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वर्ती विद्वान माननेका प्रस्ताव किया है। पर हरिभद्रके दर्शन सम्बन्धी ग्रन्थोंका आलोड़न करनेपर उक्त कथन निस्सार प्रतीत होता है।
स्वर्गीय न्यायाचार्य पंडित महेन्द्रकुमारजीने हरिभद्रके षड्दर्शन समुच्चय (श्लोक ३०) में जयन्तभट्टकी न्यायमंजरीके
गर्भितगजितारंभनिभिन्नगिरिगह्वरा । रोलम्बगवलव्यालतमालमलिनत्विषः॥ त्वंगत्तडिल्लतासंगपिशंगीतुगविग्रहा ।
वृष्टि व्यभिचरन्तीह नैवं प्रायाः पयोमुचः॥ इस पद्यके द्वितीय पादको जैसाका तैसा सम्मिलित कर लिया गया है और न्यायमंजरीका रचनाकाल ई० सन् ८००के लगभग है । अतएव हरिभद्रके समयकी सीमा ८१० ईस्वी तक रखनी होगी, तभी वे जयन्तकी न्यायमंजरीको देख सके होगें। हरिभद्रका जीवन लगभग ९० वर्षोंका था। अतः उनकी पूर्वावधि ई० सन् ७२०के लगभग होनी चाहिये ।
इस मतपर विचार करनेसे दो आपत्तियाँ उपस्थित होती हैं। पहली तो यह है कि जयन्त ही न्यायमंजरीके उक्त श्लोकके रचयिता है, यह सिद्ध नहीं होता। यतः उनके ग्रन्थमें अन्यान्य आचार्य और ग्रन्थों के उद्धरण वर्तमान हैं। जायसवाल शोधसंस्थानके निदेशक श्री अनन्तलाल ठाकुर ने न्यायमंजरी सम्बन्धी अपने शोध-निबन्धमें सिद्ध किया है कि वाचस्पति मिश्रके गुरु त्रिलोचन थे और उन्होंने एक न्यायमंजरीकी रचना की थी। सम्भवतः जयन्तने भी उक्त श्लोक वहींसे लिया हो अथवा अन्य किसी पूर्वाचार्यका ऐसा कोई दूसरा न्याय ग्रन्थ रहा हो जिससे आचार्य हरिभ्रद सूरि और जयन्तभट्ट इन दोनोंने उक्त श्लोक लिया हो यह सम्भावना तब और भी बढ़ जाती है जब कुछ प्रकाशित तथ्योंसे जयन्तकी न्यायमंजरीका रचनाकाल ई० सन् ८००के स्थानपर ई० सन् ८९० आता है।
जयन्तने अपनी न्याय मंजरीमें राजा अवन्ति वर्मन (ई० ८५६-८८३)के समकालीन ध्वनिकार और राजा शंकर वर्मन (ई० सन् ८८३-९०२) द्वारा अवैध घोषित की गयी 'नीलाम्बर वृत्ति का उल्लेख किया है । इन प्रमाणोंको ध्यानमें रखकर जर्मन विद्वान् डा० हेकरने यह निष्कर्ष निकाला है कि शंकरवर्मनके राज्यकाल में लगभग ८९० ई०के आस-पास जब जयन्तभट्टने न्याय मंजरीकी रचना की होगी, तब वह ६० वर्षके वृद्ध पुरुष हो चुके होंगे।
उपर्युक्त तथ्योंके प्रकाशमें स्वर्गीय पंडित महेन्द्रकुमारजीका यह मत कि जयन्तकी न्याय मंजरीकी रचना लगभग ८०० ई०के आस-पास हुई होगी; अप्रमाणित सिद्ध हो जाता है और इस अवस्थामें आचार्य हरिभद्रके काल की उत्तरावधि प्रामाणिक नहीं ठहरती । अतएव हमारा मत है कि 'षड्दर्शन समुच्चय' में ग्रहण
१. विंशति विशिका प्रस्तावना। २. न्यायमंजरी विजयनगर संस्करण, पृ० १२९ । ३. सिद्धिविनिश्चयटीकाकी प्रस्तावना, पृ. ५३-५४ । ४ विहार रिसर्च सोसाइटी, जनरल सन् १९५५, चतुर्थ खंडमें श्री ठाकुरका निबन्ध । ५. न्याय मंजरी स्टडीज नामक निबन्ध पूना ओरियन्टलिस्ट (जनवरी अप्रिल १९५७) पृ० ७७ पर डा०
एच० भरहरी द्वारा लिखित लेख तथा उस पर पादटिप्पण क्रमांक २।
१७० : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ
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