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केतुका अभाव' ओर बघैरासे प्राप्त नवग्रहों में उसकी विद्यमानता है । अढ़ाई दिनके झोंपड़ेसे सप्तनक्षत्रयुक्तं एक विशिष्ट फलककी प्राप्ति हुई है ।" इसमें सातनक्षत्र - मघा, पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाति, और विशाखा सुखासन में स्थित हैं; और इसी पर काल, प्रभात, प्रातः, मध्याह्न, अपराह्न और संध्या उत्कीर्ण हैं । शिल्प और उत्कीर्ण मूर्तियोंकी दृष्टिसे यह फलक अद्वितीय है ।
अन्य अप्रधान हिन्दू देवताओंमें हम दिक्पालोंकी गणना कर सकते हैं । नरहड़से वायु और वरुणकी उत्कीर्ण प्रतिमाएँ मिली हैं जो प्रतिमाविज्ञानकी दृष्टिसे ध्यान में रखने योग्य हैं । दिनप्रतिदिन नवीन साहित्य के प्रकाश और पुरातत्त्व विभाग के शोधकार्यसे हमारा देव और देवयोनिविषयक ज्ञान बढ़ रहा है । विष्णु, महेश्वर, सूर्य, अर्हत् आदिके विषयकी विपुल सामग्री छोड़कर हमने इस लेख में केवल अप्रधान देवोंके विषय में कुछ शब्द लिखे हैं । विषयकी पूर्णता इस विषयके विद्वानों द्वारा हो सकेगी ।
भीनमाल में चण्डीनाथ मंदिरकी बावलीके सामनेके चबूतरे पर आसवपेयी कुबेरकी प्रतिमा है जिसका समय डॉ० एम० आर० मजमुंदार के अनुसार सातवीं और आठवीं शताब्दी के बीच में होना चाहिए। ओसिया में पिप्पलाद माता के मुख्य मंडपके सामने चबूतरे पर महिषमर्दिनी, गणेश और कुबेरकी बृहत्काय प्रतिमाएँ हैं । सकराय माताके सबसे प्राचीन अभिलेख में धनद यक्षके आशीर्वादकी कामना की गई। भदमें भी ओसियांकी कुबेरकी कुम्भोदर मूर्ति वर्तमान है । बांसीसे प्राप्त यक्ष प्रतिमा भी प्रायः सातवीं आठवीं शताब्दीकी है। अनेक अन्य यक्ष और कुबेर प्रतिमाओंके विशेष विवरण के लिए डॉ० रत्नचन्द अग्रवालका इसी सम्बन्ध में इंडियन हिस्टॉरिकल क्वार्टरली, १९५७ में प्रकाशित लेख पठनीय है ।
कृष्णनगर, दिल्ली ३१. ३. १९६४
९. वही, १.२० ।
२. वही, २. ११ ।
६ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन ग्रन्थ
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