________________
अधिकतर मुगल सम्राट अकबरके शासनकालकी, अथवा उसके बादकी हैं। उनमें भी अधिकांश अकबरकी राजधानी आगरा अथवा उसके निकटवर्ती स्थानोंमें रची गई थीं।
अकबर कालीन स्थिति-मुगल सम्राट अकबरका शासनकाल व्रजमंडलके लिये बड़ा हितकर और यहाँके धर्म-सम्प्रदायोंके लिये बड़ा सहायक सिद्ध हुआ था। उससे जैन धर्मावलम्बी भी प्रचुरतासे लाभान्वित हुए थे। उस कालके पहिले व्रजमंडलमें मथुरा और बटेश्वर ( प्राचीन शौरिपुर ) और उनके समीपस्थ ग्वालियर जैन धर्मके केन्द्र थे । अकबरके शासनकालमें उसकी राजधानी आगरा नगर जैनधर्मका नया और अत्यन्त शक्तिशाली केन्द्र बन गया था। मथुरा, बटेश्वर और ग्वालियरका तो धार्मिक एवं सांस्कृतिक महत्त्व था; किन्तु आगरा राजनैतिक कारणोंसे जैन केन्द्र बना था।
सम्राट अकबर सभी धर्म-सम्प्रदायोंके प्रति उदार थे। वे सबकी बातोंको ध्यानपूर्वक सुनते थे, और उनमेंसे उन्हें जो उपयोगी ज्ञात होतीं, उन्हें ग्रहण करते थे। वे जैनधर्मके मुनियोंको भी आमंत्रित कर उनका प्रवचन सुना करते। उन्होंने अन्य विद्वानोंके अतिरिक्त गुजरातके विख्यात श्वेतांबराचार्य हीरविजय सूरिको बड़े आदरपूर्वक फतेहपुर सीकरी बुलाया था, और वे प्रायः उनके धर्मोपदेश सुना करते थे। इस कारण मथुरा-आगरा आदि समस्त व्रजमंडलमें बसे हुए जैनियोंमें आत्म-गौरवका भाव जाग्रत हुआ था। वे मंदिरदेवालयोंके नव-निर्माण अथवा जीर्णोद्धारके लिये भी तब प्रयत्नशील होने लगे थे। आचार्य हीरविजय सूरि जी स्वयं मथुरा पधारे थे। उनकी यात्राका वर्णन 'हीर सौभाग्य काव्य' के १४वें सर्गमें हुआ था। उसमें लिखा है, सूरि जीने मथुरामें विहारकर वहां पार्श्वनाथ और जम्बूस्वामी के स्थलों तथा 527 स्तूपोंकी यात्रा की थी।
अकबरके शासनकालसे आगरा नगर जैनधर्मका प्रमुख साहित्यिक केन्द्र हो गया था। वहाँके अनेक विद्वानों, कवियों और लेखकोंने बहुसंख्यक ग्रंथोंकी रचना कर जैनधर्मकी साहित्यिक समृद्धि करनेके साथ . ही साथ व्रजभाषा साहित्यको भी गौरवान्वित किया था।
साह टोडर और मंत्रीश्वर कर्मचंद-अकबरके शासनकालमें वे दोनों प्रतिष्ठित जैन-भक्त मथुरा तीर्थकी यात्रा करने गये थे। साहू टोडर भटानिया ( जिला कोल, वर्तमान अलीगढ़ ) के निवासी गर्ग गोत्रीय अग्रवाल जैन पासा साहके पुत्र थे। वे अकबरी शासन के एक प्रतिष्ठित राजपुरुष होनेके साथ ही साथ धनाढ्य सेठ भी थे। उन्होंने प्रचुर धन लगाकर मथुरामंडलके भग्न जैन स्तूपों और मंदिरोंके जीर्णोद्धारका प्रशंसनीय कार्य किया था। वह धार्मिक कार्य सं० 1630 की ज्येष्ठ शुक्ल 12 बुधवारको पूर्ण हुआ था। उसी समय उन्होंने चतुर्विध संघको आमंत्रित कर मथुरामें एक जैन समारोहका भी आयोजन किया था। तीर्थ-पुनरुद्धारके साथ ही साथ उन्होंने मथुराके चौरासी क्षेत्र पर तपस्या कर निर्वाण प्राप्त करनेवाले कैवल्यज्ञानी जम्बूस्वामीके चरित्र ग्रंथोंकी रचनाका भी प्रबन्ध किया था। फलतः उनकी प्रेरणासे संस्कृत और व्रजभाषा हिन्दीमें जम्बूस्वामी चरित्र उस कालमें लिये गये थे। संस्कृत 'जम्बूस्वामी चरित्र' का निर्माण उस समयके विख्यात जैन विद्वान पांडे राजमल्लने सं० 1632 की चैत्र कृ० 8 को और व्रजभाषा छन्दोबद्ध ग्रंथकी रचना पांडे जिनदासने सं० 1642 में की थी। बीकानेरके राज्यमंत्री कर्मचन्द्रने भी मथुरा तीर्थकी यात्रा कर यहाँके कुछ चैत्योंका जीर्णोद्धार कराया था। उसका उल्लेख 'कर्मचन्द्र वंशोत्कीर्तन' काव्यमें हुआ है।
पं० बनारसीदासकी महत्त्वपूर्ण देन-पं० बनारसीदास जौनपुर निवासी श्रीमाली जैन थे। वे मुगल सम्राट् जहाँगीरके शासनकालमें आगरा आये थे, और फिर उसी नगरके स्थायी निवासी हो गये थे। वे गृहस्थ होते हए भी जैन दर्शन और अध्यात्मके अच्छे ज्ञाता, सुप्रसिद्ध साहित्यकार और क्रांतिकारी विद्वान
इतिहास और पुरातत्त्व : ३१
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org