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जहाजमें राजर्षि तुगुने अपने पुत्रको शत्रु पर आक्रमण करने हेतु भेजा था। और इसी प्रकारके पूर्णरूपेण सुसज्जित एवं शस्त्रोंसे युक्त एक जहाजमें पाण्डव-बन्धुओंने पलायन किया था ।
'सर्ववातसहां नावं यंत्रयुक्तां पताकिनीम् ।
शिवे भागीरथीतीरे नरैविश्रम्भिभिः कृताम् ।। ( महाभारत, आदिपर्व ) इसी महाकाव्यमें सहदेवकी समुद्री यात्रा एवं उसके द्वारा म्लेच्छोंसे कतिपय प्रायद्वीपोंके जीत लेनेका वर्णन है। एक बार निषाधराज गुहकने हजारों कैवर्त नवयुवकोंसे ५०० युद्धक जहाजोंको तैयार करने एवं भारतसे जलयुद्ध करनेका आह्वान किया था। इस तरह वैदिक युगके ये बिखरे उदाहरण इस बातके ज्वलन्त प्रमाण हैं कि वैदिक युगमें मानवने सागरकी अतल गहराइयों पर काफी हद तक नियंत्रण प्राप्त कर लिया था।
३२५ ई० पूर्व में जहाज-निर्माणकला काफी उन्नत अवस्थामें थी और इस समय भारत विदेशी राष्ट्रोंसे जल सम्पर्क स्थापित कर चुका था। स्वयं सिकन्दरको सिंध नदी पार करनेके लिये भारतीय कारीगरों द्वारा निर्मित नावोंका सहारा लेना पड़ा था। सिंध नदीको पार करनेके लिये सिकन्दर महान्ने नावोंका पुल भी तैयार करवाया था। यदि कहीं भारतीय पोरसने भी इसी प्रणालोको अपनाकर सिकन्दरको मँझधारमें रोक दिया होता तो संभवतः इतिहासकी दिशा ही बदल गई होगी।
मौर्ययुगमें नौसेनाका राष्ट्रीयकरण कर दिया गया था और यह राज्यका एकाधिकार बन गया था। प्लिनीके अनुसार इस समयका औसतन जहाज लगभग ७५ टन वजन का था। बढ़ते हुए जलव्यापार एवं संभावित नौ-युद्धोंके कारण ही इस समय एक पृथक् नौ-विभागकी स्थापना कर दी गई थी जिसका प्रधान 'नावाध्यक्ष' कहलाता था। मोनाहनके इस विचारका, कि 'नावाध्यक्ष' पूर्णरूपेण एक नागरिक-प्रशासनिक अधिकारी था, डॉ० राय चौधरीने तर्कपूर्ण खंडन किया है और यह मत प्रतिपादित किया है कि 'नावाध्यक्ष' के अनन्य कार्यों में एक कार्य हिमश्रिकाओं ( समुद्री डाकुओं) द्वारा राष्ट्रीय जलयानोंकी सुरक्षा भी थी। चाणक्यने अपने अर्थशास्त्रमें इन समुद्री डाकुओं एवं शत्रुओंके जहाजोंको ध्वस्त करने एवं उनके द्वारा अपने बन्दरगाहोंकी रक्षा करनेका जोरदार समर्थन किया है। जब हम अशोक महान्के लंका एवं अन्य प्रायद्वीपोंसे सम्बन्धके बारेमें उसके लेखोंमें पढ़ते हैं तब उसके आधीन एक विशाल नौ-सेना विभाग होने की स्वतः ही पुष्टि हो जाती है।
प्रारंभिक कलात्मक चित्रणमें सातवाहन नरेशोंके तत्त्वावधानमें निर्मित द्वितीय शती ई०पू०के सांचोके स्तूप हमारा ध्यान आकर्षित करते हैं। सांची स्तूपके पूर्वी एवं पश्चिम द्वार पर एक छोटी सी तरणीका अंकन है जिसके छोटे चप्प उस युगमें प्रचलित नौकाके परिचायक हैं। कन्हेरीकी मूर्तिकलामें भी हमें एक जहाजके दर्शन होते हैं जो बड़ी ही जीर्ण-शीर्ण अवस्थामें चित्रित है।
द्वितीय एवं तृतीय शती ई०के आन्ध्र नरेशोंके सिक्कोंमें हमें मस्तूल युक्त जहाजका उल्लेख मिलता है। यह जहाज अर्धचन्द्राकार है एवं इसमें दो मस्तूल लम्बाकार खड़े हैं। इसके चारों ओर जलराशि है एवं उसमें इसे खेनेवाले एक चप्पूका भी आभास मिलता है। इस युगके नरेश यत्र-श्रीने 'जहाज-प्रकार का एक सिक्का भी प्रचलित किया था जो निश्चय ही उस समयके आर्थिक जीवन में जलयानोंके योगदानकी ऐतिहासिक घोषणा है।
अजन्ताके चित्रकारोंके तत्कालीन भारतकी एक सुन्दरतम एवं हृदयग्राही झांकी प्रस्तुत की है और उनकी तीक्ष्ण दृष्टिसे ये नौकाएँ भी न बच सकी। अधिकांश रूपका इनका चित्रण गुहा नं० २के भित्ति
इतिहास और पुरातत्त्व : ३५
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