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ईडरके पास भीलोड़ा ताल्लुकामें भुवनेश्वरके सुप्रसिद्ध मंदिरके सम्मुख एक मुरलीधर मंदिर है । इसकी दीवार में किसी प्राचीन सूर्यमंदिर मेंका सारंगदेवका बाघेलाके समयका सं० १३५४ ( ई०स०१२९८) का शिलालेख लगा हुआ है। श्री नीलकण्ठ जीवतरामने 'बुद्धिप्रकाश, १९१० में इसे प्रकाशित कराया है। तत्पश्चात् इसका शुद्धतर पठन श्री तनसुखराम त्रिपाठीने 'बुद्धिप्रकाश,' मार्च अप्रैल १९१०में विवेचन सहित प्रकाशित किया है, (श्री गिरिजाशंकर आचार्य द्वारा सम्पादित और फाबंस गुजराती सभा द्वारा प्रकाशित किया गया 'गुजरात ना ऐतिहासिक लेखों में यह महत्त्वपूर्ण शिलालेख संग्रहीत नहीं है । ) इसमें दी गई वाघेलाओंकी वंशावलिपरसे उस कालमें द्वराज पद्धति होनेका ज्ञान स्पष्ट हो जाता है। उपर्युक्त रामदेव कि जिसका कोई उत्कीर्ण लेख अथवा पुष्पिका अभी तक उपलब्ध नहीं हुई है इसका भी राज्यकर्ताके रूपमें उल्लेख है। (तस्याङ्गजः संप्रति राजतेऽसौ श्रीरामनामा नपचक्रवर्ती। श्लोक १२) चिन्तामणि पार्श्वनाथके मंदिरकी प्रशस्तिमें के नामदेवके संबंधी उल्लेखके साथ इसकी तुलना करनेपर इसके निर्णायक अर्थके सम्बन्धमें किसी प्रकारकी शंका नहीं रहती।
वाघेलाओंके समकालीन राजवंश, सूवर्णगिरी-जालौरके सोनगिरी चौहाणोंमें भी यह पद्धति थी। 'कान्हड़दे प्रबन्ध'के नायक कान्हड़देके सम्बन्धमें तो इस विषयमें स्पष्ट समकालीन प्रमाण है। जालौरके सं० १३५३ (ई०स० १२९७)के एक लेख में कान्हड़देवको अपने पिता सामन्त सिंहके साथ राज्य करते हुए बताया गया है
औं । (सं०)वत् १३५३ (वर्षे) वे (शा)ख वदि ५ (सोमे) श्री सुवर्णगिरी अद्येह महाराजकुल श्रीसाम् (म)त सिंहकल्याणं (ण) विजयराज्ये तत्पादपद्मोपजीविनि (रा)जश्रीकान्हड़देवराज्यधुरा(मु)द्ववहमाने इहैव वास्तव वास्तव्य
(प्राचीन जैन लेखसंग्रह, भाग २ लेखांक ३५३) तदनुसार जालौरके पास चोटण गाँवमेंसे प्राप्त और जालोरमें सुरक्षित सं० १३५५ (ई० सं० १२९९) के एक लेख में (बुद्धिप्रकाश, ऐप्रिल १९०, पृ० १११) इसी प्रकार से सं० १३५६ (ई० सं० १३००) के एक अप्रसिद्ध शिलालेखमें (दशरथ शर्मा, 'अर्ली चौहाण डाइनेस्टिज,' पृ० १५९) में भी सामन्तसिंह और कान्हड़देव का राज्यकर्त्ताके रूपमें साथ-साथ ही उल्लेख है।।
इस प्रकारके शासनप्रबन्धमें ऐसा भी होता था कि पिताकी अपेक्षा पुत्र अधिक प्रतापी हो तो साहित्य और अनुश्रुतिमें पुत्रको ही अधिक स्मरण किया जाता है। सामन्तसिंहके लेख सं० १३३९ से १३६२ (अर्थात् ई० सं० १२८३ से १३०६) तकके उपलब्ध होते हैं (शर्मा उपर्युक्त पृ० १५९) सं० १३५३ को अवधिमें कान्हड़देव अपने पिता सामन्तसिंहके साथ राज्य-प्रबन्धमें सम्मिलित हुआ हो, ऐसा उत्कीर्ण लेखोंपरसे विदित होता है (गुजरातके सारंगदेव वाघेलाका देहावसान सं० १३५३ में हुआ और इसी वर्ष कर्णदेव पाटणकी गहीपर आया यह ऐतिहासिक प्रमाणोंसे निश्चित है। इतना होते हए इसके बाद डेढ सौसे भी अधिक वर्षके पश्चात् 'कान्हदेप्रबन्ध'के रचयिता पद्मनाभने उस समय गुजरातमें सारंगदेव और कर्णदेवका साथ-साथ राज्य होनेका वर्णन किया है; जो द्वैराज्य पद्धतिकी बलवान परम्पराका द्योतक है) गुजरातका हिन्दु राज्य अलाउद्दीन खिलजीसे पराजित हुआ यह एक मतसे सं० १३५६ (ई० सं० १३००) में और दूसरे मतसे सं० १३६० (ई० सं० १३०४) में किन्तु १३६० से अधिक बादमें तो नहीं है।
पाटण और सोमनाथपर अलाउद्दीनका आक्रमण हुआ और वहाँसे लौटते समय जालौरके चौहाणोंने मुस्लिम सेनाको पराजित किया वह यही समय था। उस समय जालौरकी राज्यगद्दीपर सामन्तसिंह था इस संबंधमें समकालीन उत्कीर्ण लेखों द्वारा असंदिग्ध प्रमाण प्राप्त होते हैं। किन्तु इसके वंशज अखेराजका
२१६ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ
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