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मूर्तियाँ, वास्तु खंड और कलावशेष मिले हैं, उन सबका परिचय देना संभव नहीं है । इस संबंध में पूर्वोक्त विवरण पुस्तिकाओंसे जाना जा सकता है ।
मूर्तियों में जो सर्वाधिक महत्त्वकी हैं, उनका संक्षिप्त परिचय यहाँ प्रस्तुत हैं । कंधों तक जटा फैलाए हुए आदि तीर्थंकर ऋषभनाथजीकी मूर्ति, बलभद्र- वासुदेव के साथ अंकित २२ वें तीर्थंकर नेमि - नाथजी की मूर्ति, और सर्प - फणोंसे आच्छादित २३ वें तीर्थंकर पार्श्वनाथजीकी मूर्ति तो अपने विशिष्ट चिह्नोंसे पहिचान ली गई हैं । इनके अतिरिक्त अन्य तीर्थकरोंकी जो बहुसंख्यक मूर्तियाँ हैं, वे विशिष्ट चिह्नोंके अभावमें नहीं पहिचानी जा सकती हैं। जिन मूर्तियोंपर उनके नाम अंकित हैं, उन्हें पहिचान लिया गया है | ये तीर्थंकर मूर्तियां कैवल्य प्राप्ति के लिये दंडवत् खड़ी हुई और ध्यानावस्थित अवस्था में बैठी हुई— इन दोनों मुद्राओंमें मिली हैं । जैन देवियोंकी मूर्तियों में सर्वाधिक महत्त्वकी सरस्वती प्रतिमा है, जो लखनऊ संग्रहालय ( सं० जे० २४ ) में है । यह अभिलिखित है, और अबतक मिली हुई सरस्वतीकी मूर्तियों में सबसे प्राचीन है । दूसरी आदि तीर्थंकर ऋषभनाथको यक्षिणी चक्रेश्वरी देवीकी प्रतिमा है, जो दसवीं शती की है, और इस समय मथुरा संग्रहालय में प्रदर्शित हैं । इनके अतिरिक्त सर्वतोभद्र अर्थात् चतुर्मुखी मूर्तियां भी हैं । इनमें से अनेक मूर्तियोंपर उनके निर्माण-काल और निर्माताओंके नाम अंकित हैं । इनसे जैन मूर्ति कलाके विकासको भली भांति समझा जा सकता है ।
मूर्तियोंसे भी अधिक महत्त्वके वे आयाग पट हैं, जो जैन मूर्तियोंके निर्माणके पूर्व की स्थिति के परिचायक है । जब जैनधर्म में मूर्तियोंका प्रचलन नहीं हुआ था, तब शिलाखंडोंपर जैनधर्मके मांगलिक चिह्नोंका अंकनकर उन्हें तीर्थंकरोंके प्रतीक रूप में पूजाके लिये प्रतिष्ठित किया जाता था । उक्त शिलाखंडोंको 'आयाग पट' कहते हैं । इस प्रकारके कई पट कंकालीकी खुदाई में मिले हैं, जो लखनऊ और मथुरा के संग्रहालयों में प्रदर्शित हैं । उक्त पूजनीय पटोंके अतिरिक्त अनेक कलात्मक पट भी कंकाली से मिले हैं । उनमें सबसे प्राचीन पट शुंगकाल ( दूसरी शती पूर्व ) के हैं । ऐसे एक शिलापटमें भगवान् ऋषभनाथजीके समक्ष नीलांजना अप्सराके नृत्यका दृश्य अंकित है । यह प्राचीन भारतीय नृत्यकी मुद्राका अंकन है, जो मथुरा मंडलके विगत कलात्मक वैभवको प्रकट करता है । शुंग कालीन एक अन्य शिलापट किसी धार्मिक स्थलका तोरण है । इसके एक ओर यात्राका दृश्य है, और दूसरी ओर सुपर्णों तथा किन्नरों द्वारा स्तूप के पूजनका दृश्य है । अनेक पटोंपर सुंदरियोंकी विभिन्न चेष्टाओं और मुद्राओंके दृश्य अंकित हैं । इनसे प्राचीन जैनधर्मकी कलात्मक अभिरुचिका भली-भांति परिचय मिलता है ।
मथुरामंडल के वे दोनों जैन केन्द्र - १. जम्बू स्वामीका निर्वाण स्थल और २. देवनिर्मित स्तूप तथा उसके समीप बने हुए बहुसंख्यक देवालयोंसे समृद्ध कंकाली टीला - अपने निर्माणकालसे अनेक शताब्दियों पश्चात् तक समस्त जैनियोंके लिये समान रूप से श्रद्धास्पद थे । मगध जनपद और दाक्षिणात्य क्षेत्रोंके जैनसंघ कालांतर में दिगंबर और श्वेतांबर नामक दो संप्रदायों में विभाजित हो गये थे, किन्तु प्राचीन व्रजमंडलका जैनसंघ उस भेद-भावसे अछूता रहा, और यहाँ के देव स्थान सभी संप्रदाय वालोंके लिये पूजनीय बने रहे थे ।
प्राचीन व्रजमंडल में जैनधर्मकी इन महत्त्वपूर्ण उपलब्धियोंके साथ ही साथ इस भू-भागमें समय-समय पर ऐसी अनेक महत्त्वपूर्ण घटनाएँ भी हुई है, जिन्होंने जैनधर्मके इतिहास में गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त किया है । यहाँ पर ऐसी कतिपय घटनाओं का उल्लेख किया जाता है ।
'सरस्वती' - आन्दोलन और 'जिन वाणी' का लेखन - जैनधर्म के मूल सिद्धांत भगवान् महावीर
इतिहास और पुरातत्त्व : २७
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