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किये गये पद्यका स्रोत जयन्तकी 'न्यायमंजरी' नहीं अन्य कोई ग्रन्थ है, जहाँसे उक्त दोनों आचार्योंने पद्यको ग्रहण किया है।
हरिभद्रके समय निर्णय में 'नयचक्र' के रचयिता मल्लवादीके समयका आधार भी ग्रहण किया जा सकता है। 'अनेकान्तजयपताका' की टीकामें मल्लवादीका निर्देश आया है। आचार्य श्री जुगलकिशोर मुख्तार ने लिखा है- "मालूम होता है कि मल्लवादीने अपने नयचक्रमें पद-पदपर 'वाक्यपदीय' ग्रन्थका उपयोग ही नहीं किया, बल्कि उसके कर्त्ता भर्तृहरिका नामोल्लेख एवं उसके मतका खण्डन भी किया है । इन भर्तृहरिका समय इतिहास में चीनी यात्री इन्सिग के यात्रा विवरणादिके अनुसार ई० सन् ६०० से ६५० तक माना जाता है, क्योंकि इत्सिंगने जब सन् ६९२में अपना यात्रावृत्तान्त लिखा, तब भर्तृहरिका देहावसान हुए ४० वर्ष बीत चुके थे । ऐसी अवस्थामें मल्लवादीका समय ई० सन् की सातवीं शताब्दी या उसके पश्चात् ही माना जायेगा।"
डा० पी० एल० वैद्यने न्यायावतारको प्रस्तावनायें मल्लवादीके समयका निर्धारणकर यह सुझाव दिया है कि हरिभद्रका समय विक्रम संवत् ८८४के बाद नहीं हो सकता। आचार्य जुगलकिशोर मुस्तारने हरिभद्रके समय पर विचार करते हुए लिखा है - "आचार्य हरिभद्रके समय, संयत जीवन और उनके साहित्मिक कार्योंकी विशालताको देखते हुए उनकी आयुका अनुमान १०० वर्षके लगभग लगाया जा सकता है और वे मल्लवादीके समकालीन होने के साथ-साथ 'कुवलयमाला' की रचनाके कितने ही वर्ष बाद तक जीवित रह सकते हैं ।"
उपर्युक्त समस्त विचारोंके प्रकाशमें हमारा अपना अभिमत यह है कि जब तक हरिभद्रके ऊपर शंकराचार्यका प्रभाव सिद्ध नहीं हो जाता है तब तक आचार्य हरिभद्रसूरिका समय शंकराचार्यके बाद नहीं माना जा सकता । अतः मुनि जिनविजयजीने हरिभद्रसूरिका समय ई० सन् ७७० माना है, वह भी पूर्णतः ग्राह्य नहीं है । इस मतके मान लेनेसे उद्योतनसूरिके साथ उनके गुरु शिष्य के सम्बन्धका निर्वाह हो जाता है, पर मल्लवादीके साथ सम्बन्ध घटित नहीं हो पाता । अतएव इनका समय ई० सन् ७३० से ई० सन् ८३० तक मान लेनेपर भी उद्योतनसूरिके साथ गुरु-शिष्यका सम्बन्ध सिद्ध होनेके साथ-साथ मल्लवादीके सम्बन्धका भी निर्वाह हो जाता है ।
रचनाएँ
हरिभद्रकी रचनाएँ मुख्यतः दो वर्गों में विभक्त की जा सकती हैं ।
१. आगम ग्रन्थों और पूर्वाचार्योंकी कृतियों पर टीकाएँ ।
२. स्वरचित ग्रन्थ (क) सोपज्ञ टीका सहित (ख) सोपज्ञ टीका रहित ।
हरिभद्रके ग्रयोंकी संख्या १४४० या १४४४ बतायी गयी है। अब तक इनके लगभग ५० ग्रन्थ उपलब्ध हो चुके हैं। हमें इनकी कथा काव्य प्रतिभा पर प्रकाश डालना है। अतएव समराइच्च कहा, धूख्यान एवं उनकी टीकाओंमें उपलब्ध लघुकथाओं पर ही विचार करना है। निश्चयतः राजस्थानका यह कथाकाव्य रचयिता अपनी इस विषामें संस्कृतके गद्यकार वाणभट्ट रंचमात्र भी कम नहीं है। यदि इसे हम राजस्थानका वाणभट्ट कहें तो कुछ भी अतिशयोक्ति नहीं । प्राकृत कथाकाव्यको नया स्थापत्य, नयी विचार
१. जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश, पृ० ५५१-५५२ । २. जैन साहित्य इतिहास पर विशद प्रकाश, पृ० ५५३ का पाद टिप्पण |
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इतिहास और पुरातत्त्व : १७१
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