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चित्रों ( ५२२-६५० ई० )में हुआ है । इसमें एक जहाज काफी वेगयुक्त पानी में बह रहा है पर दूसरे स्थान पर 'मकर आकार'के एक भारी भरकम जहाजको दर्शाया गया है जिसमें विजय द्वारा किये गये लंका-अभियानके संदर्भमें अनन्य सिपाहियों, घड़सवारों एवं हाथियों को इसी जहाज पर सवार चित्रित किया गया है।
पल्लवयुगीन सिक्कों ( ७वीं शती ई० में भी दो-मस्तूल युक्त जहाजोंका प्रदर्शन है। उस समय महाबलीपुरम एक प्रमुख केन्द्र था। जहाजोंके मार्गदर्शन हेतू निर्मित एक प्रकाश स्तम्भके अवशेष आज भी विद्यमान है।
गुप्तकालमें नौसेनाकी महत्ता पूर्णरूपेण सिद्ध हो चुकी थी। समुद्रगुप्तके पास अनन्य जहाज थे। चन्द्रगुप्त विक्रमादित्यने नौ-शक्तिके द्वारा ही शकोंको परास्तकर अरब सागरसे बंगालकी खाड़ी तक अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया था।
चालुक्य नरेश पुलकेशिन द्वितीयने पुरीपर नौसैनिक आक्रमण किया था और इसके वैभवको धूल धूसरित कर दिया था। यही नहीं वरन् भारतीय नौकाओंकी धूम विदेशोंमें भी मची, बौद्धकालीन जातक कथाओंमें तो अनेक बार समुद्री जलयानोंका प्रसंग आता ही है और यह भी कि इन्हीं जहाजोंमें बैठकर हमारे पूर्वज वर्मा, दक्षिण पूर्व एशिया, श्री लंका, अफ्रीका तथा चीन तक पहुँचे थे। जावाके प्रसिद्ध बोरोबदरके मन्दिरमें भारतीय जहाजोंका बहुत ही सुन्दर अंकन हुआ है। डा० राधाकुमुद मुकर्जीने इन्हें तीन श्रेणियोंमें विभाजित किया है। प्रथम कोटिमें लम्बे एवं चौड़े, दूसरे में एकसे अधिक मस्तुलवाले तथा तीसरी कोटिमें वे जहाज आते हैं जिसमें केवल एक ही मस्तूल है साथ ही इनका अगला भाग कुछ मुड़ा हुआ होता है। इसी प्रकारका एक जहाज मदुराईके प्रसिद्ध मंदिरमें भी प्रदर्शित है। जावामें प्रचलित दन्त-कथाओंके अनुसार एक बार एक गुजरात नरेशने ६ बड़े एवं १०० छोटे जहाजोंमें सेना भरकर जावापर आक्रमण कर दिया एवं इसे विजित किया तथा एक मंदिरका निर्माण यहाँ करवाया जिसका नाम 'मेंदग कुमलांग' रखा गया । भारतीय सभ्यता एवं संस्कृतिका जावा, सुमात्रा, चम्पा, मलाया एवं कम्बोज आदिमें प्रसार करनेकी दिशामें भारतीय नौ बेड़ेने एक सराहनीय कार्य किया है।
बंगाल तो जल-पुत्र ही है । अति प्राचीनकालसे ही यहाँके लोग अपनी खाड़ीके रहस्यको समझने लगे थे। कालिदासके 'रघुवंश में नायक रघु द्वारा बंग प्रदेशपर किये गये सफल आक्रमणका उल्लेख किया है जिससे पता चलता है कि बंगवासियोंके पास नौसेना भी थी।।
वंगानुत्खाय तरसा नेता नौसाधनोधतान् । निचखान जयस्तम्भान् गत्वा स्रोतोन्तरेषु सः ।।
( रघुवंश ४, ३६ ) लेखोंमें ६ठी शती ई० में भी बन्दरगाहोंकी उपस्थितिका आभास मिलता है । ५३१ ई०के ताम्रपत्रीय लेखमें, जो धर्मादित्यका है, 'नवकेशनी' अथवा जहाज निर्माण करनेवाले कारखानों तथा बन्दरगाहका उल्लेख है।
पाल नरेशों द्वारा बंगला एवं बिहार में आधिपत्य स्थापित कर लेनेके कारण उस युगमें नौसेनाकी महत्ता बहुत बढ़ गई थी और यह उनकी नियमित सेनाका एक प्रमुख अंग बन गई थी। इस संदर्भमें श्री बी० के० मजूमदार द्वारा उद्धृत तीन ताम्रपत्रों का उल्लेख असंगत न होगा। धर्मपालके ताम्रलेखमें उल्लिखित है कि उसकी विजयवाहिनी नौसेना पाटलीपुत्रसे भागीरथीके तट तक पहुंची थी । दूसरा लेख वैदयदेवका है जो कमौलीसे प्राप्त हुआ है जिसमें कुमारपालके शासनकालमें उसके प्रिय नौसैनिक द्वारा दक्षिण बंगालपर
३६ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ
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