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जैन दर्शनमें नैतिक आदर्शके विभिन्न रूप
डॉ० कमलचन्द सौगानी जैन दर्शन भारतका एक महत्त्वपूर्ण दर्शन है । इसने मनुष्यके सर्वतोमुखी कल्याणके लिए गहन चिंतन प्रस्तुत किया है। नैतिकताके बिना मनुष्य जीवन सामाजिक एवं आध्यात्मिक दृष्टिकोणसे निरर्थक होता है, और नैतिक जीवन बिना नैतिक आदर्शके संभव नहीं हो सकता। जैन आचार्योंने इस रहस्यको समझा और इस जगतके बाह्य परिवर्तनशील रूपोंसे प्रभावित न होकर आत्माके अंतरंग छिपे हुए शक्ति-स्रोतोंका अनुभव कर नैतिक आदर्शके विभिन्न रूप हमारे सामने प्रस्तुत किये, यद्यपि ये सब आदर्श मूल रूपसे एक ही हैं केवल मात्र अभिव्यक्तिका अंतर है।।
प्रथम, जैन आचार्योंने कर्मोंसे मुक्त होनेको उच्चतम आदर्श घोषित किया है। उनके अनुसार प्रत्येक मानवको कर्म-बंधनोंसे मुक्त होनेके लिए कठोर परिश्रम करना चाहिए, जिससे वह सांसारिक सुख-दुःखके
रसे मुक्त हो सके। सूत्रकृतांगके अनुसार मोक्ष अर्थात आत्म स्वातन्त्र्य सर्वोत्तम वस्तु है जिस प्रकार चन्द्रमा तारोंमें सर्वोत्तम है। आचारांगके कथनानुसार वह जीव जो आत्म समाहित है वह ही अपने कर्मोको नष्ट कर सकता है। आत्मसमाहित होना ही आत्म स्वातन्त्र्यकी प्राप्ति है। इस अवस्थामें सांसारिक जीव आत्मानुभवकी एक ऐसी ऊँचाईपर स्थित हो जाता है जहाँ वह सुख-दुःख, निन्दा-प्रशंसा, शत्रु-मित्र आदि द्वन्दोंसे प्रभावित नहीं होता। यही वास्तविक आत्म स्वातंत्र्य है। इस अवस्थाको ही अर्हत् अवस्था कहते हैं । अर्हत् पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण सारी दिशाओंमें सत्यमें प्रतिष्ठित होते हैं। लौकिक जन सुखकी तृष्णाके वशीभूत होकर दिनमें श्रम करते है और रातमें सो जाते हैं। परन्तु अर्हत् रात दिन प्रमाद रहित होकर विशद्धिके मार्गमें जागते ही रहते हैं। जिस प्रकार माता अपने बालकको हितको शिक्षा देती है और चतुर वैद्य रोगियोंको निरोग बनानेका पूर्ण प्रयत्न करता है, उसी प्रकार अर्हत सांसारिक रोगोंसे पीड़ित जन समूहको हितका उपदेश देते हैं । इस तरहसे वे जन समुदायका नेतृत्व करते हैं। उनका सारा जीवन लोक कल्याणके लिए ही होता है। अतः स्पष्ट है कि आत्म स्वातन्त्र्यकी प्राप्तिके पश्चात् ही पूर्ण लोक-कल्याण संभव होता है।
द्वितीय, आचार्य कुन्दकुन्दके अनुसार बहिरात्माको छोड़कर अन्तरात्माके द्वारा परमात्माकी प्राप्ति
१. सूत्रकृतांग १,११,२२ । २. आचारांग १,२,२। ३. प्रवचनसार ३-४१। ४. आचारांग १,४,२९ । ५. स्वयंभूस्तोत्र ४८। ६. स्वयंभूस्तोत्र ११,३५ । ७. स्वयंभूस्तोत्र ३५।
२६४ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ
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