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सोमदेव हुए, जो चन्द्रवाडके राजा अभयचन्द्र और जयचन्द्र के समय प्रधानमन्त्री थे । सोमदेवकी पत्नीका नाम प्रेमसिरि था, उससे सात पुत्र उत्पन्न हुए थे । वासाधर, हरिराज, प्रहलाद, महराज, भवराज, रत्नाख्य और सतनाख्य । इनमें से ज्येष्ठ पुत्र वासाघर सबसे अधिक बुद्धिमान, धर्मात्मा और कर्तव्यपरायण था। इनकी प्रेरणा और आग्रहसे मुनि पद्मनन्दीने उक्त श्रावकाचार की रचना की थी। साहू वासाधरने चन्द्रवाडमें एक जिनमन्दिर बनवाया था और उसकी प्रतिष्ठा विधि भी सम्पन्न की थी। कवि धनपालके शब्दों में वासाधर सम्यग्दृष्टि, जिनचरणोंका भक्त, जैनधर्मके पालन में तत्पर, दयालु, बहुलोक मित्र, मिथ्यात्वरहित और विशुद्ध चित्तवाला था । भ० प्रभाचन्द्र के शिष्य धनपालने भी सं० १४५४ में चन्द्रवाड नगरमें उक्त वासाधरकी प्रेरणासे अपभ्रंश भाषामें बाहुबलीचरितकी रचना की थी ।
दूसरी कृति वर्धमान काव्य या जिनरात्रि कथा है, जिसके प्रथम सर्गमें ३५९ और दूसरे सर्ग में २०५ श्लोक हैं। जिनमें अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीरका चरित अंकित किया गया है, किन्तु ग्रन्थमें रचनाकाल नहीं दिया जिससे उसका निश्चित समय बतलाना कठिन है । इस ग्रन्थकी एक प्रति जयपुरके पार्श्वनाथ दि० जैन मन्दिर के शास्त्र भण्डार में अवस्थित है जिसका लिपिकाल संवत् १५१८ है और दूसरी प्रति सं० १५२२ की लिखी हुई गोपीपुरा सूरत के शास्त्र भण्डार में सुरक्षित है । इनके अतिरिक्त 'अनन्तव्रतकथा' भी भ० प्रभाचन्द्रके शिष्य पद्मनन्दीकी बनाई उपलब्ध है । जिसमें ८५ श्लोक हैं ।
पद्मनन्दीने अनेक देशों, ग्रामों, नगरों आदि में विहारकर जनकल्याणका कार्य किया है, लोकोपयोगी साहित्यका निर्माण तथा उपदेशों द्वारा सन्मार्ग दिखलाया है । इनके शिष्य-प्रशिष्योंसे जैनधर्म और संस्कृतिको महती सेवा हुई। वर्षोंतक साहित्यका निर्माण, शास्त्र भण्डारोंका संकलन और प्रतिष्ठादि कार्यों द्वारा जैनसंस्कृतिके प्रचार में बल मिला है । इसी तरहके अन्य अनेक सन्त हैं जिनका परिचय भी जनसाधारणतक नहीं पहुँचा है । इसी दृष्टिकोणको सामने रखकर पद्मनन्दीका परिचय दिया गया है। चूँकि पद्मनन्दी मूलसंघ विद्वान थे, वे दिगम्बर वेषमें रहते थे और अपनेको मुनि कहते थे । और वे यथाविधि यथाशक्य आचार विधिका पालनकर जीवनयापन करते थे । आपकी शिष्य परम्पराके अनेक विद्वानोंने जैन साहित्य की महान् सेवा की है । राजस्थानके शास्त्र भण्डारोंमें मुनि पद्मनन्दीके शिष्य - प्रशिष्यों की अपभ्रंश, प्राकृत और संस्कृत, राजस्थानी - गुजराती आदिमें रची हुई अनेक कृतियाँ मिलती हैं ।
१. श्री लम्बकंचुकुलपद्मविकासभानुः, सोमात्मजो दुरितदारुचयकृशानुः । धर्मैकसाधनपरो भुवि भव्यबन्धुर्वासाधरो विजयते गुणरत्नसिन्धुः ॥
२. जिणणाहचरणभत्तो जिणधम्मपरो दयालोए । सिरिसोमदेवतणओ नंदउ वासद्धरो णिच्चं ॥ सम्मत्त जुत्तो जिणपायभक्तो दयालुरत्तो बहुलोयमित्तो । मिच्छत्तचत्तो सुविशुद्धचित्तो वासाधरो णंदउ पुण्णचित्तो ॥
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- बाहुबलीचरित सन्धि ४
- बाहुबलीचरित सन्धि ३
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भाषा और साहित्य : १९७
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