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खास (दरबार आम खास, पब्लिक एसम्बली हॉल) हो अथवा दीवान खास (दरबार खास, कौन्सिल चेम्बर ) हो, दरवार ही कहलाता था । दूसरी बात ध्यान देने की यह है कि भेंट वाले दिनका दौलतखाना खास ( दीवान खास ) का दरबार, प्रतिदिनका विशेष मंत्रणा दरबार नहीं था, अपितु बादशाह के जन्म-दिनके उत्सव में एक प्रकारसे सामान्य दरबार खास था । यद्यपि सभी आम व्यक्तियोंको वहाँ पहुँचनेकी आज्ञा नहीं थी ।
इस घटना-प्रसंगके विषय में इतिहासकारोंने लिखा है कि “जब शिवाजीका अपमान दरबारमें हुआ तो वे क्रोधाभिभूत दशा में निकट स्थित एक अन्य कमरे या स्थानपर चले गये थे । यह कमरा या स्थान दरबारसे सटा हुआ था, पर दरबारसे भिन्न था। यहाँ उन्हें बादशाह नहीं देख सकता था । दरबारमें अपमानित होने की घटना के तुरन्त बादकी घटनाएँ यहीं घटित हुई थीं ।""
इतिहासकारोंके उक्त उल्लेखके आधारपर हिन्दी के कुछ विद्वानोंने अनुमान किया है कि उक्त दूसरे कमरे या स्थान ही को भूषणने बार-बार 'गुसलखाना' कहा है, किन्तु उपर्युक्त उल्लेखोंके आधारपर प्रामाणिकताकी दृष्टिसे यह अनुमान सही नहीं है । साथ ही भूषणके कथन भी इस अनुमानसे मेल नहीं खाते ।
यह ध्यान रहे कि भूषणने उस पूरे भवनको ही गुसलखाना कहा है, जहाँ बादशाहका खास दरबार लगा करता था, किसी केवल कमरे विशेषको नहीं । औरंगजेब द्वारा उपयुक्त आदर-सत्कारको प्राप्ति न होने पर, शिवाजीका अपनेको अपमानित अनुभव करना, ग्लानि और क्रोधसे उनके तमतमा उठनेपर दरबार में आतंक छा जाना, औरंगजेब के संकेतसे रामसिंह द्वारा पूछे जानेपर, निडरतापूर्वक कटु वचनोंको कहना - आदि घटनाएँ इस दरबारमें घटित हुई थीं और भूषणने शिवाजीकी इसी क्रोध पूर्ण स्थितिका जिससे दरबार में आतंक छा गया था, वर्णन शिवराज भूषण में किया है, उनके दरबारसे चले जानेके बादकी घटनाओं का नहीं ।
महाकवि भूषण ने शिवराज भूषण में गुसलखाने की घटनाका वर्णन छन्द सं० ३३, ७४, १६९, १८६, १९१, २४२ और २५१ में किया है । वे कहते हैं कि औरंगजेबने शिवाजीको पाँच हजारियोंके बीच खड़ा किया, जिसपर शिवाजी अपनेको अपमानित अनुभव कर बिगड़ उठे । उनकी कमर में कटारी न देकर इस्लाम ने गुसलखाने को बचा लिया । अच्छा हुआ कि शिवाजीके हाथमें हथियार नहीं था, नहीं तो वे उस समय अनर्थ कर बैठते --
"पंच हजारिन बीच खरा किया मैं उसका कुछ भेद न पाया । भूषन यौं कहि औरंगजेब उजीरन सों बेहिसाब रिसाया || कम्मर की न कटारी दई इसलाम ने गोसलखाना बचाया । जोर सिवा करता अनरत्थ भली भई हथ्थ हथ्यार न आया ।" (१९१ ) गुसलखाने में आते ही उन्होंने कुछ ऐसा त्यौर ठाना कि जान पड़ा वे औरंगके प्राण ही लेना
चाहते हों-
"आवत गोसल खाने ऐसे कछू त्यौर ठाने, जानौ अवरंग हूँ के प्राननको लेवा है ।" (७४)
१. शिवाजी दि ग्रेट, डॉ० बालकृष्ण, पृ० २५६ ।
२. दे० भूषण, सं० पं० विश्वनाथ प्रसाद मिश्र, प्र० सं०, वाणी वितान, वाराणसी ।
३१० : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन ग्रन्थ
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