड़ दी गई है। विद्वानोंको इन घटनाचक्रोंपर खूब सावधानीसे विचार कर अन्तिम निर्णय करना चाहिये। टीका-ग्रंथ
पट्टावलीके उक्त पद्यपरसे जिसमें यह लिखा गया है कि पूज्यपादके शास्त्रोंकी व्याख्यासे उन्हें लोकमें अच्छा यश और ख्याति मिली थी। किन्तु पूज्यपादके 'समाधितंत्र' पर तो पं० प्रभाचन्द्रकी टीका उपलब्ध है। टीका केवल शब्दार्थ मात्रको व्यक्त करती है उसमें कोई ऐसी खास विवेचना नहीं मिलती जिससे उनकी प्रसिद्धिको बल मिल सके। हो सकता है कि वह टीका इन्हीं प्रभाचन्द्रकी हो, आत्मानुशासनकी टीका भी इन्हीं प्रभाचन्द्रकी कृति जान पड़ती है, उसमें भी कोई विशेष व्याख्या उपलब्ध नहीं होती।
रही रत्नकरण्ड श्रावकाचार टीकाकी बात, सो उस टीकाका उल्लेख पं० आशाधरजीने अनगार धर्मामृतकी टीकामें किया है।
___ 'यथाहुस्तत्र भगवन्तः श्रीमत्प्रभेन्दुपादा रत्नकरण्डटीकायां चतुरावर्तत्रितय इत्यादि सूत्रे द्विनिषद्य इत्यस्य व्याख्याने देववन्दनां कुर्वता हि प्रारम्भे समाप्तौ चोपविश्य प्रणामः कर्तव्य इति ।'
इन टीकाओंपर विचार करनेसे यह बात तो सहज ही ज्ञात होती है कि इन टीकाओंका आदि-अन्त मंगल और टीकाकी प्रारंभिक सरणीमें बहुत कुछ समानता दृष्टिगोचर होती है। इससे इन टीकाओंका कर्ता कोई एक ही प्रभाचन्द्र होना चाहिये। हो सकता है कि टीकाकारकी पहली कृति रत्नकरण्डक टीका ही हो और शेष टीकाएं बादमें बनी हों। पर इन टीकाओंका कर्ता पं० प्रभाचन्द्र ही है पर रत्नकरण्ड टीकाके कर्ता रक्ताम्बर प्रभाचन्द्र नहीं हो सकते। प्रमेयकमल मार्तण्डके कर्ता प्रभाचन्द्र इनके कर्ता नहीं हो सकते । क्योंकि इन टीकाओंमें विषयका चयन और भाषाका वैसा सामंजस्य अथवा उसकी वह प्रौढ़ता नहीं दिखाई देती, जो प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्र में दिखाई देती है। यह प्राय: सुनिश्चित-सा है कि धारावासी प्रभाचन्द्राचार्य जो माणिक्यनन्दिके शिष्य थे उक्त टीकाओंके कर्ता नहीं हो सकते । समय-विचार
प्रभाचन्द्रका पट्टावलियोंमें जो समय दिया गया है, वह अवश्य विचारणीय है। उसमें रत्नकीतिके पट्रपर बैठनेका समय सं० १३१० तो चिन्तनीय है ही। सं. १४८१ के देवगढ़ वाले शिलालेखमें भी
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रत्नकीर्तिके पट्टपर बैठनेका उल्लेख है, पर उसके सही समयका उल्लेख नहीं है । प्रभाचन्द्र के गुरु रत्नकीर्तिका
पट्टा पट्टावली में सं० १२९६- १३१० बतलाया है। पट्टकाल में रहे हों । किन्तु वे अजमेर पट्टपर स्थित हुए समयकी सीमाको कुछ और बढ़ाकर विचार करना चाहिये, जाय तो उसमें १०-२५ वर्ष की वृद्धि अवश्य होनी चाहिये, पीछे सभी समय यदि पुष्कल प्रमाणोंकी रोशनी में चर्चित होगा, विद्वान लोग भट्टारकीय पट्टावलियोंमें दिये हुए समयपर विचार करेंगे, अन्य कोई विशेष जानकारी उपलब्ध हो तो उससे भी मुझे सूचित करेंगे ।
यह भी ठीक नहीं जँचता, संभव है वे १४ वर्ष और वहीं उनका स्वर्गवास हुआ। ऐसी स्थिति में यदि वह प्रमाणों आदिके आधारसे मान्य किया जिससे समयकी संगति ठीक बैठ सके । आगे वह प्रायः प्रामाणिक होगा । आशा है
पद्मनन्दी
सन्त पद्मनन्द भट्टारक प्रभाचन्द्रके पट्टधर विद्वान् थे । विशुद्ध द्वारा प्रतिष्ठाको प्राप्त हुए थे । उनके शुद्ध हृदयमें आलिङ्गन करती हुई करती थी, वे स्याद्वाद सिन्धुरूप अमृतके वर्धक थे । उन्होंने जिन दीक्षा पवित्र किया था। महाव्रती पुरन्दर तथा शान्तिसे रागांकुर दग्ध करने वाले वे परमहंस निर्ग्रन्थ पुरुषार्थशाली अशेष शास्त्रज्ञ सर्वहित परायण मुनिश्रेष्ठ पद्मनन्दी जयवन्त रहें । 3 इन विशेषणोंसे पद्मनन्दीकी महत्ताका सहज ही बोध हो जाता है। इनकी जाति ब्राह्मण थी । एक बार प्रतिष्ठामहोत्सव के समय व्यवस्थापक गृहस्थकी अविद्यमानता में प्रभाचन्द्रने उस उत्सवको पट्टाभिषेकका रूप देकर पद्मनन्दीको अपने पट्टपर प्रतिष्ठित किया था। इनके पदपर प्रतिष्ठित होनेका समय पट्टावली में सं० १३८५ पौष शुक्ला सप्तमी बतलाया गया है । वे उस पट्टपर संवत् १४७३ तक तो आसीन रहे ही हैं । इसके अतिरिक्त और कितने समय तक रहे यह कुछ ज्ञात नहीं हुआ । और न यह ही ज्ञात सका कि उनका स्वर्गवास कहाँ और कब हुआ है ?
कुछ विद्वानोंकी यह मान्यता है कि पद्मनन्दी भट्टारक पद पर संवत् १४६५ तक रहे हैं । इस सम्बन्धमें उन्होंने कोई पुष्ट प्रमाण तो नहीं दिया, किन्तु उनका केवल वैसा अनुमान मात्र है । अतः इस मान्यता में कोई प्रामाणिकता नहीं जान पड़ती। क्योंकि सं० १४७३ की पद्मकीर्ति रचित पार्श्वनाथ चरितकी लिपि प्रशस्तिसे स्पष्ट जाना जाता है कि पद्मनन्दी उस समय तक पट्टपर विराजमान थे, जैसा कि प्रशस्तिके निम्नवाक्यसे प्रकट है
१. श्रीमत्प्रभा चन्द्रमनीन्द्रपट्टे, शश्वत्प्रतिष्ठाप्रतिभागरिष्ठाः । विशुद्ध सिद्धान्त रहस्यरत्नरत्नाकरा नन्दतु पद्मनन्दी |
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सिद्धान्त रत्नाकर और प्रतिभा ज्ञानरूपी हंसी आनन्द पूर्वक क्रीड़ा धारणकर जिनवाणी और पृथ्वीको
२. हंसो
ज्ञानमरालिकासमसमाश्लेषप्रभुताद्भुतो,
नंदः क्रीडति मानसेति विशदे यस्यानिशं सर्व्वतः । स्याद्वादामृत सिन्धुवर्धनविधोः श्रीमत्प्रभेन्दुप्रभोः, पट्टे सूरिमतल्लिका स जयतात् श्रीपद्मनन्दी मुनिः ॥ - शुभचन्द्र पट्टावली ३. महाव्रति पुरन्दरः प्रशमदग्धरागांकुरः स्फुरत्यपरमपौरुषस्थिरशेषशास्त्रार्थवित् । यशोभरमनोहरी-कृतसमस्त विश्वंभरः, परोपकृतितत्परो जयति पद्मनन्दीश्वरः ॥
- शुभचन्द्र पट्टावली
- श्रावकाचार सारोद्वार प्रशस्ति, जैन ग्रन्थ प्र० सं० भा० १
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'सं० १४७३ वर्षे फालग्न (ल्गुन) वदि ९ बुधवासरे। महाराजाधिराज श्रीवीरभान देव......श्रीमूलसंघे बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे नंदीसंघे–'कुन्दकुन्दाचार्यान्वये भ० श्रीरत्नकीर्तिदेवास्तेषां पट्टे भट्टारक श्रीप्रभाचन्द्रदेवास्तत्पट्ट भ० श्रीपद्मनन्दि देवास्तेषा पट्ट प्रवर्तमाने।'
--(मुद्रित पार्श्वनाथ चरित प्रशस्ति) इससे यह भी ज्ञात होता है कि पद्मनन्दो दीर्घजीवी थे। पट्टावलीमें उनकी आयु निन्यानवे वर्ष अट्ठाईस दिनकी बतलाई गई है । और पट्टकाल पैंसठ वर्ष आठ दिन बतलाया है ।
यहाँ इतना और प्रकट कर देना उचित जान पड़ता है कि वि० सं० १४७९में असवाल कवि द्वारा रचित 'पासणाहचरिउ' में पदमनन्दीके पट्रपर प्रतिष्ठित होनेवाले भ० शुभचन्द्रका उल्लेख निम्न वाक्योंमें किया है—'तहो पढेंवर ससिणामें, सुहससि मुणि पयपंकयचंद हो।' चूंकि सं० १४७४में पद्मनन्दी द्वारा प्रतिष्ठित मूर्तिलेख उपलब्ध है, अतः उससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि पद्मनन्दीने सं० १४७४के बाद और सं० १४७९से पूर्व किसी समय शुभचन्द्रको अपने पट्टपर प्रतिष्ठित किया था ।
कवि असवालने कुशात देशके करहल नगरमें सं० १४७१में होने वाले प्रतिष्ठोत्सवका उल्लेख किया है। और पद्मनन्दीके शिष्य कवि हल्ल या जयमित्रहल तथा हरिचन्द्र द्वारा रचित 'मल्लिणाह' काव्यकी प्रशंसाका भी उल्लेख किया है। उक्त ग्रन्थ भ० पद्मनन्दीके पदपर प्रतिष्ठित रहते हुए उनके शिष्य द्वारा रचा गया था। कवि हरिचन्दने अपना वर्धमान काव्य भी लगभग उसी समय रचा था। इसीसे उसमें कविने उनका खुला यशोगान किया है:
"पद्मणंदि मुणिणाह गणिदहु, चरण सरणुगुरु कइ हरिइंदहु।" (वर्धमान काव्य)
आपके अनेक शिष्य थे, जिन्हें पद्मनन्दीने स्वयं शिक्षा देकर विद्वान् बनाया था। भ० शुभचन्द्र, तो उनके पट्टधर शिष्य थे ही, किन्तु आपके अन्य तीन शिष्योंसे भट्टारक पदोंकी तीन परम्पराएँ प्रारम्भ हुई थीं, जिनका आगे शाखा-प्रशाखा रूपमें विस्तार हआ है। भट्रारक शुभचन्द्र दिल्ली परम्पराके विद्वान थे। इनके द्वारा 'सिद्धचक्र'की कथा रची गई है। जिसे उन्होंने सम्यग्दृष्टि जालाकके लिये बनाई थी। भट्टारक सकलकीतिसे ईडरकी गद्दी और देवेन्द्रकीतिसे सूरतकी गद्दीकी स्थापना हुई थी। चूकि पद्मनन्दी मूलसंघकी परम्पराके विद्वान् थे, अतः इनकी परम्परामें मूलसंघकी परम्पराका विस्तार हुआ। पद्मनन्दी अपने समयके अच्छे विद्वान्, विचारक और प्रभावशाली भट्टारक थे। भ० सकलकीतिने इनके पास आठ वर्ष रहकर धर्म, दर्शन, छन्द, काव्य, व्याकरण, कोष और साहित्यादिका ज्ञान प्राप्त किया था और कवितामें निपुणता प्राप्त की थी । भट्टारक सकलकी तिने अपनी रचनाओं में उनका ससम्मान उल्लेख किया है। पद्मनन्दी केवल गद्दीधारी भट्टारक ही नहीं थे, किन्तु जैनसंस्कृतिके प्रचार प्रसारमें सदा सावधान रहते थे।
पद्मनन्दी प्रतिष्ठाचार्य भी थे। इनके द्वारा विभिन्न स्थानोंपर अनेक मूर्तियोंकी प्रतिष्ठा की गई थी। जहाँ वे मंत्र-तंत्र वादी थे, वहाँ वे अत्यन्त विवेकशील और चतुर थे। आपके द्वारा प्रतिष्ठित मूर्तियाँ विभिन्न स्थानोंके मन्दिरोंमें पाई जाती हैं। पाठकोंकी जानकारीके लिये दो मति लेख नीचे दिये जाते हैं
१. राजस्थान जैन ग्रन्थ-सूची भा० ३ ० ८१ ।
श्री पद्मनन्दी मुनिराजपट्टे शुभोपदेशी शुभचन्द्रदेवः । श्री सिद्धचक्रस्य कथाऽवतारं चकार भव्यांबुजभानुमाली (जैनग्रन्थ प्र० सं० भा० १ पृ० ८८)
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१. आदिनाथ–ओं संवत् १४५० बैशाख सुदी १२ गुरौ श्री चाहुवाणवंश कुशेशयमार्तण्ड सारवै विक्रमन्य श्रीमत स्वरूप भूपान्वय झुंडदेवात्मजस्य शुक्लस्य श्रीसुवानृपतेः राज्ये प्रवर्तमान श्रीमूलसंघे भ० श्रीप्रभाचन्द्र देव तत्पट्टे श्रीपद्मनन्दिदेव तदुपदेशे गोलाराडान्वपे ...।
-(भट्टारक सम्प्रदाय ८९२) २. अरहंत-हरितवर्ण, कृष्णमूर्ति-सं० १४६३ वर्षे माघसुदी १३ शुक्ले श्रीमूलसंधे पट्टाचार्य श्रीपद्मनन्दिदेवा गोलाराडान्वये साधु नागदेव सुत"..."।
-(इटावाके जैनमूर्ति लेख-प्राचीन जैनलेख सं० पृ० ३८) ऐतिहासिक घटना
भ० पद्मनन्दीके सानिध्यमें दिल्लीका एक संघ गिरनारजीकी यात्राको गया था। उसी समय श्वेताम्बर सम्प्रदायका भी एक संघ उक्त तीर्थकी यात्रार्थ वहाँ आया हुआ था। उस समय दोनों संघोंमें यह विवाद छिड़ गया कि पहले कौन वन्दना करे, जब विवादने तूल पकड़ लिया और कुछ भी निर्णय नहीं हो सका, तब उसके शमनार्थ यह युक्ति सोची गई कि जो संघ सरस्वतीसे अपनेको 'आद्य' कहलायेगा, वही संघ पहले यात्राको जा सकेगा। अतः भ० पद्मनन्दीने पाषाणकी सरस्वती देवीके मुखसे 'आद्य दिगम्बर' शब्द कहला दिया। परिणामस्वरूप दिगम्बरोंने पहले यात्रा की, और भगवान् नेमिनाथकी भक्तिपूर्वक पूजा की। उसके वाद श्वेताम्बर सम्प्रदायने की। उसी समयसे बलात्कारगणकी प्रसिद्धि मानी जाती है। वे पद्य इस प्रकार है
पद्मनन्दिगुरुर्जातो बलात्कारगणाग्रणी। पाषाणघटिता येन वादिता श्रीसरस्वती ।। ऊर्जयन्तगिरौ तेन गच्छः सारस्वतोऽभवत् । अतस्तस्मै मुनीन्द्राय नमः श्रीपद्मनन्दिने ।
यह ऐतिहासिक घटना प्रस्तुत पद्मनन्दीके जीवनके साथ घटित हुई थी। पदमनन्दी नाम साम्यके कारण कुछ विद्वानोंने इस घटनाका सम्बन्ध आचार्य प्रवर कुन्दकुन्दके साथ जोड़ दिया। वह ठीक नहीं है क्योंकि कुन्दकुन्दाचार्य मूलसंघके प्रवर्तक प्राचीन मुनिपुंगव हैं और घटनाक्रम अर्वाचीन है। ऐसी स्थितिमें यह घटना आ० कुन्दकुन्दके समयकी नहीं है । इसका सम्बन्ध तो भट्टारक पद्मनन्दीसे है। रचनाएँ
पद्मनन्दीकी अनेक रचनाएँ हैं। जिनमें देव-शास्त्र-गुरु पूजन संस्कृत, सिद्धपूजा संस्कृत, पद्मनन्दिश्रावकाचार सारोद्धार, वर्धमान काव्य, जीरापल्लि पार्श्वनाथ स्तोत्र और भावना चतुर्विशति प्रधान है। इनके अतिरिक्त वीतरागस्तोत्र, शान्तिनाथस्तोत्र भी पद्मनन्दीकृत हैं। पर दोनों स्तोत्रों, देव-शास्त्र-गुरुपूजा, तथा सिद्धपूजाम पद्मनन्दिका नामोल्लेख तो मिलता है । जबकि अन्य रचनाओंमें भ० प्रभाचन्द्रका स्पष्ट उल्लेख है, इसलिये उन रचनाओंको बिना किसी ठोस आधारके प्रस्तुत पद्मनन्दीकी ही रचनाएँ नहीं कहा जा सकता। हो सकता है वे भी इन्हींको कृति रही हों।
श्रावकाचार सारोद्धार संस्कृत भाषाका पद्यबद्ध ग्रन्थ है, उसमें तीन परिच्छेद हैं जिनमें श्रावक धर्मका अच्छा विवेचन किया गया है। इस ग्रन्थके निर्माणमें लंबकंचुक कुलान्वयी (लमेच वंशज) साह वासाधर प्रेरक हैं। प्रशस्तिमें उनके पितामहका भी नामोल्लेख किया है जिन्होंने 'सूपकारसार' नामक ग्रन्थकी रचना की थी। यह ग्रन्थ अभी अनुपलब्ध है। विद्वानोंको उसका अन्वेषण करना चाहिए। इस ग्रन्थको अन्तिम प्रशस्तिमें कर्वाने साहू वासाधरके परिवारका अच्छा परिचय कराया है। और बतलाया है कि गोकर्णके पुत्र
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सोमदेव हुए, जो चन्द्रवाडके राजा अभयचन्द्र और जयचन्द्र के समय प्रधानमन्त्री थे । सोमदेवकी पत्नीका नाम प्रेमसिरि था, उससे सात पुत्र उत्पन्न हुए थे । वासाधर, हरिराज, प्रहलाद, महराज, भवराज, रत्नाख्य और सतनाख्य । इनमें से ज्येष्ठ पुत्र वासाघर सबसे अधिक बुद्धिमान, धर्मात्मा और कर्तव्यपरायण था। इनकी प्रेरणा और आग्रहसे मुनि पद्मनन्दीने उक्त श्रावकाचार की रचना की थी। साहू वासाधरने चन्द्रवाडमें एक जिनमन्दिर बनवाया था और उसकी प्रतिष्ठा विधि भी सम्पन्न की थी। कवि धनपालके शब्दों में वासाधर सम्यग्दृष्टि, जिनचरणोंका भक्त, जैनधर्मके पालन में तत्पर, दयालु, बहुलोक मित्र, मिथ्यात्वरहित और विशुद्ध चित्तवाला था । भ० प्रभाचन्द्र के शिष्य धनपालने भी सं० १४५४ में चन्द्रवाड नगरमें उक्त वासाधरकी प्रेरणासे अपभ्रंश भाषामें बाहुबलीचरितकी रचना की थी ।
दूसरी कृति वर्धमान काव्य या जिनरात्रि कथा है, जिसके प्रथम सर्गमें ३५९ और दूसरे सर्ग में २०५ श्लोक हैं। जिनमें अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीरका चरित अंकित किया गया है, किन्तु ग्रन्थमें रचनाकाल नहीं दिया जिससे उसका निश्चित समय बतलाना कठिन है । इस ग्रन्थकी एक प्रति जयपुरके पार्श्वनाथ दि० जैन मन्दिर के शास्त्र भण्डार में अवस्थित है जिसका लिपिकाल संवत् १५१८ है और दूसरी प्रति सं० १५२२ की लिखी हुई गोपीपुरा सूरत के शास्त्र भण्डार में सुरक्षित है । इनके अतिरिक्त 'अनन्तव्रतकथा' भी भ० प्रभाचन्द्रके शिष्य पद्मनन्दीकी बनाई उपलब्ध है । जिसमें ८५ श्लोक हैं ।
पद्मनन्दीने अनेक देशों, ग्रामों, नगरों आदि में विहारकर जनकल्याणका कार्य किया है, लोकोपयोगी साहित्यका निर्माण तथा उपदेशों द्वारा सन्मार्ग दिखलाया है । इनके शिष्य-प्रशिष्योंसे जैनधर्म और संस्कृतिको महती सेवा हुई। वर्षोंतक साहित्यका निर्माण, शास्त्र भण्डारोंका संकलन और प्रतिष्ठादि कार्यों द्वारा जैनसंस्कृतिके प्रचार में बल मिला है । इसी तरहके अन्य अनेक सन्त हैं जिनका परिचय भी जनसाधारणतक नहीं पहुँचा है । इसी दृष्टिकोणको सामने रखकर पद्मनन्दीका परिचय दिया गया है। चूँकि पद्मनन्दी मूलसंघ विद्वान थे, वे दिगम्बर वेषमें रहते थे और अपनेको मुनि कहते थे । और वे यथाविधि यथाशक्य आचार विधिका पालनकर जीवनयापन करते थे । आपकी शिष्य परम्पराके अनेक विद्वानोंने जैन साहित्य की महान् सेवा की है । राजस्थानके शास्त्र भण्डारोंमें मुनि पद्मनन्दीके शिष्य - प्रशिष्यों की अपभ्रंश, प्राकृत और संस्कृत, राजस्थानी - गुजराती आदिमें रची हुई अनेक कृतियाँ मिलती हैं ।
१. श्री लम्बकंचुकुलपद्मविकासभानुः, सोमात्मजो दुरितदारुचयकृशानुः । धर्मैकसाधनपरो भुवि भव्यबन्धुर्वासाधरो विजयते गुणरत्नसिन्धुः ॥
२. जिणणाहचरणभत्तो जिणधम्मपरो दयालोए । सिरिसोमदेवतणओ नंदउ वासद्धरो णिच्चं ॥ सम्मत्त जुत्तो जिणपायभक्तो दयालुरत्तो बहुलोयमित्तो । मिच्छत्तचत्तो सुविशुद्धचित्तो वासाधरो णंदउ पुण्णचित्तो ॥
- बाहुबलीचरित सन्धि ४
- बाहुबलीचरित सन्धि ३
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अमरु - शतककी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि
डॉ० अजयमित्र शास्त्री
१. इस विषय में दो मत नहीं हो सकते कि अमरुक' कविका अमरुकशतक संस्कृतके शृङ्गारपरक गीतिकाव्यों में बेजोड़ है । कालिदासोत्तर कालके गीतिकाव्योंके रचयिताओं में अमरुकके श्लोक संस्कृत काव्यशास्त्रीय ग्रन्थोंमें सबसे अधिक उद्धृत मिलते हैं । एक श्लोकके दायरेमें प्रेमके विविध भावों और परिस्थितियोंके आकर्षक चित्र प्रस्तुत करने वाले श्लोकोंके सङ्ग्रह के रूप में संस्कृत साहित्य में अमरुक शतकका उतना ही उच्च स्थान है जितना प्राकृत साहित्य में हाल सातवाहनकी गाथासप्तशतीका | काव्यरसिकोंके बीच अमरुकको कितना अधिक आदर प्राप्त था यह स्पष्ट करनेके लिए आनन्दवर्धनका मत उद्धृत करना पर्याप्त होगा । ध्वन्यालोकमें आनन्दवर्धनने अमरुकका उल्लेख ऐसे कवियोंके उदाहरण के रूपमें किया है जिनके मुक्तक उतने ही रसपूर्ण होते हैं जितने कि प्रबन्धकाव्य । उन्होंने लिखा है कि अमरुक कविके शृङ्गाररसको प्रवाहित करने वाले मुक्तक वस्तुत: अपने आपमें प्रबन्ध हैं । भरत टीकाकारने कहा है कि अमरुकका एक एक श्लोक सौ प्रबन्धोंके बराबर है |
२. दुर्दैववश अनेक प्राचीन साहित्यकारोंकी भाँति अमरुकके जीवन और कालके विषयमें भी हमारी जानकारी नहीं के बराबर है, और निश्चित जानकारीके अभाव में कविके जीवनके सम्बन्धमें अनेक किंवदन्तियां प्रचलित हो गयी हैं । उदाहरणार्थ शङ्करदिग्विजय में माधवने एक किंवदन्तीका उल्लेख किया है जिसके अनुसार मण्डनमिश्रकी पत्नी भारतीके प्रेमविषयक प्रश्नोंका उत्तर देनेके लिए आवश्यक कामशास्त्र विषयक जानकरी प्राप्त करने के उद्देश्यसे शङ्कराचार्य राजा अमरुके मृतशरीरमें प्रविष्ट हुए, उन्होंने अन्तःपुरकी
युवतियोंसे रति की और वात्स्यायन कामसूत्र तथा उसकी टीकाका अनुशीलन कर कामशास्त्रपर एक अनुपम ग्रन्थकी रचना की । इस किंवदन्ती के आधारपर परवर्तीकालमें यह विश्वास प्रचलित हुआ कि काश्मीरके राजा अमरुकके रूपमें प्रच्छन्न शङ्कराचार्य ही अमरुशतकके रचयिता थे । इस किंवदन्तीका उल्लेख अमरुशतक के टीकाकार रविचन्दने किया है । यह किंवदन्ती अन्य महापुरुषोंके सम्बन्ध में प्रचलित असङ्ख्य अनर्गल एवम् निराधार विश्वासों की श्रेणीकी है । ऐतिहासिक दृष्टिसे इसका कुछ भी महत्त्व नहीं है ।
३. अमरुक भारतके किस प्राप्त में हुआ, यह भी ज्ञात नहीं है । श्री चिन्तामणि रामचन्द्र देवधरने अत्यन्त आधारहीन तर्कोंके बलपर यह सम्भावना व्यक्त की है कि अमरुक दाक्षिणात्य था । उन्होंने यहाँ तक
१. अमरु, अमरुक, अमर, अमरक, और अम्रक ये कविके नामके अन्य रूप हैं । द्रष्टव्य - चि० रा० देवधर (सम्पादक), वेमभूपालकी शृङ्गारदीपिका सहित अमरुशतक (पूना, १९५९), प्रस्तावना, पृ०९ ।
२. मुक्तकेषु प्रबन्धेष्विव रसबन्धाभिनिवेशिनः । यथा आमरुकस्य कवेर्मुक्तकाः शृङ्गाररसस्यन्दिनः प्रबन्धायमानाः प्रसिद्धा एव ।
३. अमरुककवेरेकः श्लोकः प्रबन्धशतायते ।
४. चि० रा० देवघर, पूर्वोक्त, प्रस्तावना, पृ० ११-१२ ।
१९८ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन -ग्रन्थ
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कल्पना की है कि अमरुक केवल दाक्षिणात्य ही नहीं अपितु चालुक्य राजधानी वातापि (आधुनिक बादामी)का निवासी था। किन्तु उनकी यह धारणा समीचीन प्रतीत नहीं होती।
इसके विपरीत अमरुकके नामकी ध्वनि जो शङ्कक जैसे नामोंसे मिलती जुलती है और इस तथ्यसे कि अमरुकका सनाम उल्लेख और उसके श्लोकोंको उद्धृत करने वाले प्राचीनतम काव्यशास्त्री कश्मीरी थे, ऐसा लगता है कि अमरुक भी कश्मीरी था। किन्तु निश्चित प्रमाणोंके अभावमें इस सम्बन्धमें कोई भी मत पूर्णतः प्रामाणिक नहीं माना जा सकता।
४. पीटर्सन द्वारा अमरुशतककी एक टीकासे उद्धृत एक श्लोकके अनुसार अमरुक जातिसे स्वर्णकार था । यद्यपि यह असम्भव नहीं है तथापि इस विषय में निश्चित रूपसे कुछ भी कहना कठिन है क्योंकि अमरुकके कई शताब्दियों पश्चात् हुए इस टीकाकारको कविके जीवन विषयक सत्य जानकारी थी या नहीं, यह जाननेका कोई साधन नहीं है।
५. अमरुकने अपने शतकके प्रथम श्लोकमें अम्बिका और दूसरे श्लोकमें शम्भुकी वन्दना की है । अतः यह निर्विवाद रूपसे कहा जा सकता है कि वह शैव था।
६. अमरुकका सनाम उल्लेख सर्वप्रथम आनन्दवर्धन (ई० ८५०के आसपास)ने किया है। उसके समयमैं अमरुकके महान् यशको देखते हुए लगता है कि वह आनन्दवर्धनसे बहुत पहिले हुआ । इसके पूर्व वामन (ई०८००)ने बिना कवि और उसकी रचनाका उल्लेख किये अमरु-शतकसे तीन श्लोक उद्धृत किये हैं ।" इससे यह सूचित होता है कि अमरुकका काल आठवीं शताब्दीके पूर्वार्धके पश्चात् नहीं रखा जा सकता। सम्भव है कि वह बहुत पहले रहा हो।
७. अमरुक शतक एकाधिक संस्करणोंमें उपलब्ध है। आर० साइमनने इस प्रश्नका विस्तृत अध्ययन कर अधोलिखित चार संस्करणोंका उल्लेख किया है जो एक दूसरेसे श्लोक सङ्ख्या और श्लोक क्रममें भिन्न हैं
१. वेम भूपाल और रामानन्दनाथकी टीका सहित दाक्षिणात्य संस्करण, २. रविचन्द्र की टीका सहित पूर्वी अथवा बंगाली संस्करण, ३. अर्जुनवर्मदेव और कोक सम्भव की टीका सहित पश्चिमी संस्करण, तथा
१. चि० रा० देवधर, अमरुशतक, मराठी अनुवाद, प्रस्तावना, पृ० ५।। २. विश्वप्रख्यातनाडिन्धमकुलतिलको विश्वकर्मा द्वितीयः। ३. अमरुक द्वारा विशिखा = स्वर्णकारोंकी गली (वेमभूपालका श्लोक क्र०८७) और सन्दंशक = संडसी
(अर्जुन वर्मदेवका श्लोक-७४)में श्री देवधर इस कथनकी पुष्टि पाते हैं । ४. द्रष्टव्य-पाद टिप्पणी-२। ५. काव्यालङ्कार सूत्रवृत्ति, ३-२-४; ४-३-१२, ५-२-८ । ६. देवधर द्वारा सम्पादित, पूना, १९५९ । ७. वैद्य वासुदेव शास्त्री द्वारा सम्पादित, बम्बई, वि० स० १९५० । ८. काव्यमाला, सङ्ख्या १८, दुर्गाप्रसाद व परब द्वारा सम्पादित्त, द्वितीय आवृत्ति, बम्बई, १९२९ । ९. चि० रा. देवधर द्वारा सम्पादित, भाण्डारकर प्राच्य विद्या प्रतिष्ठानकी पत्रिका, खण्ड ३९, पृ० २२७२६५) खण्ड ४०, पृ० १६-५५ ।
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४. रुद्रमदेव और रामरुद्र इत्यादिकी टीका सहित एक विविध संस्करण ।
इन संस्करणोंमें केवल ५१ श्लोक समान है। किन्तु, जैसा कि सुशील कुमार डे ने सुदृढ़ आधारोंपर प्रतिपादित किया है, यदि हम साइमनके चतुर्थ संस्करण, जो वस्तुतः विविध पाण्डुलिपियोंका विलक्षण समन्वय मात्र है, को ओर ध्यान न दें तो इन विविध संस्करणोंके समान श्लोकोंकी सङ्ख्या ७२ हो जाती है। देवधरने सुझाया है कि यदि रविचन्द्रके भ्रष्ट और त्रुटित पाठको छोड़ दिया जाय, जैसा कि उचित प्रतीत होता है, तो अर्जुनवर्मदेव, वेमभूपाल और रुद्रमदेवमें पाये जाने वाले समान श्लोकोंकी सङ्ख्या बढ़कर ८४ हो जाती है। यह प्रश्न बड़ा जटिल है और इस विषयका विस्तारसे विवेचन करना यहाँ हमारा प्रयोजन नहीं है। यहाँ इतना कहना पर्याप्त होगा कि कुछ स्पष्ट कारणोंसे हमें बूलर, एच० बेलर, कीथ तथा देवधरका यह मत अधिक तर्कसङ्गत प्रतीत होता है कि रसिक संजीवनी टीका सहित तथाकथित पश्चिमी संस्करण मूलपाठके सबसे अधिक निकट है ।
किन्तु मूलपाठके बिषयमें निश्चित जानकारी न होनेके कारण प्रस्तुत लेखमें हमने अमरुशतकके समस्त संस्करणोंमें पाये जाने वाले श्लोकोंका उपयोग किया है। इस प्रयोजनके लिए अर्जुन वर्मदेवकी टीका सहित काव्यमाला आवृत्ति (edition)को हमने आधारभूत माना है। दक्षिणी संस्करणमें पाये जाने वाले अतिरिक्त श्लोक इसी आवृत्तिमें श्लोक सङ्ख्या १०३-११६के रूपमें और रुद्रमदेवके पाठमें उपलब्ध अतिरिक्त श्लोक क्र० ११७-१३०के रूपमें दिये गये हैं। केवल रविचन्द्र के बंगाली संस्करणमें प्राप्य श्लोक इसी आवृत्तिमें क्र० १३२-१३५, १३७-१३८में दिये गये हैं। इस प्रकार सब संस्करणोंको मिलाकर अमरुशतकमें १३६ श्लोक हैं जिनका उपयोग प्रस्तुत लेखमें किया गया है। इनके अतिरिक्त संस्कृत सुभाषित सङ्ग्रहोंमें अमरुकके नामसे कुछ और श्लोक भी दृष्टिगत होते हैं। ये श्लोक अमरुशतकके किसी भी संस्करणमें नहीं पाये जाते । सुभाषित सङ्ग्रहोंमें यदाकदा एक ही कविकी रचनाएँ दूसरे कविके नामसे और एक ही रचना विभिन्न लेखकोंके नामसे दी हुई पायी जाती है। अतः यह श्लोक वस्तुतः अमरुकके है या नहीं, यह निर्णय करना कठिन है और फलस्वरूप उनका उपयोग यहाँ नहीं किया गया है।
१. सुशीलकुमार डे द्वारा सम्पादित्त, अवर हेरिटेज, ख० २, भाग २, १९५४ । २. आर० साइमन, डास अमरुशतक, कील, १८९३: जेड० डी० एम० जी०, ख० ४९ (१८९५),
प० ५७७ इत्यादि। ३. अवर हेरिटेज, ख०, २, भाग १, पृ० ९७५ । ४. चि० रा० देवधर (सं०), वेमभपाल रचित टीका सहित अमरुशतक, १०१२-२० । ५. अर्जुनवर्मदेव प्रणीत रसिक संजीवनी अमरुशतककी प्राचीनतम टीका है। उसमें एक समीक्षकका विवेक
था और उसने मुल और प्रक्षेपके बीच भेद करनेका प्रयत्न किया । उसका पाठ सुशीलकुमार हे द्वारा निर्धारित पाठसे बहुत समानता रखता है। ६. जेड० डी० एम० जी०,खण्ड ४७ (१८९३), पृ०९४ । ७. विन्टरनित्स, ए हिस्ट्री ऑफ इण्डियन लिटरेचर, खण्ड ३, भाग १, कलकत्ता, १९५९, पृ० ११०,
टिप्पणी, ४। ८. ए हिस्ट्री ऑफ संस्कृत लिटरेचर, ऑक्सफोर्ड, १९२०,पृ० १८३ । ९. वेमभूपालकी टीका सहित अमरुशतक, प्रस्तावना, पृ०१२-२१ । १०. द्रष्टव्य-काव्यमाला आवृत्तिके श्लोक क्र. १३९-१६३ ।
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८. अधिकांश संस्कृत काव्यों और नाटकोंकी भाँति अमरुशतक भी नागर संस्कृतिकी उपज है । अमरुक द्वारा चित्रित पुरुष और स्त्री नागरिक वातावरणमें साँस लेते हैं। वे नागरिक जीवन की सुखसुविधाओंके अभ्यस्त हैं। उनके भावों और अभिव्यक्तियों में भी नागरिक परिष्कार दृष्टिगोचर होता है। किन्तु अमरुकके शतक तथा नागरिक संस्कृतिमें साँस लेनेवाली अन्य साहित्यिक कृतियों में एक मौलिक भेद है। जबकि अधिकांश संस्कृत काव्य और नाटक प्रमुखतः दरबारी संस्कृति के प्रतीक हैं और घिसे पिटे जैसे लगते हैं, वहाँ अमरुशतक सामान्यजन द्वारा अनुभूत शृङ्गारिक भावों और परिस्थितियोंका चित्रण करता है और फलतः अधिक मर्मस्पर्शी बन पड़ा है ।
नैतिक दृष्टिसे अन्य अनेक काव्यों और नाटकों की अपेक्षा अमरुशतक उच्च धरातलपर स्थित है। उसमें विधिपूर्वक विवाहित स्त्री और पुरुषके प्रेम जीवनका चित्रण है। प्राचीन परम्पराके अनुसार पुरुषकी एकाधिक पलियां हो सकती है और हो सकता है कि वह उनसे प्रत्येकके प्रति पूर्णतः निष्ठावान् न हो, किन्तु सारे काव्यमें कहीं भी कोई स्त्री अपने पतिके अतिरिक्त किसी अन्य पुरुषसे प्रेम करती हुई अङ्कित नहीं की गयी; उसके लिए अपने पतिके प्रेमपगे स्पर्शसे बड़ी प्रसन्नता और उसके विरहसे अधिक दुःख नहीं नहीं हो सकता। प्रेमी-प्रेमिकाके बीच कलह दुर्लभ नहीं है, वस्तुतः बहुसङ्ख्यक श्लोकोंका यही विषय है; किन्तु वे बहुधा क्षणिक है और सरलतासे समाप्त हो जाते हैं। अमरुक की दृष्टि में उन्मुक्त और मनचाहे प्रेमके लिए कोई स्थान नहीं है।
९. काव्यका क्षेत्र अत्यधिक सीमित होनेके कारण स्वभावतः उसमें तत्कालीन जीवनकी वह विविधता दृष्टिगोचर नहीं होती जो महाकाव्यों और नाटकोंमें। साथ ही कविका निश्चित देशकाल ज्ञात न होनेसे यह निर्णय करना भी कठिन है कि वह किस देशके किस भाग अथवा कालका चित्रण कर रहा है । कि हम कह आये हैं अमरुक संभवतः कश्मीरका निवासी था और आठवीं शतीके मध्यके पूर्व किसी समय हआ। अत: मोटे तौरपर हम कह सकते हैं कि अमरुशतकमें मध्यकालीन कश्मीरी जोवन चित्रित है। केवल प्रेमजीवन काव्यका वर्ण्य विषय होने के कारण विशेषतः स्त्रियोंकी वेश-भूषा, आभूषण, प्रसाधन और केश विन्यास जैसे विषयोंपर ही इधर-उधर बिखरे हए उल्लेखोंसे प्रकाश पड़ता है। सम-सामयिक जीवनके अन्य पहलुओंपर प्राप्त सामग्री अत्यल्प है।
१०. जैसा कि हमने ऊपर कहा है, अमरुक शैत्रमतका अनुयायी था और इसलिए स्वभावतः ही उसने काव्यके आरम्भमें भगवान् शिव (श्लो० २) और देवी अम्बिका (श्लो० १)की वन्दना की है। शिव द्वारा त्रिपुर (राक्षसों के तीन नगर)के विनाश और त्रिपुरकी युवतियोंके शोकका उल्लेख किया गया है (इलो० २)। हरिहर (विष्णु और शिवका मिश्रित रूप)१ स्कन्द (श्लो० ३) और यम (श्लो० ६७ ) की भी चर्चा की गयी है । यमको दिन गिनने में कुशल (दिवसगणनादक्ष) तथा निर्दय (ब्यपेतघृण) कहा गया है । देवों द्वारा सागर मन्थनकी पौराणिक गाथाकी ओर श्लोक ३६में संकेत किया गया है। प्रेम जीवनका वर्णन करनेवाले • काव्यमें कामका उल्लेख होना स्वाभाविक ही है। उसके लिए मन्थन (श्लो० ११५), मकरध्वज (श्लो० १५६)
और मनोज (श्लो. १३७) शब्दोंका प्रयोग किया गया है और उसे तीन लोकोंका महान धनुर्धर (त्रिभुवन महाधन्वी) कहा गया है (श्लो० ११५) ।
तीर्थयात्राका इतिहास भारतमें अत्यन्त प्राचीन है। तीर्थों में मृतकको जलकी अञ्जलि (तोयाञ्जलि) देनेकी प्रथा लोकप्रिय थी (श्लो० १३२)।
१. हरि और हरका उल्लेख भी अभिप्रेत हो सकता है। टीकाकारोंका यही मत है।
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११. समाजके निर्धन वर्गकी ओर भी कुछ संकेत मिलते हैं । एक स्थानपर वर्षाऋतु में टूटे-फूटे घरमें रहनेवाली एक दरिद्र गृहिणी (इलो० ११८) का उल्लेख है तो दूसरी जगह वर्षाऋतु में वायुके वेग से ध्वस्त झोंपड़ी में हुए छिद्रोंसे जलके प्रवेश ( श्लो० १२६ ) का उल्लेख भी मिलता है ।
धाय (धात्री, श्लो० १११ ) और गुरुजनों (श्लो० १६ ) का उल्लेख भी मिलता है ।
१२. घी और मधु भोजन के महत्त्वपूर्ण अंग थे ( श्लो० १०९ ) । एक स्थलपर कहा गया है कि खारे पानी से प्यास दुगुनी हो जाती है (श्लो० १३० ) ।
मद्यपान सामान्यतः प्रचलित था । मद्य चषक में किया जाता था । स्त्रियाँ भी सुरापान करनेमें नहीं हिचकती थीं (श्लो० १२० ) । एक श्लोक में मद्यपानसे मत्त स्त्रीकी चर्चा की गयी है (श्लो० ५५) ।
१३. चीनी रेशम (चीनांशुक) भारतमें अत्यन्त प्राचीनकाल से बहुत लोकप्रिय था । इसका प्राचीनतम ज्ञात उल्लेख कौटिलीय अर्थशास्त्र ( ई० पू० चतुर्थ शती) में प्राप्त होता है ।' केवल इसी एक वस्त्रका उल्लेख अमरुशतक में मिलता है जिससे पूर्व मध्यकालीन भारतमें विशेषतः स्त्रियोंमें, इसकी लोकप्रियता सूचित होती है। ( श्लो० ७७) स्त्रियोंका सामान्य वेष सम्भवतः दो वस्त्रों का था - अधोवस्त्र, जो वर्तमान धोतीकी तरह पहना जाता था, और उत्तरीय (इलो० ७८, ११३) जो गुलुत्रन्दकी तरह कन्धोंपर डाल दिया जाता था । अधोवस्त्र कटि पर गांठ (नीवी, श्लो० १०१, नीवी बन्ध, श्लो० ११२) लगाकर बांधा जाता था । सिले हुए कपड़े भी पहने जाते थे । कञ्चुक ( श्लो० ११) अथवा कञ्चुलिका ( श्लो० २७), जो आजकलकी चोलीकी तरह था, की चर्चा मिलती है । स्तनों के विस्तार के कारण कञ्चुकके विस्तारके टांकों (सन्धि) के टूटनेका उल्लेख है ( इलो० ११) । कञ्चुलिका गाँठ (वीटिका) बाँधकर पहनी जाती थी (इलो० २७) । अर्जुनवर्मदेवके अनुसार यह दक्षिणी चोली थी, क्योंकि उसीको बाँधने में तनीका व्यवहार किया जाता था । किन्तु यह ठीक प्रतीत नहीं होता क्योंकि उत्तर भारतमें भी तनी बाँधकर चोली पहनने की प्रथा प्रचलित रही हो तो कोई आश्चर्य नहीं । आजकल भी उत्तरी भारतमें यह ढंग दिखाई देता है ।
कञ्चुक स्त्री वेशके रूपमें गुप्तकाल के बाद ही भारतीय कलामें अंकित दिखाई देता है ।
१. अर्थशास्त्र (२-११-११४) । चीनपट्टके स्रोतके रूपमें चीन भूमिका उल्लेख कभी-कभी अर्थशास्त्र के परवर्ती होने का प्रमाण माना जाता है। कुछ चीन विद्या विशारदोंके अनुसार समस्त देशके लिए चीन शब्दका प्रयोग सर्वप्रथम प्रथम त्सिन् अथवा चीन राजवंशके काल ( ई० पू० २२१-२०९ ) में हुआ । इस कठिनाई - को दूर करनेके लिए स्व० डॉ० काशीप्रसाद जायसवालने भारतीय साहित्य में उल्लिखित चीनोंकी पहचान गिलगितकी शीन नामक एक जनजातिसे करनेका सुझाव दिया था । द्रष्टव्य - हिन्दु पॉलिटी पृ० ११२, टिप्पणी १ । डॉ० मोतीचन्द्र इसकी पहचान काफिरीस्तान, कोहिस्तान और दरद प्रदेशसे करते हैं जहाँ शीन बोली बोली जाती है । देखिये प्राचीन भारतीय वेशभूषा, पृ० १०१ । किन्तु यह अधिक सम्भव है कि यह नाम उत्तर-पश्चिमी चीन के त्सिन् नामक राज्य, जो चुनचिन काल ( ई० पू० ७२२४८१) तथा युद्धरत राज्यके काल ( ई० पू० ४८१ - २२१ ) में विद्यमान था, से निकला । इसी राज्यके माध्यम से भारत समेत पश्चिमी संसार और चीनके सम्बन्ध स्थापित हुए । द्रष्टव्य- एज ऑफ इम्पीरियल यूनिटी, पृ० ६४४, भाण्डारक प्राच्य विद्या प्रतिष्ठानकी पत्रिका, खण्ड ४२ (१९६१), पु० १५०-१५४; आर० पी० कांगले, दी कौटिलीय अर्थशास्त्र : ए स्टेडी, पृ० ७४-७५ ।
२. कञ्चुलिका चयं दाक्षिणात्य चोलिकारूपैव । तस्या एव ग्रन्थनपदार्थे वोटिकाव्यपदेशः । ३. वासुदेवशरण अग्रवाल, हर्षचरित : एक सांस्कृतिक अध्ययन, चित्र, २७ ।
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कपड़े (सम्भवतः धोतो)के पल्लू के लिए अंशुकपल्लव शब्दका व्यवहार किया गया है (श्लो० ८५) ।
१४. स्त्रियों द्वारा शरीरके विभिन्न अंगों पर पहने जानेवाले अनेक आभूषणोंकी चर्चा प्रसंगवश अमरुशतकमें आयी है। कानोंमें कुण्डल पहने जाते थे (श्लो० ३) प्रतीत होता है कि कभी-कभी एक हो कानमें एकाधिक कुण्डल पहननेका रिवाज भी प्रचलित था (कुण्डल-स्तवक, श्लो०१०८)। श्लोक १६में कानोंमें पद्मराग मणि पहनने का उल्लेख है। बाँहों में बाजूबन्द (केयूर) पहनते थे (श्लो० ६०)। वक्ष पर मोतियोंका हार (तारहार, श्लो० ३१; गुप्ताहार, श्लो० १३८) पहना जाता था। हार कामाग्निका ईंधन कहा गया है (श्लो० १३०)। हाथोंमें वलय पहननेका रिवाज था। पैतीसवें श्लोकमें प्रियतमके प्रवास पर जानेका निश्चय करनेपर प्रियतमके हाथसे दौर्बल्यके कारण बलयके ढीले हो जाने अथवा हायसे वलयके गिर जानेका वर्णन बहधा मिलता है और यह एक प्रकारका कवि समय बन गया था।
कमरमें करधनी पहनी जाती थी, जिसके लिए मेखला (श्लो० १०१) और काञ्ची (श्लो० २१, ३१, १०९) शब्दोंका व्यवहार किया गया है। यह कटिको अलंकृत करनेके अतिरिक्त धोतीको बाँधने अथवा सम्हालनेके काम आती थी (श्लो० २१,१०१)। करधनीमें घुघरू (मणि) भी बाँधे जाते थे, जिनसे कलकल ध्वनि होती थी (श्लो० ३१, १०९)। पैरोंमें नपुर पहने जाते थे (श्लो० ७९, ११६, १२८)। कभी-कभी नूपुरमें भी धुंघरू बाँध देते थे जिनसे पैर हिलने पर मधुर ध्वनि निकलती थी (श्लो० ३१)।
एक स्थलपर विशिखाका भी उल्लेख मिलता है (श्लो० १११) । जो कौटिल्यके अनुसार सुनारोंकी गलीके अर्थ में प्रयुक्त होता था। संदंशक अथवा संडसीका भी उल्लेख आता है जिसे सुनार अपने व्यवसायमें काममें लाते होंगे। श्लो० ५९में चन्द्रकान्त और वज्र (हीरा)का उल्लेख आया है । वज्र अपनी कठोरताके लिए प्रसिद्ध था और फलस्वरूप कठोर व्यक्तिके लिए वज्रमय शब्दका प्रयोग प्रचलित था।
_फूल और पत्ते भी विभिन्न आभूषणोंके रूपमें पहने जाते थे । इस रिवाजका उल्लेख प्राचीन भारतीय साहित्यमें बहुधा मिलता है। अमरुकने फूलोंकी माला (श्लो० ९०) और कानोंमें मञ्जरी समेत पल्लवोंके कनफूल (कर्णपूर), जिसके चारों ओर लोभसे भौंरे चक्कर लगाया करते थे (श्लो० १) पहननेका उल्लेख किया है।
१५. केश विन्यासकी विभिन्न पद्धतियां प्राचीन भारतमें प्रचलित थीं। इनमें से अमरुशतकमें धम्मिल्ल (श्लो० ९८, १२१) और अलकावलि (श्लो० १२३)की चर्चा की है। धम्मिल्ल बालोंके जूड़ेको, जो फलों और मोतियों इत्यादिसे सजाया जाता था, कहते थे। यह प्रायः सिरके ऊपरी भागमें बाँधा जाता था। इसका उल्लेख भारतीय साहित्यमें बहुधा आता है।४ कलामें भी इसका चित्रण प्रायः मिलता है ।५ अमरुकने धम्मिल्लके मल्लिका पुष्पोंसे सजानेका उल्लेख किया है (श्लो० १२१)।
१. द्रष्टव्य-मेघदूत, १०२; अभिज्ञानशाकुन्तल, ३-१०; कुट्टनीमत, २९५ । २. कोक सम्भवने ८७वें श्लोककी टीकामें नूपुरोंको पुरुषों के लिए अनुचित कहा है। ३. तुलनीय, धम्मिल्लः संयताः कचाः, अमरकोश, २०६-९७ ।। ४. द्रष्टव्य-भर्तृहरिका शृङ्गारशतक, श्लो०४९; गीतगोविन्द, २; चौरपञ्चविंशिका, ७९ । डॉ० वासुदेव
शरण अग्रवालके अनुसार धम्मिल्ल सम्भवतः द्रविड़ था द्रमिड़ या दमिल शब्द से निकला है। द्रष्टव्य
हर्षचरित : एक सांस्कृतिक अध्ययन, पृ० ९६ । ५. पन्त प्रतिनिधि, अजन्ता, फलक ७९ एन्शिएण्ट इण्डिया, संख्या ४, फलक ४४ ।
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अलकावलिमें, जैसा कि नामसे ही स्पष्ट है, बाल इस प्रकारसे सजाये जाते थे कि उनकी धुंधराली लटें माथे पर आती थीं। इस प्रकारका केशविन्यास अहिच्छत्राकी मृण्मूर्तियोंमें सुन्दर रूपमें अंकित है।' इस सन्दर्भमें अहिच्छत्राके शिव मन्दिर (ई० ४५० और ६५० के बीच) में प्राप्त पार्वतीके अत्यन्त कलापूर्ण सिरका उल्लेख करना चाहिए, जिसमें धम्मिल्ल व अलकावली दोनोंका अंकन एक साथ मिलता है ।
केशोंको सजानेका दूसरा प्रकार भी था-कबरी या चोटी बाँधना। यह भी फूलोंसे सजायी जाती थी (श्लो० १२४) । विरहमें लम्बी बिखरी लटें रखनेका रिवाज था (श्लो०८८)।
१६. प्राचीन भारतमें स्त्रियोंको प्रसाधनमें आजसे अधिक रुचि थी। यदि यह कहा जाय कि यह उनके जीवनका एक अनिवार्य अंग था तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। अमरुशतकमें स्त्रियोंके प्रसाधनोंकी चर्चा स्वभावत: अनेक स्थलों पर आती है। शरीरपर विविध प्रकारके सुगन्धित पदार्थोंका लेप किया जाता था। इनमें चन्दन (श्लो० ७३, १२४, १०५, १३५) कुङ्कुम (श्लो० ११३, ११९) और अगुरु (श्लो० १०७) का उल्लेख अमरुकने किया है। इन लेपोंके लिए पङ्क (श्लो. १०७) और अङ्गण (श्लो० १७) तथा विलेपन (श्लो० २६) शब्दोंका प्रयोग किया गया है। स्तनों पर अङ्गराग लगानेकी चर्चा प्रायः मिलती है।
पान या ताम्बूल खाने की प्रथा भारत में अत्यन्त प्राचीन कालसे प्रचलित थी और स्वास्थ्य सम्बन्धी कारणोंके अतिरिक्त इसका एक प्रमुख उद्देश्य था-अधरोंमें आकर्षक लाली पैदा करना (श्लो० १८, ६०, १०७, १२४)। आँखोंमें काजल ( कज्जल, श्लो० ६०) अथवा आञ्जन (अञ्जन, श्लो० १०५, १२४) लगानेकी प्रथा थी। अधरोंमें लाली लगायी जाती थी (श्लो० १०५)। गालों पर विविध प्रकारकी फुल पत्तोंकी आकृतियाँ सुगन्धित पदार्थोसे अंकित की जाती थीं। उनके लिए विशेषक (इलो० ३) और पत्राली (श्लो० ८१) शब्दोंका उपयोग किया गया है । पैरोंमें आलता (अलक्तक, श्लो०१०७, ११६, १२८, लाक्षा, श्लो०६०) लगाया जाता था।
धारायन्त्र अथवा फौवारेसे स्नान करनेका उल्लेख श्लो० १२५में आया है ।
१७. मनोरञ्जनके साधनोंका उल्लेख अमरुशतकमें नहींके बराबर है। केवल घरमें तोता पालने के रिवाज की चर्चा आयी है। गृहशुककी वाणीके अनुकरणमें प्रवीणताका उल्लेख कई श्लोकोंमें किया गया है (श्लो० ७,१६, ११७) । उसे अनार खानेका शौक था।
स्त्रियाँ कमलसे प्रायः खेलती थीं (लीलातामरस, श्लो०६०)। स्त्रियों द्वारा अपने प्रियतर्मोको लीला कमलसे मारनेका उल्लेख है (श्लो० ७२)।
१८. घरोंको बन्दनवार (बन्दनमालिका)से सजानेकी प्रथा थी। विशेषतः किसी प्रिय व्यक्तिके आगमन पर मङ्गलके रूपमें बन्दनवार सजायी जाती थी। इसके लिए कमल भी काम में लाया जाता था (श्लो०४५)।
१९. घरेलू उपयोगकी वस्तुओंमें पलंग (तल्प, श्लो० १०१), आसन (श्लो० १८-१९) बिछानेकी चादर (प्रच्छदपट, श्लो० १०७), प्रदीप (श्लो० ७७, ९१), कलश (श्लो० ११९), कुम्भ (श्लो० ४५,)
१. पूर्वोक्त, मृण्मूर्ति क्रमांक १७०, २६७, २७४, २७५ । २. पूर्वोक्त, फलक, ४५ । २०४ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ
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१३७), और ईन्धन (श्लो० १३४) का उल्लेख मिलता है। श्लो० १३७में सोनेके घड़े (शातकुम्भ कुम्भ) की चर्चा है।
२०. कुछ तत्कालीन शिष्टाचारोंका भी उल्लेख मिलता है। जब कोई प्रिय यात्रापर रवाना होता था तो पुण्याह किया जाता और यात्राके सकुशल सम्पन्न होनेके लिए मंगलकामना की जाती थी (श्लो० ६१)। प्रिय अतिथिके स्वागत के लिए बन्दनवार सजायी जाती, फूलोंका गुच्छा भेंट किया जाता और घड़ेसे पानीका अर्घ दिया जाता था (श्लो० ४५)। प्रार्थना अथवा याचना करते समय अञ्जलि बाँधनेका रिवाज था (श्लो० ८५)। दान देते समय अञ्जलिसे जल देनेकी प्रथा बहुत प्राचीन कालसे प्रचलित थी और प्राचीन ताम्रपत्र लेखोंमें इसका बहधा उल्लेख मिलता है। जलाञ्जलि देना किसी वस्तुके स्वामित्वके पात्रका सूचक था (श्लो० ५४) ।
२१. एक स्थलपर डौढ़ी (डिण्डिम) पीटनेका उल्लेख मिलता है। यह आहत प्रकारका वाद्य था (श्लो० ३१) । श्लोक ५१-५२ में चित्रकलाके मूल सिद्धान्तका उल्लेख किया गया है। रेखान्यास चित्रकलाका मूल है।
२२. प्राचीन साहित्यके बारेमें अमरु शतकमें केवल एक ही उल्लेख आया है। १२वें श्लोकमें धनञ्जय (अर्जुन)को गाय लौटाने में समर्थ कहा गया है। यह निश्चय ही महाभारतमें आयी हुई पाण्डवों द्वारा विराटकी गायोंकी रक्षा करनेकी कथाका संकेत है।
२३ पहले श्लोकमें खटकामुख नामक मुद्राका उल्लेख आया है । इस मुद्राका वर्णन भरतके नाट्यशास्त्रमें प्राप्त होता है।'
२४, तत्कालीन राजनीतिक विचारों और संघटनके विषयमें अमरु शतकसे कोई जानकारी नहीं मिलती। केवल कुछ प्रहरणों, जैसे धनुष (चाप, श्लो० १३५), बाण (शर श्लो०२), धनुषकी प्रत्यञ्चा (ज्या, श्लो० १) और ब्रह्मास्त्र (श्लो० ५२)का उल्लेख प्राप्त होता है। एक स्थानपर स्कन्धावारकी भी चर्चा की गयी है (श्लो०११५)। श्लो०१३७में वेदि पर आसीन राजाके सोनेके घड़ोंसे अभिषेक किये जानेका उल्लेख है। वेदिके दोनों ओर केलेके दण्ड लगाये जाते थे।
२५. वासगृह अथवा शयनकक्ष (श्लो० ८२) घरका एक अनिवार्य अंग था। घरके आँगनमें बगीचा (अंगण-वाटिका) लगाया जाता था। उसमें लगाये जानेवाले वृक्षोंमें आम जैसे बड़े वृक्षका भी समावेश था (श्लो० ७८)।
२६. प्रसंगवश निम्ननिर्दिष्ट पशु-पक्षियोंकी भी चर्चा आई है-गाय (श्लो० ३२), हिरण (मृग, श्लो० ६०; सारङ्ग श्लो० ७३; हरिण श्लो० १३८), मोर (शिखी, श्लो० ११८), खंजरीट (श्लो० १३५), तोता, भौंरा (भ्रमर, श्लो० १, अलि, श्लो० ९६) और भौंरी (भंगांगना, श्लो० ७८)। स्त्रियोंके नेत्रोंकी हिरणकी आँखोंसे तुलना एक प्रकारका कवि समय बन गया था। फलस्वरूप उनके लिए मृगदृक्ष, हरिणाक्षी और सारंगाक्षी जैसे शब्दोंका प्रयोग होता था। वर्षा ऋतुमें मोरोंके पंख ऊँचे कर बादलोंसे गिरती बूंदोंको देखनेका वर्णन है । भौंरों-भौंरियों के फूल-पत्तियोंके आसपास मँडराने और गुंजारनेका उल्लेख है।
२७. वृक्ष-वनस्पतियोंमें सबसे अधिक उल्लेख कमलके हैं। उसके लिए उत्पल (श्लो० २,२९),
१. नाटयशास्त्र ।
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तामरस (श्लो० ६०,७२), नलिन (श्लो० ११७), राजीव (श्लो० १२३), शतदल (श्लो० ११७) और पंकज (श्लो० १३२) शब्दोंका प्रयोग आया है। कमलकी डण्डीके लिए नलिनीनाल (श्लो० १०४) और उसके पत्तोंके लिए नलिनीदल (श्लो० १३४) शब्द व्यवहृत हुए हैं। नीलकमल (इन्दीवर)के बन्दनवार सजानेकी चर्चा श्लोक ४५ में आई है। मल्लिका ग्रीष्म ऋतुमें फूलती (श्लो० ३१) और उसके फूल केशपाश शजानेमें काम आते थे (श्लो० १२१)। प्रसंगवश कुन्द, जाति (श्लो० ४५), आमकी मंजरी (श्लो० ७८) अनारके फल (श्लो० १६), कल्हार, सप्तच्छद (श्लो० १२२), कन्दल (श्लो० १२६) और केले (कदल)के काण्ड (श्लो० १३७) का उल्लेख हुआ है।
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'कान्हड़दे प्रबन्ध' और उसका ऐतिहासिक महत्त्व
डॉ० सत्यप्रकाश
'कान्हड़दे प्रबन्ध कवि पद्मनाथ विरचित माना जाता है। इसका गुजराती विद्वान् और लेखक श्रीकान्तिलाल बलदेव रामव्यास ने किया था । हुआ था ।
यह ग्रन्थ अनेक दृष्टियों से असाधारण महत्त्व का है। जिस छन्द में उसकी रचना तिथि दी हुई है उसके जो दो परस्पर भिन्न पाठ हैं वे इस प्रकार हैं
सम्पादन कुछ समय पूर्व प्रसिद्ध इसका प्रकाशन १९५५ ई० में
१. पचतालीस ३ पूर्ण बरीस मास मागसिर पूनिम दीस । संवत् पंनर बारो तरउ, तिणिदिनि सोमवार विस्तरु ॥ २. संवत् पनर बारोतर सार, माह साम पुम्यम सोमवार । जाल्हुर गढ़ घण उलट धरी, गायु कान्ह विशेष करी ॥
इन दोनों में रचना संवत् १५१२ ही आता है । ग्रन्थकी एक अन्य प्रति सं० १५९८ वर्षे कात्ती वदी ९ गुरुवार की लिखी हुई है । कुछ भी हो यह अब सिद्ध-सा है कि यह ग्रन्थ सं० १५१२ में लिखा गया होगा । ऐतिहासिक दृष्टिसे इस ग्रन्थका बहुत महत्त्व है । ग्रन्थकार उसी राजवंशसे सम्बन्धित था जिसको ग्रन्थ के कथानकने पवित्र किया था। यह भी सम्भव हो सकता है कि उसको कथाकी समस्त सामग्री उस राजवंश के लिखित और अलिखित इतिहासोंसे प्राप्त हुई हो। उस युग के इतिहासको जानने के लिये यह एक अपूर्व ज्ञान भण्डार है ।
यही नहीं, कविता की दृष्टिसे एवं आदर्शों के लिये जीवनोत्सर्ग काव्य के रूपमें इसका स्थान साहित्य के इतिहास में सदा अमर रहेगा। आइये अब इसमें वर्णित कथापर दृष्टिपात करें और इसके आधार पर तत्कालीन मारवाड़ के इतिहासको जानें। विशेषकर जालौर के इतिहास को जानने का यह अनूठा स्त्रोत है । इसके आधार पर उस क्षेत्रका इतिहास पटना में इस प्रकार वर्णित है। मारवाड़ देश में १६ की शताब्दी में सोनगरा चौहान वंश का राज्य जालौर नगर पर था । कान्हड़दे उसका प्रतिभावान शासक उस समय था । वह इतिहास प्रसिद्ध मात्रदेवका भाई था । उसके पुत्रका नाम वीरमदे था । उस समय गुर्जर का राजा सारंदे था। उसने एक दिन माधव नामक ब्राह्मण को अपमानित कर दिया। इसी दुर्घटना के कारण ही विग्रहका प्रारम्भ हो गया ।
अपमानको सहन न करके माधवने प्रतिज्ञा की कि वह भोजन तभी करेगा जब वह गुजरातपर तुर्कोंको ला उपस्थित करेगा ।
कुछ ही समय में वह दिल्ली चल दिया वहाँ पहुँचकर खिलजी सुलतान अलाउद्दीनसे मिला। अलाउद्दीनसे उसने सारी कथा बताई उसने इस बात के लिये भी उसे प्रेरित किया कि वह गुजरातपर आक्रमण कर दे। सुल्तानने उसपर विचार किया और उसने उसकी बात जंच गई। उसने उसकी बात मानकर गुजरात
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पर आक्रमणकी आज्ञा दे दी। पर उस समय गुजरात पहुंचनेका मार्ग मारवाड़ प्रदेश स्थित जालौरसे रोका था। उसने उस दशामें जालौर के राजा कान्हड़देके पास एक दूत भेजा कि वह उसकी सेनाको मार्ग दे दे। कान्हड़देने सुल्तानकी इस प्रार्थनाको मानना ठीक न समझा । उसने उसे मार्ग देनेसे अस्वीकार दिया। इसपर सुल्तानकी सेनाने मेवाड़ होकर गुजरातपर चढ़ाई की। मेवाड़ के रावल समरने उसे मार्ग दे दिया।
सुल्तानकी विशाल सेनाके सामने गुर्जराधीश टहर न सका और पाटणपर सुल्तानकी सेना आधिपत्य हो गया। तत्पश्चात् सुल्तानकी सेना बढ़ती ही चली गई और उसने एक एक करके गजरात और सौराष्ट्र के सम्पूर्ण स्थानोंपर अधिकार कर लिया। सोमनाथकी रक्षाका प्रयत्न राजपूतोंने बड़ी ही वीरताके साथ किया किन्तु वे असमर्थ रहें और उन्होंने वीरताके साथ युद्ध करते हुए अपने प्राणोंको न्यौछावर कर दिया।
गजरात और सौराष्ट्रपर अधिकार करनेके अनन्तर सुल्तानकी सेना मारवाड़ की तरफ बढ़ी । कान्हड़देने अपनी सेनाको उसकी सेनाका सामना करने के लिये उद्यत कर दिया था। अतः सुल्तानकी सेनाका सामना डट कर सोनगरा चौहान सेनाने किया । भीषण युद्ध हुआ। सुल्तानकी सेना इस बार विजय न प्राप्त न कर सकी । जालौरपर पुनः आक्रमण करनेकी सुल्तानने ठानी। पर इसबार जालौरपर सीधा आक्रमण न होकर जालौरके समीपस्थ स्थान समीयाणेपर आक्रमण किया गया। उस स्थानपर कान्हड़देका भतीजा सीतल सिंह राज्य कर रहा था । भतीजेको संकट ग्रस्त देखकर कान्हड़देने उसकी सहायता की। सुल्तानकी सेनाको पुनः पराजय स्वीकार करनी पड़ी।
इन दोनों पराजयोंसे सुलतानको बहुत ही खेद हुआ। वह लज्जाके मारे चिन्तित था और सदा इसी चिन्तामें था कि वह किस प्रकार उनसे बदला ले। पहलेके उपर्युक्त आक्रमणोंमें सैन्यका सञ्चालन उसके सेनापतियोंने किया था। इस बार उसने स्वत: सैन्यसञ्चालन की ठान ली। सैन्यसञ्चालनका भार अपने ऊपर लेकर उसने अवसर पाकर समीयाणेका घेरा डाल दिया। दलबादलसे आक्रमण करनेपर भी उसको स्वयं लेना मंहगा पड़ा। यह घेरा सात वर्षों तक समीयाणे के चारों ओर डाले पड़ा रहा और अथक परिश्रमके पश्चात् भी उसपर अधिकार न कर सका। बल द्वारा गढ़पर अविकार न कर सकने में समर्थ अनुभव करके अलाउद्दीनने एक घृणित उपायका सहारा लिया। गढ़की दीवालों से डट कर बने हुए गढ़के भीतरके जलाशयको उसने अपवित्र करने की ठान ली। वह जलाशय ही एकमात्र जल प्राप्त करनेका साधन समीयाणे की जनताके लिए था। समस्त जनताका जीवन उसपर निर्भर था। ऐसा समझ कर उसने उस जलाशयमें गौवें कटवाकर डालनेका निश्चय किया । उस निश्चयके आधार पर उसने बहतसी गौवोंके मारे जानेका आदेश दिया। उन्हें मारे जानेपर उसने बोरोंमें बंधवाया और रातों रात उन्हें गढ़की दीवलपरसे जलाशयमें डलवा दिया।
प्रातः होनेपर जब समीयाणेकी जनताने यह दुष्कृत्य देखा तो उनके सम्मुख केवल दो ही विकल्प रह गये थे। वे या तो उस जलको ग्रहण करें जो दूषित ही नहीं वरन अपेय था अथवा जल त्याग कर अपने प्राणोंका उत्सर्ग करदें। वीर प्रसविनी भूमि राजस्थानके निवासी उस समय दूसरे विकल्पको स्वीकार कर अपने प्राणोंको देनेपर तत्पर हो गये। उनके साथ ही समस्त वीराङ्गनाओंने भी जौहर व्रतका पालन किया ।
इस समाचारको जब अलाउद्दीनने सुना वह स्तब्ध रह गया और उसने सान्तलके पास सन्देश भेजा कि वह उसका आधिपत्य मात्र ही स्वीकार कर लें और घेरा उठा लिया जाय। किन्तु सान्तल इस शर्तपर तैयार न हुआ । तदनन्तर सम्पूर्ण राजपूतसेनामें उत्साहका सञ्चार हो गया। उसने खुलकर सुल्तानी सेनासे एक साथ युद्ध किया और प्रत्येक वीरने लड़ते-लड़ते अपने जीवनकी बलि दे दी।
समीयाणे पर आधिपत्य कर लेने के पश्चात् अलाउद्दीनने कान्हड़देके पास सन्देश भेजा कि वह उसके
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आधीन हो जावे । किन्तु कान्हड़देने उसके प्रस्तावको अस्वीकार कर दिया, अलाउद्दीनने जालौरपर आक्रमण कर दिया। उसकी सेनाने जालोरके समीप ही पड़ाव डाल दिया। इस आक्रमण के समय सुल्तानके साथ उसकी कन्या फीरोज़ा भी साथ थी। वह कान्हड़देके कुमार वीरमदेके गुणोंकी ख्याति सुनकर उसपर आसक्त हो चकी थी । वीरमदेके साथ उसकी विवाहकी इच्छा ज्ञात कर सुल्तान अलाउद्दीनने विवाह सम्बन्धी प्रस्ताव कान्हड़देके पास भेजा। किन्तु अपनी जाति एवं वंशकी मर्यादाका ध्यान कर कान्हड़देने अलाउद्दीन का यह प्रस्ताव ठुकरा दिया। अलाउद्दीनको यह असह्य हो गया। उसने आगे बढ़कर जालौर का घेरा डालनेका निश्चय किया और अन्तमें उसने घेरा डाल भी दिया। पर इस बार भी सुलतानको सफलता हाथ न लगी अलाउद्दीनने विवश होकर अपनी राजधानी को लौटने की तैयारी की। किन्तु सुल्तानकी कुमारी फीरोजा वीरमदेवके दर्शनोंके लिए व्यग्र थी। उसने सेनाकी एक टुकड़ी लेकर गढ़के भीतर जानेका विचार किया। वह सेनाकी एक छोटी-सी टुकड़ी लेकर भीतर पहुँच गई भी । कान्हड़देने जब उसे वहाँ देखा तो उसने उसका स्वागत किया। वीरमदेव भी उससे आकर वहाँ मिला। उस समय राजकुमारीने स्वतः वीरमदेवसे विवाहका प्रस्ताव किया। वीरमदेवने अपनी जाति कुलकी प्रतिष्ठाका ध्यान रखते हुए उस प्रस्तावको अस्वीकार कर दिया। राजकुमारीने तब जालौर देखने की इच्छा प्रकट की। कान्हड़देने उसे सम्पूर्ण सुविधायें जालौर देखनेकी प्रदान कर दी । जब वह जालौर देख चुकी तब कान्हड़देने उसे प्रचुरमात्रामें भेंट दी और सम्मान एवं प्रसन्नतापूर्वक विदाई भी दी। अलाउद्दीन और उसकी राजकुमारी इस प्रकार कान्हड़देके आतिथ्यसे प्रभावित होकर अपनी राजधानीको लौट गये ।
समय बीतता गया और आठ वर्ष बाद अलाउद्दीनकी सेनाने सुल्तानके आदेशको पाकर जालौरपर पुनः आक्रमण कर दिया। इस बार राजकुमारी फीरोज़ स्वयं जालोर न आई। उसने अपनी धायको सेनाके साथ भेज दिया। उसने उससे कहा कि यदि वीरमदे युद्ध में बन्दी हो जावे तो वह उसके पास जीवित ले जाया जाये और वह युद्धमें वीरगतिको प्राप्त हो तो वह उसका सिर उसके पास ले आवे ।
यथासमय योजनानुसार जालौरके चारों ओर घेरा डाल दिया गया। युद्ध चार वर्ष चलता रहा। जालौर का घेरा डालनेवालोंका मुकाबला चार वर्ष तक मालदेव और वीरमदेके नेतृत्वमें जालौरकी जनताने किया। उन्होंने सुल्तानी सेनाके छक्के छुड़ा दिये किन्तु राजकीय भण्डार रिक्त-सा हो गया। उस स्थानके व्यवसायियोंने अपने समस्त भण्डार एकत्र करके देशकी रक्षाके लिये अर्पित कर दिये। ऐसे त्याग तथा बलिदानने योद्धाओंका साहस बढ़ा दिया और जालौरकी जनताने आठ वर्षांतक आगे शत्रुका सामना किया। बारह वर्षोंके लम्बे समयमें जलाभावका भी एकसे अधिक बार भय हुआ। किन्तु ईश्वरकी कृपासे वह पूर्ण होता चला गया। किन्तु विश्वासघातपर वश नहीं हो पाया और एक ऐसी दुर्घटना हो गई। सुल्तानकी सेनाके योद्धाओंने प्रलोभनके आधारपर एक सेजवाल वीकमसे एक ऐसा गुप्त मार्ग जान लिया जिससे शत्रुसेना गढ़में घुस सकती थी। उस मार्गको अपनाकर सारी सेना जालौर गढ़के भीतर घुस गई। पर जब सेजवालकी स्त्री हीरादेवीको यह पता चला कि उसके पतिने अपने राजाके साथ ही नहीं अपने देशके साथ विश्वासघात किया उसने राजस्थानकी वीराङ्गनाओंके समान अपने सुहागको चिन्ता न करके उसका वध अपने हाथों ही कर डाला और शत्रुसेनाके गढ़ के अन्दर आनेकी सूचना अपने राजाको दे दी। उस समय शत्रुसेना सारीकी सारी धीरे-धीरे गढ़के भीतर पहुँच गई थी। राजा तथा उसके सैनिक राजपूत योद्धा उनकी संख्याको देखकर हताशसे थे क्योंकि राजपूत सैनिक घेरेके बारह वर्षोंकी अवधिमें संख्यामें अत्यल्प रह गये थे। उनके सामने दो ही विकल्प थे-या तो वश्यता स्वीकार करें या प्राणोंकी आहुति दें। सच्चे राजपुत पहलेकी
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अपेक्षा दूसरे विकल्पको ही वरण कर सकते थे । ऐसा ही हुआ भी । सबने प्राणोंकी बाजी लगा दी । घमासान युद्ध छिड़ गया। कान्हड़दे युद्ध करता हुआ मारा गया। साठ दिनतक राजकुमार वीरमदेने भी युद्ध किया । इसी बीच रानियोंने जौहर किया। वीरमदेवने जब देखा कि युद्धको उस समय चालू रखनेकी सम्भावना नहीं थी और उसका पराजित होकर बन्दी होना निश्चित-सा ही था तो उसने विवश होकर स्वयं अपने उदरमें कटार भोंक दी और शत्रु पक्षके अनेक सामन्तोंको मौत के घाट उतार करके उसने अपने प्राण दे दिये। फीरोजाकी घाय उसके सिरको लेकर दिल्ली चल दी और उसने फीरोजाको भेंट कर दिया । राजकुमारीने वीरमदेवकी वीरता एवं क्षत्रिय वंश-परम्परागत हठ एवं बलिदान से मुग्ध होकर उसके सिरको स्वयं लेकर यमुनातटपर पहुँचनेका निश्चय किया और वह वहाँ पहुँच भी गई। वहाँ पहुँचनेपर उसने उसका विधिवत् संस्कार किया और तदनन्तर वह यमुनामें उसके सिरको लेकर कूद पड़ी । इस प्रकार फ़ीरोज़ाने अपने हार्दिक प्रेमको जो वह अपने अन्तस्तलमें छिपाये भी स्वयं आत्मसात् होकर प्रमाणित कर दिया।
उपरोक्त रोचक एवं ऐतिहासिक वृत्त हमें केवल कान्हड़दे प्रबन्धसे ही विस्तारपूर्वक ज्ञात होता है। सम्भव है कि इस कथामें कुछ अतिशयोक्तिका पुट हो पर फीरोज़ा और वीरमदेके प्रेमका वर्णन और ग्रन्थोंसे भी ज्ञात होनेसे कान्हड़देके ऐतिहासिक ग्रन्थ होने की पुष्टि होती है । यह एक ही ऐतिहासिक ग्रन्थ है जिसके द्वारा एक मुस्लिम राजकुमारीका एक राजपूत कुमारके प्रति सच्चा प्रेम तथा बलिदानका ज्वलन्त प्रमाण प्रस्तुत किया गया है ।
कुछ भी हो, कान्हड़दे प्रबन्ध जालौर तथा अलाउद्दीन द्वारा उसपर किये गये आक्रमणोंके सम्बन्ध में जाननेका अपूर्व ग्रन्थ है ।
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कान्हड़देप्रबन्ध-सांस्कृतिक दृष्टि से मूल गुजराती लेखक : श्रीभोगीलाल ज० सांडेसरा
अनुवादक : जयशंकर देवशंकरजी शर्मा (श्रीमाली) बीकानेर गुजरात विश्वविद्यालयकी विद्याविस्तार भाषणमालामें इस भाषणको देने हेतु निमंत्रण देनेके लिये सेठ लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामंदिरके नियामक श्री दलसुखभाई मालवणियाका मैं अन्तःकरणपूर्वक आभार मानता हूँ। आजके भाषणके लिये कान्हड़देप्रबन्धका विषय उन्हींकी अनुमतिसे निश्चित हुआ है। श्री डाह्याभाई देरासरी द्वारा सम्पादित इस ग्रन्थकी प्रथमावृत्ति प्रायः मुझे देखने का अवसर सन् १९३०में मिला और उस समय मैंने इसे समझे-बिना समझे ही पढ़ लिया। यह मेरा प्राचीन गुजराती अवलोकनका प्रथमावसर था। तत्पश्चात् इस रचनाको मैंने अपने कालेज अध्ययनके अवसरपर भी पढ़ा है और इसके अध्यापनका भी अवसर आया है। साहित्य, भाषा और संस्कृति-इतिहास इस प्रकारसे विविध दृष्टिसे विचार करते समय इसका आकर्षण बढ़ता ही रहा है तथा इसका महत्त्व समझमें आता गया है। इस भाषण के निमित्त 'कान्हड़देप्रबन्ध' से सम्बन्धित अपने विचारोंको लेखबद्ध करनेका मेरा मन हुआ।
_ 'कान्हड़देप्रबन्ध' सं० १५१२ (ई० स० १४५६) में पश्चिमी राजस्थान में .......भूतपूर्व जोधपुर राज्यके, गुजरातसे सटे हुए दक्षिण विस्तारमें.."आया हुआ जालौर नामक स्थानमें निर्मित काव्य है। (यह भारतीय संस्कृति विद्यामंदिरकी स्थापना जिसके नामसे हुई है उन सेठ लालभाई दलपतभाईके पूर्वज लगभग साँच सौ वर्ष पूर्व अपने मूल पित स्थल ओसियासे निकलकर जालौरके आसपासके पुरोहित ब्राह्मणोंमें ठोस प्रचलित अनुश्रुतिके अनुसार जालोरसे केवल छह माइलकी दूरीपर स्थित सांकरणा नामक गाँवमें कुछ पीढ़ियों तक निवास करनेके बाद गुजरातमें आये थे। यह योगानुयोग, मुझे यहाँ स्मरण हो जाता है। जालोर नगरके ध्वंस हो जानेपर वहाँके जालौरा (झालौरा-झारोला) ब्राह्मण एवं वणिक दक्षिणकी ओर आकर राधनपुरके पास जालौर-जाल्यौधो (वर्तमानका देवगाम)में कुछ समय तक रहकर गुजरातमें अन्यत्र फैल गये । इनकी कुलदेवी हिमजामाता और ज्ञातिपुराण 'वालखिल्यपुराण' है ।
'कान्हड़देप्रबन्ध'की भाषा प्राचीन गुजराती किंवा प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी या मारू-गुर्जर है । इसके रचयिता बीसलनगरका नागर कवि पदमनाभ है। प्राचीन गुजराती साहित्यकी सबसे विशिष्ट एवं विख्यात रचनाओंमेंसे यह एक कान्हड़देप्रबन्ध है। यह एक वीर एवं करुणरससे परिपूर्ण सुदीर्घ कथाकाव्य है। दिल्लीके सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी द्वारा गुजरातके अन्तिम हिन्दू शासक कर्णदेव वाघेलाके शासन-काल में किया गया गुजरातपर आक्रमण और सोमनाथ भंगके अवसरपर दिल्लीसे गुजरातके मार्गपर स्थित जालोर राज्यमेंसे निकलने ( जाने देने के लिये वहाँके राजा सोनगिरा चौहान कान्हड़देवके पाससे मांगी गई अनुज्ञा, किन्तु इस माँगका कान्हड़देव द्वारा अस्वीकार और सुल्तानके योद्धाओंका
१. गुजरात विश्वविद्यालयकी विद्याविस्तार भाषणमालामें सेठ लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर, अहमदाबाद में ता० २९ जनवरी, १९७० को दिया गया भाषण ।
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सोमनाथ शिवलिंगके टुकड़े लेकर गुजरातमेंसे जब वापस लौट रहा था उस समय इसपर आक्रमण कर प्रचण्ड सेनाको लेकर अलाउद्दीन द्वारा जालौरके चारों ओर रहने के बाद एक विश्वासघाती राजपूतकी हीनता के कारण गढ़ जोहर - अन्य कुछेक उपकथाओंको छोड़ देनेपर कान्हड़दे प्रबन्धका
कान्हड़देव द्वारा उसका पराजय, अन्तमें घेरा डालना, इम घेरेके अनेक वर्षों तक (किले) का पतन और राजपूतानियों द्वारा मुख्य कथानक कहानी ही है ।
इस काव्यका सृजन मुख्य रूपसे दोहे - चौपाइयों में किया गया है । यद्यपि बीच-बीच में योग्य स्थानपर करुणरस- परिप्लावित पद- उमिगीत भी आये हैं । पद्मनाभ कविकी वाणी ओजस्वी, प्रवाहबद्ध, प्रासादिक एवं देशभक्ति की सचोट ध्वनिवाली है । कविका भाषा प्रभुत्व एवं शब्द निधि असाधारण है । यह कथा काव्य युद्ध - विजयी होनेपर भी मुस्लिम सत्ताके साथ संघर्षका निरूपण होते हुए, युद्धकी परिभाषाके और फारसी-अरबीके मूल शब्द' भी इसमें प्रचुर मात्रामें आये हैं । पद्मनाभ, कान्हड़देव के वंशज जालौर के शासक अखेराजके राजकवि होने के कारण इन्हें ऐतिहासिक तथ्य एवं पार्श्वभूमिकाका पूर्ण ज्ञान है । हिन्दू और मुस्लिम राजनीतिका इन्हें प्रत्यक्ष अनुभव है और इसी कारण ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक दृष्टिसे भी 'कान्हड़देप्रबन्ध' एक महत्त्वपूर्ण रचनाके रूपमें सर्व स्वीकृत । इसमें तात्कालिक सामाजिक परिस्थितिका पूर्ण आभास मिलता है । इस प्रकारसे भाषा साहित्य एवं ऐतिहासिक ज्ञानपिपासुओंके लिए यह 'कान्हड़देप्रबन्ध' अनेक रूपसे विशेष महत्त्वकी रचना है। गुजरात निवासी कविने राजस्थानके एक प्रमुख शहर जालौर में इसकी रचना की हो । वास्तवमें १६वीं शताब्दि तक गुजरात और राजस्थानकी जो भाषा विषयक एकता थी यह, इस बातका परिचायक बन जाता है । बादके समय में विकसित हुई अर्वाचीन गुजराती और राजस्थानी इन जुड़वांभाषाओं का एक एवं असंदिग्ध पूर्व रूप, अन्यब हुसंख्यक रचनाओंके समान 'कान्हड़देप्रबन्ध' में भी उपलब्ध है |
किन्तु, हमारे प्राचीन साहित्यका अध्यापन करने वालोंको और प्राचीन समयके कवियोंकी रचनाओंको मुख परम्परा द्वारा किंवा अन्य रीतिसे सुरक्षित रखनेवाले जन समुदायको भी 'कान्हड़दे प्रबन्ध' और इस ग्रन्थके रचयिताका विस्मरण हो गया था । अर्वाचीन कालमें इसकी खोजका श्रेय संस्कृत प्राकृतादि सहित भारतीय विद्या प्रकाण्ड विद्वान् डॉ० ज्योर्ज ब्यूलरको है । अनुमानतया सौ वर्ष पूर्व बम्बई सरकारकी योजना के अनुसार संस्कृत हस्तलिखित प्रतियोंकी खोज करते समय थरादके जैन ग्रन्थ भण्डार में प्रथम बार इस 'कान्हड़देप्रबन्ध' की प्रति देखनेमें आई । डॉ० ब्यूलर बम्बई क्षेत्रके शिक्षाविभागीय एक उच्च अधिकारी थे । इन्होंने अपने ही विभागके श्री नवलराम लक्ष्मीराम पण्ड्या जो गुजराती साहित्य के अग्रगण्य अपितु विशिष्ट विवेचक थे । गुजराती भाषाके अधिकारिक विद्वान् के रूपमें आपको इनके प्रति बहुत आदर था । 'कान्हड़देप्रबंध' की नकल करा कर उसे ब्यूलरने नवलरामके पास भेजी । इन दोनोंमें नवलराम 'गुजरात शालापत्र'
१. प्रमाण- दृष्टि से देखें तो प्राचीन गुजराती साहित्यकी किसी अन्य रचनामें फारसी - अरबीके इतने शब्द नहीं हैं । सन् १९५३-५४में जब मैं बी० ए०के छात्रोंको 'कान्हड़दे प्रबंध' का अध्यापन करा रहा था उस समय इसमें के इस प्रकारके शब्दोंकी सार्थ सूची मेरे एक छात्र श्री नलिनकान्त पंड्या की सहायता से एवं बड़ौदा विश्वविद्यालय के फारसी विभागके तत्कालीन अध्यक्ष श्री एम० एफ० लोखण्डवाला के सहयोगसे तैयार की थी । (बुद्धिप्रकाश, जून १९५४) कान्हड़देप्रबंध में फारसी-अरबीके १११ शब्द हैं । एक ही शब्द की पुनरावृत्ति की तथा फारसी अरबीके विशेष नामोंका इस संख्या में समावेश नहीं है । तथापि इस प्रकार के समस्त प्रयोगोंकी भी जानकारी प्रस्तुत सूची में अंकित कर दी गई है ।
२१२ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन ग्रन्थ
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के सम्पादक थे । प्राप्त हुई नकल बहुत ही अशुद्ध थी फिर भी यह व्यर्थ ही नष्ट न हो जाय अतः इन्होंने गुजरात शालापत्रके सन् १८७७-७८ के अंकों में इसे क्रमशः प्रकाशित कर दिया। तत्पश्चात् गुजरात और राजस्थान में विभिन्न स्थानोंसे इसकी अन्य हस्तलिखित प्रतियाँ उपलब्ध होती गई हैं । 'कान्हड़देप्रबन्ध' का प्रथम बार व्यवस्थित सम्पादन श्री डाह्याभाई देरासरी ने किया (प्रथमावृत्ति १९१३ द्वितीयावृत्ति १९२६) उस समय इन्होंने पाँच प्रतियोंका आधार लिया था । राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला में श्री कान्तिलाल व्यासने कान्हड़देप्रबन्धका पुन: सम्पादन किया (सन् १९५३) इसमें समस्त ११ हस्तलिखित प्रतियोंका उपयोग किया गया । इसके बाद में भी कान्हड़देप्रबन्ध की कतिपय हस्तलिखित प्रतियाँ प्राप्त हुई हैं जिनमें बड़ौदा प्राच्यविद्यामंदिरको भेंट मिले हुए यति श्री हेमचन्द्रजीके भण्डार की सं० १६१० में लिखी हुई प्रति ध्यान में देने योग्य है । कतिपय अन्य प्राचीन शिष्ट कवियोंकी रचना जैसी समादृत की गई थी वैसी ही लोकप्रियता 'कान्हड़देप्रबन्ध' को प्राप्त न हुई हो यह इसकी वस्तु स्थिति देखे जाने पर स्वाभाविक है फिर भी गुजरात और राजस्थानके इस काव्यका एक समय विस्तृतरूपसे प्रचार हुआ था इस प्रकारसे जो दूर दूरके स्थानों में इसकी हस्तलिखित प्रतियाँ लिखी गई हैं एवं विभिन्न स्थानोंके ग्रन्थभण्डारोंमें वे सुरक्षित रखी गई हैं, यह उपरोक्त वर्णन से सिद्ध हो जाता है ।
इस रचनाको 'प्रबन्ध' कहा गया है तो यह 'प्रबन्ध' क्या है ? वैसे तो 'प्रबन्धका शब्दार्थ मात्र 'रचना' ही है । संस्कृत साहित्यकी बात करें तो प्रबन्ध यह गुजरात और मालवाका एक विशिष्ट साहित्यिक रूप है और मध्यकालमें विशेषकर जैन लेखकोंका यह प्रयास है । सामान्यतया सादे संस्कृत गद्य में और यदाकदा पद्य में रचे हुए ऐतिहासिक किंवा अर्द्ध ऐतिहासिक कथानकों को 'प्रबन्ध' के नामसे पहचाना जाता है । मेरुतुंगाचार्यकृत 'प्रबन्धचिन्तामणि', राजशेखरसूरिकृत 'प्रबन्धकोष' 'जिनप्रभसूरिकृत' विविधतीर्थकल्प', बल्लालकृत ' भोजप्रबन्ध' आदि गद्य में लिखे हुए प्रबन्धोंका नमूना है । जब कि प्रभाचंद्रसूरिकृत 'प्रभावकचरित' पद्य में रचा हुआ प्रबन्ध संग्रह है । यह तो हुई मध्यकालीन संस्कृत साहित्यकी बात । इसके कुछ प्रभाव के कारण गुजराती साहित्य में ऐतिहासिक कथावस्तुवाली रचनाको पहचानने के लिए, 'प्रबन्ध' शब्दका व्यवहार किया गया हो, ऐसा हो सकता है । जैसे कि 'कान्हड़दे प्रबन्ध' लावण्यसमय कृत 'विमल प्रबन्ध', सारंग कृत 'भोजप्रबन्ध', आदि । किन्तु यह परिभाषा पूर्ण रूपसे निश्चित नहीं है । क्योंकि 'कान्हड़देप्रबंध' की हस्तलिखित प्रतियाँ जिनका श्री कान्तिलाल व्यासने उपयोग किया है में की कुछकी पुष्पिकामें उसे 'रास', 'चरित', 'पवाड़ा', तथा चौपाई कहा गया है । 'विमलप्रबन्ध' के संपादन में श्री धीरजलाल धनजी भाई शाह द्वारा व्यवहृत (श्री मणिलाल बकोरभाई व्यासके मुद्रित पाठ सिवायकी ) दो हस्तलिखित प्रतियों में से एककी पुष्पिका में इस रचनाको 'रास' बताया गया है और दूसरीकी पुष्पिकामें उसे, 'प्रबन्ध' इसी प्रकारसे 'रास' इन दोनों नामोंका निर्देश किया गया है । 'विमलप्रबन्ध' की अन्य अनेक हस्तलिखित प्रतियोंकी पुष्पिकाओं में इसे, 'रास' के रूपमें निर्देश देखनेका मुझे स्मरण है तिसपर भी 'रेवंतगिरी रास', 'समरा रास', 'पेथड रास', 'कुमारपाल रास', 'वस्तुपाल - तेजपाल रास' आदि ऐतिहासिक व्यक्ति किंवा इहवृत्तके आधारपर निर्मित अनेक रचनाओं को कहीं भी 'प्रबन्ध' नहीं कहा गया है। जयशेखरसूरि कृति त्रिभुवनदीपक प्रबन्ध 'केवल उपदेशप्रधान रूपक ग्रन्थ है इसमें पौराणिक या ऐतिहासिक कोई इतिवृत्त नहीं है । मात्रामेल छंदोंमें रची हुई ऐतिहासिक रचनायें 'प्रबन्ध' कहीं जाँय और देशियोंमें रची गई अन्य रचनायें 'रास' कहीं जाय, ऐसी एक मान्यता है, किन्तु ये भी साधार नहीं हैं । क्योंकि, देशी बद्ध रासकी जैसे मात्रामय छन्दोंमें रचे गये रास भी बड़ी संख्या में प्राप्त होते हैं । नाकर और विष्णुदास जैसे आख्यानकारोंने तो अपने कतिपय आख्यानोंको
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'रास' कहा है। इसपरसे देखा जा सकता है कि प्राचीन गुजरातीमें रास और प्रबन्धके मध्य भेद रेखा पूर्णरूपसे स्पष्ट नहीं है अपितु, इन दोनोंको एक पृथक् साहित्यिक रूपमें मानना यह भी बहुत उचित नहीं है।
श्री डाह्याभाई दैरासरी संपादित 'कान्हड़देप्रबन्ध' की द्वितीयावृत्तिके पुरोवचन (पृ० ७-१७) में श्री नरसिंहराव दिवेटियाने इस रचनामें व्यक्त की गई धार्मिक सामाजिक स्थितिके सम्बन्धमें, जन मण्डलकी स्थिति और योद्धाओं आदिको स्थिति के सम्बन्धमें, नगर रचना, गृह रचना, शास्त्रोंके सम्बन्ध में एवं राजपूतोंके शौर्यपरायण संप्रदायके सम्बन्धमें संक्षिप्त किन्तु साधार विवेचन किया है। इसकी पुनरावृत्ति किये बिना इस ग्रन्थ में से उपस्थित होते हुए कुछ महत्त्वके और व्यापक प्रसंगोंकी चर्चा मैं इस भाषणमें करूंगा।
साहित्य और भाषाकी दृष्टिसे इस प्रशिष्ट काव्यका अध्ययन करते-करते मेरा राज्य-प्रबन्धकी बारीकीमें कैसे उतरना हुआ, इस सम्बन्धमें कुछ कहूँ। सन् १९४०-४१ में बी० ए० की परीक्षाके लिए 'कान्हड़दे प्रबन्ध' मैं पढ़ रहा था। श्री डाह्याभाई देरासरी द्वारा सम्पादित दो प्रतियाँ और सन् १९२४ में इनके द्वारा प्रकाशित गुजराती पद्यानुवाद-यह सामग्री हमारे अवलोकनके लिए उपलब्ध थी। मल प्रतिके सम्पादनमें खण्ड १ कड़ी १३ का पूर्वार्द्ध इस प्रकारसे था
तिणि अवसरि गूजरधरराई, सारंगदे नाभि बोलाई । इसके उत्तरार्द्धके रूपमें श्री देरासरीने निम्न कल्पित पाठ रखा है
भत्रीजउ तेहनउ बलवन्त, करणदेव युवराज भणंत । यह कल्पित पाठ दूसरी आवृत्ति में ही जोड़ा गया है । प्रथवावृत्तिमें यह नहीं है। किसी अन्य हस्तलिखित प्रतिमें भी इससे मिलता-जुलता कुछ नहीं है। श्री देरासरीके सम्पादनके पश्चात् कई वर्षों के बाद प्रकाशित हुए श्री कान्तिलाल व्यासका वाचन भी यही बताता है। हस्तलिखित प्रतियों में तो १३वीं कड़ीका उत्तराद्ध इस प्रकारसे है
तिणि अवगुणिउ माधव बंभ, तही लगइ विग्रह आरम्भ । अर्थात् उसने (तात्पर्य यह है कि सारंगदेव वाघेलाने) मन्त्री माधव ब्राह्मणकी अवगणना की। इस कारणसे विग्रहका प्रारम्भ हुआ।
तब प्रश्न यह प्रस्तुत होगा कि श्री देरासरीने उपर्युक्त कल्पित पंक्ति क्यों जोड़ी? कर्णदेव वाघेलाके दुराचारसे दुःखी माधव महतो २३वीं कड़ीमें सुल्तान अलाउद्दीनके सम्मुख कर्ण के सम्बन्धमें फरियाद करते हुए कहता है कि--
खित्री तणउ धर्म लोपिउ, राउ कर्णदे गहिउल थयउ । अर्थात् क्षत्रिय-धर्मका लोप कर दिया है और राजा कर्णदेव पागल हो गया है ।
इस प्रकार से केवल दस ही कड़ी के अन्तरपर दो विभिन्न व्यक्तियोंका-सारंगदेव ओर कर्णदेवगुजरातके राजाके रूपमें कान्हड़देप्रबन्ध निर्देश है। इससे राजा और युवराज दोनों ही साथ-साथ राज्य व्यवस्थाका संचालन करते हों इस प्रकारके दो अमली राज्यकी श्री देरासरी द्वारा अपने सम्पादनकी टिप्यणी (द्वितीयावृत्ति पृ० १२१)में कल्पना कर तथा सारंगदेव और कर्णदेवका राज्यकर्ताके रूपमें एक साथ उल्लेख मूल काव्यमें हुआ है। इसमेंका विद्यमान विरोधाभास दूर करने के लिये उपरोक्त प्रथम कल्पित पाठ जोड़ा गया है। कल्पित पाठको जोड़नेकी पद्धति शास्त्रीय सम्पादनमें उचित नहीं है। किन्तु दो अमली राज्यके सम्बन्धमें श्री देरासरीने जो अनुमान किया है वह वास्तविक है ।
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दो शासकों के हाथमें राज्य सत्ता हो इस प्रकारकी परम्परा प्राचीन भारत में कतिपय स्थानोंपर थीं । जिस समय सिकन्दर ने भारतपर आक्रमण किया था उस समय वर्तमान दक्षिण सिन्ध में स्थित पाताल राज्यमें विभिन्न कुलके दो राजाओं के हाथमें राज्य सत्ता थी । ( मैकक्रिण्डल, अलेक्जांडर्स इनवेजन, पृ० २९६ ) इस प्रकार के दो अमली राज्यके लिये कौटिल्य के अर्थशास्त्र में द्वैराज्य (इसे डायक-द्विमुखी राज्य व्यवस्था कहा जायगा ? ) शब्दका प्रयोग हुआ है । कौटिल्य, पूर्वाचार्योंके मतको अंकित करके कहता है कि 'दो पक्षोंमें द्वेष, वेमनस्य एवं संघर्षके कारण' द्वैराज्य नष्ट हो जाता है । ( अर्थशास्त्र ८-२ ) भाइयों और पितृव्यों के मध्य भूमि बाँटनेकी अपेक्षा वे संयुक्त प्रबन्ध करें इस हेतु भी ऐसी व्यवस्था करनी पड़ी होगी । यद्यपि, ऐसे राज्य में आन्तरिक विद्वेष - कलहका प्रमाण अधिक होजाना स्वाभाविक है । जैन आगमों में के आचारांग सूत्र में ऐसे राज्यका (प्रा० दोरज्जाणि, सं० द्विराज्यानि ) का उल्लेख है और साधु ऐसे राज्य में विचरण नहीं करे, इस प्रकारका विधान है। कान्हड़देप्रबन्धमें जिस पद्धतिका उल्लेख है वह वस्तुतः द्वैराज्य पद्धति है । गुजरातके वाघेला शासकों में यह पद्धति विशेषत: प्रचलित हो, ऐसा प्रतीत होता है । घोलका के वाघेला राणा लवणप्रसाद और उसके पुत्र वीरधवलके सम्बन्ध में प्रबन्धात्मक वृत्तान्त इस प्रकार का है कि, वास्तव में मुख्य शासक कौन है यह स्पष्ट रूपसे जान लेना कठिन है । लवणप्रसाद के देहान्तका वर्ष निश्चित हो तत्पश्चात् ही अमुक घटना घटित हुई उस समय मुख्य शासक --- युवराज नहीं — कौन था इसका पता लग सकता है । लवणप्रसादका देहान्त सं० १२८०-८२ और १२८७के मध्य कभी हुआ होगा ऐसा प्राप्त प्रमाणोंपर से प्रतीत होता है (श्री दुर्गाशंकर शास्त्री गुजरात नो मध्यकालीन राजपूत इतिहास, द्वितीयावृत्ति पृ०सं० ४५० ) किन्तु इसकी विशेष चर्चा यहाँ करना उपयुक्त नहीं है ।
परन्तु द्वैराज्य-पद्धतिका वाघेलाओंमें अच्छा प्रचार था इस हेतु विशेष आधार चाहिये । अर्जुनदेव वाघेला के ज्येष्ठ पुत्र रामदेवने अपने पिता के जीवन कालके मध्य ही राज्यभार वहन कर लिया था । समकालीन शिलालेखों द्वारा यह भली भाँति स्पष्ट ज्ञात हो जाता है । खंभातमेंके चिन्तामणि पार्श्वनाथ के मंदिर के सं० १३५२ ( ई० स० १२९६) के शिलालेख में वर्णन है— रिपुमल्लप्रमर्दी यः प्रतापमल्ल ईडितः । तत्सूनुरर्जुनो राजा राज्येऽजन्यर्ज्जुनोऽपरः ॥ ८॥ ऊ........क्ति विजयी परेषाम् । तन्नन्दनोऽनिन्दितकीर्तिरस्ति ज्यष्ठोऽपि रामः किमु कामदेवः ॥ ९ ॥ उभौ धुरौ धारयतः प्रजानां पितुः पदस्यास्य च धुर्यकल्पौ । कल्पुद्र मौ णौ भुवि रामकृष्णौ ॥ १० ॥ ( आचार्य जिनविजयजी, 'प्राचीन जैन लेख संग्रह,' भाग २, लेखांक ४४९) वीरधवल बाघेला के दो पुत्र थे --- प्रतापमल्ल और वीसलदेव । प्रतापमल्लका तो वीरधवलके जीवन कालमें ही अर्जुनदेव नामक पुत्रको छोड़कर स्वर्गवास हो गया था । वीरधवलके बाद, वीसलदेव घोलका राणा बना और तत्पश्चात् कुछ समयोपरान्त वह पाटणका महाराजाधिराज बना । वीसलदेव अपुत्र होगा । वह अपने भाई प्रतापमल्लके पुत्र अर्जुनदेवका राज्याभिषेक कर स्वर्गवासी हो गया । ऐसा, सं० १३४३ ( ई०स० १२८७ ) की त्रिपुरान्त प्रशस्ति में कहा गया है
श्रीविश्वमल्लः स्वपदेऽभिषिच्य प्रतापमल्लात्मजमर्जुनं सः । साकं सुधापाकमभुंक्त नाकनितम्बिनीनामधरामृतैन ॥
(श्री गिरिजाशंकर आचार्य, 'गुजरातना ऐतिहासिक लेखो' भाग ३ लेखांक २२२)
अर्जुनदेव और उसके पुत्र युवराज रामदेवने राज्य शासनका भार एक साथ ही अपने अपने हाथोंमें ले लिया था । किन्तु रामदेवका अपने पिताका जीवन-काल में ही देहान्त हो गया प्रतीत होता है । क्योंकि, अर्जुनदेव के पश्चात् रामदेव नहीं अपितु इसका भाई सारंगदेव पाटणकी राज्यगद्दीपर आता है ।
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ईडरके पास भीलोड़ा ताल्लुकामें भुवनेश्वरके सुप्रसिद्ध मंदिरके सम्मुख एक मुरलीधर मंदिर है । इसकी दीवार में किसी प्राचीन सूर्यमंदिर मेंका सारंगदेवका बाघेलाके समयका सं० १३५४ ( ई०स०१२९८) का शिलालेख लगा हुआ है। श्री नीलकण्ठ जीवतरामने 'बुद्धिप्रकाश, १९१० में इसे प्रकाशित कराया है। तत्पश्चात् इसका शुद्धतर पठन श्री तनसुखराम त्रिपाठीने 'बुद्धिप्रकाश,' मार्च अप्रैल १९१०में विवेचन सहित प्रकाशित किया है, (श्री गिरिजाशंकर आचार्य द्वारा सम्पादित और फाबंस गुजराती सभा द्वारा प्रकाशित किया गया 'गुजरात ना ऐतिहासिक लेखों में यह महत्त्वपूर्ण शिलालेख संग्रहीत नहीं है । ) इसमें दी गई वाघेलाओंकी वंशावलिपरसे उस कालमें द्वराज पद्धति होनेका ज्ञान स्पष्ट हो जाता है। उपर्युक्त रामदेव कि जिसका कोई उत्कीर्ण लेख अथवा पुष्पिका अभी तक उपलब्ध नहीं हुई है इसका भी राज्यकर्ताके रूपमें उल्लेख है। (तस्याङ्गजः संप्रति राजतेऽसौ श्रीरामनामा नपचक्रवर्ती। श्लोक १२) चिन्तामणि पार्श्वनाथके मंदिरकी प्रशस्तिमें के नामदेवके संबंधी उल्लेखके साथ इसकी तुलना करनेपर इसके निर्णायक अर्थके सम्बन्धमें किसी प्रकारकी शंका नहीं रहती।
वाघेलाओंके समकालीन राजवंश, सूवर्णगिरी-जालौरके सोनगिरी चौहाणोंमें भी यह पद्धति थी। 'कान्हड़दे प्रबन्ध'के नायक कान्हड़देके सम्बन्धमें तो इस विषयमें स्पष्ट समकालीन प्रमाण है। जालौरके सं० १३५३ (ई०स० १२९७)के एक लेख में कान्हड़देवको अपने पिता सामन्त सिंहके साथ राज्य करते हुए बताया गया है
औं । (सं०)वत् १३५३ (वर्षे) वे (शा)ख वदि ५ (सोमे) श्री सुवर्णगिरी अद्येह महाराजकुल श्रीसाम् (म)त सिंहकल्याणं (ण) विजयराज्ये तत्पादपद्मोपजीविनि (रा)जश्रीकान्हड़देवराज्यधुरा(मु)द्ववहमाने इहैव वास्तव वास्तव्य
(प्राचीन जैन लेखसंग्रह, भाग २ लेखांक ३५३) तदनुसार जालौरके पास चोटण गाँवमेंसे प्राप्त और जालोरमें सुरक्षित सं० १३५५ (ई० सं० १२९९) के एक लेख में (बुद्धिप्रकाश, ऐप्रिल १९०, पृ० १११) इसी प्रकार से सं० १३५६ (ई० सं० १३००) के एक अप्रसिद्ध शिलालेखमें (दशरथ शर्मा, 'अर्ली चौहाण डाइनेस्टिज,' पृ० १५९) में भी सामन्तसिंह और कान्हड़देव का राज्यकर्त्ताके रूपमें साथ-साथ ही उल्लेख है।।
इस प्रकारके शासनप्रबन्धमें ऐसा भी होता था कि पिताकी अपेक्षा पुत्र अधिक प्रतापी हो तो साहित्य और अनुश्रुतिमें पुत्रको ही अधिक स्मरण किया जाता है। सामन्तसिंहके लेख सं० १३३९ से १३६२ (अर्थात् ई० सं० १२८३ से १३०६) तकके उपलब्ध होते हैं (शर्मा उपर्युक्त पृ० १५९) सं० १३५३ को अवधिमें कान्हड़देव अपने पिता सामन्तसिंहके साथ राज्य-प्रबन्धमें सम्मिलित हुआ हो, ऐसा उत्कीर्ण लेखोंपरसे विदित होता है (गुजरातके सारंगदेव वाघेलाका देहावसान सं० १३५३ में हुआ और इसी वर्ष कर्णदेव पाटणकी गहीपर आया यह ऐतिहासिक प्रमाणोंसे निश्चित है। इतना होते हए इसके बाद डेढ सौसे भी अधिक वर्षके पश्चात् 'कान्हदेप्रबन्ध'के रचयिता पद्मनाभने उस समय गुजरातमें सारंगदेव और कर्णदेवका साथ-साथ राज्य होनेका वर्णन किया है; जो द्वैराज्य पद्धतिकी बलवान परम्पराका द्योतक है) गुजरातका हिन्दु राज्य अलाउद्दीन खिलजीसे पराजित हुआ यह एक मतसे सं० १३५६ (ई० सं० १३००) में और दूसरे मतसे सं० १३६० (ई० सं० १३०४) में किन्तु १३६० से अधिक बादमें तो नहीं है।
पाटण और सोमनाथपर अलाउद्दीनका आक्रमण हुआ और वहाँसे लौटते समय जालौरके चौहाणोंने मुस्लिम सेनाको पराजित किया वह यही समय था। उस समय जालौरकी राज्यगद्दीपर सामन्तसिंह था इस संबंधमें समकालीन उत्कीर्ण लेखों द्वारा असंदिग्ध प्रमाण प्राप्त होते हैं। किन्तु इसके वंशज अखेराजका
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राजकवि पद्मनाभ ‘कान्हड़दे प्रबन्ध'के प्रारम्भमें सामन्तसिंहका केवल नामोल्लेख करके कान्हड़देवका चरित्र ही वर्णन कर देता है। कान्हड़देव, पृथ्वीराज एवं हम्मीरकी श्रेणीका वीर योद्धा, नेतत्व शक्ति सम्पन्न था और उसकी स्मृति साहित्यमें उसके पितासे भी विशेष रूपसे सुरक्षित है। सामन्तसिंहका देहान्त सं० १३६२ या १३६३ (ई० सं० १३०६ या १३०७) में हुआ था। अर्थात् पाटन और सोमनाथके पतनके पश्चात् शीघ्र ही मुस्लिम सैन्य और जालौरके चौहानोंके प्रथम युद्ध में वह विद्यमान था। किन्तु, इस सम्बन्धमें पद्मनाभ मौन ही है। काव्यके प्रारम्भमें कान्हड़देवका उल्लेख सामन्तसिंहके पुत्रके रूपमें इतना ही किया है
जालहुरउ जगि जाणीइ, सामन्तसी सुत जेउ
तास तणा गुण वर्णवू, कीरति कान्हडदेउ 'कान्हड़देप्रबन्ध'के कथनानुसार जालोर का पतन सं० १३६८ (खंड १ कड़ी ५) (ई० सं० १३१२) में हआ था और इस अंतिम युद्ध में कान्हड़देव वीरगतिको प्राप्त हो गया।
राजस्थानके चौहान राजा-जालौर, नाडौल, सपादलक्ष और चन्द्रावतीके शासक गुजरातके माण्डलिक थे । इसमें जालौर और चन्द्रावतीके साथ पाटणका सम्बन्ध सर्वोत्तम था । सं० १३४८ में फिरोज खिलजीने जालौरके राज्यपर आक्रमण किया और दक्षिणकी ओर ठेठ सांचोर तक वह आ पहँचा । तब सारंगदेव वाघेलाने जालौरके चौहाणोंकी सहायताकर मुल्लिम सेनाको वापस खदेड़ दिया था। ('विविधतीर्थ कल्प', पृ० ३०) इसके कुछ वर्षोंके पश्चात् अलाउद्दीनका आक्रमण हुआ था। पारस्परिक सहायताके इस सम्बन्धके कारण भी कान्हड़देवने अलाउद्दीनकी सेनाको मार्ग देनेसे इन्कार किया होगा।
गुजरातके राजाने माधव ब्राह्मणका जब तिरस्कार किया तभी उस घटनामेंसे विग्रह हुआ-इस आशयका उल्लेख ‘कान्हड़देप्रबन्ध'के प्रथम खण्डकी तेरहवीं कड़ीके उत्तरार्द्ध में हम पहले देख चुके हैं। इसके बाद २५-२६ वीं कड़ीमें अलाउद्दीनके दरबारमें कर्ण वाघेलाके व्यवहारके सम्बन्धमें समय माधव महेताके मुखके निम्न शब्द पद्मनाभने रखे हैं
पहिलु राइ हूँ अवगण्यउ, माहरउ बंधव कैसव हण्यउ
तेह धरणी धरि राखि राइ, एवड्ड रोस न सहिण उजाइ। कर्णने मंत्रीकी पत्नीका अपहरणकर लेने की अनुश्रति सही रूपये प्राचीन होना चाहिये किन्तु इसका विधिवत् वर्णन करनेवाले लेखकोंमें पद्मनाभ अग्रगण्य है। इस अनुश्रुतिकी विश्वनीयताके सम्बन्धमें इतिहास शोधकोंमें मतभेद है। हम, यहां इस चर्चा में नहीं उतरते हैं। किन्तु इतना तो निश्चित है कि कर्ण और माधवके मध्य वैमनस्य होनेका कारण मात्र कर्णके राज्यारंभके समान ही पुराना था और बादमें पीछेसे इस सम्बन्धमें अन्य कारण सम्मिलित हो गये होंगे। संस्कृतके 'नैषधीय चरित' महाकाव्य परको चण्डू पंडित द्वारा की गई सुप्रसिद्ध टीका सं० १३५३ में धोलकामें की गई थी। सारंगदेवका देहान्त भी इसी वर्ष में हुआ था। सारंगदेवके शासनकालका यह अन्तिम वर्ष और कर्णके शासनकालका प्रथम वर्ष था। चण्डू पण्डितने प्रस्तुत काव्यके आठवें सर्गके ५९ में श्लोककी टीकामें लिखा है-“वर्तमान महामात्य माधवदेवने उदयराजको गद्दीपर बिठानेका प्रयत्न करते समय महाराज श्रीकर्णदेवकी भूमिमें सर्वत्र लूट-खसोट चलनेसे द्वैराज्यके कारणसे लोगोंमें विरक्ति उत्पन्न हो गई (यथा-इदानीं महामात्य श्री माधवदेवेन श्री उदयराजे राजनि कर्तुमारब्धे सति महाराजश्रीकर्णदेवस्य भूमी सर्वत्र सर्वजनानां वित्तपहियमाणे द्वैराज्यात लोके विरक्तिरजनि ।) इसका यह अभिप्राय हुआ कि माधव मंत्री ऐसा नहीं चाहते थे कि कर्ण राज-गहीपर
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बैठे । सम्भव है कि कर्णके दुगण इसमें कारणभूत हों। माधवने किस उदयराजको राज्य सौंपने का प्रयत्न किया था वह वाघेला वंशका ही कोई व्यक्ति होगा। किन्तु इस सम्बन्धमें उपलब्ध साधनोंमेंसे विशेष कुछ जानकारी नहीं प्राप्त हो सकी। राज्य-शासन परिवर्तनके प्रयत्न निष्फल हो जानेपर माधवने कर्णके साथ व्यावहारिक समाधान कर लिया होगा और प्रतिष्ठित एवं कार्य कुशल पुराने मंत्रीको एकाएक पदभ्रष्ट कर देनेका साहस कर लेना भी कर्णको उचित प्रतीत नहीं हुआ हो । किंतु इसके बाद इन दोनों के परस्पर सम्बन्ध ठीक न रहे थे अन्तमें इसीका अत्यन्त गम्भीर परिणाम गुजरात राज्यको भोगना पड़ा।
'कान्हड़देप्रबन्ध'के रचनाकालसे लगभग डेढ़ सौ शताब्दी पूर्व घटित घटनाओंकी यह बात हुई किन्तु इस समयकी सांस्कृतिक परिस्थितिके सम्बन्धमें भी 'कान्हड़देप्रबन्ध' मेंसे इतनी वैविध्यपूर्ण सामग्री उपलब्ध होती है और अन्य उपलब्ध प्रमाणोंके साथ इसका विभिन्न प्रकारसे संयोजन इतना महत्त्वपूर्ण बन जाय यह ऐसा है कि यह विषय अन्तमें एक महानिबन्धकी क्षमता रखता है। इस भाषणकी मर्यादामें मैं स्थालीपुलाक न्यायानुसार कतिपय प्रमाणोंकी ओर ही आपका ध्यान आकर्षित करूंगा।
'कान्हड़देप्रबन्ध' की रचना पद्यमें होने पर भी इसमें प्रसंगोपात भडाउलि-भटाउलि शीर्षकके अन्तर्गत गद्य वर्णक आता है। 'वर्णक' अर्थात् किसी भी विषय का परम्परा से लगभग निश्चित किया गया एक मार्ग, अक्षरोंके रूपके मात्रा और लयके बंधनोंसे मुक्त होते हुए भी इसमें ली गई समस्त छूटका लाभ लेते हुए। प्रास मुक्त 'गद्य-बोली में बहुत कुछ वर्णकोंका सृजन किया हुआ है जो अब प्राचीन गुजराती साहित्यके शोधकोंको सुविदित है। प्राचीन भारतीय साहित्य प्रणालीमें-संस्कृत, पालि इसी प्रकारसे प्राकृतमें वर्णकोंकी परम्पराका मूल खोजा जा सके, ऐसा है। पालिमें ऐसे वर्णन 'पैथ्याल' नामसे पहचाने जाते है और जैन आगम साहित्यमें वे 'वण्णओ' कहे जाते हैं। प्राचीन गुजराती वर्णकोंके समुच्चय प्रकाशित हुए हों तथा वस्त्रालंकार, भोजनादि, शस्त्रास्त्रों एवं विविध आनुषंगिक विषयोंके सम्बन्धमें विधिवत् वर्णक सुलभ होकर 'कान्हड़देप्रबन्ध' में की भटाउलियों के अध्ययन हेतु अब उचित साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संदर्भमें अवलोकन किया जा सके, ऐसा है। वीररस प्रधान वर्णकको भटाउलि कहा जाता होगा यह भी समझा जाय, ऐसा है।
'कान्हड़देप्रबन्ध'के प्रथम खण्डके लगभग मध्यमें (श्रीव्यासकी आवृत्ति १० ४०-४८) आई हुई भटाउलिमें कान्हड़देवके घोड़े और उसके शृगार सैन्य, सैनिक एवं दण्डायुधका वर्णन है। तृतीय खण्ड की भटाउलि (१० १५६-५९)में जालौरके किलेका और कान्हड़देवकी सभाका उज्ज्वल वर्णन है। पद्मनाभ द्वारा इसमें अखेराजकी राज-सभाका उल्लेख किया जाना वस्तुतः सम्भवित हो । (गंगाधर कृत गंगादासप्रतापविलास नाटकमें चांपानेरका वर्णन करते हुए चित्रपटका यहाँ स्मरण हो आता है ।) चतुर्थ खण्ड (कड़ी ९-५८)में जालोर नगर और इसमेंकी विविध प्रकृतियोंका जो सांगोपांग वर्णन है वह पद्मनाभके समकालीन जालौरका होगा किन्तु, उस समयके गुजरात-राजस्थानके अनेक नगरोंको समझने के काम आवे, ऐसा है । इसमें : कागल कापड़ नइ हथियार, साथि सुदागर तेजी सार
(खण्ड ४ कड़ी १६) इस पंक्तिमें शस्त्रोंके व्यापारके साथ-साथ तेजो-घोड़े बेचनेवाले सम्भवतः विदेशी सौदागरों का भी स्पष्ट निर्देश है।
_ 'कान्हड़देप्रवन्ध'में विभिन्न जातिके घोड़ों की विस्तृत सूची है । अन्य वर्णकोंमें एवं संस्कृत २१८ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ
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साहित्यमें और संस्कृत कोषोंमें भी इसी प्रकारके घोड़ोंके नाम मिलते हैं। इन नामोंमें कुछ तो उनके रंगपरसे और कुछेक शरीराकृति परसे हैं । कतिपय नाम देशवाचक है (जैसे कि, सिंघूया, पहिठाणा, उत्तर देशके ऊंदिरा, कनूज देशके कुलथा, मध्य देशके महूयड़ा, देवगिरा, बाहड़देशके बोरिया-पृ०४२-४३) कुछेक तो स्पष्टरूपसे परदेशी है (जैसे कि, स्पाणीपंथा, नई खुरसाणी, एक तुरकी तुरंग, खण्ड १ कड़ी १८५ इसके उपरान्त देखें-तोरका-खेत्र, खुरासाणी, पृ० ५२-५३) आज तो इनमें के कुछेक नामोंका अर्थ सर्वथा समझमें ही
आता है। यह सम्भव है कि इनमें से अमक विदेशी हों । संस्कृत कोषोंमें भी इसी प्रकारके नाम आये हैं। उच्च श्रेणीके युद्धोपयोगी घोड़ोंका विदेशोंसे भारतमें आयात होता रहता था। संस्कृत-प्राकृत साहित्यमें ईरानी किंवा अरबी घोड़ोंके सौदागरोंके सम्बन्धमें उपलब्ध अनेकों वार्तायें इसका सूचक है। जिस प्रकारसे गौका घण, महिषका खांडु और भेड़-बकरीका बाघ उसी प्रकारसे तेज उपयोगी घोड़ोंके समुदायके सम्बन्धमें प्राचीन गुजराती में 'लास' शब्दका व्यवहार हुआ है। सुल्तान अलाउद्दीनके सम्मुख माधव मेहता द्वारा 'घोड़ोंकी लास' भेंट कराते हुए 'कान्हड़देंप्रबन्ध'कारने वर्णन किया है
धरी भेटी घोड़ानी लास, मीर ॐबरे करी अरदास
बडउ मुकर्दम माधव नाम, पातिसाहनइ करइ सिलाम (खण्ड १, कड़ी २०) ठेठ विक्रमके तेरहवें शतकके 'भरत-बाहुबलि रास' में 'हय लास' शब्दका प्रयोग आया है और सत्रहवें शतक तक यह शब्द यदा-कदा दिखाई देता रहा है। सं० लक्ष्मीपरसे इसकी व्युत्पत्ति उचित प्रतीत नहीं होती है। घोड़ोंके समूहका अर्थ व्यक्त करते समय किसी विदेशी शब्दका यह रूपान्तर होना सम्भव है । अर्वाचीन गुजराती भाषाके उत्तम अश्ववाचक कुछेक शब्द-'केकाण', 'तोरवार', 'ताजी-तेजी', विदेशी हैं ।
युद्ध सम्बन्धी काव्य होने के कारण यह स्वाभाविक है कि 'कान्हड़देप्रबन्ध में अस्त्र-शस्त्रोंका उल्लेख हो। खड्ग एवं खांडु एक ही अर्थवाचक अनुक्रमसे तत्सम और तद्भव शब्द हैं और उसके अनेक प्रकारके नाम वर्णकोंमें उपलब्ध होते हैं ('वर्णक-समुच्चय', भाग २ सूचीयें पृ० १८७)। जो सीधे फलकवाला और चौड़ाई लिये हुए हो उसे खड्ग, टेढ़े फलकवाली तलवार, सीधी तलवारके समान पतले फलक का जो मुड़ जाय ऐसे खड्गको पटा कहते हैं । इस खड्ग द्वारा खेले जानेवाले खेलको पटाबाजी कहते हैं । करण वाघेला बिना म्यानका पटा अपने हाथमें रखता था।' कान्हड़देप्रबन्धमें इस सम्बन्धमें ऐसा वर्णन आया है
एहवउ अंग तणउ अनुराग, नितनित मच्छ करइ वछनाग विण पडियार पटउ कर वहइ, न को अंगरखजमलउ रहइ
(खण्ड १, कड़ी २४) फिर आगे चलकर खांडा और तलवारसे पृथक् पटाका उल्लेख है वहाँ भी यह भिन्नता स्पष्ट हो जाती है। कान्हड़देवकी सहायतामें छत्तीसों राजवंशी एकत्र होते हैं और वे अपने-अपने शस्त्रोंको धारण करते हैं
अंगा टोप रंगाउलि खांडा, खेडां पटा कटारी सींगणि जोड भली तड्यारी, लीजइ सार विसारी (खण्ड १, कड़ी १८१)
खांडा पटा तणा गजवेलि, अलवि आगिला हीडइ गेलि (खण्ड ४, कड़ी ४७) 'कान्हड़देप्रबन्ध'में कुछेक अल्पज्ञात शस्त्रोंमें 'गुर्जर'का उल्लेख है और 'वर्णक-समुच्चय' (भाग २ सूचोयें पृ० १८८) में भी इसका 'गुरुज' नामसे नामान्तर प्राप्त होता है। कान्हड़देवका भतीजा सांतलसिंह रात्रिके समय सुल्तानकी छावनीमें जाकर निद्रामग्न सुल्तानका गुरुज अपने साहसिक निशानी स्वरूप ले आता है
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वली विमासी पासइ हुंतउ, गुर्ज लीउ अहिनाण विण संकेत कहीइ केतलइ नही मानइ सुरताण (खण्ड २, कड़ी १३७) अवधि एतलइ पहुतउ काल, ग्यउ आकाशि धूप विकराल सातल भणइ गुरज मोकलउ, पातिसाह कहसि हुं भलउ,
(खण्ड २, कड़ी १५९) । गुरज, लोहे के हत्थेवाला और गदाके समान छोटा, सिरेपर लोहा लगा हुआ और धारिये डाला हुआ एक शस्त्र होता है। अधिकतर फकीरोंके पास छोटी गुरज होती है। जिसे वे अपने हाथमें रखते हैं ।
संनाह-बख्तरके विभिन्न प्रकार-जरहजीण, जीवणसाल, जीवरखी, अंगरखी, करांगी, वज्रांगी, लोहबद्धलुडि-कान्हड़देप्रबन्ध'की भटाउलि (पृ० ४७)में वर्णित है। इनके अतिरिक्त अंगा और रंगाउलि इन भेदोंका भी उल्लेख है (खण्ड १ कड़ी १८९, १०८१ को टिप्पणीमें अंकित प्रक्षेप पंक्ति ७) इन सभी भेदोंका प्रत्यक्ष ज्ञान करने हेतु जिज्ञासुओं और विद्यार्थियोंको किसी सिलहखानेको देखना चाहिए।
तोप और दारूगोलोंका कुछ उल्लेख भी ‘कान्हड़देप्रबन्ध' में है। प्रो० पी० के० गोडेके मतानुसार (ए वोल्युम आफ इण्डियन एण्ड इरानियन स्टडीज पृ० १२१-२२), भारतमें तोपके व्यवहारका सर्वप्रथम उल्लेख मूलत: एक चीनीका है और वह ई० पू० १४०६ जितना प्राचीन है। दारू गोला और तोपबन्दूकके सम्बन्धमें भारतीय मुस्लिम उल्लेखोंमें अनुक्रमसे ई० सं० १४७२ और १४८२ है। नालिका किंबा तोपका और दारूगोलाका प्राचीनसे प्राचीन उल्लेख उपलब्ध संस्कृत साहित्य -'आकाश भैरवकल्प' में काईसाकी सोलहवीं शताब्दीके उत्तरार्द्धका है। इसकी अपेक्षा 'कान्हड़देप्रबन्ध'का उल्लेख लगभग जितना पुराना है। अहमदाबादमें देवशा पांडेके ग्रन्थ भण्डारको 'कल्पसूत्र'की एक सचित्र हस्तलिखित पत्रमें बन्दूकधारी सैनिकका चित्र है। (कार्ल खंडालावाला और मोतीचन्द्र, न्यू डोक्युमेण्ट्स आफ इण्डियन पेइण्टिग, बम्बई १९६९ चित्र सं० ६२) इस हस्तलिखित पत्रके अन्तिम पत्र गुम हो जानेके कारण इसका लेखन-वर्ष ज्ञात न हो सके ऐसा नहीं किन्तु लिपि एवं चित्रकी शैली परसे यह ई० सं० १४७४ के आसपासका होनेका अनुमान कतिपय जानकारोंने लगाया है। इस ‘कान्हड़ देप्रबन्ध'को रचना ई० सं० १४५६ की है इस दृष्टिसे यह वास्तविक प्रतीत होता है। दूसरा, भारतीय चित्रकलाकी खोज करनेवाले कतिपय पाश्चात्योंने 'कल्पसूत्र'की प्रस्तुत हस्तलिखित प्रतिमें के बन्दूकके आलखको ठेठ सोलहवीं शताब्दीमें रखनेका प्रयास किया है यह भो ‘कान्हड़देप्रबन्ध' मेंके तोप दारूगोले आदिका व्यौरेवार वर्णनको अनुलक्षित करनेपर उचित प्रतीत नहीं होता। अब 'कान्हड़देप्रबन्ध में प्रस्तुत अवतरण की ओर दृष्टिपात करना चाहिए।
जालौरके पास समियाणाका किला, जिसको रक्षा कान्हड़देवका भतीजा सांतलसिंह कर रहा था उसके घेरे जानेका वर्णन देखें
तरक चड़ी गढ साहमा आवइ. उठवणी असवार साम्हा सींगिणि तीर विछूटइ, निरता वहइ नलीयार, उपरि धिकू ढील ज धाइ, झाडवीड सहू भांजइ हाड गूड मुख करइ काचरां पडतउ पाहण वाजइ, आगिवर्ण उडता आवइ, नालइ नांख्या गोला भूका करइ भीति भांजीनइ, तणखा काढइ डोला, यंत्र मगरबी गोला नांखइ, दू सांधी सूत्रहार
जिहां पडइ तिहां तरुवर भांजइ, पडतउ करइ संहार २२० : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ
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पडइ त्रास भटकियां बिछूटइ, नइ धूधूइ निफात . वीज तणि परि झलकती दीसइ, जेहबी ऊलकापात,
(खण्ड २, कड़ी १२५-२९) तुर्क घोड़े सवार होकर आक्रमण करते हुए गढ(किले)की ओर आते हैं । सामने से धनुष मेंसे तीर इट रहे है और तोपचीलोग (नलीयार, सं० नलिकाकार) तोप ('निरता')' खींचते हुए जा रहे हैं। (किलेमेंके लोग) ऊपरसे बड़े-बड़े पत्थर फेंक रहे हैं और इन गिरते हुए पत्थरोंसे चोट पहुंच रही है। तोपमें ('नालि') डाले हुए अग्निवर्णके गोले उड़ते आ रहे हैं वे (किलेकी) दीवारको तोड़कर चूर-चूर कर देते हैं और उनमेंसे मोटीमोटी ज्वालायें निकलती हैं। सूत्रधार लोग, निशाना साधकर मगरबी यन्त्रमेंसे-पत्थर फेंकनेवाले यन्त्रों में से (पत्थरके) गोले फेंक रहे हैं। ये जहाँ भी गिरते हैं वहाँके पेड़ पौधोंको नष्ट कर देते हैं और संहार करते हैं। बड़े फटाके ('भटकीयाँ') छूटते हैं और 'नफात' (इस नामका बारूद खाना) प्रज्वलित हो जाता है। यह विद्युतवत् चमकता हुआ दिखाई देता है मानो उल्कापात ही हो रहा है ।
घोर मध्य रात्रिमें किलेपरसे कटक-छावणीमें हवाइ आते रहनेका खण्ड २ कड़ी ११३में है।
'कान्हड़देप्रबन्ध'के द्वितीय खण्डकी भटाउलि (पृ०१५८-५९)में राजाधिकारियोंकी एक छोटी-सी सूची आती है
आमात्य प्रधान सामन्त मांडलिक, मुकुट बर्द्धन श्री गरणा वइगरणा धर्मादिकरणा मसाहणी टावरी बारहीया पुरुष वइडा छइ,
पाठान्तरमें 'पट वारी, कोठारी' और 'परघु' ये कर्मचारीगण हैं । इनके अतिरिक्त 'खेलहुत'-शेलत (प्रथम खण्डकी भटाउलि, पृ० ५१, खण्ड ४ कड़ी ४०) और नगर-तलार, पौलिया-द्वाररक्षक, सूआर
१. प्राचीन गुजराती साहित्यमें अन्यत्र कहीं भी इस 'निरता' पाठ (पाठान्तर 'नरता') शब्द मेरे देखने में
नहीं आया किन्तु यहाँ संदर्भ देखते हुए उसका अर्थ 'तोप' ही प्रतीत होता है। १२७ वीं कड़ी में 'नालि' का अर्थ 'तोप' है इसमें तो शंका नहीं । 'आकाश भैरवाकल्प' में तथा रुद्र कविके 'राष्ट्रीयवंश महाकाव्य' (ई०सं० १५०६)में तोपके लिये 'नालिकास्त्र' ओर 'नालिका' शब्दोंका प्रयोग हआ है। श्री अगरचन्द नाहटाको मिले हुए लगभग सत्रहवीं शताब्दी के 'कुतूहलम्' नामक एक राजस्थानी वर्णक-संग्रहमें वर्षाके वर्णनमें 'मेह गाजइ, आणे नालगोला वाजइ' (राजस्थान-भारती पु०१ पृ० ४३) इस प्रकारसे हैं वहाँ भी 'नाल' शब्दका अर्थ तोप है। जालौरके किलेकी शस्त्रसज्जताके वर्णनपरसे विदित होता है कि ऐसे गोलोंका बहुत बड़ा संग्रह किलेपर रहता था--
गोला यंत्र मगरवी तणा, आगइ गढ उवरि छइ घणा ।
ऊपरि अत्र तणा कोठार, व्यापारीया न जाणूपार (खण्ड ४, कड़ी ३५) राजस्थानके कतिपय किलोंपर अद्यापि पत्थरोंके ऐसे गोलोंका संग्रहीत ढेर दिखाई देता है। ३. 'निफात' शब्द सं० निपातका तद्भव नही है अपितु यह एक प्रकारका बारूदघर है। यह मधुसूदन
व्यास रचित 'हंसवती विक्रम चरित्र विवाह' (ई०स० १५६०)में बरातके जुलूसके वर्णनपरसे सिद्ध होता है। हवाइ छूटइ अनइ नफात, 'जिस पूरण गाजइ वरसात' ( कड़ी ६५३ ) इसमें, इस प्रकारका निर्देश है।
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पाकशालाका ऊपरि अधिकारी अवधानियाँ (१) दहेरासरी-देवस्थानोंकी देखरेख रखनेवाला एवं भण्डारी (खण्ड ४ कड़ी ३९-४२) का 'पान कपूर देनेवाला थईआत' (खण्ड ४, कड़ी ५२) का तथा 'महिता कुंडलिया टावरी' (खण्ड ४, २६२) और सेजपाल (खण्ड ४, कड़ी १८१-१९३) का भी उल्लेख है। खण्ड ४, कड़ी १२-२०में जालौर-वर्णनमें नगरके व्यवसाय और व्यवसायियोंका निर्देश ध्यान देने योग्य है इसमें वणिक ज्ञातिके सम्बन्धमें कहा है
वीसा दसा विगति विस्तरी, एक श्रावक एक माहेसरी जो, गुजरात एवं राजस्थानके लिए वर्तमानमें भी सत्य सिद्ध होता है । वर्णकोंमें राजलोग और पौरलोगोंकी अपेक्षा अधिक विस्तृत नामावलि उपलब्ध होती है । (वर्णक समुच्चय, भाग २ सूचीयें पृ० १७६-१८५) जो तुलनात्मक रूपसे इसके साथ करते हए अध्ययन करने योग्य है ।
'कान्हड़देप्रबन्ध' के तृतीय खण्ड (कड़ी ३७-६८) और चतुर्थ खण्ड (कड़ी ४३-४५) में कान्हड़देवकी सेवामें सज्जित विभिन्न वंशोंके राजपूतोंकी वार्ता है उसमें 'हूण' वंश भी है
बलवन्ता वारड नई हूण, तेह तणइ मुखि मांडइ कूण (खण्ड ३ कड़ी ३८)
एक राउत चाउडा हूण, अति फुटरा उतारा लण, (खण्ड ४ कड़ी ४४) 'कान्हड़देप्रबन्ध' के नायकसे पूर्व हए शाकंभरीके चौहाण बीसलदेव अथवा विग्रहराजने अजमेरमें सं० १२१०में बनाई हुई पाठशालामेंके (जिसको बादमें मस्जिदके रूप में बदल दिया गया था और जो वर्तमानमें ढाई दिनका झोंपड़ा, के नामसे पहचानी जाती है) उत्कीर्ण दो संस्कृत नाटक-विग्रहराज स्वरचित 'हरकेलि' और उसके सभापंडित सोमदेव रचित 'ललितविग्रहराज' शिलाखण्ड पर लिखकर बादमें खोदनेवाले पंडित भास्कर 'हण' राजवंशमें जन्मे हुए एवं भोजराजके प्रतिपात्र विद्वान् गोविन्दके पुत्र पंडित महिपालका पुत्र था, ऐसा इन नाटकोंके अन्तमें वर्णित है। ('इण्डियन एण्टीक्वेरी' पु० २० पृ० २१०-१२) माणिक्यसुन्दर सूरि कृत पृथ्वीचन्दचरित्र, (प्राचीन गुर्जर काव्यसंग्रह पृ० १२५) में तथा 'वर्णक समुच्चय' भाग १ (पृ० ३३ पंक्ति १२) में भी राजवंश वर्णनमें 'हूण' है। गुजरातके रेबारियोंमें 'हूण' अटक है तथा श्री सुन्दरम्की 'गट्टी' नवलिकामें बारया ज्ञातिका युवक जब अपनी ससुराल आता है तो उसका स्वागत उसकी सालिये 'आशा होण 'हूण' आये ! आशा होण आये !! कहते हुए करती है। यहाँ प्रजामें हूण जाति किस प्रकारसे समाविष्ट हो गई होगी, इसका कुछेक अनुमान इन प्रयोगोंपरसे हो आता है।
'कान्हदेप्रबन्ध' में से स्थापत्य एवं नगर-रचना सम्बन्धी उल्लेख पृथक करके श्री नरसिंहराव ने सूची के रूप में संक्षिप्त विवरण दिया है (पुरोवचन, पृ० १३-१४) इसी परम्पराके अनुरूप लगभग समकालीन वर्णन और इसका विस्तारपूर्वक उल्लेख वर्णकोंमें भी देखनेको मिलता है। ('वर्णक समुच्चय', भाग २ सांस्कृतिक अध्ययन, पृ०८८-९४, सूचीयें पृ० १७१-७५) इसके साथ-साथ मध्यकालीन गुजरात राजस्थानमें रचे गये मारू-गर्जर एवं संस्कृत साहित्यमेंके विभिन्न वर्णन और विपुल उल्लेखोंके साथ तुलनासे तथा शक्य हो सके वहाँ तत्कालीन स्थापत्य, शिल्प एवं चित्रोंके साथ संयोजन करनेसे इस विषयमें बहुत नवीन जानकारी प्राप्त होती है अथवा ज्ञात वस्तुओंमें महत्त्वपूर्ण वृद्धि हो सकती है, ऐसा है।
पद्मनाभने 'कान्हड़देप्रबन्ध में जालौरके किलेपरके तथा इसकी तलहटीके नगरमेंके प्रसंगवश वर्णनको लक्षमें रखकर जिन विविध स्थलोंका निर्देशन किया है वे समस्त आज भी देखे जा सकते हैं, पहचाने जा सकते हैं अथवा उनका स्थान निर्णय हो सकता है। प्राचीन साहित्य रचनामें निर्दिष्ट भूगोलका प्रत्यक्ष परिचय इस विशिष्ट रीतिसे एक आकर्षक विषय है। इस काव्यमें वर्णित स्थानोंका प्रत्यक्ष-दर्शन कर लेने के
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पश्चात् इसमेंके वर्णन किंवा निर्देशनोंके यथाशक्य संयोजनका प्रयत्न मैंने एक लेखमें ('जालोर और श्रीमालकी विद्यायात्रा,' 'बुद्धि प्रकाश' अप्रैल १९६७) किया है अतः यहाँ विस्तार नहीं करूंगा।
इस प्रकारसे भाषा एवं साहित्य दोनों दृष्टिकोणसे मारु-गुर्जर साहित्यमें 'कान्हड़देप्रबन्ध' अत्यन्त महत्त्वका है। मध्यकालीन भारतीय इतिहासके लिये निर्मित साधन-ग्रन्थोंमें इसका अति विशिष्ट स्थान है। मुस्लिम राज्यकालके अमुस्लिम मूल साधनोंकी-कतिपय विद्वानोंके शब्दोंमें कहा जाय तो-नोन-पसियन सोसिजकी-शोध और अध्ययनका प्रयत्न बिशेष रूपसे हो रहा है तब तो 'कान्हड़देप्रबन्ध'के प्रति सविशेष ध्यानाकर्षण करना होगा, ऐसा है । चौहान वंशके विशिष्ट पुरुषोंपर रचे गये संस्कृत महाकाव्य, जयनक कृत 'पृथ्वी राजविजय', और नयचन्द्रसूरिकृत 'हम्मीरमहाकाव्य'के समकक्ष ही 'कान्हड़देप्रबन्ध'का स्थान है। ('पृथ्वीराज रासो', एक प्रकारसे अपभ्रंश महाभारत होनेपर भी इसका विवेचन एक पृथक् विचार करने योग्य है।) प्रशस्ति अत्युक्तियोंके होने पर भी सामान्यतः ये कवि स्थितिकी वास्तविकताका निरूपण करनेसे नहीं चूके हैं। इतना होते हुए भी उपयुक्त संस्कृत महाकाब्योंके समान साहित्यशास्त्रके दृढ़ बंधनोंसे अलिप्त ऐसी पद्मनाभकी काव्य रचनाके पठन और परिशीलनसे एक प्रकारकी मुक्तताका अनुभव होता है।
मैं, इस परिशीलनका अवसर देने हेतु इस संशोधन संस्थाके नियामक महोदयका पुनः उपकार मानता हैं।
(बुद्धिप्रकाश फरवरी सन् १९७०के पृ० ५९ से ६९ तकसे)
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रामरासोकार महाकवि माधवदास दधिवाड़िया
सौभाग्य सिंह शेखावत कविकुल गौरव माधवदास दधिवाड़िया चारणोंकी एक सौ बीस शाखाओंमें देवल गोत्रके चारण थे। यह शाखा क्षत्रियोंके सांखला राजवंशकी पोलपात्र थी। राजस्थानमें सांखला कूलके क्षत्रियोंका राज्य मारवाड़की रूंण पट्टी और जांगलू (बीकानेर) भूभागपर था। जांगलपर शासन रहने के कारण जांगल्वा सांखला और सैंणपर आधिपत्य होनेसे रूणेचा सांखला प्रसिद्ध हुए। जांगलुवा सांखलोंने वीठ चारणोंको अपना बारहठत्व प्रदान किया और रूणेचाने दधिवाड़िया चारणोंको। रूणका शासक राजा सोडदेव सांखला, बादशाह अलाउद्दीन खिलजीका समसामयिक था। अलाउद्दीनने राजा सोढदेवकी राजकुमारीसे बलपर्वक पाणिग्रहण किया और सांखलोंपर आक्रमणकर उन्हें शक्तिहीन बना दिया। शक्तिहीन और राज्यच्युत सांखला जाति राजनैतिक दृष्टिसे प्रभावहीन और निर्बल हो गई। उस समय सांखलोंका पोलपात्र चारण मेंहाजल देवल बड़ा वाक्पटु, नीतिमान् और प्रभावशाली व्यक्ति था। वह अपने निराश्रित आश्रयदाताओंका पक्ष प्रहणकर बादशाह अलाउद्दीनके पास गया और अपनी काव्य शक्तिसे बादशाहको 'कुर्वा समुद्र'से सम्बोधितकर प्रसन्न किया। कूर्वा समुद्रका अर्थ है सामानका समुद्र जो कभी समाप्त नहीं होता है। अलाउद्दीनने इस गौरवसे प्रसन्न होकर सांखलोंको रूणका क्षेत्र पुनः लौटा दिया। तब रूणके कारण देवल चारणोंकी दधिवाडिया शाखा प्रसिद्ध हुई। कालान्तरमें मारवाड़के राव रणमल्लने रूंणका राज्य सांखलोंसे छीन लिया। मेवाड़के शासक महाराणा कुम्भकर्ण रूणके सांखलोंके भाग्नेय थे। सांखलोंके पोलपात्र होने के कारण दधिवाड़िया चारण अपने आश्रित सांखलोंके साथ मेवाड़में चले गए। महाराणा कुम्भकर्णने दधिवाडिया जैताको नाहर मगराके समीपस्थ धारता और गोठियां नामके दो ग्राम दिये। जैताके चार पुत्र हुए महपा, पांडण, देवा और बरसी। संवत् १५७५ वि० में महाराणा संग्रामसिंह प्रथमने मांडवके बादशाहको पराजितकर बंदी बनाया तब विजय दरबारका आयोजन किया और अपने योद्धाओं और कवियोंको सम्मानित किया । संग्रामसिंहने उस अवसर पर महपाको शावर ग्राम दिया। देवाको धारता और बरसी गोठियाणपर अधिष्ठित रहा। मांडण चित्तौड़से मारवाड़में लौट आया था। वह उच्चकोटिका भक्त हृदय कवि था । उसकी संतान मारवाड़ में बासनी, कूपड़ास और बलूदा आदि ग्रामोंमें है। माधवदासका जन्म मारवाड़के बलूदा ग्राममें चूडा दधिवाड़ियाके घरमें हुआ था। चुडा अपने समयका राज्य और भक्त समाजमें समादृत पुरुष था। डा० हीरालाल माहेश्वरीने माधवदासको महाराजा शूरसिंह जोधपुरका आश्रित माना है। पर, प्राप्त प्रमाणोंसे यह उचित नहीं जान पड़ता है। वस्तुतः माधवदास बलदाके स्वामी ठाकुर रामदास चांदावत राठौड़का आश्रित था। बलूदा काबास माधवदासके पिता चूडाको राव
१. मुंहता नैणसीरी ख्यात सं० बदरिप्रसाद साकरिया भाग १५-३५३ । २. वीरविनोद कविराजा श्यामलदास प्रथम भाग पृ० १८०-१८१ । ३. राजस्थान भाषा और साहित्य डा० माहेश्वरी पृ० १६९ । २२४ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ
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चांदा वीरभदेवोतने अपना पोलपात्र बनाकर प्रदान किया था। यह तथ्य चुडा द्वारा राव चांदाकी प्रशंसामें कथित कवित्तोंमें अभिव्यक्त है
दीघ धरा दस सहस जरी पञ्च दूण सजामां । दोय दीघ दंताल नरिन्द कीघा जगनामां ।। सात दूण अस ववी साज सुवन्न बणावै । मोती आखा समण हाथ इण विध मंडावै ।। दधवाड़ कह घूहड़धणी, कमधज दालिद कप्पियौ । चंद री पोल रवि चंद लग थिर कव चूंडौ थप्पियौ ।।१॥ मेड़तिये मन मोट इला कीधी अखियातां । जावै नंह जसवास जुगां चहँवै ही जातां ।। दीघ कड़ा मूंदड़ा हेक मोताहलं माला । दीघ चंद नरिन्द दुझल वीरमदे वाला ॥ लाख कर दिया मोटे कमंघ चंदरा होय सो देवसी । सोह नेग तोरण घोड़ा सहत चूड रा होय सो लेवसी ॥२॥ सांमेलै हिक मोहर अनै सरपाव स बागो। हथले वै वर तह चौक हिक मोहर चौ भागो ।। सरे मोहर हिक सहत कड़ा मूंदड़ा करग्गां । अवर रीझ अणमाप बघेती खटतीस वरग्गां॥ वीरम तणा बीरे चूडा समै महपत थपै मंगणां । चंद कमंध दिया कव चूड नै जेता नेग आखंड इणां ॥३॥
अतः चुडा दधिवाडिया राव चांदा वीरमदेवोत मेड़तियाका पोलपात्र तथा आश्रित कवि था। चूडाको चांदाने दस हजार बीघा भूमि, मोहरें आदि देकर अपना पोलपात्र नियत किया था। चूडाने राव चांदाके चौदह पुत्रोका नामोल्लेख अपन एक छप्पयम किया है
पाट पति गोपाल' 'रामदास' तिम राजेसर । 'दयाल' 'गोइंददास' 'राघव' 'केसवदास' 'मनोहर' । 'भगवंत' 'भगवानदास' 'सांवलदास' अनै 'किसनसिंघ'। 'नरहरदास' 'बिसन' हुवौ चवदमो 'हरीसिंघ' ॥ चवदह कंवर चन्दा तणा एक-एक थी आगला ।
नव खंड नाँव करिवा कमंघ खाग त्याग जस ब्रम्मला ॥ चूंडाजी अपने युगके प्रतिष्ठा प्राप्त भक्त कवि थे। इनके रचित गुण निमंधा निमंध, गुण चाणक्य वेली, गुण भाखड़ी, और स्फुट कवित्त (छप्पय) उपलब्ध हैं। इन्हीं भक्त कवि चूडाके पुत्र रत्न माधवदास थे। माधवदास बलूदाके ठाकुर रामदासके पास बलूदाका बास उपग्राममें रहता था। यह ग्राम राव चांदा द्वारा प्रदत्त दस हजार बीघा भूमिमें आबाद किया गया था। माधवदासने गुण रासो और गजमोख नामक दो ग्रन्थोंका प्रणयन किया था। गजमोख छोटी-सी कृति है और रामरासो राजस्थानी का प्रथम महाकाव्य है । रामरासो जैसा कि नामसे ही प्रकट है मर्यादापुरुष श्री रामचंद्रपर सजित है। रामरासोका राजस्थानमें
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तुलसीदासके रामचरित मानसकी भाँति घर-घरमें प्रचार और सम्मान रहा है। भक्ति कालके इस महान् कविने रामरासोको संरचना आदि कवि काल्मीकिकी रामायण, अध्यात्म रामायण और हनुमन्नाटककी कथा भूमिपर की है। राजस्थानके विद्वानोंमें कतिपय विद्वानोंने रामरासोकी पद्य संख्याकी गणना अलग-अलग प्रकट की है। माधवदासके जीवन सम्बन्धमें भी उनमें मतभेद है। श्री सीताराम लालसने माधवदास का स्वर्गवास सं० १६९० वि० माना है। लालसने महाराजा अजितसिंह जोधपुरके राजकवि द्वारिकादास दधवाडियाको माधवदासका पुत्र माना है। इस प्रकार उसको संततिके विषयमें अनेक तथ्यविपरीत असंगत मान्यताएं चल पड़ी हैं और माधवदासके जीवनके सम्बन्धमें भी आधार विरुद्ध प्रवाद फैले हुए हैं।
माधवदासका निधन वि० सं० १६८० जेठ सूदि ८ मंगलवारको मुंगदड़ा ग्राममें हुआ था। घटना यह है कि उक्त संवत्में मेड़ताके शाही हाकिम अब्बू महमदने राजा भीमसिंह अमरावत सीसोदिया टोडाकी सहायता प्राप्त कर नीम्बोलाके धनाढ्य नन्दवाना ब्राह्मणोंपर आक्रमण कर उनको अतुलित सम्पत्ति लूट ली थी और उनके मुखियोंको बंदी बना लिया था। यह सूचना जैतारणमें ठाकुर किसनसिह और जैतारणके हाकिम राघवदास पंचोलीको मिली। तब किशनसिंह और राघवदासने अबू महमद का पीछा किया। और बलूदाके ठाकुर रामदाससे भी अपनी निजी सेना सहित शीघ्र उनके साथ आकर युद्ध में सम्मिलित होनेकी प्रार्थना की। ठाकुर रामदास अपने सरदारोंको साथ लेकर युद्धारंभ समयपर मूंगदड़ा जा पहुंचा। माधवदास भी ठाकुर रामदासके साथ था । जोधपुर और मेड़ताकी शाही सेनामें जमकर युद्ध हुआ। ठाकुर रामदास, माधवदास और कनोजिया भाट वरजांग प्रभृति अनेक वीर मारे गए। यह युद्ध महाराजा गजसिंहके शासन कालमें हआ था। अतः माधवदासका निधन संवत् १६९० मानना उचित नहीं है। बलूदामें माधवदासकी छत्रीके लेखमें भी निधन तिथि सं० १६८० ही अंकित है।४
द्वारिकादासको माधवदासका पुत्र बतलाना भी उचित नहीं है। माधवदासका देहावसान १६८० में हआ था और द्वारिकादासने संवत् १७७२में महाराजा 'अजित सिंहकी दवावत' नामक रचना की थी। द्वारिकादासने कहा है
दवावेत द्वादस दुवा, तीन कवित दोय गाह ।
सतरे संवत बहोतरे, कवि द्वारे कहियाह । अतः द्वारिकादास १७७२ में विद्यमान था और माधवदासका १६८० में निधन हो गया था। दोनोंके मध्य ९२ वर्षका अन्तर स्पष्ट ही द्वारिकादासको माधवदासका पौत्र सिद्ध कर देता है । माधवदासके पिता चूडाको राठौड़ रतनसिंह रायमलोतने मेड़तावाटीका ग्राम जारोड़ो बणां शासनमें दिया था। नेणसीकी परगनोंकी विगतमें लिखा है-तफे राहण धधवाड़िया चूडा मांडणोत नुं । हिमे पं० सुन्दरदास मोहणदास माधोदासोतने विसनदास सांमदासोत छ ।५ उपरिलिखित प्रसंगसे दो तथ्य प्रकट होते हैं। पहला तो यह कि माधवदास और श्यामदास दो भाई थे। माधवदास ज्येष्ठ और श्यामदास लघु था। दूसरा यह कि माधवदासके सुन्दरदास
१. राजस्थानी सबद कोस प्रस्तावना पृ० १४३ । २. वही , , , पृ० १५७ । ३. कूपावतोंका इतिहास पृ० २७१-२७२ । ४. श्री माधव प्रसाद सोनी शोध छात्रके संग्रहकी प्रतिलिपि । ५. मारवाड़ रा परगनां री विगत, सं० नारायणसिंह भाटी, भा० २ पृ० ११२ । २२६ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ
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और मोहनदास नामके दो पुत्र थे। ये दोनों राजा जसवंतसिंह प्रथम जोधपुरके शासनकाल १७२१ वि० तक विद्यमान थे। अतः द्वारिकादासको माधवदासका पुत्र प्रकट करना प्रमाणोंसे गलत ठहरता है। काल क्रमसे भी यह कथन तथ्य संगत नहीं सिद्ध होता है। राजस्थानी कवियोंके सम्बन्धमें इस प्रकारकी असंगतियां राजस्थानी और हिन्दी साहित्यके विद्वानोंमें बहुधा प्रचलित है।
राजस्थानीके आदि महाकाव्य रामरासोकी छंद संख्याको लेकर भी विद्वान् एक मत नहीं हैं। रामरासोकी प्राप्त प्रतियोंमें छंद संख्या भिन्न-भिन्न मिलती है। इसका कारण रामरासोकी प्रतिलिपियोंका बाहुल्य ही रहा है। कई प्रतियोंमें क्षेपक पद भी हैं। कुछ पद ऐसे हैं जो रामरासो, पृथ्वीराज रासो और प्राकृतकी गाहा सतसईमें न्यूनाधिक परिवर्तनके साथ उपलब्ध हैं। ऐसे उपलब्ध छंद गाहा सतसईके हैं जो विद्वान् लिपिकारोंकी रुचि और लिपिकौशलका परिणाम है। रामरासोकी कतिपय प्रतियोंमें घटनाओं और प्रसंगोंके अनुसार शीर्षक और अध्याय भी अंकित मिलते हैं । जिन प्रतियोंमें अध्यायोंका क्रम है उनमें अलग-अलग अध्यायोंकी अलग-अलग छंद संख्या पाई जाती हैं और जिस प्रतिमें यह क्रम नहीं है वहाँ सम्पूर्ण पद्योंकी क्रमश : छंद संख्या ही दी हुई मिलती है।
महाकवि माधवदासके काव्य गुरुके सम्बन्धमें श्री लालस प्रभृति विद्वानोंने लिखा है कि माधवदासने अपने पितासे ही अध्ययन किया था। यह कथन भी कल्पना प्रसूत ही लगता है। माधवदासने रामरासोके प्रारम्भमें ही अपने गुरुके लिए स्पष्ट संकेत किया है।
..."श्रवण सुमित्र सबदं, जास पसाय पाय पद हरिजस ।
""मुनिवर करमाणंद, निय गुरदेव तुभ्यो नमः ॥२॥ मुनिवर कर्मानन्द ही माधवदासके काव्य गुरु थे। 'निय गुर देव तुभ्यो नमः' मंगलाचरणकी ये पंक्तियाँ ही प्रमाण है । रामरासोकी रचना तिथि सभी प्राप्त प्रतियोंमें १६७५ वि० अंकित मिलती है। यद्यपि रामरासोके सर्जनके पश्चात् माधवदास बहुत कम वर्ष ही जीवित रहे, पर रामकथा तथा भक्ति वर्णनके प्रतापसे रामरासोका राजस्थानके शिक्षित परिवारोंमें अत्यधिक प्रचार रहा। और रामरासोके अनेक छंद 'पिंगल शिरोमणि' जैसे छंद शास्त्र ग्रन्थों में मिले हुए मिलते हैं। रामरासोके छंदोंका पिंगल शिरोमणिमें पाया जाना पिंगल शिरोमणिके कर्ताओं रावल हरराज भाटी(?) अथवा कुशललाभ(?) दोनों ही के लिए सन्देह उत्पन्न कर देते हैं। रामरासोका रचनाकाल १६७५ है और पिंगल शिरोमणिका सर्जनकाल संवत् १६१८ वि० से पूर्व माना जाता है। दोनोंके रचनाकालमें भारी अन्तर है। इस प्रकार पिंगल शिरोमणिका रचनाकाल भी एक प्रश्न रूपमें अध्येताओंके सामने खड़ा हुआ है।
माधवदास राजस्थानी (डिंगल) और संस्कृत दोनों भाषाओंका विद्वान् था। राजाओं और जागीरदारोंके आश्रय एवं सम्पर्कके कारण उसको अरबी, फारसी और तुर्की भाषाओंकी भी जानकारी रही हो तो कोई विस्मय नहीं। रामरासोमें अरबी, फारसी और तुर्कीके शब्दोंका प्रयोग हुआ है। इतना ही नहीं रामरासोमें व्यवहृत लोकोक्तियों और मुहावरोंसे यह भी पता चलता है कि माधवदास राजस्थानीके लोकभाषा रूपका भी सुज्ञाता था।
रामके माया मृगके पीछे जानेपर रामको सहायताके लिए लक्ष्मणको भेजते समय सीताके मुखसे कहलवाया है
लखमण धां म्हांलार, मात भरतरी मेल्हियो । भोलो भो भरतार, देखे सोह घोलो दुगध ।।
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विभीषणने रावणको समझाते हुए कहा
पाणी पहिलो बंधि पालि, रहे जिम पांणी रांमण ।
सोवन लंक कुल पौलसत, जासी जिम संकर जरा । लक्ष्मणके शक्ति प्रहारसे चेतना शून्य होनेपर कथित पंक्तियोंमेंधूजी धरा सेस धड़हड़ियो, पड़ती संध्या लखमण पड़ियो ।
+ राम समरभूमिमें रावणको ललकारते हुए कहते हैं
हँ आयो पग मांडि चोर हव, देखवि कर म्हारा कर दाणव । इस प्रकार माधवदासने राजस्थानीके लोक प्रचलित रूपका भी रामरासोमें अनेकंधा प्रयोग किया है। __ महाकवि माधवदासके गरु. संतति और निधन तिथि अब अनिश्चित नहीं रही है। पर रामरास सभी प्राप्त प्रतियोंमें यह दोहा मिलता है
रासो निज जस रामरस, वदियो निगम बखांण ।
कथितं माधवदास कवि, लिखतं भगत कल्याण ||११३५ 'लिखतं भगत कल्याण' में कल्याण स्पष्टतः ही रामरासोका प्रथम लिपिकार है । यहाँ कल्याण व्यक्ति सूचक है। अतः रासोके अध्ययन-रत विद्वान् कल्याणके विषयमें भी अनुसंधान करेंगे, ऐसी आशा है।
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मेवाड़ प्रदेशके प्राचीन डिंगल कवि
श्री देव कोठारी प्राचीन संस्कृत शिलालेखों एवं पुस्तकोंमें मेदपाट' नामसे प्रसिद्ध वर्तमानका मेवाड़, राजस्थान प्रान्तके दक्षिणी भूभागमें उदयपुर, चित्तौड़गढ़ व भीलवाड़ा जिलोंमें फैला हुआ प्रदेश है। शताब्दियों तक यह प्रदेश शौर्य, साहस, स्वाभिमान और देशगौरवके नामपर मर मिटने वाले असंख्य रणबांकुरोंकी क्रीड़ास्थलीके रूपमें प्रसिद्ध रहा है तथा यहाँके कवियोंने रणभेरीके तुमुलनादके बीच विविध भाषाओं में विपुल साहित्यका सृजन किया है और उसे सुरक्षित रखा है।
दिवंगिर जो आगे चलकर डिंगलके नामसे अभिहित की जाने लगी, आचार्य हरिभद्रसूरि (वि० सं० ७५७-८२७) से लेकर लगभग वर्तमान समय तक इस प्रदेशके कवियोंकी प्रमुख भाषा रही। प्रारंभमें डिंगल, अपभ्रंशसे प्रभावित थी किन्तु धीरे-धीरे उसका स्वतंत्र भाषाके रूपमें विकास हुआ। अब तक किये गये अनुसंधान कार्यके आधारपर विक्रमकी चौदहवीं शताब्दीके उत्तरार्द्ध तक इस प्रदेशमें जैन साधुओं द्वारा निर्मित काव्य ही मिलता है। महाराणा हमोर (वि० सं० १३८३-१४२१) के शासनकालमें सर्वप्रथम सोदा बारहठ बारूजी नामक चारण कविके फुटकर गीत मिलते हैं और उसके बाद जैन साधुओंके साथ-साथ चारणोंका काव्य भी क्रमशः अधिक मात्रामें उपलब्ध होता है। यह परम्परा वर्तमान समय तक कम अधिक तादाद में चाल रही है। यहाँके राजपूत, भाट, ढाढी, ढोली आदि जातियोंके कवियोंने भी काव्य निर्माणमें योग दिया है परन्तु परिमाणकी दृष्टिसे वह कम है। चारण कवियोंका काव्य परिनिष्ठित डिंगलमें मिलता है तो जैन साधुओं व अन्य जातिके कवियोंका काव्य लौकिक भाषासे प्रभावित डिंगलमें मिलता है। यही कारण है कि चारणोंके काव्यमें तद्भव शब्दोंका प्रयोग अधिक है तो चारणेतर काव्यमें लौकिक भाषाके शब्दोंका । यहाँ प्रस्तुत लेखमें मेवाड़ में इस प्रकारके प्रसिद्ध प्राचीन चारण और चारणेतर कवियों तथा उनके काव्यका संक्षिप्त परिचय दिया जा रहा है
-प्रभाचन्द्रसूरी द्वारा वि० सं० १३४४ में रचित 'प्रभावक चरित' थे अनुसार
हरिभद्रसूरि चित्तौड़ के राजा जितारिके राजपुरोहित थे। पदमश्री मनि जिनविजयजीने इनका जन्म स्थान चित्तौड़ और जीवनकाल वि० सं० ७५७ से ८२७ के मध्य माना है।
१. नागरी प्रचारिणी पत्रिका, भाग २ पृष्ठ ३३४-३३५ । २. (i) डॉ० ब्रजमोहन जावलिया डिंगल: एक नवीन संवीक्षण, मधुमती मार्च ६९, पृष्ठ ८३-८४
(ii) डिंगल शब्दकी व्युत्पत्तिके सम्बन्धमें अनेक विद्वानोंने अपने मत प्रस्तुत किये हैं, किन्तु डॉ.
जावलियाका यह मत ही अधिक समीचीन जान पड़ता है। ३. श्री अगरचन्द नाहटा-जैन साहित्य और चित्तौड़, शोध पत्रिका-मार्च १९४७ (भाग १, अंक १)
पृष्ठ ३४। जैन साहित्य संशोधक, पूना, भाग १, अंक १ में मुनि श्री जिनविजयजीका लेख-'हरिभद्रसूरिका समय-निर्णय ।
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'गणधर सार्द्धशतक'की सुमतिगणिकी बृहद् वृत्तिमें इन्हें स्पष्टतः ब्राह्मण वंशमें उत्पन्न माना है ।' ये अनेक शास्त्रोंके ज्ञाता और बहुश्रुत विद्वान थे। प्रतिक्रमण अर्थ दीपिकाके आधारपर इनके द्वारा कुल १४४ ग्रन्थ लिखे गये, जिनमेंसे वर्तमानमें छोटी-बड़ी १०० रचनाएँ उपलब्ध हैं। मिणाह चरिउ, धूर्ताख्यान, ललित विस्तरा, सम्बोध प्रकरण, जसहर चरिउ आदि ग्रन्थोंमें अपभ्रंशसे अलग होती हुई तत्कालीन डिंगलका स्वरूप स्पष्ट दिखाई देता है। 'णेमिणाह चरिउ'के प्रकृति वर्णनके निम्न उदाहरणसे इस तथ्यका पता चल सकता है
भमरा धावहिं कुमुइणिउ डब्भिबि कमल वणेसु, कस्सव कहिं पडिवधु जगे चिरपरिचिय गणेसु, विरह विहुरिय चक्कमिहुणाई मिलि ऊण साणंद,
हुम तुट्ठ भमहि पहियण महियले, कोसिय कुलु एक्कु परिदुहिउ रविहि,
आरूढे नहयले । (२) हरिषेण-दिगम्बर मतावलम्बी हरिषेण चित्तौड़ के रहनेवाले थे। धक्कड़ इनकी जाति थी। पिताका नाम गोवर्धन और माताका नाम धनवती था।४ विक्रम सं० १०४४ में इन्होंने 'धम्म परिक्खा' ग्रन्थकी रचना की। इस ग्रन्थमें ११ सन्धियोंमें १०० कथाओंका वर्णन किया गया है। जिनमें २३८ कडवक हैं। राजस्थानमें यह ग्रन्थ बहुत प्रसिद्ध रहा है। इसकी अनेक हस्तलिखित प्रतियां है। 'धम्म परिक्खा'की रचनाका प्रयोजन व उपादेयता बतलाते हुए कवि कहता है कि
मणुए-जम्मि बुद्धिए किं किज्जइ । मणहरजाइ कव्वु ण रहज्जइ ॥
तं करत अवियाणिय आरिस । होसु लहहिं भड़ रड़ि गय पोरिसा ॥ अभी तक इस ग्रन्थका प्रकाशन नहीं हुआ है । विस्तृत जानकारीके लिए 'वीरवाणी'का राजस्थान जैन साहित्य सेवी विशेषांक द्रष्टव्य है।
(३) जिनवल्लभसूरि-बारहवीं शताब्दीके पूर्वार्द्ध में अर्थात् वि० सं० ११३८के पश्चात् जिनवल्लभ
१. श्री रामवल्लभ सोमानी-वीरभूमि चित्तौड़, पृष्ठ ११४ । २. श्री अगरचन्द नाहटा-राजस्थानी साहित्यकी गौरवपूर्ण परम्परा, पृष्ठ २६ । ३. श्री राहुल सांकृत्यायन-हिन्दी काव्य धारा, पृष्ठ ३८४ व ३८६ । ४. श्री रामवल्लभ सोमानी-वीरभूमि चित्तौड़, पृष्ठ १२२ । ५. वही, पृ० १२२। ६. डॉ० कस्तूरचन्द कासलीवाल-राजस्थानी जैन सन्तोंकी साहित्य साधना, मुनि हजारोमल स्मृति ग्रन्थमें
प्रकाशित लेख, पृ० ७६६ । ७. श्री रामवल्लभ सोमानी-वीरभूमि चित्तौड़, पृ० १२२ । ८. वही, पृ० १२२ । ९. श्री रामवल्लभ सोमानी द्वारा लिखित 'हरिषेण' शीर्षक लेख, 'वीरवाणी' राजस्थान जैन साहित्य सेवी
विशेषांक, पु० ५२-५५ । २३० : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ
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सूरि पाटण (गुजरात) में आचार्य अभयदेवसूरिसे दीक्षा लेकर चित्तौड़ आये । और यहाँ कई वर्षों तक रहकर विधि मार्गका प्रचार किया तथा अपने प्रभाव के उद्गमका केन्द्र स्थान बनाया । वि० सं० १९६७में जिनदत्तसुरिको अपना पट्टधर नियुक्त कर इसी वर्ष कार्तिक कृष्णा १२को चित्तौड़में इनका देहावसान हो गया । कवि, साहित्यकार व ग्रन्थकारके रूपमें इनकी बड़ी प्रतिष्ठा थी । इनके द्वारा रचे गये ग्रन्थों में 'ब्रद्धनवकार' ग्रन्थ बड़ा प्रसिद्ध है । ग्रन्थका रचनाकाल विवादास्पद है । इसमें विकसित होती हुई डिंगल भाषाका निम्न स्वरूप मिलता है
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चित्रावेली काज किसे देसांतर लंघउ । चवदह पूरब सार युगे एक नवकार ।
(४) जिनदत्तसूरि आचार्य जिनवल्लभसूरिके पट्टधर आचार्य जिनदत्तसूरिके संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश एवं तत्कालीन लोक भाषाके प्रकांड पंडित हुए है । 'गणधर सार्द्धशतक' इनका प्रसिद्ध ग्रन्थ है । मेवाड़ के साथ-साथ सिन्ध, दिल्ली, गुजरात, मारवाड़ और बागड़ प्रदेशमें भी ये विचरण करते रहे । इनका स्वर्गवास वि० सं० १२११ में अजमेर में हुआ । श्वेताम्बर जैन समाजमें ये युगप्रधान बड़े दादा साहब व दादा गुरुके रूपमें प्रसिद्ध हैं ।' चर्चरी, उपदेश रसायन, काल स्वरूप कुलकम् इनकी अपभ्रंश-डिंगलकी रचनाएँ हैं ।' 'उपदेश रसायन' में कवि गुरुकी महिमाका वर्णन करते हुए तत्कालीन डिंगल भाषाका निम्न स्वरूप मिलता है—
दुलहउ मणुय जम्मु जो पत्तउ । सह लहु करहु तुम्हि सुनि रुत्तउ ।
गुरू दंसण विष्णु सो सहलउ । होइ न कीपर वहलउ वहलउ ||३|| सु गुरु सु वुच्चइ सच्चउ भासइ । पर परिवायि-नियरु जसु नासइ । सब्वि जीव जिव अप्पर रक्खइ । मुक्ख मग्गु पुच्छियउ ज अक्खइ ||४|| " (५) सोदा बारहठ बारू जी — ये मूलतः गुजरात में खोड़ नामक गाँवके रहने वाले थे । इनकी माताका नाम बरबड़ीजी (अन्नपूर्णा ) था जो शक्तिका अवतार मानी जाती थी । महाराणा हम्मीर (वि०सं०१३७३-१४२१) द्वारा चित्तौड़ विजय (वि० सं० १४०० ) करने में इन्हीं बरवड़ीजी और बारूजीका विशेष हाथ था । " चित्तौड़ विजयकी खुशी में महाराणाने इन्हें करोड़ पसाव, आंतरी गाँवका पट्टा आदि देकर अपना
रयण रासि कारण किसे सायर उल्लंघउ । सयल काज महिलसैर दुत्तर तर संसार |
१. श्री रामवल्लभ सोमानी - वीर भूमि चित्तौड़, पृ०११६ ।
२. श्री शान्ति लाल भारद्वाज -- मेवाड़ में रचित जैन साहित्य, मुनि हजारीमल स्मृति ग्रन्थ, पृ० ८९३ । ३. (i) खरतरगच्छ पट्टावली, पृ० १८ ।
(ii) श्री रामवल्लभ सोमानी - वीर भूमि चित्तौड़, पृ० ११७-१८ ।
४. श्री शान्तिलाल भारद्वाज - मेवाड़ में रचित जैन साहित्य मुनि हजारीमल स्मृति ग्रन्थ, पृ० ८९३ । ५. सीताराम लालस कृत राजस्थानी सबद कोस, प्रथम खण्ड, भूमिका भाग, पृ० १०१ ।
६. श्री शान्तिलाल भारद्वाज - मेवाड़ में रचित जैन साहित्य, मुनि हजारीमल स्मृति ग्रन्थ, पृ०, ८९४ । ७. श्री अगरचन्द नाहटा - राजस्थानी साहित्यकी गौरवपूर्ण परम्परा, पृ० २९ ।
८. वही, पृ० २९ ।
९. वही, पृ० ४३ ।
१०. श्री राहुल सांकृत्यायन, हिन्दी काव्य धारा, पृ० ३५६-५८ ।
११. मलसीसर ठाकुर श्री मूरसिंह शेखावत द्वारा सम्पादित-महाराणा यश प्रकाश, पृ० १७ ।
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पालपोत बनाया। इस अवसरपर बारूजीका बनाया हुआ गीत मिलता है। इन्हें प्रथम राष्ट्रीय कवि कहा जा सकता है। क्योंकि चित्तौड़से विदेशी शासकोंको हटाने में इन्होंने अपने गीतोंके द्वारा महाराणा हम्मीरको बहुत उत्साहित किया था । महाराणाकी मल प्रेरक शक्ति चारिणी थी। हम्मीरके उत्तराधिकारी महाराणा क्षेत्रसिंह या खेता (वि० सं० १४२१-१४३९)के कालमें किसी समय बारूजी बून्दीके हाड़ा लाल सिंह (जिसकी कन्या महाराणा क्षेत्रसिंह)के लिये कृछ अपशब्द कहे इसपर बारूजीने पेटमें कटार मारकर आत्महत्या कर ली।
(६) मेलग मेहडू-महाराणा मोकलके शासनकाल (वि० सं० १४५४-१४९०) के मध्य किसी समय यह चारण कवि मेवाड़ में आया। महाराणा इसकी काव्य प्रतिभासे बहुत प्रसन्न हुए और उसे रायपुरके पास बाड़ी नामक गाँव प्रदान किया । कविके बहुतसे फुटकर गीत उपलब्ध होते हैं।
(७) हीरानन्दगणि-ये महाराणा कुम्भा (वि० सं० १४९०-१५२५) के समकालीन तथा पिपलगच्छाचार्य वीरसेनदेवके पट्टधर थे। महाराणा इन्हें अपना गुरु मानते थे। दरबारमें इनका बड़ा सम्मान था तथा इन्हें 'कविराजा' की उपाधि भी महाराणाने प्रदान की थी।९ देलवाड़ामें लिखे इनके 'सूपाहनाथ चरियं के अतिरिक्त कलिकालरास, विद्याविलासरास, वस्तुपालतेजपालरास, जम्बूस्वामी विवाहलउ, स्थूलिभद्र बारहमासा आदि ग्रन्थ भी मिलते हैं।
(८) जिनहर्षगणि—ये आचार्य जयचन्द्रसूरिके शिष्य थे। महाराणा कुम्भाके शासनकालके समय इन्होंने चित्तौड़में चातुर्मास किया था।" इसी अवसरपर वि० सं० १४९७ में इन्होंने वस्तुपाल चरित काव्यकी रचना की। इनका प्राकृत भाषाका 'रमणसेहरीकहा' नामक ग्रन्थ बड़ा प्रसिद्ध है।
(९) पीठवा मीसण-चारण पीठवा मीसण, महाराणा कुम्भाके समकालीन थे। इनके फुटकर गीत उपलब्ध होते हैं। सिवाना सिवियाणेके जैतमाल सलखावतकी प्रशंसामें इनका रचा हुआ एक गीत प्रसिद्ध है ।१२ इससे अधिक जानकारी उपलब्ध नहीं होती।
(१०) बारूजी बोगसा-बोगसा खांपके चारण बारूजीका रचनाकाल वि० सं० १५२० के आस-पास है। ये महाराणा कुम्भाके आश्रित थे। 3 इनके फुटकर गीत प्रसिद्ध हैं। एक गीतकी दो पंक्तियाँ निम्नलिखित हैं
१. मलसीसर ठाकुर भूरसिंहकृत महाराणा यशप्रकाश, पृष्ठ १८-१९ । २. डॉ० हीरालाल माहेश्वरी-राजस्थानी भाषा और साहित्य, पृष्ठ १३७ । ३. मलसीसर ठाकुर भूरसिंह कृत महाराणा यश प्रकाश, पृ० २०-२१ । ४. डॉ. मनोहर शर्मा-राजस्थानी साहित्य भारतकी आवाज, शोध पत्रिका, भाग-३, अंक-२ १०६ । ५. रामनारायण दूगड़ द्वारा सम्पादित मुंहणोत नैणसीकी ख्यात, प्रथम भाग, पु०-२२।। ६. सांवलदान आशिया-कतिपय चारण कक्यिोंका परिचय, शोध पत्रिका, भाग १२, अंक-४ पृ०६१ । ७. वही पृ० ५१ । ८. रामवल्लभ सोमानी, महाराणा कुंभा, पृ० २१७ । ९. वही, पृ० २१७ । १०. शान्तिलाल भारद्वाज-मेवाड़में रचित जैन साहित्य, मुनि हजारीमल स्मृति ग्रन्थ, पृ०८९५ । ११. रामवल्लभ सोमानी-वीर भूमि चित्तौड़, पु० ११९ । १२. डॉ० हीरालाल माहेश्वरी-राजस्थानी भाषा और साहित्य, पृ० १४९ । १३. डॉ. मोतीलाल मेनारिया-राजस्थानी साहित्यकी रूपरेखा, पृ० २२२ ।
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जद घर पर जोवती दीठ नागोर धरती।
गायत्री संग्रहण देख मन मांहि डरती।' (११) खेंगार मेहडू-महाराणा कुम्भा के समकालीन मेहडू शाखाके चारण कवि खेंगारके कुछ गीत साहित्य संस्थान, उदयपुरके संग्रहालयमें विद्यमान हैं। संभवतः ये कुंभाके आश्रित थे। कुम्भाकी अजेयता एवं वीरताके वर्णनसे युक्त इनके फुटकर गीत मिलते हैं ।
(१२) टोडरमल छांधड़ा-महाराणा रायमल (वि० सं० १५३०-१५६६) के बड़े पुत्र कुँवर पृथ्वीराज 'डड़ना' द्वारा टोड़ाके लल्ला खाँ पठानको मारनेसे सम्बन्धित इनका एक गीत बड़ा प्रसिद्ध है। टोडरमल महाराणा रायमलके समकालीन थे। इनके गीतोंमें भावोंका अंकन बड़ा सुन्दर हुआ है।
(१३) राजशील-ये खरतर गच्छीय साध हर्षके शिष्य थे। इन्होंने वि० सं० १५६३ में
मलके शासनकालमें 'विक्रम-खापर चरित चौपई की चित्तौड़में रचना की। यह लोक कथात्मक काव्य विक्रम और खापरिया चोरकी प्रसिद्ध कथापर आधारित है। इनकी तीन रचनाएँ और भी उपलब्ध होती हैं।
(१४) जमणाजी बारहठ-जमणाजीको राष्ट्रीय कविके रूपमें याद किया जाता है। ये महाराणा संग्रामसिंहके समकालीन थे। बाबरके साथ हुए युद्ध में महाराणा सांगाको मूर्छा आनेपर राजपूत सरदार उन्हें बसवा ले आये और जब महाराणाकी मूर्छा खुली तब जमणाजीने 'सतबार जरासंघ आगल श्री रंग' नामक प्रथम पंक्ति वाला प्रसिद्ध गीत सुनाकर शत्रुके विरुद्ध पुनः तलवार उठाने के लिए महाराणाको प्रेरित किया था। इनके और भी फुटकर गीत मिलते हैं।
(१५) गजेन्द्र प्रमोद-ये तपागच्छीय हेमविमलसूरिकी शिष्य परम्परामें हुए हैं। महाराणा सांगाके समकालीन थे। चित्तौड़ गढ़ चातुर्मास कालमें तत्कालीन डिंगल भाषामें सिखी हई 'चित्तौड़ चेत्य परिपाटी' नामक कृति मिलती है।
(१६) केसरिया चारण हरिदास-इनको कवित्व शक्ति और स्वामी भक्तिसे प्रभावित होकर महाराणा सांगाने चित्तौड़का राज्य ही दान कर दिया था। इसपर केसरिया चारण हरिदासने 'मोज समंद मालवत महाबल' तथा 'धन सांगा हात हमीर कलोधर' नामक प्रथम पंक्ति वाले दो गीत बनाकर महाराणा सांगाका यश ही चिरस्थायी बना दिया। इनके और भी फुटकर गीत मिलते हैं।
(१७) महपेरा देवल-इनके पूर्वज मारवाड़के धधवाड़ा ग्रामके रहने वाले थे। महपेरा धधवाड़ा छोड़कर चित्तौड़ के महाराणा संग्रामसिंह (सांगा) के पास चला आया। महाराणा इनकी काव्य प्रतिभासे
१. वही, पृ० २२२ । २. प्राचीन राजस्थानी गीत, भाग ३, साहित्य संस्थान-उदयपुर प्रकाशन, पृ० २१ । ३. वही, पृ० २७। ४. डॉ० हीरालाल माहेश्वरी-राजस्थानी भाषा और साहित्य, पृ० २५७ ।
शान्तिलाल भारद्वाज-मेवाड़में रचित जैन साहित्य, मुनि हजारीमल स्मृति ग्रन्थ, पृ० ८९५ । ६. डॉ० मनोहर शर्मा-राजस्थानी साहित्यकी आवाज, शोध पत्रिका, भाग ३, अंक २, पृ० ८। ७. डॉ. हीरालाल माहेश्वरी-राजस्थानी भाषा और साहित्य, पृ० १३७ । ८. मलसीसर ठाकुर भूरसिंह कृत महाराणा यश प्रकाश, पृ०७०-७१ । ९. मलसीसर ठाकुर भूरसिंह कृत महाराणा यश प्रकाश, पृ० ५८-५९ ।
भाषा और साहित्य : २३३
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बहुत प्रभावित हुए और जहाजपुरके पास ढोकल्या गाँव प्रदान किया । इनके वंशज आजकल खेमपुर, धारता, व गोटियामें हैं । महपेराके फुटकर गीत मिलते हैं ।"
(१८) धर्मसमुद्र गणि— थे महाराणा सांगाके समकालीन जैन साधु थे । खरतरगच्छीय जिनसागर सूरिकी पट्ट परम्परामें विवेकसिंह इनके गुरु थे । इनकी कुल सात रचनाएँ - सुमित्रकुमार रास, कुलध्वज कुमार रास, अवंति सुकुमाल स्वाध्याय, रात्रि भोजन रास, प्रभाकर गुणाकर चौपई, शकुन्तला रास और सुदर्शन रास मिलती हैं । इन सात रचनाओंमेंसे वि० सं० १५७३ में 'प्रभाकर गुणाकर चौपई' की रचना धर्मसमुद्रने मेवाड़ में विचरण करते हुए की । 2
(१९) बारहठ भाणा मीसण - गोड़ोंका बारहठ चारण भाणा मीसण महाराणा रत्नसिंह (वि० सं० १४८४-८८ ) का समकालीन था । चित्तौड़के पास राठकोदमियेका रहनेवाला था और अपने समयका प्रसिद्ध कवि था । बून्दीके सूरजमलने इन्हें लाख पसाव, लाल लश्कर घोड़ा और मेघनाथ हस्ती दिया था । महाराणा, सूरजमलसे नाराज थे । एक समय महाराणा के सामने भाणाने सूरजमलकी तारीफ की और उसे लाख पसाव, घोड़ा व हाथी देनेकी बात कही, इसपर महाराणा बड़े क्रोधित हुए तथा भाणाको मेवाड़ छोड़कर चले जानेको कहा। भाणा तत्काल मेवाड़ छोड़कर बून्दी चला गया । भाणाके फुटकर गीत मिलते हैं ।
(२०) मीरांबाई — मीरांबाईके जन्म, परिवार व मृत्युके सम्बन्धमें विद्वान् एक मत नहीं हैं । अधिकांश विद्वान् इसका जीवनकाल वि० सं० १५५५ से १६०३ तक मानते हैं ।" यह मेहताके राठौड़ राव दाके चतुर्थ पुत्र रत्नसिंहकी बेटी तथा महाराज सांगाके पाटवी कुँवर भोजराजकी पत्नी थी । इसका जन्मस्थान कुड़की नामक गांव और मृत्यु स्थान द्वारका था । इसके जीवनसे सम्बन्धित अनेक कथाएँ प्रचलित हैं ।
मीरांबाई के पदोंकी संख्या कई हजार बतलाई जाती है ।" हिन्दी साहित्य सम्मेलनसे 'मीरांबाईकी पदावली' नामक पुस्तकमें २०० पदोंका तथा राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुरसे १००० से अधिक पदोंका संग्रह प्रकाशित हुआ है । डॉ० मोतीलाल मेठारिया के अनुसार मोरांबाईके पदोंकी संख्या २२५-२५० से अधिक नहीं है ।" इसके रचे पाँच ग्रन्थ " भी बतलाए गये हैं किन्तु उनकी प्रामाणिकता संदिग्ध है । श्री कृष्ण
१. सांवलदान आशिया — कतिपय चारण कवियोंका परिचय, शोध पत्रिका वर्ष १२ अंक ४, पृ० ३७ । २. (i) जैन गुर्जर कवियो, भाग १ पृ० ११६, भाग ३ पृ० ५४८
(ii) डॉ० हीरालाल माहेश्वरी, राजस्थानी भाषा और साहित्य, पृ० २५२ ३. रामनारायण दूगड़ - मुहणोत नैणसीकी ख्यात, प्रथम भाग, पृ० ५१ । ४. वही, पृ० ५१-५२ ।
५. डॉ० हीरालाल माहेश्वरी, राजस्थानी भाषा और साहित्य, पृ० ३१४ ।
६. ओझा : राजपूतानेका इतिहास, दूसरी जिल्द ( उदयपुर राज्यका इतिहास), पृ०-६७० ।
७. डॉ० मोतीलाल मेनारिया - राजस्थानी भाषा और साहित्य, पृ० १४५-४६ ॥
८. सीताराम लालस कृत राजस्थानी सबदकोस (भूमिका) पृ० १२६ ।
९. राजस्थानी भाषा और साहित्य, पृ० १४७ ।
१०. डॉ० हीरालाल माहेश्वरी, राजस्थानी भाषा और साहित्य, पृ० ३२३ ।
२३४ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन ग्रन्थ
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चन्द्र शास्त्री द्वारा मीरा कला प्रतिष्ठान, उदयपुर से मीरांबाईसे सम्बन्धित प्रामाणिक जानकारी शीघ्र ही प्रकाशित की जा रही है। मीरांकी भाषा राजस्थानी है जो डिंगलके सरल शब्दोंसे पूरी तरह प्रभावित है ।
(२१) महाराणा उदयसिंह – महाराणा सांगा के पुत्र और उदयपुर नगर के संस्थापक महाराणा उदयसिंह (वि० सं० १५९४ - १६२८ ) की साहित्यके प्रति विशेष रूचि थी । ये स्वयं डिंगलमें कविता करते थे । कवि गिरवरदानने 'शिवनाथ प्रकाश' नामक अपने प्रसिद्ध ग्रन्थमें इनके दो गीत उद्धृत किये हैं ।" उदाहरण के लिये एक गीतकी चार पंक्तियां निम्न हैं
कहै पतसाह पता दो कूंची, गढ़पत कहे हमे गढ़ म्हारौ,
धर पलटिया न कीजें धौड़ । चूंडाहरौ न दे चीतोड़ ॥
(२२) रामासांदू - महाराणा उदयसिंहके समकालीन थे । 3 इन्होंने महाराणाकी प्रशंसामें 'बेलीये राणा उदयसिंह की वि० सं० १६२८के आस-पास रचना की । इस वेलिमें कुल १५ वेलिया छन्द हैं । ५ वेल अतिरिक्त फुटकर गीत भी मिलते हैं । रामासांदूके लिये ऐसा प्रसिद्ध है कि जोधपुर के शासक मोटाराजा उदयसिंह (वि० सं० १६४०-१६५१ ) के विरुद्ध चल रहे चारणोंके आन्दोलनको छोड़कर मुगल विरोधी संघर्ष में मेवाड़ में चले आये । ये हल्दीघाटीकी लड़ाईमें महाराणा प्रतापकी ओरसे मुगलोंके विरुद्ध लड़ते हुए मारे गये । ७
(२३) कर्मसी आसिया - इनके पूर्वज मारवाड़ में थकुके समीप स्थित भगु ग्रामके रहने वाले थे । महाराणा उदयसिंहके आश्रित कर्मसी के पिताका नाम सूरा आसिया था । जालौरके स्वामी अक्षयराजने कर्मसीकी कार्यपटुतासे मोहित होकर इन्हें अपने दरबार में नियुक्त कर दिया ।" जब महाराणा उदयसिंहका अक्षयराजाकी पुत्री से हुआ, उस समय महाराणाने कर्मसीको अक्षयराजसे मांग लिया । चारण कवि सुकविरायका कहा हुआ इस घटनासे सम्बन्धित एक छप्पय प्रसिद्ध हैं। चित्तौड़ गढ़पर उदयसिंहका अधिकार होनेपर कर्मसीको रहनेके लिये महाराणाने एक हवेली दी थी और इनकी पुत्री के विवाहोत्सवपर स्वयं महाराणा उदयसिंह इनके मेहमान हुए थे । तथा इस अवसरपर महाराणाने इन्हें पसंद गाँव ( राजसमन्द तहसील के अन्तर्गत) रहनेके लिये दिया था। इस घटनाका भी एक छप्पय प्रसिद्ध है । वर्तमानमें इनकी संतति पसुंद, कड़ियाँ, मंदार, मेंगटिया, जीतावास तथा मारवाड़ के गाँव बीजलयासमें निवास करती है । फुटकर डिंगल
१. महेन्द्र भागवत द्वारा सम्पादित ब्रजराज काव्य माधुरी, डॉ० मोतीलाल मेनारियाकी भूमिका, पृ० ५ ॥
२. डॉ० मोतीलाल मेनारिया - राजस्थानी साहित्यकी रूपरेखा, पृ० २२३ ।
३. रामनारायण दूगड़ द्वारा सम्पादित मुहणोत नैणसीकी ख्यात, प्रथम भाग, पृ० १११ ।
४. टेसीटरी - डिस्क्रप्टीव केटलॉग, सेक्सन it, पार्ट i, पेज-६ ।
५. सीताराम लालस कृत राजस्थानी सबद कोस, (भूमिका) पृ० १३० ।
६. डॉ० देवीलाल पालीवाल - डिंगल गीतों में महाराणा प्रताप, परिशिष्ट ( कवि परिचय) पृ० १११,१२ ।
७. गिरधर आसिया कृत सगत रासो, हस्त लिखित प्रति, छन्द सं० ७३ ।
८. सांवलदान आसिया - कतिपय चारण कवियोंका परिचय, शोध पत्रिका, वर्ष १२ अंक ४ पृ० ४२-४३ ९. प्राचीन राजस्थानी गीत भाग ८ साहित्य संस्थान, उदयपुर प्रकाशन, पृ० २० ।
१०. वही, पृ० २० ।
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गीतोंके अलावा नाडोलके सूजा बालेछा (सामंत सिंह चौहानका पुत्र)के शौर्यकी प्रशंसा ६१ छप्पयका एक लघुकाव्य भी इनका मिलता है। इसी प्रकार सीरोहीके राव रायसिंह (वि० सं० १५९०-१६००) के सम्बन्ध में इनके रचे गये फटकर गीत मिलते हैं ।
सुकविराय-ये संभवतः महाराणा सांगा, विक्रमादित्य और उदयसिंह के समकालीन कवि थे । इनके अबतक ३१ छप्पय प्रकाशमें आये हैं। जिनमें किया गया वर्णन उपरोक्त तीनों महाराणाओंका समसामयिक लगता है । भाषापर इनके अधिकारको देखते हुए अनुसंधान करनेपर और भी इनकी रचनाएँ उपलब्ध हो सकती हैं।
(२५) महाराणा प्रतापसिंह-वीर शिरोमणि माहराणा प्रताप (वि०सं० १६२८-१६५३) डिंगलमें कविता करते थे।४ बीकानेरके पृथ्वीराज राठौड़ तथा इनके बीच डिंगलके दोहोंमें जो पत्र व्यवहार हुआ था, वह प्रसिद्ध है। इसके अलावा प्रतापने अपने प्रिय घोड़े चेटककी स्मृतिमें १०० छप्पयोंका एक शोकगीत (Elegy) भी बनाया था। इसकी हस्तलिखित प्रति सोन्याणा (जिला-उदयपुर) निवासी तथा 'प्रताप चरित्र' महाकाव्यके रचयिता केसरीसिंहजी बारहठने राजनगर कस्बेके किसी मालीके पास देखी थी।
(२६) गोरधन बोगसा-ये महाराणा प्रतापके समकालीन और डींगरोलवालोंके पुरखे थे ।' इनका रचनाकाल वि० सं० १६३३के आसपास माना जाता है।९ हल्दीघाटीके युद्ध (वि० सं० १६३३)में ये प्रतापके साथ लड़े थे । १० युद्धका आँखों देखा वर्णन इन्होंने फुटकर गीतोंमें किया है। गीत वीररससे परिपूर्ण हैं ।११
(२७) सूरायच टापरिया-टापरिया शाखाके चारण१२ सूरायच भी प्रतापके समकालीन थे। दिल्लीमें पृथ्वीराज राठौड़से इनकी एक बार भेंट हुई थी। पृथ्वीराजने इनकी खूब आवभगत की और बादशाह अकबरसे भी मिलाया । अकबर इनकी कवित्व शक्तिसे बहुत प्रभावित हुआ। सूरायच वीरताका उपासक और राष्ट्रभक्त कवि था। इसके दोहों व सोरठोंकी भाषा ओजपूर्ण व शब्द चयन विषयानुकूल है।४ १. वही, पृ० ५८से ९४ । २. (i) रामनारायण दूगड़ द्वारा सम्पादित मुहणोत नैणसीकी ख्यात, भाग १ पु० १४३ ।
(ii) डॉ. होरालाल माहेश्वरी-राजस्थानी भाषा और साहित्य, पृ० ३५३ । ३. प्राचीन राजस्थानी गीत, भाग ८, पृ० १से २५ ।। ४. डॉ० महेन्द्र भानावत द्वारा सम्पादित ब्रजराज काव्य माधुरी, डॉ० मोतीलाल मेनारियाकी भूमिका
पृ०-७। ५. ओझा-राजपूतानेका इतिहास (उदयपुर राज्यका इतिहास) दूसरी जिल्द, पृ० ७६३-६५ । ६. डॉ० भानावत द्वारा सम्पादित ब्रजराज काव्य माधुरी, डॉ० मोतीलाल मेनारियाकी भूमिका, पृ० ७ । ७. डॉ० हीरालाल माहेश्वरी-राजस्थानी भाषा और साहित्य, पृ० १३८ । ८. प्राचीन राजस्थानी गीत (साहित्य संस्थान प्रकाशन) भाग ३, पृ० ४३ । ९. सीताराम लालस कृत राजस्थानी सबदकोसकी भूमिका, पृ० १३२ । १०. वही, पृ० १३२ । ११. वही, पृ० १३२। १२. वही, पृ० १३२ । १३. डॉ० हीरालाल माहेश्वरी-राजस्थानी भाषा और साहित्य, पृ० १३८ । १४. सीताराम लालसकुत राजस्थानी सबदकोसकी भूमिका, पृ० १३२ । २३६ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ
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(२८) जाड़ा मेहडू-इनका वास्तविक नाम आसकरण था किन्तु शरीर मोटा होनेके कारण लोग इन्हें 'जाडाजी' कहते थे। एक जनश्रुतिके अनुसार मेवाड़ के सामन्तोंने जब गोगुन्दामें जगमालको गद्दीसे उतारकर प्रतापको सिंहासनासीन किया उस समय जगमालने जाड़ाजीको अकबरके पास दिल्ली भेजा था। जाडाजी रास्तेमें अजमेर रुके और अकबरके दरबारी कवि व प्रसिद्ध सेनापति अब्दुल रहीम खानखानाको अपनी कवित्व शक्तिसे प्रभावित किया। इस सम्बन्धमें इनके चार दोहे मिलते हैं ।२ रहीमके माध्यमसे यह अकबरके पास पहुँचा और जगमाल के लिए जहाजपुरका परगना प्राप्त किया। इसपर जगमालने प्रसन्न होकर इन्हें सिरस्या नामक गाँव प्रदान किया । मेवाड़ में मेहडूओंकी शाखा इन्हींके नामसे प्रचलित है, जिसे जाड़ावत' कहते हैं । जाड़ाजीका जीवनकाल वि० सं० १५५५ से १६६२ तक माना जाता है। इनकी फुटकर गीतों के अलावा पंचायणके पौत्र और मालदेव परमारके पुत्र शार्दूल बरमारके पराक्रमसे सम्बन्धित ११२ छन्दोंकी एक लम्बी र नना भी मिलती है। प्रतापसे सम्बन्धित गीत भी मिलते हैं।
-ये पूणिमागच्छके वाचक पद्मराजगणिके शिष्य थे। इनका समय अनुमानतः वि० सं० १६१६-१६७३ है। मेवाड़-मारवाड़ सीमापर स्थित सादड़ी नगरमें वि० सं० १६४५ में ये चातुर्मास करनेके निमित्त आये थे। उस समय यहाँ भामाशाहका भाई और महाराणा प्रतापका विश्वासपात्र व हल्दीघाटी युद्धका अग्रणी योद्धा ताराचन्द राज्याधिकारीके रूपमें नियुक्त था। ताराचन्दके कहनेसे हेमरतनने 'गोरा बादल पदमिणी च उपई' बनाकर मगसिर शुक्ला १५ वि. सं. १६४६ में पूर्ण की। इसकी अनेक हस्तलिखित प्रतियाँ मिलती हैं। श्वेताम्बर जैनोंमें इस कृतिका सर्वाधिक प्रचार है। रचनामें अल्लाउद्दीनसे युद्ध, गोरा बादलकी वीरता एवं पद्मिनी के शीलका वर्णन है। हेमरत्नकी कुल ९ रचनाओं के अलावा एक दसवीं रचना 'गणपति छन्द'१० और मिली है ।
(३०) नरेन्द्रकीति-जैन मतावलम्बी नरेन्द्र कीर्तिने जावरपुर (वर्तमान जावरमाइन्स-उदयपुर जिला) में वि० सं० १६५२ में 'अंजना रास'की रचना की। इस पौराणिक काव्यमें रामभक्त हनुमानकी माता अंजनाके चरित्रका वर्णन है। रचना जैन धर्मसे प्रभावित है।
(३१) महाराणा अमरसिंह--महाराणा प्रतापके उत्तराधिकारी महाराणा अमरसिंह (वि० सं० १६५३-१६७६) अपने पिताकी तरह स्वाभिमानी और स्वतंत्रता प्रिय व्यक्ति थे। कविके साथ-साथ ये कवियों एवं विद्वानोंके आश्रयदाता भी थे। ब्राह्मण बालाचार्यके पुत्र धन्वन्तरिने इनकी आज्ञासे 'अमरविनोद'
१. डॉ० हीरालाल माहेश्वरी-राजस्थानी भाषा और साहित्य पृ० ३५३ । २. मायाशंकर याज्ञिक द्वारा सम्पादित रहीम रत्नावली, पृ०६६-७६ । ३. सांवलदान आसिया-कतिपय चारण कवियोंका परिचय, शोधपत्रिका, भाग १२ अंक ४, पृ० ३९ । ४. वही, पृ० ३९ । । ५. प्राचीन राजस्थानी गीत, भाग ३, पृ० ३६ (साहित्य संस्थान प्रकाशन)। ६. प्राचीन राजस्थानी गीत, भाग ११, पृ० १ से ४२ (साहित्य संस्थान प्रकाशन)। ७. जैन गुर्जर कवियो, तृतीय भाग, पृ० ६८०।। ८. मुनि जिनविजयजी द्वारा सम्पादित गोरा बादल पदमिणी चउपई, पृ० ७ । ९. डॉ. पुरुषोत्तमलाल मेनारिया-राजस्थानी साहित्यका इतिहास, पृ० १०९ । १०. 'गणपति छन्द'की हस्तलिखित प्रति डॉ० ब्रजमोहन जावलिया, उदयपुरके निजी संग्रहमें है।
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नामक मेवाड़ी भाषाका ग्रन्थ बनाया था। इसमें हाथियों सम्बन्धित अनेक तरहकी जानकारी दी गई है। अकबरका दरबारी कवि अब्दुर्रहीम खानखाना महाराणाका मित्र था। खानखानाको भेजे हुए इनके दोहे मिलते हैं।
(३२) मानचन्द्र-ये आचार्य जिनराजसूरिके शिष्य थे। इन्होंने वि० सं० १६७५ में 'बच्छराज हंसराज रास'की रचना की। इस रचनामें बच्छराज और हंसराज नामक दो भाई कथाके प्रमुख पात्र हैं। मानचन्दको मानमुनिके नामसे भी जाना जाता है। ये महाराणा अमरसिंह तथा महाराणा कर्णसिंह (वि० सं० १६७६-१६८४) के समकालीन थे।
(३३) गोविन्द-महाराणा जगतसिंह (वि० सं० १६८४-१७०९)के समकालीन रोहड़िया शाखाके चारण गोविन्दजीका रचनाकाल वि० सं० १७०० के आस-पास माना जाता है। इनके बहुतसे फुटकर गीत प्रकाशमें आये हैं । जगतसिंहकी प्रशंसामें रचे गये गीत प्रसिद्ध हैं। भाषाका लालित्य और शब्द चयन सुन्दर है।
(३४) कल्याणदास-ये मेवाड़ के सामेला गांवके रहनेवाले थे। इनके पिता लाखणोत शाखाके भाट बाघजी थे। इन्होंने वि० सं० १७०० में महाराणा जगत सिंहके शासनकालमें 'गुण गोविन्द' नामक ग्रन्थ' की रचना की। ग्रन्थमें कुल १९७ छन्द हैं, जिसमें भगवान् राम और कृष्णकी विविध लीलाओंका भक्तिपर्ण वर्णन है । साहित्यिक सौन्दर्यको दृष्टिसे ग्रन्थ श्रेष्ठ है।
(३५) लब्धोदय-ये महामहोपाध्याय ज्ञानराजके शिष्य थे। दीक्षासे पूर्व इनका नाम लालचन्द था। वि० सं० १६८० के लगभग इनका जन्म माना जाता है । खरतरगच्छाचार्य श्री जिनरंगसूरिकी आज्ञासे ये उदयपुरमें आये। इसके बाद इनका बिहार मेवाड़में ही अधिक हुआ। इसका प्रमाण उदयपुर, गोगुन्दा, तथा धुलेवा (ऋषभदेव)में रचित इनकी कृतियाँ हैं। इनकी सर्वप्रथम रचना 'पद्मिनी चरित चउपई' मेवाड़ के महाराणा जगतसिंहकी माता जंबूमतीके मंत्री खरतरगच्छीय कटारिया केसरीमलके पुत्र हंसराज और भागचंदकी प्रेरणासे लिखी गई उपलब्ध होती है। यह रचना चैत्र पूर्णिमा वि० सं० १७०७ में सम्पूर्ण हुई। इसमें ४९ ढाल तथा ८१६ गाथाएँ हैं। भागचन्दकी ही प्रेरणासे इन्होंने उदयपुरमें वि० सं० १७३९ की बसंत पञ्चमीको 'रत्नचूड़ मणिचूड़ चउपई की रचना की। इसमें ३८ ढाले हैं। भागचन्दकी सन्ततिका इसमें पूरा परिचय दिया गया है। इस रचनासे पूर्व कविने तीन और भी रचनाएँ की थीं, जिनके नाम गांव गोगुन्दामें रचित 'मलयसुन्दरी चउपई में मिलते हैं। 'मलयसुन्दरी चउपई की रचना वि० सं० १७४३ में धनतेरसके दिन गोगुन्दामें की थी। गुणावली चउपई की रचना भागचन्दकी पत्नी भावल देके लिए केवल १२ दिनमें (अर्थात् वि० सं० १७४५ को फाल्गुन कृष्णा १३ से फाल्गुन शुक्ला १० तक) रचकर
१. डॉ० महेन्द्र भानावत द्वारा सम्पादित ब्रजराज काव्यमाधुरी, डॉ. मोतीलाल मेनारियाकी
भूमिका, पृ०८। २. वही, १०८। ३. शान्तिलाल भारद्वाज-मेवाड़में रचित जैन साहित्य, मुनि हजारीमल स्मृति ग्रन्थ, पृ० ८९६ । ४. सीताराम लालसकृत राजस्थानी सबदकोस, भूमिका, पृ० १५० । ५. राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, शा० का० उदयपुर, हस्तलिखित ग्रन्थ सं० ५९१ । ६. भंवरलाल नाहटा द्वारा सम्पादित 'पद्मिनी चरित्र चौपई, प० २९ ।
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समाप्त की। 'धुलेबा ऋषभदेव स्तवन' (वि० सं० १७१०) तथा ऋषभदेव स्तवन (वि० सं० १७३१) नामक दो रचनाएँ जैनियों के प्रसिद्ध तीर्थ ऋषभदेव या केसरियाजी (जिला-उदयपुर)से सम्बन्धित हैं। डॉ ब्रजमोहन जाबलियाके संग्रहमें चैत्र पूर्णिमा छन्द, शनिचर छन्द और 'करेड़ा पार्श्वनाथ स्तवन' नामक तीन रचनाएं और उपलब्ध होती है। कविका स्वर्गवास वि० सं० १७५१के आसपास माना जाता
(३६) राव जोगीदास-ये महाराणा जगतसिंह (वि० सं० १६८४-१७०९)के समकालीन गाँव कुंवारियाके रहनेवाले थे। इनके फुटकर गीत मिलते हैं। 'दाखे इम राण जगो देसोतां, कैलपुरो जाणियां कल' नामक पंक्ति वाले गीतमें इन्होंने महाराणा जगतसिंहके समान-उदार व दानी होनेके लिये अन्य राजाओंको उपदेश दिया है।
(३७) धर्मसिंह-जैन मतावलम्बी मुनि धर्मसिंहकी एक रचना "शिवजी आचार्य रास' प्राप्त हुई है। इसका रचनाकाल वि० सं० १६९७ और रचना स्थान उदयपुर है। इस समय महाराणा जगतसिंह शासन कर रहे थे। इस रासमें श्वेताम्बर अमूर्ति पूजक आचार्य शिवजीका वर्णन है। लोंकागच्छीय साधुओंमें इस कृतिका ऐतिहासिक महत्त्व है।२।।
(३८) भुवनकीर्ति-ये खरतगच्छीय जिनसूरिके आज्ञानुवर्ती थे। इन्होंने वि० सं० १७०६में उदयपुर नगरमें 'अंजना सुदरी रास'की रचना बीकानेरके मंत्री श्री कर्मचन्दके वंशज भागचन्दके लिये की। उन दिनों मेवाड़ में जगतसिंहका राज्य था। इनकी 'गजसुकमाल चउपई' तथा 'जम्बूस्वामी रास' नामक रचनाएं भी मिलती है।
(३९) महाराणा राजसिंह-महाराणा जगतसिंहके उत्तराधिकारी महाराणा राजसिंह (वि० सं०१७०९-१७३७) स्वयं कवि और कवियोंके आश्रयदाताके रूपमें प्रसिद्ध हैं। इनके शासन कालमें संस्कृत, डिंगल व पिंगल ग्रन्थ तथा अनेक फुटकर गीत लिखे गये। राजविलास, राजप्रकास, संगत रासो आदि इनके राज्य कालके प्रमुख डिंगल काव्य ग्रन्थ हैं । डॉ० मोतीलाल मेनारियाने इनका बनाया हुआ 'कहाँ राम कहाँ लखण, नाम रहिया रामायण' नामक छप्पय ब्रजराज काव्य माधुरीकी भूमिकामें उद्धृत किया है।
(४०) किशोरदास-ये महाराणा राजसिंहके आश्रित गोगुन्दा जाने वाले मार्गपर स्थित चीकलवास गांवके रहने वाले सिसोदिया शाखाके दसौंदी राव थे।५ इनके पिताका नाम दासोजी था। दासोजीके दो पुत्र श्यामलजी और किशोरदास थे। किशोरदासके कोई संतान नहीं थी। श्यामलजीके वंशधर अब भी चीकलवासमें रहते हैं। किशोरदासका लिखा 'राजप्रकास' १३२ छन्दोंका उत्कृष्ट ऐतिहासिक डिंगल काव्य है। इसमें महाराणा राजसिंहके राज्यारोहणके उपरांत वि०सं० १७१४में 'टीका-दौड़ की रस्म पूरी करने के लिये महाराणा द्वारा मालपुराकी लूट तथा उनके गुण गानका वर्णन है ।
१. प्राचीन राजस्थानी गीत, भाग-३ (साहित्य संस्थान प्रकाशन) पृ० ५२ । २. शान्तिलाल भारद्वाज-मेवाड़में रचित जैन साहित्य, हजारीमल स्मृति ग्रन्थ, पृ० ८९६ । ३. शान्तिलाल भारद्वाज-मेवाड़में रचित जैन साहित्य, मुनि हजारीमल स्मृति ग्रन्थ, १०८९७ । ४. ब्रजराज काव्य माधुरी (संपादक-महेन्द्र भानावत) पृ.० ८। ५. वरदा (त्रैमासिक) वर्ष ५ अंक ३में प्रकाशित श्री बिहारीलाल व्यास 'मनोज'का लेख-किशोरदासका
परिचय ६. डॉ. मोतीलाल मेनारिया, राजस्थानी भाषा और साहित्य, प.० २१२ । ७. वरदा (त्रैमासिक) वर्ष ५ अंक २ पृ० १८-२६ श्री बिहारीलाल व्यास 'मनोज'का लेख ऐतिहासिक काव्य-राज प्रकास
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(४१) गिरधर आसिया-ये आसिया शाखाके चारण थे। इनका रचना काल वि० सं० १७२०के लगभग है। लगभग पांच सौ छन्दोंका एक उत्कृष्ट डिंगल भाषाका ग्रन्थ 'सगतसिंघ रासो' इनका बनाया हुआ मिला है। जिसकी प्रति इनके वंशज मेंगटिया निवासी ईश्वरदान आसियाके पास दोहा, भुजंगी, आदिसे युक्त इस ऐतिहासिक काव्यमें महाराणा प्रतापके कनिष्ठ भाई शक्तिसिंहका चरित्र वर्णन है। इनकी मुलाकात मुहणोत नैणसीसे भी हुई थी।
(४२) जती मानसिंह-कविराजा बांकीदासके अनुसार ये मानजो जती (यति) थे। इनका सम्बन्ध श्वेताम्बर विजयगच्छसे था। इन्होंने महाराणा राजसिंहके जीवन चरित्रसे सम्बन्धित 'राजविलास' नामक प्रसिद्ध ऐतिहासिक काव्य बनाया। इसकी भाषा डिंगलसे पूरी तरह प्रभावित है।४ कुल अठ्ठारह विलासोंमें समाप्त इस ग्रन्थमें महाराणा राजसिंहके जीवनसे सम्बन्धित अधिकांश घटनाओंका इसमें सजीव वर्णन है । इसका रचना काल वि० सं० १७३४-३७ है ।५ जती मानसिंहकी उदयपुरमें रचित 'संयोग बत्तीसी' नामक रचना भी मिली है। इसे मान मंजरी संयोग द्वात्रिंशिका, संयोग बत्तीसी मान बत्तीसी भी कहते हैं। बिहारी सतसईकी भी इन्होंने टीका की थी।
(४३) साईदान-ये झाड़ोली गाँवके निवासी सीलगा खाँपके चारण महाजालके पुत्र थे। इनका रचना काल महाराणा राजसिंहका शासन काल है । लगभग २७७ पद्योंकी एक अपूर्ण रचना 'संमतसार' इनके नामसे प्राप्त हुई है। यह वृष्टि विज्ञापनका ग्रन्थ है, जिसमें दोहा, छप्पय, पद्धति आदि छन्दोंका प्रयोग हुआ है । ग्रन्थ शिव-पार्वती संवादके रूपमें है।'
(४४) पीरा आसिया-महाराणा राजसिंहके समकालीन ये आसिया शाखाके चारण थे। इनका रचना काल वि० सं० १७१५के आसपास माना जाता है। इनकी फुटकर गीतोंके अलावा कोई बड़ी रचना अभी तक प्राप्त नहीं हुई है। फुटकर गीतोंमें 'खटके खित वेध सदा खेहड़तो' नामक प्रथम पंक्ति वाला गीत जिसमें अकबरकी दृष्टि में प्रताप व अन्य हिन्दू नरेश कैसे हैं का वर्णन किया गया है।
(४५) माना आसिया–महाराणा जयसिंह (वि० सं० १७३७-१७५५)के समकालीन मानाजी आसिया मदारवालोंके पूर्वज थे। इनके फुटकर गीत प्रसिद्ध है। औरंगजेबने हिन्दुओंको मुसलमान बनानेके उद्देश्यसे जब आक्रमण किया था, उस समय खुमाण वंशी जयसिंहने हिन्दूधर्मकी रक्षा की थी। इस सम्बन्धका इनका गीत बड़ा प्रसिद्ध है।
१. डॉ० मोतीलाल मेनारिया, राजस्थानी भाषा और साहित्य, प० २१३ । २. रामनारायण दूगड़ द्वारा सम्पादित मुहणोत नैणसीकी ख्यात, प्रथम भाग प.० ५४ । ३. नरोत्तम दास स्वामी द्वारा सम्पादित बांकीदासकी ख्यात, पृ० ९७ ४. डॉ० गोवर्धन शर्मा--प्राकृत और अपभ्रंशका डिंगल साहित्यपर प्रभाव, पृ० १९१-९२ । ५. मोतीलाल मेनारिया व विश्वनाथ प्रसाद मिश्र द्वारा सम्पादित, राज विलास, भूमिका भाग, पृ०६ । ६. शान्तिलाल भारद्वाज-मेवाड़में रचित जैन साहित्य, मुनि हजारीमल स्मृति ग्रन्थ, ग्रन्थ पृ० ८९७ । ७. वही, पृ० ८९७ । ८. डॉ. मोतीलाल मेनारिया--राजस्थानी भाषा और साहित्य, पृ० २०९। ९. डॉ० देवीलाल पालीवाल द्वारा सम्पादित डिंगल काव्यमें महाराणा प्रताप, पृ० ११४ । १०.प्राचीन राजस्थानी गीत, भाग ३ (साहित्य संस्थान प्रकाशन) पु० ६९-७० ।
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(४६) उदयराज-डॉ. मोतीलाल मेनारियाने इन्हें मेवाड़ प्रदेशका जैन यति बतलाया है। इनका रचनाकाल महाराणा जयसिंहका शासन काल है। डॉ. मेनारियाने इनका एक छप्पय अपनी पुस्तक में उद्धृत किया है।
(४७) राव दयालदास-ये राशमी (चित्तौड़गढ़) के पास गलन्ड परगनेके रहनेवाले थे। फूलेऱ्या मालियोंके यहां पर इनकी यजमानी थी। इनका बनाया हआ 'राणा रासो' नामक ग्रन्थ साहित्य संस्थानके संग्रहालय में उपलब्ध है। इसमें मेवाड़के आदिकालसे लेकर महाराणा कर्णसिंह (वि० सं० १६७६-१६८४) के राज्याभिषेक तकके शासकोंका वर्णन है। कर्णसिंहके बाद महाराणा जगतसिंह, राजसिंह और जयसिंहका भी इसमें नामोल्लेख है किन्तु इनका वर्णन नहीं किया गया है। इस कारण इसका रचनाकाल संदिग्ध है। ग्रन्थमें कुल ९११ छन्द हैं । साहित्य संस्थान द्वारा इसका सम्पादन किया जा रहा है।
(४८) दौलतविजय-खमाण रासोके रचयिता दौलतविजय तपागच्छीय जैनसाधु शान्तिविजयके शिष्य थे। दीक्षासे पूर्व इनका नाम दलपत था। अद्यावधि 'खुमाण रासो' की एक ही प्रति मिली है जो भंडारकर ओरियन्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट, पनाके संग्रहालयमें सुरक्षित है। इसमें खुमाण उपाधिसे विभूषित मेवाड़के महाराणाओंका वर्णन बापा रावल (वि. सं. ७९१) से लेकर महाराणा राजसिंह तक दोहा, सोरठा, कवित्त आदि छन्दोंमें हुआ है। डॉ. कृष्णचन्द्र श्रोत्रियने इसका सम्पादन किया है। इसका रचनाकाल वि० सं० १७६७से १७९०के मध्य किसी समय है।
(४९) बारहठ चतुर्भुज सौदा-ये महाराणा अमरसिंह द्वितीय (१७५५-१७६७)के समकालीन व आश्रित चारण कवि थे। महाराणाने इन्हें बारहठकी उपाधिसे विभूषित किया था, इस सम्बन्धका इनका ही बनाया हुआ एक गीत मिलता है। अन्य फुटकर गीत भी साहित्य संस्थान संग्रहालयमें हैं।
(५०) यति खेता-महाराणा अमरसिंह द्वितीयके राज्यकालमें इन्होंने उदयपुर में रहते हुए 'उदयपुर गजल' को रचना की। इसमें उदयपुर नगर व बाहरके दर्शनीय स्थानोंका सरस वर्णन है। ये खरतरगच्छीय दयावल्लभके शिष्य थे। 'चित्तौड़ गजल'६ नामसे एक और रचना भी मिलती है।
(५१) करणीदान-कविया शाखाके चारण करणीदान शलवाड़ा गाँव (मेवाड़) के रहनेवाले थे। गरीबीसे तंग आकर ये शाहपुराके शासक उम्मेदसिंह (वि० सं० १७८६-१८२५) के पास आये और अपनी कवितासे उन्हें खुश किया, इस पर उम्मेदसिंहने इनके घरपर आठ सौ रुपये भेजे । यहाँसे करणीदान डूंगरपुरके शासक शिवसिंह (वि० सं० १७८७-१८४२) के पास गये। वहां शिवसिंहने इनकी कवित्व शक्तिसे प्रभावित हो लाख पसाव दिया। इसके बाद ये महाराणा संग्रामसिंह द्वितीय (वि० सं० १७६७-१७९०) के आश्रयमें चले आये। महाराणाने इन्हें लाख पसाव देकर सम्मानित किया तथा इनकी माताजीको मथुरा, वृन्दावन
१. डॉ. मोतीलाल मेनारिया-राजस्थानी साहित्यकी रूपरेखा, पृ० २२९ । २. वही, पृ० २२९ । ३. हस्तलिखित प्रति सं० ८४ । ४. (i) नागरी प्रचारिणी पत्रिका, वर्ष ४४ अंक ४, अगरचन्द नाहटाका लेख ।
(ii) भंवरलाल नाहटा द्वारा सम्पादित पद्मिनी चरित्र चौपई, पृष्ठ ४१ ।. ५. प्राचीन राजस्थानी गीत, भाग-३ (साहित्य संस्थान, प्रकाशन), पृष्ठ ७३-७४ । ६. यह गजल डॉ० ब्रजमोहन जावलिया, उदयपुरके निजी संग्रहमें हैं ।
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आदि तीर्थोंकी यात्रा कराई। किन्तु अन्तमें ये जोधपुरके महाराजा अभयसिंहके पास चले गये। और अपने अन्तिम समय तक वहीं रहे। इनकी पाँच रचनाएँ-सूरजप्रकाश, विड़द सिणगार, अभयभूषण, जतीरास, ठाकुर लालसिंह यश तथा कई फुटकर गीत मिलते हैं। मेवाड़ के महाराणा संग्रामसिंह द्वितीयकी प्रशंसामें बनाया हुआ इनका एक गीत 'ग्रहाँ हेक राजा सिधा हेक राजा अंगज' प्रसिद्ध है।४।।
(५२) पताजी आसिया-ये आसिया शाखाके चारण महाराणा संग्राम सिंह द्वितीयके समकालीन थे। इनके फुट कर गीत साहित्य संस्थान संग्रहालयमें हैं। एक 'सुरतांण गुण वर्णन' नामक ऐतिहासिक काव्य ग्रन्थ भी मिला है, जिसका रचनाकाल वि० सं० १७७२ है। इस ग्रन्थमें बेदला ठीकानेके पूर्वज सुरतांणसिंहके चरित्रका वर्णन है।
(५३) जीवाजी भादा-ये संभवतः महाराणा अरिसिंह (वि० सं० १८१७-१८२९) के समकालीन कवि थे। इनके फुटकर गीत मिलते हैं । जिनमें महाराणा अरिसिंहका यश वर्णन है ।
(५४) जसवंतसागर-ये तपागच्छीय जैनाचार्य जससागरके शिष्य थे। इनकी 'उदयपुरको छन्द' नामक एक रचना उपलब्ध हुई है। इसका रचनाकाल वि० सं० १७७५-९०के आसपास है। इसमें उदयपुर नगरकी विस्तृत जानकारी दी गई है।
(५५) कुसलेस-जाटोंका याचक (ढोली) कुसलेस अंटाली (आसिंद-भीलवाड़ा) का रहनेवाला था। यह महाराणा अमरसिंह द्वितीय व संग्रामसिंह द्वितीयका समकालीन था। इसका एक लम्बा गीत 'बत्तीस खान वर्णन मिला है, जिसमें ढाल, तलवार, किला, घी, आदिकी उत्पत्ति व प्रसिद्ध स्थानका वर्णन है ।
(५६) नाथ कवि-यह कुसलेसका पुत्र था। अपने पिताके समान यह भी प्रसिद्ध कवि था । महाराणा अरिसिंहके शासनकालमें वि० सं० १८२०में 'देव चरित' नामक एक काव्य ग्रन्थकी रचना की। इसमें बगड़ावतों तथा देवनारायणके कृत्योंकी कथा है । डॉ० ब्रजमोहन जावलियाने हाल ही में इसका सम्पादन किया है। इसकी हस्तलिखित प्रति भी डॉ. जावलियाके निजी संग्रहमें है।
(५७) सुग्यानसागर-ये तपागच्छीय श्यामसागरके शिष्य थे। महाराणा हम्मीरसिंह द्वितीय (वि० सं० १८२९-१८३३) के शासनकालमें उदयपुर चातुर्मासके अवसरपर यहाँके सेठ कपूरके आग्रहपर उसके पुत्रोंके स्वाध्यायके लिए वि० सं० १८३२को मृगसिर शुक्ला-१२ रविवारको इन्होंने ढालमंजरी अथवा राम रासकी रचना की।।
(५८) किशना आढ़ा-प्रसिद्ध कवि दुरसा आढ़ाके वंशज किशना आढ़ा महाराणा भीमसिंह (वि० सं० १८३४-८५) के आश्रित कवि थे। इनके पिताका नाम दुल्हजी था, जिनके किशनाजी समेत
१. वीर विनोद, भाग-२ पृष्ठ ९६५-६६ । २. वही पृष्ठ ९६६-६७ । ३. डॉ० जगदीश प्रसाद श्रीवास्तव-डिंगल साहित्य, पृष्ठ ३७ । ४. मलसीसर ठाकुर भूरसिंह शेखावत द्वारा सम्पादित महाराणा यश प्रकाश, पृष्ठ १७९-८०। ५. डॉ. जगदीश प्रसाद श्रीवास्तव-डिंगल साहित्य, पृष्ठ ३८ । ६. ठा० भूरसिंह शेखावत-महाराणा यशप्रकाश पृष्ठ १८८।। ७. मुनि कान्तिसागर, जसवन्तसागर कृत उदयपुर वर्णन, मधुमती, वर्ष ३, अंक ३ । ८. इसकी हस्तलिखित प्रति डॉ० ब्रजमोहन जावलियाके निजी संग्रहमें है। २४२ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ
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छ: पत्र थे। किशनाजी उनमें से तीसरे थे। रघुबरजस प्रकाश नामक इनके प्रसिद्ध ग्रन्थमें इन्होंने अपने वंशका परिचय दिया है। इनका प्रथम ग्रन्थ 'भीमविलास' है, जिसे कविने महाराणाकी आज्ञासे वि० सं० १८७९ में लिखा। इसमें महाराणा भीमसिंहका चरित्र तथा उनके शासन प्रबन्धका वर्णन है । दूसरा ग्रन्थ 'रघुबरजसप्रकास' है। रीति साहित्यके इस प्रसिद्ध ग्रन्थमें संस्कृत व डिंगल भाषाके प्रमुख छन्दोंके लक्षण भगवान् रामके यशोगानके साथ समझाये हैं। यह ग्रन्थ वि० सं० १८८१ में सम्पूर्ण हुआ। किशनाजीने तत्कालीन इतिहासज्ञ कर्नल टॉडको ऐतिहासिक सामग्री संग्रहीत करने में बड़ी मदद की थी।
(५९) ऋषि रायचन्द्र-ये जैनश्वेताम्बर तेरापंथी सम्प्रदायके तीसरे आचार्य तथा महाराणा भीमसिंह (वि० सं० १८३४-८५) व महाराणा जवानसिंह (वि० सं० १८८५-१८९५) के समकालीन थे। इनका जन्म चैत्र कृष्ण १२ वि० सं० १८४७ में तथा स्वर्गवास माघ कृष्ण १४ वि० सं० १९०८ में हुआ। गोगन्दासे तीन मील दूर बड़ी रावल्या इनका जन्म स्थान था। पिताका नाम चतुरोजी व माताका नाम कुशलांजी था। इनका लिखा हुआ अधिकांश साहित्य तेरापंथी सम्प्रदायके वर्तमान आचार्य व उनके आज्ञानुवर्ती साधुओंके पास है जो अभी तक अप्रकाशित है।
(६०) दोन दरवेश-लोहार जातिके दीनजी एकलिंगजी (कैलाशपुरी) के रहने वाले थे। इनके गुरुका नाम बाल जी था जो गिरनारके रहनेवाले थे।५ इनका रचनाकाल वि० सं० १८५९ के आसपास है तथा इनकी बनाई हुई कक्का बत्तीसी, चेतावण, दीन प्रकाश, नीसांणी, भरमतोड़ तथा राजचेतावण नामक रचनाएं उपलब्ध होती हैं।६ समस्त रचनाओंका उद्देश्य ज्ञानोपदेश है। महाराणा भीमसिंह इनका बहुत आदर करते थे और जब तक महाराणा जीवित रहे ये मेवाड़ में ही रहे। महाराणाके स्वर्गवासके बाद ये कोटा चले गये, जहाँ चम्बल नदी में स्नान करते समय बि० सं० १८९० के आस-पास देहान्त हो गया। इनकी रचनाओंमें इनका नाम दीन दरवेश मिलता है।
(६१) ऋषि चौथमल-इन्होंने वि० सं० १८६४ में कार्तिक शुक्ला १३ को देवगढ़में रहते हुए 'ऋषिदत्ता चौपई की रचना की। इस चौपईमें कुल ५८ ढाले हैं। इस उपदेशात्मक रचनामें नारीके आदर्श चरित्रको चित्रित किया गया है।
(६२) कवि रोड़--जैन मतावलम्बी कवि रोड़ चित्तौड़ जिले में स्थित सावा गांवके रहने वाले थे। इनके तिता मलधार गोत्रके गिरिसिंह (डूंगरसिंह) थे। इनका लिखा हुआ 'रीषबदेव छन्द' नामक काव्य मिलता है। इस काव्यमें महाराणा भीमसिंहके कालमें मराठों द्वारा ऋषभदेव (केशरियाजी) के मन्दिरको
१. सीताराम लालस द्वारा सम्पादित रघुबरजस प्रकास, पृ० ३४० । २. डॉ० मोतीलाल मेनारिया-राजस्थानी भाषा और साहित्य, पृ० २७७ । ३. डॉ. जगदीश प्रसाद श्रीवास्तव-डिंगल साहित्य, पृ० ४१ । ४. इनका कुछ फुटकर काव्य लेखकके निजी संग्रहमें है। ५. डॉ. मोतीलाल मेनारिया-राजस्थानी भाषा और साहित्य, पृ० २७८ ।
राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, शा० का० उदयपुर, ग्रन्थ सं० १९६, २०८, २१६, २२२,
२४०, २५२ । ७. डॉ० ब्रजमोहन जावलिया-कवि रोड़ कृत रीषबदेवजों रो छन्द, शोध पत्रिका वर्ष १४ अंक १ ८. यह प्रति डॉ० ब्रजमोहन जावलिया उदयपुरके निजी संग्रहमें है ।
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लूटनेका प्रयास, उनकी असफलता तथा मन्दिरके रक्षकोंकी वीरताका वर्णन है। इस घटनाके समय कवि स्वयं वहाँ मौजूद था। इस काव्यका रचनाकाल वि० सं० १८६३ की आश्विन कृष्णा १ बृहस्पतिवार है।।
उपसंहार-मेवाड़ प्रदेशमें उपरोक्त प्रमुख कवियोंके अतिरिक्त प्राचीनकालमें अनेक कवि और भी हुए हैं, जिनका परिचय लेखके विस्तार भयसे यहाँ नहीं दिया जा रहा है। अन्य लेखमें शीघ्र ही देनेका प्रयत्न करूंगा। इनके बनाये हुए अनेक फुटकर गीत और अन्य रचनाएँ तत्र-तत्र बिखरी हुई मिलती हैं, जिनपर व्यापक अनुसंधानकी आवश्यकता है। इस प्रकारके कतिपय कवि निम्नलिखित हैं
चारण डूला, कालु देवल, आसियामाला, बाघजीराव, ठाकुरसी बारहठ, रतनबरसड़ा, चारण पीथा, शजी कवि, चारण भल्लाजी गांधण्यां, बारहठ गोविन्द, विदुर, कम्माजी, वेणा, नन्दलाल भादा, कीरतराम, वखतराम, विनयशील, महेश, मोहन विमल, ओपा आढ़ा, भीमा आसिया, इसरदास भादा, आईदान गाइण, साह दलीचन्द (हीताका निवासी) ठाकुर राजसिंह (हीताका निवासी), केसर, सीहविजय, खेतल, हेम विजय, केतसी, करुणा उदधि आदि।
इन कवियोंके अलावा डिंगलके सहस्रों गीत ऐसे मिलते हैं, जिसका विषय मेवाड़के महाराणा, युद्ध व योद्धा, शस्त्र प्रशंसा, शत्रु निन्दा, अध्यात्म आदि है किन्तु इनके रचयिता अज्ञात हैं। इन गीतोंकी उपस्थिति स्वयं किन्हीं अज्ञात कवियों की ओर संकेत करती है, जो समयके व्यतीत होनेके साथ-साथ उनके गीतोंमें उनके नामोंके उल्लेखके अभावमें पीछे छूट गये हैं। व्यापक अनुसंधानके द्वारा ऐसे अज्ञात कवियों और जैन सन्तोंका परिचय व साहित्य मेवाड़ के साहित्यिक गौरवको स्पष्ट कर सकता है।
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राजस्थानी 'बातों में पात्र और चरित्रचित्रण
डॉ. मनोहर शर्मा
कहानीमें पात्रोंका कार्य-व्यापार उनके चरित्रका प्रकाशन करता है। अतः उनका सजीव होना आवश्यक है, वे निर्जीव नहीं होने चाहिए। उनमें स्वाभाविकताका गुण जरूरी है। इसीसे पाठकोंको वास्तविक रसानुभूति होती है। पात्रोंकी अलौकिक अथवा असाधारण शक्तिसे कुतूहल भले ही पैदा हो जाए परन्तु उनके साथ हृदयका संबंध नहीं जुड़ सकता। उनमें मानवीय हृदयके शाश्वत मनोभावोंका प्रकाशन होना चाहिए, जिससे कि पाठक उनको अपने जैसा हो मान कर उनके साथ सहानुभूति प्रकट कर सकें।
कहानीमें पात्रोंकी अधिकता भी वांछनीय नहीं। कई राजस्थानी बातोंमें यह गुण सुन्दर रूपमें देखा जाता है परन्तु अनेक बातोंमें पात्रोंकी संख्या काफी बढ़ी हुई मिलती है। पात्रोंको इस अधिकताका कारण उनके इतिवृत्तके रूपमें उपस्थित किया जाता है। जिन बातोंमें किसी ऐतिहासिक पात्रका विवरण देना अभीष्ट होता है, उनमें अनेक प्रकारके और बहुत अधिक पात्र देखे जाते हैं, जैसे अमरसिंघ राठौड़ गजसिंघोघोतरी बात, महाराज श्रीपदमसिंघरी बात' आदि ।
राजस्थानी बातोंमें ऐतिहासिक पात्रों की प्रधानता है। ऐसा प्रतीत होता है, मानों बातोंका संसार उन्हींसे बसा हुआ है। इतना ही नहीं, वहाँ कल्पित पात्रोंको भी ऐतिहासिक रूपमें प्रस्तुत करनेकी चेष्टा की गई है और अनेक लोककथाओंमें उनको चतराईके साथ नायकके पदपर प्रतिष्ठित कर दिया गया है। मोटे तौरपर राजस्थानी बातोंमें पात्रोंको तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है
१. मानव । २. देव-दानव आदि । ३. पशु-पक्षी आदि । इनमें प्रथम वर्गके पात्र प्रधान हैं तथा द्वितीय वर्गके पात्र गौड़ हैं। वे बातोंमें कहीं-कहीं ही प्रकट होते हैं और उनका सम्बन्ध तत्कालीन लोकविश्वाससे है। तृतीय वर्गके पात्र यत्रतत्र बालोपयोगी बातोंमें प्रकट होते हैं । कहीं-कहीं उनपर मानव-जीवनका बड़ी ही कुशलतासे आरोपण भी किया गया है।
राजस्थानी बातोंमें पात्रोंका चरित्रचित्रण दो रूपोंमें हुआ है । एक रूपमें पात्रको वर्गगत विशेषताएं प्रकट होती हैं और दूसरेमें उनके व्यक्तिगत गुणोंका प्रकाशन होता है। बातोंमें प्रधान, मोहता, पुरोहित, कोटवाल, दांणी आदि पदोंपर काम करने वाले पात्रोंके प्रायः व्यक्तिगत नाम नहीं मिलते और उनको पदके नामसे ही पुकारा जाता है। ये पात्र वर्गगत विशेषताओंको प्रकट करते हैं । यही स्थिति डूम, दास, दासी, रबरी, गोहरी, एवाल आदिकी है। इनके भी बातोंमें प्रायः नाम नहीं मिलते ।
असलमें इस प्रकारके पात्रोंका कोई विशेष महत्त्व नहीं होता और बातमें इनकी उपस्थिति कहींकहीं ही प्रकट होती है । यदि इस तरहका कोई पात्र महत्त्व ग्रहण करता है तो उसका नाम भी प्रकट होता
१. राजस्थानी बात-संग्रह (परम्परा) २. वही,
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है और उसकी व्यक्तिगत विशेषताएं भी सामने आती हैं। इस सम्बन्धमें बीजड़ियों खवास (बात वीरमदे सोनगरा री)' और फोगसी एवाल (बात फोगसी एवाल री)२ आदिके नाम उदाहरणस्वरूप लिये जा सकते हैं।
राजस्थानी बातोंमें प्रायः शीर्षक किसी पात्रके नामके अनुसार मिलता है। इसका स्पष्ट कारण यही है कि वहाँ पात्रको प्रधानता दी गई है और उसका जीवन तथा चरित्र प्रकट करना बातका मूल उद्देश्य है।
पात्रोंकी चारित्रिक विशेषताओंका प्रकाशन भी राजस्थानी बातोंमें दो प्रकारसे हुआ है। प्रथम प्रकारमें लेखक द्वारा पात्र विशेषके गुण अथवा अवगुणोंका उद्घाटन कर दिया जाता है। प्रायः ऐसा बातके प्रारंभमें ही हो जाता है और आगे चलकर पात्र तदनुसार ही कार्य करता है । एक उदाहरण द्रष्टव्य है
"पातसाह री बेटी परणीयों, देपाल घंघ रजपूत अठै देपालपुर राज करें। अठै औ भोमीयोचारी करें। सो ई3 पास असवार २५ रहै । सो बड़ा सामंत, बड़ा तरवारीया । अर देपाल पिण बड़ी तरवारीयों। जैसोई दातार, बड़ौ रजपूत । सो औ भौमीचारी करें। परखंडां रा माल ले आवै। तठ गांम मांहे ले नै खावै-खरचै । गांम मांहे बड़ी गढ़ी, बलवंत । सु देपाल अठै ईमै भांत सुरहै।3।
चरित्र-चित्रणका दूसर प्रकार वह है, जिसमें लेखक स्वयं अपनी तरफसे पात्रकी विशेषताएँ प्रकट न करके उसके कार्यों एवं शब्दों द्वारा ही ऐसा करवाता है। यही तरीका श्रेष्ठ है । अधिकतर राजस्थानी बातोंमें यही तरीका अपनाया गया है।
पात्रोंके चरित्र-चित्रणमें आदर्श और यथार्थका विभेद महत्त्वपूर्ण विषय है। इस विषयमें दोनों ही पक्ष अपनी-अपनी विशेषताएं रखते हैं। इनके द्वारा कलात्मक-सामग्रीके मूल उद्देश्यका प्रकाशन होता है। मानव-चरित्रमें जहाँ आदर्शका महत्त्व है, वहाँ यथार्थका भी है। असलमें आदर्श और यथार्थके समन्वित रूपका नाम ही मानव-जीवन है। ऐसी स्थितिमें मानवजीवनके इन दोनों पक्षोंपर ध्यान देनेसे ही कलात्मकसामग्रीका उद्देश्य सफल होता है । कहीं एक पक्ष कुछ अधिक बलवान् हो सकता है तो कहीं दूसरा।।
राजस्थानी बातोंमें पात्रोंके चरित्रपर ध्यान देनेसे प्रकट होता है कि वहाँ आदर्श और यथार्थ दोनों रूपोंमें चित्रण हुआ है । बातोंमें जहाँ बहुत अधिक आदर्श पात्र हैं तो यथार्थ पात्र भी कम नहीं हैं। राजस्थानी बातोंकी यह एक विशेषता है । आदर्श
भारतीय साहित्यकी मूल प्रवृत्ति सदासे आदर्श चरित्रोंको प्रकट करनेकी रही है। प्रधान रूपमें यहाँ कथापात्र अनेक गुणोंसे विभूषित देखे जाते हैं। लेखकोंने पाठकोंके सामने दिव्य-चरित्र प्रस्तुत करने में अपनी कलाको सार्थक माना है। यही प्रेरणा राजस्थानी बातोंमें भी है। वहाँ इस प्रकारके बहुसंख्यक पात्र हैं, जो आश्चर्य-जनक रूपसे गुणान्वित है। समाजको बल देनेके लिए इस प्रकारके चरित्रोंको बातोंमें प्रकाशमान किया गया है । इस सम्बंधमें कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैं
(१) जगदेव पँवारको बातमें-जगदेव अपनी बिमाताकी डाहके कारण राज्य छोड़कर चला जाता है और सिद्धराजकी सेवा स्वीकार करता है। वहाँ वह अपने स्वामीकी आयुवृद्धिके लिए अपने पूरे
१. राजस्थानी वातां (श्री सूर्यकरण पारीक) २. वरदा, भाग ५, अंक ४। ३. बातां रो झूमखो, दूजो। २४६ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ
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परिवारके सिर तक देनेको तैयार होता है। इसपर उसे प्रचुर सम्पत्ति और सम्मान मिलता है। दानी वह ऐसा है कि अपना सिर तक काटकर कंकाली भाटणी को सहर्ष भेंट कर देता है । इस दानके आगे सिद्धराज भी हार मान जाता है । कंकाली शक्तिस्वरूपा है । वह जगदेवको पुनर्जीवित कर देती है । इस प्रकार जगदेव पँवार स्वामिभक्ति और दानशीलताका उज्ज्वल आदर्श प्रकट करता है।'
(२) पाबूजी राठौड़की बातमें-पाबूजी देवलदे नामक चारणीसे उसकी कालमी नामक घोड़ी इस शर्तपर लेते हैं कि जब कभी उसके धन (गाय आदि) पर संकट उपस्थित होगा तो वे अपना सिर देकर भी उसकी रक्षा करेंगे। कालान्तरमें पाबूजीका विवाह निश्चित होता है और जब वे वर-रूपमें फेरे (भाँवर) लेते हैं, तब उन्हें देवलदेपर आए हुए संकटकी सूचना मिलती है। वे वैवाहिक कार्य बीच में ही छोड़ देते हैं और अपना वचन निभानेके लिए शत्रुओंसे युद्ध करते हुए काम आते हैं। इस प्रकार पाबूजी प्रणवीरताके आदर्श हैं।
(३) राव रणमल्लको बातमें-अखा संख ला सींघल राजपूतोंके साथ धाड़े (लूट) के लिए जाता है और वे इंदा राजपूतोंके बाहलवे गाँवसी साडे (ऊंटनियां) लेकर वापिस लौटने लगते हैं। इसी समय पीछेसे इन्दा-सरदार आते हैं। सींघल भाग छुटते हैं परन्तु अखा सांखला वहीं डट जाता है। वह युद्ध में इन्दोंके हाथ मारा जाता है परन्तु मरते समय कहता है कि मेरा स्वामी रणमल्ल इसका बदला लेगा। जब यह खबर रणमल्लके पास पहुँचती है तो वह तत्काल सब काम छोड़कर अपने थोड़ेसे योद्धाओं सहित इन्दोंके गाँव आता है और उनकी घोड़ियाँ लेकर चलता बनता है। इसपर इन्दा-सरदार सेना सहित पीछा करते हैं। युद्ध होता है, जिसमें इन्दोंको पराजय होती है। इस प्रकार रणमल्ल बदला लेने तथा सेवकसहानुभूतिका आदर्श उपस्थित करता है ।
(४) पताई रावलकी बातमें-गुजरातका बादशाह महमूद बंगड़ा उसके किले पावागढ़का घेरा डालता है और पताई बड़ी दृढ़तापूर्वक उसकी रक्षा करता है। अन्तमें उसे धोखा होता है और गढ़का पतन हो जाता है। पताई और उसके सब साथी युद्ध करते हुए प्राण त्याग देते है। किले में रानियाँ जौहर व्रतका अनुष्ठान करके भस्म हो जाती है। इतना होनेपर बादशाह किले में प्रवेश कर पाता है। इस प्रकार पताई रावल जन्मभूमि-प्रेम और सर्वस्व-बलिदानका आदर्श उपस्थित करता है।
(५) सयणी चारणीकी बातमें वीजाणंद चारण सयणीके प्रति आकर्षित होकर उसके साथ विवाहका प्रस्ताव रखता है परन्तु इस विवाह हेतु एक शर्त आती है, जिसकी ६ मासमें पूत्ति होनी आवश्यक है । वीजाणंद शर्तकी पूर्ति हेतु पर्यटन करता है। जब वह काम पूरा करके लौटता है तो ६ मास पूरे हो चकते हैं और सयणी हिमालयपर गलनेके लिए घरसे निकल जाती है। बीजाणंद उसके पीछे जाता है परन्तु सयणी हिमालयपर पहुँचकर गल चुकती है। ऐसी स्थितिमें बीजाणंद भी वहीं गल जाता है। इस प्रकार बीजाणंद प्रेमका आदर्श उपस्थित करता है।"
१. राजस्थानी वातां (श्री सूर्यकरण पारीक) २. वही। ३. वरदा (७३) ४. राजस्थानी वातां, भाग १ (श्रीनरोत्तमदास स्वामी) ५. वही।
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... (६) अरजन हमीर भीमोतकी बातमें-मुर्गोंकी लड़ाई करवाते समय हमीर दृढ़तापूर्वक प्रकट करता है कि गर्दन कटनेपर भी शूरवीर अपने शत्रुको समाप्त कर सकता है। उसका ऐसा कहना आश्चर्यजनक प्रतीत होता है परन्तु जब सोमैया महादेवपर शाही-सेना आती है तो हमीर युद्ध में अपना सिर कटनेके बाद भी मारने वाले शत्रुको समाप्त कर देता है । इस प्रकार हमीर 'जूझार'का कार्य करता है । वह एक साथ ही धर्मवीर और युद्धवीर दोनोंका आदर्श है ।'
(७) कवलसी सांखल और भरमलकी--बातमें कवलसीका यह नियम है कि वह किसी कन्याकी सगाईके लिए उसके पास आया हुआ नारियल वापिस नहीं लौटाता। सांखला-वंश और खरल-वंशका बैर है। खरल किसी प्रकार बदला लेने की चिन्तामें है। वे अपनी अंधी लड़की भरमलकी सगाईका नारियल कवलसीके पास भेजते हैं और विवाहके समय उसे मार डालनेका षड़यंत्र रचते हैं। कवलसीका पिता यह नारियल अस्वीकार कर देता है परन्तु जब जङ्गलमें शिकारके लिए कवलसीको यह नारियल दिया जाता है तो वह इसे ग्रहण कर लेता है। फिर विवाहके लिए बारात जाती है। फेरोंमें ग्रंथिबंधन होते ही पतिके सत्याचरणके प्रभावसे भरमलके नेत्रोंमें ज्योति आ जाती है और वह उसे षड्यंत्रका संकेत कर देती है, जिससे कवलसी बचकर निकल जाता है। फिर वह अपनी ससुरालके प्रदेशमें भरमलके पास अकेला ही हिम्मत करके आता है। वहीं उसे छिपाकर ६ मास तक महलमें रख लिया जाता है। अंतमें वह चतुराईसे भरमलको साथ लेकर विदा हो जाता है। इस प्रकार कवलसी सत्यपरायणता और साहसका आदर्श उपस्थित करता है।
ऊपर सात आदर्श पात्रोंके चरित्रकी चर्चा की गई है। ये सभी पुरुष-पात्र हैं। इसी प्रकार राजस्थानो बातोंमें आदर्श नारीपात्रोंका चरित्र भी द्रष्टव्य है।
(१) जसमा ओडणीकी बातमें-जसमा ओड जातिकी स्त्री है, जो मिट्टी खोदनेका धंधा करती है। उसके रूप-सौन्दर्यपर मुग्ध होकर राजा उसे अनेक प्रकारसे प्रलोभन देता है परन्तु वह सर्वथा अस्वीकार कर देती है। अंतमें ओड लोग डर कर एक रात भाग छुटते हैं। राजा सेना भेजकर उनको मरवा देता है । जसमा सती हो जाती है । इस प्रकार जसमा ओडणी दृढ़ता एवं सतीत्वका आदर्श प्रकट करती है।'
(२) वीरमदे सलखावतकी बात-में शाही सेना वीरमदेका पीछा करती है और वह भाग कर जांगलूकी धरती में पहुँचता है । वहाँके राजा ऊदा मूंजावतसे वह सारी स्थिति बतला कर शरण देनेकी प्रार्थना करता है। ऊदा अपनी माताके सामने समस्या प्रस्तुत करता है। उसकी माता उसे कहती है कि वीरमदेको शरण अवश्य दी जावे। तदनुसार वीरमदेको जांगलूके कोटमें रख लिया जाता है । पीछे लगी हई शाही सेना भी वहां आ पहुँचती है। ऊदा उसके प्रधानको समझाकर बाहर ही एक रात भर डेरोंमें रोक देता है और इसी बीच वीरमदेको जोईयोंकी धरतीमें भेज दिया जाता है। दूसरे दिन कोटमें वीरमदेके न मिलनेपर शाहीसेनापति ऊदाको पकड़ता है और पैरोंकी ओरसे उसकी खाल बैंचनेकी तैयारी होती है। उसकी माता कोटकी दीवारसे यह दृश्य देखकर जोरसे आवाज देती है कि वीरमदे ऊदाके पैरों में नहीं है, वह उसकी खोपरीमें हैं, अतः खोपरीकी खाल उतारी जावें । वृद्धाके इस वचनसे प्रसन्न होकर सेनापति ऊदाको छोड़ देता है और वहाँसे
१. साधना, अंक ७। २. बात कवलसी सांखलैरी (हस्तप्रति, अभय जैन पुस्तकालय, बीकानेर) ३. राजस्थानी वातां, भाग १ (श्री नरोत्तमदास स्वामी) २४८ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ
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लौट जाता है। इस प्रकार ऊदाकी माता एक अनुपम आदर्श उपस्थित करती है। वह शरणागतकी रक्षाको अपना धर्म समझने वाली वीर माता है।'
(३) कुंगरे बलोचकी बातमें महाबली कूगरेकी बेटी हांसू अपने मृत पिताकी इच्छापूर्तिके लिए पुरुषवेषमें जैसलमेरके घोड़े लूटनेके लिए चल पड़ती है। मार्गमें उसकी ओढे सरदारसे भेंट होती है और वे साझेमें 'धाड़ा' (डाका) करने के लिए आगे बढ़ते हैं। वे जैसलमेरके घोड़े घेरकर ले आते है । पीछेसे सेना आती है । ओढा घोड़े लेकर आगे बढ़ता है और हांसू अकेली सारी सेनाको रोककर छका देती है। सेना हार कर लौट जाती है। आगे आनेपर लटमें प्राप्त घोडोंका हिस्सा होता है और ओढा हांसको पहचान लेता है कि वह लड़की है। फिर उनका आपस में विवाह होता है और हांसूके गर्भसे वीर जखड़ा जन्म लेता है। इस प्रकार हांसू एक वीर पुत्रीका आदर्श उपस्थित करती है।
___ (४) महींद्रो सोढो सम्बंधी बातमें मोमलका प्रेमी महेन्दरा सोढा उसके पास प्रति रात्रि बड़ी दूरसे चलकर पहुँचता है एक रात उसके बड़ी देरसे आनेके कारण सब सो जाते हैं और दरवाजा नहीं खुल पाता। इससे वह नाराज हो जाता है। प्रेमीकी नाराजीका पता लगाने के लिए मोमल स्वयं उसके यहाँ पहुँचती है । महेन्दरा बागमें जाकर बैठ जाता है। और मोमलको झूठा संदेश भिजवा देता है कि सांप द्वारा काटे जानेके कारण उसकी मृत्यु हो चुकी है। इस समाचारको सुनते ही मोमल अपना शरीर छोड़ देती है। इस प्रकार वह एक आदर्श प्रेमिकाके रूपमें प्रकट होती है इस बातका रूपान्तर भी मिलता है, जिसमें महेन्दराकी नाराजीका कारण दूसरा ही दिखलाया गया है।
(५) राजा नरसिंघकी बातमें अजमेरके राजा वैरसी गौड़के मरनेपर उसका पुत्र नरसिंघ बालक अवस्थामें होता है और रानी दैहड़ (दहीया वंशकी पुत्री)के ऊपर सारा भार आ पड़ता है। इसी समय अजमेर पर पठानोंका हमला होता है। रानी स्वयं वीरता पूर्वक युद्ध करती है परन्तु कोटकी रक्षा होना कठिन प्रतीत होता है, अतः अपने लोगोंको साथ लेकर वह दूर चली जाती है। आगे नरसिंघका बचपनमें ही विवाह करके उसे अपनी ससुरालमें छोड़ दिया जाता है । फिर रानी देहड़ हाड़ोंकी धरतीमें जाकर शक्ति-संग्रह करती है। नरसिंघ सयाना हो जाता है तो उसका एक विवाह और कर लिया जाता है। फिर अवसर देखकर रानी अजमेरपर आक्रमण करती है और विजयके बाद नरसिंघ राजा बनता है। इसके बाद रानी दैहड़ सती हो जाती है। इस प्रकार रानी एक साथ ही शौर्य, सहनशीलता, बुद्धिमत्ता एवं पतिभक्तिका आदर्श उपस्थित करती है।४
यहाँ राजस्थानी बातोंके कुछ चुने हुए आदर्श पात्रोंकी साधारण चर्चा मात्र की गई है, वैसे बातोंमें आदर्श पात्रोंकी संख्या बहुत बड़ी है और वे अनेक प्रकारके आदर्श उपस्थित करते हैं। इसी प्रसंगमें पात्रोंकी शारीरिक शक्तिका नमूना भी देखने योग्य है
) कूगरो बलोच अरोड़ सखर रहै तिलोकसीह जसहीत जैसलमेर राज करें। कूगरी छै ताकड़ी रौ अहार कर । एक बैर (पत्नी) कूगर । री हाडौ परबत छ, ओथ रहै । मा सू अरोड़ रहै । सू पहाड़ इसड़ी
१. वीरवाण, परिशिष्ट भाग (रानी लक्ष्मीकुमारी चूंडावत)। २. राजस्थानी वातां, भाग, १ (श्री नरोत्तमदास स्वामी)। ३. राजस्थानी प्रेमकथाएँ (श्री मोहनलाल पुरोहित)। ४. वातां रो झूमखो, दूजो ।
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परबत, सू पहाड़ कोरि नै माहे घर कियौ । सू घर रे मुंहड़े दीयै। सू उवा चिटां कूगरौ खेसवै, बीज कंही खुलै नहीं। पहाड़ नै अरोड़ साठ कोस रौ आंतरौ । एक दिन पहाड़ रहै, एक दिन अरोड़ रहै । हम थको रहै।'
(२) ताहरां सूरिजमल सादड़ी छाडी। सूरिजमल देवलीय गयो। आगे देवलीय मैंणों मरि गयो। मैंणी राज करै। उठे जाइ नै सूरिजमल पग टेकिया। सु मैंणी इसड़ी बलाइ, वागो पहिर घोड़े चढ़े । सु छ ताकड़ी री बुडी, इसड़ी बरछी पकड़ीय। देश माहे चौथल्यै । अठ सरिजमल प्रिथीराज रो धक मैंणी कन्हें जाइ रह्यो ।
इन दोनों उद्धरणों में क्रमशः, गरा बलोच और एक यीणी राणीकी शारीरिक शक्ति प्रकट की गई है, जो सामान्य जनसे कहीं अधिक है। राजस्थानमें जिस प्रकार अगणित व्यक्ति शौर्य सम्पन्न हुए हैं, उसी प्रकार यहाँ शारीरिक शक्ति भी कम नहीं रही है। ऐसे व्यक्तियोंकी आज भी लोग चर्चा करते हैं। बातोंके रूपमें उनकी स्मृतिको लेकर बनाए रखा गया है। यथार्थ
पात्रोंके यथार्थ चरित्र चित्रणको दृष्टिसे भी राजस्थानी बातें अपना विशेष महत्त्व रखती हैं। उनमें मानव-मनकी विविध स्थितियोंका सच्चा चित्र प्रस्तुत किया गया है। ऐसे चित्र बहुत अधिक हैं। कुछ उदाहरण देखिए
(१) केसे उपाधीयैकी बातमें जांगल के स्वामी अजैसी दहियाका कुलपुरोहित केसा है। राज्यमें उसका बड़ा सम्मान है। परन्तु वह राजाकी अनुमति प्राप्त किए बिना ही कोटके सामने तालाब बनवाना आरम्भ कर देता है । कोटके लिए यह तालाब हानिकारक हो सकता है, अतः राज अजैसी उसे रोक देता है। इसपर केसा मन ही मन बड़ा नाराज होता है और वह रायसी सांखलासे गुप्त रूपसे मिलकर षडयन्त्र रचता है। तय होता है कि केसा रायसीको जांगल का राज्य दिलवा देगा और बदलेमें उसे कोटके सामने तालाब बनवा लेने दिया जायगा। फिर कपटपूर्वक दहिया-दलके लोगोंको वर रूपमें विवाहके लिए बुलवा लिया जाता है और क्रूरताके साथ उनको आगमें जला दिया जाता है। केसा पुरोहित चालाकीसे जांगल कोटका दरवाजा भी खुलवा लेता है और उसपर सांखला रायसीका अधिकार हो जाता है। कोटके सामने तालाब बनता है। इस प्रकार केसाकी प्रतिहिंसा पूरी होती है। वह तुच्छ स्वार्थके लिए परम्परागत सम्बन्धोंको भुला देता है ।
(२) कछवाहैकी बातमें नरवरगढ़के पतनके समय बालक सोढको लेकर उसकी माता दासीके रूपमें जान बचा कर भाग जाती है और वह खोहमें मीणोंके राज्यमें पहुँचती है। ऐसी दुरवस्थामें वहाँ एक किसान-मीणा उन मां-बेटोंको दयावश अपने घरमें शरण देता है। सोढकी चर्चा खोहके राजाके पास पहुँचती है और वह उसे अपनी सेवामें बुलवा लेता है। कुछ समय बाद खोहपर शाही सेनाकी चढ़ाई होती है और मीणोंका राजा ६ लाख रुपए नकद तथा ३ लाखके बदले सोढको अपने पुत्र-रूपमें बादशाहके पास भेजकर सन्धि कर लेता है। राजा सोढको कहता है कि वह धीरज धारण किए रहे, उसे जल्दी ही छुड़वा लिया
१. राजस्थानो वातां, भाग १, पृ० ४२ । २. वात सूरिजमल री (हस्तप्रति, अनूप संस्कृत पुस्तकालय, बीकानेर)। ३. केसै उपाधीय री बात (हस्तप्रति, अ० ज० ग्रन्थालय, बीकानेर)। २५० : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ
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जाएगा। परन्तु बादशाहके सामने भेद खुल जाता है कि सोढ मीणोंके राजाका पुत्र न होकर कछवाहा राजपूत है। वहाँ बादशाह सोढको सैनिक सहायता देता है और फिर वह मीणोंको मारकर खोहपर अपना अधिकार स्थापित कर लेता है । इस प्रकार सोढ अपने शरणदाताका ही घातक बनता है।'
(३) मारू सूघारीकी बातमें फूल की मृत्यु के बाद लाखा राजा बनता है और ठाकुर तथा भोमिये उससे मिलने के लिए आते हैं । वीरण राठौड़ भी वहां पहुंचता है। लाखा प्रसन्न होकर उसको अपनी बहिन विवाहमें देने के लिए कह देता है। परन्तु यह बहिन उसकी संगी न होकर विमाता बलोचणी रानीकी बेटी है। इस सम्बन्धसे रानी नाराज होती है परन्तु उसका कोई वश नहीं चलता। वीरण विवाहके लिए आता है, उस समय उसकी बहली (गाड़ी)के तेज दौड़नेवाले रोझ (पशु) देखकर लाखा उनको मांग लेता है। ये रोझ वीरणके नहीं थे, धारा सूंघारके थे, जो वहीं साथमें था। अतः तय हुआ कि धारापर कोई दोष लगा कर उसके रोम छीन लिए जावें । उसका डेरा बलोचणी रानीकी कोटड़ी (निवासस्थान)में किया गया । फिर दोनोंको पकड़नेका षड्यन्त्र था। बलोचणीको इसकी सूचना मिल जाती है और वह धाराको खबर देती है कि यदि वह उसे लेकर भाग छुटे तो प्राण बच सकते हैं। धारा मंजूर कर लेता है और वे दोनों चुपचाप बहलीमें बैठकर भाग जाते हैं। इसपर लाखा बड़ा क्रोधित होता है क्योंकि बलोचणी रानी आखिर उसकी विमाता तो थी ही। वह वीरणके साथ अपनी बहिन (बलोचणी की पुत्री)का विवाह करके उसे ससुरालके लिए विदा करते समय समझा देता है कि किसी प्रकार वह ससुरालके गांव में जाकर अपनी माता (बलोचणी रानी)को जरूर समाप्त कर डाले। वह इसके लिए तैयार हो जाती है और अपनी ससुरालमें माताको बुलवा कर कपटपूर्वक भोजन में विष दे देती है। इस प्रकार बेचारी बलोचणी रानीकी जीवन-लीला समाप्त होती है।
हकी बातमें एक सेठ ठकुरेके घरसे निकले हुए पुत्रसे अपना काम निकालकर उसे धोखेसे समुद्र में डाल देता है। किसी तरह लड़का बच जाता है और एक नगरमें राजाके यहाँ 'जगाली'के रूपमें नौकरी करने लगता है। समय पाकर उसे समुद्र में डालनेवाला सेठ वहाँ आता है और जगात (चुंगी) चुकानेसे पूर्व यह पता लगवा लेता है कि वहां जगाती कौन है । सेठको सूचना मिलती है कि वहाँ वही पक्ति जगाती है, जो समद्रमें फेंका गया था। अब सेठ राजाके 'ओलग' (गानेवाले, ड्रम) लोगोंको दस मोहर देकर कहता है कि वहाँका जगाती उसका 'गोला' (दास) है, यह खबर राजाके पास किसी तरह पहुंचाई जावे । डूम लोग तैयार हो जाते हैं और गाते समय चतुराईसे राजाके सामने जगातीके बारेमें कह देते हैं कि वह तो उनका 'भांडणी' (भांड जातिकी स्त्री)के पेटसे पैदा हुआ भाई है। राजा इस सूचनासे बड़ा क्रोधित होता है कि जगातीने अपनी जाति छिपाई। जब जगाती को बुलवा कर पूछताछ की जाती है तो सारा भेद खुल जाता है। इस समय डूम (गवैये) तत्काल सेठसे प्राप्त दस मोहर निकाल कर राजाके सामने रख देते हैं कि सारा काम उन मोहरोंने करवाया है, जो उन्हें सेठसे मिली है।
ऊपर केवल चार बातोंमें-से उदाहरण प्रस्तुत किए गए हैं। इस प्रकारका यथार्थरूप राजस्थानी बातोंमें अनेकशः देखा जाता है ।
१. कछवाहै री बात (हस्तप्रति, अ० ज० ग्रन्थालय, बीकानेर)। २. वरदा (७।१)। ३. ठकुरै साह री बात (वातां रो झूमखो, दूजों)।
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आदर्श और यथार्थ का मिश्रणं
राजस्थानी बातोंमें अनेक पात्रोंके चरित्र में आदर्श और यथार्थका मिश्रण प्रकट हुआ है। ऐसे पात्रों में कुछ विशेष गुण हैं तो कुछ मानवीय दुर्बलताएँ भी हैं। उदाहरण देखिए
(१) राज बीजकी बातमें लाखाका भानजा राखायच अपने मामाके पास रहता है और वहाँ उसका पूरा सम्मान है। परन्तु राखायच गुप्त रूपसे घोड़ेपर चढ़कर मूलराजके पास जाता है और उसे लाखापर आक्रमण करनेका अवसर बतला देता है। वह अपने मामा लाखासे अपने पिताको मृत्युका बदला लेना चाहता है। परन्तु जब मूलराजकी सेना आक्रमण करती है तो राखायच लाखाके पक्षमें लड़ता हुआ प्राण त्याग देता है। इस प्रकार वह लाखाके अन्तका स्वयं कारण बनकर उसके साथ ही अपना जीवन दे देता है । राखायच जानबूझ कर धोखा देनेपर भी अन्तमें स्वामिभक्ति प्रकट करता है।'
(२) राजा नरसिंहको बातमें एक घोड़ेके सम्बन्धमें विवाद हो जानेके कारण हरा अजमेर छोड़कर पठानोंकी सेवामें चला जाता है। जब पठान अजमेरपर आक्रमण करनेकी सोचते हैं तो हरा सारी सूचना गुप्त रूपसे अजमेर भेज देता है। इसी प्रकार वह चढ़ाईके समय भी अजमेरके गौड़ोंके लिए उचित परामर्श छिपकर पहुँचाता रहता है। इतना होनेपर भी जब अन्तमें युद्ध होता है तो हरा पठानोंके पक्षमें लड़ते हुए प्राण त्याग करता है। गौड़ विजयी होकर हराका संस्कार करते हैं। इस प्रकार हरा अपने स्वामीको धोखा देते हुए भी उसके लिए प्राण त्याग देता है, जो ध्यान देने योग्य है।
) देपाल घंघकी बाटमें मुलतानका बादशाह देपालसे पराजित होकर उसको अपनी बेटी विवाहमें दे देता है। फिर बादशाह अपनी बेटीको गुप्त रूपसे अपने पक्षमें करके उसके द्वारा यह मालूम करवा लेता है कि देपाल किस प्रकार मारा जा सकता है। देपालकी पत्नी अपने पतिको बातोंमें बहला कर उससे यह भेद पूछ लेती है। अन्तमें जब देपाल युद्ध में मारा जाता है तो बादशाह की बेटी उसके साथ सती होती है । इस प्रकार वह पहिले पतिद्रोह और फिर पतिभक्ति प्रकट करती है। चरित्र-विकास
राजस्थानी बातोंमें पात्रों की चारित्रिक विशेषताएं प्रायः स्थिर हैं और उनका विकास कम ही दृष्टिगोचर होता है। फिर भी कई पात्रों की मनोदशामें परिस्थितिवश विशेष परिवर्तन देखा जाता है। यही उनका चारित्रिक विकास है । उदाहरण देखिए
(१) उमादे भटियाणी की बातमें-रानी उमादे अपने पतिको एक दासीकी ओर आकृष्ट देखकर रूठ जाती है और फिर उसे मनानेके लिए अनेक प्रयत्न किए जानेपर भी वह नहीं मानती। सर्वसाधारणमें उसका नाम ही 'रूठी राणी के रूपमें प्रसिद्ध है । अन्तमें जब उसके पति राव मालदेवका देहान्त हो जाता है तो वह सती होती है और अपने जीवनका अनुभव संदेश-रूपमें प्रकट करती है कि उसकी तरह कोई स्त्री संसारमें 'मान' (रूसणो) न करे। इस प्रकार अत्यन्त आग्रहके साथ जन्म भर 'मान' पर डटी रहनेवाली उमादे अन्तमें उसकी निस्सारताके प्रति ग्लानि प्रकट करके पतिके साथ ही अपनी जीवन-लीला भी समाप्त कर लेती है।
१. राज बीज री बात (हस्तप्रति, अ० ज० ग्रं० बीकानेर)। २. बातां रो झूमखो, दूजो। ३. वातां रो झूमखो, दूजो। ४. राजस्थानी वातां, भाग १ (श्री नरोत्तमदास स्वामी) २५२ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ
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। की बातमें जब लाखा दूर देश जाता है तो अपनी प्रियतमा सोढी रानीके पास गायनके द्वारा मन बहलाने हेतु मनभोलिया नामक डूमको छोड़ जाता है । पीछेसे सोढी रानी कामातुर होकर मनभोलिया डूमको अपने महलमें रखने लगती है। यह खबर किसी तरह लाखाके पास पहुँच जाती है और एक रात वह चुपचाप आकर सोढी रानीका चरित्र देख लेता है। इस पर लाखा उसे मारनेके लिए तलवार निकालता है परन्तु अपने पूर्व वचनका स्मरण करके उसको नहीं मारता। अगले दिन सोढी रानी उसी डूमको सौंप दी जाती है। वह मनभोलियाके साथ चली जाती है। कुछ समय बाद वे दोनों पाटणमें लाखाको देखते हैं । इस समय सोढी प्रतिज्ञा करती है कि लाखाके हाथका 'सूला' खाए बिना वह अन्न-पानी ग्रहण नहीं करेगी। यह प्रतिज्ञा सुनकर लाखा अपने हाथका बनाया हुआ 'सूला' सोढीके लिए भेजता है। उसे देखते ही सोढी प्राण त्याग देती है। इस प्रकार सोढी रानी पतिको दगा देनेपर भी अन्तमें उसके व्यवहारको देखकर आत्मग्लानिके कारण अपनी जीवन-लीला समेट लेती है।'
(३) काम्बलो जोईयो और तीडी खरल की बातमें-कांवला एकदम भोले स्वभावका व्यक्ति है । यहाँ तक कि उसकी सास अपनी बेटोको उसके घर भेजनेके लिए भी तैयार नहीं होती। अन्तमें किसी तरह समझाने पर वह उसे कांबलाके साथ विदा कर देती है। जब उसका गाँव निकट आता है तो उसकी पत्ती कपड़े आदि ठीक करनेके लिए ऊँटसे नीचे उतरती है और उसे कुछ दूर खड़ा होने के लिए कहती है । कांबला समझता है कि वह अकेली आ जाएगी और स्वयं घर चला जाता है। रात पड़ जाती है और तीड़ी ससुरालका घर जानती नहीं, अतः वह रोने लगती है। इसी समय एक 'धाड़ी' उधर आ निकलता है और सारी स्थिति समझकर तीड़ीको कहता है कि ऐसे व्यक्तिके साथ उसका निर्वाह नहीं होगा। यदि वह चाहे तो उसके घर चल सकती है, जहां उसे पूरा सम्मान मिलेगा। इस पर तीडी उसके साथ चली जाती है। इधर कांबला तीडीके लिए भगवां धारण करके उसकी खोजमें निकलता है और घूमते-घूमते अन्तमें उसी गांवमें चला जाता है, जहाँ तीडी रहती है । धाड़ी की अनुपस्थितिमें उनका मिलाप होता है। जब तीड़ी देखती है कि उसके लिए कांबल ने घर छोड़ दिया है तो वह उसके साथ जानेके लिए तैयार हो जाती है और इस कार्यके लिए स्वयं तरकीब भी बतला देती है। फिर कांबला अपने बहनोईके साथ वहाँ आता है और धाड़ी को अनुपस्थितिमें वे तीडीको ले भागते हैं। इस प्रकार तीडीका मन अपने पति की मूर्खताके कारण उससे फिर जाता है परन्तु अन्तमें उसके त्यागको देखकर उसका प्रेम उमड़ पड़ता है और वह भयंकर खतरा उठाकर भी उसके साथ वापिस लौट आती है।२ , मानसिक संघर्ष
बातोंमें मानसिक-संघर्ष की अनेक परिस्थितियां प्रकट होती हैं परन्तु वहाँ इस प्रकारका मनोवैज्ञानिक चित्रण दृष्टिगोचर नहीं होता। वहाँ सीधे-सादे रूपमें घटना की ओर संकेत कर दिया जाता है और मनोभावों की सूक्ष्मताके चित्रण की ओर ध्यान नहीं दिया जाता। इस सम्बन्धमें कहीं-कहीं साधारण चर्चा भले ही मिल सकती है । उदाहरण देखिए
(१) इतरैमें नागोर ओर बीकानेर आपसमें कजियो हवो, गाँव जखाणियाँ बाबत । सो नागेर री फोज भागी, बीकानेर री फतह हुई ।......... 'सो आ खबर अमर सिंहजी नूं गई। सो सुणत सुवां कालो
१. लाखा फूलाणी री वात (हस्तप्रति, अ० ज० ग्रं०, बीकानेर) २. बातां रो झूमखो, पहलो।
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मैंरट हुय गयौं । हाथ पटकै दांतां सूं हथेली नूं बटका भरै । कटारी सुं तकियों फाड़ नांखियो । 'जे म्हांरी भणा दिनां री संची जाजम बीकानेर रा खाली कर दीवी । मैं तो इहां नूं जोधपुर रं पगां संचिया था, सो हमें जोधपुर री आस तो चूकी दोस छँ ।' मुत्सद्दी अमराव हजूर री धीरज बंधावै, परचावै । पण अमरसिंह तो बावल सी बात करें । "
राव अमरसिंह की ऐसी मनोदशा उस समय प्रकट की गई है, जब उसे अपनी जागीर (नागौर) से पराजयका संवाद मिलता है और शाही दरबारसे घर जानेके लिए उसे छुट्टी प्राप्त नहीं हो रही है ।
(२) एकै दिन राजड़िया रो बेटो वीजड़ियौ वीरमदेजी री खवासी करें छे । तिण आँख भरी, चौसरा छूटा । वीरमदेजी पूछियो - " वीजड़िया क्यूं, किण तोनें इसो दुख दोघो ?” तह वीजड़ियो को"राज, माथे धणी, मोनें दुख दै कुण ? पिण नींबो म्हारा बाप रो मारण हारी, गढां-कोटां मांहि बड़ा बड़ा सगां मांहे धणीयां रो हांसा रो करावणहारी बल गढ़ मांहे खंखारा करै छै नैं पोढे छै । तीण रौ दुख आयो । २
इस प्रसंग वीजड़ियाका हृदय उसके पिताको मारनेवाले नींबाको राजमहल में आरामसे रहते देख - कर जल रहा है । परन्तु वह सेवक है, अतः उसकी मानसिक पीड़ा नेत्रों की राह बह चली है ।
(३) अचलदासजी नूं आंख्यां हो न देखे छै, तर ऊमांजी झीमो नूं कहियो - " हि मैं क्यों कीजसी ? एकेक रात बरस बराबर हुई छै । आखी खाधी, तिका आधी ही न पावू, इसड़ी हुई ।" तरं ऊमांजी झीमा नूं कहै छै - जसू ? कोइक विचारणा करणो, ओ जमारो क्यों नीसरं ? जो तूं वीण वजावै, तरै रन रामृग आवै नै आगे ऊभा रहता, सो तूं अचलजी नूं मोह नै ल्यावै तो तूं खरी सुघड़राय ।" तरं झीमी कहियो - " जो अचलदासजी नां एक बार आंख्यां देखूं तो मगन करां । आंख्यां ही न देखूं तो किसो जोर लागे ?' 3
इस प्रसंगमें सौतसे वशीभूत पति के द्वारा परित्यक्ता पत्नी की मनोवेदना प्रकट हुई और किंकर्तव्यविमूढ़ता की स्थितिने इस वेदनामें विशेष रूपसे वृद्धि कर दी है ।
(४) रात रै समीमैं सोंधल आपरे ठिकाण पधारिया । त्यों सुपियारदे पिण कपड़ा पेहर अर महलमें सींधल कन्हें गई । त्यों कपड़ां री सुगंध आई । त्यों सींधल कह्यौ - "आ सुवासनी काहिण री आवे छे ?” त्यों सुपियारदे बोली—“राज, मोनू खबर नहीं ।" इतरै सोंधल बोलियो -- "जू म्हे कह्यो हुवै म्हो जांणायौ जू जांणीजै बैनोई भेंट कीवी छै ।" तद सींधल चादर तांण नैं पौठि रह्यौ अर सुपियारदे ने किम को नहीं । राति पोहर ४ उठे ही ज ठोड सुपियारदे खड़ी रही । तद सुपियारदे हो को
प्रसूती धण ओजगै, राति विहाणी जाइ ।
सोंधल बोल्या बोलड़ा, कहूँ नरबद नैं जाइ ॥ ४
इस प्रसंग सुपियारको उसका पति जली-कटी बात सुनाकर उसके चरित्र पर लांछन लगाता है । और फिर वह चादर तानकर सो जाता है । सुपियारदे रात भर खड़ी हुई चिन्ता करती है । इस समय उसके
१. राजस्थानी वात-संग्रह (परम्परा), पृष्ठ १५६ ।
२. राजस्थानी वातां, पृष्ठ ७६-७७ ।
३. पँवार वंश दर्पण, परिशिष्ट ।
४. सुपियारदे री वात (हस्तप्रति, श्री अ० सं० पुस्तकालय, बीकानेर )
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हृदयमें उथल-पुथल मची हुई है। उसे अपने पतिके शब्दों पर भारी रोष है, जिसे बातमें एक दोहेके द्वारा प्रकट किया गया है।
(५) जाट साहरण भाडंग माहे रहै अर गोदारो पांडो लाधड़ीयै रहै, वडो दातार । सु साहरण रे नायर (पत्नी) बाहणोवाल मलकी। सु मलकी मांही (पति) नूं क ह्यो-"जु गोदारो घणो कहावै छै ।"
घड़ बंधी बरसे गोदारो, बत भांडको भीजै।
पांडो कहै सुणो रे लोगो, रहै सु डूमां दीजै ॥ मांटी नुं कह्यो--"चौधरी, रसो दे, जिसो गोदारो। ता ऊपर नांव हवै। जोट तो दारू रो छाकीयो हंतो, सु चोधरण र चाबखै री दीवी। तो जाहरां कह्यो-“पांडो केरो, जो रोधी छै ।" जाहणी कह्यो"धरवूडा, मैं तो बात कही थी।" जाटणो कह्यौ-"थारै माचे आवू तो भाई र आवू।" जाट सू अबोलणो घातीयौ। मास १ पांडू गोदार नू' कहाय मेलीयो-"जु ते बदलै मोनुं ताजणो वाह्यौ।" पांडू कहायो--"जो आवै तो हैं आय लेवा।" ओर ही त मास दे हवा ।'
इस प्रसंगमें बिना अपराध ताड़ित नारी की रोषपूर्ण आत्मा पुकार कर रही है। ऐसी स्थितिमें वह आत्म सम्मानके लिए सब कुछ छोड़नेके लिए तैयार हो जाती है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि राजस्थानी बातोंमें पात्रोंका एक अलग ही संसार बसा हुआ है। इस संसारमें भले-बुरे सभी तरहके व्यक्ति हैं। वहाँ छोटे-बड़े, ऊँच-नीच, बली-निर्बल आदि सभी प्रकारके लोग अपने-अपने कार्यमें व्यस्त दिखलाई देते हैं। बातों की इस दुनियामें विचरण करके यहाँके निवासियों की प्रकृति तथा चरित्रका अध्ययन करना बड़ा ही रोचक तथा रसदायक है।
१. वात राव वीकै री (हस्तप्रति, अ०० ग्रं०बीकानेर)
भाषा और साहित्य : २५५
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वतीय खण्ड
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जैनतर्कशास्त्रमें हेतु-प्रयोग
डॉ० दरबारीलाल कोठिया
भूतपूर्व रीडर, जैन-बौद्धदर्शन काशी हिन्दू विश्वविद्यालय प्रमाणशास्त्रमें अनुमान प्रमाणका महत्त्वपूर्ण स्थान है। उससे उन पदार्थोंका ज्ञान किया जाता है जो इन्द्रियगम्य नहीं होते। अतः इन्द्रियागम्य सूक्ष्म, अतीत-अनागत और दूर पदार्थ अनुमेय हैं और उनकी व्यवस्था अनुमानसे की जाती है । जहाँ किसी साधनसे किसी साध्यका ज्ञान किया जाता है उसे अनुमान कहा गया है। इसे और भो सरल शब्दोंमें कहा जाय तो यों कह सकते हैं कि ज्ञातसे अज्ञातका ज्ञान करना अनुमान है। उदाहरणार्थ नदीकी बाढ़को देखकर अधिक वर्षाका ज्ञान, सूंड़को देखकर पानी में डूबे हाथीका ज्ञान, धुआँको अवगत कर अग्निका ज्ञान अनुमान है । इसे चार्वाकदर्शनको छोड़कर शेष सभी भारतीय दर्शनोंने माना है।
अनुमानके कितने अङ्ग (अवयव) है, इस विषयमें भारतीय दर्शन एकमत नहीं हैं। यों कमसे कम एक और अधिकसे-अधिक दश अवयवोंकी मान्यताएँ दर्शनशास्त्रमें मिलती हैं। एक अवयव बौद्ध ताकिक धर्मकीर्तिने और दश अवयव सांख्यविद्वान् युक्तिदीपिकाकारने स्वीकार किये हैं। जैन परम्परामें भी दश अवयव आचार्य भद्रबाहुने माने हैं। यतः हेतुको सभी दार्शनिकोंने अङ्गीकार किया है और उसे प्रधान अङ्ग बतलाया है। अतः यहाँ इस हेतुका ही विशेष विचार किया जावेगा।
अनुमेयको सिद्ध करनेके लिए साधन (लिङ्ग) के रूपमें जिस वाक्यका प्रयोग किया जाता है वह हेतु कहलाता है। साधन और हेतुमें यद्यपि साधारणतया अन्तर नहीं है और इसलिए उन्हें एक-दूसरेका पर्याय मान लिया जाता है । पर ध्यान देनेपर उनमें अन्तर पाया जाता है। वह अन्तर है वाच्य-वाचकका । साधन वाच्य है, क्योंकि वह कोई वस्तु होता है। और हेतु वाचक है, यतः उसके द्वारा वह कहा जाता है। अतएव 'साधनवचनं हेतुः' ऐसा कहा गया है।
____ अक्षपादने" हेतुका लक्षण बतलाते हुए लिखा है कि उदाहरणके साधर्म्य तथा वैधय॑से साध्य (अनुमेय) को सिद्ध करना हेतु है। उनके इस हेतुलक्षणसे हेतुका प्रयोग दो तरहका सिद्ध होता है। एक साधर्म्य और
१. आप्तमी० का० ५। २. साधनात्साध्यविज्ञानमनुमानम् ।-न्यायवि० द्वि० भा० २।१। ५० मु० ३।१४। ३. हेतुबिन्दु, पृ० ५५ । ४. युक्तिदी० का० १ की भूमिका, पृ० ३ तथा का० ६, पृ० ४७-५१ । ५. दशवै० नि० गा० ४९, ५० । ६. 'परमाणवः सन्ति स्कन्धान्यथानुपपत्तेः' इस अनुमान-प्रयोगमें अनुमेय 'परमाणुओं को सिद्ध करनेके लिए
प्रयुक्त साधन 'स्कन्ध अन्यथा नहीं हो सकते' हेतू है। ७. न्याय सू० ११११३४, ३५ ।
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दूसरा वैधर्म्य । साधर्म्यका अर्थ अन्वय है और वैधयंका व्यतिरेक । साधर्म्य और वैधयं अनुमेयसिद्धिमें हेतुके निर्दोषत्वको पुष्टकर उसे साधक बनाते हैं। व्याख्याकार वात्स्यायन' और उद्योतकरने इन दोनों प्रयोगोंका समर्थन किया है। इन ताकिकोंके मतानुसार हेतुको साध्य (पक्ष) में तो रहना ही चाहिए, साधर्म्य उदाहरण (सपक्ष) में साध्यके साथ विद्यमान और वैधर्म्य उदाहरण (विपक्ष) में साध्याभावके साथ अविद्यमान भी होना चाहिए । फलतः हेतुको त्रिरूप होना आवश्यक है।
काश्यप (कणाद) और उनके व्याख्याता प्रशस्तपादका भी मत है कि जो अनुमेय (साध्य) के साथ सम्बद्ध है, अनुमेयने अन्वित (साधर्म्य उदाहरण-सपक्ष) में प्रसिद्ध है और उसके अभाव (वैधर्म्य उदाहरण-विपक्ष) में नहीं रहता वह हेतु है । ऐसा त्रिरूप हेतु अनुमेयका अनुमापक होता है । इससे विपरीत अहेतु (हेत्वाभास) है और वह अनुमेयको नहीं साधता।
बौध तार्किक न्याय प्रवेशकार भी त्रिरूप हेतुके प्रयोगको ही अनुमेयका साधक बतलाते हैं । धर्मकीति,६ धर्मोत्तर" आदिने उनका समर्थन किया है।
सांख्य विद्वान् माठरने भी त्रिरूप हेतुपर बल दिया है। इस प्रकार नैयायिक, वैशेषिक, बौद्ध और सांख्य तार्किक हेतुको त्रिरूप मानते हैं ।
तर्क-ग्रन्थोंमें त्रिरूप हेतुके अतिरिक्त द्विरूप, चतुःरूप, पञ्चरूप, षड्प और सप्तरूप हेतुकी भी मान्यताएं मिलती हैं। द्विरूप, चतु:रूप और पञ्चरूप हेतुका उल्लेख उद्योतकर, वाचस्पति और जयन्त भट्टने किया और उनका सम्पोषण किया है। इससे ज्ञात होता है कि उक्त त्रिरूप हेतुकी मान्यताके अलावा ये मान्यताएं भी नैयायिकोंके यहाँ रही हैं । षडरूप हेतुका धर्मकीतिने१२ और सप्तरूपका वादिराजने 3 सूचन किया है। पर वे उनकी मान्यताएँ नहीं हैं। उन्होंने उनका केवल समालोचनार्थ उल्लेख किया है। फिर भी इतना तो तथ्य है कि ये भी किन्हीं ताकिकोंकी मान्यताएं रही होंगी। जैन ताकिकोंका हेतु-प्रयोग
जैन ताकिकोंने केवल एक अविनाभावरूप हेतुको स्वीकार किया है। उनका मत है कि हेतुको साध्याविनाभावी होना चाहिए-उसे, जिसे सिद्ध करना है उसके अभावमें नहीं होना चाहिए, उसके
१. न्यायभा० १११।३४, ३५ । २. न्यायवा० ११११३४, ३५; १० ११८-१३४ । ३. ४. प्रश० भा०, पृ० १००। ५. न्याय प्र०, पृ० १। ६. न्याय बि०, पृ० २२, २३; हेतु बि०, पृ० ५२ । ७. न्याय बि० टी०, पृ० २२, २३ । ८. सांख्यका० माठरवृ० का० ५।। ९. न्यायवा० ११११३४; पृ० ११९ । वही ११११५, पृ० ४६ तथा ४९ । १०. न्यायवा० ता० टी० ११११५; पृ० १७४ । ११. न्यायकलिका पृ० १४ । १२. हेतुबिन्दु पृ० ६८ । १३. न्याय वि० वि० २।१४५, पृ० १७८-१८० ।
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सद्भावमें ही होना चाहिए । अविनाभावीका अर्थ है - अनुमैय के बिना न होना, अनुमेयके होनेपर ही होना अन्यथानुपपन्नत्व और अन्यथानुपपत्ति उसीके पर्याय हैं । इसका तात्पर्य यह है कि ऊपर जो हेतुको द्विरूप, त्रिरूप, चतुःरूप, पञ्चरूप, षड्रूप और सप्तरूप विभिन्न दार्शनिकोंने बतलाया है उसे स्वीकार न कर जैन विचारक हेतुको मात्र एकरूप मानते हैं। वह एक रूप है अविनाभाव, जिसे अन्यथानुपन्नत्व और अन्यथानुपपत्ति भी कहा जाता है । समन्तभद्रने ' आप्तमीमांसा में हेतुका लक्षण देते हुए उसमें एक खास विशेषण दिया है । वह विशेषण है 'अविरोध' । इस विशेषण द्वारा उन्होंने बतलाया है कि हेतु त्रिरूप या द्विरूप आदि हो, उसमें हमें आपत्ति नहीं है, किन्तु उसे साध्यका अविरोधी अर्थात् अविनाभावी होना नितान्त आवश्यक है | अकलङ्कदेवने उनका आशय उद्घाटित करते हुए लिखा है कि 'सधर्मणैव साध्यस्य साधर्म्यात्' इस वाक्यके द्वारा समन्तभद्रस्वामीने हेतुको त्रिरूप सूचित किया और 'अविरोधत:' पदसे अन्यथानुपपत्तिको दिखलाकर केवल त्रिरूपको अहेतु बतलाया है । उदाहरणस्वरूप ' तत्पुत्रत्व' आदि असद् हेतुओं में त्रिरूपता तो है, पर अन्यथानुपपत्ति नहीं है और इसलिए वे अनुमापक नहीं हैं । किन्तु जो त्रिरूपतासे रहित हैं तथा अन्यथानुपपत्तिसे सम्पन्न हैं वे हेतु अवश्य अनुमापक होते हैं । फलतः 'नित्यत्वे - कान्तपक्षेऽपि विक्रिया नोपपद्यते' [आप्त मी० का ० ३७] इत्यादि प्रतिपादनोंमें अन्यथानुपपत्तिका ही आश्रय लिया गया है । विद्यानन्द ने 3 भी समन्तभद्रके उक्त 'अविरोधत:' पदको हेतुलक्षणप्रकाशक बतलाया है ।
पात्रस्वामीका कोई तर्कग्रन्थ यद्यपि उपलब्ध नहीं होता, किन्तु अनन्तवीर्यके उल्लेखानुसार उन्होंने 'त्रिलक्षणकदर्थन' नामका महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ रचा था, जिसमें त्रिरूप हेतुका निरसन किया गया होगा । तत्त्वसंग्रहकार शान्तरक्षितने" तो उनके नामसे उनकी अनेक कारिकाओंको अपने तत्त्वसंग्रह में उद्धृत भी किया है जो सम्भवतः उक्त 'त्रिलक्षणकदर्थन' की होंगी । शान्तरक्षित के विस्तृत उद्धरणका कुछ उपयोगी अंश निम्न प्रकार है—
अन्यथेत्यादिना पात्रस्वामिमतमाशंकते --
अन्यथानुपपन्नत्वे ननु दृष्टा सुहेतुता । नासति त्र्यंशकस्यापि तस्मात्क्लीवास्त्रिलक्षणाः || अन्यथानुपपन्नत्वं यस्यासो हेतुरिष्यते । एकलक्षणकः सोऽर्थश्चतुर्लक्षणको न वा ॥ नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् । अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ॥ तेनैकलक्षणो हेतुः प्राधान्याद् गमकोऽस्तु नः । पक्षधर्मत्वादिभिस्त्वन्यैः किं व्यर्थैः परिकल्पितैः ॥
इस उद्धरणमें तीसरे स्थानपर स्थित 'नान्यथानुपपन्नत्वं' कारिका जैन न्याय-ग्रन्थों में भी पात्रस्वामीके नामसे उद्धृत मिलती है । अतः तत्त्वसंग्रह और जैन ग्रन्थोंमें उपलब्ध यह कारिका पात्रस्वामीरचित है और उसमें त्रिरूप हेतुका निरास तथा एकरूप ( अन्यथानुपपन्नत्व) हेतुका प्रतिपादन है ।
१. आप्त मी० १०६ ।
२.
अष्टश० अष्टस०, पृ० २८९; आप्तमी० का० १०६ ।
३. अष्टस०, पृ० २८९; आप्तमी० का० १०६ ।
४. सिद्धि वि० ६।२; पृ० ३७१-३७२ ।
५.
तत्त्व सं० का ० १३६४, १३६५, १३६९, १३७९, पृ० ४०५-४०७ ॥
विविध : २६१
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सिद्धसेनने' भी उपर्युक्त कारिकाकी शब्दावलीमें ही 'अन्यथानुपपन्नत्वं हेतोर्लक्षणमीरितम्' कहकर अपना हेतुलक्षण निरूपित किया है । 'ईरितम्' क्रियापद द्वारा तो उक्त हेतुलक्षणकी उन्होंने पूर्व प्रसिद्धि भी सूचित की है।
जैन न्यायको विकसित करने और उसे सर्वाङ्ग पूर्ण समृद्ध बनाने वाले भट्ट अकलङ्कदेवने सूक्ष्म और विस्तृत विचारणा द्वारा उक्त हेतुलक्षणको बहत सम्पुष्ट किया तथा न्यायविनिश्चयमें पात्रस्वामीकी उक्त प्रसिद्ध कारिकाको ग्रन्थकी ३२३ वीं कारिकाके रूप में देकर उसे अपने ग्रन्थका भी अङ्ग बना लिया है।
उत्तरकालमें कुमारनन्दि,' वीरसेन,४ विद्यानन्द,५ माणिक्यनन्दि, प्रभाचन्द्र, अनन्तवीर्य, वादिराज, देवसूरि,० शान्तिसूरि,११ हेमचन्द्र,१२ धर्मभूषण,3 यशोविजय,१४ चारुकीति५ प्रभृति जैन ताकिकोंने उक्त हेतुलक्षणको ही अपने तर्कग्रन्थोंमें अनुसृत करके उसीका समर्थन किया और त्रैरूप्य, पांचरूप्य आदि हेतुलक्षणोंकी मीमांसा की है ।१६
इस प्रकार जैन चिन्तकोंने साध्याविनाभावी-अन्यथानुपपन्न हेतुके प्रयोगको ही अनुमेयका साधक माना है। त्रिरूप, पंचरूप आदि नहीं। उसके स्वीकारमें अव्यापकत्व, अतिव्यापकत्व आदि दोष आपन्न होते हैं।
ध्यातव्य है कि यह हेतु प्रयोग दो तरहसे किया जाता है१७-(१) तथोपपत्ति रूपसे और (२) अन्य
१. न्याया व० का० २१ ।
२. न्याय वि० का० २।१५४, १५५ । ३. प्रमाण ५० पृ० ७२ में उद्धृत । ४. षट्ख० धवला ५।५।५, पृ० २८० तथा ५५।४३, पृ० २४५ । ५. प्रमाणप० ७२० त० श्लो० १।१३।१९३, पृ० २०५ । ६. परी० मु० ३।१५। ७. प्रमेयक० मा० ३११५, पृ० ३५४ । ८. प्रमेयर० मा० ३।११। ९. न्या० वि० वि० २११, १० २ । प्र० नि०, पृ०४२ । १०. प्रमा० न० त० ३।११ पृ० ५१७ । ११. न्यायाव० वा. ३।४३, पृ० १०२। १२. प्रमाणमी० २।१।१२ । १३. न्याय० दी०, पृ० ७६ । १४. जैन तर्क भा०, पृ० १२ ।। १५. प्रमेय रत्नालं० ३.१५, पृ० १०३ । १६. विशेषके लिए देखिए, लेखकका 'जैन तर्क शास्त्र में अनुमान विचार : ऐतिहासिक एवं समीक्षात्मक
अध्ययन' शोध प्रबन्ध, प्रकाशक, वीर सेवामन्दिर-ट्रस्ट, डुमरॉव कालौनी, अस्सी, वाराणसी-५
(उ० प्र०); १९६९ । १७. व्युत्पन्नप्रयोगस्तु तथोपपत्त्याऽन्यथानुपपत्त्यैव वा। अग्निमानयं देशस्तथैव धूमवत्त्वोपपत्तेऽभवत्वान्यथा
नुपपत्तेर्वा । -परीक्षामुख ३९५ ।
हेतुप्रयोगस्तथोपपत्त्यन्यथानुपपत्तिभ्यां द्विप्रकारः इति । -प्रमाणनयतत्त्वा० ३।२९ । न्यायाव० का० १७ । प्र० मी० २।१।४ ।
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थानुपपत्ति रूपसे । तथोपपत्तिका' अर्थ है साध्यके होनेपर ही साधनका होना; जैसे अग्निके होनेपर ही धूम होता है। और अन्यथानुपपत्तिका आशय है साध्यके अभावमें साधनका न होना; यथा अग्निके अभावमें धूम नहीं ही होता। यद्यपि हेतुके ये दोनों प्रयोग साधर्म्य और वैधर्म्य अथवा अन्वय और व्यतिरेकके तुल्य हैं। किन्तु उनमें अन्तर है। साधर्म्य और वैधयं अथवा अन्वय और व्यतिरेकके साथ नियम (एवकार) नहीं रहता, अतः वे अनियत भी हो सकते हैं। पर तथोपपत्ति और अन्यथानुपपत्तिके साथ नियम (एवकार) होनेसे उनमें अनियमकी सम्भावना नहीं है-दोनों नियतरूप होते हैं। दूसरे ये दोनों ज्ञानात्मक है, जब कि साधर्म्य और वैधर्म्य अथवा अन्वय और व्यतिरेक ज्ञेयधर्मात्मक है। अतः जैन मनीषियोंने उन्हें स्वीकार न कर तथोपपत्ति और अन्यथानुपपत्तिको स्वीकार किया तथा इनमेंसे किसी एकका ही प्रयोग पर्याप्त माना है, दोनोंका नहीं।
१. प्र० न० त०२३० । त० श्लो० १११३।१७५ । २. वही, ३।३१ । ३. वही, ३३३३ । न्यायाव० का० १७ । प्र० मी० २।१५,६ .
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जैन दर्शनमें नैतिक आदर्शके विभिन्न रूप
डॉ० कमलचन्द सौगानी जैन दर्शन भारतका एक महत्त्वपूर्ण दर्शन है । इसने मनुष्यके सर्वतोमुखी कल्याणके लिए गहन चिंतन प्रस्तुत किया है। नैतिकताके बिना मनुष्य जीवन सामाजिक एवं आध्यात्मिक दृष्टिकोणसे निरर्थक होता है, और नैतिक जीवन बिना नैतिक आदर्शके संभव नहीं हो सकता। जैन आचार्योंने इस रहस्यको समझा और इस जगतके बाह्य परिवर्तनशील रूपोंसे प्रभावित न होकर आत्माके अंतरंग छिपे हुए शक्ति-स्रोतोंका अनुभव कर नैतिक आदर्शके विभिन्न रूप हमारे सामने प्रस्तुत किये, यद्यपि ये सब आदर्श मूल रूपसे एक ही हैं केवल मात्र अभिव्यक्तिका अंतर है।।
प्रथम, जैन आचार्योंने कर्मोंसे मुक्त होनेको उच्चतम आदर्श घोषित किया है। उनके अनुसार प्रत्येक मानवको कर्म-बंधनोंसे मुक्त होनेके लिए कठोर परिश्रम करना चाहिए, जिससे वह सांसारिक सुख-दुःखके
रसे मुक्त हो सके। सूत्रकृतांगके अनुसार मोक्ष अर्थात आत्म स्वातन्त्र्य सर्वोत्तम वस्तु है जिस प्रकार चन्द्रमा तारोंमें सर्वोत्तम है। आचारांगके कथनानुसार वह जीव जो आत्म समाहित है वह ही अपने कर्मोको नष्ट कर सकता है। आत्मसमाहित होना ही आत्म स्वातन्त्र्यकी प्राप्ति है। इस अवस्थामें सांसारिक जीव आत्मानुभवकी एक ऐसी ऊँचाईपर स्थित हो जाता है जहाँ वह सुख-दुःख, निन्दा-प्रशंसा, शत्रु-मित्र आदि द्वन्दोंसे प्रभावित नहीं होता। यही वास्तविक आत्म स्वातंत्र्य है। इस अवस्थाको ही अर्हत् अवस्था कहते हैं । अर्हत् पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण सारी दिशाओंमें सत्यमें प्रतिष्ठित होते हैं। लौकिक जन सुखकी तृष्णाके वशीभूत होकर दिनमें श्रम करते है और रातमें सो जाते हैं। परन्तु अर्हत् रात दिन प्रमाद रहित होकर विशद्धिके मार्गमें जागते ही रहते हैं। जिस प्रकार माता अपने बालकको हितको शिक्षा देती है और चतुर वैद्य रोगियोंको निरोग बनानेका पूर्ण प्रयत्न करता है, उसी प्रकार अर्हत सांसारिक रोगोंसे पीड़ित जन समूहको हितका उपदेश देते हैं । इस तरहसे वे जन समुदायका नेतृत्व करते हैं। उनका सारा जीवन लोक कल्याणके लिए ही होता है। अतः स्पष्ट है कि आत्म स्वातन्त्र्यकी प्राप्तिके पश्चात् ही पूर्ण लोक-कल्याण संभव होता है।
द्वितीय, आचार्य कुन्दकुन्दके अनुसार बहिरात्माको छोड़कर अन्तरात्माके द्वारा परमात्माकी प्राप्ति
१. सूत्रकृतांग १,११,२२ । २. आचारांग १,२,२। ३. प्रवचनसार ३-४१। ४. आचारांग १,४,२९ । ५. स्वयंभूस्तोत्र ४८। ६. स्वयंभूस्तोत्र ११,३५ । ७. स्वयंभूस्तोत्र ३५।
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उच्च मतआदर्श' है। ये तीनों आत्माकी अवस्थाएँ हैं जहाँ जीव विभिन्न भूमिकाओंपर स्थित होता है । बहिरात्मा आत्म-ज्ञानसे पराङ्मुख होता है। और शरीरादिमें ही आत्म-तत्त्वका अध्यवसाय करता रहता है तथा कार्मण शरीर रूपी काँचलीसे ढके हुए ज्ञान रूपी शरीरको नहीं पहचानता। इसका परिणाम यह होता है कि मित्रादिकोंके वियोगकी आशंका करता हुआ अपने मरणसे अत्यन्त डरता रहता है। बहिरात्मा कठोर तप करके भी अपने लक्ष्यको प्राप्त नहीं कर सकता। यद्यपि पाँचों इन्द्रियों के विषयोंमें ऐसा कोई पदार्थ नहीं है जो आत्माका भला करनेवाला हो तथापि यह अज्ञानी बहिरात्मा अज्ञानके वशीभूत होकर इन्द्रियोंके विषयोंमें आसक्त रहता है और तप करके सुन्दर शरीर और उत्तमोत्तम स्वर्गके विषय भोगोंकी इच्छा करता है । उपर्युक्त कारणोंसे बहिरात्मावस्था उच्चतम आदर्शकी प्राप्तिमें बाधक है अतः त्याज्य है। इसके विपरीत अन्तरात्मा आत्मा और शरीरमें विवेक बुद्धि उत्पन्न करता है। अतः शरीरके विनाशको तथा उसकी विभिन्न अवस्थाओंको आत्मासे भिन्न मानता है और मरणके अवसरपर एक वस्त्रको छोड़कर दूसरा वस्त्र ग्रहण करने की तरह निर्भय रहता है। इसका परिणाम यह होता है कि वह आत्माको हो निवास स्थान मानता है। अन्तरात्म वृत्तिके कारण ही आत्मा अपने आदर्शकी ओर बढ़ने में समर्थ होता है। परमात्मा सम्पूर्ण दोषोंसे रहित और केवल-ज्ञानादि परम वैभवसे संयुक्त होता है। वह जन्म, जरा, मरण रहित अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख आदिका अनुभव करनेवाला तथा अविनाशी होता है। परमात्म अवस्था ही निर्वाण अवस्था है, जहाँ न दुख है न सुख, न पीड़ा न बाधा, न निद्रा न क्षुधा, न पुण्य न पाप । वह तो अतीन्द्रिय, अनुपम, नित्य अचल और निरालम्ब अवस्था है।
ततीयः अशभ और शभ उपयोगको छोड़कर शद्धोपयोगकी प्राप्तिको उच्चतम आदर्श स्वीकार किया गया है। जब जीव नैतिक और आध्यात्मिक क्रियाओंमें रत रहता है तो शुभोपयोगी होता है किन्तु जब वह हिंसादि अशुभ कार्योंमें रत रहता है तो वह अशुभोपयोगी कहा जाता है। ये दोनों उपयोग कर्मके कारण जीवमें उत्पन्न होते हैं और ये जीवको अनन्त संसार में परिभ्रमण कराते रहते हैं। अतः ये उपयोग मनुष्य जीवनके आदर्श नहीं बन सकते। जब तक जीव अपनी शक्तिको इन दोनों उपयोगोंमें लगाता रहता है तब तक वह अपने आदर्शसे कोसों दूर रहता है। परन्तु ज्योंही इन दोनों उपयोगोंको जीव त्यागता है त्योंही वह शुद्धोपयोग ग्रहण कर लेता है। दूसरे शब्दोंमें इस प्रकार कहा जा सकता है कि जैसे ही शुद्धोपयोगका अनुभव हुआ, वैसे ही जीवसे अशुभ और शुभ उपयोग विदा हो जाते हैं। वह शुद्धोपयोगी जीव एक ऐसे
१. मोक्ष पाहुड ४,७ । २. समाधिशतक ७१,६८ । ३. वही ७६ । ४. वही ४१ । ५. वही ४२,५५ । ६. वही ७७ । ७. वही ७३ । ८. नियमसार ७। ९. नियमसार १७९,१८० । १०. नियमसार १७८ ।
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सुखका अनुभव करता है जो आत्मोत्पन्न, विषयातीत, अनुपम, अनन्त और अविच्छिन्न है । वह सारे लोकमें किसीके द्वारा न छिन्न होता है, न भिन्न, न दग्ध होता है और न निहत । उसने राग और द्वेष रूपी दोनों अंतोंको छोड़ दिया है।
चतुर्थ, जैनाचार्योने पंडित-पंडित-मरणको उच्चतम आदर्श घोषित किया है। इसका अभिप्राय यह है कि जीव पंडित-मरण, बाल-पंडित-मरण, बाल-मरण और बाल-बाल-मरणको पण्डित-पण्डित मरण रूपी आदर्शकी प्राप्तिमें बाधक समझें । जो जीव मिथ्या दृष्टिवाले होते हैं उनका मरण बाल-बालमरण कहलाता है। ऐसे जीव पूर्णतया आत्मविमुख होते हैं। जिन जीवोंमें सम्यक् दृष्टि उत्पन्न हो चुकी है अर्थात् जो जीव आत्म-रुचिवाले हैं उनका मरण बाल-मरण कहलाता है। जिन जीवोंने आत्मरुचिके साथ पञ्चाणुव्रतोंको धारण कर लिया है उनका मरण बाल-पण्डित-मरण कहलाता है। किन्तु जिन्होंने पञ्च महावतोंको धारण किया है उनका मरण पण्डित-पण्डित-मरण अलौकिक है । इसे ही विदेह मुक्ति कहते हैं।
पंचम, परादृष्टिकी प्राप्तिको भी उच्चतम ध्येय स्वीकार किया गया है। आचार्य हरिभद्रने अपने ग्रन्थ योगदृष्टिसमुच्चयमें इसका सूक्ष्म विवेचन किया है। उनके अनुसार आठ दृष्टियाँ-मित्रा, तारा, दीप्रा, स्थिरा, कान्ता, प्रभा और परा-योग दृष्टियाँ कहलाती हैं। हरिभद्रने इन दृष्टियोंकी तुलना क्रमशः तृणाग्नि, गोमयाग्नि, काष्ठाग्नि, दीपक, रत्न, तारा, सूर्य और चन्द्रमाके प्रकाशोंसे की है। मित्रा दृष्टिका प्रकाश न्यूनतम और परादृष्टिका प्रकाश उच्चतम होता है। प्रथम चार दृष्टियोंको प्राप्त करने के पश्चात् भी साधक अपनी प्रारम्भिक भूमिका पर लौट सकता है । अतः ये दृष्टियाँ अस्थिर हैं। किन्तु पांचवीं स्थिरा दृष्टि प्राप्त करनेके पश्चात् साधकका अपनी आध्यात्मिक भूमिकासे नीचे गिरना असम्भव है। अतः अन्तिम चार दष्टियां स्थिर है। और साधक इनमें शनैः शनैः उच्चतम ध्येय की ओर अग्रसर होता चला जाता है। मित्रा दृष्टिका प्रकाश अतिमन्द होता है और साधकको शुभ कार्य करते जरा भी खेद नहीं होता। तारा दृष्टिमें तत्त्व ज्ञानकी जिज्ञासा उत्पन्न होती है। बला दृष्टिमें तत्त्व श्रवणकी उत्कट इच्छा उत्पन्न होती है। दीपा दृष्टिमें यद्यपि सूक्ष्म बोधका अभाव होता है तथापि साधक प्राणार्पण करके भी सदाचरणकी रक्षा करता है। स्थिरा दृष्टिमें रत्नप्रभाके समान सूक्ष्म बोध उत्पन्न हो जाता है और साधक मिथ्यात्वकी प्रन्थिका भेदन कर देता है। उसे बाहरी पदार्थ मायाके रूपमें दिखाई देते हैं। उसमें पूर्ण आत्मरुचि उत्पन्न हो जाती है। कान्ता दृष्टि में साधक चित्तकी चंचलताको कम करता है जिससे मन अपने लक्ष्यकी ओर स्थिर किया जा सके । जैसे तारा एक-सा प्रकाश देता है वैसे ही इस दृष्टिवाले प्राणीका बोध एक-सा स्पष्ट एवं स्थिर होता है। प्रभा दृष्टिमें ध्यान उच्चकोटिका होता जाता है। इसमें बोध सूर्यकी प्रभाके समान होता है जो लम्बे समय तक अति स्पष्ट रहता है। इसके पश्चात् परादृष्टिकी प्राप्ति होती है जो अन्तिम और उच्चतम है।
१. प्रवचनसार १३ ।
आचारांग १, ५, ७३ । २. आचारांग १,३,४८ । ३. भगवती आराधना २५ । ४. वही ३०। ५. योगदृष्टि समुच्चय १३ । ६. वही, १५ । ७. जैन आचार पृ० ४६, द्वारा डॉ. मोहनलाल मेहता ।
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इसमें साधक पूर्ण कर्म दोषोंसे मुक्त हो जाता है और केवलज्ञानी संज्ञाको प्राप्त होता है। इसमें बोध चन्द्रमाके प्रकाशके समान शान्त और स्थिर होता है । यही मोक्ष है और परम आनन्दकी अवस्था है।
षष्ठ, नैतिक आदर्शकी अभिव्यक्ति पूर्ण अहिंसाकी प्राप्तिमें भी होती है। यहाँ यह कहना अप्रासंगिक न होगा कि जैन साधनामें अहिंसा प्रारम्भ और अन्त है। समन्तभद्र ने इसे परब्रह्मकी संज्ञा दी है। सूत्रकृतांगमें अहिंसाको निर्वाणका पर्यायवाची माना है। आचारांगमें कहा गया है कि न जीवोंको हनन करना चाहिए, न उन्हें पीड़ित करना चाहिए, न उनपर बलपूर्वक शासन करना चाहिए, न उन्हें दास बनाने के लिए आधीन करना चाहिए। यही धर्म ध्रुव है, नित्य है और शाश्वत है। अहिंसाकी दृष्टिमें प्राणी मात्र आत्मतुल्य है।""हे पुरुष, जिसे तू मारनेकी इच्छा करता है, विचार कर वह तेरे जैसा ही सुख-दुःखका अनुभव करनेवाला प्राणी है; जिसपर हुकूमत करनेकी इच्छा करता है. विचार कर वह तेरे जैसा ही प्राणी हैं, जिसे दुख देनेका विचार करता है, विचार कर वह तेरे जैसा ही प्राणी है, जिसे अपने वशमें करनेकी इच्छा करता है. विचार कर वह तेरे जैसा ही प्राणी है. जिसके प्राण लेने की इच्छा करता है, विचार कर वह तेरे जैसा ही प्राणी है ।""इस विवेचनको हम अहिंसाका व्यवहार दृष्टिकोणसे वर्णन कह सकते हैं। परन्तु निश्चय दृष्टिकोणसे आत्मामें किसी भी प्रकारकी कषाय उत्पन्न होना हिंसा है और उन कषायोंका न होना वास्तबिक अहिंसा है। पूर्ण अहिंसाकी प्राप्ति उच्चतम स्थिति है और साधककी अन्तिम अवस्था है।
सप्तम, ज्ञान चेतनाकी प्राप्ति साधकका अन्तिम ध्येय है। यह ज्ञान चेतना कर्म चेतना और कर्म फल चेतनासे अत्यन्त भिन्न है। कर्म चेतनासे अभिप्राय है-शुभ, अशुभ भावोंमें चेतनाको स्थापित करना और कर्मफल चेतनासे अभिप्राय है-चेतनाको सूख, दुःख रूप स्वीकार करना । चेतनाको शुभ अशुभ रूप क्रियाओं तथा सुख दुःख रूप भावोंसे नितान्त भिन्न अनुभव करना ज्ञान चेतना है। कर्म चेतना और कर्मफल चेतना ये दोनों ही अज्ञान अवस्थाके परिणाम हैं। अतः ज्ञान चेतनाकी प्राप्तिके लिए इन दोनोंसे विमुख होना अत्यन्त आवश्यक है। सर्व स्थावर जीव-समूह सुख दुख रूप कर्मफलका ही अनुभव करते हैं और दो इन्द्रियोंसे पंचेन्द्रियों तक जीव कार्य सहित कर्मफलको वेदते हैं। किन्तु जो जीव इन दोनों प्रकारके अनुभवोंसे अतीत हैं वे ही ज्ञान-चेतनाका अनुभव करते हैं। यह ही अन्तिम अवस्था है, अन्तिम आदर्श है।
इस तरहसे हम देखते हैं कि आत्मस्वातन्त्र्य और परमात्माकी प्राप्ति, शुद्धोपयोग और अहिंसाकी उपलब्धि, पण्डित पण्डित-मरण, परावृष्टि और ज्ञान चेतनाकी अनुभूति-ये सब ही नैतिक आदर्श भिन्नभिन्न प्रतीत होते हुए भी मूलभूत रूपसे एक ही हैं ।
१. स्वयंभूस्तोत्र, ११७। २. सूत्रकृतांग, १. ११. ११ । ३. आचारांग, १. ४.१ । ४. अहिंसा तत्त्व दर्शन द्वारा मुनि नथमल पृ० १८ । ५. पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय ४४ । ६. पंचास्तिकाय ३८ । ७. प्रवचनसार-१२४ । ८. पंचास्तिकाय ३९ ।
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ऐतरेय आरण्यकमें प्राण-महिमा
___ आचार्य विष्णुदत्त गर्ग 'ऐतरेयब्राह्मणेऽस्ति काण्डमारण्यकाभिधम् ।
अरण्य एव पाठ्यत्वात् आरण्यकमितीर्यते ॥' आरण्यक तथा उपनिषद् ब्राह्मणों के परिशिष्ट ग्रन्थके समान हैं, जिनमें ब्राह्मण ग्रन्थोंके सामान्य प्रतिपाद्य विषयसे भिन्न विषयोंका प्रतिपादन सर्वत्र दृष्टि गोचर होता है। इनका मुख्य विषय यज्ञ नहीं, प्रत्युत यज्ञ-यागोंके भीतर विद्यमान आध्यात्मिक तथ्योंकी मीमांसा है। संहिताके मन्त्रोंमें जिस विद्याका सङ्केत मात्र उपलब्ध होता है, आरण्यकोंमें उन्हीं बीजोंका पल्लवन है । चारों वेदोंसे सम्बद्ध जैसे अलग अलग सबके ब्राह्मण ग्रन्थ है वैसे ही उनपर आश्रीयमाण आरण्यक भी। एतरेय आरण्यक ऋग्वेदके आरण्यकोंमें अन्यतर है, जो ऐतरेय ब्राह्मणका ही परिशिष्ट भाग है। इसमें ५ पाँच भाग है जो विषय-विभाग व सम्प्रदाय भेदसे पृथक्पृथक् ग्रन्थ के रूपमें माने जाते है । तथाहि___ 'तत्र गवामयनमित्याख्यस्य संवत्सरात्मकसत्रस्य शेषो महाव्रतनामकं कर्म प्रथमारण्यकस्य विपयः । द्वितीयस्य तृतीयस्य चारण्यकस्य ज्ञानकाण्डं विषयः । चतुर्थारण्यकेऽरण्याध्ययनार्थाः 'विदामघवन्' महानाम्न्याख्यायमन्त्राः प्रोच्यन्ते । पञ्चमे त्वारण्यके महाव्रताख्यकर्मण एव प्रयोग उच्यते । तदेवमैतरेयारण्यके प्रथमं चतुर्थं पञ्चमं चारण्यक कर्मपरम्, द्वितीयं तृतीयं च ज्ञानकाण्डमित्यवसीयते ।'
वैसे तो इसमें वाणी एवं मनके स्वरूप व उसको महिमा, स्वाध्याय धर्म व अध्यापन नियम, मानव जीवनके आदर्श उद्देश्य, राजनीति, यज्ञ, चन्द्रमा-आदित्य-प्रजापति-वरुण आदि देवोंका वर्णन, स्वर्गादिलोकों की कल्पना, अन्न, ऋतु, ओषधि, वनस्पतियोंका वर्णन, मनुष्य, पशु आदिके स्वभावका वर्णन, अध्यात्म-विद्या व ब्रह्मविद्याका निरूपण, जैसे विविध विषयोंका विवेचन किया गया है किन्तु द्वितीय प्रपाठकके प्रथम तीन अध्यायोंमें उक्थ या निष्केवल्य शस्त्र तथा प्राण विद्या और पुरुषका जो व्याख्यान है, वह सर्वथा स्पृहणीय है। इन सबमें प्राणविद्याका महत्त्व आरण्यकका विशिष्ट विषय प्रतीत होता है। अरण्यका शान्त वातावरण इस विद्याकी उपासनाके लिए नितान्त उपादेय है। इस प्रकार आरण्यक न केवल प्राण-विद्याको अपनी अनोखी सूझ बतलाते हैं, अपितु ऋग्वेदके मन्त्रों को भी अपनी पुष्टि में उद्धृत करते हैं, जिससे प्राण विद्याकी दीर्घ कालीन परम्पराका इतिहास मिलता है। किम्बहुना
'प्राणेनेमं लोकं सन्तनोति ।"प्राणेनान्तरिक्षलोकं सन्तनोति ।"प्राणेन अमुं लोकं सन्तनोति ।' (ऐ० आ० १।४।३।) प्राणकी महिमासे ही लोकत्रयका विस्तार होता है । सब इन्द्रियोंमें प्राणोंकी १. अपश्य गोपामनिपद्यमाननमा च परां च पृथिभिश्चरन्तम् ।
स सघ्रीचीः स विष'चीर्वसनिआ वरीवति भुवनेष्वन्तः ॥ऋ० १।१६४।३१ अपाङ् प्राति स्वधयां गृभीतोऽमो मत्यैना सोनिः ।
ता शश्वन्ता विषूचीन वियन्ता न्यऽन्यं चिक्युर्ननिचिक्युरन्यम् ।।ऋ० १।१६४।३८ २६८ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ
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श्रेष्ठता सुन्दर आख्यायिकाके द्वारा सिद्ध की गई है। 'यत्र प्राणं विना सर्वाणीन्द्रियाणि विद्यमानान्यपि अविद्यमानवद् भान्ति ।' अस्तु--
_ 'सोऽयमाकाशः प्राणन बहत्या विष्टब्धः, तद्यथाऽयमाकाशः प्राणेन बृहत्या विष्टब्धः । एवं सर्वाणि भतानि आपिपीलिकाभ्यः प्राणेन बहत्या विष्टब्धानीत्येवं विद्यात।' (ऐ० आ० २१११६) अर्थात प्राण इस विश्वका धारक है। प्राणको ही शक्तिसे हो यह आकाश अपने स्थानपर स्थित है, उसी तरह सबसे विशालतम जीवसे लेकर पिपीलिका पर्यन्त समस्त जीव इस प्राणके द्वारा ही विधत है। यदि प्राण न होता तो विश्वका महान् संस्थान, जो यह हमारे नेत्रोंके समक्ष है, वह कहीं भी नहीं रहता।
जीवात्माका प्राण वायके साथ अन्वय व्यतिरेकि संबन्ध है। इसके विना प्राणिजगत्की सत्ता सुरक्षित नहीं, और इसीलिए अनुभव कोटिमें प्रतिष्ठित ऋषि उसके साथ अपना अटूट सम्बन्ध बताता है कि तुम हमारे हो और हम तुम्हारे हैं । 'दिन ही प्राण है रात्रि अपान है' यह प्राण ही इन्द्रियोंका अधिष्ठातृदेव होता हुआ सबका रक्षक है। यह कभी अपने व्यापारसे उपरत नहीं होता, यह भुवनोंके वीच अतिशय करके
न है. तथा दृश्यमान सम्पर्ण जगत इसी प्राणसे आच्छादित है। प्राण ही आयका कारण है। कौषीतकि उपनिषदमें भी प्राणके आयष्कारके होनेकी बात स्पष्ट कही गई है--'यावद्धि अस्मिन शरीरे प्राणो वसति तावदायः। अतः प्राणके लिए गोपा शब्द युक्तियुक्त है ।
प्राणकी महिमा जब समाजमें पर्याप्त प्रतिष्ठित हो गई तो वह उपास्य बन गया। जिसने उसकी उपासना की उसीने जीवन में अमरत्व प्राप्त किया तथा जो प्राणकी उपासनासे वञ्चित रहा वह विनाशको प्राप्त हुआ भी यह प्राण मृत्यु व अमृत भी कहलाया। इसके निकलनेसे देहके मरने (निष्क्रिय होने) में ही प्राणका मृत्युत्व व इसकी सत्ताके सद्भावमें देहकी अविनश्यत् दशा (सक्रियावस्था) में ही इसका अमृतत्व है।४ प्राणको, अन्तरिक्ष तथा वायु दोनोंका स्रष्टा व पिता कहा गया है, अत: दोनों प्राणकी परिचर्या करते रहते हैं ।५ देहसे प्राणोंकी तुलना करते समय देहको मर्त्य व प्राण देवताको अमृत कहा है । एक पराश्रित है तो दूसरा स्वाश्रित
___ 'मानि हीमानि शरीराणि, अमृतैषा देवता........। निचिन्वन्ति ( अन्नादिना वृद्धिमुपगच्छन्ति) हैवेमानि शरीराणि अमृतैषा देवता । (ऐ० आ० २।१।८।)
अद्भुत महिमाके ही कारण प्राणको सूर्य भी कहा गया है । 'प्राणो ह्यष य एष तपति ।' (ऐ० आ० २।१११) के व्याख्यानमें सायणाचार्यने कहा है कि-'हमारे दृश्यमान, (आकाश) म होता हुआ जो यह तपता है, वह प्राण ही है, आदित्य एवं प्राणमें भेद नहीं हैं। केवल स्थानगत भेद है। एक अध्यात्म संज्ञक है तो दूसरा अधिदैव ।६ प्राणोंको आदित्यरूप देने में उपनिषद भी प्रकाण है-'आदित्यो
१. तदप्येतदृषिणोक्तम् । त्वमस्माकं तव स्मसीति । ऐ० आ० २।१।४।। २. अहरेव प्राणः रात्रिरपानः २।११५। एष वै गोपाः, एष हीदं सर्व गोपायति नह्येष कदाचन संविशति । एष
ह्यन्तर्भुवनेषु आवरीवति सर्व हीदं प्राणेनावृतम् २।१।६ । ३. स एष मृत्युञ्चैवामृतञ्च । (ऐ० आ० २।१८)।। ४. स्वनिर्गमनेन देहमरणात् प्राणस्य मृत्युत्वम् । स्वावस्थानेन देहमरणाभावात् अमृतत्वम् । ५. प्राणेन सृष्टावन्तरिक्षं च वायुश्च । एवमेतौ प्राणपितरं परिचरतोऽन्तरिक्षं च वायुश्च ।-सायण । ६. य एष मण्डलस्थोऽस्माभिर्दश्यमानस्तपति स एष प्राणो हि। न खल्वादित्यप्राणयोर्भेदोऽस्ति । अध्यात्म
मधिदैवं च इत्येव स्थानभेदमात्रम् ।--सायण ।
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ह वै बाह्यः प्राण उदत्येष ह्य ेनं चाक्षुषं प्राणमनुगृह्णानः ।' प्रश्नोपनिषद् ३।८ । परिणामतः आदित्य व प्राणकी एक रूपता भी है । एक ही पदार्थं, देह प्रवर्तन हेतु, प्राणरूपसे अन्तः अवस्थित है, तो वही चक्षुको अनुगृहीत करने के लिए सूर्यरूप में बहिः अवस्थित है । अतः प्राणकी भाँति सूर्यको भी 'सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च' (ऐ० आ० २।२।४ ) कहा है । सूर्यकी अर्चनाके कारण ही पुरुष शतायु है ।
यह प्राण देवात्मक होता हुआ ऋषि रूप भी है, अतएव इसे कहीं विश्वामित्र तो कहीं वामदेव, कहीं भरद्वाज तथा कहीं वशिष्ठ नामोंसे भी अभिहित किया गया है, भले ही यह नाम रूढि न होकर अन्वर्थ हों । यथा—'प्रजा वै वाजः ता एष बिभर्ति एष उ एवं बिभ्रद्वाजः 7 भरद्वाजः । तं देवा अब्रुवन्नयं वै नः सर्वेषां वशिष्ठ इति । तस्येदं विश्वं मित्रमासीत्तं देवा अब्रुवन्नयं वै नः सर्वेषां वाम इति । ... (ऐ० आ० २।२।२.२) ।
हिरण्यदन् वेद नामक एक ऋषिने प्राणके देवात्मक स्वरूपको जाना था, तथा प्राणकी देवतारूपसे उपासना की थी । इस उपासनाका विपुल फल भी उसे प्राप्त हुआ । (ऐ० आ० १०३-१०४) एक ही प्राण कहीं सात, कहीं नव, कहीं दश तथा कहीं बारह प्रकारका बताया गया है । 3 अस्तु — इस प्रकार इस आरण्यक में प्राणकी अत्यन्त महिमा गाई गई है। इसके अनुसार जितनी ऋचायें हैं, जितने वेद हैं, जितने घोष हैं वे सब प्राणरूप हैं । प्राणको हो इन रूपोंमें समझना चाहिए तथा उसकी उपासना करनी चाहिए । ४ किम्बहुना -
'प्राणो वंश इति विद्यात्' ( ऐ० आ० ३|१|४) अर्थात् लोकमें जैसे वंश गृहका धारक होता है वैसे ही यह प्राण देह गृहका धारक है ।" इस प्राणकी इतनी अधिक महिमाका महत्त्व तो तब बढ़ जाता है जब हम उसी शास्त्रमें वर्णित इसकी इयत्ताको देखते हैं । 'एतावता वै प्राणाः संमिता.' (ऐ० आ० १।२।४) यह एक वाक्य खण्ड है जिसका विवेचन करते हुए सायण कहते हैं कि
'प्राणवायवो हि देहस्यान्तहृदयादूर्ध्व प्रादेशमात्रं संचरन्ति । मुखाद्बहिरपि सञ्चरन्तः प्रादेशमात्रेण संम्मिता भवन्ति ।'
इन शतशः उपलब्ध निर्वचनोंसे सिद्ध होता है कि प्राणके इन गुणोंको जानकर तत्तद्रूपोंसे उसकी उपासना करनी चाहिए, नानारूपोंसे भावनाको दृढ़कर उपासना करनेसे फल भी तदनुरूप उपासकको प्राप्त होंगे ।
देवासुर संग्राम में रिपुविजयकी कामनासे देवोंने ऐश्वर्यके प्रतीकके रूपमें इस प्राण देवताकी उपासना की थी, अतः विजयी हुए; और इसके विपरीत असुर उसे ( प्राणदेवताको ) असमृद्धिका हेतु समझ
१. एक एव पदार्थो देहं प्रवर्तयितुमन्तः स्थितो दृष्टिमनुगृहीतुं बहिः स्थित इति एतावदेव द्वयोवैषम्यम् । - सायण |
२. य एष तपति । तं शतं वर्षाण्यभ्यार्चत्तस्माच्छतं वर्षाणि पुरुषायुषो भवन्ति - ऐ० आ० २।२।१ ।
३. सप्त वैशीषन् प्राणा: ( ऐ० आ० १।५।२ ) नव प्राणा आत्मैव
दशम: ( ऐ० आ० १ । ३ । ७ ) नव वै प्राणाः (ऐ० भ० १।३।८) द्वादशविधा वा इमे प्राणा: ( ऐ० आ० १/५1१ ) |
४. सर्वा ऋचः सर्वे वेदाः सर्वे घोषा एकैव व्याहृतिः प्राण एव प्राणः ऋच इत्येव विद्यात् - ( ऐ० आ०
२।२।१० ) ।
५.
लोके यथा वंशो गृहस्य धारकस्तथैव प्राणोऽयं देहगृहस्य धारक इति भावः । - सायण ।
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बैठे अतः पराजित हुए।' इसीलिए महर्षि विश्वामित्रके सन्देह प्रकट करनेपर देवराज इन्द्र ने भी कहा कि 'हे ऋषे ! मै प्राण हूँ, तुम प्राण हो, चराचर दृश्यमान जगत् सब प्राण हैं ।२
इस प्रकार जो प्राण शब्द वैदिक साहित्यमें श्वासके अर्थ में आरण्यकों एवं उपनिषदोंमें एकताके प्रतीकके रूपमें, शारीरकशास्त्रमें जो इन्द्रियों, शीर्षरंध्रोंके बोधकके रूपमें तथा वागिन्द्रिय व रसनेन्द्रियके रूपमें देखा गया, वह वस्तुतः अन्वर्थतया जीवनाधायक है।3 परवर्ती साहित्यमें इसके चिन्तनका श्रेय केवल योगशास्त्रको ही मिला, जिसमें यमादि अष्टाङ्गोंमें प्राणायामको विशेष स्थान दिया गया । 'प्राणवायोनिरोधनमेव विशेषतो नियमेन प्राणायाम इत्यपचर्यते।' अर्थात विशेषविधिसे प्राणवायके निरोधको प्राणायाम कहते हैं। प्राण निरोध प्रक्रियासे जन्य अद्भुत चमत्कार आज भी लोगोंको आश्चर्यमें डाल देते हैं । अस्तु-विषयको गम्भीरता स्पष्ट है । 'हस्वस्यावर्णस्य प्रयोगे संवृतम्, प्रक्रियादशायां त विवृतमेव' (सिद्धान्त कौमुदी) की भांति प्रस्तुत विषयसे सम्बद्ध शब्दात्मक ज्ञान चाहे जितना प्रस्तुत कर दिया जाय किन्तु व्यावहारिक ज्ञान अत्यन्त जटिल एवं आचार्यपरम्परागत गम्य हैं। कुछ भी हो किन्तु फिर भी प्राण विषयक जिन विचारोंका अंकूर संहितादिमें मिलता है, उनका विशेष पल्लवन प्रस्तुत आरण्यक बहुत अच्छा बन पड़ा है । 'प्राणो वै युवा सुवासाः' 'प्राणो वै तनूनपात्' 'प्राणे वै सः' इत्यादि रूपमें वह (प्राणदेवता) स्वयं भोक्ता एवं भोग्यरूपमें सर्वतोभावेन प्रतिष्ठित है।
१. तं (प्राणदेवम्) भूतिरिति देवा उपासाञ्चक्रिरे ते बभूवुः । "अभूतिरिति असुरास्ते पराबभूवुः । ___ (ऐ० आ० २।१८)। २. तम् (विश्वामित्रम्) इन्द्र उवाच । प्राणो वा अहमस्मि ऋषे, प्राणस्त्वम्, प्राण : सर्वाणि भूतानि ।
(ऐ० आ० २।२।३।) ३. उद्यन्नु खलु आदित्यः सर्वाणि भूतानि प्रणयति तस्मादेनं प्राण इति आचक्षते । (ऐ० ब्रा० ५।३१।) ४. योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः।
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प्राचीन भारतीय वाङ्मयमें प्रयोग
श्री श्रीरंजन सूरिदेव
एम० ए० (प्राकृत-जैनशास्त्र) वैदिक कवयोंने मानव-जीवनकी साधनाके रूपमें ज्ञान, कर्म और उपासना-इन तीनोंको ही अत्यावश्यक है। इन तीनोंके समन्वित रूपकी वैदिक संज्ञा 'त्रयी विद्या' है। त्रयी विद्याकी समन्वित साधना ही वैदिक दृष्टि में योग है। यही योग मानव-जीवनको परिपूर्ण बनाता है और उसे उसके अन्तिम लक्ष्यकी प्राप्ति करा सकता है । मृत्यु पर विजय प्राप्त करने के लिए उक्त योगको छोड़ और कोई दूसरा रास्ता नहीं है
तमेव विदित्वातिमृत्युमेति, नान्यः पन्था विद्यते अयनाय । अज्ञेय तत्त्वको जानना आसान नहीं है। उसके लिए साधनाकी आवश्यकता है। जिसने सारे लोकोंको उत्पन्न किया और जो प्रत्येक मनुष्यके भीतर विद्यमान है, वह निश्चय ही ज्ञान और कर्मकी सम्मिलित शक्ति-साधनासे जाना जा सकता है। वेदमें ज्ञान और कर्मके योगको ही 'यज्ञ' कहा गया है। 'यज्ञ'का बड़ा व्यापक अर्थ है। सामान्यतः, ज्ञानपूर्वक अपने-अपने कर्मोंको योग्य रीतिसे करते जाना ही 'यज्ञ' माना गया है । वेदोत्तर कालमें यही 'यज्ञ' 'योग'में परिणत हो गया, ऐसा हमारा विश्वास है।।
'यज्ञ' अपने-आपमें एक अद्भुत पद है और वैदिक ऋषियोंका विस्मयकारी आविष्कार भी। यज्ञो वैश्रेष्ठतमं कर्म कहकर यज्ञको सर्वोपरि स्थान दिया गया है। साथ ही, यज्ञ को कर्मका प्रतीक भी माना गया है। वैदिक ऋषियों द्वारा यज्ञकी अनिवार्यता इसलिए बतलाई गई कि मनुष्य यज्ञ द्वारा निरन्तर क्रियाशील बना रहे। योग भी मनुष्यके क्रियाशील या गतिशील बने रहने का शरीराध्यात्म साधन है। अष्टांग योगका पूर्वार्द्ध शारीरिक पक्षसे सम्बद्ध है, तो उत्तरार्द्ध मानसिक पक्ष से । इससे स्पष्ट है कि क्रिया और विचार या ज्ञानका सन्तुलन ही योग है। वेदोंमें साधना या योगके सन्दर्भमें इसी दृष्टिको पल्लवित किया गया है. 'योग' शब्दका स्पष्ट उल्लेख वहाँ प्रायः नहीं मिलता। वेद परवर्ती कालमें 'योग' शब्दको आध्यात्मिक-धार्मिक सन्दर्भोसे जोड़ दिया गया।
वेदकी विभिन्न व्याख्याएं हुई हैं एवं वेदाधत अनेक ग्रन्थ भी निर्मित हुए हैं। इनमें रामायण, महाभारत, महापुराण, उपपुराण, स्मृतियों और धर्मशास्त्रों की गणना होती है। इन ग्रन्थोंमें योग की ही चर्चा नहीं है, अपितु योगियोंकी कथाएँ और योगाभ्यास-सम्बन्धी विस्तृत उपदेश भी हैं। पुराणोत्तर कालमें योगपर स्वतन्त्र ग्रन्थ भी लिखे गये और देव-देवियोंके वर्णनमें उन्हें 'योगिगम्य', 'योगविभूतियुक्त' आदि विशेषण दिये गये।
वैदिक धाराके अतिरिक्त बौद्ध एवं जैन धारामें योग और योगियोंकी चर्चा है । बौद्धधारामें तो योगचर्चा भरपूर है, किन्तु, जैनधारामें अपेक्षाकृत कम है । बौद्धतन्त्रसे ही नाथों और सिद्धों तथा वहाँसे सन्तकवि दरियादास तक योगकी परम्परा चचित और अर्पित है। कहना न होगा कि भारतके कई सहस्र वर्षों के इतिहासमें योग और उससे सम्बन्ध रखनेवाले शब्दोंका व्यवहार होता रहा है। आज भी योग, न केवल आस्तिक. अपितु नास्तिक परिवेशमें भी बड़ी अभिरुचिके साथ अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर स्वीकार किया जा रहा है--
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वेदमें अघोर-मन्त्र और अधोर-मार्ग की चर्चा है। यजुर्वेदमें शिवोपासनापरक एक प्रसिद्ध मन्त्र इस प्रकार है
अघोरेभ्योऽथ घोरेभ्यो घोराघोरतरेभ्यः ।
सर्वेभ्यः सर्वशर्वेभ्यो नमस्ते अस्तु रुद्ररूपेभ्यः ।। योग-सम्बन्धी आदेशों और उपदेशों की प्रचुरता उपनिषद्-ग्रन्थों में मिलती है । श्वेताश्वतर उपनिषद्के दूसरे अध्यायमें 'योग' शब्दका सुस्पष्ट उल्लेख मिलता है
त्रिरुन्नतं स्थाप्य समं शरीरं हृदीन्द्रियाणि मनसा सन्निवेश्य । ब्रह्मोडुपेन प्रतरेत विद्वान् स्रोतांसि सर्वाणि भयावहानि ॥ नीहारधूमार्कानिलानलानां खद्योतविद्य त्स्फटिकशशिनाम् । एतानि रूपाणि पुरस्सराणि ब्रह्मण्यभिव्यक्तिकराणि योगे । पृथिव्यप्तेजोऽनिलखे समुत्थिते पञ्चात्मके योगगुणे प्रवृत्ते । न तस्य रोगो न जरा न मृत्युः प्राप्तस्य योगाग्निभयं शरीरम् । लघुत्वमारोग्यमलोलुपत्वं वर्णप्रसादं स्वरसौष्ठवं च ।
गन्धः शुभो मूत्रपुरीषमल्पं योगप्रवृत्ति प्रथमां वदन्ति ॥ अर्थात्, विद्वान् साधकको चाहिए कि वह अपने सिर, कण्ठ और वक्षको ऊँचा उठाये और शरीरको सीधा रखे । फिर, मनके द्वारा इन्द्रियोंका हृदयमें निरोधकर प्रणव-रूप नौकासे सब भयावने स्रोतोंसे पार हो जाय। योगीके समक्ष कुहरा, धआँ, सूर्य, वाय, अग्नि, जगन, विद्युत, स्कटिकमणि और चन्द्रमाके समान अनेक दश्य दिखाई पड़ते हैं, यह सब योगकी सफलता के सूचक है । पंचमहाभूतोंका भले प्रकार उत्थान होने पर और पंचयोग-सम्बन्धी गुणोंके सिद्ध हो जानेपर योगसे तेजस्वी हुए देहको पा लेनेके बाद साधक रोग, जरा और मृत्युसे मुक्त हो जाता है। देहका हल्का होना, आरोग्य, भोग-निवृत्ति, वर्णकी उज्ज्वलता, स्वरसौष्ठव, श्रेष्ठगन्ध, मलमूत्रकी कमी, यह सब योगको प्रथम सिद्धि बताई गई है।
___ इस प्रकार, उपनिषत्कालमें योग और यौगिक क्रियाओंकी प्रत्यक्ष चर्चा मिलती है। ध्यानबिन्दूपनिषदें ध्यानयोगकी महत्ता बतलाते हुए उपनिषत्कारने कहा है
यदि शैलसमं पापं विस्तीर्ण' बहुयोजनम् ।
भिद्यते ध्यानयोगेन नान्यो भेदः कदाचन ॥ अर्थात, यदि पर्वतके समान अनेक योजन विस्तारवाले पाप भी हों, तो भी वे ध्यानयोगसे नष्ट हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त, और किसी तरह उनका नाश नहीं होता।
शिवसंहिताके प्रथम पटलमें महादेवका वचन है--'सब शास्त्रोंको देख और बार-बार विचार करके यह निश्चित हुआ कि योगशास्त्र ही सबसे उत्तम है। योगशास्त्रके मान लेने पर सब कुछका ज्ञान हो जाता है । इसलिए, योगशास्त्रमें ही परिश्रम करना चाहिए, अन्य शास्त्रोंका कुछ प्रयोजन नहीं है। गोरक्षवचनसंग्रहमें तो योग-प्रक्रियाकी अनेक गूढ़ बातोंको विशदतापूर्वक बताया गया है। योगिनीहृदयमें कहा गया है कि जिस व्यक्तिकी कम-से-कम छह महीने साथ रहकर परीक्षा कर ली गई हो, उसे ही योगविद्या देनी चाहिए । योगविद्या जानने पर तत्काल आकाश-संचरणकी शक्ति प्राप्त हो जाती है। विष्णुपुराणमें 'धारणा' के सम्बन्धमें बड़ी विशदतासे चर्चा की गई है। इस छठे अंग धारणासे ही
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पहाताह ।
सातवें अंग 'ध्यान'को साध्य बताया गया है। श्रीमद्भगवद्गीतामें योगकी विविधतापूर्ण, बारीक एवं व्यावहारिक परिभाषाएं उपलब्ध होती है। गीताके अट्ठारहों अध्याय अट्ठारह योगके रूपमें वर्णित हैं। इन अट्ठारहों योगोंमें भगवान् कृष्णने कर्मयोगकी श्रेष्ठता सिद्ध की है (२।३८-४१) और कर्मके प्रति कुशलताको ही 'योग' कहा है ('योगः कर्मसु कौशलम्')। कर्मका स्वभाव कषाय या बन्धन उत्पन्न करना है। कर्मके प्रति समत्वबुद्धि-रूप कौशलको अपनानेसे ही कर्मकी स्वाभाविक बन्धनशक्ति नष्ट होती है। कर्मके बन्धनसे मुक्त व्यक्ति ही ब्रह्म और आत्माके एकत्व-दर्शन-रूप 'योग'के प्रतिलाभमें समर्थ होता है।
गीताके छठे अध्यायमें भगवान् कृष्णने कहा है कि कर्मफलकी आशा न करके जो अपने नित्यकर्तृक कर्मका सम्पादन करते हैं, वही योगी और संन्यासी है। क्योंकि, कर्मफलका त्याग करनेवाला ही कर्मयोगी होता है। ध्यानयोगके अन्तरंग साधनमें अशक्त व्यक्तिके लिए निष्कामभावसे कर्मका अनुष्ठान ही बहिरंग साधन है। जो व्यक्ति बहिरंग साधनमें समर्थ होता है, वही धीरे-धीरे अन्तरंग साधन द्वारा योगारूढ होनेकी शक्ति प्राप्त कर लेता है। शुद्ध मनवाला व्यक्ति अपना उद्धार आप कर लेता है और विषयासक्त मनवाले बन्धनमें पड़ जाते हैं। जितेन्द्रिय, प्रशान्त और योगारूढ व्यक्तिको ही अभिज्ञान होता है और आत्मज्ञानसम्पन्न ही जीवन्मुक्त होते हैं और जो जीवन्मुक्त हैं, वे शीत-उष्ण, सुख-दुःख तथा मानापमानकी स्थिति में भी कभी विचलित नहीं होते। उनके लिए मिट्टी, पत्थर, सोना सब बराबर होते हैं : समत्वं योग उच्यते ।
आसन और ध्यानकी महत्ता प्रतिपादित करते हुए गीता कहती है कि योगी निर्जन एकाकी स्थानमें निराकांक्ष और परिग्रहशन्य होकर देह और मनमें संयमपूर्वक अन्तःकरणको समाहित करे। स्वभावतः या संस्कारतः शुद्ध स्थानमें कुश, वस्त्र या मृगचर्म द्वारा रचित न अधिक ऊंचे, न अधिक नीचे आसनपर आत्माको स्थिर करना चाहिए। योगी अधिक भोजन और अधिक निद्रासे बचे, साथ ही अनाहार और अनिद्राको वर्जनीय समझे । गीताका उपदेश है कि योग उसीके लिए सुखप्रद हो सकता है, जिसके आहार-विहार, निद्रा-जागरण और सभी प्रकारकी कर्मचेष्टाएँ नियमित है। योगी तभी योगसिद्ध हो सकता है, जब वह चित्तनिरोधपूर्वक सभी कामनाओंसे मुक्त एवं बाह्य चिन्तासे दूर रहकर अपनी आत्मामें अवस्थित होता है। योगीका चित्त निर्वात वातावरणमें स्थित निष्कम्प दीपशिखाकी भांति होता है। चैतन्य ज्योतिस्वरूप आत्मज्ञान प्राप्त कर लेनेपर योगीके लिए अन्य कोई भी सांसारिक वस्तु अप्राप्य नहीं प्रतीत होती । सम्पूर्ण दुःखोंसे आत्यन्तिक निवृत्ति-रूप आत्मावस्थिति ही 'समाधि है, जिसे गीताने 'ब्राह्मी स्थिति' कहा है।
इस प्रकार, भारतीय प्राचीन ग्रन्थोंमें योगकी चर्चा बड़ी विशदता और प्रचुरतासे हुई है। किन्तु, योगकी व्यावहारिक व्याख्याके लिए श्रीमद्भगवद्गीता और पुराण-परवर्ती कालमें योगकी शास्त्रीय न्याख्याके लिए योगसूत्र ('पातंजलदर्शन')-ये दोनों अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं। प्रसिद्ध भारतीय छह दर्शनोंमें 'योगदर्शन'का अपना महत्त्व है। अगर हम यह कहें कि योगदर्शनका ज्ञान होनेपर ही अन्य सारे दर्शन हदयंगम हो सकते हैं, तो अत्युक्ति नहीं होगी।
वैदिकोत्तर दर्शनोंमें प्रमुख बौद्धदर्शन और जैनदर्शनमें योगको पुंखानुपुंख चर्चा हुई है। सम्पूर्ण बौद्धदर्शनको 'योगदर्शन'का ही पर्याय कहा जाना चाहिए। हठयोग तथा राजयोगमें षडंग या अष्टांग प्रख्यात हैं। किन्तु, बौद्धोंका षडंगयोग इससे विलक्षण है। प्रसिद्ध तन्त्रवेत्ता महामहोपाध्याय पं. गोपीनाथ कविराजने आचार्य नरेन्द्रदेवके बौद्ध-धर्म-दर्शनकी भूमिकामें लिखा है कि बौद्धों के षडंग योगका प्राचीन विवरण गुह्यसमाजमें तथा मंजुश्रीकृत कालचक्रोत्तरमें पाया जाता है। परवर्ती साहित्यमें, विशेषतः नडपादकी सेकोद्देशटीकामें तथा मर्मकलिकातन्त्रमें इसका वर्णन है। इसे 'बौद्धयोग' के नामसे भी अभि२७४ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ
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हित किया जाता है। प्रत्याहार, ध्यान, प्राणायाम, धारणा, अनुस्मृति और समाधि ये षडंग योग है। समाजोत्तरतन्त्रके अनुसार, षडंगयोगसे ही बुद्धत्व सम्यक् सम्बोधि प्राप्त हो सकती है।
हीनयानियोंकी दृष्टिसे, योग द्वारा ही भवकी प्रवृत्तिका निरोध और निर्वाणमें प्रवेश होता है। महायानियों के अनुसार, योगी समाधिके द्वारा तथता या समताका प्रत्यक्षीकरण करते हैं। कुशल या शुभमें चित्तकी एकाग्रता ही समाधि है। योगमें समताकी भावनाका पक्ष लेते हुए भगवान् बुद्धने कहा है : 'योगीकी प्रज्ञा इष्ट-अनिष्टमें तादिभाव, यानी समभावका आवाहन करती है। बौद्धोंके अनुसार, 'योगानुयोग' ही कर्म है और 'कर्मस्थान' ही योगका साधन है। यही 'कर्मस्थान' 'समाधि'की परिणति की ओर ले जाता है । भगवान् बुद्धने आनन्दसे कहा था कि वे स्वयं कल्याणमित्र हैं; क्योंकि उनकी शरणमें जाकर ही जीव जन्मके बन्धनसे मुक्त होते हैं : ममं हि आनन्द कल्याणमित्तमागम्म जातिधम्मा सत्ता जातिया परिमुच्चन्ति । (संयुत्तनिकाय, १४८८)।
इस प्रकार, श्रीमद्भगवद्गीता, योगसूत्र तथा बौद्धदर्शनकी योगसम्बन्धी धारणाएं और व्याख्याएँ प्रायः समानान्तर रूपसे चलती हैं। किन्तु, जैनदार्शनिकोंने योगके मूलाधारके अन्तरंग साम्यको स्वीकारते हुए भी अपनी यौगिक व्याख्या अपने ढंगसे की है। इस प्रसंगमें मुनि मंगलविजयजी महाराजका योगप्रदीप ग्रन्थ योगकी व्यापक विवेचनाकी दृष्टिसे पर्याप्त महत्त्व रखता है। मंगलविजयजी भी पातंजल योगदर्शनसे अतिशय प्रभावित है। फिर भी, उन्होंने योगकी भव्यशैलीमें वर्णना की है। मंगलविजयजीने पतंजलि-निर्दिष्ट योगके अष्टांगकी स्वीकृति दी है, किन्तु उन्होंने 'चित्तवृत्तिनिरोध'को योग न मानकर 'धर्मव्यापाररूपता'को योग कहा है। 'धर्मव्यापार'की व्याख्या करते हए उन्होंने कहा है कि 'समताकी रक्षा' ही धर्मका व्यापार है।
जैनसाहित्यके सूत्रकृतांग जैसे प्राचीन सूत्रमें 'योग' शब्दका व्यवहार हुआ है । जैनतत्त्वविद्यामें मन वाणी और शरीरकी प्रवृत्तिको भी योग कहा गया है। किन्तु, साधनाके अर्थमें 'संवर' या 'प्रतिमा'का प्रयोग अधिक प्रचलित है। आचार्य हरिभद्रने उन सारे धार्मिक व्यापारोंको योग कहा है, जो व्यक्तिको मुक्तिसे जोड़ते हैं : मोक्खेणं जोयणाओ जोगो सव्वो वि धम्मवावारो। आधुनिक कालके प्रसिद्ध जैनाचार्य आचार्यश्री तुलसीने अपने 'मनोनुशासनम्' ग्रन्थमे 'योग'को 'मनका अनुशासक' बतलाया है।
अन्तमें हम योगदर्शन पुस्तकके लेखक तथा प्रसिद्ध योगवेत्ता डॉ० सम्पूर्णानन्दके शब्दोंमें कहें कि भारतके कई सहस्र वर्षों के इतिहासमें योग और उससे सम्बन्ध रखनेवाले शब्दोंका व्यवहार धार्मिक और आध्यात्मिक वाङ्मयमें, जो भारतीय आत्माकी अभिव्यक्तिका सबसे विशद और व्यापक माध्यम है, सर्वत्र व्याप्त हो गया है । अन्ततः कहना होगा कि जहाँ-जहाँ भारतीय प्रभाव पहुँचा है, वहाँ-वहाँ योगाचार भी पहुँच गया है। क्योंकि, भारतीयता और योग दोनोमें अविनाभावि सम्बन्ध है। इसलिए, भारतीय योगकी किरणें दिग्दिगन्तमें प्रसार पा रही हैं। इस सन्दर्भ में यह कहना अनुचित न होगा कि ज्यों-ज्यों विश्वमें भौतिकताका साम्राज्य विस्तार पाता जायगा, त्यों-त्यों भारतीय ऋषि-मुनियों द्वारा आविष्कृत योग-संजीवनीकी मांग नित्य-निरन्तर बढ़ती ही चली जायगी।
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श्रीवल्लभाचार्यजी महाप्रभुजीका जीवन वृत्त
__ अध्या० केशवराम का० शास्त्री, 'विद्यावाचस्पति' देशकी धार्मिक-सामाजिक परिस्थिति
श्री शंकराचार्यजीके समयमें बौद्धसंप्रदायके अनुयायी लोग प्रायः करके सनातन वैदिक परंपराके अन्तर्गत आ चुके थे। बौद्ध संप्रदायका वर्चस करीष नष्ट हो चुका था। जैन संप्रदाय भी गुजरात मारवाड़ एवं दक्षिणके भूभागोंमें सीमित था। श्री शंकराचार्यजीके प्रस्थापित किये हुए ज्ञानमार्गका और पाञ्चरात्र भागवत संप्रदायके भक्तिमार्गके प्राचीन प्रवाहका अनुसरण काफी स्वरूपमें होता चला था। शाक्त संप्रदाय भी अन्यान्य शक्तिपीठोंमें चालू रहा था। भागवत संप्रदायकी शाखाओंका विकास दक्षिणमें ठीक-ठीक होता रहा था, उत्तरपूर्व-पश्चिममें भी उसकी प्रणाली अविरत चालू थी। सूर्यके देवालयोंका भी सर्जन होता ही रहा था। ईसाकी ग्यारहवीं शतीकी दूसरी पचीसीके आरम्भमें ही जब कि महमूद गजनवी सौराष्ट्रमें सोमनाथ तक पहुँचा तबसे मुस्लिम विदेशियोंकी भारतवर्षपर शासन करनेकी भूख प्रदीप्त होने लगी। इस पूर्व सिन्धमें अरबोंने अपनी सत्ता जमानेका कुछ प्रयत्न आठवीं शतीसे ही शुरू कर दिया था, एवं वहाँ कुछ सफलता भी मिली थी, किन्तु वह वहाँ ही सीमित थी। गजनवीके अफगान पठानोंके आक्रमणोंकी परंपरा चली, और हम देखते हैं कि गोरीवंशके सुल्तानोंने दिल्हीपत्ति पृथ्वीराज चौहाणको परास्त करके भारतवर्ष में साम्राज्यकी स्थापना करनेका तेरहवीं शतीमें आरम्भ किया। अब आइस्तां-आइस्तां मुस्लिम सत्त्वका प्राबल्य बढ़ता रहा, वह न केवल सत्ताप्राप्तिमें सीमित रहा, बलात्कारसे धर्मपरिवर्तनमें भी आगे बढ़ा । आपसआपसके विद्वेषमें राजपूत सत्ताएं भी उत्तरोत्तर निर्बल बनती जा रही और अनेक स्थानों में देवालयोंके स्थानोंमें मस्जिदें बनती जा रही। भारतीय-प्रजाकी विदेशीय पराधीनता रूढमूल होने लगी। उस समय, खास करके दक्षिणके देशोंमें विष्णुस्वामी, श्रीरामानुजाचार्यजी, श्रीनिम्बार्क एवं श्रीमध्वाचार्यजीने अपनी-अपनी प्रणालियोंका विकास करके लोगोंके धर्मका एवं समाजका रक्षण करनेका प्रयत्न किया। विद्यापति, कबीर, नरसिंह मेहता जैसे सन्त और भक्तोंने अपने-अपने प्रदेशमें लोगोंके आत्मविश्वासको दृढ़ करनेका प्रबल प्रयत्न किया। उनसे पूर्व ही विदर्भमें महानुभाव संप्रदायके भक्तोंने कृष्णभक्तिका प्रवाह अच्छी तरहसे बढ़ाया था और महाराष्ट्रमें ज्ञानीभक्त ज्ञानेश्वर-ज्ञानदेव और नामदेवने श्रीविठोबा श्रीकृष्णकी भक्तिको अच्छा बना दिया था। राजकीय दृष्टिमें बिचारी बनती जाती प्रजाको इससे अपनी भारतीय संस्कृति, सभ्यता, धर्मप्रणाली आदिका रक्षण करनेका बल मिला-हम जब ईसाको पन्दरहवीं शती में आते हैं तब ई० सं० १४१२ में दिल्हीके तख्त पर सैयद वंशका वर्चस् और ई० सं० १४५० में लोदीवंशका वर्चस् देखते हैं। दक्षिणमें ई० सं० १३४७ में हसन गंगू ब्राह्मणो नामक सुषेने गुलबर्गमें मुस्लिम राज्यको स्थापना कर दी थी, किन्तु बुक्क और हरिहर नामक दो कर्णाटकी राजप्त भाइयोंने विजयनगरकी नई वसाहत करके एक प्रबल हिन्दू राज्यकी वहां जड़ डाल दी, इस कारण दक्षिणमें मुस्लिम वर्चस् कामयाब इतना नहीं हुआ, जितना उत्तरमें हुआ। मालवेमें ई० सं० १४०१ में मुस्लिम स्वतन्त्र राज्य अतित्वमें आया, तो अयोध्याके निकट गङ्गाके तट प्रदेशमें जौनपुर में भी ऐसा मुस्लिम एक स्वतन्त्र राज्य अस्तित्वमें आ गया। गुजरातमें ई० सं० १३०० करीब दिल्हीकी सत्ता आ चुकी थी और ई० सं० १३५९ से वहाँ
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मुस्लिम स्वतन्त्र सल्तनतकी जड़ मजबूत हो गई थी । श्रीवल्लभाचार्यजीके शब्दों में कहा जाय तो ' म्लेच्छाक्रान्तेषु देशेषु पापैकनिलयेषु' – ऐसी परिस्थितिमें लोगोंकी क्या परिस्थिति होगी उसका पता चलता 1 अस्वतन्त्र होती जाती प्रजाको आत्मविश्वास देनेवाला कोई भी प्रयत्न हो तो वह उस समय केवल भक्तिका ही था । श्रीवल्लभाचार्यजी एवं उनके उत्तर समकालीन श्रीगौरांग चैतन्य महाप्रभुने उत्तर और पूर्व में भक्तिमार्गका प्रबल प्रसार सोलहवीं शती में किया और भारतीय प्रजामें आत्मविश्वाससे जीनेका बल दिया ।
श्रीवल्लभाचार्यजीका प्रादुर्भाव
ईसा की प्रथम शतीसे भारतवर्ष के प्रदेशोंमें आन्ध्र साम्राज्यकी जहोजलाली थी और वहां भारतीय संस्कृति एवं सभ्यताका विशिष्ट प्रवाह बढ़ता ही रहा था और उसका असर नीचेके अन्य द्रविड़ प्रदेशोंमें भी अच्छी तरहसे चालू था । विद्वत्ताके विषय में समग्र द्रविड़ प्रदेशोंकी करीब अग्रिमता ही रही थी । भारतवर्षने जो अनेक महान् आचार्योंका प्रदान किया, प्रायः वे सभी द्रविड़ भूभागके ही थे । महान् श्रीशंकराचार्य, श्रीविष्णुस्वामी, श्रीनिम्बार्क, श्रीमध्व, और वेदभाष्यकार सायणाचार्य, सर्वदर्शनसंग्रहकार माधवाचार्य एवं श्रीविद्यारण्य स्वामी आदि वहाँ के ही रत्न थे ।
द्रविड़देशान्तर्गत आन्ध्रप्रदेशके कांकर तहसील में कांकर पांडू गाँव भी परम्परासे श्रीविष्णुस्वामी के संप्रदायका स्थान था और वहाँ श्रीवल्लभाचार्यजी के पूर्वजोंका निवास था । इस संप्रदायके आराम्भकाल में इष्ट श्रीनृसिंह थे, पीछेसे श्रीगोपाल कृष्णको भक्तिकी प्रचुरता होती चली थी । श्रीवल्लभाचार्यजीके पूर्वजों में यज्ञयागादिक वैदिक धर्मके आदरवाली भक्तिका प्राचुर्य था । इनके पूर्वजोंमें श्रीयज्ञनारायण भट्टसे कुछ माहिती मिलती है । वे आन्ध्र तैलंग ब्राह्मण थे । उनका वेद कृष्ण यजुर्वेद (तैत्तिरीय संहिता), शाखा आख्या खम्भपट्टीवारू थी । करते रहते थे । यज्ञनारायण वल्लभ भट्टने ५, और इनके
तैत्तिरीय, गोत्र भरद्वाज, सूत्र आपस्तम्ब, देवी रेणुका, कुल वेल्लनाडु, और उनके घरमें वैदिक परिपाटीका अग्निहोत्र चालू था । सोमयाग जैसे यज्ञ भी भट्टजीने ३२, इनके पुत्र गङ्गाधर भट्टने २७, इनके गणपति भट्टने ३०, इनके पुत्र लक्ष्मण भट्टने ५, इस प्रकार पाँच पूर्वजोंने मिलकर १०० सोमयाग किये थे, जिसका ही फल देवांश श्रीवल्लभाचार्यजी माने गये हैं, लक्ष्मण भट्टजीके हृदयमें किस प्रकारकी श्रद्धा होगी वह तो कैसे कहा जाय, किन्तु अन्तिम यज्ञ पूर्ण करके प्रयागमें त्रिवेणीस्नान करनेकी और प्रयाग एवं काशी में ब्रह्मभोजन करानेकी उनकी महेच्छा थी । लक्ष्मण भट्टजीका लग्न उस समयके सुप्रसिद्ध विजयनगर साम्राज्य के पुरोहितकी बहिन एल्लम्मागारूके साथ हुआ था । यज्ञपूर्णाहुति के बाद प्रयाग - काशीका धर्मकार्य पूर्ण करने के बाद अनुकूलता हो तो काशी में ही शेष जीवन बितानेकी भावना थी । उस समय स्वजातीय अनेक तैलङ्ग ब्राह्मणोंका निवास काशीमें था भी, अनेक संप्रदायोंके अनुयायियोंकी भी वहाँ अच्छी तादात थी, विष्णुस्वामी - संप्रदाय के अनुयायी भी वहाँ थे, इस कारणसे भी काशी निवास करनेमें बल मिला था । ई० सं० १४७० के वर्ष में लक्ष्मण भट्टी अपने वतन कांकरपाढ़में अपने बड़े लड़केको अपने कुलके श्रीरामचंद्रजीके मन्दिरकी सेवाका कार्य सौंपकर काशी बाजू कुटुम्ब चल पड़े, अन्य रिश्तेदार लोग कांकरपाढ़में थे, इस कारण लड़केको एकाकीपन लगे ऐसा नहीं था । घरसे निकलकर (वि० सं० १५२७ ) के द्वितीय आषाढ़ की अमावास्या एवं गुरुवार के दिन भट्टजी प्रयाग में आ पहुँचे और सूर्यग्रहणके योग पर त्रिवेणीस्नान करनेका लाभ उठाया; करजकी परवाह किये बिना ब्रह्मभोजन भी अच्छी तरहसे करवाया, काशीमें आनेके बाद वहाँ भी ब्रह्मभोजन करवाया और वहाँ ही ठहर गये, काशी में दक्षिणके एक विद्वान् माघवेन्द्र यतिकर थे । उनके आये । माधवेन्द्रयति सुप्रसिद्ध श्रीगोरांग चैतन्य महाप्रभु के बड़े भाई नित्यानन्दजी के
संपर्क में लक्ष्मण भट्टजी गुरुभाई थे । काशी में विविध: २७७
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यतिजीकी पाठशाला थी और कहा जाता है कि लक्ष्मण भट्टजीने वहां ज्योतिष शास्त्रका अभ्यास किया था। काशीमें स्वेष्ट अनुकूल वातावरणमें लक्ष्मणभट्टजी यागादिकके उत्तर कार्योंसे निवृत्त होकर आनन्दसे स्वाध्याय और श्रीगोपालकृष्णको विष्णुस्वामी संप्रदायकी प्रणालीसे भक्ति करने में अपने दिन व्यतीत कर रहे थे, इतने में अचानक एक आपत्ति आई।
काशी जौनपुरके मुस्लिम राज्यकी सत्तामें था। दिल्लीके बहलोल लोदी (ई० सं० १४५०-८९) और जौनपुरके सुल्तान हुसेनके बीच संघर्ष चालू था। बेशक, आरम्भमें उसका असर पूर्व में काशी तक नहीं पहुंचा था, और काशीवासी लोग निश्चिन्त रहते थे। आहिस्ता आहिस्ता जौनपुरका प्रदेश दबाते-दबाते दिल्हीके सैन्य पूर्व में आगे बढ़ते जाते थे। ऐसा एक हल्ला काशीके प्रान्तप्रदेशमें होनेका भय खड़ा हुआ और काशीके लोगोंमें नास भाग शुरू हो गई। एल्लमागारूजी सगर्भा थी और काशी छोड़ना अनिवार्य बन गया था। लक्ष्मण भट्ट अपने दूसरे रिश्तेदारोंके साथ, निकल पड़े, प्रवास लम्बा था। कितने दिनोंके बाद वे अपने वतनके सीमाप्रान्त आ पहुंचे। जब महानदीके तीर प्रान्तके चम्पारण्य नामक अरण्यमें आये तब ई० सं० १४७२ (वि० सं० १५२९)के व्रज वैशाख वदि ११ एवं शनिवारके दिन प्रवासके असामान्य कष्टके कारण श्री एल्लमागारूजीको सातवें मासमें कुछ अपक्वसे बालकका एक शमीवृक्षके नीचे प्रादुर्भाव हो गया, साथके प्रायः सभी लोग कांकरपांढू पहुँच गये थे। लक्ष्मणभट्टजी और एल्लम्मागारूजी अपनी दो बच्चियों के साथ थे। रात्रिका आरम्भ हो गया था और ६ घड़ी और ४४ पल पर यह प्रसूतिका प्रसंग बन गया। सातवें मासमें जात बालकको मृतवत् समझकर वस्त्रमें लपेट लिया और शमीवृक्षके कोटरमें रखकर, अन्य प्राणियोंसे बचानेके लिए वृक्षके चारों ओर अग्निका वर्तुल कर दिया। रात्रि वहाँ ही पूर्ण की; माताजीके उस समय कुछ स्वस्थता प्राप्त हुई तब बोल उठीं। मेरा बच्चा कहाँ है ? बच्चा शमीवृक्षके कोटरमें बताया गया । रात्रिभरके जलते अग्निके कारण बच्चेके देहमें शक्ति आ गई थी। वह रोने लगा, माताने अग्निको हटाकर बच्चेको गोदमें तो लिया। मान लिया गया कि भौतिक अग्निने ही अपने आधिदैविक स्वरूपको धारण करके जगत् के समक्ष दर्शन दिया। उस समय वहां जो कोई भी हरिजन थे उन सबोंको आनन्द हो गया । स्वस्थताके बाद आहिस्ता-आहिस्ता शेष लोग नज़दीकके चौड़ा गांवमें आ पहुँचे-वहाँका रईस लक्ष्मण भट्टजीका परिचित था; उनको वहां अच्छा आश्रय मिल गया। छट्टी के दिन काशीसे माधवेन्द्र यति और मुकुन्ददास नामक एक विरक्त वैष्णव उस चौड़ामें ही आ पहुँचे, भट्टजीके बहाँ पुत्रका जन्म सुनकर उन दोनोंको बड़ी प्रसन्नता हई । करीब डेढ़ मासका समय चौड़ामें ही निकला, जातकर्मादि सभी संस्कार करनेके बाद भट्टजी अब कांकरपाद अपने घर पर आ गये।
काशीसे अशान्तिके समाचार आते रहते थे। ई० सं० १८७६के शीतकालमें दिल्हीके सैन्योंने हुसेनका पराजय पूरा कर लिया और बहलोल लोदी एवं हसेनके बीच तीन सालोंका तह हआ। अब काशीमें शान्ति हुई और वह समाचार कांकरपाढूमें आनेके बाद आये हुए लोगोंने काशी वापस लौटनेका उद्यम किया। इन तीन वर्षों के बीच भट्टजीके वहां एक ओर पुत्रका जन्म हुआ था। भट्टजीका प्रथम पुत्र रामकृष्ण कांकरपाळूमें ही था, दूसरा अग्निरक्षित पत्रका नाम 'वल्लभ' रखा गया था और तीसरेका नाम रामचन्द्र दिया था । पिताजीकी भावना थी कि वल्लभको यथा समय विद्याभ्यासके लिए काशीमें ही व्यवस्था करनी चाहिए। माधवेन्द्र यतिजी की पाठशाला काशीमें ही थी, अतः सुविधा थी ही। लक्ष्मणभट्टजी अपने छोटे कुटुम्बके साथ काशी जा पहुँचे । अब जब श्रीवल्लभको पांचवें वर्षका आरम्भ गया तब (वि० सं० १५३३ ई० सं० १४७६) आषाढ़ सुदि २ और रविवारके रथयात्राके दिन पिताजीने खुदने ही श्रीवल्लभको अक्षरारम्भ करवाया और पांचवें वर्षके अन्त भागमें (वि० सं० १५३४ ई० सं०१४७७) चैत सुदि ९ और रविवारको यज्ञोपवीत
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संस्कार बड़ी धामधूमसे किया गया। इसके बाद तुरन्त ही अपने स्नेही यतिराज माधवेन्द्रयति की पाठशालामें श्रीवल्लभके विद्याभ्यासका प्रबन्ध कर लिया गया। करीब डेढ़ वर्ष अध्ययन हआ इतने में माधवेन्द्र यतिका ब्रजमें जानेका हआ और इनके शिष्य माधवानन्दजीके हाथमें अध्यापनकार्य चालू रहा। जब सातवां जन्मदिन आया उस समय संभवतः पिताजी द्वारा विष्णुस्वामी-संप्रदायकी दीक्षा बाल श्रीवल्लभ की हई। पीछेसे यह बात विस्मृत हो गई और उस दिनको ही संप्रदायमें जन्ममाङ्गल्यदिन माना गया । संप्रदायमें यह दिन वि० सं० १५३५ (ई० सं० १४७८)के व्रज वैशाख वदी १०मी उपरान्त ११ और रविवारका माना है, और 'एकादसी दूसरो याम'--जो स्पष्ट रूपमें जन्मका नहीं, दीक्षामांगल्यका ही समय है। सगुणदासजीके निम्न पदमें यह बात ही दीख पड़ती है--
"कांकरवारे तैलंग-तिलक-द्विज वंदों श्रीमदलक्ष्मणनंद । श्रीब्रजराजशिरोमनि सुंदर भूतल प्रगटे बल्लभचंद ।। अवगाहत श्रीविष्णुस्वामि पद नवधाभक्तिरत्न-रसकंद । दर्शन ही ते प्रसन्न होत मन प्रगटे पूरन परमानंद ।। कीरति विरुद कहां लों बरनों गावत लीला श्रुति सुरछंद ।
सगुणदास-प्रभु षट्गुणसंपन कलिजन-उद्धरन आनंदकंद ॥ दक्षिणके देशोंमें आज पर्यन्त यह रिवाज चालू है कि बालकको विशिष्ट दीक्षा दी जाती है तब उस दिनकी मुहूर्तकुण्डली बनवाकर उस दिनको जन्मदिन जितना गौरव दिया जाता है।
बरोबर इस प्रसंग पर गुरुके शोधमें निकले हुए एक क्षत्रिय भक्तका आगमन हुआ। शरणार्थी यह क्षत्रिय कृष्णदास मेघन श्रीवल्लभाचार्यजीके समग्र जीवनकालमें अहोरात्र परिचर्या में लगातार चालू रहा था। विजयनगरमें वास
काशीमें श्रीमाधवानन्दजीके पास श्रीवल्लभका अध्ययन व्यवस्थित चालू था। १६ वर्षमें सामान्य शास्त्रोंका अध्ययन हो गया और अब विशिष्ट शास्त्रोंके अध्ययनकी सुविधा दक्षिणमें सुलभ होनेके कारण मौसालमें जानेकी श्रीवल्लभकी इच्छा जानकर पिताजी सहकुटुम्ब विजयनगरकी ओर निकल पड़े। बीचमें यात्राके स्थानोंमें फिरते-फिरते भट्टजी विजयनगर आ पहुंचे और राज्यके दानाध्यक्ष अपने मामाजीके द्वारा की हुई सुविधाके कारण श्रीवल्लभका शास्त्रों एवं दर्शनोंका अध्ययन सुचारुरूपसे आगे बढ़ता जा रहा । यहाँ अन्यान्य आस्तिक-नास्तिक दर्शनोंके अध्ययनके साथ-साथ पूर्वमीमांसाका अध्ययन विशिष्ट रूपसे हुआ।
विजयनगरमें अच्छी तरहसे सुस्थिर होनेके बाद पिताजीकी इच्छा दक्षिणके तीर्थ स्थानोंके दर्शन की हुई । इस कारण कांकरपाढूसे बड़े पुत्र रामकृष्णको बुलवा लिया और तीनों पुत्रोंको लेकर माता-पिता यात्राके लिए निकले। दोनों पुत्रियोंके लग्न होने के कारण उस विषयमें निश्चिन्तता थी। यात्रा करते-करते जब यह कुटुम्ब श्रीलक्ष्मण बालाजीके पवित्र धाममें गया (वि० सं० १५४४-ई० सं० १४८७) तब श्री'को शृंगार कराते-कराते लक्ष्मणभट्टजीका देहान्त हो गया। उस समय श्रीवल्लभका वय १६ वर्षोंका और छोटे रामचन्द्रका वय १४ वर्षोंका था। वहाँ ही पिताजीकी अन्त्येष्टि करके यह कुटुम्ब विजयनगर वापस लौट आया, रामकृष्ण कांकरपाढ़ गया । उनका दिल शुरूसे ही विरक्त होनेके कारण परम्पराके श्रीरामचन्द्रजीकी सेवा अपने दूसरे कुटुम्बीजनोंको सौंपकर उन्होंने मध्वसंप्रदायकी दीक्षा ली और 'केशवपुरी' नाम धारण करके घरसे निकल गये।
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प्रथम लघुयात्रा
श्रीवल्लभ एवं रामचन्द्र विजयनगरमें आकर मौसालमें स्थिर हए। यहाँ पिताजीके वार्षिक श्राद्धको पूर्णकर पिताजीकी यात्राकी अपूर्ण इच्छा पूर्ण करने के लिए और माताजीको भी यथापुण्यका लाभ देनेके लिए अल्प समयके लिए सं० १५४५ (ई० स० १४८८)में प्रवासमें आगे बढ़े। प्रथम कांकरपाढ़ आये और माताजी की शोकमुक्ति करवाई। वहाँसे अब आप, श्रीमाताजी और सेवक कृष्णदास मेघन तीन आगे बढ़कर श्रीपुरुषोत्तम शेष श्रीजगदीशमें पहुंचे। उस समय ओरिस्सामें गजपति पुरुषोत्तम नामक परम धार्मिक राजा था। श्रीजगन्नाथपुरीमें उसके दरबारमें वाद-विवाद चलता था कि-(१) मुख्य शास्त्र क्या, (२) मुख्यदेव कौन, (३) मुख्य मन्त्र क्या, और (४) मुख्य कर्म क्या ? श्रीजगदीश मन्दिरके विशाल प्रांगणमें वादविवाद हो रहा था उसी समय अकस्मात् श्रीवल्लभ श्रीजगदीशके दर्शनके लिए आ पहुंचे। यह बाल ब्रह्मचारी श्री के दर्शनके बाद कुतूहलवशात् उस वादसभामें बैठे । प्रश्न सरल थे, किन्तु वे गम्भीर । श्रीवल्लभको आश्चर्य हआ कि यहाँ श्रीजगदीशके मन्दिरमें ही बैठकर इस प्रकारकी बालिश चर्चा होती है। इन प्रश्नोंका उत्तर मात्र चतुराईको अपेक्षा तीर्थगोरकृष्णजीको पूछने लगे कि मैं इस चर्चा में भाग ले सक? गोरने राजाजीसे निवेदन किया। अनुज्ञा मिलनेपर श्रीवल्लभ खडे हए और साश्चर्य निवेदन किया कि या आस्तिक लोग इकट्ठे हुए हैं। हमारी सबोंकी अपने शास्त्रोंमें श्रद्धा है । वेद-उपनिषद्, गीताजी और ब्रह्मसूत्रोंमें हमारी पूरी श्रद्धा है। इन तीन प्रस्थानोंमें हमारी गीताजीकी ओर परम श्रद्धा है। क्या गीताजी पन्द्रहवें अध्यायके अन्त भागमें जो कहती है, क्या हमें वह बाध्य नहीं है ? इस बातको हम प्रमाणके रूपमें यदि स्वीकार करते हैं तो अपने आपसे ऊपरके चार प्रश्नोंका उत्तर मिल जाता है; जैसा कि
एक शास्त्रं देवकीपुत्रगीतं, एको देवो देवकीपुत्र एव ।
मन्त्रोऽप्येकस्तस्य नामानि यानि, कर्माप्येकं तस्य देवस्य सेवा ॥ (१) भगववान् देवकीनन्दन श्रीकृष्ण द्वारा गाई हुई गीता एकमात्र शास्त्र, (२) वे देवकीनन्दन श्रीकृष्ण एकमात्र देव, (३) उनके जितने नाम वे एकमात्र मन्त्र, और (४) उनकी सेवा वह एकमात्र कर्म ।
इस निर्णयात्मक कथनसे सभी लोगोंके मनका उत्तमोत्तम समाधान करके श्रीवल्लभ तुरन्त वहाँसे निकल गये, मानव समूहमें सम्मिलित हो गये। इस बालसरस्वतीको यश या विजय या प्रतिष्ठाका कोई खयाल नहीं था. न मानकी कोई भावना भी अब तक खडी नहीं हुई थी। वे दूसरे दिन यात्रा में इस प्रवासमें ही वर्धामें उनको एक दूसरे महत्त्वके शिष्य-सेवक आ मिला, जो दामोदरदास हरसानीके नामसे प्रसिद्ध है। [इस ऐतिहासिक प्रसंगका निर्देश जगन्नाथपुरीके इनके गोर गुच्छिकार कृष्णने वि० सं० १५९५ (ई० स० १५३८)में श्रीवल्लभाचार्यजीके बड़े पुत्र श्रीगोपीनाथजी श्रीजगदीश दर्शनके लिए गये थे तब उनको कहा था, और गोरके चोपड़ेमें इस बातके लिखे हुए निर्देश पर श्रीगोपीनाथजीके हस्ताक्षर भी प्राप्त हए हैं।
श्रीवल्लभ इस लघुयात्रामें आगे बढ़ते हुए दूसरे वर्ष में उज्जैन आ पहंचे और अपने तीर्थगोर नरोत्तमके चोपड़ेमें सं० १५४६ चैत्र सुदि १के दिन कन्नड़ लिपिमें हस्ताक्षर दिये। वे आज भी सुलभ है-'श्रीविष्णुस्वामिमर्यादानुगामिना वल्लभेन अवन्तिकायां नरोत्तमशर्मा पौरोहित्येन सम्माननीयः सं० १५४६ चैत्र शुद्ध प्रतिपदि ।' इस समय श्रीवल्लभका वय १७ का था। इस लघुयात्राको समाप्त कर अल्प समयमें विजयनगर वापस आ पहंचे और अध्ययन कार्यको फिरसे शुरू कर दिया।
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ग्रन्थलेखनारम्भ
विजयनगरके कुछ लम्बे निवासमें छोटी मोटी वाद सभाओं में भाग लेनेके प्रसंग आये थे इस कारण स्वसिद्धान्त प्रतिपादनकी शक्ति और प्रतिपक्षियोंके समक्ष अपनी बात सुचारुरूपसे रखनेकी युक्तिमत्ता सिद्ध हो गई थी। पूर्वमीमांसाका बलिष्ठ अभ्यास हुआ ही था, इससे स्वतन्त्र विचार करनेकी भी शक्ति सिद्ध हो चुकी थी। अपने विजयनगरके निवास दरम्यान श्रीवल्लभने अपने प्रवासमें भी रखनेकी सुविधा हो इस कारण रूपरेखात्मक 'तत्त्वार्थदीपनिबन्ध' नामक बड़े प्रकरण ग्रन्थकी रचना भी की थी।
इस ग्रन्थसे श्रीवल्लभने विचार विमर्शकी एक नयी ही दिशा खोल दी, आज तक आचार्योंने उपनिषद्, गीता, एवं ब्रह्मसूत्रोंको तीन प्रस्थानोंके रूपमें स्वीकार किया था, श्रीवल्लभने व्यासकी समाधि भाषाश्रीमद्भागवतको चतुर्थ प्रस्थानका मान दिया, इस पूर्व मध्वसंप्रदायमें भागवतका और आदर था, किन्तु प्रस्थान के रूप में स्वीकार नहीं किया गया था, इसके आगे यह भी बात श्रीवल्लभने की थी कि इन चारों प्रस्थानोंको अनुकूल रखकर किसीने आज भी कोई विधान किया हो तो भी वह प्रमाण है। प्राचीनतम हो, किन्तु चारों प्रस्थानोंके खिलाफ हो तो वह सर्वथा अप्रमाण-अमान्य है।
'तत्त्वार्थदीपनिबन्ध'का अध्ययन करनेसे एक बात अन्यन्त स्पष्ट है कि श्रीवल्लभके दिलमें उस समय कोई नया मत प्रस्थापित करनेका खयाल नहीं था, कलियुगमें मात्र कृष्णसेवा हो उद्धार करने वाली है यह बात उन्होंने स्पष्ट रूपमें कही थी, इस निबन्धके प्रथम 'शास्त्रार्थप्रकरण' में वेदान्त सिद्धान्त–'अविकृत परिणाम वाद' किंवा 'अखण्ड ब्रह्मवाद'का स्वरूप स्पष्ट किया था, जिसके पीछे श्री विष्णुस्वामीकी परम्परा होना संभव है। उनको पिताजीकी ओरसे उस परंपराके भागवत मार्गके जो संस्कार मिले थे उनकी प्रतिच्छाया इस निबन्ध ग्रन्थमें मिली थी, श्रीमद्भागवतके अर्थों का भी उन्होंने विचार किया था। वह इस निबन्धके तीसरे 'भागवतार्थ प्रकरण में मिलता है, इस निबन्धके प्रथम शास्त्रार्थ प्रकरणकी पुष्पिका इस बातका ही समर्थन करती है, जैसा कि 'श्री कृष्ण वेदव्यास विष्णुस्वामी मतानुर्वात श्रीवल्लभदीक्षित विरचिते तत्त्वदीपे शास्त्रार्थ प्रकरणं नाम प्रथमं प्रकरणम् ।' संभब है इस निबन्धका तीसरा प्रकरण कितनेक समय बाद ही लिखा हो । प्रथम भारत परिक्रमा
अपनी २० वर्षोंकी वयमें श्रीवल्लभने विजयानगरमें काफी अध्ययन-परिशीलन और ग्रन्थ लेखन शक्तिकी प्राप्ति कर ली थी। अब देशाटन एवं यात्रा करके अपने ज्ञानको मजबूत करनेकी भावना हुई, इस समय तकमें वर्धाके दामोदर दास हरसानी करके भावुक भक्त सेवक भी सेवामें आ पहुँचे थे। श्री वल्लभ कृष्णदास मेघन और दामोदरदास हरसानी ये तीन अब भारतवर्षके तीर्थों की परिक्रमा करने के लिए निकल पड़े। अब विजयनगरसे निकलकर यात्रा करते करते वे पंढरपर आये। श्रीवल्लभने भीमरथी नदीके तटपर प्रथम ही श्रीमद्भागवतका पारायण किया। संभव है कि श्रीमद्भागवतकी उनकी प्रथम सूक्ष्म टीकाका आरम्भ भी यहाँसे हुआ हो। इस टीकामें श्रीभागवतके प्रकट शब्दार्थ बतानेका प्रयत्न था। इस प्रवासमें ही १. जैमिनिके पर्वमीमांसा धर्म सूत्रोंके भाष्यका और बादरायणके उत्तरमीमांसा ब्रह्मसत्रोंके भाष्यका र्भ आरम्भ किया हो। इससे पूर्व 'तत्त्वार्थ दीप निबन्ध'के दूसरे सर्व निर्णय' प्रकरण में पूर्वमीमांसाके मूलतत्त्व देकर वहाँ ही भागवत मार्गकी उपयोगिता बतानेका प्रारंभिक प्रयत्न किया ही था। अब भाष्य द्वारा उस प्रयत्नोंको सनाथ करनेका मनोभाव असंभवित नहीं है ।
शुद्धाद्वैत वेदान्त-उनके शब्दमें तो 'ब्रह्मवाद', उसकी वैसी ही स्थिति थी। श्री विष्णु स्वामीका
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वही मत था। किन्तु उनका कोई ग्रन्थ बचा नहीं था, अतः उस सिद्धान्तका सविशेष प्रकाश 'ब्रह्म सूत्रों के 'अणुभाष्य' में बताना समुचित समझा गया ।
इस परिक्रकासे आप सं० १५५४ (ई० सं० १४६७) वैशाख सुदि ३ के दिन श्रीवल्लभ अपने दोनों सेवकोंके साथ विजयनगर आ पहुँचे। संभव है कि इस परिक्रमाके समयमें श्रीवल्लभने श्रीमद्भागवतकी सूक्ष्म टीका, पूर्वमीमांसा भाष्य एवं अणुभाष्य संपन्न करनेकी संभावना है। इन सभी ग्रन्थोंमें और बालबोध, सिद्धान्त मुक्तावलि, भक्ति वधिनी जैसे प्रकरण ग्रन्थों में कोई नया मत संप्रदाय प्रस्थापित करनेका पता चलता नहीं है। द्वितीय भारत परिक्रमा :
एक वर्ष के लिए विजयनगरमें ठहरकर सं० १५५५ (ई० सं० १४९९) चैत्र सुदि २ रविवारके दिन माताजीकी आज्ञा लेकर अपने उन दोनों सेवकोंके साथ निकल पड़े और वहाँसे यात्रा करते करते पंढरपुर फिरसे आ पहुँचे । वहाँकी यात्रा पूर्ण करके गुजरात सौराष्ट्र के अनेक तीर्थों में गये और बहुतसे स्थानोंमें श्रीमदभागवत पारायणका लोगोंको श्रबण कराया, वहाँसे मालवेमें आकर फिर बुंदेलखण्डमें वेत्रवतीके तोर प्रान्तपर आये हुए ओड़छाके प्रदेशमें आ पहुँचे । उस समय 'ओड़छा' प्रसिद्धि में आया नहीं था; राजधानी गढकुंडार नामक किलामें थी। उस समय वहाँ मलखान सिंह नामक राजपूत राजा (ई० स० १४६९-१५०२) था और उसके दरबारमें शांकरों एवं वैष्णवों के बीच वादचर्चा चल रही थी। घटसरस्वती नामक एक शांकर विद्वान् केवलाद्वैत वादका प्रबलतासे समर्थन कर रहा था। उसके सामने वैष्णवोंके लिए टिकना असंभव बन गया था। बरोबर उसी मौकेपर श्रीवल्लभ वहाँ आ पहुँचे, उनकी ख्याति इस पर्व भारतके विद्वानों में स्थापित हो गई थी। उनका आगमन सुनते ही राजा एवं श्रीवल्लभके सजातीय राजपण्डित विद्या देव और अन्य वैष्णव विद्वानोंको आनन्द हुआ । इस समय श्रीवल्लभका वय २७-२८का था। दोनों मीमांसा एवं भगवच्छास्त्रोंपर अच्छा काबू आ गया था। विजयनगरमें ही वाद शक्ति तो विकसित हो चुकी ही थी उन्होंने शास्त्रार्थमें भाग लिया और अन्तमें शांकर विद्वानोंको पराजित किया। राजाने प्रसन्न होकर श्रीवल्लभका कनकाभिषेक किया। यह उस समयका विद्वानोंके लिए एक बड़ा मान था।
इस मानकी प्राप्ति करके श्रीवल्लभ तीर्थराज प्रयागमें त्रिवेणी स्नानके लिए पहुँचे। और वह कार्य सम्पन्न करके काशी पहुँचे, जहां वि० सं० १५५९ (ई० सं० १५०२) वैशाख वदी २ के दिन मणिकणिका घाटपर स्नान करके वहाँ इकट्ठे हुए विद्वानोंके साथ विविध चर्चाका लाभ उठाया ।
भारतवर्षके विविध तीर्थों में जो दूषित परिस्थितिका अनुभव किया था उसका चित्र आपने अपने एक छोटे ग्रन्थ 'कृष्णाश्रय' में व्यक्त किया है। ऐसे जटिल समयमें सुकृती लोगोंको मार्गदर्शन देकर सत्पथपर लानेकी उनकी भावना बलवत्तर होती जाती थी। काशीमें उस समय चौड़ा गाँवके पूर्वपरिचित कृष्णदास चौपड़ा नामक क्षत्रियके पुत्र सेठ पुरुषोत्तमदास रहते थे और अपने निवास दरम्यान वहां उन्होंने ठीक-ठीक प्रतिष्ठा भी प्राप्त कर ली थी। मणिकर्णिका घाटपर उनको श्रीवल्लभका दर्शन एवं उनकी भक्तिपूर्ण विद्वत्ताका परिचय होनेपर शिष्य बननेकी भावना हुई। पूर्वपरिचयके कारण श्रीवल्लभने उनको भागवती दीक्षा दी और उनके घरपर जा ठहरे, जहाँ आपने दिनों तक श्रीमद्भागवतका व्याख्यान दिया। सबसे प्रथम, जन्माष्टमीके उत्सवपर, उनके घरपर नन्दमहोत्सव किया गया। पुरुषोत्तमदास सेठकी योग्यता देखकर श्रीवल्लभने उनको शरणार्थियोंको शरणदीक्षा देनेकी आज्ञा दी थी। 'कृष्णसेवामें तत्परता, दम्भादिदोषरहितता, श्रीमद्भागवतके तत्त्वका सबल ज्ञान जिनमें हो वह गुरु हो सके' ऐसा विधान 'तत्त्वार्थ दीपनिबन्ध'के दूसरे 'सर्वनिर्णय प्रकरण' में इस पूर्व किया ही था; उसका यहाँ पुरुषोत्तमदास सेठमें सबूत मिलता है। २८२ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ
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काशीपुरी विद्याका बड़ा धाम थी। बाल्यकाल यहाँ ही व्यतीत किया था, इस कारण कोई अपरिचितता नहीं थी। यहाँ चातुर्मासके दिनोंमें अनेक विद्वानोंके चर्चाविचारणाका मौका मिला, और इसके फलस्वरूप 'पत्रावलम्बन' नामक सुमधुर वादग्रन्थकी श्रीवल्लभके पाससे प्राप्ति हुई। पूर्वमीमांसा एवं उत्तरमीमांसा-दोनोंके सिद्धान्तोंका समन्वय इस ग्रन्थमें दीख पड़ता। दुःखका विषय है कि ग्रन्थका मध्यका कितनाक भाग नष्ट हो गया है। काशी विश्वनाथपर कितना श्रीवल्लभको आदर था वह भी इस ग्रन्थके अन्तभागको देखकर समझ में आता है। जैसा कि
स्थापितो ब्रह्मवादो हि सर्ववेदान्तगोचरः।
काशीपतिस्त्रिलोकेशो महादेवस्तु तुष्यतु ॥३॥ काशीमें उस समय करीब सात मासों जितना समय भगवच्चर्चा एवं शास्त्रचर्चामें और शरणार्थी जीवोंको भागवती दीक्षा देने में एवं ग्रन्थलेखनमें व्यतीत करके आप वि० सं० १५५९ (ई० स०१५०२)-व्रज मार्गशीर्ष वदी ७ शनिवारके दिन श्रीजगदीशके दर्शनके लिए निकल पड़े। जिस दिन आप जगन्नाथपुरीमें पहुँचे वह दिन एकादशीका था। जब दर्शनके लिए मन्दिरके प्रांगणमें पहुँचे उस समय किसी पण्डेने आकर श्रीजगदीशका महाप्रसाद आपके हस्तमें दे दिया। श्रीवल्लभने आदरपूर्वक ले लिया और वहाँ ही द्वादशीके सूर्योदय तक प्रभुके भजन-कीर्तनोंमें मशगूल बन रहे और सूर्योदय होते ही स्नान-संध्याकी झंझट किये बिना ही प्रेमपूर्वक प्रसादका प्राशन किया। यों एकादशीके व्रतको और प्रसादके सम्मानको अविचलित रखा। माताजोंको यहाँ ही बुला लिया और फिर काशीकी ओर गये।
श्रीवल्लभका वय तीस वर्षोंका हो गया था। माताजीको एक भारी व्यथा थी। बड़ा पुत्र रामकृष्ण विरक्त होकर चला गया था, छोटा पुत्र (भविष्यका एक अच्छा कवि) रामचन्द्र मौसालमें विजयनगर दत्तक गया था। माताजीकी व्यथा श्रीवल्लभ लग्न करे तब ही दूर हो सके ऐसा था । श्रीवल्लभका दिल विरक्ततामें जीवन व्यतीत करनेका था, किन्तु माताजीके ही आग्रहसे काशी में ही अपने सजातीय गोपालोपासक देवन भट्टकी पुत्री श्रीमहालक्ष्मीके साथ लग्न किया। लग्नके बाद पत्नीको उसके पिताके वहाँ ही रखा और माताजीको यात्रा करानेके लिए साथ लेकर निकल पड़े और अल्प समयमें विजयनगरमें आ पहुँचे । यहाँ मामाजीके वहाँ ठहरकर, लिखे हुए ग्रन्थोंका संस्करण कर लिया । मध्यस्थता और कनकाभिषेक
उस समय विजयनगरमें राजकीय दंगा शान्त हो चुका था और सेनापति तुळुव नरसिंहने साळुव वंशके निर्बल राजा इम्मडि नरसिंह (ई० स० १४८२-१५०५)को एक छोटे स्थानका राज्य सौंपकर अपना राजत्व स्थापित कर दिया। सेनापति नरसिंह स्वल्प समयमें ही मर गया और इसके बाद उसके बड़े पुत्र वीरनरसिंह (ई० स० १५०७-१५०९)के हाथमें राज्यधुरा आई । उसका मुख्य अमात्य नरास नायक था और राजाका छोटा भाई कृष्णदेव रायल सेनापति था। दोनोंने मिलकर विजयनगरके राज्यको अच्छी स्थिरता दी। दो ही वर्ष में नरसिंहका देहान्त हआ और कृष्णदेवको राजत्व मिला। वह राजा बड था। सेनापतिको हैसियतसे भी मन्दिरों एवं तीर्थोके उद्धारका कार्य बहत किया था। वह प्रतिवर्ष विद्वानोंको बुलाकर भिन्न-भिन्न विषयोंपर शास्त्रार्थ करवाता था और विजेताको कनकाभिषेक करवाकर मान देता था। उस समय विजयनगरमें मध्व सम्प्रदायके आचार्य व्यासतीर्थ (ई० स० १४४६-१५३९)का बड़ा मान था । कृष्णदेव पिताके समयमें जब सेनापति था उसी समय ई० स० १५०५ में द्वैत और अद्वैत सिद्धान्तोंकी एक बड़ी चर्चासभा रखी गई थी। एक ओर द्वैतमतवादी व्यासतीर्थ और दूसरी ओर केवलाद्वैतवादी शांकर
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पण्डितगण था। श्री अय्यण दीक्षितके रचे हए 'व्यासतात्पर्यनिर्णय' नामक ग्रन्थ पराजित आचार्यको सर्वथा पराजित मान लेना नहीं चाहिए। यों कहकर मास तक चले हए शास्त्रार्थका निर्देश किया है। शायद यही प्रसंगपर मध्यस्थके रूपमें पूर्वमीमांसाके उस समयमें अपने पूर्वमीमांसा भाष्यके कारण मान्य कोटिके और तब काशीसे आकर तीन सालसे ठहरे हुए दार्शनिक विद्वान् श्रीवल्लभको चुना गया। द्वैत और अद्वैत सिद्धान्तोंकी चर्चाके अन्तमें श्रीवल्लभने दिया हआ निर्णय दोनों पक्षोंको बाध्य था। उस समय मध्यस्थतामें कोई उत्तरमीमांसक होता तो निर्णयके विषयमें आपत्तिका भय रहता । श्रीवल्लभका पूर्वमीमांसापर पूरा काबू थाभाष्य तो लिखा ही था, उत्तरमीमांसापर भी 'अणुभाष्य' लिखा था। वादके अन्त में 'इच्छा-द्वैत' निर्णयमें देकर दोनों पक्षोंका समुचित समाधान किया और नियमानुसार राजा एवं सभी विद्वानोंकी ओरसे 'कनकाभिषेक के पात्र बने। कनकाभिषेक सम्पन्न होनेपर विरक्त-प्रकृतिके श्रीवल्लभने उस निमित्त मिले हुए द्रव्य स्नानजलवत् गिनकर वादी-प्रतिवादियोंके बीच बांट दिया। तब राजाने उनका तुलापुरुष-समारम्भ किया। राजाने १६००० मुद्रा श्रीवल्लभके चरणमें रखी, जिनमेंसे ८००० के आभूषण बनवाकर विजयनगरमें प्रसिद्ध श्रीविठ्ठलनाथजीको अर्पित कर दिये; ४००० अपने पिताजीके कर्ज में दे दी, और ४००० अपने गृहस्थ जीवनमें उपयुक्त हो इस कारण राजाके वहाँ जमा रखी।
इस प्रसंगके बाद श्रीव्यासतीर्थ श्रीवल्लभको मिले और मध्वसम्प्रदायको स्वीकार करनेको कहा, किन्तु श्रीवल्लभ अपने सिद्धान्तमें अचल थे।
विजयनगरके इस संमानमहोत्सवमें श्रीवल्लभको मध्यस्थी बननेके कारण सबोंसे आचार्यत्व मिल पाया था और अब आप श्रीवल्लभाचार्य बन पाये थे। विजयनगरके निवास दरम्यान 'तत्त्वार्थदीपनिबन्ध' का तीसरा प्रकरण की स्योपज्ञ टीकाका भी आरम्भ किया हो ऐसा प्रतीत होता है; कितनेक प्रकरण ग्रन्थ, गायत्री भाषादिक भी लिखे गये थे। तीसरी परिक्रमा और पुष्टिमार्गका विकास
आज तक श्रीआचार्यजी सामान्य विष्णुस्वामि संप्रदायानुयायी विद्वान के रूपमें भारतवर्ष में पर्यटन कर रहे थे। एक लघुयात्रा और दो बड़ी यात्राएँ कर चुके थे। अब स्वतन्त्र आचार्यके रूपमें प्रस्थापित होनेके कारण गौरवसे वे यात्राके लिए निकले, तो भी साथ में तो माताजी एवं दामोदरदास हरसानी और कृष्णदास मेघन ही थे। विजयनगरसे निकलकर रामेश्वर गये और वहाँसे लौटकर श्रीबालाजी आदिके तीर्थ करते-करते पंढरपुर आकर श्रीविठोबाके दर्शन किये और अपने पूर्वके स्थान में ही दूसरी दफे श्रीमद्भागवत-पारायण श्रवण करवाया। वहाँसे नाशिक आदि तीर्थ करते-करते जनकपुर आये और माणेकतालाबपर श्रीमद्भभागवत-पारायण श्रवण करवाया। इस समय विष्णुस्वामी संप्रदायके केवलराम नागा अपने ५०० शिष्यों के साथ शरण आया। आचार्य श्रीने उसको भागवती दीक्षा दी और उसके ही द्वारा उसके ५०० शिष्योंको दीक्षा दिलवाई।
वहाँसे गुजरात-सौराष्ट्र के प्रसिद्ध तीर्थों में श्रीमद्भागवत पारायण श्रवण कराते-कराते और शरणार्थियोंको भागवती दीक्षा देते-देते मारवाड़ की पूर्व सरहदके झारखण्ड नामक स्थलमें आ पहुंचे, यहाँ आचार्यश्रीके सुनने में आया कि अपने विद्यागुरु माधवेन्द्रयति व्रजमें गिरिराज गोवर्धनपर प्रगट हुए श्रीगोवर्धनधरण देवदमनकी सेवामें मस्त रहते थे उनकी कितनेक वर्षों पूर्व ही (ई० सं० १४८४ में ही) सद्गत होनेके कारण श्री..."की सेवाकी बहुत अव्यवस्था हो गई थी। आचार्य श्री झड़पसे ब्रजभूमिमें आ पहुंचे और व्रजमें आकर प्रथम मुकाम गोकुलमें गोविन्दघाटपर किया। वह दिन वि० सं० १५६३ (ई० सं० १५०६) श्रावण
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सुदि ११ गुरुवारका था। सारे दिनका उपवास था; प्रभु श्रीगोवर्धनधरणके दर्शनकी बड़ी उत्कटता थी। उसी उत्कटतामें कहा गया है कि वहाँ मध्यरात्रिके समय आपको भगवान् श्रीगोवर्धनधरणका साक्षात्कार हुआ। उस आचार्यश्रीने प्रभुको सर्वात्म भावपूर्वक आत्मनिवेदन किया और रेशमका कण्ठसूत्र प्रभुके कण्ठमें पहिराया। संप्रदायमें यह दिन तबसे 'पवितरा एकादशी'की संज्ञासे पुष्टिमार्गके प्राकट्य-दिनकी हेसियतसे माना जाता है। यों प्रतिवर्ष 'श्रावण शुक्ला एकादशी' पुष्टिमार्गीय वैष्णवोंके लिए परमोत्सवका दिन हो रहा है। इस प्रसंगका खयाल आचार्यश्रीने अपने 'सिद्धान्त रहस्य' नामक छोटे प्रकरणग्रन्थके आरम्भमें दिया है । जैसा कि
'श्रावणस्यामले पक्ष एकादश्यां महानिशि । साक्षाद्भगवता प्रोक्तं तदक्षरश उच्यते ॥१॥
ब्रह्मसंबन्धकरणात् सर्वेषां देहजीवयोः । सर्वदोषनिवृत्तिः ... ... ... ..." ॥२॥' पुष्टिमार्गका आविष्कार
पुष्टिमार्ग-कृपामार्ग-अनुग्रहमार्ग यों तो कोई नई बात नहीं है। सृष्टिके आरम्भसे ही सबोंके लिए भगवान्की कृपा अनिवार्य बन रही है। तारतम्य इतना ही है कि जीवोंका लक्ष्य सृष्टिके प्रवर्तक ब्रह्मपरमात्मा-भगवान्की ओर नहीं रहता है, केवल भौतिक तुच्छ सुखोंकी ओर ही सीमित रहता है-किसी जीवको ही इन तुच्छ, सुखोंके पार निःसीम-सुखात्मक भगवान्की ओर जाता है । मेरा कुछ ही नहीं है, यहाँ जो कुछ भी है वह क्षणिक है और मृत्युके बाद कुछ कामका नहीं, यहाँ एवं मृत्युके बाद जो कोई अविचलित वस्तु है वह केवल भगवान् ही है, अतः जगतके अपने सब कुछ व्यवहार प्रामाणिक रूपमें चलातेचलाते भी भगवदर्पण बुद्धिसे ही किया जाय, सतत भगवान्की शरणभावना ही रहे ।' गीतामें जिसकी सुस्पष्टता मिलती है वह शरणमार्ग ही 'पुष्टिमार्ग के मूलमें पड़ा है। दूसरे दिन प्रात:कालमें श्रीआचार्यजीने अपने प्रिय शिष्य और सेवक दामोदरदास हरसानीको प्रथम ही यह आत्मनिवेदन दीक्षा दी। उस दिन तक, जबसे श्रीवल्लभके सामान्यरूपमें आप दीक्षा देते थे वह विष्णस्वामि-परंपराकी गोपाल मन्त्रवाली भागवती दीक्षा थी। पिताजीसे आपको यह दीक्षा मिली थी और कृष्णसेवापर दम्भादिरहित और श्रीभागवतके जाननेवाले किसी भी अधिकारी वैष्णवराजके द्वारा भी होती थी; पुष्टिमार्गीय आत्मनिवेदन दीक्षा अब अधिकृत गुरुसे ही होनेका प्रघात शुरू हुआ, क्योंकि इस आत्मनिवेदन-दीक्षा स्वयं भगवान्ने श्रीवल्लभाचार्यजीको दी और आपने अपने प्रिय शिष्य दामोदरदास हरसानीको देकर प्रणालीका आरम्भ किया। श्री आचार्यजीकी कोटिका पुरुष ही यह दीक्षा दे सके इतना इस दीक्षाका गौरव रहा । इसी कारणसे श्रीवल्लभ कुलमें ही गुरुत्व भावना स्थिर रही है । इतर किसी भी वैष्णवको एवं श्रीवल्लभवंशमें पुत्रियों और वधुओंका यह अधिकार नहीं रहा है।।
आज पुष्टिमार्गमें क्रमिक दो दीक्षाएँ होती हैं । १ प्राथमिक दीक्षाको 'नामनिवेदन' या 'शरणदीक्षा कहते है और २. द्वितीय सर्वोच्चदीक्षाको 'आत्म निवेदन' या 'ब्रह्मसंबन्ध दीक्षा' कहते हैं। प्रथम दीक्षाओंमें शरणके लिए आये हए किसी भी जीवको "श्री कृष्णः शरणं मम' यह अष्टाक्षर मन्त्र गुरुकी ओरसे कानमें बोला जाता है । और तुलसी कण्ठी गले में पहिनाई जाती है। दूसरी दीक्षामें ऐसे नाम निवेदन प्राप्त जीवको पूर्व दिनके लिए शुद्धि पूर्वक उपवास व्रत कराया जाता है । दूसरे दिन प्रातः कालमें स्नानादिकसे निवृत्त होकर अत्यन्त शुद्ध रूपमें आये हए दीक्षार्थीको गरुके समक्ष शरण भावना पर्वक जानेका होता है। गुरु दीक्षार्थीके दाहिने हाथमें तुलसी पत्र रखवाकर आत्म निवेदन मन्त्रका अर्पण कराते हैं। माना गया है कि यह मूल मन्त्र 'दासोऽहं, कृष्ण, तवास्मि' इतना छोटा ही था, जो श्रीआचार्यजीको भगवानकी ओरसे मिला, श्रीआचार्यजीने
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इसके आगे 'सहस्रपरिवत्सरमितकालजात-कृष्णवियोगजनिततापक्लेशानन्दतिरोभावोऽहं भगवते कृष्णाय देहेन्द्रियप्राणान्त:करणानि तश्चि दारागारपुत्राप्तवित्तेहपराणि आत्मना सह समर्पयामि'-(असंख्य वर्षोंका समय व्यतीत हो गया है। इस कारण, भगवान्से वियुक्त होनेका जो ताप क्लेश होना चाहिए वह तिरोहित है वैसा मैं (शरण प्राप्त जोव) देह, इन्द्रिय, प्राण, अन्तः करण और इनके धर्मों, एवं स्त्री, घर, पुत्र, रिश्तेदारों, संपत्ति, ऐहिक और पारलौकिक सभीका आत्मा सह भगवान् श्रीकृष्णको समर्पण करता हूँ) इतना भाग स्पष्टताके लिए संमिलित किया। श्रीआचार्यजीके पौत्र श्रीगोकुलनाथजीके घरमें 'भगवते कृष्णाय श्रीगोपीजनवल्लभाय ऐसा कहा जाता है।
'सर्वधर्मान परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज' (भ. गो० १८१५४) और 'ये दारागारपुत्राप्तान् प्राणान् वित्तमिमं परम् ।' (भाग०,९-४-६५), 'दारान् सुतान् गहान् प्राणान् यत् परस्मै निवदेनम् ।' (भाग० ११-३-२८), एवं 'कायेन वाचा मनसेन्द्रियैर्वा बुद्धयात्मना वानुसतस्वभावात् । करोति यद् यत् सकलं परस्मै नारायणायेति समर्पयेत् तत् ।' (भाग० ११-२-३६)-इन वाक्योंका ही यह संक्षेप है। यों कुछ भी नयी बात न कहते प्राचीन प्रणालीका ही पुनरुज्जीवन किया गया है।
दामोदरदास हरसानीको प्रथम दीक्षा देकर फिर तुरन्त कृष्णदास मेघन, और नये शिष्यों-प्रभुदास जलोरा क्षत्रिय, रामदास चौहाण आदि वैष्णवोंको दीक्षा दी। इस कार्यकी विशिष्टताका कुछ खयाल 'तत्त्वार्थ दीपनिबन्ध'के दूसरे प्रकरणके 'सर्वत्यागेऽनन्यभावे....' (२१८-२१९) आदि दो श्लोकों में मिलता है।
___ सामान्य भक्तिमार्ग-भागवतमार्गसे आगे बढ़कर श्री आचार्यजीने विशिष्ट भक्तिमार्ग-पुष्टिमार्गका आविष्कार किया, और अब आप ही इस मार्ग के प्रधान सुकानी बने । इनके पूर्व सिद्धान्तमें साधन भक्ति और शुद्धाद्वैत ब्रह्मवाद था, माहात्म्यज्ञानसे पूर्ण भक्तिकी चरम कोटिमें अक्षर ब्रह्मके साथ किसी भी एक प्रकारका मोक्ष में ही इतिकर्तव्यता थी। अब जो नया आविष्कार हआ वह किसी भी प्रकारके ज्ञानसे निरपेक्ष निःसाधन प्रेमलक्षणाके फलस्वरूप किसी भी दशामें भगवल्लीलाका साक्षात् अनुभव और देहान्तके बाद भगवल्लीलासहभागिताकी कोटिका था। श्रीगोवर्धनधरण श्रीनाथजी
श्रावण शुक्ला द्वादशीके पुष्टिमार्गके नये आविष्कारको सम्पन्न करके आप शिष्योंके साथ श्रीगोवर्धन पर्वतपर पहुंचे और सबसे प्रथम मयूरपिच्छका मुकुट एवं पीताम्बर काछनीका श्रीगोवर्धनधरणके स्वरूपको श्रृंगार करके भोग धराया। संप्रदायमें उस दिनसे श्री का श्रीनाथजी नाम आपने प्रसिद्ध किया। आचार्यधोने पुष्टिमार्गीय सेवाप्रकार-नन्दालयकी भावनासे शुरू किया और श्री"की सेवाका अधिकार रामदास चौहाणको एवं कीर्तनकी सेवाका कुम्भनदासजीको सौंपा। प्रभुको गायों पर बहुत प्रेम है इस कारण अपनी ओरसे एक गाय खरीद करवाकर श्री.""की सेवाके लिए दी। और थोड़े ही समयमें वहाँ बड़ी गोशाला बन गई। द्वादशवनी ब्रजपरिक्रमा
इस असामान्य कार्य को सम्पन्न करके आपने भगवान् बाल कृष्ण के विहार स्थान ब्रजभूमिके वारह वनोंकी भक्ति भावपूर्ण परिक्रमाका वि० सं० १५६३ (ई० स० १५०६) व्रज आश्विन वदि १२ के दिन मथुरामें विश्रामधाटपर संकल्प करके गोरको साथ लेकर आरम्भ किया । आगे जाकर श्रीगोकुलनाथजीके व्रज चौरासी कोस-परिक्रमा प्रघात पाड़ा इसका यह द्वादशवनी परिक्रमा मूल था। परिक्रमामें जब आप भांडरी बनमें आये 'तब वहाँ मध्व संप्रदायके विजयनगर वाले आचार्य व्यासतीर्थजी मिले। उन्होंने श्रीवल्लभाचार्यजीके
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समक्ष अपनी पूर्वकी विज्ञप्तिका पुनरुच्चारण किया, किन्तु आपने सविवेक अनिच्छा बताई, आगे बढ़कर अब तो स्वतन्त्र निर्गुण भक्ति मार्ग-पुष्टिमार्गके प्रचारकी ही अपनी भावना व्यक्त की। भिन्न-भिन्न वनोंकी परिक्रमा करके आप फिर श्रीगोवर्धन गिरिपर आये वहाँ श्रीनाथजीका प्रथम अन्नकूटोत्सव संपन्न किया। दूसरे दिन भाई दूजको मथुरा प्रातः कालमें पहुँचकर विश्राम घाटपर परिक्रमा पूर्ण करके अपने गोर उजागर चौबेको एक सौ रुपये दक्षिणामें दिये, यों श्रीयमुनाजोका और यमद्वितीयाके दिनका आपने माहात्म्य बढ़ाया। काशी निवास : सुबोधिनी लेखन
श्रीगोबर्धन पर्वतपर श्रीनाथजीके सेवा क्रमकी व्यवस्था करके, एवं द्वादशवनी परिक्रमा और श्रीयमुनाजीके माहात्म्यको बल देकर-यों नयी प्रणालियोंके साथ पुष्टिमार्गका नये स्वरूपमें आविष्कार करके अपनी चालू भारतवर्षकी परिक्रमा आगे बढ़ाने के लिए आप झारखण्ड में वापस जा पहुंचे वहाँसे आगे अनेक तीर्थ करते करते तीसरी दफे श्रीजगन्नाथ पुरी आये और वहाँ पूर्वके नगर द्वारके नजदीक एक सुन्दर स्थानपर श्रीमद्भागवत पाराणयका श्रवण कराया। आगे दूसरे महत्त्वके तीर्थ करते करते आप माताजी और सेवकोंके साथ काशीमें वापस आ पहुँचे। काशीमें पुरुषोत्तमदास सेठके यहाँ रहनेकी व्यवस्था थी ही, यहाँ आनेके बाद पत्नीका द्विरागमन संपन्न हुआ और स्वस्थता प्राप्त करके श्रीमद्भागवतकी दूसरी टीका 'सुबोधिनी' लिखनेका आरम्भ किया। आपका नियम था कि आप बोलते जाँय और उनके शिष्य माधवभट्ट काश्मीरी लिखते जाँय। प्रवासमें भी यही क्रम चालू था। दूसरे भी पुष्टिमार्गपर छोटे छोटे प्रकरण ग्रन्थमें यहाँ बनते जाते थे।
काशीके निवास दरम्यान विद्वानोंके साथ वाद विवाद और चर्चाओंकी झंझट रहती थी, सुबोधिनी लेखनमें यह बाधारूप था। इस कारण आपने प्रयाग त्रिवेणी नजदीक पश्चिम तीरपर अडेलके पासका एक स्थान पसन्द किया और पारंपरिक चले आते अग्निहोत्रको भी वहाँ स्थिर किया। बीच बीच यात्राके लिए आप ब्रजमें आते थे । ऐसे ही एक समय गौरांग श्रीचैतन्य महाप्रभुका मिलाप हो गया था। वि० सं० १५६८ (ई० स०१५११)में फागुण सुदि६ के दिन आप वृन्दावन आये तब वहाँ चार मास ठहरे थे। और दो स्कन्धोंकी सुबोधिनी टीकाका लोगोंको श्रवण करवाया था; भाण्डीरवनकी कुज्जोंमें रूप, सनातन और जीव गोस्वामीके साथ भगवच्चा भी हुई थी। आप अपने कूटुम्बको वृन्दावन में ही रखकर उत्तराखण्डकी यात्रामें गये थे । सं० १५६८ (शक १४३३-ई० स० १५११) के अन्त में आप बदरी नारायण पहुँचे थे। और वहाँके गोर वासुदेवको वृत्तिपत्र लिख दिया था। वृन्दावन वापस जाकर आ गये तब बारंबार प्रकाण्ड भगवद्भक्त श्रीमधुसूदन सरस्वतीका आवागमन और भगवच्चर्चा चालू थी। एक प्रसंगपर गौरांग श्रीचैतन्य महाप्रभुजी अडैलके पाससे निकले और श्रीआचार्यजीके वहाँ मिलने के लिए आये। उस समय मध्याह नका था और श्री" का राजभोग हो गया था। सब लोग प्रसाद लेकर निवृत्त हो बैठे थे। श्री आचार्यजीने पत्नीको सामग्री तुरन्त तैयार करनेको कहा। एक ओर भगवच्चर्चा होती रही और दूसरी ओर पाक संपन्न होता चला । तयारीपर पत्नीने श्री...'को जगाने के लिये विज्ञप्ति की, जिससे सामग्नी श्री.""को समर्पित की जाय और बादमें श्रीचैतन्यजीको प्रसाद लिवाया जाय-क्या भगवद्भाव ! आचार्यजीने कहा कि 'श्री'को जगानेकी कोई जरूरत नहीं है। श्रीचैतन्यजीके हृदयमें निरन्तर बिराजते हुए भक्ताधीन भगवान् साक्षात् अरोगेंगे; अतः सब सामग्री उनके समक्ष ही घर दो', इस प्रसंगके बाद भी एक दो दफे श्रीचैतन्य महाप्रभु और श्रीआचार्यजी महाप्रभुका मिलाप हुआ था।
अड़ेल में स्थिर होने के बाद विजयनगरमें राज्यमें जमा रखी हुई ४००० मोहरोंकी रकम मंगवा ली
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और तीन सोमयाग बड़े समारम्भोंसे संपन्न किया। अडेलके निवास कालमें आप ब्रजमें जाते थे और भारतवर्षके अन्य तीर्थों में भी जाते थे। आचार्यश्रीकी धर्माचार्य रूपकी ख्याति अब सर्वत्र प्रसृत हो गई थी। सिकन्दर लोदी ( ई० स० १४८८-१५१९) का आचार्यश्रीकी ओर बड़ा आदर था और अपने चित्रकारको भेजकर 'दामोदरदास हरसानी दण्डवत् प्रणाम करते हैं', कृष्णदास मेघन बैठे हैं और माधवभट्टकाश्मीरीको श्रीआचार्यजी सुबोधिनीजी लिखाते हैं इस प्रकारका चित्र भी बनवाया था, जो आज किशनगढ़ नरेशके पास सेवामें है। सिंकदर लोदीसे हुकम हो गया था इस कारण ब्रजभूमिमें भारतवर्षकी हिन्दू प्रजाको यात्राकी सुविधा हो गई थी; कितनेक लोग अडेल तक भी आचार्यश्रीके दर्शनके लिए जाते थे यों अब शिष्योंकी तादात भी उत्तरोत्तर बढ़ती जाती थी। पुत्रप्राप्ति और प्रयाण
अडेलके स्थायी निवासमें सं० १५७० (ई० स० १५१३) ब्रज आश्विनवदि १२ के दिन श्रीगोपीनाथजीका प्राकट्य हुआ। बाद जब काशी पधारे तब वहाँ न ठेरते नजदीकके पूर्वपरिचित चरणाट नामक स्थानमें रहे, जहाँ सं० १५७२ ( ई० स० १५१५ )--ब्रज पौस वदि ९ शुक्रवारके दिन दूसरे पुत्र श्रीविठ्ठलनाथजीका प्राकट्य हुआ। यहाँ तक भागवत सुबोधिनीके १-२-३ स्कन्धके लेखन कार्य हो चुका था। अब शायद देह छोड़ने का प्रसंग आ जाय, इस शंकासे आपने १० वें स्कन्धकी टीका लिखना शुरू किया। अडेल एवं चरनाटके निवास दरम्यान ब्रजयात्राका उनका क्रम चाल था। और एक बार तो सं० १५७५ (ई० स० १५२७) में सौराष्ट्रमें द्वारका भी गये थे ऐसा प्रमाण मिला है । जब यह देह छोड़नेका प्रसंग आया तब ११ वें स्कन्धके तीन अध्यायकी टीका पूर्ण हुई थी और ४ थे अध्यायके आरम्भ मात्र किया था। आप खुद कहते हैं कि भगवानकी तीसरी आज्ञा हुई और आपने आतुर संन्यास लिया । आप काशी पधारे और वहाँ हनुमान घाटपर तेज पुंजके रूप में देहत्याग किया-सं० १५८७ (ई० स० १५३०) के आषाढ़ वदि २ ऊपर ३ को रथयात्राके उत्सवकी समाप्तिके समय ही।
दोनों पुत्रोंकी आयु इतनी बड़ी नहीं थी। आपके शिष्योंने रक्षण भार उठा लिया। श्रीगोवर्धन पर्वत पर श्रीनाथजीकी सेवाका वहीवट सुव्यवस्थित रूपमें चला जा रहा था। उत्तरावस्थामें गुरु माधवानन्दजी और इनके बाद बंगाली वैष्णव सेवामें रहते थे। क्रममें कुछ वाधा उपस्थित हई तब आचार्यजीके एक शिष्य गुजराती कृष्णदासजीने वही वट कबज करके पुष्टिमार्गीय पद्धतिसे सेवा प्रकार चलनेकी व्यवस्था की। श्रीगोपीनाथजीको एक पुत्र हुआ था। बचपनमें उसका देहान्त हुआ। श्रीगोपीनाथजी भी युवावस्थामें गये और पुष्टिमार्गके प्रसार प्रचारका भार श्रीविठ्ठलनाथजी पर आया। आप चरणाटमें ज्यादा करके रहते थे। वे अब मथुराजीमें आ बसे, वे बड़े दार्शनिक पण्डित एवं कवि भी थे। पिताजीकी ग्रन्थ लेखन और संप्रदाय प्रसारकी प्रणालीको उन्होंने प्रबलतासे आगे बढ़ाया । इस संप्रदायने ब्रजभाषाकी अपार सेवा की है। आचार्यश्रीके चार सेवक कुम्भनदासजी, सूरदासजी, परमानन्ददासजी और गुजराती कृष्णदासजी ने श्रीनाथजीकी कीर्तन सेवामें, कृष्ण लीलाके सहस्रों पदोंकी रचना दी, तो श्रीविठ्ठलनाथ गुसांईजीके चार सेवक चत्रभुजदासजी, नन्ददासजी गोविन्द स्वामी और छीत स्वामीने उनमें बड़ी भारी संख्याका प्रदान किया। आगे भी अनेक कवियोंने अपनी कीर्तन सेवासे ब्रजसाहित्यको बड़ा महत्त्व दिया । . श्रीविठ्ठलनाथजीके सात पुत्र हुए और उनके सात घरोंकी सात गादी हई। इस सिवा समग्र भारतवर्ष में अनेक नगरोंमें, गाँवों में पुष्टिमार्गीय मन्दिरों में भगवान् श्रीकृष्णके ही भिन्न भिन्न लीला स्वरूपोंकी सेवाका क्रम चलता है। पुष्टि मार्गका आज प्रधान स्थान मेवाड़ में पधारे हुए श्री नाथजीका नाथद्वारमें है।
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द्वैत-अद्वैत का समन्वय
श्री आनन्दस्वरूप गुप्त प्राच्य तथा पाश्चात्य देशोंके सभी अध्यात्म-दर्शन द्वैतपरक या अद्वैतपरक इस प्रकारके दो विभागोंमें विभक्त किये जा सकते हैं। ऊपरी दृष्टिसे ये एक दूसरेके विपरीत प्रतीत होते हुए भी ये दोनों ही प्रकारके दर्शन (तत्त्वज्ञान) वस्तुतः परस्पर समन्वयात्मक हैं, और मनुष्यजीवनके विकासस्तरके भेदसे मानवजीवनके लिए दोनोंका ही उपयोग है । परन्तु पाश्चात्य दर्शनका मुख्य उद्देश्य जहाँ परमतत्त्व (ultimate Reality) का प्रायः बौद्धिक ज्ञान प्रदान करना है वहाँ प्राच्य दर्शनका-विशेषतः भारतीय दर्शनका लक्ष्य मनुष्यको बुद्धिसे ऊपर उठाकर उसे परमतत्त्वका दर्शन (साक्षात्कार) कराना है ओर पुनः जीवनके व्यावहारिक क्षेत्र में उस दर्शन या साक्षात्कारका अवतरण कराना है। अतः द्वैत तथा अद्वैत दोनों ही प्रकारके भारतीय आध्यात्मिक दर्शन केवल बुद्धिकी ही वस्तु न रहकर सम्पूर्ण जीवनकी वस्तु बन गये । इसीलिए प्रायः भारतके सभी दार्शनिक तथा मनीषी सच्चे अर्थ में तत्त्ववेत्ता तथा आत्मदर्शी थे। उनका दर्शन-ज्ञान उनके जीवन में ओतप्रोत था। वैसे तो पश्चिममें भी हमें शोपनहार जैसे कुछ दार्शनिकोंके रूपमें ऐसे उदाहरण मिलते हैं। परन्तु ये पाश्चात्य दार्शनिक प्रायः भारतीय तत्त्वज्ञान तथा आध्यात्म ग्रन्थों (गीता, उपनिषद् आदि) से प्रभावित थे।
द्वैत तथा अद्वैत तत्त्वज्ञानका जीवनके व्यवहारक्षेत्रमें जहाँ अलग अलग भी उपयोग है, वहाँ इन दोनोंका जीवनमें समन्वय भी सम्भव है। ऐसा समन्वय ही प्रस्तुत लेखका विषय है। भारतीय दृष्टि प्रायः समन्वयात्मक हो रही है और है; भारतीय दृष्टिसे जीवनमें द्वैत अद्वैतके इस प्रकारके समन्वयका कुछ दिग्दर्शन यहाँ उपस्थित किया जा रहा है। इन्द्रियजन्य ज्ञानकी सापेक्षता तथा अनेकरूपता
सभी इन्द्रियजन्य ज्ञान सापेक्ष हैं। किसी भी इन्द्रिय द्वारा जब हमें किसी पदार्थका बोध होता है तो हमारा वह इन्द्रियजन्य बोध किसी विशेष दृष्टिकोण तथा विशेष परिस्थितिके विचारसे ही यथार्थ कहा जा सकता है, क्योंकि किसी भिन्न दृष्टिकोण तथा भिन्न परिस्थितिके विचारसे वही बोध अयथार्थ भी कहा जा सकता है। इन्द्रियजन्य ज्ञानकी भाँति हमारा मानसिक तथा बौद्धिक ज्ञान भी सापेक्ष ही है। विश्वको जिस रूपमें हमें प्रतीति होती है वह प्रतीति ज्ञाता और ज्ञेयकी विशेष परिस्थितिपर, तथा ज्ञानग्राहक इन्द्रियोंकी विशेष रचना तथा अवस्था पर भी निर्भर होती है। यदि हम (ज्ञाता) और बाह्य प्रपंच (ज्ञेय) किसी भिन्न परिस्थितिमें होते, और हमारी इन्द्रियों की रचना भी भिन्न प्रकार की होती. तो यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है, कि उस दशामें विश्वविषयक हमारे ज्ञानका स्वरूप कुछ और ही होता । सीधी लकड़ी भी जलके भीतर तिरछी प्रतीत होती है और नेत्र तिरछा करके देखनेसे कभी-कभी एक चन्द्रमाके दो चन्द्रमा प्रतीत होते हैं । पाण्डु रोगके कारण नेत्रोंके पीत वर्ण होनेसे सभी वस्तुएं पीली दिखाई पड़ती हैं । अणुवीक्षण यन्त्रसे छोटी वस्तु बहुत बड़ी, तथा दूरवीक्षण यन्त्र से दूरस्थ वस्तु समीपस्थ प्रतीत होती है, दूर
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पर स्थित होकर देखनेसे बड़ी वस्तु भी छोटी प्रतोत होती है, तथा अत्यन्त निकट होनेसे दिखाई देने योग्य
वस्तु (अक्षर इत्यादि) भी दिखाई नहीं देती। प्रेमीको कुरूप प्रिय भी सुम्दर प्रतीत होने लगता है, ज्वरादित व्यक्तिको मीठी वस्तु भी कड़वी लगती है। ऐसी स्थितिमें यही कहा जा सकता है कि हमारा सारा ज्ञान सापेक्ष ही है । अतः यह निश्चय पूर्वक नहीं कहा जा सकता कि व्यक्त जगत् जैसा हमें प्रतीत हो रहा है वह वस्तुतः वैसा ही है । यदि हमारे इन्द्रियोंका निर्माण अन्य प्रकारका होता तो सम्भव है जगत् की प्रतीति भी हमें कुछ भिन्न प्रकार की होती और यदि मानव जातिके सौभाग्यवश मनुष्य में किसी छठी ज्ञानेन्द्रियका भी विकास हो जाय अथवा किसी कारणसे वर्तमान पंच इन्द्रियोंका अलौकिक विकास या दिव्यीकरण हो जाय तो सम्भव है बहुत सी सत्ताएं जिसका हमें किंचित् मात्र भी अनुमान नहीं है, प्रत्यक्ष होकर मनुष्य की सारी ज्ञानधाराको ही परिवर्तित कर दें।
निरपेक्ष पारमार्थिक तत्त्वज्ञानका स्वरूप
अतएव प्रतीत होने वाला रूप वस्तुका यथार्थ रूप नहीं है। भिन्न-भिन्न व्यक्तियोंको यदि एक पदार्थ की समान रूपमें भी प्रतीति होती है तो उसका कारण केवल यही है कि उन भिन्न भिन्न व्यक्तियों की उन उन ग्राहक इन्द्रियोंमें समानता है और फिर भी किसी भी पदार्थके विषयमें किन्हीं भी दो व्यक्तियों की प्रतीति शतप्रतिशत एक समान ही है, यह कभी भी सिद्ध नहीं किया जा सकता। पुनः एक ही वस्तु ज्ञानविशेष तथा परिस्थिति विशेषके कारण प्रिय, अप्रिय, सुखरूप, दुःखरूप, सुन्दर, कुरूप, छोटी बड़ी इत्यादि भिन्न-भिन्न रूपों में प्रतीत होती है। इसलिए भिन्न-भिन्न प्रतीत होने वाला रूप वस्तुका यथार्थ रूप नहीं है, वस्तुतत्त्व नहीं है । अतः कोई भी इन्द्रियजन्य प्रतीति तत्त्वज्ञान नहीं कही जा सकती । तत्त्व अर्थात् वस्तुके यथार्थ स्वरूपमें तो कोई भी भेद होना सम्भव नहीं है । अतः तत्त्वज्ञानमें भी भेद नहीं होना चाहिए, वह ज्ञान पारमार्थिक तथा निरपेक्ष होना चाहिए । इसलिए जितनी भी सभेद प्रतीति है वह सभी अयथार्थ है, मिथ्या है। तत्व तो सदैव ही भेदरहित और एकरस बना रहेगा। जो तत्त्व है एवं वस्तुतः सत् है वह तो अद्वैत और अद्वयके अतिरिक्त कुछ और हो ही नहीं सकता। विवर्तमान है, वह वस्तुका सत्का, पारमार्थिक स्वरूप नहीं है। वाचारम्भणमात्र है ।' विकारों की प्रकृति अर्थात् मूल पारमार्थिक वह स्वरूपतः अविकार्य है। वह मूलतत्त्व, वह पारमार्थिक सत्ता, है । परन्तु है वह मूलतत्त्व एक और अखण्ड । इस अद्वैत तत्त्व की मानव की जीवनयात्राका चरम लक्ष्य है ।
सभी भेद केवल प्रतीतिमात्र है- सत्का सभी विकार नाशवान् है, अतएव असत् है सत्ता ही यथार्थ सत् और शाश्वत है, और चेतन है अथवा जड़ यह एक अलग प्रश्न बाहर भीतर सर्वत्र यथार्थ उपलब्धि ही
मानव जीवन की साध - अद्वैत तत्त्वका साक्षात्कार
अनादिकाल से मानव हृदय उस अद्वैत तत्त्वकी प्राप्तिके लिए व्याकुल होता चला आ रहा है, मानव उसी अनादि तथा अनन्त तत्त्वकी खोजके लिए अनादिकालसे अपनी अनन्त यात्रा चला रहा है और उसकी सारी पेष्टाओंका पर्यवसान उसी एक तत्व के ज्ञानमें होना सम्भव है। मानव ही क्या, विश्वका अणु-अणु तीव्रतम वेगसे गतिशील है मानों वह अपने किसी प्रियतमसे मिलनेके लिए छटपटा रहा है, और उस सुखद मिलनके लिए थोड़ा भी विलम्ब सहन करनेके लिए तैयार नहीं है। वह किसी
१. यथा सौम्यैकेन मृत्पिण्डेन सर्व मृन्मयं विज्ञातं स्वाद्, वाचारम्भणं विकारो नामधेयं मृत्तिकेत्येव सत्यम् ।
( छा० उप० ६-१-४)
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अनिर्वचनीय सत्यकी अनुभूतिके लिए एक ऐसी लम्बी दौड़ लगा रहा है जिसका विराम कहीं भी होने वाला प्रतीत नहीं होता।
परन्तु इन्द्रिय सोपान द्वारा इस पारमार्थिक तत्त्व, इस परम सत्य, तक पहुँचने की आशा मनुष्य के लिए केवल दुराशामात्र ही रही है । मनुष्य-हंस अपनी मधुर कल्पनाके सुन्दर पंखों द्वारा उस एकमात्र परमतत्त्व की प्राप्तिके लिए निरन्तर ऊपर-ऊपर उड़ता जा रहा है, सहस्रों दिन बीत गये, पर उसके वे पंख अभी तक फैले ही हुए हैं। संसारके विविध प्रकारके अनुभवों को लेता हुआ, प्रकृतिके अनेक दुर्भेद्य रहस्यों को भेदन करता हुआ, अद्भुत अद्भुत आविष्कारों द्वारा अपने बुद्धि-वैभवका चमत्कार दिखाता हुआ वह निर्वाध गतिसे ऊपर उड़ा चला जा रहा है । और उस स्वर्ग, उस आनन्दपद की प्राप्तिके लिए लालायित है, जिसको प्राप्त करनेके लिए ही उसने अपनी यह अद्भुत उड़ान आरम्भ की है। अद्वैत तत्त्व या परम सत्य की अवाङमनसगोचरता
जिन सौभाग्यशाली व्यक्तियों को, जिन क्रान्तदर्शी ऋषियों को, कभी इस परम सत्य की झांकी मिली उन सभीका यही अनुभव है कि वह परमतत्त्व अवाङ्मनसगोचर है, क्योंकि वाणी तो सापेक्ष वस्तुका ही सापेक्ष वर्णन कर सकती है, और मन भी सापेक्ष वस्तुका सापेक्ष चिन्तन, संकल्पन करने में ही समर्थ है। नेत्रों तथा श्रोत्रों की तो वहाँ पहुँच ही क्या हो सकती है ? अतएव जिन ऋषियोंको उस अद्वैत तत्त्वका साक्षात्कार हुआ, उनका वह अनुभव उन्हीं तक सीमित रहा। अपने उस साक्षात्कारका वे न तो वाणी द्वारा हो वर्णन कर सके, और न किसी प्रकारसे परम तत्त्व की अपनी उस अनुभतिको वे सामान्य जनता की चीज बना सके वे तो नेति नेति कहकर ही चुप हो गए, उनके लिए उनका वह अनुभव गूगेका गुड़ ही बना रहा । उन्होंने स्पष्ट कह दिया कि "परम तत्त्व को यह हमारी अनुभूति उपदेशका विषय नहीं, क्योंकि न तो वहाँ चक्षु की हो पहुँच है न वाणी की और न मन ही अपने सारे विद्युद्वेगसे वहाँ पहुँचने में समर्थ है। अतः हम नहीं जानते कि किस प्रकार इसका अनुशासन (उपदेश) करें।" इस प्रकारके साक्षात्कर्ता ऋषि सभी देशोंमें होते आए हैं। यद्यपि वे सभी परम तत्त्वका वर्णन विधिमुखेन न कर सके, फिर भी उन्होंने उसकी ओर निर्देश किया और अपने जीवन की उच्चता तथा महत्तासे मानवको श्रद्धाका अवलम्बन दिया। श्रद्धाके उस संबलको पाकर ही जिज्ञासु पथिक उत्साह सम्पन्न होकर आगे बढ़ता चला जा रहा है। उसका लक्ष्य है परम सत्य, अद्वैत तत्त्वकी प्राप्ति, भेदमें अभेद (unity in divesity)की अनुभूति, तथा अखिल प्रपंचके मलमें निहित किसी अनिर्वचनीय अखण्ड सत्ताका साक्षात्कार । ज्ञानका आधार तथा लक्ष्य-भेदमें अभेदको अनुभूति
वस्तुतः देखा जाय तो मनुष्यके सारे ज्ञानका आधार तथा लक्ष्य भेदमें अभेदकी अनुभूति ही है, चाहे वह ज्ञान इन्द्रियज हो किंवा अतीन्द्रिय । व्यक्ति विषयक ज्ञान अनेक व्यक्तियोंमें समवेत एकजाति (सामान्य सत्ता)के ज्ञान पर ही अवलम्बित है, जातिसे विच्छिन्न व्यक्तिको प्रतीति असम्भव है । नैयायिकोंका निर्विकल्पक तथा बौद्धोंका स्वलक्षण ज्ञान तो केवल कहने की ही बात है प्रतीतिका विषय नहीं। वह ज्ञान रेखागणितके विन्दुके समान कोरी कल्पनाका विषय है। अतः हमारे व्यावहारिक ज्ञानका आधार भी अनेकतामें एकता की
१. कथं वातो नेलयति कथं न रमते मनः ।
किमापः सत्यं प्रेरयन्ती नेलयन्ति कदाचन ॥ (अथर्ववेद १०-७-३७) २. "सहस्राह ण्यं वियतौ अस्य पक्षौ हरेहंसस्य पततः स्वर्गम्' (अथर्ववेद १०-८-१८) २. "न तत्र चक्षुर्गच्छति न वाग्गच्छति न मनो न विद्मो न विजानीमो यथैतदनुशिष्याद" (केनीप०१-३)
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अनुभूति ही है। क्योंकि अनेकता ज्ञानके लिए एकताका ज्ञान अपेक्षित है। "गो' व्यक्तिके ज्ञानके लिए गो व्यक्तियोंमें समवेत "गोत्व" जातिका ज्ञान अनिवार्य है।
जहाँ हमारे व्यावहारिक ज्ञानका आधार भेदमें अभेद, अनेकतामें एकताकी अनुभूति है, वहाँ शास्त्रीय ज्ञानका आधार तथा लक्ष्य भी भेदमें अभेद, द्वैतमें अद्वैत को अनुभति ही है। कुशल वैज्ञानिक अनेक प्रकारके पदार्थोंका निरीक्षण करके उनमें कुछ समान तत्त्वोंका अनुसंधान करता है, तथा उनका वर्गीकरण करता है, पुनः अनेक वर्गों या श्रेणियोंको भी एक बड़े तथा व्यापक वर्ग या श्रेणीमें निबद्ध करता है, इस प्रकार क्रमशः उच्च, उच्चतर वर्गीकरण (classibication) द्वारा वह अनेकतासे एकता की ओर अग्रसर होता चला जाता है। और उस एकताको प्राप्त करके सारी अनेकताओंमें उसी एकताका दर्शन करता है। पह अनुसार सृष्टिके मूल तत्त्वों की संख्या अनेक थी, किन्तु यह संख्या अब घटते-घटते एकत्व की ओर जा रही है । पहले वे द्रव्य (matter) और शक्ति (energy)को दो भिन्न पदार्थ समझते थे, किन्तु अब द्रव्यको शक्ति का ही परिवर्तित रूप समझा जाने लगा है। अब भौतिक विज्ञानके अनुसार भी शक्तिके भिन्न भिन्न रूप एक दूसरेमें परिवर्तित किए जा सके हैं। शब्द विद्युतधारामें और फिर विद्युतधारा शब्दमें परिवर्तित हो जाती है । इस प्रकार भौतिक विज्ञान भी उत्तरोत्तर भौतिक अद्वैतवाद की ओर बढ़ रहा है। दर्शनशास्त्र की प्रगति-द्वैतसे अद्वैत की ओर
इसी प्रकार दर्शन अर्थात् आध्यात्मिक विज्ञान की प्रगति भी द्वैतसे आध्यात्मिक अद्वैतवाद की ओर ही अग्रसर हुई। नैयायिकोंने विश्वको सोलह पदार्थों में बाँटा, वंशे षिकोंने सात पदार्थों में, परन्तु सांख्योंने प्रकृति (अव्यक्त, प्रधान) तथा पुरुष ये दो ही मूल तत्त्व माने । महत् (बुद्धि), अहंकार आदि शेष पदार्थोको सांख्यने अव्यक्त प्रकृतिके ही व्यक्त विकार माने-किन्तु वेदान्त और आगे बढ़ा, और इस अखिल प्रपंचके मूलमें एक अद्वैत, अखण्ड-चेतन तत्त्वको ही स्वीकार किया। इतना ही नहीं इससे आगे बढ़कर व्यक्त जगत की केवल व्यावहारिक सत्ता ही स्वीकार की गई, पारमार्थिक सत्ता केवल आत्मा या ब्रह्म की ही मानी गई, और सारी सृष्टिको उस ब्रह्म का, उस अद्वैत चेतन तत्त्वका ही विवर्त (अविद्यमान प्रतीतिमात्र) मान लिया गया। इस प्रकार भौतिक विज्ञान तथा दर्शन दोनों का ही चरम लक्ष्य उत्तरोत्तर भेदमें अभेद, द्रुतमें अद्वैतकी अनुभूति ही रहा है। अद्वैत की अनुभूतिसे ही परम शान्तिलाभ
यह अभेदानुभूति ही मानव-हृदय की चिरन्तन साध है, और यही वस्तुतः तत्त्वज्ञान है। हमारी सारी चेष्टाओंका पर्यवसान इसी ..नमें है। अभेद की इस अन् भतिके विना मानवको चैन नहीं। जब तक मनुष्यको इस अद्वैत तत्त्व की, अनेकतामें एकता की, सच्ची अनुभूति नहीं होती तभी तक उसका जीवन मोह और शोकसे व्याप्त रहेगा। एकत्व की अनुभूति होने पर ही मोह और शोकके द्वन्द्वका नाश सम्भव है। अनेकतामें एकता का, विभक्तमें अविभक्तका साक्षात्कार ही सच्चा सात्त्विक ज्ञान है। (भ० ग ० १८-२०)
विभक्तमें अविभक्त की अनुभूति ही जीवनमें परम शान्तिका लाभ सम्भव है। वस्तुतः तो एकत्व
१. तु०-"सर्व कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते" (भ० गी०४-३३) २. तु०-"तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यतः” ईशोप० ७ । ३. तु०-“सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते ।
अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्त्विकम् ॥ भ० गी० १८-२० २९२ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ
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दर्शन तथा परम शांतिलाभ एक ही वस्तु है, इन दोनोंमें कारण कार्यका बन्धन होनेसे तात्त्विक दृष्टिसे कोई भेद नहीं है, दोनों एक ही सिक्केके दो पक्ष हैं। व्यवहार में भी हम देखते हैं कि जिन व्यक्तियों तथा वस्तुओंके साथ हमारा तादात्म्य-एकत्व-अभेद स्थापित हो जाता है उन्हींसे हमें परम सुख मिलता है, और जिनके साथ हमारा भेद बना रहता है, अर्थात् जिनमें हमें आत्मीयताका अनुभव नहीं होता वे व्यक्ति अथवा वस्तुएं हमारे लिए उपेक्षा अथवा दुःखका विषय बनी रहती हैं । हमें अपने पुत्र, मित्र, बन्धु इत्यादि के (जिनके साथ हमारा निजत्व या अभेद स्थापित हो जाता है) उत्कर्षसे सुख मिलता है, परन्तु अन्य वस्तुओं या व्यक्तियोंके उत्कर्षसे (जिनके साथ हम निजत्व की अनुभूति नहीं कर पाते) हमें वैसा सुख प्राप्त नहीं होता। उल्टा मात्सर्यवश कभी कभी तो हमारे असंस्कृत हृदयको उससे आघात ही पहुँचता है। परन्तु ज्यों ज्यों मनुष्यके भीतर निजत्वभावना का, इस अभेदानुभूति का, विस्तार होता है त्यों त्यों उसके जीवनका विकास होता जाता है और जो परिमित निजत्वभावना उसके जीवनमें निकृष्ट स्वार्थभावना या संकीर्णताको उत्पन्न करती थी, वह भावना विस्तृत होकर उसके हृदयको उदार बना देती है। ऐसा मनुष्य सर्वत्र निजत्व, आत्मत्वका, दर्शन करता है वह सर्वभूतात्मभूतात्मा बन जाता है, सारी बसुधा ही उसका कुटुम्ब बन जाती है, अपने परायका भंद तिरोहित हो जाता है, वह अपने अस्तित्वका अनुभव केवल अपने छोटेसे परिमित शरीरमें ही न करके सर्वत्र अपने आत्माके विभुत्वका ही अनुभव करता है, और इस प्रकार अपने आपको खोकर सच्चे अर्थ में अपने आपको पा लेता है। ऐसे महात्माको तुच्छसे तुच्छ प्राणी तथा वस्तुसे भी विजुगुप्सा, घृणा, द्वेष, ईा नहीं होती, उसके विशाल हृदयमें सबके लिए स्थान होता है। उसका मानस राग, द्वैत, भय क्रोधादि की तरंगोंसे विक्षुब्ध न होकर सदा प्रसन्न तथा स्थिर बना रहता है, और तब वह परम शांतिका अनुभव करता है जिसके लिए उसके सम्पूर्ण जीवन की साधना थी। एसी स्पहणीय अवस्थाको प्राप्त करने की कामना किसको न होगी ? निरतिशय सुखका स्रोत भूमा और उसका स्वरूप
परन्तु कामनामात्रसे ही तो लक्ष्य की प्राप्ति नहीं होती, लक्ष्य प्राप्तिके लिए तो उद्यम करना पड़ता है, निरन्तर कठोर साधना करनी पड़ती है। और जितना ऊंचा लक्ष्य होगा उतनी ही ऊंची साधना होनी चाहिए। मनुष्य को सारी चेष्टाओं तथा प्रवृत्तियोंका एकमात्र स्रोत तथा उसकी सारी सुप्त अथवा उसकी जागरित इच्छाओंका एकमात्र प्रत्यक्ष किंवा परोक्ष आधार तो उसके अन्तरतममें निहित चिर सुख की कामना ही है। मनुष्य सुख प्राप्तिके लिए एक पदार्थके बाद दूसरे पदार्थ का, एक विषयके बाद दूसरे विषयका भोग बरता है, परन्तु थोड़े ही समयके पश्चात उसे ज्ञात हो जाता है कि कोई भी पदार्थ अथवा विषय उसे स्थायी अथवा पूर्ण सुख प्रदान करने में समर्थ या पर्याप्त नहीं है। प्रत्येक पदार्थ तथा विषय सुखके नापसे अल्प अर्थात् छोटे पड़ जाते हैं, अतएव इन पदार्थोसे, इन विषयोंसे प्राप्त होनेवाला सुख अल्प तथा सापेक्ष है। आज जो पदार्थ सुखरूप है कल वही पदार्थ दुःखरूप हो जाता है। एकके लिए जो सुखरूप है दूसरेके लिए वह उपेक्षणीय है अथवा दुःखरूप है। अतएव अल्प अथवा सापेक्ष सुखसे मनुष्य की आत्यन्तिक तृप्ति होना सम्भव नहीं। उपनिषदोंमें ऋषियोंने यह घोषणा की कि अल्पमें सुख नहीं है भृमामें ही सुख है। जो
१. यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्येवानुपश्यति ।
सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते ॥ ईशोप०६ २. “यो वै भूमा त त्सुखं नाल्पे सुखमस्ति, भूमैव सुखम्' (छा० उप० ७-२३)
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निरपेक्ष तथा निरतिशय है, जिससे अधिक तथा महान् कोई अन्य सत्ता नहीं है, वही भूमा है, बृहत्तम है, ब्रह्म है शेष सब कुछ अल्प है। भूमाको लक्ष बनाकर जब मनुष्य उसकी ओर निरन्तर गतिसे बढ़ता जाता है, तब उसका जीवन भी उच्च से उच्चतर, महत्से महत्तर बनता चला जाता है । सचमुच लक्ष की ऊचाईसे ही मनुष्य की ऊचाई तथा महत्ता मापी जा सकती है ।
परन्तु उस भूमा की प्राप्तिके लिए, उस महान् निरपेक्ष शाश्वत सुखकी अनुभूतिके लिए तो मनुष्यको अपना सारा जीवन ही साधनामय बनाना होगा । अपने जीवनको एक विशेष साँचे में ढालना होगा, दूसरे शब्दोंमें उसे अपने जीवनका पुननिर्माण करना होगा। परन्तु जिस प्रकार ईंट, लकड़ी, लोहा, सीमेंट इत्यादि उपकरणोंको एक ही स्थान पर अव्यवस्थित रूपमें ही इकट्ठा कर देनेसे ही किसी भवनका निर्माण नहीं हो जाता, उसी प्रकार अव्यवस्थित, निरुद्देश्य, लक्ष्यहीन, कर्मों तथा विचारोंके ढेरसे ही जीवनका निर्माण नहीं हो सकेगा। उत्तम भवनके निर्माणके लिए वास्तुकलाका अध्ययन आवश्यक है, जीवन निर्माणके लिए भी जीवनकला अथवा जीवनयोग सीखने की आवश्यकता है, और आवश्यकता है उस जीवनकलाको जीवनमें उतारने की।
तो हमारे सम्पूर्ण ज्ञानका, तथा सारे कर्मोका लक्ष्य है भूमा की प्राप्ति और विश्वके मूलमें जो अमृत, , चेतन तत्त्व है वही वस्तुतः भूमा है । इस भूमामें द्वतका सर्वथा अभाव है। एकमात्र भूमा ही अमृत है, शेष जो कुछ भी अल्प है अर्थात् भमासे निम्न है, वह भी मर्त्य है, नाशवान है।' भमा ही एकमात्र परम ज्ञेय है, उसका ज्ञान ही सच्चा ज्ञान है । वेद की सब ऋचाएं उसी अक्षर परम व्योममें प्रतिष्ठित हैं, सब उसी एकमात्र अक्षरका प्रतिपादन कर रही हैं। जो उस अक्षर भूमा को, अद्वैत तत्त्वको नहीं जान सका वह वेद पढ़कर भी क्या करेगा, विश्वके सारे ज्ञानसे भी वह कौनसे लाभ की प्राप्ति कर सकेगा ? अद्वैत की प्राप्तिके लिए द्वैतका सहारा अनिवार्य
परन्तु इस अद्वैत तत्त्वको, अमृत भूमाको, द्वैत पर आश्रित मर्त्य देहधारी कैसे जाने ? मनुष्य और उसका सम्पूर्ण जीवन ही द्वतके अन्तरगत है । विश्वका सारा व्यवहार ही द्वैत पर आश्रित है । द्वैतसे बाहर जाकर ही अद्वैत प्राप्त किया जा सकता है। परन्तु क्या मनुष्यके लिए उतका अतिक्रमण करना सम्भव है, शक्य है ? यह एक ऐसा प्रश्न है जो प्रत्येक सच्चे जिज्ञासूके मनमें उठा करता है। और जिसको सुलझानेका तत्त्वदर्शी ऋषियोंने, संसारके सभी मनीषियोंने अपने-अपने ढंगसे प्रयत्न किया है।
द्वत की चाहे पारमार्थिक सत्ता न हो, व्यावहारिक सत्ता तो है ही, इसे कौन इनकार कर सकता है ? मनुष्य, उसका जीवन, और संसार तथा उसका सारा व्यवहार सभी व्यावहारिक रूपसे सत्य हैं, उसकी उपेक्षा करना उसका उचित उपयोग न करना किसी भी प्रकारसे वांछनीय नहीं है। मानव जीवन द्वैत वृक्षपर लगा हुआ एक सुन्दर फल है । जब तक वह इस वृक्षसे अपनी पूरी पुष्टि, पूरा विकास, नहीं प्राप्त कर लेता तब तक वह द्वैतसे, मृत्युके बन्धनसे छुटकारा नहीं पा सकता, और तब तक उसका अमृतसे वियोग बना ही रहेगा। इस लिए अद्वैतके साक्षात्कारका, भूमा की प्राप्तिका, मृत्युसे पार होनेका उच्च लक्ष्य रखते हुए दंतके सहारे
१. यत्र नान्यत्पश्यति नान्यच्छृणोति नान्यद्विजानाति स भूमायो वै भूमा तदमृतमथ यद्अल्पं तन्मय॑म्
(छान्दोग्योपनिषद् ७.२४) २. "ऋचोऽक्षरे परमे व्योमन् यस्मिन्देवा अधिविश्वे निषेद्धः ।
यस्तत्र वेद किमृचा करिष्यति य इत् तद् विदुस्त इमे समासते ।। (ऋग्वे० १-१६४) २९४ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ
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शनैः-शनैः ऊपर उठता है। मनुष्यके लिए वेदका अमर आदेश है "उद्यानं ते पुरुष नावयानम्" (अथर्ववेद ८-१-६) “हे पुरुष, तेरा निरन्तर उद्यान, (ऊर्ध्वगमन), हो, अवयान (अधोगमन, अधोगति) न हो ।" वेदके इस उच्च आदेशको भगवान् कृष्णने गीतामें पुनः दोहराया "उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्” (६-५), "मनुष्य अपने आत्माका उद्धार करे, उसे ऊपर उठावे नीचे न गिरावे।" कौन है ऐसा अभागा जो उद्यान (ऊपर उठना) आत्मोद्धार नहीं चाहता।
जैसा कि पहले कहा गया है उद्यान अर्थात् आत्मोद्धारके लिए आवश्यकता है साध्य तथा साधनके सही ज्ञान की, लक्ष्य तया साधनाके उचित सामंजस्यको अर्थात् जीवनकला सीखकर उसे ठीक प्रकारसे जीवनमें उतारने की। मनुष्यका जीवनकाल अत्यन्त ही परिमित है। अनन्त कालके अपार सागरके एक बूंदसे भी अल्प है हमारा जीवनकाल; ऐसी परिस्थितिमें क्या नहीं जानना है और क्या जानना है, क्या नहीं करना है और क्या करना है, इसका हमें विवेकपूर्ण चुनाव कर लेना होगा, फल्गुको त्यागकर सारको ग्रहण
बुद्धिमत्ता है। सभी प्रकारका ज्ञान उपादेय नहीं है, सभी प्रकारका कर्म करणीय नहीं है। ऐसा कोरा ज्ञान जिसका जीवन-निर्माणसे, आत्मविकाससे, आत्मोद्धार तथा उद्यानसे कोई भी सम्बन्ध न हो भाररूप है क्योंकि वह जीवनको ऊपर उठनेसे रोकता है । गीताके अनुसार जिस ज्ञानसे जीवन में कोई उच्च परिवर्तन न हो, जिस ज्ञानसे जीवनमें दैवी सम्पद्की वृद्धि न हो, संक्षेपमें जिस ज्ञानसे जीवनका विकास तथा उत्थान न हो वह ज्ञान वस्तुतः अज्ञान ही है। इसी प्रकार जिस कमसे मनुष्य अपने लक्ष्यकी ओर अग्रसर न हो, जिस कर्मसे मनुष्य अपने चारों ओरके द्वैतके आवरणको, त्रिगुणात्मक मायाके बन्धनको, ढीला न कर सके, संक्षेपतः जिस कर्म द्वारा, जीवनकी जिस गति द्वारा, वह भूमाके, अद्वैत अमृततत्त्वके अधिकाधिक निकट न पहुँच सके वह कोरा अकर्म या विकर्म है। और उसके द्वारा केवलमात्र जीवकी शक्तिका ह्रास ही होता है।
व्यवहार में अद्वैत तथा द्वेतके समन्वयका स्वरूप
अतएव द्वत से पार होनेका, अद्वतकी प्राप्तिका, एक मात्र उपाय है जीवनोपयोगी ज्ञान तथा कर्मके द्वतका सहारा लेकर दृढ़तापूर्वक निरन्तर आगे बढ़ते रहना । ज्ञानके दायें पगको आगे रखते हए कर्मके बाँए पगसे उसका अनुसरण करते जाना, ज्ञान और कर्मके दोनों पंखोंमें संतुलन (Balance) रखते हुए अबाध गतिसे ऊपर ऊपर उड़ते जाना। ज्ञान और कर्मके इस संतुलनमें जहाँ अन्तर पड़ा कि ऊपरके उड़नेमें, उद्-यानमें, बाधा पड़ जाती है और मनुष्य फिर द्वतकी ओर लौटने लगता है। ज्ञानके साथ कर्मका मेल न हो तो ज्ञान पंगु है, और कर्मका आधार ज्ञान न हो तो कर्म अन्धा है। ज्ञान और कर्मके सही संतुलनसे, ठीक समन्वयसे ही जीवनकी ऊर्ध्वगति संभव है। द्वैतसे ऊपर उठकर ही अद्वतको प्राप्ति शक्य है।
अद्वतकी प्राप्तिके निमित्त आसक्तिका त्याग तथा अभेद भावनाका अभ्यास होना आवश्यक है। ज्यों-ज्यों मनुष्यके हृदयमें अनासक्ति की वृद्धि होती जाती है, त्यों-त्यों उसके अन्तस्थलमें अभेद भावनाकी प्रतिष्ठा होती जाती है। आसक्तिके त्यागका सर्वोत्तम उपाय है अपनी दृष्टिको, अपने विचारोंको उदात्त. विशाल और व्यापक बनाना, और अपने प्रत्येक कार्यको विशाल और व्यापक दृष्टिसे करना। क्षुद्र दृष्टि
१. भगवद्गीता १३ । ७-११ ।
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तथा संकुचित विचारधारा ही आसक्तिको जन्म देती है। तथा फिर यह आसक्ति भेदभावनाकी वृद्धि में सहायक होती है। अतएव अपने प्रत्येक कर्तव्यको, प्रत्येक कार्यको (चाहे वह कार्य जनसमाजमें कितना ही छोटा या तुच्छ क्यों न समझा जाता हो) जब मनुष्य स्वार्थबुद्धि या आसक्तिका त्याग करके पूरे कौशल तथा मनोयोग पूर्वक करने लगता है, और उस कार्यको करने में अपने वैयक्तिक स्वार्थ साधनकी अपेक्षा समाजकल्याणको, भूतहितको, ही अधिक महत्त्व देने लगता है, तभी उसके अन्दर विशाल और व्यापक दृष्टिका उत्तरोत्तर विकास सम्भव है । और जब मनुष्यकी दृष्टि इतनी विशाल और व्यापक हो जाती है कि उसका प्रत्येक कार्य, उसके शरीरकी प्रत्येक चेष्टा, श्वासोच्छ्वाससे लेकर भोजन करने तथा सोने तककी उसकी प्रत्येक क्रिया सहज भावसे ही विश्व सेवाके रूपमें, यज्ञके रूपमें, भगवदर्चाके रूपमें, होने लगती है, तब उसका अहंभाव समाप्ताहो जाता है; क्योंकि उस अवस्थामें उसके सभी कर्म उसी प्रकार सहजसाध्य हो जाते हैं जिस प्रकार उसकी श्वसन क्रिया। इस स्थितिमें मनुष्यका संसारमें अपना कुछ नहीं रहता और सभी कुछ उसका हो जाता है। तब वह स्वयं इतना विशाल तथा व्यापक बन जाता है कि यद्यपि उसके पैर द्वैतकी भूमिपर टिके रहते हैं, परन्तु उसका सिर अद्वतके उच्च तथा निर्मल आकाशको छूता रहता है । और तब उसके जीवनमें द्वैत-अद्वैतका सच्चा समन्वय हो जाता है। तब शाश्वत तथा विस्तृत दृष्टिसे हूँत भूमि पर किया हुआ पृथक-पृथक् देवका यजन भी उसी अद्वैत तत्त्व या परब्रह्म देवको स्वतः समर्पित होता रहता है।
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१. यच्चिद्धि शश्वता तना देवं देवं यजामहे ।
त्वे इद् हूयते हवि : ।। ऋगवेद १-२६-६
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चित्रकाव्य का उत्कर्ष-सप्तसन्धान महाकाव्य
श्री सत्यव्रत 'तृषित' श्रीगंगानगर
अपनी विद्वत्ता तथा रचना कौशलके प्रदर्शनके लिए संस्कृत कवियोंने जिन काव्य-शैलियोंका आश्रय लिया है, उनमें नानार्थक काव्योंकी परम्परा बहुत प्राचीन है। भोजकृत शृंगार प्रकाशमें दण्डीके द्विसन्धान काव्यका उल्लेख हआ है। दण्डीका द्विसन्धान तो उपलब्ध नहीं, किन्तु उनकी चित्र काव्य-शैलीने परवर्ती कवियोंको इतना प्रभावित किया कि साहित्यमें, शास्त्रकाव्योंकी भांति नानार्थक काव्योंकी एक अभिनव विद्याका सूत्रपात हुआ तथा इस कोटिकी रचनाओंका प्रचुर संख्यामें निर्माण होने लगा। जैन कवियोंने सप्तसंधान, चतुर्विंशति संधान तथा शतार्थक काव्य लिखकर इस भाषायी जादूगरीको चरम सीमा तक पहुँचा दिया। अनेक संधान काव्यमें श्लेषविधि अथवा विलोमरीतिसे एक-साथ एकाधिक कथाओंके गुम्फनके द्वारा काव्य-रचयिताको भाषाधिकार तथा रचना-नैपुण्य प्रदर्शित करनेका अवाध अवकाश मिल जाता है। अतः, आत्मज्ञापनके शौकीन पण्डित कवियोंका इधर प्रवृत्त होना बहुत स्वाभाविक था ।
जैन कवि मेघविजयगणि (सतरहवीं शताब्दी) का सप्तसन्धान महाकाव्य' चित्रकाव्य शैलीका उत्कर्ष है। साहित्यका आदिम सप्तसन्धान काव्य कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्रकी उर्वर लेखनीसे प्रसूत हुआ था। उसकी अप्राप्तिसे उत्पन्न खिन्नताको दूर करने के लिये मेघविजयने प्रस्तुत काव्य रचना की। नौ सर्गोंके इस महाकाव्यमें जैन धर्मके पाँच तीर्थकरों-ऋषभदेव. शान्तिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ, महावीर तथा परुषोत्तम राम और कृष्ण वासुदेवका चरित श्लेषविधिसे गुम्फित है । काव्यमें यद्यपि इन महापुरुषोंके जीवनके कतिपय महत्त्वपूर्ण प्रकरणोंका ही निबन्धन हुआ है, किन्तु उन्हें एक साथ चित्रित करनेके दुस्साध्य कार्यकी पूर्तिके लिए कविको विकट चित्र शैली तथा उच्छृखल शाब्दी क्रीडाका आश्रय लेना पड़ा है, जिससे काव्य वज्रवत् दुर्भेध बन गया है । टीकाके जल-पाथेयके बिना काव्यके मरुस्थलको पार करना सर्वथा असम्भव है । विजयामत सूरिने अपनी विद्वत्तापूर्ण 'सरणी'से काव्यका मर्म विवृत करनेका प्रशंसनीय प्रयास किया है, यद्यपि कहींकहीं 'सरणी' भी काव्यकी भाँति दुरूह बन गयी है। सप्तसन्धान का महाकाव्यत्व . सप्तसन्धानके कर्ताका मुख्य उद्देश्य चित्रकाव्य-रचनामें अपनी वदग्धीका प्रकाशन करना है, और इस लक्ष्यके सम्मुख, उसके लिये काव्यके अन्य धर्म गौण है; तथापि इसमें प्रायः वे सभी तत्त्व किसी न किसी रूपमें विद्यमान हैं, जिन्हें प्राचीन लक्षणकारों ने महाकाव्यके लिये आवश्यक माना है । संस्कृत महाकाव्यकी रूढ़ परम्पराके अनुसार प्रस्तुत काव्यका आरम्भ चार मंगलाचरणात्मक पधोंसे हुआ है, जिनमें जिनेश्वरों तथा वाग्देवीकी वन्दना की गयी है। काव्यके आरम्भमें सज्जनप्रशंसा, दुर्जननिन्दा, सन्नगरी वर्णन आदि बद्धमूल
१. जैन-साहित्य-वर्धक सभा, सूरतसे 'सखी' सहित प्रकाशित, विक्रम संवत् २००० । २. श्री हेमचन्द्रसूरीशैः सप्तसन्धानमादिमम् ।
रचितं तदलाभे तु स्तादिदं तुष्टये सताम् ।। प्रशस्ति, २ ।
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रूढ़ियोंका भी निर्वाह हुआ है । रघुवंशकी भाँति सप्तसन्धान नाना नायकोंके चरितपर आधारित है, जो धीरोदात्त गुणोंसे सम्पन्न महापुरुष हैं । इसका कथानक जैन साहित्य तथा समाजमें, आंशिक रूप से जैनेतर समाजमें भी, चिरकाल से प्रचलित तथा ज्ञात है । अतः इसे 'इतिहास प्रसूत' (प्रख्यात) मानना न्यायोचित है । सप्तसन्धानमें यद्यपि महाकाव्योचित रसाताका अभाव है, तथापि इसमें शान्तरसकी प्रधानता मानी जा सकती है। शृंगार तथा वीर रसकी भी हल्की-सी रेखा दिखाई देतो है। चतुर्वर्गमेंसे इसका उद्देश्य मोक्षप्राप्ति है। काव्यके चरितनायक (तीथंकर) कैवल्यज्ञान-प्राप्ति के पश्चात् शिवत्वको प्राप्त होते हैं। मानवजीवनकी चरम परिणति सतत साधनासे जन्म-मरणके चक्रसे मुक्ति प्राप्त करना है, भारतीय संस्कृतिका यह आदर्श ही काव्यमें प्रतिध्वनित हुआ है।
सप्तसन्धानकी रचना सर्गबद्ध काव्यके रूपमें हुई है । काव्यका शीर्षक रचना-प्रक्रिया पर आधारित है तथा इसके साँके नाम उनमें वर्णित विषयके अनुसार रखे गये हैं । छन्दोंके प्रयोगमें भी मेघविजयने शास्त्रीय विधानका पालन किया है। प्रत्येक सर्गमें एक छन्दको प्रधानता है। सर्गान्तमें छन्द बदल दिया गया है । सातवें सर्गमें नाना छन्दोंका प्रयोग भी शास्त्रानुकूल है । इसके अतिरिक्त इसमें भाषागत प्रौढ़ता, विद्वत्ताप्रदर्शनकी अदम्य प्रवृत्ति, शैलीकी गम्भीरता, नगर, पर्वत, षड्ऋतु आदि वस्तु-व्यापारके महाकाव्यसुलभ विस्तृत तथा अलंकृत वर्णन भी दृष्टिगोचर होते हैं। अतः सप्तसन्धानको महाकाव्य मानने में कोई हिचक नहीं हो सकती । स्वयं कविने भी शीर्षक तथा प्रत्येक सर्गकी पुष्पिकामें इसे महाकाव्य संज्ञा प्रदान की है। कवि-परिचय तथा रचनाकाल
अन्य अधिकांश जैन कवियोंकी भाँति मेघविजयका गृहस्थजीवन तो ज्ञात नहीं, किन्तु देवानन्दाभ्युदय, शान्तिनाथचरित, युक्तिप्रबोधनाटक आदि अपनी कृतियों में उन्होंने अपने मुनिजीवनका पर्याप्त परिचय दिया है। मेघविजय मुगल सम्राट अकबरके कल्याणमित्र हीरविजयसूरिके शिष्यकुलमें थे । उनके दीक्षा-गुरु तो कृपाविजय थे, किन्तु उन्हें उपाध्याय पदपर विजयदेवसरिके पट्टधर विजयप्रभसूरिने प्रतिष्ठित किया था।' विजयप्रभसूरिके प्रति मेघविजयकी असीम श्रद्धा है। न केवल देवानन्द महाकाव्यके अन्तिम सर्गमें उनका प्रशस्तिगान किया गया है अपितु दो स्वतन्त्र काव्यों-दिग्विजय महाकाव्य तथा मेघदूतसमस्यालेख-के द्वारा कविने गुरुके प्रति कृतज्ञता प्रकट की है । ये दोनों काव्य विजयप्रभसूरिके सारस्वत स्मारक हैं ।
मेघविजय अपने समयके प्रतिभाशाली कवि, प्रत्युत्पन्न दार्शनिक, प्रयोगशुद्ध वैयाकरण, समयज्ञ ज्योतिषी तथा आध्यात्मिक आत्मज्ञानी थे। उन्होंने इन सभी विषयोंपर अपनी लेखनी चलायी तथा सभीको अपनी प्रतिभा तथा विद्वत्ताके स्पर्शसे आलोकित कर दिया। प्रस्तुत महाकाव्यके अतिरिक्त उनके दो अन्य महाकाव्य-देवानन्दाभ्युदय तथा दिग्विजय महाकाव्य सुविज्ञात हैं। मेघविजय समस्यापूर्तिके पारंगत आचार्य हैं । देवानन्द, मेघदूतसमस्यालेख तथा शान्तिनाथ चरितमें क्रमशः माघकाव्य, मेघदूत तथा नैषधचरितकी समस्यापूर्ति करके उन्होंने अदभत रचनाकौशलका परिचय दिया है। मेघविजयने किरातकाव्यकी भी समस्यापूर्ति की थी, किन्तु वह अब उपलब्ध नहीं है । लघत्रिषष्टिशलाका पुरुषचरित, भविष्यदत्तकथा तथा पंचाख्यान उनकी अन्य ज्ञात काव्यकृतियाँ हैं । विजयदेव माहात्म्य विवरण श्रीवल्लभके सुविख्यात विजयदेव माहात्म्यकी टीका है। युक्तिप्रबोधनाटक तथा धर्ममंजूषा उनके न्यायग्रन्थ हैं। चन्द्रप्रभा, हैमशब्दचन्द्रिका,
३. गच्छाधीश्वरहीरविजयाम्नाये निकाये धियां प्रेष्यः श्रीविजयप्रभाख्यसुगुरोः श्रीतपाख्ये गणे। शिष्यः प्राज्ञमणेः कृपादिविजयस्याशास्यमानामग्रणीश्चक्रे वाचकनाममेघविजयः शस्यां समस्यामिमाम् ।।
शान्तिनाथचरित, प्रतिसर्गान्ते २९८ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ
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हैमशब्दप्रक्रिया उनके व्याकरण-पाण्डित्यके प्रतीक है। चन्द्रप्रभामें हैमव्याकरणको कौमुदी रूपमें प्रस्तुत किया गया है। वर्ष प्रबोध, रमल शास्त्र, हस्तसंजीवन, उदयदीपिका, प्रश्नसुन्दरी, वीसायन्त्रविधि उनकी ज्योतिष रचनाएँ हैं । अध्यात्मसे सम्बन्धित कृतियोंमें मातृकाप्रसाद, ब्रह्मबोध तथा अर्हद्गीता उल्लेखनीय हैं । इन चौबीस ग्रन्थों के अतिरिक्त पंचतीर्थस्तुति तथा भक्तामरस्तोत्रपर उनकी टोकाएँ भी उपलब्ध हैं ।
संस्कृत की भाँति गुजराती भाषाको भी मेघविजयकी प्रतिभाका वरदान मिला था । जैनधरमदीपक, जैन शासनदीपक, आहारगवेषणा, श्रीविजयदेवसरिनिर्वाणरास, कृपाविजयनिर्वाणरास. चोविशजिनस्तवन, पार्श्वनाथस्तोत्र आदि उनकी राजस्थानी गुजराती रचनाएँ हैं। यह वैविध्यपूर्ण साहित्य मेघविजयकी बहश्रुतता तथा बहुमुखी प्रतिभा का प्रतीक है। प्रान्तप्रशस्तिके अनुसार सप्तसन्धानकी रचना संवत् १७६० (सन् १७०३ ई० में) हुई थी।
वियद्रसेन्दूनां (१७६०) प्रमाणात् परिवत्सरे ।
कृतोऽयमुद्यमः पूर्वाचार्यचर्याप्रतिष्ठितः । मेघविजयने अपनी कुछ अन्य कृतियोंमें भी रचनाकालका निर्देश किया है। उससे उनके स्थितिकालका कुछ अनुमान किया जा सकता है। विजयदेवमाहात्म्यविवरणकी प्रतिलिपि मुनि सोमगणिने संवत १७०९ में की थी। अतः उसका इससे पूर्वरचित होना निश्चित है। यह मेघविजयकी प्रथम रचना प्रतीत होती है। सप्तसन्धान उनकी साहित्य-साधना की परिणति है। यह उनकी अन्तिम रचना है। विजयदेवमाहात्म्य विवरणकी रचनाके समय उनकी अवस्था २०-२५ वर्षको अवश्य रही होगी। अतः मेघविजयका कार्यकाल १६२७ तथा १७१० ई० के बीच मानना सर्वथा न्यायोचित होगा।
कथानक-सप्तसन्धान नौ सर्गोका महाकाव्य है, जिसमें पूर्वोक्त सात महापुरुषोंके जीवनचरित एक साथ अनुस्यूत है । बहुधा श्लेषविधिसे वर्णित होनेके कारण जीवनवृत्तका इस प्रकार गुम्फन हुआ है कि विभिन्न नायकोंके चरितको अलग करना कठिन हो जाता है। अतः कथानकका सामान्य सार देकर यहाँ सातों महापुरुषोंके जीवनकी घटनाओंको पृथक्-पृथक् दिया जा रहा है।
अवतार वर्णन नामक प्रथम सर्गमें चरितनायकोंके पिताओं की राजधानियों, इनकी शासन-व्यवस्था तथा माताओं के स्वप्नदर्शनका वर्णन है। द्वितीय सर्गमें चरित नायककों का जन्म वर्णित है । उनके धरा पर अवतीर्ण होते ही समस्त रोग शान्त हो जाते हैं तथा प्रजा का अभ्युदय होता है। तृतीत सर्गमें नायकोंके जन्माभिषेक, नायकरण तथा विवाह का निरूपण किया गया है । पूज्यराज्यवर्णन नामक चतुर्थ सर्गके प्रथम चौदह पद्योंमें आदि प्रभुके राज्याभिषेकके लिये देवताओंके आगमन, ऋषभदेवको सन्तानोत्पत्ति तथा उनकी प्रजाकी सुख-समृद्धिका वर्णन है। अगले सौलह पद्योंमें कृष्णचरितके अन्तर्गत कौरव-पाण्डवोंके वैर, द्रौप चीरहरण तथा दीक्षाग्रहण आदिकी चर्चा है। सर्गके शेषांशमें तीर्थंकरों द्वारा राजत्याग तथा प्रव्रज्याग्रहण करने का वर्णन है। पंचम सर्गमें काव्यमें वर्णित पाँच तीर्थकरोंके विहार, तपश्चर्या तथा कष्ट सहन का प्रतिपादन हुआ है। उनके प्राकृतिक तथा भौतिक कष्ट सह कर वे तपसे कर्मों का क्षय करते हैं। उनके उपदेशसे प्रजाजन रागद्वेष आदि छोड़कर धार्मिक कृत्योंमें प्रवृत्त हो जाते हैं। छठे सर्गमें जिनेन्द्र कैवल्यज्ञान
१. लिखितोऽयं ग्रन्थः पण्डित श्री ५ श्रीरंग सोमगणिशिष्यमनिसोमगणिना पं०१७०९ वर्षे चैत्रमासे"""" श्रीविनयदेवसूरीश्वरराज्ये। विजयदेव माहात्म्य, प्रान्तपुष्पिका ।
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प्राप्त करके स्याद्वाद पद्धतिसे उपदेश देते हैं। सातवें सर्गमें छह परम्परागत ऋतुओंका वर्णन किया गया है । तीर्थंकरोंके समवसरणके अवसरपर भावी चक्रवर्ती भरत, अन्य राजाओंके साथ उनको सेवामें उपस्थित होते हैं । दिग्विजय वर्णन नामक अष्टम सर्गमें आदि तीर्थंकर ऋषभदेवके पुत्र, चक्रवर्ती भरतको दिग्विजय, सांवत्सरिक दान तथा जिनेश्वरोंकी मोक्षप्राप्तिका निरूपण हुआ है । न सर्गमें मुख्यतः जिनेश्वरोंके गणधरोंका वर्णन किया गया है। .., इस प्रकार काव्यमें सामान्यतया सातों नायकोंके माता-पिता, राजधानी, माताओंके स्वप्नदर्शन, गर्भाधान, दोहद, कुमारजन्म, जन्माभिषेक, बालक्रीड़ा, विवाह, राज्याभिषेक आदि सामान्य घटनाओं तथा पांच तीथंकरोंकी लौकान्तिक देवोंकी अभ्यर्थना, सांवत्सरिक दान, दीक्षा, तपश्चर्या, पारणा, केवलज्ञानप्राप्ति, समवसरण-रचना, देशना, निर्वाण, गणधर आदि प्रसंगोंका वर्णन है। विभिन्न महापुरुषोंके जीवनकी जिन विशिष्ट घटनाओंका निरूपण काव्यमें हआ है, वे इस प्रकार हैं।
आदिनाथ- भरतको राज्य देना, नमिविनमिकृत सेवा, छद्मावस्थामें बाहुबलीका तक्षशिला जाना, समवसरणमें भरतका आगमन, चक्रवर्ती भरतका षट्खण्डसाधन, दिग्विजय, भगिनी सुन्दरीकी दीक्षा आदि ।
शान्तिनाथ-अशिवहरण तथा षट्खण्डविजय द्वारा चक्रवर्तित्वकी प्राप्ति । नेमिनाथ-राजीमतीका त्याग । महावीर-गर्भहरणकी घटना ।
रामचन्द्र-सीतास्वयंबर, वनगमन, सीताहरण, रावणवध, दीक्षाग्रहण, बहुविवाह, शम्बूकवध, रावणका कपट, हनुमानका दौत्य, जटायुवध, धनुभंग, सीताकी अग्नि परीक्षा, विभीषणका पक्षत्याग, विभीषणका राज्याभिषेक, युद्ध, रावणवध, शत्रुजययात्रा, मोक्षप्राप्ति, सपत्नी-द्वेषके कारण सीता-त्याग, सीता द्वारा दीक्षाग्रहण आदि रामायणकी प्रमुख घटनाएँ।
कृष्णचन्द्र-रुक्मिणी-विवाह, कंसवध, प्रद्युम्न-वियोग, मथुरानिवास, प्रद्युम्न द्वारा उषाहरण, जरासन्धका आक्रमण, कालियदमन, द्वारिकादहन, शरीरत्याग, बलभद्रका कृष्णके शवको उठाकर घूमना, दीक्षाग्रहण, शिशुपाल एवं जरासन्धका वध । इसके साथ ही कृष्ण एवं नेमिनाथका पाण्डवोंके साथ घनिष्ठ सम्बन्ध होनेके कारण पाण्डवजन्म, द्रौपदीस्वयंवर, द्यूत, चीरहरण, वनवास, गुप्तवास, कीचकवध, अभिमन्युका पराक्रम, महाभारत-युद्ध एवं दुःशासन, द्रोण, भीष्म आदिका वध आदि महाभारतकी प्रमुख घटनाओंका उल्लेख भी काव्यमें हुआ है ।
कथानकके प्रवाहकी ओर कविका ध्यान नहीं है। वस्तुतः काव्यका कथानक नगण्य है। चरितनायकोंके जीवनके कतिपय प्रसंगोंको प्रस्तुत करना ही कविको अभीष्ट है। इन घटनाओंके विनियोगमें भी कविका ध्येय अपनी विद्वत्ता तथा कवित्व शक्तिको बघारना रहा है। अतः काव्यमें वर्णित घटनाओंका अनुक्रम अस्तव्यस्त हो गया है। विशेषतः, रामके जीवनसे सम्बन्धित घटनाओंमें क्रमबद्धताका अभाव है। उदाहरणार्थ रामके किष्किन्धा जानेका उल्लेख पहले हआ है, उनके अनुयायियोंके अयोध्या लौटनेकी चर्चा बाद में। सीता-स्वयंवर तथा वनगमनसे पूर्व सीताहरण तथा रावणवधका निरूपण करना हास्यस्पद है । इसी प्रकार हनुमानके दौत्यके पश्चात् जटायुवध तथा धनुभंगका उल्लेख किया जाना कविके प्रमादका द्योतक है।
काव्यमें रामकथाके जैन रूपान्तरका प्रतिपादन हुआ है। फलतः रामका एकपत्नीत्वका आदर्श यहाँ
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समाप्त हो गया है। वे बहुविवाह करते हैं। उनकी चार पत्नियोंके नामोंका उल्लेख तो काव्यमें ही हुआ है । सपत्नियोंके षड्यन्त्रके कारण रामको सीताकी सच्चरित्रतापर सन्देह हो जाता है, जिसके परिणामस्वरूप वे उस गर्भिणीको राज्यसे निष्कासित कर देते हैं। रामके सुविज्ञात पुत्रों, कुश और लवका स्थान यहाँ अनंगलवण तथा मदनांकुश ले लेते हैं। जैन रामायण के अनुरूप ही राम शत्रुजयकी यात्रा करते हैं तथा प्रव्रज्या ग्रहण करके मोक्ष प्राप्त करते हैं।
काव्यका सप्तसन्धानत्व
सात व्यक्तियोंके चरितको एक साथ गुम्फित करना दुस्साध्य कार्य है । प्रस्तुत काव्यमें यह कठिनाई इसलिए और बढ़ जाती है कि यहाँ जिन महापुरुषोंका जीवनवृत्त निबद्ध है, उनमें से पाँच जैनधर्मके तीर्थंकर
अन्य दो हिन्दू धर्मके आराध्य देव, यद्यपि जैन साहित्य में भी वे अज्ञात नहीं हैं। कविको अपने लक्ष्यकी पूर्ति में संस्कृतकी संश्लिष्ट प्रकृतिसे सबसे अधिक सहायता मिली है। श्लेष ऐसा अलंकार है जिसके द्वारा कवि भाषाको इच्छानुसार तोड़-मरोड़कर अभीष्ट अर्थ निकाल सकता है। इसीलिए सप्तसन्धानमें श्लेषकी निर्बाध योजना को गयी है, जिससे काव्यका सातों पक्षोंमें अर्थ ग्रहण किया जा सके। किन्तु यहाँ यह ज्ञातव्य है कि सप्तसन्धानके प्रत्येक पद्यके सात अर्थ नहीं है। वस्तुतः काव्यमें ऐसे पद्य बहुत कम है, जिनके सात स्वतन्त्र अर्थ किये जा सकते हैं। अधिकांश पद्योंके तीन अर्थ निकलते हैं, जिनमेंसे एक, जिनेश्वरोंपर घटित होता है; शेष दोका सम्बन्ध राम तथा कृष्णसे है। तीर्थकरोंकी निजी विशेषताओंके कारण कुछ पद्योंके चार, पाँच अथवा छह अर्थ भी किये जा सकते हैं। कुछ पद्य तो श्लेषसे सर्वथा मुक्त है तथा उनका केवल एक अर्थ है । यही अर्थ सातों चरितनायकोंपर चरितार्थ होता है । यही प्रस्तुत काव्यका सप्तसन्धानत्व है । कवि यह उक्ति-काव्येऽस्मिन्नत एव सप्त कथिता अर्थाः समर्थाः श्रियै (४/४२) भी इसी अर्थमें सार्थक है।
जो पद्य भिन्न-भिन्न अर्यों के द्वारा सातों पक्षोंपर घटित होते हैं, उनमें व्यक्तियोंके अनुसार एक विशेष्य है, अन्य पद उसके विशेषण । अन्य पक्षमें अर्थ करनेपर वही विशेष्य विशेषण बन जाता है, विशेषणों में से प्रसंगानुसार एक पद विशेष्यको पदवीपर आसीन हो जाता है। इस प्रकार पाठकको सातों अभीष्ट अर्थ प्राप्त हो जाते हैं। उदाहरणार्थ सातों चरितनायकोंके पिताओंके नाम प्रस्तुत पद्यमें समविष्ट हो गये हैं।
अवनिपतिरिहासीद् विश्वसेनोऽश्वसेनोप्यथ दशरथनाम्ना यः सनाभिः सुरेशः । बलिविजयिसमुद्रः प्रौढसिद्धार्थसंज्ञः प्रसृतमरुणतेजस्तस्य भूकश्यपस्य ॥ १/५४ सातोंकी जन्मतिथियोंका उल्लेख भी एक ही पद्यमें कर दिया गया है।।
• ज्येष्ठेऽसिते विश्वहिते सुचैत्रे वसुप्रमे शुद्धनभोऽर्थमये ।
सांके दशाहे दिवसे सपोषे जनिर्जिनस्याजनि वीतदोषे ।। २/१६ प्रस्तुत पद्यमें काव्यनायकोंके चारित्र्यग्रहण करनेका वर्णन एक-साथ हुआ है।
जातेमहाव्रतमधत्त जिनेषु मुख्यस्तस्मात्परेऽहनि स-शान्ति-समुद्रभूर्वा ।
श्रीपार्श्व एव परमोऽचरमस्तु मार्गे रामेऽक्रमेण ककुभामनुभावनीये ॥ ४।३९
कविकी शैलीका विद्रूप वहाँ दिखाई देता है जहाँ पद्योंसे विभिन्न अर्थ निकालने के लिए उसने . भाषाके साथ मनमाना खिलवाड़ किया है। पद्योंको विविध पक्षोंपर चरितार्थ करनेके लिए टीकाकारने जाने-माने पदोंके ऐसे चित्र-विचित्र अर्थ किये हैं, कि पाठक चमत्कृत तो होता है, किन्तु इस वज्रसे जूझता
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- जूझता वह हताश हो जाता है । तथाकथित ऋतुवर्णनको भी कविने चरितनायकोंपर घटानेकी चेष्टा की है । निनोक्त पद्य मुख्यतः पाण्डवचरितसे सम्बन्धित हैं, किन्तु टीकाकारने इससे सातों काव्यनायकों के पक्ष के अर्थ भी निकाले हैं । टीकाकी सहायता के बिना कोई विरला ही इसके अभीष्ट अर्थ कर सकता है ।
भीष्मोऽग्रतो यमविधिः स्वगुरोरनिष्टः कृष्णालकग्रहणकर्म सभासमक्षम् । वैराग्यहेतुरभवद् भविनो न कस्य दैवस्य वश्यमखिलं यदवश्यभाविः || ४/२६
श्लोकार्धयम से आच्छन्न निम्नोक्त प्रकारके पद्योंके भी पाठकसे जब नाना अर्थ करनेकी आकांक्षा की जाती है, तो वह सिर धुननेके अतिरिक्त क्या कर सकता है ?
नागाहत - विवाहेन तत्क्षणे सदृशः श्रियः । नागाहत - विवाहेन तत्क्षणे सदृशः श्रियः ।। ६/५४
भाषा - सप्तसन्धान भाषायी खिलवाड़ | काव्योंका नाना अर्थोका बोधक बनानेकी आतुरताके कारण कविने जिस पदावलीका गुम्फन किया है, वह पाण्डित्य तथा रचनाकौशलकी पराकाष्ठा है । सायास प्रयुक्त भाषा में जिस कृत्रिमता एवं कष्टसाध्यताका आ जाना स्वाभाविक है, सप्तसन्धानमें वह भरपूर मात्रा में विद्यमान है । सप्तसन्धान सही अर्थ में क्लिष्ट तथा दुरूह है । सचमुच उस व्यक्तिके पाण्डित्य एवं चातुर्यपर आश्चर्य होता है जिसने इतनी गर्भित भाषाका प्रयोग किया जो एक साथ सात-सात अर्थों को विवृत कर सके । भाषाकी यह दुस्साध्यता काव्यका गुण भी है, दुर्गुण भी । जहाँतक यह कविके पाण्डित्य की परिचायक है, इसे, इस सीमित अर्थ में, गुण माना जा सकता है । किन्तु जब यह भाषात्मक क्लिष्टता अर्थबोध में दुर्लघ्य बाधा बनती है तब कविकी विद्वत्ता पाठकके लिए अभिशाप बन जाती है । विविध अर्थों की प्राप्ति लिए पद्योंका भिन्न-भिन्न प्रकारसे अन्वय करने तथा सुपरिचित शब्दों के अकल्पनीय अर्थ खोजने में बापुरे पाठकको असह्य बौद्धिक यातना सहनी पड़ती है। एक-दो उदाहरणोंसे यह बात स्पष्ट हो जाएगी ।
सवितृतनये रामासक्त हरेस्तनुजे भुजे प्रसरति परे दौत्येऽदित्याः सुता भयभंगुराः । श्रुतिगतमहानादा-देवं जगुनिजमग्रजं रणविरमणं लीभक्षोभाद्विभीषणकायतः || ५/३७
इस पद्य में जिनेन्द्रोंकी कामविजयका वर्णन है । यह अर्थ निकालनेके लिए शब्दोंको कैसा तोड़ामरोड़ा है, इसका आभास टीकाके निम्नोक्त अंशसे भली-भाँति हो जायेगा ।
हरेजिनेन्द्रस्य भुजे भोग्यकर्मणि तनुजे अल्पीभूते सवितृतनये प्रकाशविस्तार के जिनेन्द्र रामे आत्मध्याने आसक्ते परे अत्युत्कृष्टे मोक्षे इत्यर्थः दौत्ये दूतकर्मणि प्रसरति ध्यानमेव मोक्षाय दूतकर्मकृदिति भावः दित्याः सुताः कामादयः भयभंगुराः भयभीता जाताः विभीषणकायतः भयोत्पादककायोत्सर्गविधायकशरीरात् जिनेन्द्रात् लोभक्षोभात् लोभस्य तद्विषयकजयाशारूपस्य क्षोभात् आघातात् जयाशात्यागात् प्रत्युत निजपराजयभीतेः श्रुतिगतः महानादा भयादेव महाशब्दकारका दीर्घविराविणः रणविरमणम् जिनेन्द्रतो विग्रहनिवर्त्तनं निजमग्रजमग्रेसरं देवं द्योतनात्मकं मोहराजं जगुः निवेदयामासुः ।
प्रस्तुत पद्य में केवलज्ञानप्राप्ति के पश्चात् जिनेश्वरका वर्णन है । यह अर्थ कैसे सम्भव है, इसका ज्ञान टीकाके बिना नहीं हो सकता ।
सुमित्रांगजसंगत्या सदशाननभासुरः । अलिमुक्तेर्दानकार्यसारोऽभाल्लक्ष्मणाधिपः ।। ६/५७
सुमित्रं सुष्ठु मेद्यति स्निह्यतीति केवलज्ञानं तदेवांगजं तस्य संगत्या केवलज्ञानयोगेन दशाननभासुरः दशसु दिक्षु आननं मुखमुपदेशकाले यस्य स दशाननस्तेन भासुरः लक्ष्मणाधिपः ३०२ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन ग्रन्थ
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लक्ष्म चिह्नमेव लक्ष्मणं तत् अधिपाति स्वसंगेन घारयतीति लक्ष्मणाधिपः अलिमुक्तेः अले: सुरायाः मुक्तेस्त्यागात् दानकार्यसारः दानकार्यमुपदेशनमेव सारो यस्य स अभात् ।।
किन्तु यह सप्तसन्धानका एक पक्ष है । इसके कुछ अंश ऐसे भी हैं जो इस भाषायी जादूगरीसे सर्वथा मुक्त हैं। माताओंकी गर्भावस्था, दोहद, कुमारजन्म तथा गणधरोंके वर्णनकी भाषा प्राञ्जलता, लालित्य तथा माधुर्यसे ओतप्रोत है । दिक्कुमारियोंके कार्यकलापोंका निरूपण अतीव सरल भाषामें हुआ है।
काश्चिद् भुवः शोधनमादधाना जलानि पुर्यां ववृषुः सपुष्पम् ।
छत्रं दधुः काश्चन चामरेण तं बीजयन्ति स्म शुचिस्मितास्याः ॥ २/२१ नवें सर्गकी सरलता तो वेदना-निग्रह रसका काम देती है। काव्यके पूर्वोक्त भागसे जूझनेके पश्चात् नवे सर्गकी सरल-सुबोध कविताको पढ़कर पाठकके मस्तिष्ककी तनी हुई नसोंको समुचित विश्राम मिलता है।
सुवर्णवर्णं गजराजगामिनं प्रलम्बबाहुं सुविशाललोचनम् ।।
नरामरेन्द्रः स्तुतपादपंकजं नमामि भक्त्या वृषभं जिनोत्तमम् ।। ९/३० प्रकृति-चित्रण तत्कालीन महाकाव्य-परम्पराके अनुसार मेघविजयने काव्यमें प्राकृतिक सौन्दर्यका चित्रण किया है । तृतीय सर्गमें सुमेरुका तथा सप्तम सामें छह परम्परागत ऋतुओंका वर्णन हुआ है। किन्तु यह प्रकृतिवर्णन कविके प्रकृति प्रेमका द्योतक नहीं है। सप्तसन्धान जैसे चित्रकाव्यमें इसका एकमात्र उद्देश्य महाकाव्य रूढ़ियोंकी खानापूर्ति करना है।
ह्रासकालीन कवियोंकी भाँति मेघविजयने प्रकृतिवर्णनमें अपने भावदारिद्रय को छिपाने के लिए चित्रशैलीका आश्रय लिया है । श्लेष तथा यमककी भित्तिपर आधारित कविका प्रकृतिवर्णन एकदम नीरस तथा कृत्रिम है। उसमें न मार्मिकता है, न सरसता। वह प्रौढोक्ति तथा श्लेष एवं यमककी उछल-कूद तक ही सीमित है । वास्तविकता तो यह है कि श्लेष तथा यमककी दुर्दमनीय सनकने कविकी प्रतिभाके पंख काट दिये हैं। इसलिए प्रकृतिवर्णनमें वह केवल छटपटाकर रह जाती है। .
मेघविजयने अधिकतर प्रकृतिके स्वाभाविक पक्षको चित्रित करनेकी चेष्टा की है, किन्तु वह चित्रकाव्यके पाशसे मुक्त होने में असमर्थ है। अतः उसकी प्रकृति श्लेष और यमकके चकव्यूहमें फंसकर अदृश्यसी हो गयी है। वर्षाकालमें नद-नदियोंकी गर्जनाकी तुलना हाथियों तथा सेनाकी गर्जना भले ही न कर सके, यमककी विकराल दहाड़के समक्ष वह स्वयं मन्द पड़ जाती है।
न दानवानां न महावहानां नदा नवानां न महावहानाम् ।
न दानवानां न महावहानां न दानवानां न महावहानाम् ।। ७/२२ शीतके समाप्त हो जानेसे वसन्तमें यातायातको बाधाएँ दूर हो जाती हैं, प्रकृतिपर नवयौवन छा जाता है, किन्तु इस रंगीली ऋतुमें जातीपुष्प कहीं दिखाई नहीं देता। प्रस्तुत पद्य में कविने वसन्तके इन उपकरणोंका अंकन किया है, पर वह श्लेषकी परतोंमें इस प्रकार दब गया है कि सहृदय पाठक उसे खोजताखोजता झंझला उठता है। फिर भी उसके हाथ कुछ नहीं आता।
दुःशासनस्य पुरशासनजन्मनैव संप्रापितोऽध्वनियमो विघटोत्कटत्वात् ।
अन्येऽभिमन्युजयिनो गुरुगौरवार्हास् ते कौरवा अपि कृता हृतचौरवाचः ॥ ७/१२
सप्तसन्धानमें कहीं-कहीं प्रकृतिके उद्दीपन पक्षका भी चित्रण हुआ है। प्रस्तुत पद्यमें मेरुपर्वतको प्राकृतिक सम्पदा तथा देवांगनाओंके सुमधुर गीतोंसे कामोद्रेक करते हुए चित्रित किया गया है।
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यस्मिन्नलं फलललद्दलशालिशाल-वृन्दावनी सुरजनी रजनीश्वरास्या । गीतस्वरैः सुरमणी रमणीप्रणीतैस्तन्तन्यते तनुभृतामतनूदयं सा ॥ ३।३
इन अलंकृति प्रधान वर्णनोंकी बाढ़में कहीं-कहीं प्रकृतिका सहज सरल चित्र देखनेको मिल ही जाता है | पावसकी रात में कम्बल ओढ़कर अपने खेतकी रखवाली करनेवाले किसान तथा वर्षाके जलसे भींगे हुए गलकम्बलको हिलानेवाली गायका यह मधुर चित्र स्वाभाविकतासे ओतप्रोत है।
रजनि बहुधान्योच्चैः रक्षाविधौ घृतकम्बलः सपदि दुधुवे वारांभाराद् गवा गलकम्बलः । ऋषिरिव परक्षेत्र से वे कृषीबलं पुंगवश्चपलसबलं भीत्या जज्ञे बलं च पलाशजम् ॥७॥२९
कुमारोंके जन्मके अवसरपर प्रकृति आदर्श रूप में प्रकट हुई है । यहाँ वह स्वभावतः निसर्ग विरुद्ध आचरण करती है । कुमारोंके धरापर अवतीर्ण होते ही दिशाएँ शान्त हो गयीं, आकाश में दुन्दुभिनाद होने लगा तथा जल और आकाश तुरन्त निर्मल हो गये ।
शान्तासु सर्वासु दिशासु रेणुर्न रेणुबाधां तु मनाग् व्यधासीत् ।
दध्वान देवाध्वनि दुन्दुभीनां नादः प्रसादो नभसोऽम्भसोऽभात् || २|११
वसन्तके मादक वातावरणमें मद्यपानका परित्याग करनेका उपदेश देते समय जैन यतिकी पवित्रतावादी प्रवृत्ति प्रबल हो उठी है । किन्तु उसका यह उपदेश भी श्लेषका परिधान पहनकर प्रकट होता है । सीतापहारविधिरेष तवोपहारव्याहारनिर्भयविहारविनाशनाय ।
तेनाधुनापि मधुनाशनतां जहीहीत्याहेव रावणमिह स्वधियालिजन्यम् ॥ ७८
इस प्रकार अन्य अधिकांश ह्रासकालीन काव्योंकी भाँति सप्तसन्धानमें प्रकृति वर्णनके नामपर कविके रचनाकौशल (अलंकार प्रयोग कौशल) का प्रदर्शन हुआ है । प्रकृतिके प्रति यहाँ वाल्मीकि अथवा कालिदास के-से सहज अनुरागकी कल्पना करना व्यर्थ है ।
सौन्दर्य-चित्रण – प्राकृतिक सौन्दर्यकी भाँति मानव - सौन्दर्यके चित्रणमें कविकी वृत्ति अधिक नहीं रमी है । चरितनायकोंकी माताओंके शारीरिक लावण्यकी ओर सूक्ष्म संकेत करके ही मेघविजयने संतोष कर लिया है। प्रस्तुत पंक्तियोंमें माताओंके मुखके अतिशय सौन्दर्य, स्तनोंकी पुष्टता तथा कटिकी क्षीणताका उत्प्रेक्षाके द्वारा वर्णन किया गया 1
सौरभ्यवित्तं जलजं प्रदाय चन्द्रः कलाकौशलमुज्ज्वलत्वम् । जाने तदास्यानुगमाद् विभूति प्राप्तौ कजेन्दू समयं प्रपद्य ॥ १६३ उच्चैर्दशा स्यान्तु परोपकाराद् युक्ता तदुच्चैस्तनता स्तनांगे ।
सतां न चात्मम्भरिता कदाचित् तनु स्वमध्यं तत एव तस्याः ॥ १७१
रस- योजना - सप्तसन्धानमें मनोरागोंका महाकाव्योचित रसात्मक चित्रण नहीं हुआ है। चित्रकाव्यमें इसके लिए अधिक स्थान भी नहीं है । जब कवि अपनी रचनाचातुरी प्रदर्शित करने में ही व्यस्त हो, तो मानव-मनकी सूक्ष्म - गहन क्रियाओं-विक्रियाओं का अध्ययन एवं उनका विश्लेषण करनेका अवकाश उसे कैसे मिल सकता है ? अतः काव्यमें किसी भी रसका अंगीरसके रूपमें परिपाक नहीं हुआ है । काव्यकी प्रकृतिको देखते हुए इसमें शान्तरसकी प्रधानता मानी जा सकती है, यद्यपि जिनेन्द्रोंके धर्मोपदेशों में भी यह अधिक नहीं उभर सका है। तीर्थंकरकी प्रस्तुत देशनामें शान्तरसकी हल्की-सी छटा दिखाई देती है । त्यजत मनुजा रागं द्व ेषं धृतिं दृढ़सज्जने भजत सततं धर्मं यस्मादजिह्मगता रुचिः । प्रकुरुत गुणारोपं पापं पराकुरुताचिराद् मतिरतितरां न व्याधेया परव्यसनादिषु ॥ ५४९ ३०४ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन ग्रन्थ
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तृतीय सर्गमें सुमेरु-वर्णनके अन्तर्गत देव-दम्पतियोंके विहारवर्णनमें सम्भोग श्रृंगारकी मार्मिक अवतारणा हुई है।
गोपाः स्फुरन्ति कुसुमायुधचापरोपात् कोपादिवाम्बुज दृशः कृतमानलोपाः ।
क्रीडन्ति लोलनयनानयनाच्च दोलास्वान्दोलनेन विबुधाश्च सुधाशनेन ।। ३।४
काव्यमें यद्यपि भरतकी दिग्विजय तथा राम एवं कृष्णके युद्धोंका वर्णन है किन्तु उसमें वीर रसकी सफल अभिव्यक्ति नहीं हो सकी है। कुछ पद्योंके राम तथा कृष्ण पक्षके अर्थमें वीररसका पल्लवन हुआ है। इस दृष्टिसे यह युद्धचित्र दर्शनीय है ।
तत्राप्तदानवबलस्य बलारिरेष न्यायान्तरायकरणं रणतो निवार्य ।
धात्रीजिघृक्षु शिशुपालकराक्षसादिदुर्योधनं यवनभूपमपाचकार ॥ ३॥३० अलंकारविधान-चित्रकाव्य होनेके नाते सप्तसन्धानमें चित्रशैलीके प्रमुख उपकरण अलंकारोंकी निर्बाध योजना हुई है । किन्तु यह ज्ञातव्य है कि काव्यमें अलंकार भावानुभूतिको तीव्र बनाने अथवा भावव्यंजनाको स्पष्टता प्रदान करने के लिये प्रयुक्त नहीं हुए हैं । वे स्वयं कविके साध्य हैं। उनकी साधनामें लग कर वह काव्यके अन्य धर्मोको भूल जाता है जिससे प्रस्तुत काव्य अलंकृति-प्रदर्शनका अखाड़ा बन गया है।
मेधविजयने अपने लिये बहत भयंकर लक्ष्य निर्धारित किया है। सात नायकोंके जीवनवृत्तको एकसाथ निबद्ध करने के लिये उसे पग-पगपर श्लेषका आँचल पकड़ना पड़ा है। वस्तुतः श्लेष उसकी वैसाखी है, जिसके बिना वह एक पग भी नहीं चल सकता । काव्यमें श्लेषके सभी रूपोंका प्रयोग हुआ है। पांचवें सर्गमें श्लेषात्मक शैलीका विकट रूप दिखाई देता है। पद्योंको विभिन्न अर्थोंका द्योतक बनाने के लिये यहाँ जिस श्लेषगर्भित भाषाकी योजना की गयी है, उससे जूझता-जूझता पाठक हताश हो जाता है । टीकाकी सहायताके बिना यह सर्ग अपठनीय है । निम्नोक्त पद्यके तीन मुख्य अर्थ हैं, जिनमें से एक पाँच तीर्थंकरोंपर घटित होता है, शेष दो राम तथा कृष्णके पक्षमें ।
श्रुतिमुपगता दीव्य द्रूपा सुलक्षणलक्षिता सुरबलभृताम्भोधावद्रौपदीरितसद्गवी। सुररववशाद् भिन्नाद् द्वीपान्नतेन समाहृता हरिपवनयोधर्मस्यात्रात्मजेषु पराजये ॥ ५॥३६ यह अनुष्टुप् इससे भी अधिक विकट है । कविको इसके चार अर्थ अभीष्ट हैं ।
कुमारी वेदसाहस्रान् सराज्यान् यत्कृते दधत् ।
इक्ष्वाकुवंशवृषभः शं-के-वलश्रिया श्रितः ।। ६।५९ अपने कथ्यके निबन्धनके लिये कविने श्लेषकी भांति यमकका भी बहुत उपयोग किया है। आठवाँ सर्ग तो आद्यन्त यमकसे भरा पड़ा है। नगरवर्णनकी प्रस्तुत पंक्तियोंसे श्लोकार्धयमककी करालताका अनुमान किया जा सकता है।
न गौरवं ध्यायति विप्रमुक्तं न गौरवं ध्यायति विप्रमुक्तम् ।
पुनर्नवाचारभसा नवार्था-पुनर्नवाचारभसा नवार्थाः ॥ १।५२ शब्दालंकारोंमें अनुप्रासका भी काव्यमें पर्याप्त प्रयोग हुआ है । यमक तथा श्लेषसे परिपूर्ण इस काव्य में अनुप्रासकी मधुरध्वनि रोचक वैविध्य उपस्थित करती है। चरितनायकोंके पिताओंकी शासनव्यवस्थाके वर्णनके प्रसंगमें अनुप्रासका नादसौन्दर्य मोहक बन पड़ा है।
सांकर्यकार्य प्रविचार्य वार्य विरोधमुत्सार्य समर्त्तवस्ते । सामान्यमाधाय समाधिसाराधिकारमीयुर्भुवि निर्विकाराः ॥ २॥६
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अन्त्यानुप्रासमें यह अनुरणनात्मक ध्वनि चरम सीमाको पहुँच जाती है।
शब्दालंकारोंके अतिरिक्त काव्यमें प्रायः सभी मुख्य अर्थालंकार प्रयुक्त हए हैं। कुमारवर्णनके प्रस्तुत पद्यमें अप्रस्तुत वटवृक्षकी प्रकृतिसे प्रस्तुत कुमारके गुणोंके व्यंग्य होनेसे अप्रस्तुत प्रशंसा है।
नम्रीभवेत् सविटपोऽपि वटो जनन्यां भूमौ लतापरिवृतो निभृतः फलाद्यैः ।
कौ-लीनतामुपनतां निगदत्ययं किं सम्यग्गुरोविनय एव महत्त्वहेतुः ॥ ३॥१९ ___ अप्रस्तुत आरोग्य, भाग्य तथा अभ्युदयका यहाँ एक 'आविर्भाव' धर्मसे सम्बन्ध है । अतः तुल्ययोगिता अलंकार है।
आरोग्य-भाग्याभ्युदया जनानां प्रादुर्बभूवुर्विगतै जनानाम् । ___ वेषाविशेषान्मुदिताननानां प्रफुल्लभावाद् भुवि काननानाम् ॥ २।१३ ।
वसन्तवर्णनकी निम्नलिखित पंक्तियों में प्रस्तुत चन्द्रमा तथा अप्रस्तुत राजाका एक समानधर्मसे संबंध होनेके कारण दीपक है।
व्यर्था सपक्षरुचिरम्बुजसन्धिबन्धे राज्ञो न दर्शनमिहास्तगतिश्च मित्रे । ... किं किं करोति न मधुव्यसनं च दैवादस्माद् विचार्य कुरु सज्जन तन्निवृत्तिम् ॥ ७९
र प्रस्तुत पद्यमें अतिशयोक्तिकी अवतारणा हई है, क्योंकि जिनेन्द्रोंकी कत्तिको यहाँ रूपवती देवांगनाओंसे भी अधिक मनोरम बताया गया है।
मनोरमा वा रतिमालिका वा रम्भापि सा रूपवती प्रिया स्यात् ।
न सुत्यजा स्याद् वनमालिकापिकीतिविभोर्यत्र सुरैनिपेया ॥ ९॥६
दुर्जननिन्दाके इस पद्यमें आपाततः दुर्जनकी स्तुति की गयी है, किन्तु वास्तवमें, इस वाच्य स्तुतिसे निन्दा व्यंग्य है । अतः यहाँ व्याजस्तुति है।
मुखेन दोषाकरवत् समानः सदा-सदम्भः-सवने सशौचः ।
काव्येषु सद्भावनयानमूढः किं वन्द्यते सज्जनवन्न नीचः ॥ ११५ इस समासोक्तिमें प्रस्तुत अग्निपर अप्रस्तुत क्रोधी व्यक्तिके व्यवहारका आरोप किया गया है ।
तेजो वहनसहनो दहनः स्वजन्महेतन ददाह तणपञ्जनिकञ्जमख्यान । लेभे फलं त्वविकलं तदयं कुनीते स्मावशेषतनुरेष ततः कृशानुः ।। ३।२० काव्यमें प्रयुक्त अन्य अलंकारों से कुछके उदाहरण यहाँ दिये जा रहे हैं । अर्थान्तरन्यास-क्वचन विजने तस्यौ स्वस्यो ररक्ष न रक्षकम् ।
- न खलु परतो रक्षापेक्षा प्रभौ हरिणाश्रिते ॥ ५।९ विरोधाभास—ये कामरूपा अपि नो विरूपाः कृतापकारेऽपि न तापकाराः ।
सारस्वता नैव विकणिकास्ते कास्तेजसां नो कलयन्ति राजीः ॥ ११३८ परिसंख्या-जज्ञ करव्यतिकरः किल भास्करादौ दण्डग्रहाग्रहदशा नवमस्करादौ ।
नैपुण्यमिष्टजनमानसतस्करादौ छेदः सुसूत्रधरणात् तदयस्करादौ ॥ ३।४१ उदात्त-पात्राण्यमा ननृतुः पदे पदे समुन्ननादानकदुन्दुभिर्मुदे ।
___ घनाघनस्य भ्रमतो वदावदे मयूरवर्गे नटनान्निसर्गतः ॥ २६८ अर्थापत्ति-प्रीत्या विशिष्टा नगरेषु शिष्टा: काराविकारा न कृताधिकाराः।
बाधा न चाधान्नरकेऽसुरोऽपि परोऽपि नारोपितवान् प्रकोपम् ।। २।१४ विशेषोक्ति-जाते विवाहसमये न मनाग्मनोऽन्त
लींनो मलीनविषयेषु महाकुलीनः ।। ३।३७ ३०६ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ
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छंद
मेघविजयने छन्दों के विधानमें शास्त्रीय नियमका यथावत् पालन किया है। प्रथम सर्ग उपजातिमें निबद्ध है। सर्गके अन्तमें मालिनी तथा स्रग्धराका प्रयोग किया गया है । द्वितीय सर्गमें इन्द्रवज्राकी प्रधानता है। सर्गान्तके पद्य शिखरिणी, मालिनी, उपेन्द्रवज्रा, उपजाति तथा शार्दूलविक्रीडितमें हैं। तृतीय तथा चतुर्थ सर्गकी रचनामें वसन्ततिलकाका आश्रय लिया गया है । अन्तिम पद्योंमें क्रमशः स्रग्धरा तथा शार्दूलविक्रीडित प्रयुक्त हुए हैं । पाँचवें तथा छठे सर्गका मुख्य छन्द क्रमशः हरिणी तथा अनुष्टुप् है । पाँचवें सर्गका अन्तिम पद्य स्रग्धरामें निबद्ध है । छठे सर्गके अन्तिम पद्योंकी रचना वसन्ततिलका तथा शार्दूलविक्रीडितमें हुई है । सातवें सर्गमें जो छह छन्द प्रयुक्त हुए हैं, उनके नाम इस प्रकार हैं-हरिणी, शार्दूलविक्रीडित, वसन्ततिलका, इन्द्रवज्रा, स्वागता तथा शिखरिणी । अन्तिम दो सर्गोंके प्रणयनमें क्रमशः द्रुतविलम्बित तथा उपजातिको अपनाया गया है। इनके अन्तमें शार्दूलविक्रीडित, वंशस्थ तथा स्रग्धरा छन्द प्रयुक्त हुए हैं । कुल मिलाकर सप्तसन्धानमें तेरह छन्दोंका उपयोग किया गया है । इनमें उपजातिका प्राधान्य है।
उपसंहार--मेघविजयकी कविता, उनकी परिचारिकाकी भाँति गूढ़ समस्याएँ लेकर उपस्थित होती है (२७)। उन समस्याओंका समाधान करनेकी कविमें अपूर्व क्षमता है। इसके लिये कविने भाषाका जो निर्मम उत्पीडन किया है, वह उसके पाण्डित्यको व्यक्त अवश्य करता है, किन्तु कविताके नाम पर पाठकको बौद्धिक व्यायाम कराना, उसका भाषा तथा स्वयं कविताके प्रति अक्षम्य अपराध है । अपने काव्यकी समीक्षा की कविने पाठकसे जो आकांक्षा की है, उसके पति में उसकी दूरारूढ़ शैली सबसे बड़ी बाधा है। पर यह स्मरणीय है कि सप्तसन्धानके प्रणेताका उद्देश्य चित्रकाव्य-रचनामें अपनी क्षमताका, प्रदर्शन करना है, सरस कविताके द्वारा पाठकका मनोरंजन करना नहीं। काव्यको इस मानदण्डसे आंकनेपर ज्ञात होगा कि वह अपने लक्ष्यमें पूर्णतः सफल हुआ है। बाणके गद्यकी मीमांसा करते हए बेबरने जो शब्द कहे थे, वे सप्तसन्धानपर भी अक्षरशः लाग होते हैं। सचमच सप्तसन्धान महाकाव्य एक बीहड़ वन है, जिसमें पाठकको अपने धैर्य, श्रम तथा विद्वत्ताकी कुल्हाड़ीसे झाड़-झंखाड़ोंको काटकर अपना रास्ता स्वयं बनाना पड़ता है।
१. काव्येक्षणाद्वः कृपया पयोवद् भावाः स्वभावात्सरसाः स्युः । १।१५
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शिवराज भूषणमें 'गुसलखाना'का प्रसंग
श्री वेदप्रकाश गर्ग अनेक बार भारी हानि उठाकर और हार खाकर, अन्तमें औरंगजेबने बहुत सोच-विचारके बाद शिवाजीका दमन करने के लिए दिलेर खाँ आदि अनेक सेनापतियों तथा चौदह हजार फौज सहित आम्बेराधिपति मिर्जा राजा जयसिंह कछवाहाको नियुक्त किया।
मिर्जा राजा जयसिंहने तेजी और फुर्तीसे दक्षिण पहुँचकर अत्यन्त बुद्धिमानी और चालाकीसे शिवाजीको संधि और अधीनताके लिए विवश किया। संधिके पश्चात् बादशाहने भेंट करने के लिए शिवाजी को दरबार बला भेजा। जयसिंहके आश्वासन पर शिवाजीने भी औरंगजेबसे भेंट करना स्वीकार कर लिया।
अपने राज्यका सब प्रबन्धकर ५ मार्च, सन् १६६६ ई० को अपने पुत्र सम्भाजी तथा कुछ सैनिकोंके साथ शिवाजी. बादशाहसे भेंट करनेके लिए उत्तर भारतको रवाना हुए। आगरा पहुँचकर वे दरबार में हाजिर हुए। शिवाजीने अपने प्रति जैसे राजकीय व्यवहारकी आशा की थी, वैसा व्यवहार या सत्कार उन्हें दरबारमें नहीं मिला। उन्हें दरबारमें पाँच हजारी मनसबदारोंकी पंक्तिमें लाकर खड़ा कर दिया गया। वे उस अपमानको सहन न कर सके । क्रोधसे उनका चेहरा तमतमा उठा और वे मूच्छित-से हो गये। इस घटनाका महाकवि भूषणने अपने 'शिवराज भूषण' नामक ग्रंथके कई छन्दोंमें वर्णन किया है और इस प्रसंगमें 'गुसलखाना' शब्दका प्रयोग किया है । 'गुसलखाना'से भूषणका क्या अभिप्राय था, इस पर अब तक किसी विद्वान्ने सप्रमाण स्पष्ट प्रकाश नहीं डाला है । इतिहासकारोंने इस घटनाका स्थल दरबारको ही बताया है, पर 'गुसलखाना'का नाम भूषणने बार-बार लिया है और उनका कथन प्राणहीन या निराधार नहीं है। यद्यपि सामान्य रूपमें 'गुसलखाना'का अर्थ स्नानागार है, किन्तु इस शब्दार्थकी कोई संगति इस प्रसंगमें नहीं है।
इस लेख द्वारा प्रामाणिक उल्लेख्य सामग्रीके आधार पर इस प्रसंगका स्पष्टीकरण जिज्ञासु पाठकोंके सम्मुख प्रस्तुत किया जा रहा है।
आगरेमें 'शिवाजी-औरंगजेब-भेंट'का सर्वाधिक प्रामाणिक वृत्तान्त, जयपुर राज्यके पुराने दफ्तरसे प्राप्त ऐतिहासिक सामग्रीके आधार पर डा० यदुनाथ सरकारने अपने 'शिवाजी' नामक ग्रंथमें किया है। उक्त ग्रंथसे ज्ञात होता है कि औरंगजेबकी सालगिरहके' दिन (१२ मई, १६६६ ई०) शिवाजीका दरबारमें उपस्थित होना निश्चित हुआ था, किन्तु शिवाजीको आगरा पहुँचने में एक दिनकी देरी हो गई थी। ११ मई को शिवाजी आगरेसे एक मंजिलकी दूरी पर सराय-मलूकचन्द तक ही आ पाये थे और वहीं उन्होंने मुकाम किया था। इस कारण १२ मईको शिवाजी दरबारमें उपस्थित नहीं हो सके। शिवाजी आगरेमें १३ मई
१. चाँद तिथिके अनुसार बादशाहका ४९वां जन्म-दिन, जो १२ मई सन् १६६६ ई० को पड़ा था। २. शिवाजी, डा० सर यदुनाथ सरकार, द्वितीय हिन्दी संस्करण, पृ० ७३ ।
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की सुबहको पहुँचे थे। इस दिन भी दरबारमें उपस्थित होने में उन्हें काफी देर हो गयी थी। बादशाह दीवान आमका दरबार समाप्त कर किले में भीतरी दीवान खासमें चले गये थे। कुमार रामसिंह शिवाजीको लेकर, भेंटके लिए वहीं उपस्थित हुए।'
सफेद पत्थरका बना हुआ यह दीवान खास भी जन्म-दिनके उपलक्षमें अच्छी प्रकारसे सजाया गया था । यहाँ भी ऊंचे दर्जेके अमीर-उमरा और राजा लोग सजधजकर अपने-अपने दर्जे के अनुसार खड़े थे। इसी दरबारमें शिवाजीकी भेंट औरंगजेबसे हुई थी और यहीं अपमानकी घटनासे लेकर, उसके बादकी घटनाएँ घटी थीं।
महाकवि भूषणने इसी दीवान खासके लिए, अपने ग्रंथ 'शिवराजभूषण' में बार-बार 'गुसलखाना' शब्दका प्रयोग किया है। प्रसिद्ध इतिहास-ग्रंथ 'मआसिरुल उमरा, जिसमें मुगल दरबार तथा उससे सम्बद्ध अमीरों, सरदारों और राजाओंकी जीवनियाँ लेख बद्ध हैं, में 'सादुल्ला खाँ अल्लार्मा की जीवनीके अन्तर्गत इस 'गुसलखाने'का स्पष्टीकरण इस प्रकार दिया हुआ है:
“यह जानना चाहिए कि दौलतखाना खास एक मकान है, जो बादशाही अन्तःपुर तथा दीवान खास व आमके बीच में बना है और दरबारसे उठने पर उसी मकानमें कुछ वादोंका निर्णय करनेके लिए बादशाह बैठते हैं, जिसकी सूचना सिवा खास लोगोंके किसीको नहीं मिलती। यह स्थान हम्मामके पास था इसलिए यह अकबरके राज्यकालसे गुसलखानेके नामसे प्रसिद्ध है। शाहजहाँने इसे दौलतखाना खास नाम दिया था।"
जहाँगीरने भी अपने आत्मचरित्र में इस 'गुसलखाने का उल्लेख किया है। वह एक स्थानपर लिखता है कि-"१९वीं आबाँकी रात्रिमें प्रतिदिनके अनुसार हम गुसलखानेमें थे। कुछ अमीरगण तथा सेवक और संयोगसे फारसके शाहका राजदूत मुहम्मद रजाबेग उपस्थित थे।" ४ एक दूसरे स्थानपर वह फिर लिखता है-"हलका भोजनकर नित्य प्रति हम नियमानुसार दीवानखानोंमें जाते और झरोखा तथा गुसलखाने में बैठते थे।"३
इन उल्लेखोंसे स्पष्ट है कि 'गुसलखाना' एक भवन विशेष था, जहाँ बादशाहका खास दरबार लगा करता था। यद्यपि शाहजहाँने इसका नाम 'दौलतखाना खास' कर दिया था, फिर भी यह अपने पर्व प्रचलित 'गुसलखाने के नामसे ही पुकारा जाता था । वास्तवमें यह मुगल सम्राट्का मंत्रणा-गृह था। शासन की बारीक समस्याएँ यहीं हल होती थीं और विभिन्न सूबोंके बारेमें यहींसे आज्ञाएँ प्रचारित की जाती थीं। भूषणने भी इस भवनके लिए इसके पूर्व प्रचलित नाम 'गुसलखाना'का ही उल्लेख किया है।
यहां यह बात विशेष रूपसे ध्यान रखनेकी है कि इतिहासकारोंका उक्त घटनाविषयक स्थान शब्द 'दरबार' सामान्य अर्थका बोधक है। बादशाहका दरबार जहाँ भी लगता था, चाहे वह दीवान आम व
१. शिवाजी, डॉ० यदुनाथ सरकार, द्वितीय हिन्दी संस्करण, पृ० ७३ । २. मआसिरुल उमरा अर्थात् मुगल दरबार (हिन्दी-संस्करण), पृ० ३३२, ५वा भाग, ना० प्र० सभा,
काशी। ३. दरबार आम खासका स्थान-ले० । ४. जहाँगीरनामा (हिन्दी, प्र० संस्करण), पृ० ४०१, ना० प्र० सभा, काशी। ५. वही, पृ० ३३५ ।
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खास (दरबार आम खास, पब्लिक एसम्बली हॉल) हो अथवा दीवान खास (दरबार खास, कौन्सिल चेम्बर ) हो, दरवार ही कहलाता था । दूसरी बात ध्यान देने की यह है कि भेंट वाले दिनका दौलतखाना खास ( दीवान खास ) का दरबार, प्रतिदिनका विशेष मंत्रणा दरबार नहीं था, अपितु बादशाह के जन्म-दिनके उत्सव में एक प्रकारसे सामान्य दरबार खास था । यद्यपि सभी आम व्यक्तियोंको वहाँ पहुँचनेकी आज्ञा नहीं थी ।
इस घटना-प्रसंगके विषय में इतिहासकारोंने लिखा है कि “जब शिवाजीका अपमान दरबारमें हुआ तो वे क्रोधाभिभूत दशा में निकट स्थित एक अन्य कमरे या स्थानपर चले गये थे । यह कमरा या स्थान दरबारसे सटा हुआ था, पर दरबारसे भिन्न था। यहाँ उन्हें बादशाह नहीं देख सकता था । दरबारमें अपमानित होने की घटना के तुरन्त बादकी घटनाएँ यहीं घटित हुई थीं ।""
इतिहासकारोंके उक्त उल्लेखके आधारपर हिन्दी के कुछ विद्वानोंने अनुमान किया है कि उक्त दूसरे कमरे या स्थान ही को भूषणने बार-बार 'गुसलखाना' कहा है, किन्तु उपर्युक्त उल्लेखोंके आधारपर प्रामाणिकताकी दृष्टिसे यह अनुमान सही नहीं है । साथ ही भूषणके कथन भी इस अनुमानसे मेल नहीं खाते ।
यह ध्यान रहे कि भूषणने उस पूरे भवनको ही गुसलखाना कहा है, जहाँ बादशाहका खास दरबार लगा करता था, किसी केवल कमरे विशेषको नहीं । औरंगजेब द्वारा उपयुक्त आदर-सत्कारको प्राप्ति न होने पर, शिवाजीका अपनेको अपमानित अनुभव करना, ग्लानि और क्रोधसे उनके तमतमा उठनेपर दरबार में आतंक छा जाना, औरंगजेब के संकेतसे रामसिंह द्वारा पूछे जानेपर, निडरतापूर्वक कटु वचनोंको कहना - आदि घटनाएँ इस दरबारमें घटित हुई थीं और भूषणने शिवाजीकी इसी क्रोध पूर्ण स्थितिका जिससे दरबार में आतंक छा गया था, वर्णन शिवराज भूषण में किया है, उनके दरबारसे चले जानेके बादकी घटनाओं का नहीं ।
महाकवि भूषण ने शिवराज भूषण में गुसलखाने की घटनाका वर्णन छन्द सं० ३३, ७४, १६९, १८६, १९१, २४२ और २५१ में किया है । वे कहते हैं कि औरंगजेबने शिवाजीको पाँच हजारियोंके बीच खड़ा किया, जिसपर शिवाजी अपनेको अपमानित अनुभव कर बिगड़ उठे । उनकी कमर में कटारी न देकर इस्लाम ने गुसलखाने को बचा लिया । अच्छा हुआ कि शिवाजीके हाथमें हथियार नहीं था, नहीं तो वे उस समय अनर्थ कर बैठते --
"पंच हजारिन बीच खरा किया मैं उसका कुछ भेद न पाया । भूषन यौं कहि औरंगजेब उजीरन सों बेहिसाब रिसाया || कम्मर की न कटारी दई इसलाम ने गोसलखाना बचाया । जोर सिवा करता अनरत्थ भली भई हथ्थ हथ्यार न आया ।" (१९१ ) गुसलखाने में आते ही उन्होंने कुछ ऐसा त्यौर ठाना कि जान पड़ा वे औरंगके प्राण ही लेना
चाहते हों-
"आवत गोसल खाने ऐसे कछू त्यौर ठाने, जानौ अवरंग हूँ के प्राननको लेवा है ।" (७४)
१. शिवाजी दि ग्रेट, डॉ० बालकृष्ण, पृ० २५६ ।
२. दे० भूषण, सं० पं० विश्वनाथ प्रसाद मिश्र, प्र० सं०, वाणी वितान, वाराणसी ।
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एक अन्य छंदमें शिवाजीकी वीरताका वर्णन करते हुए उनका दिल्लीपतिको जवाब देने, समस्त दरबारियोंको आतंकित करने और बिना हाथमें हथियार या साथमें फौज लिये माथ न नवानेका उल्लेख इस प्रकार किया है-- .. "दीनी कुज्वाब दिलीस को यौं जुडर्यो सब गोसलखानो डरारौ ।
नायौ न माहिं दच्छिन नाथ न साथ में सैन न हाथ हथ्यारौ।" (१६९) एक और छंदमें भूषण लिखते हैं कि औरंगजेबसे मिलते ही शिवाजी क्रुद्ध हो उठे, जिसपर उमराव आदि उन्हें मनाकर गुसलखानेके बीचसे ले चले
"मिलत ही कुरुख चिकत्ता कौं निरखि कीनौ, सरजा साहस जो उचित बृजराज कौं। भूषन कै मिस गैर मिसल खरे किये कौं किये, म्लेच्छ -मुरछित करिकै गराज कौं । अर” गुसुलखान बीच ऐसें उमराव, लै चले मनाय सिवराज महाराज कौं ।
लखि दावेदार को रिसानौ देखि दुलराय, जैसे गड़दार अड़दार गजराज कौं। (३३) छंद सं० १८६ में पुनः गुसलखानेमें ही दुःख देनेका प्रसंग है--
"ह्याँ तें चल्यौ चकतें सूख देन, कौं गोसलखाने गए दूख दीनौ। - जाय दिली-दरगाह सलाह कौं, साह कों बैर बिसाहि के लीनौ ।"(१८६)
२४२वें छंदमें भी गुसलखानेमें साहसके हथियारसे, औरंगकी साहिबी (प्रभुत्व) को हिला देनेका उल्लेख है--
"भूषन भ्वैसिला तें गुसुलखाने पातसाही, अवरंग साही बिनु हथ्थर हलाई है। ता कोऊ अचंभो महाराज सिवराज सदा, बीरन के हिम्मतै हथ्यार होत आई है । "(२४२)
शिवाजीकी प्रशस्तिमें लिखे हुए एक प्रकीर्णक छंदमें तो भूषणने स्पष्ट उल्लेख कर दिया है कि आतंकित औरंगजेबने बड़ी तैयारी और सावधानीके साथ गुसलखानेमें शिवाजीसे भेंट की थी
"कैयक हजार किए गुर्ज-बरदार ठाढ़े, करिकै हुस्यार नीति सिखई समाज की । राजा जसवन्त को बुलायकै निकट राखे, जिनकों सदाई.रही लाज स्वामि-काजकी। भूषन तबहुँ ठिठकत ही गुसुलखाने, सिंह-सी झपट मनमानी महाराज की। हठ तें हथ्यार फेंट बाँधि उमराव राखे, लीन्ही तब नौरंग भेंट सिवराजकी।" (४४२)
उपर्युक्त उद्धरणोंसे यह पूर्णतः स्पष्ट है कि भूषणने इस भेंटका जो वर्णन किया है, वह इतिहाससम्मत है और स्थानका निर्देश सही है। यह बात दूसरी है कि कविके वर्णनमें कुछ अतिशयोक्ति और चमत्कार आया हुआ प्रतीत होता है। ऐसा हो जाना स्वाभाविक है, क्योंकि कविने शिवाजीकी वीरताके वर्णनोंको अलंकारोंके उदाहरणके रूप में उपस्थित किया है।
शिवराजभूषणके कुछ सम्पादकोंने प्रसंगके आधारपर यद्यपि 'गुसलखाना' शब्दका अर्थ दरबार खास किया भी है, किन्तु यह अर्थ अभी तक अनुमानपर ही आधारित था । इस स्पष्टीकरणसे यह अनुमान अब वास्तविकतामें परिणत हो गया है।
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होथल निगामरी और ओढा जामकी सुप्रसिद्ध लोककथाके वस्तुसाम्य एवं इसके आधार-बीजपर विचार
श्री पुष्कर चन्दरवाकर, राजकोट . सौराष्ट्र, कच्छ और राजस्थान में होथल एवं ओढा जाम की प्रेम कथा बहुत ही लोकप्रिय तथा सुप्रसिद्ध है, जो अपने-अपने प्रदेशकी जनवाणी अथवा लोक-कथाके रूपमें आज भी वहाँ-वहाँके लोगोंकी जिह्वापर स्थित है, साथ ही यह उन-उन प्रदेशोंकी जन-वाणीमें ग्रन्थस्थ भी कर दी गई है।
होथल-पद्मिणीकी लोक-कथाके महत्त्वके दो पाठ गुजराती भाषामें उपलब्ध होते हैं। उनमें एक है स्व. श्री झवेरचन्द मेघाणी द्वारा सम्पादित कथा 'होथल' में और दूसरा पाठ प्राप्त होता है स्व० श्री जीवराम अजरामर गौर द्वारा सम्पादित 'उठोकेर अने होथल निगामरी २ में।
इसके आधार-बीजके विचारके लिये ये दोनों पाठ महत्त्वपूर्ण हैं। इन दोनों पाठों वाली होथलकी कथा वार्तालापका Trait-Study तुलनात्मक अध्ययनके लिये अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हो सकती है। इसे लोकभोग्य बनानेके लिये इसमें आवश्यक परिवर्तन किया गया है। लोक-कथाका गठन कैसा हो सकता है, इस हेतु स्व. श्री झवेरचन्द मेघाणीकी कथा 'होथल'को विस्तारपूर्वक समझ लेना आवश्यक है। जब श्री स्व० गौरकी लोक-कथा 'निगामरी अने उठो केर'के आधारबीजके निर्णय हेतु विशेषरूपसे यह उचित प्रतीत होती है। डॉ. स्टिथ थोम्पसन द्वारा बताई गई लोक-
वाके व्यावर्तक लक्षणोंपर दृष्टिपात करते हुए लोकवार्ताका अध्ययन करने हेतु भी ये दोनों पाठ उपयोगी लग सकते हैं । इस प्रकारसे ये लोक-कथायें अनेक दष्टिसे लोक-शास्त्रज्ञको अध्ययन-सामग्रीकी पूर्ति कर सके, जैसी है।।
किन्तु, यहाँ केवल आधारबीजके अध्ययन हेतु चर्चा-विचार-करनेकी आवश्यकता होनेके कारण स्व० श्री गौरकी लोक-कथाका पाठ विशेष उपयोगी सिद्ध होगा, ऐसा प्रतीत होता है। क्योंकि, उसका सम्पादन विशेष करके मूल लोककथाके आधारपर स्थित है, ऐसा स्पष्ट और वैज्ञानिक विचार मानसपर उभर आता है। उसकी वार्ताका सार निम्न है। इस लोक-वार्ताका काल नवमी शताब्दी का है।
१. सौराष्ट्र नी रसधार, भाग ४, संपादक : श्री झवेरचंद मेघाणी, प्रकाशक : श्री गुर्जर ग्रन्थरत्न कार्या
लय, अहमदाबाद, पंचमावृत्ति ई० स० १९४७, पृ० १५ से ४९ । २. कच्छकी गुजराती लोकवार्ताओं, संपादक : स्व० श्री कवि जीवराम अजरामर गौर, प्रकाशक : राजा
रामजी गौर झांझीबार, प्रथमावृत्ति ई० स० १९२९, पृ० १९७ से २६४ । ३. The Occen of Story, vol VIII, by C. H. Towny & N. M. Penzer, Pub. by
Motila IBanarasidas, Varanasi, Indian Reprint, 1968, Forward, p. 10, 20, 21. ४. The Folk Tale, by Dr. Stith Thompson, Pub. by Holt Rinchart and Winston,
Inc. New York, 1946, p. 456.
३१२ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ
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होथलके पालक पिताका नाम सांगण निमागरा था। यह कच्छके किसी एक गाँव, जिसका नाम उपलब्ध नहीं हो रहा है, का निवासी था। इसे होथल जंगलमें पड़ी मिली थी। रूपवती होनेके कारण इसे सभी लोग सम्पन्न परिवारकी कन्या होना मानते थे। इसके सौन्दर्यके कारण लोग इसे इन्द्रकी अप्सरा भी कहते थे । तथा दैवी-स्त्री मानते थे। वह देवांगनामें गिनी जाती थी।
जब होथल वयस्क हो गई तब इसके साथ विवाह करने हेतु अनेक स्थानोंसे माँगणी की गई। किन्तु स्वयं होथलने ही अपने पालक-पितासे अपने विवाहके सम्बन्धमें अनिच्छा व्यक्त कर दी थी।
यह (होथल) रायर तालुकाके साई गाँवके नैऋत्यमें लगभग १ मीलकी दूरीपर होथलपुराके पहाड़में खोदे गये एक भूमि-गृहमें कुछेक दिनों तक एकान्तमें रही । वहाँ इसने लूट-फाट करनेकी इच्छासे निकले हुए होथी निमागरा नाम धारण कर घलड़ाके सरदार बांभणिया समाके ढोर समूहको घेर लेने हेतु निकली। उस समय इसका मार्गमें भाई द्वारा देश निकाला दिये हुए ओढा जाम और उसकी फौजसे मिलन हुआ। इस समय होथल अपने वेशमें परिवर्तन कर पुरुष-वेश में थी। इन दोनोंने मिलकर बांभणियाके ढोरसमूह (पशओं) को घेर लिया और लगभग आठ दिन साथ-साथ ही बिताये। इनका तबसे हो प्रेमालाप प्रारम्भ हुआ।
जब ये दोनों एक दूसरेसे पृथक् हुए, तब इन्हें दुःख एवं वेदनाका अनुभव हुआ। लगातार आठ दिन तक स्नान नहीं किया जानेके कारण होथल अपने वस्त्र उतार कर चकासरके सरोवरमें स्नान करने लगी। ओढा अकेला ही रवाना हो गया। इसका घोड़ा कहीं दूर चला गया था । अतः उसकी खोज करने हेतु नजर दौड़ाने के लिये जब यह ऊँचाईके स्थान-तालाबकी पाल-पर चढ़ा तो उसने होथलके घोड़ेको एक पेड़से बंधा हुआ देखा । इसके वस्त्र उसे पेड़के नीचे पड़े हुए दिखाई दिये । साथ ही साथ तालाबमें होथलको तैरते हुए भी देखा । ओढा जाम वृक्षके नीचे आकर होथलके वस्त्रोंपर बैठ गया। उस समय होथलने उसे वस्त्र छोड़ कर जाने के लिए कहा। किन्तु ओढा जामने इसकी कोई परवाह नहीं की। तब इसने किंचित् क्रोधित होते हुए कहा, "तुम अभी यहाँसे दूर हट जाओ। पश्चात् हम परस्पर बात करेंगे।"
__ ऐसा सुनकर ओढा जामने कहा, "यदि तुम मुझसे विवाह करनेका वचन दो तो मैं तुम्हें तुम्हारे वस्त्र दे दूं।"
उस समय होथलने एक पद्य कहा :
"ऊठा अरगोथी से, लंगे सरवर पार ।
कंधासु सेज गाल, जिका तोजे मन में ।" अर्थात् हे ओढा ! तू सरोवरकी पालको लांघ कर दूर चला जा। तत्पश्चात् ही जो तुम्हारे मनमें है, उसपर हम परस्पर विचार करेंगे । तात्पर्य यह है कि तम्हारे साथ विवाह करूंगी।
होथलने ओढाके सम्मुख निम्न शर्ते रखी :
१. हमारे परस्पर विवाहित हो जाने के बाद मैं तुम्हारे घरपर नहीं आऊँगी और जहाँ-जहाँ मैं रहूँ वहाँ-वहाँ तुम्हें भी रहना होगा।
२. मैं कौन हूँ, मेरा नाम क्या है, इस सम्बन्धमें किसीको कुछ भी नहीं बताया जाय। ३. इन शर्तोंके भंग होनेपर मैं तुरन्त ही तुम्हें त्याग दूंगी। ओढा जामने इन शर्तोंको स्वीकार कर लिया और इनका परस्पर विवाह हो गया। लगभग दस
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वर्ष तक वे पहाड़ोंकी गुफाओंमें रहे और इनके जबरा और जैसंग नामक दो पुत्र हुए। एक दिन ओढा जाम अपने दोनों पुत्रों के साथ प्रस्तर-शिलापर बैठा था, तब किसी मोरने अपनी गरदनको तीन बार हिला-हिलाकर ध्वनि की । जबराने मोरपर पत्थरसे घाव कर दिया। उस समय ओढा जामने जबरासे कहा : यह मोर, विस्मृत सगे-सम्बन्धियोंकी स्मृतिको ताजी करा रहा है। अतः इसे मारना नहीं चाहिए। इसी समय ओढाको अपना प्रिय स्वदेश, प्यारे परिजन आदि याद आ गये और यह उदास हो गया। उसी समय होथल वहाँ आ पहुँची और ओढा जामको उदास देखकर जब इसका कारण पूछा तो ओढा जामने कहा कि, स्वदेशका स्मरण हो आनेके कारण उदासी आ गई है। अब तो सगे-सम्बन्धियोंका विछोह खटक रहा है।
इस सम्बन्धमें दोनोंके मध्य लम्बा वार्तालाप हुआ और अन्त में यही निश्चय किया गया कि ओढ़ा जामके देशमें जाया जाय अवश्य किन्तु, वहाँ होथलसे कोई स्त्री पुरुष नहीं मिलेगा और ओढ़ा जाम द्वारा होथलके सम्बन्धमें कोई बात नहीं कही जावेगी।
ये अपने देशमें गये। होथीने अपने छोटे भाईके कथनको स्वीकार कर लिया। उसकी पत्नी मीणावतीका देहान्त हो गया था। इससे ओढाके कष्टका अब कोई कारण नहीं था। होथीने शासन-सत्ता ओढाको सौंप दी । ओढा जाम अपने पूर्व भवनमें होथलके साथ रहने लगा । यहाँ होथल किसीसे मिलती नहीं थी । अतः इसके सम्बन्धमें सगे-सम्बन्धियों द्वारा समय-समय पर ओढासे पूछा भी जाता रहा । किन्तु, उसके सम्बन्धमें वह अपने मुखसे एक भी शब्द नहीं कहता था। परिणामस्वरूप यह एक लोकचर्चाका विषय बन गया कि ओढा जामने किसी अनजान महिलाको रखेल स्वरूप रख लिया है। अत: इन दोनों (ओढा जाम और होथल) की यह निन्दा होने लगी कि नामालूम यह हलके वंशकी स्त्री कौन है ?
एक बार ओढा जाम नशेमें मदमस्त था। उस समय उसके और उसकी स्त्री होथलके सम्बन्धमें लोग निन्दा करने लगे। तब ओढाने कह दिया कि मेरे घरमें अनेक सिद्धियों को प्राप्त हई स्वर्गकी देवांगना है-और बाँभणसारके घडला सोढाके विरुद्ध डाका डालनेवाली प्रसिद्ध सांगण निगामराकी पालित-पुत्री है और हम परस्पर लग्न-ग्रन्थि द्वारा जुड़े हुए हैं।
इस प्रकारसे इस गुप्त बातको ओढा जामने प्रकाशित कर दिया। जब यह समाचार होथल के कानोंपर पड़े तो उसने तुरन्त ही पृथक्-पृथक् निम्न चार पत्र लिखे ।
१. आपने, अपने द्वारा स्वीकार की गई शर्तोंका भंग किया है । अतः मैं आपको त्याग रही हूँ। २. मैं सदैव आपको देखती रहूँगी, किन्तु आप मझे नहीं देख सकेंगे। ३. मैं आपकी एवं आपके दोनों पुत्रोंकी रक्षा अंतरिक्षमें रहते हुए भी करती रहेंगी।
४. अपने दोनों पुत्रोंके विवाह संस्कारके अवसरोंपर वैवाहिक-विधानानुसार मेरी आवश्यकताकी पूर्ति हेतु (पौखनेकी क्रियार्थ) उपस्थित रहूँगी।
होथल इन चिट्टियोंको देकर रवाना हो गई। ओढाको जिस समय यह सूचना मिली तो यह वियोगके कारण पागल-सा बनकर दिवस व्यतीत करने लगा।
जब ओढा जामके पुत्र वयस्क हो गये तो थलके दो सोढा सरदारों की सुन्दर कन्याओंके साथ इन दोनोंका वाग्दान (सगाई) हआ और विवाह भी हो गया। जिस समय ये दोनों विवाहकर वापस घर आये, उस समय होथल वैवाहिक-क्रियानुसार अपने दायित्वको पूर्ण करने हेतु उपस्थित हो गई। बड़ी बहूने साससे एक नवलखा हार मांगा जो इसने उसे दे दिया, किन्तु छोटी बहने अपनी सासकी देख-रेखमें रहना और इसका निरन्तर सामीप्य माँगा। ३१४ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ
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होथलने इस मांगको स्वीकार कर लिया और सदाके लिए ओढा जामके साथ रहने लग गई।
कच्छकी भूमिपर की यह प्रचलित दन्तकथा ऋग्वेदकालके जितनी ही पुरानी है। ऋग्वेदमें उर्वशी पुरुरवाकी एक कथा आती है । उसके साथ इस कथाका अनुबन्ध है। उर्वशी-पुरुरवाकी कथाके साथ इस लोककथाका अत्यन्त साम्य है, समानता है।'
पुरुरवा पृथ्वीपर का एक मृत्युलोकी-मानव है, जबकि उर्वशी एक अप्सरा है। होथल भी एक अप्सरा ही थी२, ऐसा कहा गया है। ये दोनों गान्धर्व विवाह द्वारा विवाहित बन जाते हैं और विवाहके अवसरपर उर्वशी भी शत प्रस्तुत करती है
१. दिनमें तीनसे अधिक बार आलिंगन न किया जाय । २. पुरुरवा, नग्नदेहसे उर्वशीकी दृष्टिके समीप नहीं आना चाहिए ।
३. उर्वशीकी इच्छाके विरुद्ध सह-शयन न किया जाय और यदि इनमेंसे किसी भी एक शर्तका भंग किया जायगा तो उर्वशी शीघ्र ही पुरुरवाको त्यागकर चली जाएगी।
इन शर्तोंको पुरुरवाने विवाहसे पूर्व ही स्वीकार कर लिया था ही।
स्वर्गको त्यागकर पृथ्वीपर आई हुई उर्वशीका वियोग गन्धर्व नहीं सह सके । इसलिये वे इन शोंका भंग कराने हेतु युक्तियाँ लड़ाने लग गये। अन्तमें पुरुरवा निर्वसन-स्थितिमें उर्वशीके समीप उपस्थित हो गया। उस समय अन्धकार अवश्य था, किन्तु गन्धर्वोने विद्युत-चमक उत्पन्न कर दी, ताकि उर्वशी इसे नग्न देख सके । पुरुरवाके नग्न शरीरपर दष्टिपात होते ही उर्वशीको शर्त भंग हो जाना प्रतीत हुआ और जिसप्रकारसे होथल चली गई थी, उसी प्रकार उर्वशी भी चली गयी। उर्वशीके चले जानेपर पुरुरवा पागल हो गया। इस रूपमें स्नान करती हुई उर्वशीने, कुरुक्षेत्रके सरोवर तटपर पुरुरवाको देखा। यह दया हो गई और जब उर्वशी पुरुरवाके समीप प्रकट हई तब उसने उर्वशीसे प्रार्थना की कि तुम वापस आ जाओ।
अन्तमें देवताओंके वरदान स्वरूप पुरुरवाने पुनः उर्वशीको प्राप्त कर लिया।
इस प्रकारसे लगभग तीन हजार वर्ष पूर्वकी इस पुराणकथा Myth के साथ ही साथ होथलपद्मिणीका ठीक-ठीक सम्बन्ध दिखाई देता है । उर्वशी-पुरुरवाकी कथा अत्यन्त प्राचीन प्रेमकथा है। इसे अमर बनाने के लिए इसका दृढ़तर कला-पक्ष है । फिर भी यह कथानक एक प्रतीकात्मक रूपक है। पुरुरवा उर्वशीकी सुनियोजित समस्त कथा ऋग्वेदमें नहीं मिलती है। किन्तु शतपथ ब्राह्मणमें यह उपलब्ध हो है। ऋग्वेदमें केवल अठारह संवादात्मक सूक्त उपलब्ध होते हैं परन्तु शतपथ ब्राह्मणमें तो यह समस्त कथानक विद्यमान है। श्री पेन्झरके मतानुसार महाभारत, विष्णुपुराण एवं अन्य पुराणों में से भी यह कथा मिल आती है।
१. ऋग्वेद, संपादक : पं० श्रीराम शर्मा आचार्य, प्रकाशक : संस्कृति संस्थान, बरेली चतुर्थ संस्करण १,
३१, ४ : ५ : ३ : ४१ : ७,२३, ११ : ८, १८, ९५, ऋग्वेद कथा, सं० : रघुनाथ सिंह, प्रकाशक नेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली, पृ० २२६ से २४५ ।
कच्छनी जूनी वार्ताओ, पृ० २४१, सौराष्ट्रनी रसधार भा० ४, पृ० ४७ । ३. The Occen of Story, vol. II, p. 245. ४. एजन, पृ० २४४, २५१, २५२ । ५. एजन, पृ० २४८ ।
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उर्वशी-पुरुरवाके इस कथानकमें तुलनात्मक निम्न मुद्दे ये है१. अमर्त्य-नारी, मानवके साथ विवाह करती है। २. लग्न हेतु देवांगना मानवको शर्ते स्वीकार करनेके लिए कहती है । ३. शर्त भंग हो जाती है और देवांगना मानवका त्याग कर देती है। ४. देवांगना, हंसकुमारीके रूपमें परिवर्तन करती है। ५. देवांगना एकान्त-वादन करती है। ६. व्यथित मानवके प्रति देवांगनामें अनुकम्पा उत्पन्न होती है और अन्त में ७. इनका पुनः मिलन हो जाता है ।
होथल की लोक-कथाके वस्तुतत्त्वमेंसे महत्त्वके मुद्दे निम्न है, जो उर्वशी पुरुरवाकी पुराण-कथासे मिलते-जुलते हैं
१. देवांगना जैसी होथल-नारीका ओढा जामके साथ लग्न होना। २. लग्नके सम्बन्धमें होथलकी शर्ते । ३. शर्त-भंग और ओढा जामका त्याग । ४. होथलका एकान्तवास । ५. पुनरागमन और ओढा जामके साथ होथल का स्थायी निवास ।
इस प्रकारसे ओढा जाम और होथलकी दन्त-कथा ऋग्वेद और शतपथ ब्राह्मणकी उर्वशी-पुरुरवाकी कथाके साथ अकल्पनीय साम्यता सिद्ध करती है।
उर्वशी-पुरुरवाकी कथा, पुराण कथा (Myth) है, जब कि होथलकी कथा मात्र स्थानीय दन्त-कथा (Local Legend) बन गई है । इस कथाको नवम शताब्दीकी होना बताया जाता है। इसी प्रकारसे उसके राजवंश-कुल, पिता-भ्राताके नाम, निवासस्थान, भ्रमण-स्थल, युद्ध इत्यादिके नाम निश्चित रूपसे मिलते हैं। इस प्रकारसे भ्रमणशील और विसरित होकर Hoaling पुराण कथा दन्तकथा बनी हुई है । किन्तु मलमें तो यह उर्वशी पुरुरवाकी कथा ही है। श्री पेन्झर लिखते हैं कि यह आधार-बीज हंसकुमारीका (Swan-maiden) है और यह प्राचीन संस्कृत साहित्यमें उपलब्ध होती है।
इस पुराण-कथानकने पूर्वरूपसे संस्कृत साहित्यमें विकसित होकर कथाका रूप प्राप्त कर लिया है। तत्पश्चात ही यह अन्य भारतीय भाषाओं एवं लोक-वार्ताम जन-साधारण योग्य बन पाई और ऐसा करनेके लिए ठीक-ठीक समय भी व्यतीत होता गया ।
उर्वशी-पुरुरवाकी पुराण-कथा पूर्व एवं पाश्चात्य देशोंमें प्रसरित होकर फैल रही है। ग्रीसमें यह
१. एजन, पृ० २४८ । २. The Occen of Story, vol. 8, p. 234.
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Appendix 1 p. 213-234.
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कथा "क्युपिड और साइक"१ की कथाके नामसे, जर्मनी में "स्वान मेइडन"२ के नामसे, फासमें “मेलुसिना"3 की कथाके रूपमें, स्काटलैण्डमें "दी सील वमन"४ के रूपमें प्रचलित है। जिप्सियोंकी लोक-कथामें "दी विण्ड मेइडन के रूपमें पहचानी जाती है । "कथा सरितसागर" में मरुभूतिकी कथा है। वह भी इसी आधार-बीजकी कथा है। भागवत पुराणमें कृष्ण गोपियोंके वस्त्रोंका हरण करते हैं। यह प्रसंग भी ऐसा ही है, जो यहाँ ध्यान देने योग्य है। इस प्रकारसे ऋग्वेदमेंसे उत्पन्न यह कथा भारतभूमिपर लिखे गये शतपथ ब्राह्मण, विष्णुपुराण, भागवतपुराण एवं अन्य पुराणोंमें विकसित हुई, इस पृथ्वीपर लालनपालन प्राप्त कर रहा है।
यह पुराण-कथा बाद में पाश्चात्य देशोंमें भ्रमणार्थ निकलती है । ग्रीस की ठीक-ठीक पुराण कथाओं में यही आधारबीज मिलता है। श्री एन० एम० पेन्झरने इसका वर्णन विस्तारपूर्वक किया है । और अनुमान लगाते हैं कि यूरोपकी प्राचीन मूल लोककथामें "हंसकुमारी" के आधारबीजका लेशमात्र भी अनुमान नहीं मिलता है । वह कथा और उसका आधारबीज भारतवर्ष में से यूरोपीय देशोंमें आया है। इसी प्रकारसे ही यह पुराण कथा अफ्रीकाके और मध्य एशियाके देशोंमें प्रसरित हई है जो भारत पर किये गये यवन-आक्रमणोंके कारण ही ।२
यह पुराण कथा और इसका आधारबीज पूर्व देशोंमें भी घूमता हआ दृष्टिगोचर हो रहा है । जापानमें उर्वशी-पुरुरवाकी पुराण कथाने अपना नाम बदल लिया और वहाँ यह "हिकोहोहो-डेमी" के नामसे
१. A Handbook of Greek mythology, by J. H. Rose, Pub. by Methuen University,
paperback, London, 1964, p. 287.
लोकसाहित्यविज्ञान, डॉ० सत्येन्द्र, प्रकाशक : शिवलाल अग्रवाल एण्ड कं० आगरा, प्रथमावृत्ति, पृ०२२२. २. The Dictionary of Folklore Mythology & Legends, vol. II, Maria Leach, p.1091.
The Folk Tale, p. 88. 3. The Dictionary of tolklore Mythology & Legends, vol. II, p. 705.
लोकसाहित्यविज्ञान, पृ० २२२ । 8. Folk-Tales from Scotland, by Philippa Gallomay, Pub. by Collins, London,
reprint, 1945, p. 8. ५. The Gipsy Folk-Tales, by Dora B. Yeats, Pub. by Phonix House Ltd., London,
___1948 p. 56. ६. The Occen of Story, vol. VIII, p. 58.
214. ८. एजन, पृ० २१७ । ९. एजन, पृ० २२६ । १०. एजन, पृ० २२६ । ११. एजन, पृ० २२६ । १२. The Occen of Story, vol. VIII, p. 227. १३. The Dictionary of Folklore Mythology and Legends, vol. II, p. 705.
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प्रख्यात हुई है । महाभारतमें शान्तनु और गंगाकी पुराण कथा भी इसी आधारबीजकी कथा है। राजस्थानमें की धाँधलकी कथा भी इसीका परिवर्तित रूप प्रतीत होता है।
इस प्रकारसे यह पुराण कथा अत्यन्त ही व्यापक Universal है क्योंकि, उसका कथावस्तुतत्त्व अति मोहक है। २ संसारके वार्ता-साहित्यमें इस प्रकारका अद्वितीय अन्य कथावस्तुतत्त्व कदाचित् ही दृष्टिगत होता है । इस कथाका कथावस्तुतत्त्व है, दिव्य प्रेम ।
डा० स्टिथ थोम्सनने अपने ग्रन्थ "दी फाक्टेल" मे ऐसी कथाओंके लक्षण एवं आधारबीजकी चर्चा विस्तारपूर्वक की है और सारांशके रूपमें बताया है कि देवांगनाके साथ पुरुष शर्तोंको स्वीकार कर विवाह करता है तथा शर्त-भंग होते ही स्त्री, पुरुषको छोड़ कर चली जाती है । संक्षेपमें कहा जाय तो दो प्रमी परस्पर लग्न-ग्रन्थि द्वारा जुड़ते हैं किन्तु उनके मध्य शर्ते निश्चित होती हैं और शर्त-भंग होते ही देवांगना चली जाती है। ऐसा प्रतीत होता है कि डा० स्टिथ थोम्पसनने अपने "दी फाक्टेल" में मानों होथल और ओढाकी बात उन्हें ज्ञात ही हो और वे उसी पर ही लिख रहे हों, ऐसी अदासे लिखा है। आपने उसमें बताया है कि नायक, देवांगनाके साथ विवाह करता है और अपने दिन सुखपूर्वक व्यतीत करता है। किसी एक प्रसंगपर नायकको अपने देश (वतन) को जाना याद आता है और पत्नी भी इसके लिये सहमत हो जाती है"और स्त्री, नायकको स्पष्ट शब्दोंमें कहती है कि देखना शर्त-भंग न हो, इसका भली प्रकारसे ध्यान रखना । वह भी कह देती है कि अपने मुखसे उसका नाम तक उच्चारित न हो जाय या उसकी जिह्वा से उसके नामसे आवाज तक न दे।
नायक स्वदेश जाता है और अपनी पत्नीके सम्बन्धमें जब बढ़ा-चढ़ाकर बातें करता है तब वह अपनी पत्नीको खो बैठता है। पति, अपनी पत्नीको खोजने निकलता है और वह अनेक कठिनाइयोंमें जा पड़ता है । उन्हें पार कर लेनेपर अन्तमें दोनोंका पुनर्मिलन होता है ।
होथल और ओढा जामकी यही लोक-कथा है जिसका आधारबीज भी प्रेमीकी ओरसे "शर्त-भंग और त्याग" का है। अतः डा० स्टिथ थोम्पसन अपनी ओरसे इसके मानक एवं आधारबीजका क्रमांक लिखते हुए कहते हैं"--"This Series of notifes is frequently found in Type 400"
___ इस प्रकारसे होथल और ओढा जामको स्थानीय दन्त-कथाका महत्त्व संसारकी अनेक लोक-कथाओंके साथ जोड़ा जा सकता है और संसार भरकी लोक-कथाओंके क्षेत्रमें उसको भी सम्मानपूर्ण स्थान अवश्य प्राप्त हो।
१. The Occen of Story, vol. VIII, p. 234.
233. ३. The Folk-Tale, pp. 87-93.
91.
88.
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'तेजा'लोकगीतका एक नया रूपान्तर
श्री नरोत्तमदास स्वामी
पीठपति, राजस्थानी ज्ञानपीठ, बीकानेर तेजाजी राजस्थानके एक बहुत प्रसिद्ध लोक-देवता हैं। वे जातिके जाट थे और नागोर परगनेके कसबे परबतसरके पास स्थित खरनाल गाँवके निवासी थे। उनका विवाह किशनगढ़के पास स्थित पनेर गांवमें हुआ था। उनकी पत्नीका नाम बोदल बताया जाता है (गीतोंमें कहीं पेमल और कहीं सुन्दर बताया गया है)। जब वे अपनी पत्नीको लाने पनेर गये हुए थे तब वहाँकी लांछा गूजरीकी गायोंको धाड़वी मीणे घेर कर ले गये । लांछाकी पुकारपर तेजाजी उन्हें छुड़ानेके लिए 'वार' चढ़े । गायोंको छुड़ाने में उन्हें प्राणान्तक घाव लगे और वे स्वर्गवासी हए । यह घटना भादवा सुदी १० के दिन हई। तभी से तेजाजी देवताके रूपमें पूजे जाने लगे । राजस्थानमें स्थान-स्थानपर उनकी 'देवलियां' पायी जाती है।
तेजाजीका सम्बन्ध नागोंसे भी है, साँपके काटे हुए को तेजाजीकी 'हाँती' बाँधते हैं जिससे जहर नहीं चढ़ता ।
तेजाजीका गीत, जिसे तेजो' कहते हैं, बहुत प्रसिद्ध और कृषक जनतामें बहुत लोकप्रिय है। बहुत लोकप्रिय होनेके कारण उसके अनेक रूपान्तर बन गये हैं । हिन्दी और राजस्थानीके सुप्रसिद्ध अन्वेषक श्री अगरचन्द नाहटाने पिलाणीके गणपति स्वामीद्वारा संगृहीत और अनुवादित रूपान्तरको मरुभारतीके प्रथम भागके द्वितीय अंकमें प्रकाशित करवाया था । एक दूसरा रूपान्तर किशनगढ़के पं० वंशीधर शर्मा बुक्सेलरने 'वीर कुंवर तेजाजी' नामक पुस्तकमें दूसरे खंडके रूपमें प्रकाशित किया था। श्री नाहटाजीने 'मरुभारती के पाँचवें भागके प्रथम अंकमें श्री भास्कर रामचन्द्र भालेरावका एक लेख प्रकाशित कराया था जिसमें हाड़ौली में प्रचलित तेजा विषयक एक गीतके अंश दिये गये हैं । नाहटाजीने राजस्थान भारतीके पाँचवें भागके दूसरे अंकमें तेजाजीके सम्बन्धमें एक लेख लिखा जिसमें प्रस्तुत लेखकके गीत-संग्रहके तीन अपूर्ण गीतों को भी प्रकाशित कराया। तेजाजीसे सम्बन्धित एक अन्य गीत अजमेरके श्रीताराचन्द ओझा द्वारा प्रकाशित 'मारवाड़ी स्त्री-गीत संग्रह' में छपा है जो घटनात्मक नहीं है।
तेजाजीसे सम्बन्धित लोक-गाथायें भी जनतामें प्रचलित हैं। हाडौतीमें प्रचलित लोकगाथाको डॉ० कन्हैयालाल शर्माने प्रकाशित करवाया है। एक दूसरी लोकगाथाका प्रकाशन डॉ० महेन्द्र भानावतने लोककलाके अंक १७में किया है।
प्रस्तुत लेखकके संग्रहागारमें लोकगीतोंका विशाल संग्रह है जो अनेक सत्रोंसे प्राप्त हुआ है । इस संग्रहको सँभालते समय अभी पीले कागजकी एक कापीमें पेन्सिलसे लिखा हआ तेजा गीतका रूपान्तर उपलब्ध हुआ । यह कापी लेखकको कोई पैंतीस-छत्तीस वर्ष पूर्व प्राप्त हई थी।
उपलब्ध रूपान्तर गणपति स्वामीद्वारा संगृहीत रूपान्तरसे पर्याप्त भिन्नता रखता है । भाषाभेद भी है और कथाभेद भी। पं० वंशीधर शर्मा द्वारा प्रकाशित रूपान्तरके साथ इसका किसी अंशमें साम्य है। वंशीधर शर्मावाले रूपान्तरमें कुछ घटनायें लोकगाथावाली कथा की मिल गयी है जो इस रूपान्तरमें नहीं हैं । इस रूपान्तरका अंतका अंश खंडित है। यह रूपान्तर आगे दिया जाता है ।
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परिशिष्ट २ तेजो गीत का रूपांतर
[१] गाज्यो गाज्यो जेठ-असाढ कंवर तेजाजी लगतो ही वूठो सावण-भादवो धरती-रो मांडण मेव कंवर तेजाजी आभै-री मांडण चमकै वीजळी छतरो-रो मांडण छाजो कंब र तेजाजी कूर्व रो मांडण मरतो केवड़ो ... गोरी-रो मांडण परण्यो सायबो सूतो सुख भर नींद कंवर तेजाजी ! थारा साथीड़ा वीजै कांकड़ बाजरो झूठी झूठ मत बोल मे जरणी माता ! म्हारा साथीड़ा हीडै रंग-रै पालणै झूठी बोलूं तो राम दुवाई कंवर तेजाजी ! थारा साथीड़ा वीज कांकड़ बाजरो कूण भातो भरै ओ जरणी माता ! कुण व ला बैलां-री नीरणी ? भावज भात भरै रे कंवर तेजाजी ! बैनड़ लाव बैला-री नीरणी कठै भात उतारूं कंवर तेजाजी ! कठै उतारूं बैलां-री नीरणी ? खेजड़ हेठे भात उतारो भावज म्हारी ! धौरै तो उतारो बैलां-री नीरणी भातो मोड़ो लायी ए भावज म्हारी ! दूजां-रो दोपारो तेजाजी-रो जीमणो घरै म्हारै काम घणो रे नानड़िया देवर ! भैंसा-री दुवारी दिन ऊगियो इसड़ो कांई भूखो रे ल्होड़िया देवर ! इसड़ो भूखाळू है तो लाव नी घर-री गोरड़ी कुण म्हारी सगाई करी भावज म्हारी ! कुण परणायो पीळा पोतड़ां वावल थारी करी सगाई रे कंवर तेजाजी! मामां तो परणायो पीळा पोतड़ां
आ लै थारी रास-पिराणी भावज म्हारी ! खोज्यो तो खळकायो आडा ऊमरां भोजन तो जीम पधारो ल्होड़िया देवर ! भूखा तो गयां तो धोखा मारसी भोजन तो थारो माफ राखो भाव ज म्हारी ! तेजोजी उदमादियो चाल्यो सासरै खोलो ए भचड़-किंवाड़ जरणी माता ! बारै ऊभो कंवर लाडलो दोपारां घरै क्यू आयो रे कंवर तेजाजी !........." कांई थारै हळ-री हाल टूटी कंवर तेजाजी ! कांई टूटी थारै नाडी बाधली नहीं टूटी हळ-री हाळ जरणी माता ! नहीं तो टूटी नाडी बाधलो ........................''जरणी माता ! तेजो जासी उदमादियो सासरै
३२० : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ
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कुण तनै चाळा चाळ्या कंवर तेजाजी ! कुण तो चुड़लाळी मोसो बोलियो! साथीड़ां चाळा चाळ्या अ जरणी माता ! भावज चुड़लाळी मोसो बोलियो साथीड़ा-री रांड मरो रे कंवर तेजाजी ! भावज रहजो जुग-में बांझड़ी साथीड़ा-री वेल वधो अं जरणी माता! भावज तो फळजो कड़व नौब ज्यूं
हंसकर हुकम दो जरणी माता ! तेजोजी उदमादियो जासी सासरै घड़ी दोय जेज करो कंवर तेजाजी ! मोरतियो कढावां सस्वरै वार-रो घर जोसी-रे जावो अभवा तेजा-री!.........." वांचो वेद-पुराण बेटा जोसी-का ! कांई सुगनां-नै जासी तेजोजी सासरै वांचां वेद-पुराण भूवा तेजा-री ! म्हारै तो सुगनां-में तेजाजी-री देवळी वांसां खाल फोड़ाऊ बेटा जोसी-का! ऊंचो टेराऊं हरियं नींब-रै हिंदू धरम हटो कंवर तेजाजो ! थारो बाबल देतो गायां दूझती गायां म्हारै गोर भरी बेटा जोसी-का ! सखरी तो ले जा धो ली दूझती वांचां वेद-पुराण कंवर तेजाजी ! म्हारै सुगनां-में जासी सासरै
बागां करो वणाव कंवर तेजाजी ! बाबल-री छतड़यां बांधो मोळियो पग देर बारै आवो भावज म्हारी ! किसोयक बागो देवर लाडलो कठै करो वणाव देवर म्हारा ! कुणां-रै छतड्यां-में बांधो मोळियो बागां में वणाव करां मे भावज म्हारी । बाबल री छतड्यां में बांधो मोळियो सूका बागां करो रे वणाव कंवर तेजाजी ! मुड़दां-री छतड़यां बांधो मोळियो
धोड़े पर झाटक जीण कसे रे छोरा चाकर-का ! सखरो पिलाण रेवत पागड़ो कठे पड़यो पिलाण कंवर तेजाजी ! कठ पड्यो लील-रो ताजणो ? पड़व पड़यो पिलाण छोरा चाकर-का ! खूट पड़यो लील-रो ताजणो घोड़ो जीण नहीं झेल रे कंवर तेजाजी ! आंसूड़ा नाखै कायर मोर ज्यूं अणतोलो घी दीनो तन लीला रेवत ! कारज-री बेळा माथो धूणियो लीला-नै धीरज देवो छोरा चाकर-का ! आंसूड़ा पूंछो हरिौ रूमाल-सूं घोड़े जीण मांडो रे कंवर तेजाजी ! सखरो पिलाण रेवत पाणड़ो हंसकर हुकम देवो जरणी माता ! तेजोजी उदमादियो चाल्यो सासरै
[ २ ] सड़वड़ चाल चालो रे लीला रेवत ! दिन तो उगायो माळीजी-रै बाग-में खोलो भचड़ किंवाड़ बेटा माळी-का ! बारै तो ऊभो कंवर लाडलो ताळा सजड़ जड़या लीले घोड़े आळा ! कूची तो ले गयी गढ-री गूजरी लै सायब-को नांव बेटा माळी-का ! सायब-कै नांव-लै ताळा खुल पड़े कठै वास वस लीलै घोड़े आळा ! किसै राजा-री चालो चाकरी ? खड़नाल म्हारो वास वसै बेटा माळी-का ! रायमल मूता-रै सिगरथ पावणा
विविध : ३२१
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करियो गजब इन्याय कंवर तेजाजी ! ताळा तो तोड्या बीजळसार-रा घोड़े-नै ठाण बंधावो कंवर तेजाजी !................... घोड़े-नै घास नीरावो कंवर तेजाजी ! करलै-नै नीरावो नागर-वेलड़ी खड़नाळे घास घणो रे बेटा माळी-का! वेलड़ी वन छाया नागाणै-रै गोरव पोतो ला रे छोरा चाकर-का ! अमल-री मनवारां तेजाजी-रै साथ-री । अमलां में तो पूर छकिया बेटा माळी-का | अमला-रा छकिया जासां सासरै तूं छै भरम-रो वीर बेटा माळी-का ! मारगियो वता दै सहर पनेर-रो डावी डूंगर जाव रे कंवर तेजाजी ! जीवणी जाव' सहर पनेर-नै गोठां जीम पधारो कंवर तेजाजी !........." कुणां-रा बाग-बगीचा बेटा माळी-का! कुणां-रा कहीज कूवा-वावड़ी ? राजाजी-रा बाग-बगीचा कंवर तेजाजी ! रायमल-मूतै-रा कूवा-वावड़ी काय-सूं बाग लगावो बेटा माळी-का! काय-सूं खोदावो कूवा-वावड़ी ? हळ्-सूं बाग लगावां रे कंवर तेजाजी ! हाथां-सू लगावां मरवो-केवड़ो काय-सं बाग सिंचावो बेटा माळी-का! काय-ससिंचावो मरवो-केवडो? दूधां बाग सिंचायो कंवर तेजाजी ! दहियां सिंचायो मरवो केवड़ो काय-सूबाग निनाणो बेटा माळी-का ! काय-सूनिनाणो मरवो-केवड़ो ? खुरपां बाग निनाणां कंवर तेजाजी ! नख-सू निनाणां मरवो-केवड़ो बागां-में कांई रसाल रे बेटा माळी-का !.............." बागां-में दाड़म-दाख कंवर तेजाजी ! धोळा फूळां मरवो-केवड़ो किण गळ फूल-माळा रे बेटा माळी-का! कुणां-रै पेचां मरवो केवड़ो? राजा-रै गळ फूल-माळा कंवर तेजाजी ! रायमल मूता-रै सिर-रो सेवरो तनै सोन-री मुरकी रे बेटा माळी-का ! थारी माळण-ने पैराऊं बांको वाइलो तनै पंचरंग पाघ रे बेटा माळी-का ! थारी माळण-नै ओढाऊं बो-रंग चूनड़ी
[३] खड़िया धमल पुराना कंवर तेजाजी ! दिनड़ो तो उगायो सहर पनेर-में घोड़ हीस करी रे कंवर तेजाजी पणिहारयां चमकी सहर पनेर-री चळू दोय पाणी पावो..........." कट वास वसै रै लीलै घोड़े आळा ! किस राजा-री चालो चाकरी ? खड़नाल वास वसै..................."रायमल मंता-रै सिगरथ पावणा पानीड़ों काई मांगो रे ल्होड़ा बैनोई ! झारी तो भर लाऊं का दूध-री देवां लाख बधाई भोळी नणदल । पातळियो नणदोई बागां ऊतरयो झूठी झूठ बोल ए भावज महारी ! म्हारो तो परण्योड़ो नागाण देस-में
झूठ बोलतो रामदुहाई भोळी नणदल ! पातळियो नणदोई बागां ऊतरयो ३२२ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ
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बुगचो हाजर ला ओ छोरी नायां-की ! गहणो तो पहरो रतन-जड़ाव-रो नानी मोंढां सीस गुंथावो भोळी नणदल ! चोटी घालो वासग-नाग ज्यूं सींपां भर सुरमो सारो भोळी नणदल ! टीकी देवो लाल सिंदूर-री पहरो हांस गळा-में भोळी नणदल ! ऊपर तो पहरो वांको वाड़लो साड़ी-रै सळ घालो ओ भोळी नणदल ! काले रेसम-री पैरो कांचळी लूम-लूमाळा कसणा बांधो ए भोळी नणदल ! गोरोडै पूंचां पर गजरो गैंद-रो वयां-री ईंढोणी करू ए भावज म्हारी ! क्या-रो तो करू जल-रो बेवड़ो? मोत्यां-री करो ईंढोणी ओ नणदल म्हारी ! रूपै-रो तो करो मे जल-रो बेवड़ो चालो पाणीड़े तलाव नणदल म्हारी ! निजरां-रो मेळो परण्यो सायबो झठी जोर बोले ओ भोळी भावज ! म्हारो तो परण्योडो नागाणे देस-में । झूठी बोलू तो रामदुहाई भोळी नणदल ! म्हारो तो नणदोई थारो सायबो ले लो साथ सहेली भोळी नणदल ! ......... परण्यै-री करो पिछाणा भोळी नणदल ! कांई तो सैनाणी परण्यो सायबो ? भंवर परा वल घणो भोळी भावज ! वांकड़ली मूछाळो परण्यो सायबो परणी-री पिछाण करो ल्होड़िया बैनोई ! कांई तो सैनाणी तेजाजी-री गोरड़ी सगळां-में सुघड़ घणी .....सहंस किरणां में तो सूरज ऊगियो
[४] साला नै जाय जुहारथा कंवर तेजाजी साला नै जंहारया चौपड़ खेलता मानो राम-जुहारा साळां म्हारां! मुजरो तो मानो तेजाजी-रै साथ-रो मान्या राम-जुहारा ल्होड़ा बैनोई ! मुजरो तो मान्यो तेजाजी-रै साथ-रो पोतो हाजर ला रे छोरा चाकर-का ! अमला-री मनवारां तेजाजी-रै साथ-री सासू-नै जाय जुहारी कंवर तेजाजी सासू-नै जुहारी महीड़ो घमोड़ती मानो राय-जुहारा सासू म्हारी ! मुजरो मानो तेजाजी-रै साथ-रो नित-रा क्या-रा राम-जुहारा लीले घोड़े आळा ओ घर खायो नुगरा पाबणां आया ज्यूं रे पाछा घिरो लीला रेवत । ............."
मुखड़ा-सैं बोल संभाळ जरणी माता ! घर आया साजन-नै दीनो ओळभो ले लै रुपियो रोक ओ लालां पाडोसण ! घड़ी दोय विलमावो परण्यै स्याम-नै थारा-नै तूं ही मनाय पेमल गोरी ! .........." साळी थारी लंबी लगाम कंवर तेजाजी ! गोरी तो लूनी पग-रै पागड़े साळी-नै सेल वायो रे कंवर तेजाजी ! गोरी-नै वायो वळतो ताजणो करी गजब इन्याय अजरणी माता! घर आया साजन-नै दीनो ओलभो खाजो काळो नाग कंवर तेजाजी ! म्हारी ककू-री ढेरी-नै वायो ताजणो
विविध : ३२३
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इथलव
मुखड़ा-सूं बोल संभाळ ओ जरणी माता ! नाग खाजो ल्होड़ा वीर-नै कळजुग जोर वरतायो मे छोरी पेमल ! वीरै-सू वाल्हो परण्यो सायवो कद तैं लाड लडायो मे छोरी पेमल ! कद साज्या पीवर-सासरा
-में लाड लडायो अजरणी माता! चंवरी-में साज्या पीवर-सासरा मनड़ा-में हुबस घड़ी परण्या सायब ! खरनाळे चालू तो पीळो ओढतूं पौढण-नै ठोड़ बतावो साळी म्हारी डाबरिया नैणां में निंदरा घुळ रही साळी थारो नेग मांगै रे कंवर तेजाजी ! गोरी तो मांगै खांडियो खोपरो नागाणो सहर वसै असाळी म्हारी ! बाळद भर लाऊं खारक-खोपरा
री साळी म्हारी! गोरी-नै देऊंखारक-खोपरा
रेसम बेज वणो रे कंवर तेजाजी! दावण तो धोळा पीळा पाट-री फूलां थारै सेज बिछाऊ कंवर तेजाजी ! ओसीचो दे लै रे चुड़लाळी बांय-रो सूतां नीदं न आवै अपेमल गोरी ! गूजरी कुरळायी बळतै काळजै
सूरो थारो नांव सुण्यो कंवर तेजाजी ! गायां तो घेरी मीणां चोरटां घर भोमीयै जी-रै जावो लाछा गुजरी ! भोम तो खाव सहर पनेर-री भोमियां पैर वसै कंवर तेजाजी ! भोमियां-रै भेदां गायां नीकली घर गांव-धणी-रै जावो ए लाछा गुजरी ! हासल तो खाव सहर पनेर-री घर गांव-धणी-रै गयी ओ लाछा गुजरी........ गांव-धणी-नै जाय जुहारी लाछा गुजरी गायां तो घेरी मीणां चोरटां गांव-धणी घर नहीं लाछां गूजरी! कंवर तो भोळा घोड़ा दूबळा घर भांभी-रै जा ओ लाछा गुजरी ! हेलो तो पाडै चढती वार-रो कुंडां म्हारै पाण ठरै लाछां गूजरी! तुरियां पर चढिया तेजाजी-रा धोतिया नित-रा पाण ठारो रे बेटा भांभो-रा ! नित-का रेजो तागा टूटता घर ढोली-रै जा ओ लाछा गुजरी ! ढोल बजाव तिरवी (?) वार-रो ढोली जाय जुहारी लाछां गूजरी......" ढोलां डोर नहीं ओ लाछां गजरी ! डांको ले गया बाळक खेलता रेसम-री डोर करो बेटा ढोली-का ! डांको करो बीजळसार-रो
सूरो थारो नांव सुण्यो कंवर तेजाजी ! गोरां-में रांभै बाळक-वाछड़ा घोड़ा पर जीण मांडो छोरा चाकर-का ! ....." कठे पड़यो पिलाण कंवर तेजाजी ! कठै तो पड्यो लीला-रो ताजणो पड़वै पड़यो पिलाण छोरा चाकर-का! खूटे तो पड़यो लीला-रो ताजणो
३२४ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ
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घोड़ो जोण नहीं झेलै कंवर तेजाजी ! आंसूड़ा नाखै कायर मोर ज्यूं अणतोलो घी दीनो लीला रेवत ! कारज-री विरियां माथो धूणियो लीलै-नै धीरज दे रे छोरा चाकर का ! सखरो तो पिलाण रेवत पागड़ो घोड़ा पर जीण मांडो सूरा बळवंत ! सखरो पिलाणो रेवत पागड़ो दे दे ओ भंवर-बंदूक सुंदर गोरी ! ढाल तरवार दादाजी-रै हाथ-री महंदी हाथ भरया ओ कंवर तेजाजी ! दस्तो लागैला भंवर-बंदूक-रै लागै तो लागण दे ओ सुंदर गोरी ! सैणां-री सैनाणी साथै हालसी साथै तो ले र पधारो कंवर तेजाजी ! झगड़-रो विरियां धुड़लो ढाबसू लुगायां-रो काम नहीं आ सुंदर गोरी ! सूरा तो जूझसी कायर कांपसी लुळकर सात सिलाम ओ सूरज नारायण ! परतंग्या राखजो परण्यै स्याम-री डूंगर चढ हांक करी कंवर तेजाजी चुग-चुग मारया मीणा चोरटा ओ ओ डागळिये चढ़ जोय छोरी दासी !............. ' अवड़-छेवड़ गायां वैव लाछा गुजरी ! विच-में वैव गजबी घूमतो खोल फळसै-री खील ओ लाछां गूजरी! गिण-गिण मेल्हो बाळक वाछुड़ा गामां म्हारी सगळी आयी ओ कंवर तेजाजी ! गायां-रो मांझी आयो नहीं काणो केरडो के तो सूरज-रो सांड करती कंवर तेजाजी ! कै करती रथ-रो बैलियो आयो ज्यूं पाछो घिर ज्या लीला रेवत ! लोयां-री तिसायी लाछा गुजरी मारगिया-सूं दूर हो जा ओ राजा वासग ! लीलै-रै खां में चीथ्यो जावसी मुखड़े-सू बोल संभाल कंवर तेजाजी ! घोड़े सूधी कर देऊं देवली वचन देयर पधारो कंवर तेजाजी !....... कुण साख भरै ओ राजा वासग ! कुण तो कहीजै रिंद-में सामदी चांद-सूरज साख भरै ओ लीलै घोडै आळा ! रिंद-में सायदी खांडियो खेजड़ो म्हां पर महर करो ओ राजा वासग !....... बावन भैरू साथ मेलो रे राजा वासग ! जून तो खेड़े-री चौसट जोगण्यां गायां म्हारी सगली आयी रे मीणां चोरटा ! गायां-रो मांझी नहीं आयो काणो केरड़ो कै सूरज-रो सांड ......'कै रथ-रो बैलियो आयो ज्यू रे पाछो घिर जा रे लीलै घोड़े आळा ! घोड़ सूधी कर दू थारी देवळी काणो केरड़ो हाजर लावो रे चुग-चुग तो मारू मीणा चोरटा मुख-सूतो बोल संभाल कंवर तेजाजी ! बैनड़ रे-कहीजै पुतर अकलो कद-री बैन लागै रे मीणां चोरटां! कद तो दीनी बैनड़-नै कांचळी गंगाजी में बैन करी रे कंवर तेजाजी ! पुसकर-दी पैड्यां-में दोनी कांचळी
विविध : ३२५
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रणछोड़भट्ट कृत अमर काव्य और महाराणा प्रतापसे
संबन्धित दो विवादास्पद प्रश्न
डॉ० व्रजमोहन जावलिया, एम० ए०, पी०एच०-डी० अकबरने, सिंहासन संभालने के उपरान्त राजस्थानके राजपूत राजाओंको अनेक प्रकारके राजनीतिक दावपेचोंके प्रयोगसे अपने अधीन करनेका प्रयास किया और इसमें संदेह नहीं कि उसने इस उद्देश्य में बहुत कुछ सफलता भी प्राप्त की-पर मेवाड़के शासक महाराणा प्रतापपर उसकी किसी भी नीतिका कोई असर नहीं पड़ा। अकबर की ओरसे समय-समयपर कई प्रतिनिधि भी महाराणाको अकबरकी अधीनता स्वीकार कर लेनेके लिये समझाने हेतु मेवाड़में आये। महाराणाने उन्हें राज्योचित सम्मान दिया-पर बिना किसी सफलताके उन्हें खाली हाथ ही लौटना पड़ा। इनमें प्रमुख थे जलालखा कोर्ची, भगवन्तदास, टोडरमल और मानसिंह । मेवाड़में इन सभी राजदूतोंको यथोचित सम्मान दिया गया-पर दुर्भाग्यसे मानसिंहको एक सामान्य सी घटनापर मेवाड़से अपमानित होकर लौटना पड़ा। इस घटनाके विषयमें मेवाड़के इतिहाससे संबंधित लगभग सभी राजस्थानी, संस्कृत आदि भाषाओंमें लिखित ऐतिहासिक काव्य ग्रंथोंमें विवरण मिलता है । स्वयं मानसिंहके राजकुलसे संबंधित ऐतिहासिक काव्य ग्रंथों और ख्यातोंमें इस घटनाका उल्लेख हुआ है। फिर भी कतिपय विद्वान् नवीन प्राप्त सामग्रीके आधारपर अथवा ज्ञात सामग्रीपर ही पुनः मनन करते हुए नई स्थापनाएँ समय-समयपर इस विषयपर करते रहे हैं। कुछ दिनों पूर्व मेवाड़के ही निवासी एक विद्वान् डा० देवीलाल पालीवाल, निदेशक, साहित्यसंस्थान, राजस्थान विद्यापीठ, उदययुरने मेवाड़ राज्य इतिहाससे संबंधित और मेवाड़ के महाराणा राजसिंहके आश्रयमें रणछोड़भट्ट द्वारा विरचित संस्कृत काव्य ग्रंथ "अमर काव्य'को प्रमाण रूपमें प्रस्तुत करते हुए अपने एक लेखमें यह संकेत दिया था कि उक्त काव्य ग्रंथमें मेवाड़में किये गये मानसिंहके अपमानका कोई उल्लेख नहीं है अतः ऐसी कोई घटना घटी भी होगी उसमें संदेह हैऔर अन्य राजस्थानी और मेवाड़ी काव्योंमें दिया गया विवरण कल्पित है।'
यदि अन्य ग्रंथोंको अप्रामाणिक मानकर अमरकाव्यमें इस घटनाका उल्लेख मिलनेपर ही इसे सत्य माना जा सकता हो तो मैं सविनय निवेदन करना चाहूँगा कि अमरकाव्यमें इस घटनाका सविस्तर विवरण प्राप्त है । इस ग्रंथमें संवत् १६३० वि०में घटी घटनाओंसे संबंधित विवरण विषयक श्लोक सं० २३से ५० जो इस लेखके परिशिष्ट भागमें दिये जा रहे हैं, ये महाराणा प्रताप द्वारा युक्ति-पूर्वक किये गये मानसिंहके अपमानका स्पष्ट शब्दोंमें उल्लेख है यह अंश स्वयं डा० देवीलाल पालीवाल द्वारा संपादित "महाराणा प्रताप-स्मृति-ग्रंथ' में भी प्रकाशित हो गया है। अन्य ऐतिहासिक स्रोतोंसे इस काव्यमें स्वल्प अंतर अवश्य है, और वह है अपमानकी अनुभूतिके समय मात्र का । अन्य काव्योंके अनुसार मानसिंहने भोजनके समय ही अपने अपमानका अनुभव करके रोष प्रकट किया था, परन्तु अमरकान्यके अनुसार महाराणा मानसिंहको
१. शोधपत्रिका वर्ष १९ अंक ४ पृ० ४४-४९ । २. महाराणा प्रताप स्मृति ग्रंथ-साहित्य संस्थान, राजस्थान विद्यापीठ, उदयपुर । ३२६ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ
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भोजन कराकर और कपूर युक्त बीड़ा देकर प्रेम-पूर्वक विदा कर देते हैं, और उसके बाद मानसिंहको पता चलता है कि महाराणाने उस स्थानसे रसोईके बर्तन आदि हटाकर उस स्थानका जलसे प्रक्षालन करवाकर पवित्र मिट्टी और गोबरसे सफाई करवायी तथा गंगाजलका छिड़काव किया है-तब वह पूछता है कि यह क्या बात है, और एक वयोवृद्ध सामन्त उसे सारा कारण बताता है। और तभी मानसिंह क्रुद्ध होकर अपमानका बदला लेनेकी प्रतिज्ञा करता हुआ अकबरके पास जाकर सब वृत्तान्त कहता है।'
अतः यह मान लेना कि इस घटनाका राजस्थानी और मेवाड़ी काव्योंमें दिया गया विवरण काल्पनिक है-कोई अर्थ नहीं रखता विशेषरूपसे उस समय जबकि संबद्ध दोनों पक्षोंके ऐतिहासिक स्रोत उसकी पुष्टि करते हों।
__एक दूसरा महत्त्वपूर्ण प्रश्न, जो अकबर और प्रतापके ही सम्बन्धोंको लेकर, अबुलफजल द्वारा अकबरनामेमें किये गये उल्लेखकी पुष्टि में पुनः खड़ा किया गया है। वह है महाराणा प्रतापका अकबरके द्वारा भेजी गई खिलअत पहनना और पाटवी कुमार अमरसिंहको मुगल दरबारमें भेजनेसे संबंधित । मेवाड़से विफल लौटे राजदूतोंने अपनी संतुष्टि और अपने स्वामीकी संतुष्टिके लिए जो कुछ भी कहा या विवरण लिखा वह स्वाभाविक था। अकबरनामे में अबुलफज़लका वर्णन भी कुछ ऐसा ही है। आत्मश्लाघाके अतिरिक्त इसे और कुछ नहीं कहा जा सकता । यदि वीरविनोदके लेखक कविराजा श्यामलादास, श्री गौ० ही० ओझा, राजस्थानका इतिहास लिखनेवाले अन्य इतिहासकार या राजस्थानी साहित्यकार अबुलफजलके इस कथनको असंभव और असत्य मानते हैं तो कौनसा अन्याय करते हैं। इस घटनासे संबंधित कोई लिखित प्रमाण मिल पाता अथवा इस घटनाके तुरन्त बाद इसके फलस्वरूप किसी अनुकूल प्रमाणकी झलक भी कहीं दिखाई दे जाती तब तो उन्हें अकबरनामेकी इस सूचनाको सत्य मानने में कोई आपत्ति नहीं होतीपर कोई प्रमाण मिलता तभी न !
यदि महाराणा प्रतापने खिलअत पहन ली होती, अमरसिंहको अकबरके दरबारमें भेज दिया होतातो फिर हल्दीघाटीकी लड़ाई और उसके बाद भी पूरे दो युगों तक मेवाड़ के साथ संघर्ष छेड़े रखनेकी अकबरको क्या आवश्यकता आ पड़ी थी? क्या अपने फर्जन्द मानसिंहकी आत्मतुष्टि के लिए ही यह आवश्यक हो गया था । स्थिति स्पष्ट है, प्रताप आत्माभिमानी था-स्वतन्त्रताके मुल्यको समझता था--और इसीलिए उसने वह सब कृत्य नहीं ही किया जिसका उल्लेख अबुलफजल करता है और यही कारण था मेवाड़पर अकबरके आक्रमण का।
यदि अबुलफजलका कथन सत्य है तो जहाँगीरनामे में जहाँगीरको यह लिखने की आवश्यकता क्यों आ पड़ी थी कि "राणा अमरसिंह और उसके बाप-दादोंने घमंड और पहाड़ी मकानोंके भरोसे किसी बादशाहके पास इससे पहले हाजिर होकर ताबेदारी नहीं की है। यह मुआमिला मेरे समयमें बाकी न रह जावे ।'3 इससे पूर्व भी महाराणा अमरसिंहपर परवेजको भेजते समय उसने लिखा है-'राणा तुमसे आकर मिले और अपने बड़े बेटेको हमारे पास भेजे तो सुलह कर लेना । राणाकी उपस्थिति तो सर्वथा असंभव थी ही मगलोंके दरबारमें, पर पाटवी पत्रकी मगलोंके दरबारमें उपस्थितिको भी आत्मसमर्पणका सूचक मान लिया गया था। जहाँगीरनामाके उपयुक्त वाक्योंसे स्पष्ट है कि मुगलबादशाह अपनी इज्जत बचाने के लिए १. अमरकाव्य-पत्र सं० श्लोक सं० (राज० प्राच्यविद्याप्रतिष्ठान शा० का उदयपुर ग्रंथ सं० ७२०) २. अकबरनामा-बिवरीज द्वारा संपादित-जि० ३ पृ० ८९-९२-९८ ३, जहाँगीरनामा-अनुवादक ब्रजरत्नदास -(नागरी प्रचारिणी सभा) प्रथम संस्करण--पृ० सं ३४१ ।
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महाराणाके पाटवी कुँवरको अपने दरबार में उपस्थित देखकर ही संतुष्ट हो जाना चाहते थे । अबुलफजलका अकबरनामे में यह उल्लेख भी अकबर की झूठी शानको बचानेके लिए एक प्रयास मात्र था, और कुछ नहीं । जहाँगीर द्वारा भी अबुलफजलके उल्लेखपर कोई ध्यान नहीं दिया गया -- स्पष्ट है अबुलफजलका कथन झूठा था।
और अबुल फजलके इस कथनको झुठलाने का दूसरा प्रयास किया सर टामस रोने', जो जहाँगीरके दरबारमें अजमेर में उपस्थित था । वह भी जहाँगीरके कथनकी पुष्टि करता है कि महाराणा अमरसिंह और उसके बाप-दादोंने किसी बादशाह के पास हाजिर होकर ताबेदारी नहीं की ।
तीसरी पुष्टि उस सम्मान और समारोहसे हो जाती है जो महाराणाके वंशके पाटवी कुँवरको पहली बार मुगलदरबारमें उपस्थित होनेपर जहाँगीर द्वारा किये गये थे। अकबर के लिए भी मेवाड़को अपने अधीनकर महाराणाओंको अपने वश में करनेका वही महत्त्व था जो जहाँगीर के लिए। फिर जहाँगीर कर्णसिंहके मुगल दरबारमें उपस्थित होनेपर इतनी खुशियाँ मना सकता है तो अकबरने ऐसी खुशियाँ क्यों नहीं मनायीं । विचारणीय है । इस प्रकार वर्षों पूर्व विद्वान् लेखक डा० पालीवालने निर्णीत समस्याको फिरसे उभारा है । अबुलफजलकी पुष्टि करनेवाला अब तक कोई अन्य स्रोत उपलब्ध नहीं था । डा० पालीवालने पूर्वोक्त अमरकाव्य ग्रन्थको ही अबुलफजलकी पुष्टिके लिए प्रस्तुत किया ।" अमरकाव्य महाराणा राजसिंहके कालमें विरचित मेवाड़ के इतिहाससे सम्बधित उतना ही प्रामाणिक ग्रंथ है, जितनी राजप्रशस्ति । इसे राजप्रशस्ति महाकाव्यका ही पूर्वार्द्ध कह दिया जाय तो अनुचित नहीं होगा । उन्होंने अमरकाव्यसे निम्नलिखित अंश इसकी पुष्टिके उद्धृत किया है
अकब्बरस्य पार्श्वोऽगादमरेश कुमारकः । यदा तदा मानसिंह डोडियाभीममुख्यकैः ॥७७ अमरेशस्य वीरैः सह वार्ता क्रतौ लघु । कांश्चिद्वार्तामकथयत्तदा भीमोऽवदत्क्रुधा ॥७८ भवांस्तत्र समायातु मया घोररणे तदा । जुहारस्तत्र कर्तव्यः पूर्वोक्तं वाक्यमित्यहो ॥७९
आश्चर्य होता है विद्वान् लेखकने इस श्लोकसे अमरसिंहका अकबर के पास भेजा जाना या उसका स्वयं अकबरके दरबारमें उपस्थित होना अर्थ कैसे लगा लिया। वैसे भी जिस रूपमें अपने सोचे हुए उद्देश्यकी सिद्धि के लिए उन्होंने पूर्वाग्रह सहित बिना पूर्वापरका प्रसंग उद्धृत किये हुए, इन श्लोकोको उद्धृत किया है अतः यह कोई विशेष अर्थ नहीं रखता है । और यदि कोई अर्थ निकाला भी जाय तो कमसे कम वह अर्थ तो नहीं ही निकलेगा जो उन्होंने निकाला है ।
ये श्लोक हल्दी घाटी के युद्ध में महाराणा प्रताप और मानसिंह में होनेवाली सीधी टक्करकी वेलासे सम्बन्धित हैं । महाराणा प्रताप के साथ भीमसिंह डोडिया मानसिंह के सामने खड़ा है । यह भीमसिंह डोडिया वही सरदार है जिसने उदयसागर तालाबपर मानसिंहके अपमानकी दुर्घटनाके समय मानसिंह और महाराणा प्रताप के मध्य होनेवाली बातचीत में राजकुमार अमरसिंहके साथ दौत्यकर्म किया था । और जिसने स्वयं ही मानसिंहकी गर्वोक्तिका उत्तर देते हुए कहा था कि यदि वह मानसिंह मेवाड़से निपटना ही चाहता है तो उसके साथ दो-दो हाथ अवश्य होंगे । यदि वह अपने ही बलपर आक्रमण करने आया तो उसका
१. शोधपत्रिका - - वर्ष १९, अंक ४ पृ० ४४-४९ ।
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सामना मालपुरेमें किया जायगा और यदि अपने फूफा अकबरके बलपर आया तो मेवाड़में जहाँ कहीं भी उचित स्थान और अवसर मिलेगा उसका यथोचित स्वागत किया जायगा। मानसिंहके साथ हुई इस तकरार में भीमसिंहने यह भी प्रतिज्ञा की थी कि वह स्वयं उस हाथीपर भाला फेंकने में पहल करेगा जिसपर बैठकर मानसिंह आयगा । मानसिंह और भीमसिंहके मध्य हुए इस उग्र संवादका उल्लेख रावल राणाजी री वात', मेवाडकी वंशावलियों और वीरविनोद में स्पष्ट रूपमें लिखा मिलता है।
हल्दीघाटीके युद्धस्थलमें भीमसिंह मानसिंहके सामने खड़ा है। उसे आज मानसिंहका स्वागत कर अपनी प्रतिज्ञा पूरी करनेका अवसर प्राप्त हुआ है । वह उदयसागर पर मानसिंहके साथ हुई अपनी तकरार में अपने वचनोंका स्मरणकर मानसिंहका स्वागत कर रहा है। अमरकाव्य के डॉ० पालीवाल द्वारा उद्धृत अंश उसी प्रसंगसे सम्बद्ध हैं। उस अंशके पूर्वके श्लोक निम्न प्रकार हैं, जिन्हें उन्होंने उद्धृत नहीं किया
प्रतापसिंहस्य पुरस्सरस्स उद्दण्डसांडावत एव वीरः । स डोडियाजातिभवश्च भीमो भीमप्रभावः समरेषु भीमः ।।७४ सेनावृतं वीक्ष्य स मानसिंह, गजस्थितं संश्रितलोहकोष्ठम् । सिंहप्रकोष्ठं किल लोहकोष्ठं, पूर्वोक्तवाक्यं विवदत्सु इत्ययम् ॥७५ विशिष्टकट्टारकमुत्कटाक्षः चिक्षेप पादे क्षतकारितस्य ।
एव विधायैव जहारशब्द. स्वस्या जगादेति जगत्प्रसिद्धम् ॥७६ और इससे आगे ही श्री पालीवाल द्वारा उद्धृत अंश है
अकब्बरस्य पार्नेऽगाद् अमरेशः कुमारकः । यदा तदा मानसिंहो डोडियाभीममुख्यकैः ॥७७ अमरेशस्य वीरैः सह वार्ता क्रतौ लघुः । कांश्चिद्वार्ताम् अकथयत्तदा भीमोऽवदत् क्रुधा ॥७८
भवांस्तत्र समायातु, मया घोररणे तदा । जुहारस्तत्र कर्तव्यः पूर्वोक्तं वाक्यं इत्यहो ॥७९ और इससे आगेके श्लोकमें महाराणा प्रताप द्वारा मानसिंह पर भालेसे वार करनेका विवरण है ।
प्रतापसिंहोऽथ परप्रतापः परंपराप्रापितपूर्णतापः ।
तन्मानसिंहस्थ करीन्द्रकुंभे, चिक्षेप कुंतं च शिवेव शुंभे ।।८० स्थिति सर्वथा स्पष्ट है। यहाँ भीमसिंह अपने पूर्वकथित वचनोंका स्मरणकर मानसिंहका जुहार करना चाह रहा है और वह अपनी विशिष्ट कटार फेंककर मानसिंहके पांवमें घाव करता हुआ उसका पालन करता है । राजप्रशस्तिमें भी यह प्रसंग थोड़ा भिन्न रूपमें पर इन्हीं शब्दोंमें दिया गया है। उसमें भीमसिंहके बजाय अमरसिंह मानसिंहके हाथी पर भालेसे वार करता है । ३ वीर विनोदमें भी भीमसिंह द्वारा मानसिंह पर इन शब्दोंके साथ कि "लो मैं आ गया हूँ" भाला फेंकनेका विवरण दिया है।
भीमसिंहकी मानसिंहके साथ तकरार और प्रतिज्ञासे संबद्ध श्लोकोंके साथ श्लोक सं० ७७ में प्रथम चरण "अकबरस्य पार्वेऽगाद् अमरेशः कुमारकः-यदा" ही इस भ्रांतिका मूल कारण है । जिसमें निस्संदेह सीधा सा अर्थ यही निकलता है कि "जब अमरसिंह कूमार अकब्बरके पास गया ।" और अगले चरणोंका १. रावल राणाजी री वात-राज-प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, ग्रंथांक ८७६ पृ० १०४-६ । २. वीरविनोद-(कुँवर मानसिंहसे विरोध)-पृ० १४६. ३. राजप्रशस्ति महाकाव्य--प्रताप विषयक अंश. -श्लोक २४ । ४. वीरविनोद--(कुंवर मानसिंहसे विरोध)--पृ० १४६ ।
विविध : ३२९
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अर्थ होगा तब मानसिंहने अमरसिंहके वीरोंमें मुख्य भीम डोडियाको बातचीतके दौरान कोई ओछी बात कह दी और भीमने क्रोधित होते हुए कहा 'जब मेरा घोर युद्ध होगा वहाँ आप आयेंगे तो आपका जुहार करूंगा । ये पूर्व में कहे हुए वाक्य थे।' पूर्व में बताया जा चुका है कि भीमसिंह और मानसिंहके मध्यका यह झगड़ा और भीमसिंहका उपयुक्त कथन उस समय हुआ था जब मानसिंह अपमानित होकर कटु और ओछे वचन कहता हुआ अकबरके पास गया था। तो प्रथमचरणमें उसी वेलाका जिक्र होना चाहिए। राजप्रशस्तिमें इस प्रसंगके अंतर्गत श्लोक सं० २२ में 'अकब्बरप्रभोः पार्वे मानसिंहस्ततो गतः । गृहीत्वा दलं ग्रामे खंभनोरे समागतः ॥२२॥ अमर काव्यमें ही श्लोक सं० ५० में-कोपाकुल स्मश्रु मुह स्पृशः च । जगाम दिल्लीश्वरपार्श्वमेवं, वार्तामिमां तत्र जगाद सर्व' और सदाशिव नागरकृत राजरत्नाकर' में 'स्मश्रु प्रमृज्य करजेन सवाहनीक. शीघ्र जगाम च चकत्तनेशगेहं, की भाषा और शब्द विन्याससे अमरकाव्यके अंश 'अकब्बरस्य पार्वेऽगाद् अमरेशः कुमारकः' पाठको मिलाने पर स्थिति साफ हो जायगी कि यह अंश किससे सम्बधित होना चाहिए । इन सारी बातोंको देखते हुए हमें यह मान लेना चाहिए कि अमरकाव्यकी प्राप्त प्रतिमें, जो यद्यपि बहुत प्राचीन है और सम्भवतः मूल आदर्श प्रति भी हो सकती है-इस चरणमें अशुद्धि हो गई है । यहाँ पाठ होना चाहिए ‘अकब्बरस्य पार्वेऽगाद अंबरेश कुमारकः' अर्थात् अम्बर या आमेराधिपतिका कुमार (मानसिंह) जब अकबरके पास गया । मल लेखकसे 'अंबरेश'के स्थानपर अमरेशः पाठ इससे आगे आने वाले चरणोंमें 'अमरेश' शब्दको बैठानेके प्रयासमें ध्यान विकेन्द्रित हो जानेके कारण हुआ हैऐसा सम्भव है । ऐसी अशुद्धियोंका हो जाना एक मनोवैज्ञानिक सत्य है । यदि यह मूल प्रति न होकर प्रतिलिपि हो तो प्रतिलिपिकारके अज्ञानके कारण भी ऐसा होना सम्भव है। शोधार्थीको पूर्ण अधिकार है कि वह निष्पक्ष होकर सम्यक् विचारके उपरान्त सत्यका अनुसंधान करता हुआ पांडुलिपियोंके अशुद्ध पाठोंका संशोधन करता हुआ अपनी खोजमें आगे बढे--उसी अधिकारका उपयोग करते हुए मैं यह संशोधन प्रस्तुत कर निवेदन करना चाहूँगा कि अबुलफजलके कथनकी इस ग्रन्थसे पुष्टि नहीं होती है । अमरसिंह कभी अकबर के दरबारमें उपस्थित नहीं हुआ । जब तक और कोई पुष्ट प्रमाण नहीं मिल जाते श्री श्यामलदास और श्री गौ० ही० ओझा द्वारा अनेक विचार मंथनके उपरान्त दिए गये निर्णयको ही अन्तिम माना जाना चाहिए।
१. राजरत्नाकर-(राज-प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान) ग्रं० सं० ७१८ । २. अमरकाव्य--ग्रंथ सं. ७२०--राज. प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, शा० का० उदयपुर ।
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परिशिष्ट अमरकाव्यमें भोजनार्थ निमंत्रित मानसिंहके अपमानका विवरण
'शते षोडशके त्रिशन्मितेन्दे गर्जरस्थिते ।
मानसिंहो मेदपाटे आयातः पुनरुद्भटः ।।२३।। अथैकदा प्रोद्धतमानसिंहं प्राघूर्णिकीभृतमभूतपूर्वम् । निमंत्रयामास सुग्रमंत्रः प्रतापसिंहः प्रचुरप्रतापः ॥२४॥ उदयसागरनामजलाशयप्रविलसत्तट उत्कटमानसः । रसवतीकरणाय तदादिशत् द्विज(ज)नानवनीशशिरोमणिः ॥२५॥ तदा नरैस्तत्र तु पाकशाला कृता प्रयुक्ता सकलैव शाला । मिष्ट: शुभान्नघृतपक्वयुक्तैर्लेह्यादिपेयादिक भोज्य सं....... ॥२६।। आकारितस्तत्र तु मानसिंहः समागतो भाग्यमिहेति जानन् । सुभोजनं राणमहीश्वरेण सहैकपंक्तौ मम भावि तस्मात् ।।२७।। मुदोपविष्टः सुविशिष्टशिष्ट : कुलीनराजन्यपवित्रपंक्तौ । महानसे वीरगणैः समेतः स मानसिंहो विरराज सिंहः ॥२८॥ प्रतापसिंहो बहुवस्तुसिद्धय, उच्चैः समुत्सार्य विशालचालं । बाह्वोः समाज्ञापयति स्वकीयसमस्तलोकेभ्यः उदारवीरः ॥२९॥ स्वर्णादिपात्रेषु समस्त वस्तुनि सूदैः परिवेषितानि । अपूर्वरूपानि च तानि दृष्ट्वा सुविस्मयं प्राप स मानसिंहः ॥३०॥ स मानसिंहो निजगाद वाक्यं प्रतापसिंह प्रति देव शीघ्र । आयाहि पंक्तौ शुभभोजनार्थमुच्चासने चोपविशत्वितीश ॥३१।। प्रतापसिंहस्तु तदीयवाक्यं चक्रे श्रुतं वाश्रुतवत्तदैव । पुनर्जगादाथ स मानसिंहस्तदेव वाक्यं महता स्वरेण ॥३२॥ राणेश्वरो मे जठरे स्मिष्टभार इत्यब्रवीत्कूर्म नरेशपुत्र । कुमारस्त्वायात्त्ववदत्तदेति प्रतापसिंहस्तु पुनर्बभाषे ॥३३॥ स वस्तुसिद्धि विदधाति धन्यां श्रुत्वाखिलं निर्मलमानसः सः । ज्ञात्वा तथैवेति च मानसिंहश्चकार सद्भोजनमादरेण ॥३४॥ वीरैः प्रवृद्धस्तु तदा तदीयः प्रतापसिंहाशयशौर्यविद्भिः ।
कृतो विचारो मनसा दृशा च मिथो न युक्तात्र भुजिक्रियेति ॥३५।। १. गते शते षोडश एकहीन त्रिंशद्गतेऽब्दे शुभ फाल्गुनेऽभूत् ।
विविध : ३३१
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कूर्मेशपुत्रस्य वृते प्रवीरैरेवं विचारेथ विचक्षणैस्तु । राजेन्प्रवीरैरपि तद्विचारं ज्ञात्वा दृशा तान्प्रति सूचितं च ॥३६॥ एतादृशेस्मिन्समय त्वभोजने भाव्यष युष्माकमनर्थ उत्कटः । एवं विचार्योचितमत्र यद्भवेत्कार्यं भवद्भिस्तु तदेव दक्षिणैः ।।३७।। ज्ञात्वेति राणेश्वरवीरतत्त्व कूर्मेशपुत्रस्य महाप्रवीरैः । विचारितं चेति विचारदौर्बलादकृत्वा खलु भोजनानि ॥३८।। उत्थानमस्माभिरितः कृतं चेदुपद्रवस्तत्र महांस्तदा स्यात् । भुजिक्रिया तत्र कृतेति सवैर्लज्जा विनम्रीकृतनेत्रशीर्षः ॥३९॥ ततस्तु शुद्धाचमनं समस्तैः सन्मानसिंहेन सहैव सर्वे । यथोचित स्थानकृतोपवेशाः राणासभायां नितरां विरेजुः ॥४०।। जिष्णोः सभायां त्रिदशा यथैव ततः सभामंडपमध्यशोभी। प्रतापसिंहोति पवित्र वीरः
॥४१॥ दत्त्वाथ कर्पूरविराजितानि तांबूलवृन्दानि स तानि तेभ्यः । संप्रेषयामास च मानसिंह प्रति प्रेम परिप्लुतोयं ॥४२।। प्रतापसिंहोथ तदाजवेन स्वाचारिभिः कारयतिस्म सूदैः । उल्लेखनं वा रसवत्त्यवन्या भांडादिनिः सारणमेव विश्वक् ॥४३॥ प्रक्षालन भूमिविलेपनं च पवित्रमृत्स्ना शुचिगोमयैश्च । अत्राथ गंगाजलसेकमुचैः पाकं ततः कारयति स्म तत्र ॥४४।। कृत्वा ततः पुण्यदवैश्वदेवं कुलीनवीरैः सहितोति काले । मुदाकरोत् भोजनमत्र राणा प्रतापसिंह प्रचुरप्रतापः ॥४५॥ श्रुत्वेति वार्ता परिपूर्णकोप स्तदा स्वकीयान्परिपृच्छतिस्म । कूर्मेशपुत्रः किमिदं तदोक्तं तेष्वेव केनापि वयोधिकेन ॥४६॥ हेतुं शृणुष्व क्षितिपाल पुत्र कोपो विधेयो व मयि, त्वा तु । म्लेच्छेशमानीय गहेथ तस्मै कन्यां प्रयच्छंति कलत्रदोला ॥४७। अथार्पयंत्येव सुखेन लब्ध्यै जवराति तृप्त्यै। ये कच्छवाहादिनृपा अनच्छा स्तान्मानयंत्यत्र पवित्रवीराः ॥४८॥ न राणवंश्याः किमु भोजनानि कुर्वन्ति तैः साकभिमे कथंवित् । श्रुत्वा वचस्तत्किल मानसिंहः कोपाकुल स्मश्रु मुहुः स्पृशंश्च ॥४९।। जगाम दिल्लीश्वरपार्श्वमेवं वार्तामिमां तत्र जगाद सर्वा । प्रतापसिंहस्य महोन्नतत्वं श्रुत्वैव कोपारुवक्त्रनेत्रः ॥५०॥
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देतान
डा० दौलतसिंह जी कोठारी-अभिनंदन ग्रंथ विमोचन करते हए पासमें खड़े हैं अभिनंदन समितिके मंत्री भंवरलालजी कोठारी
एवं श्रीनाहटाजी
श्री अगर चन्द नाहटा अभिनन्दन समोर
श्री पूज्यजी श्री जिनचंद्रसूरिजी महाराज प्रवचन करते हुए पास में बैठे हैं ठाकुर जुगलसिंह वार० एट० ला और पं० हीरालालजी जैन
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अगर चन्द नाहटा रभिनन्दन समारोह
20
(शनिवार-रविवार)
अभिनंदन समारोह में भाषण करते हुए - अखिल भारतवर्षीय स्थानकवासी जैन संघ के अध्यक्ष श्री गुमानमलजी चोरड़िया
श्री अगर चन्द नाहटा अभिनन्दन समारोह दिनांक :- 10-11 अप्रैल १३००
निवार)
मंच पर विराजित श्री दौलतसिंहजी कोठारीके साथ श्री अगरचंद नाहटा व श्री भँवरलाल नाहटा
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श्री अगर चन्द
दिन म
प्रपेल 30
अभिनंदन समारोहमें भाषण करते हए अभिनंदन ग्रंथ के
संयोजक श्री हजारीमल बाँठिया
श्री
न्द नाहटा मारोह र रविवार)
दिनांक
श्री भंवरलाल नाहटाको अभिनंदन ग्रंथ भेंट करते हए
सांसद् श्री मुहम्मद उसमान आरिफ
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समारोहमें प्रवचन करती हई विदुषी आर्यारत्न
श्री हेमप्रभाश्री जी आदि
सम्रचन्द
शनिव
डॉ० दौलतसिंह जी कोठारी श्री अगरचंद नाहटाको अभिनंदन ग्रंथ भेंट करते हए
.
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श्री अगरचंद नाहटा अभिनंदनोत्सव-समारोह का विवरण
शोध-मनीषी, पुरातत्त्ववेत्ता, तत्त्वचिंतक, समत्वयोगी श्री अगरचंद नाहटा के अभिनंदनोत्सव का प्रथम समारोह चैत्र शुक्ला १० तथा ११ सं० २०३३, तदनुसार दिनांक १० और ११ अप्रैल सन् १९७६, को उनकी जन्मभूमि एवं कर्मभूमि बीकानेर में आयोजित किया गया। समारोह के लिए एक व्यापक समारोह-समिति का गठन किया गया था जिसके अध्यक्ष राष्ट्र के महान् शिक्षाशास्त्री विश्वविद्यालय-आयोग के अवकाश प्राप्त प्रधान डॉ० दौलतसिंहजी कोठारी थे। अन्य पदाधिकारीगण इस प्रकार थे
उपाध्यक्ष–विद्यावाचस्पति पं० विद्याधर शास्त्री,
आचार्य नरोत्तमदास स्वामी,
डा० छगन मेहता। मंत्री-श्री भंवरलाल कोठारी । सहमंत्री-श्री मूलचंद पारीक,
श्री जसकरण सुखाणी,
श्री प्रकाशचंद सेठिया । कोषाध्यक्ष-श्री लाल चंद कोठारी । संयोजक-श्री हजारीमल बांठिया । संरक्षक-डॉ० सुनीतिकुमार चाटुा राष्ट्रीय प्रोफेसर, सुप्रसिद्ध भाषाविद्,
अध्यक्ष, भारतीय साहित्य अकादमी, दिल्ली श्री हरिदेव जोशी भूतपूर्व मुख्यमंत्री, राजस्थान श्री राजबहादुर भूतपूर्व केंद्रीयमंत्री श्री रामनिवास मिर्धा, भूतपूर्व केंद्रीय राज्यमंत्री, श्री चंदनलाल बैद भूतपूर्व वित्तमंत्री, राजस्थान डॉ० करणीसिंह भूतपूर्व बीकानेर-महाराजा व संसद सदस्य सेठ कस्तूरभाई लालभाई, अहमदाबाद साहू श्री शांतिप्रसाद जैन, दिल्ली श्री शादीलाल जैन, बम्बई, सेठ अचलसिंह, भूतपूर्व संसद सदस्य, आगरा श्री मोहनमल चौरडिया, मद्रास श्री विजयसिंह.नाहर भूतपूर्व उप मुख्यमंत्री, पश्चिम बंगाल, कलकत्ता, श्री अक्षयकुमार जैन, दिल्ली
अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन ग्रन्थ : ३३३
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श्री
'प्रभुदयाल डाबलीवाल, कलकत्ता श्री सीताराम सेकसरिया, कलकत्ता श्री भागीरथ कानोडिया, कलकत्ता
इनके अतिरिक्त कार्यसंचालन हेतु कार्यकारी मंडल एवं परामर्श मंडल का भी गठन किया गया जिनके नाम परिशिष्ट में दिये जा रहे हैं ।
श्री गणपतराज बोहरा, बड़ौदा
श्री राजरूप टाक, जयपुर श्री भँवरमल सिघी, कलकत्ता
श्री आनंदराज सुराणा, दिल्ली
श्री गुमान मल चोरडिया, जयपुर
समारोह का शुभारंभ दिनांक १०-४-१९७६ को दोपहर के एक बजे हुआ। प्रथम दिन 'राजस्थान के साहित्य' विषय पर विचारगोष्ठी हुई। इसकी अध्यक्षता भारतीय विद्यामंदिर के निदेशक श्री सत्यनारायण पारीक ने की तथा संयोजन श्री महावीर राज गेलड़ा, प्राध्यापक, डूंगर कालेज, बीकानेर ने किया। गोष्ठी में प्रमुख वक्ता अपने विषय के अधिकारी विद्वान् थे, जिनने राजस्थान की विभिन्न भाषाओं के साहित्यों के विस्तृत विवरण प्रस्तुत किये डॉ० नरेंद्र भानावत ने हिंदी साहित्य का डा० हीरालाल माहेश्वरी ने राजस्थानी साहित्य का, महोपाध्याय श्री विनयसागर ने संस्कृत साहित्य का और श्री भंवरलाल नाहटा ने प्राकृत और अपभ्रंश साहित्य का विवेचन किया। उसी दिन रात्रि के साढ़े आठ बजे बृहत् कवि सम्मेलन का आयोजन किया गया जिसमें स्थानीय कविवरों के अतिरिक्त वनस्थली विद्यापीठ की डा० लक्ष्मी शर्मा ने भी अपने गीत एवं कविता पाठ प्रस्तुत किये। डा० नरेंद्र भानावत ने सम्मेलन का संयोजन किया।
"
समारोह के दूसरे दिन, दिनांक ११ अप्रेल, १९७६ को 'राजस्थान का जैन पुरातत्त्व' विषय पर एक बृहद् गोष्ठी का आयोजन किया गया । इसकी अध्यक्षता राजस्थान राज्य के अभिलेखागार विभाग के निदेशक श्री जे० के० जैन ने तथा इसकी संयोजना श्री दीनदयाल ओझा ने की इस गोष्ठी में जैन पुरातत्त्व के विविध पक्षों पर विशेषज्ञ विद्वानों ने निबंध वाचन किया, श्री विजयशंकर श्रीवास्तव ने जैन मंदिर एवं मूर्ति कला पर श्री मोतीचंद खजानची और भँवरलाल नाहटा ने जैन चित्रकला एवं लेखनकला पर तथा श्री रामवल्लभ सोमाणी ने जैन अभिलेखों पर शोधपूर्ण एवं नवीन जानकारी युक्त निबंध पढ़े। उसी दिन तीसरे पहर १.३० बजे माननीय दौलतसिंहजी कोठारी की अध्यक्षता में मुख्य समारोह संपन्न हुआ । प्रारंभ में छात्राओं ने सरस्वती वंदना की, तदनंतर समारोह के मंत्री श्री भँवरलाल कोठारी ने स्वागत भाषण किया, उसके बाद भू० पू० नगर विधायक श्री गोपाल जोशी ने माल्यार्पण किया तत्पश्चात् मंत्री ने विभिन्न स्थानों से आये संदेशों को पढ़कर सुनाया जो परिशिष्ट में दिये जा रहे हैं।
इसके बाद सर्वश्री नरेंद्र भानावत, डा० हीरालाल माहेश्वरी, श्री महावीरराज गेलड़ा, श्री विनयसागर, श्री विजयशंकर श्रीवास्तव, डा० छगन मोहता, श्री सत्यनारायण पारीक, श्री उस्मान आरिफ सांसद, श्री गोपाल जोशी विधायक, श्री मुन्नालाल गोयल ( जिलाधीश), श्री श्रीलाल नथमल जोशी, डा० मनोहर शर्मा, श्री प्रकाशचन्द सेठिया, जुगलसिंह खोची, पंडित श्री होरालाल सिद्धान्तशास्त्री (व्यावर), श्री दोनदयाल ओझा, प्रो० कन्हैयालाल शर्मा, श्री गुमानमल चोरडिया जयपुर, श्री यादवेंद्र शर्मा 'चन्द्र', श्री हरीश भादानी, श्री जानकीनारायण श्रीमाली, डा० लक्ष्मी शर्मा वनस्थली, श्री रायचंद्र जैन एडवोकेट (गंगानगर) ३३४ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन ग्रन्थ
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तथा आचार्य नरोत्तमदास स्वामी (समारोह के उपाध्यक्ष) आदि ने नाहटाजी के व्यक्तित्व और कृतित्व के विविध पक्षों पर प्रकाश डाला, श्री जसराज सोनार ने अपनी भावांजलि पद्य रूप में प्रस्तुत की।
अभिनंदन ग्रंथ समिति के संयोजक श्री हजारीमल बांठिया तथा प्रबंधक संपादक श्री रामबल्लभ सोमानी ने अभिनंदन ग्रन्थ विषयक विवरण प्रस्तुत किया, अध्यक्ष डा० कोठारी और संपादन-मंडल के प्रतिनिधि तथा उपाध्यक्ष प्रो० नरोत्तमदास स्वामी ने श्री नाहटाजी को अभिनंदन ग्रन्थ की प्रति भेंट की, ग्रन्थ के साथ ही अभिनंदन-पत्र, उत्तरीय एवं श्रीफल भी भेंट किये गये, शोधकार्य में नाहटाजी के निरंतर सहयोगी और सह-कार्यकर्ता उनके भतीजे श्री भंवरलालजी नाहटा को भी ग्रन्थ की एक प्रति के साथ उत्तरीय तथा श्रीफल भेंट किये गये, तदनंतर श्री नाहटाजी ने मार्मिक एवं प्रेरक उद्बोधन भाषण किया । अंत में समारोह-मंत्री श्री कोठरी ने मनीषी नाहटाजी के प्रेरक जीवन पर प्रकाश डालते हुए आयोजन को सफल बनाने में सहयोगी सभी सज्जनों और कार्यकत्ताओं के प्रति आभार प्रकट किया, इस धन्यवाद-भाषण के साथ समारोह संपूर्ण हुआ।
नाहटा अभिनंदनोत्सव का दूसरा समारोह शीघ्र ही राजधानी दिल्ली में संपन्न किया जायगा, जिसमें नाहटाजी को अभिनंदन ग्रन्थ का दूसरा खंड भेंट कि
भंवरलाल कोठारी
मंत्री
अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन ग्रन्थ : ३३५
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अभिनंदनोत्सव समारोह पर प्राप्त आशीर्वाद एवं
शुभ कामनाओं के संदेश आचार्य श्री तुलसी चण्डवास
बहमखी व्यक्तित्व के धनी अगरचन्दजी नाहटा जैन समाज के विशिष्ट श्रावक हैं। जैन साहित्य और इतिहास के क्षेत्र में एक दृष्टि से उन्होंने उल्लेखनीय सेवाएँ दी है और दे रहे हैं। एक जन्मना व्ययसायी व्यक्ति पारिवारिक दायित्व निर्वाह के साथ जैन शासन और जैन साहित्य सेवा का इतना बड़ा संकल्प कर सकता है, यह अनुकरणीय आदर्श है। इस प्रसंग पर नाहटा जी के लिए मेरा यही संदेश है कि वे साहित्य सेवाओं के साथ अपने जीवन को आध्यात्म की ओर विशेष गतिशील बनायें। आचार्य श्री विजयधर्म सूरिजी
समारोह की सफलता की कामना चाहता हूँ। श्री देवेन्द्रमुनिजी-विजयपुर
नाहटा जी को शुभार्शीवाद । साध्वी श्री विचक्षणाश्री जी, जयपुर
जैन समाज एवं धर्म सभी क्षेत्रों में नाहटा जी का यशस्वी जीवन दीर्घकाल तक सभी को गौरवशाली बनाता रहे, यही गुरुदेव से प्रार्थना है। आचार्य श्री आनन्द ऋषिजी, पूना
___ सरस्वती के पुजारी नाहटा जी का जीवन साहित्य सृजन क्षेत्र में काफी ऊँचा रहा है। सतत प्रयत्न ने उन्हें देश मर्धन्य साहित्यकारों की श्रेणी में बिठा दिया है, शोध साहित्य में आपकी कलम वे जोड़ रही है। भारत सरकार के उपराष्ट्रपति माननीय श्री जत्ती महोदय
बड़ी प्रसन्नता होती कि ऐसे मौके पर मैं स्वयं उपस्थित हो पाता । आन्ध्रप्रदेश के राज्यपाल श्री मोहनलालजी सुखाड़िया
श्री अगरचन्द जी की जिन क्षेत्रों में सेवाएँ हैं उनसे हम भली-भाँति सभी प्रकार से परिचित हैं। मझे यह जानकर बड़ी खुशी हुई है कि ऐसे व्यक्ति का अभिनन्दन समारोह मनाया जा रहा है। परमात्मा उनको दीर्घायु करें। राजस्थान के मुख्य मन्त्री श्री हरिदेवजी जोशी
श्री नाहटा जी का साहित्य क्षेत्र में एक विशेष स्थान है और उनके अभिनन्दन से संबंधित होना सौभाग्य की बात है। राजस्थान के वित्तमन्त्री श्री चंदनमलजी बैद
श्री अगरचन्द नाहटा के अभिनन्दन समारोह में उपस्थित होने की बड़ी इच्छा थी, परन्तु निजी आवश्यक कार्यों के कारण उन दिनों जयपुर नहीं छोड़ सका ।
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शिक्षाआयुक्त श्री जगन्नाथसिंहजी मेहता, जयपुर
मुझे यह जानकर प्रसन्नता हुई कि राजस्थान के निवासियों की ओर से सुप्रसिद्ध विद्वान् श्री अगरचन्द नाहटा का गुणप्रेरक अभिनन्दन किया जा रहा है । श्रीयुत् रतनचन्दजी अग्रवाल, पुरातत्त्व संग्रहालय विभाग, जयपुर
प्रभु से करबद्ध प्रार्थना है कि राजस्थान के मूर्धन्य विद्वान् श्री अगरचन्द जी नाहटा चिरायु हों ताकि वे राजस्थान एवं भारत के साहित्य में उत्तरोत्तर वृद्धि कर सकें। सेठ श्रीयुत् अचलसिंहजी, संसद सदस्य, दिल्ली
श्री नाहटा को इस देश, समाज व साहित्य के प्रति अनेक सेवाएँ हैं, यह कार्य बहुत पहले हो जाना चाहिए था फिर भी आपके प्रयास एवं आयोजन के लिए मेरी शुभ कामनाएँ है । लक्ष्मी कुमारी चूड़ावत, संसद सदस्य, दिल्ली
श्री नाहटा जी का अभिनन्दन समारोह को जानकर प्रसन्नता हुई, हम सभी का कर्तव्य है कि इसे सफल बनाने का प्रयत्न करें। श्रीमती कान्ता खतूरिया, सदस्या राजस्थान विधान सभा
इस शुभ कार्य के लिए मेरा सक्रिय सहयोग आपके साथ है । मूर्धन्य साहित्यकार बनारसीदास चतुर्वेदी, फिरोजाबाद
श्रद्धेय अगरचन्दजी नाहटा ने हिन्दी साहित्य की जो अद्भुत सेवा की है, उससे उनका अभिनन्दन होना ही चाहिए था। इस अवसर पर मैं अपनी हार्दिक बधाई देता हूँ। श्रीयुत अक्षयकुमार जो जैन, संपादक, नवभारत टाइम्स, दिल्ली
समारोह की सफलता की शुभकामना । श्री परमेष्ठी दास जी जैन, संपादक, वीर
__मैं विद्यापति श्री अगरचन्दजी नाहटा की साहित्य सेवाओं पर मुग्ध हूँ, उनका अति प्रशंसक हूँ। समारोह के समय मेरी ओर से भी हार्दिक अभिनन्दन दीजिए। नाहटा जी के शतायु होने की कामना करता हुआ, और भावना भाता हूँ कि वे सौ वर्ष तक सतत साहित्य सेवा में लगे रहें। श्री जमनालालजी जैन, सह संपादक, श्रमण, वाराणसी
नाहटा जी ने अपने जीवन में जितना कार्य मां भारती के लिए किया वैसा और उतना कार्य अगर मैं अतिशयोक्ति नहीं करता तो कहना चाहता हूँ कि एक सर्वसाधन सम्पन्न विश्व विद्यालय भी करने में असमर्थ है। वे हम सबको सेवा एवं कर्मठता का मंगल आशीष निरन्तर देते रहें, यही प्रभु से प्रार्थना है । श्री राजनाथजी, संपादक सुधाबिन्दु, अहमदाबाद
आपकी बहुमुखी सेवाएँ साहित्य समाज की मूल्यवान निधि हैं। प्रभु से प्रार्थना करते हैं कि नाहटा जी शतजीवी बन कर मां भारती के चरणों में अन्य कई ग्रन्थ पुष्प रखने के लिए सक्षम बनें। श्री चन्दनमलजी चांद, प्रबन्ध संपादक, जैन जगत
श्री नाहटा जी का मण्डल, जैन जगत एवं मेरे से अत्यन्त घनिष्ठ सम्पर्क है और उनकी विद्वत्ता विनम्रता आदि भावों से जन-जन परिचित है।
अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन ग्रन्थ : ३३७
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श्री यशपालजी जैन, सस्ता साहित्य मण्डल, दिल्ली
श्री नाहटा जी को मेरी आन्तरिक बधाई दीजिए। उन्होंने अपने साहित्य द्वारा समाज को जो सेवा को है वह निःसन्देह सराहनीय है । मेरी कामना है कि वे दीर्घायु हों, स्वस्थ रहें, और अपनी लेखनी द्वारा चिरकाल तक समाज की सेवा करें। डा० ज्योतिप्रसाद जी जैन, लखनऊ
नाहट जी हमारी समाज के ही नहीं वरन सम्पूर्ण देश के गौरव हैं और हिन्दी साहित्य जगत के सूर्य हैं । उनका अभिनन्दन करना साक्षात् सरस्वती का अभिनन्दन करना है । पं० हीरालाल जी सिद्धान्तशास्त्री, व्याबर
सरस्वती के बरद पत्रों का सम्मान होना चाहिये। मैं उनके दीर्घजीवी होने की मंगल कामना करता हूँ। डा० कस्तूरचन्दजी कासलीवाल, जयपुर
नाहटा जी देश की विभूति हैं तथा समाज उनसे गौरवान्वित है । डा० जगदीशचन्दजी जैन, व श्रीमती जगदीश जैन, बम्बई
हम आशा करते हैं कि भविष्य में भी आपका जीवन विद्या देवी की साधना में व्यतीत होगा । पं० अमृतलालजी शास्त्री, संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी
नाहटा जी चलती फिरती लाइब्रेरी हैं, साहित्य साधना से उन्होंने समूचे जैन समाज का गौरव बढ़ाया है। श्री अनूपचन्दजी न्यायतीर्थ, जयपुर
नाहटा जी ने अपनी सतत साधना से मां भारती का मस्तिष्क ऊँचा कर राष्ट्र को गौरवान्वित किया है । उनका सम्पूर्ण जीवन साहित्यमय है । प्रो० पृथ्वीराजजी जैन, अम्बाला
विविध क्षेत्रों में उनके कार्यों की गणना तारों की गणना के समान दुःसाध्य है । जैन साहित्य को अनमोल सेवा करते हुए वर्तमान व भावो पीढ़ी के लिए मार्गदर्शक प्रकाश स्तंभ बने रहें यही प्रार्थना है। पं० मूलचन्दजी शास्त्री, श्रीमहावीरजी
नाहटा जी समाज में अपने बुद्धिजीवियों के प्रति आदर भाव की जागृति बनाने में अग्रदूत बनें । श्री शोभाचन्द जी भारिल्ल, बम्बई
नाहटा जो चिरजीवो हो । श्री दलसुख मालवणिया, अहमदाबाद
इनकी साहित्य के इतिहास की दृष्टि पैनी है और एक एक पत्रों में से इतिहास की बहुमूल्य सामग्री का चयन सैकड़ों लेखों में उन्होंने किया है। डा. राजाराम जैन, एच. डी. जैन कालेज, आरा
श्रद्धेय नाहटा जो साहित्य जगत् के गौरव गुरु हैं। उनमें गुणाढ्य से लेकर चन्दर वरदाई, हयूनात्सांग फाहियान से लेकर वनियर और पाणिनि से लेकर टेसिटरी तक को आत्म शक्तियां समाहित हैं। ३३८ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन ग्रन्थ
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हास्यकवि श्री हजारीलाल जैन सकरार
जिनका सत साहित्य कराता मोक्ष मार्ग दर्शन है, जिनकी कलम कराती रहती सदा ज्ञान वर्धन है, शोध मनीषी विद्या वारिधि उन्हीं नाहटा जी का
इस पुनीत बेला पर 'काका' शत-शत अभिनन्दन है। प्रो० श्रीचंदजी जैन, उज्जैन
व्यक्ति विशेष का अभिनन्दन न होकर मैं इसे धर्म का, साहित्य का, संस्कृति का एवं कला का पुनीत सत्कार मान रहा हूँ। श्री पन्नालालजी साहित्याचार्य, मंत्री, भारतवर्षीय दिगम्बर जैन विद्वत् परिषद, सागर
श्री नाहटा जी की साहित्य सेवा जैन समाज के गौरव को बढ़ाने वाली है। श्री आनन्दराज सुराना, स्थानकवासी जैन क्रान्फ्रेन्स. दिल्ली ।
श्री नाहटा जी एक विद्वान् समाज सेवी, कर्मठ कार्यकर्ता एवं लेखक आदि सभी से सम्पन्न व्यक्तित्व वाले हैं। श्री भंवरलाल सिंधी, अध्यक्ष अखिल भारतीय मारवाडी सम्मेलन, कलकत्ता
श्री अगरचन्दजी नाहटा जी ने जीवन भर जो विद्या साधना की है और समाज एवं साहित्य को जो अवदान किया है वह सदा अभिनन्दनीय रहा है व रहेगा। उनको जैसो साधना बहुत कम लोगों में मिलती है। श्री दौलतसिंहजी जैन, मन्त्री, अखिल भारतीय खरतरगच्छ, दिल्ली
श्री नाहटा जी राष्ट्र के लब्ध प्रतिष्ठ विद्वान् है। सहस्रों अमूल्य ग्रन्थों का संग्रह एवं अवलोकन कर इतिहास एवं साहित्य की महान् सेवा की है। उन्होंने इस गच्छ का नाम रोशन किया है । श्री केसरमलजी सुराना, मन्त्री, जैन श्वेताम्बर तेरापंथी मानव हितकारी संघ, रानावास
श्री अगरचन्द जी नाहटा हमारे समाज के अग्रणीय नेता हैं । उन्होंने जो हमारे समाज की सेवा को है वह जैन इतिहास के स्वर्ण अक्षरों में लिखी जायेगी। श्री सेठ भागचन्दजी सोनी, अध्यक्ष, अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन महासभा. अजमेर
वे जैन पुरातत्त्व के गतिशील अध्येता तथा अनुसंधित्सुओं के प्रेरणास्रोत हैं । लक्ष्मी और सरस्वती की उन पर समान रूप से कृपा है । श्री विजयसिंहजी नाहर, भूतपूर्व उपमुख्य मन्त्री, पश्चिमी बंगाल, कलकत्ता ।
उनका साहित्य, उनका विभिन्न विषयों पर पांडित्यपूर्ण लेख उनकी विद्वत्ता का परिचायक हैं। उनका साहित्य एवं पुरातत्व विषयक संग्रह अपूर्व है। श्री के० एल० बोरदिया उदयपुर
नाहटा जी की इतिहास तथा धार्मिक ग्रन्थों के संबंध में शोध अत्यन्त सराहनीय रही है उन्होंने कठिन परिश्रम तथा सत्य की खोज का एक आदर्श प्रस्तुत किया है। श्री वृन्दावनदास, मथुरा
__ नाहटा का अभिनन्दन वास्तव में हिन्दी शोध का अभिनन्दन है। हिन्दी के साहित्य क्षेत्र में उनका व्यक्तित्व वन्दनीय है।
अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन ग्रन्थ : ३३९
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श्री देव न्द्रकुमारजी हिरण, राजसमन्द
श्री अगरचन्द जी नाहटा साहित्य जगत के उज्ज्वल नक्षत्र हैं और श्री नाहटा जी बात के धनी हैं। श्री धीरजलाल शाह, बम्बई
उनकी साहित्य साधना अपूर्व है। श्री प्रभुदयाल मित्तल, मथुरा
ऐसे महान् साहित्य साधक का जितना सम्मान किया जाय कम है। श्री विद्याधरजी शास्त्री, चुरू
आपको यह साधना सदैव प्रगति पर है आज भी आप अपने संग्रह को समृद्ध कर रहे हैं । डा० लक्ष्मीनारायण दबे, सागर विश्व विद्यालय, सागर
___ श्री अगरचन्दजी नाहटा जैनधर्म साहित्य और राजस्थानी वाड्मय के जीवित इनसाइक्लोपीडिया है । श्री पूरनचन्दजी जैन, जयपुर
भारतीय पुरातत्व, विशेषतः जैन धर्म, और संस्कृति-शोध तथा ग्रन्थों के गुणाधार है। डा० लालचन्द जैन, वनस्थली विद्यापीठ, श्री कैलासचन्द जैन, उज्जैन डा० छगनलाल जी शास्त्री, सरदार शहर
श्री सुन्दरलालजी तातेड, बीकानेर श्री बालकवि वैरागी, मनासा
श्री प्रकाश नाहटा, अनूपगढ़ डा० शिवगोपाल मिश्र, इलाहाबाद
श्री गुलाबचन्द बड़जात्या, भोपाल श्री हरिहर निवाद द्विवेदी, ग्वालियर
श्री मानकचन्द नाहर, मद्रास , श्री ज्ञानचन्द स्वतंत्र, गंजवासौदा
श्री पुष्कर, चंदरवाकर, गुजरात श्री के०डी० वाजपेयी, सागर
श्री सुन्दरलाल नाहटा, मद्रास श्री रघुवीरसिंह जी, सीतामऊ
श्री तेजराज बाफना, सिरोही श्री कन्हैयालाल जी सेठिया, कलकत्ता
श्री गोपालनारायण बहुरा, जयपुर श्री जिनदत्तसूरी जैन मण्डल, मद्रास श्री रिषभदासजी करनावत, जोधपुर
श्री हीराभाई, इन्दौर श्री धनराज सिरोहिया, कलकत्ता
श्री साराभाई नबाब, सूरत श्री शांतिलाल जी जैन, भारत जैन महामण्डल, श्री रावतमल ताराचन्द सेठिया, सिलीगुडी भीलवाड़ा
श्री हरीश चन्द्र बडेरा, जयपुर श्री केसरीमल दीवान, सीकर
श्री बृजेन्द्रनाथ शर्मा, गाजियाबाद राष्ट्रभाषा प्रचार समिति वर्धा के श्री रामेश्वर दयाल दुवे, सहायक मंत्री श्री अ० भा० जैन श्वे. तेरापंथी समाज, कलकत्ता एवं श्री श्रीचन्द जी जैन, आदि की भी समारोह की सफलता हेतु शुभ कामनाएँ प्राप्त हुई।
३४० : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन ग्रन्थ
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बीकानेर में आयोजित श्री अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन समारोह निमित्त
आर्थिक सहयोग दाताओं की शुभ नामावली
पर
१००१) सेठ आनन्दराज जी सुराणा दिल्ली १०००) सेठ कस्तूर भाई लाल भाई ट्रस्ट अहमदाबाद ५०१) सेठ गुमानमलजी चोरडिया जयपुर ५००) सेठ श्रीचन्दजी गोलेछा जयपुर ५००) सेठ हरिश्चन्द्र बड़ेर जयपुर ५००) सेठ राजमलजी सुराणा जयपुर ५००) सेठ पुगलियाजी परिवार जयपुर ५००) सेठ जुगराजजी से सेठिया बीकानेर २५१) श्री रावतमलजी ताराचन्दजी सेठिया गंगाशहर १५१) श्री दुरजनदासजी हुलासचन्दजी सेठिया भीनासर १०१) श्री रिखबचन्दजी बैद बीकानेर १०१) श्री रायचन्दजी जैन बीकानेर १०१) श्री तन सुखरायजी डागा बीकानेर १०१) श्री विजयराजजी पगारिया बीकानेर १०१) श्री भंवरलालजी कोठारी बीकानेर १०१) श्री गुप्तनाम ५१) डॉ० नन्दलालजी बोदिया बीकानेर ५१) श्री जुगलसिंहजी खिच्ची बीकानेर ५१) श्री बालचन्दजी सांड बीकानेर ५१) श्री गिरधरजी बैद बीकानेर
श्री अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशनार्थ
आर्थिक सहयोग देनेवालों की शुभ नामावली १०००) साह शांतिप्रसाद जैन ट्रस्ट दिल्ली १०००) सेठ भागीरथी कानोड़िया कलकत्ता ५०१) सेठ तोलारामजी दोसी देशनोक ५०१) सेठ मणिलालजी डोसी दिल्ली २५१) मे० नवरतनमल निर्मलकुमार कानपुर २५१) मे० सत्यनारायणराय रामानन्दप्रसाद कानपुर २५१) मे० हीरालाल रतनलाल कानपुर
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२५०) मे० वृषभान इन्द्रचन्द कानपुर ७०१) यू० पी० आयल मील एशोसियसन
कानपुर के सदस्य मा० पी० सी० कानोडिया २००) मे० झंवर ब्रादर्स कानपुर २५१) मे० नानूराम जयगोपाल कानपुर २५१) में० रामलाल मनोहरलाल दिल्ली २५१) सेठ बच्छराजजी मुणोत कानपुर २५१) मे• हरीशचन्द्र राजेन्द्रकुमार २५१) मे० गोपाल दाल मील कानपुर २५१) मे० पुरुषोत्तमदास अशोककुमार कानपुर २५१) सेठ मांगीलालजी बेंगाणी कानपुर १००) मे० अजीत दाल मील कानपुर १०१) मे० कैलाश दाल मील इंदौर १००१) सेठ रामप्रसादजी पोद्दार प्रेसीडेन्ट सेन्चुरी मील बम्बई २५१) श्री मांगीलालजी बैंभाणी २५१) श्री दुर्गाप्रसादजी कानपुर
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