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रेखाएँ खींच दी गयी हों। उद्यानके पेड़-पौधे या फुलवारी ऐसी दृश्यमान हैं जैसे घर में गमलों या गुलदस्तोंपर कुछ कृत्रिम पेड़-पौधे या फूल सजा दिये गये हों।
युद्धके प्रसंगमें चित्र-विचित्र रंगोंसे भरे हुए सैनिकोंके चित्र हैं, जिनके हाथ में ढाल-तलवार एवं भाला है। चित्रके रंगोंकी दृष्टिसे उक्त चित्रोंमें प्रायः मौलिक रंगोंका ही प्रयोग पाया जाता है जैसे लाल, पीला, एवं सफेद । चित्रोंकी भूमिमें प्रायः लाल एवं पीले रंगोंका प्रयोग है, कहीं-कहीं हरे रंगका भी । कहीं-कहीं तो चित्रोंमें ये रंग इस प्रकारसे भरे गये हैं कि लगता है जैसे लीपा-पोती की गयी हो। इनमें सुन्दरता एवं सावधानीका अभाव आँखों को बहुत खटकता है। इसका एक कारण तो यह है कि चित्रकार जीवनसे प्रेरणा न लेकर रूढ़ियोंमें बंधे रहे, और दूसरा कारण यह रहा कि उसमें आध्यात्मिक भावनाकी पुट एवं धर्म वृत्ति की गहरी छाप सर्वत्र रहनेके कारण शृंगारिकताका अंश खुलकर अपना साम्राज्य स्थापित न कर सका अथवा यों कहा जाय कि शृंगारिक वातावरण रहनेपर भी निर्वेदको झलक उसमें समाहित रही। किन्तु इन सबके बावजूद भी श्री ब्राऊन, इस्टेल्ला क्रेमरेश, नानालाल मेहता प्रभृति विद्वानोंके अनुसार जैन-शैलीके इन चित्रोंमें निर्मलता, स्फति एवं गतिवेग है। भावाभिव्यञ्जनाकी दृष्टि से ये चित्र बेजोड़ हैं । यद्यपि कम रंगोंका प्रयोग किया गया है, किन्तु यह काफी तेज है और उससे तात्कालिक रंग-प्रयोगकी विधिपर अच्छा प्रकाश पड़ता है। उनकी रेखाएं यद्यपि मोटी हैं, फिर भी उनका भद्दापन, कुशल हाथोंकी स्वतन्त्रता, इस चित्र शैलीमें चित्रित अंग-प्रत्यंगों आदिका बेडौलपना, नेत्रोंको यद्यपि बहुत ही नयनाभिराम नहीं लगता, उनमें कठपुतलियोंका आभास सा होता है, किन्तु निस्सन्देह ही इस शैलीका भी अपना एक युग माना जायेगा। अपने युगमें गुजरात, मध्यप्रदेश, मालवा एवं दक्षिणी भारतमें भी यह शैली अत्यन्त प्रचलित रही। बिहार, बंगाल, उड़ीसा, नेपाल एवं तिब्बतमें भी इसका प्रभाव पहुंचा था । कुछ विद्वानोंका तो यहाँ तक कहना है कि चित्रकलाकी उक्त शैली ने बृहत्तर एशिया, मध्यएशिया, वर्मा एवं इंडोनेशिया प्रभृति देशोंको भी बहुत कुछ अंशोंमें प्रभावित किया था ।
'पासणाहचरिउ'के चित्र क्रमागत चित्र-शैलीका एक परवर्ती रूप है, जो इतिहासकी दृष्टिसे अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। यह इसका महान् दुर्भाग्य है कि इस प्रकारकी चित्र शैलीके नामकरणकी समस्या अभी तक भी बनी हुई है। कोई इसे जैन-शैलीका, तो कोई अपभ्रंश-शैली, तो कोई पश्चिमी या गुजराती-शैलीका कहकर इसके रूपको अनिश्चित किये हुए हैं। इस दिशामें विद्वानोंको गहन अध्ययन करने की तत्काल आवश्यकता है। प्राचीन चित्रकलाको समग्र सामग्रीका संकलन एवं उसका सर्वांगीण अध्ययन विश्लेषण एवं नामकरण करके चित्रकलाके इतिहासमें उसका अविलम्ब स्थान निर्धारण किया जाना चाहिए। क्योंकि यह शैली एक ओर जहाँ प्राचीन चित्रकलाका परवर्ती रूप है वहीं रोरिक, टैगोर अवनीन्द्र, नन्दराय, यामिनीराय, रविवर्मा, रविशंकर रावल एवं अमृता शेरगिलकी आधुनिक चित्र शैलियोंका पूर्ववर्ती रूप भी सिद्ध हो सकता है। अत: जैन चित्रशैलीकी शृंखलाको जोड़ने के लिए एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक कड़ी सिद्ध हो सकती है। अतः विद्वानोंको इस उपेक्षित दिशामें कार्य करनेके लिए तत्पर होना ही चाहिए । यह समयकी मांग है। इतिहास के नवीन तथ्य
इतिहासकी दृष्टि से इस प्रतिकी सर्वप्रथम विशेषता यह है कि इसकी अन्त्य पुष्पिकामें तोमरवंशी राजाओंकी ग्वालियरी शाखाकी परम्परामें हुए महाराज डूंगरसिंहको 'कलिकाल चक्रवर्ती' पदसे विभूषित किया गया है। महाकवि रइधूके प्राप्त समस्त ग्रन्थों एवं उनकी प्रशस्तियोंके साथ-साथ तोमर राजाओंके आधुनिक शैलीमें लिखित इतिहास-ग्रन्थोंको पढ़ने का भी मझे अवसर मिला है किन्तु डंगरसिंहकी उक्त : कहीं भी देखनेको नहीं मिली । यद्यपि डूंगरसिंहके प्रबल पराक्रम एवं राज्यकी सीमा-विस्तार के कारण उसे
१८६ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ
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