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चित्रकाव्य का उत्कर्ष-सप्तसन्धान महाकाव्य
श्री सत्यव्रत 'तृषित' श्रीगंगानगर
अपनी विद्वत्ता तथा रचना कौशलके प्रदर्शनके लिए संस्कृत कवियोंने जिन काव्य-शैलियोंका आश्रय लिया है, उनमें नानार्थक काव्योंकी परम्परा बहुत प्राचीन है। भोजकृत शृंगार प्रकाशमें दण्डीके द्विसन्धान काव्यका उल्लेख हआ है। दण्डीका द्विसन्धान तो उपलब्ध नहीं, किन्तु उनकी चित्र काव्य-शैलीने परवर्ती कवियोंको इतना प्रभावित किया कि साहित्यमें, शास्त्रकाव्योंकी भांति नानार्थक काव्योंकी एक अभिनव विद्याका सूत्रपात हुआ तथा इस कोटिकी रचनाओंका प्रचुर संख्यामें निर्माण होने लगा। जैन कवियोंने सप्तसंधान, चतुर्विंशति संधान तथा शतार्थक काव्य लिखकर इस भाषायी जादूगरीको चरम सीमा तक पहुँचा दिया। अनेक संधान काव्यमें श्लेषविधि अथवा विलोमरीतिसे एक-साथ एकाधिक कथाओंके गुम्फनके द्वारा काव्य-रचयिताको भाषाधिकार तथा रचना-नैपुण्य प्रदर्शित करनेका अवाध अवकाश मिल जाता है। अतः, आत्मज्ञापनके शौकीन पण्डित कवियोंका इधर प्रवृत्त होना बहुत स्वाभाविक था ।
जैन कवि मेघविजयगणि (सतरहवीं शताब्दी) का सप्तसन्धान महाकाव्य' चित्रकाव्य शैलीका उत्कर्ष है। साहित्यका आदिम सप्तसन्धान काव्य कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्रकी उर्वर लेखनीसे प्रसूत हुआ था। उसकी अप्राप्तिसे उत्पन्न खिन्नताको दूर करने के लिये मेघविजयने प्रस्तुत काव्य रचना की। नौ सर्गोंके इस महाकाव्यमें जैन धर्मके पाँच तीर्थकरों-ऋषभदेव. शान्तिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ, महावीर तथा परुषोत्तम राम और कृष्ण वासुदेवका चरित श्लेषविधिसे गुम्फित है । काव्यमें यद्यपि इन महापुरुषोंके जीवनके कतिपय महत्त्वपूर्ण प्रकरणोंका ही निबन्धन हुआ है, किन्तु उन्हें एक साथ चित्रित करनेके दुस्साध्य कार्यकी पूर्तिके लिए कविको विकट चित्र शैली तथा उच्छृखल शाब्दी क्रीडाका आश्रय लेना पड़ा है, जिससे काव्य वज्रवत् दुर्भेध बन गया है । टीकाके जल-पाथेयके बिना काव्यके मरुस्थलको पार करना सर्वथा असम्भव है । विजयामत सूरिने अपनी विद्वत्तापूर्ण 'सरणी'से काव्यका मर्म विवृत करनेका प्रशंसनीय प्रयास किया है, यद्यपि कहींकहीं 'सरणी' भी काव्यकी भाँति दुरूह बन गयी है। सप्तसन्धान का महाकाव्यत्व . सप्तसन्धानके कर्ताका मुख्य उद्देश्य चित्रकाव्य-रचनामें अपनी वदग्धीका प्रकाशन करना है, और इस लक्ष्यके सम्मुख, उसके लिये काव्यके अन्य धर्म गौण है; तथापि इसमें प्रायः वे सभी तत्त्व किसी न किसी रूपमें विद्यमान हैं, जिन्हें प्राचीन लक्षणकारों ने महाकाव्यके लिये आवश्यक माना है । संस्कृत महाकाव्यकी रूढ़ परम्पराके अनुसार प्रस्तुत काव्यका आरम्भ चार मंगलाचरणात्मक पधोंसे हुआ है, जिनमें जिनेश्वरों तथा वाग्देवीकी वन्दना की गयी है। काव्यके आरम्भमें सज्जनप्रशंसा, दुर्जननिन्दा, सन्नगरी वर्णन आदि बद्धमूल
१. जैन-साहित्य-वर्धक सभा, सूरतसे 'सखी' सहित प्रकाशित, विक्रम संवत् २००० । २. श्री हेमचन्द्रसूरीशैः सप्तसन्धानमादिमम् ।
रचितं तदलाभे तु स्तादिदं तुष्टये सताम् ।। प्रशस्ति, २ ।
विविध : २९७
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