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है। द्वारशाखाओं पर बनी गंगा व यमुनाकी मूर्तियां भी प्रतिहारकालीन कलाका श्रेष्ठ उदाहरण है। यदि इस मन्दिरका निरीक्षण बाईं ओर से आरम्भ करें, तो सर्व प्रथम सर्प-फणोंके नीचे खड़े बलरामकी मूर्ति मिलेगी। इसके बाद दिक्पाल निऋत व कुबेरकी मूर्तियां है । अगली प्रतिमामें 'गणपति अभिषेख' दिखाया गया है। इससे अगली पृथ्वीका उद्धार करते भगवान् वराहकी मूर्ति है, जैसी उदयगिरी व एरण तथा महाबलिपुरम्में है । मन्दिरके पृष्ठ भाग पर अश्वारोही रेवन्तकी मूर्ति है, जिनके साथ 'शिकार पार्टी' तथा कुत्ता भी दिखाया गया है। इनके साथ ही सूर्यकी खड़ी प्रतिमा है, जिनके दोनों हाथ खण्डित हो चुके हैं । अगली मूर्ति में एकमुखी दाढ़ीवाले ब्रह्मा दिखाये गये हैं। इस प्रकारकी ही अन्य प्रतिमा तीर्थराज पुष्करमें भी एक लघु देवालय में सुरक्षित है । मन्दिरके दाहिनी ओर भी नरसिंह अवतार, पार्वती, विष्णु तथा अपने वाहन मकर पर खड़े वरुणको मूर्तियाँ हैं। परन्तु इनमें सबसे सुन्दर मध्यमें स्थित दशभुजी देवी महिषासूरमदिनीकी मूर्ति है, जो खड्ग, ढाल, धनुष, बाण आदि अनेक आयुध पकड़े है। सामनेवाले एक हाथ में पकड़े त्रिशूलसे वह महिषका बध कर रही है, जिसका कटा सिर उनके बायें परके पास पड़ा है और कटे धड़से खड्गधारी महिषासुर मानव रूप लेकर देवीसे युद्ध करने को तत्पर है । कुशल कलाकारने देवीको घोर संग्राम में लीन होनेपर भी उनके मुख पर शांत भाव ही प्रकट किया है, जो इस मूर्तिकी विशेषता है ( चित्र ४ ) इस प्रकारकी अन्य सुन्दर प्रतिमायें जगतके अम्बिका मन्दिर पर भी विद्यमान हैं। पिप्पलाद माता मन्दिर
सूर्य मन्दिरके दाहिनी ओर गाँवके समीप ही पिप्पालाद माताका पुनीत एवं पवित्र मन्दिर है । इस मन्दिरका सामनेका बहुत अधिक भाग खण्डित हो चुका है। मन्दिरके स्तंभ बड़े ही कलात्मक है। इसके गर्भगृह में एक वेदिका पर कुवेर, महिषासुर-मदिनी एवं गणेशकी विशाल प्रतिमायें है। धनद कुबेर अपनी पत्नी हरीतिके साथ दाहिने हाथमें चषक तथा बायेंमें धनकी थैली पकड़े बैठे हैं। महिषमदिनी तलवार, ढाल, चक्र, घंटा, तथा धनुष लिये हैं और सामनेवाले दाहिने हाथसे महिषका संहार कर रही है। इनके बाई ओर बैठे लम्बोदर गणेश अक्षमाला, परशु, दन्त तथा मोदक लिए हैं। मथुरा तथा उत्तरी भागके अन्य भागोंसे प्राप्त प्रतिमाओंमें साधारणतया कुबेर, गजलक्ष्मी तथा गणेशकी सम्मीलित प्रतिमायें मिली है, परन्तु महिषमदिनी नहीं मिली हैं। जयपुरके निकट सकरायमाता मन्दिरके विक्रम संवत् ७४९ के एक शिलालेखमें कुबेर, गणेश तथा महिषासुरमर्दिनीकी वन्दना की गई है। सम्भवतः इसीको ध्यानमें रखकर कलाकारने पिप्पलादमाताके मन्दिरमें इन तीनोंकी मूर्तियाँ एक साथ स्थापित करी थी । चित्र ५)। इसी मन्दिरके बाहरी भाग पर भी अष्ट दिक्पालों तथा शिवकी मूर्तिके अतिरिक्त एक अन्य महिषासुरमर्दिनीकी सुन्दर प्रतिमा उत्खनित है। इनके अतिरिक्त कुछ अन्य मन्दिर भी हैं, परन्तु वह बहुत अधिक महत्त्वके नहीं हैं । सचियायमाता मन्दिर
राजस्थानमें और विशेषकर मारवाड़ क्षेत्रमें सचियायमाताकी पूजा विशेष रूपसे प्रचलित थी। शिलालेखोंमें इनके लिए 'सच्चिका' तथा 'संचिका' आदि नामोंका उल्लेख हआ है। सचियायमाताका मन्दिर ओसियां ग्रामके मध्य एक ऊँची पहाड़ी पर बना है। इस मन्दिरकी स्थापना संभवत: आठवीं शताब्दीमें करी गई थी और उस समयसे बारहवीं शताब्दी तक इसके निरन्तर वृद्धि एवं सुधार होते गये। मन्दिरके गर्भगृहमें उस समय काले पत्थरकी रत्नजटित प्रतिमा प्रतिष्ठित है, जो सोलहवीं शताब्दीसे पूर्वकी प्रतीत नहीं होती। इसकी सुरक्षाके लिए चाँदीके द्वार हैं । अब भी प्रति वर्ष इसकी पूजा हेतु सहस्रों भक्तजन आते हैं, परन्तु किंवदन्तियों के अनुसार कोई भी ओसवाल देवीके शापके कारण ओसियाँ में स्थायी रूपसे नहीं रहता है। प्रस्तुत प्रतिमामें भी देवीका महिषासुरमर्दिनीका ही स्वरूप है। २० : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ
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