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आरुहि वि जाव सित्त जि न दिट्ठउ रिसहजिणिंदमुह । सिरिपुंडरीउगणहरसहिउ ताव कि लब्भइ जीवसुह ॥५॥
काइ मूढ पविसहि अयाणु जि व सलहु महानलि । काइ मधु जिम्ब भमिय चित्त बुड्डहि गंगालि । काइ अकज्जि वि मूढ धरि वि सिरि गुग्गुलुजालहि ।
काइ इयर तिथिहि भमंतु अप्पहु संतावहि । कहिउ मुणिहि तित्थह पवरु तहि सित्तु जि चडे वि पुण। किर काहि न पुज्जहि रिसहजिणु जिम्ब छिदहि जम्मण जरमरण ॥६॥
काइ तेण वि हविण न जेणउ वयरिउ सुपत्तह । काइ तेण जीविइण जुगउ दालिद्द-दुहत्तह । काइ तेण जुव्वणिण जु किर बोलिउ सकलं कह ।
काइ तेण सज्जणिण हुयउ जु न विहु र पडतह । किरि काई मणुयजम्मिण न जहि वंदिउ सुरनरवरमहिउ । सित्तुजसिहरिसंढिउ रिसहु पुंडरीयगणहरसहिउ ॥७॥
अहह कवडजक्खपभाउ जहि फुरइ असंभवु । कटरि करइ जो पणयजणह निच्छउ अपुणब्भवु । अररि कलिहि अज्जवि अखंड जस कित्ति सिलीसइ।
वपुरि गुरयपुत्रिहि पि जो भवि इहि दीसइ । जहि अणेयकोडहि सहिय सिद्ध मुणीसर सुरमहिउ ।
सो नमहु तित्थ सित्तुज पर विहिय हेमसूरिहि कहिउ ॥८॥ (गणधरसार्द्धशतकबृहद्वृत्ति सुमतिगणिकृत, प्रथमपद्यव्याख्या, दानसागर जैन ज्ञान भंडार, बीकानेर ग्रन्थांक १०६१, ले० सं० १६७९ पत्रांक ३९ A)
१९० : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ
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