________________
वही मत था। किन्तु उनका कोई ग्रन्थ बचा नहीं था, अतः उस सिद्धान्तका सविशेष प्रकाश 'ब्रह्म सूत्रों के 'अणुभाष्य' में बताना समुचित समझा गया ।
इस परिक्रकासे आप सं० १५५४ (ई० सं० १४६७) वैशाख सुदि ३ के दिन श्रीवल्लभ अपने दोनों सेवकोंके साथ विजयनगर आ पहुँचे। संभव है कि इस परिक्रमाके समयमें श्रीवल्लभने श्रीमद्भागवतकी सूक्ष्म टीका, पूर्वमीमांसा भाष्य एवं अणुभाष्य संपन्न करनेकी संभावना है। इन सभी ग्रन्थोंमें और बालबोध, सिद्धान्त मुक्तावलि, भक्ति वधिनी जैसे प्रकरण ग्रन्थों में कोई नया मत संप्रदाय प्रस्थापित करनेका पता चलता नहीं है। द्वितीय भारत परिक्रमा :
एक वर्ष के लिए विजयनगरमें ठहरकर सं० १५५५ (ई० सं० १४९९) चैत्र सुदि २ रविवारके दिन माताजीकी आज्ञा लेकर अपने उन दोनों सेवकोंके साथ निकल पड़े और वहाँसे यात्रा करते करते पंढरपुर फिरसे आ पहुँचे । वहाँकी यात्रा पूर्ण करके गुजरात सौराष्ट्र के अनेक तीर्थों में गये और बहुतसे स्थानोंमें श्रीमदभागवत पारायणका लोगोंको श्रबण कराया, वहाँसे मालवेमें आकर फिर बुंदेलखण्डमें वेत्रवतीके तोर प्रान्तपर आये हुए ओड़छाके प्रदेशमें आ पहुँचे । उस समय 'ओड़छा' प्रसिद्धि में आया नहीं था; राजधानी गढकुंडार नामक किलामें थी। उस समय वहाँ मलखान सिंह नामक राजपूत राजा (ई० स० १४६९-१५०२) था और उसके दरबारमें शांकरों एवं वैष्णवों के बीच वादचर्चा चल रही थी। घटसरस्वती नामक एक शांकर विद्वान् केवलाद्वैत वादका प्रबलतासे समर्थन कर रहा था। उसके सामने वैष्णवोंके लिए टिकना असंभव बन गया था। बरोबर उसी मौकेपर श्रीवल्लभ वहाँ आ पहुँचे, उनकी ख्याति इस पर्व भारतके विद्वानों में स्थापित हो गई थी। उनका आगमन सुनते ही राजा एवं श्रीवल्लभके सजातीय राजपण्डित विद्या देव और अन्य वैष्णव विद्वानोंको आनन्द हुआ । इस समय श्रीवल्लभका वय २७-२८का था। दोनों मीमांसा एवं भगवच्छास्त्रोंपर अच्छा काबू आ गया था। विजयनगरमें ही वाद शक्ति तो विकसित हो चुकी ही थी उन्होंने शास्त्रार्थमें भाग लिया और अन्तमें शांकर विद्वानोंको पराजित किया। राजाने प्रसन्न होकर श्रीवल्लभका कनकाभिषेक किया। यह उस समयका विद्वानोंके लिए एक बड़ा मान था।
इस मानकी प्राप्ति करके श्रीवल्लभ तीर्थराज प्रयागमें त्रिवेणी स्नानके लिए पहुँचे। और वह कार्य सम्पन्न करके काशी पहुँचे, जहां वि० सं० १५५९ (ई० सं० १५०२) वैशाख वदी २ के दिन मणिकणिका घाटपर स्नान करके वहाँ इकट्ठे हुए विद्वानोंके साथ विविध चर्चाका लाभ उठाया ।
भारतवर्षके विविध तीर्थों में जो दूषित परिस्थितिका अनुभव किया था उसका चित्र आपने अपने एक छोटे ग्रन्थ 'कृष्णाश्रय' में व्यक्त किया है। ऐसे जटिल समयमें सुकृती लोगोंको मार्गदर्शन देकर सत्पथपर लानेकी उनकी भावना बलवत्तर होती जाती थी। काशीमें उस समय चौड़ा गाँवके पूर्वपरिचित कृष्णदास चौपड़ा नामक क्षत्रियके पुत्र सेठ पुरुषोत्तमदास रहते थे और अपने निवास दरम्यान वहां उन्होंने ठीक-ठीक प्रतिष्ठा भी प्राप्त कर ली थी। मणिकर्णिका घाटपर उनको श्रीवल्लभका दर्शन एवं उनकी भक्तिपूर्ण विद्वत्ताका परिचय होनेपर शिष्य बननेकी भावना हुई। पूर्वपरिचयके कारण श्रीवल्लभने उनको भागवती दीक्षा दी और उनके घरपर जा ठहरे, जहाँ आपने दिनों तक श्रीमद्भागवतका व्याख्यान दिया। सबसे प्रथम, जन्माष्टमीके उत्सवपर, उनके घरपर नन्दमहोत्सव किया गया। पुरुषोत्तमदास सेठकी योग्यता देखकर श्रीवल्लभने उनको शरणार्थियोंको शरणदीक्षा देनेकी आज्ञा दी थी। 'कृष्णसेवामें तत्परता, दम्भादिदोषरहितता, श्रीमद्भागवतके तत्त्वका सबल ज्ञान जिनमें हो वह गुरु हो सके' ऐसा विधान 'तत्त्वार्थ दीपनिबन्ध'के दूसरे 'सर्वनिर्णय प्रकरण' में इस पूर्व किया ही था; उसका यहाँ पुरुषोत्तमदास सेठमें सबूत मिलता है। २८२ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org