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इसी प्रकार अनेक अन्य देव हैं । जिनके लिए जैन ग्रंथोंमें व्यन्तर संज्ञा प्रयुक्त है । भारतमें आजकल मदन (कामदेव) की पूजा नहीं होती; किन्तु प्रतिहारकाल तक इस पूजाका पर्याप्त प्रचार था। चैत्र शुक्ला त्रयोदशी मदन त्रयोदशीके नामसे प्रसिद्ध थी। मदन पुष्पधन्वाके नामसे प्रसिद्ध है। किन्तु उपमितिभवप्रपञ्चादिसे प्रतीत होता कि मदन इक्षुधन्वा भी थे। मदनके पूजागृहका तोरण इक्षुका बना होता, और उसमें अशोकके नव-पल्लवोंकी बन्दनवार होती। अगर, सुगन्धित पुष्प और कपूरसे स्थान सुवासित रहता और भक्तगण इक्षुरस-पूर्ण भाण्ड, शालिधान्य और अनेक मिष्टान्न उपहारके रूप में समर्पित करते । कन्याएँ सुन्दर वरकी अभिलाषासे और विवाहित स्त्रियां अपने सौभाग्यकी रक्षाके लिए मदनका पूजन करतीं। भारतीय साहित्य मदनपूजनके वर्णनसे पूर्ण है। कर्कोटनगरसे प्राप्त मकरध्वजीय कामदेव और रतिका उल्लेख डॉ० रत्नचन्द्र अग्रवालने किया है।
व्यन्तरोंमें यक्ष मुख्य हैं। इनकी पूजा भारतमें प्राचीन समयसे चली आ रही है। अनेक जैन कथाओंमें यक्ष पूजाका वर्णन है । ज्ञानपञ्चमीसे प्रतीत होता है कि मथुरामें मणिभद्रके पूजनका पर्याप्त प्रचार था। मणिभद्रकी धार्मिक जनोंपर पर्याप्त कृपा रहती है। समराइच्चकहामें एक विचित्रप्रकृतिक क्षेत्रपालका वर्णन है जिसे छोटी-मोटी दुष्टता करने में ही आनन्द आता। जिनेश्वरीय कथाकोशमें क्षेत्रपाल द्वारा आवेश और पउमसिरिचरियमें क्षेत्रपालकी नटखट वृत्तिका वर्णन है। राजस्थानमें क्षेत्रपाल अब भी पूजित है; पर उसके रूप में कुछ अन्तर अवश्य हुआ है ।
यक्षोंमें सबसे महत्त्वपूर्ण कुबेर थे । चित्तौड़ क्षेत्रसे प्राप्त उदयपुर म्यूजियमकी कुबेर प्रतिमाका शिल्पसौष्ठव में अदभुत है । इसके मुकुट और मस्तककी जिनमूर्ति हमें कुवलयमालाके वर्णनका स्मरण दिलाती है। कुमार कुवलयचन्द्रको वनमें ऐसी ही एक यक्षप्रतिमा मिलती है जिसके मुकुट में मुक्ताशैल विनिर्मित अर्हत्प्रतिमा है । उसे नमस्कारकर कुमार सोचने लगता है "अरे, यह आश्चर्य है कि दिव्य यक्षप्रतिमाके मस्तकपर भगवान्की प्रतिमा है। या इसमें आश्चर्य ही क्या है कि दिव्य ( देवादि ) भी भगवान्को मस्तकपर धारण करें । वे तो इस तरह धारणके योग्य ही है।"२ कुबेरकी ऐसी मूर्तियां अन्यत्र अब तक नहीं मिली हैं । किन्तु कुवलयमालाकथाके वर्णनसे सम्भावना की जा सकती है कि ऐसी कुछ मूर्तियां आठवीं शताब्दीके राजस्थानमें रही होंगी।
____ अजमेर न्यूजियममें कुबेरकी मूर्तियां हैं। इनमें एक ललितासनमें स्थित है। इसके दाहिने हाथमें बिजोरा और बाएँमें लम्बी थैली है। म्यूजियमकी दूसरी कुबेर मूर्ति अढ़ाई दिनके झोंपड़ेसे प्राप्त हुई है। इसमें कुबेर प्रफुल्ल कमलपर खड़े हैं । नरहड आदि राजस्थानके अन्य स्थानोंसे भी कुबेरकी प्रतिमाएं मिली है।
__ कुवलयमालाकथामें यक्ष, राक्षस, भूत, पिशाच, किन्नर, किंपुरुष, गन्धर्व, महोरग, गरुड़, नाग, अप्सरस आदि अनेक अन्य व्यन्तरोंका निर्देश भी है जिनका सामान्यजन स्वार्थसिद्धिके लिए पूजन करते । किन्तु इस आधारपर उनके विषयमें कुछ अधिक कहना असम्भव है । नागपुर, अहिच्छत्रा, अनन्तगोचर आदि नामोंके आधारपर यह अवश्य कहा जा सकता है कि प्राचीन राजस्थानमें नागपूजाका पर्याप्त प्रसार रहा होगा। . नवग्रह पूजनका इस कालमें रचित धार्मिक साहित्यमें विधान है। भरतपुर क्षेत्रसे प्राप्त नवग्रहोंमें
१. विशेष विवरणके लिए Rajasthan Through the Ages देखें। २. पृ० ११५ । ३. रिचर्चर्ट, १. २३-२४ ।
इतिहास और पुरातत्त्व : ५
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