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इसमें साधक पूर्ण कर्म दोषोंसे मुक्त हो जाता है और केवलज्ञानी संज्ञाको प्राप्त होता है। इसमें बोध चन्द्रमाके प्रकाशके समान शान्त और स्थिर होता है । यही मोक्ष है और परम आनन्दकी अवस्था है।
षष्ठ, नैतिक आदर्शकी अभिव्यक्ति पूर्ण अहिंसाकी प्राप्तिमें भी होती है। यहाँ यह कहना अप्रासंगिक न होगा कि जैन साधनामें अहिंसा प्रारम्भ और अन्त है। समन्तभद्र ने इसे परब्रह्मकी संज्ञा दी है। सूत्रकृतांगमें अहिंसाको निर्वाणका पर्यायवाची माना है। आचारांगमें कहा गया है कि न जीवोंको हनन करना चाहिए, न उन्हें पीड़ित करना चाहिए, न उनपर बलपूर्वक शासन करना चाहिए, न उन्हें दास बनाने के लिए आधीन करना चाहिए। यही धर्म ध्रुव है, नित्य है और शाश्वत है। अहिंसाकी दृष्टिमें प्राणी मात्र आत्मतुल्य है।""हे पुरुष, जिसे तू मारनेकी इच्छा करता है, विचार कर वह तेरे जैसा ही सुख-दुःखका अनुभव करनेवाला प्राणी है; जिसपर हुकूमत करनेकी इच्छा करता है. विचार कर वह तेरे जैसा ही प्राणी हैं, जिसे दुख देनेका विचार करता है, विचार कर वह तेरे जैसा ही प्राणी है, जिसे अपने वशमें करनेकी इच्छा करता है. विचार कर वह तेरे जैसा ही प्राणी है. जिसके प्राण लेने की इच्छा करता है, विचार कर वह तेरे जैसा ही प्राणी है ।""इस विवेचनको हम अहिंसाका व्यवहार दृष्टिकोणसे वर्णन कह सकते हैं। परन्तु निश्चय दृष्टिकोणसे आत्मामें किसी भी प्रकारकी कषाय उत्पन्न होना हिंसा है और उन कषायोंका न होना वास्तबिक अहिंसा है। पूर्ण अहिंसाकी प्राप्ति उच्चतम स्थिति है और साधककी अन्तिम अवस्था है।
सप्तम, ज्ञान चेतनाकी प्राप्ति साधकका अन्तिम ध्येय है। यह ज्ञान चेतना कर्म चेतना और कर्म फल चेतनासे अत्यन्त भिन्न है। कर्म चेतनासे अभिप्राय है-शुभ, अशुभ भावोंमें चेतनाको स्थापित करना और कर्मफल चेतनासे अभिप्राय है-चेतनाको सूख, दुःख रूप स्वीकार करना । चेतनाको शुभ अशुभ रूप क्रियाओं तथा सुख दुःख रूप भावोंसे नितान्त भिन्न अनुभव करना ज्ञान चेतना है। कर्म चेतना और कर्मफल चेतना ये दोनों ही अज्ञान अवस्थाके परिणाम हैं। अतः ज्ञान चेतनाकी प्राप्तिके लिए इन दोनोंसे विमुख होना अत्यन्त आवश्यक है। सर्व स्थावर जीव-समूह सुख दुख रूप कर्मफलका ही अनुभव करते हैं और दो इन्द्रियोंसे पंचेन्द्रियों तक जीव कार्य सहित कर्मफलको वेदते हैं। किन्तु जो जीव इन दोनों प्रकारके अनुभवोंसे अतीत हैं वे ही ज्ञान-चेतनाका अनुभव करते हैं। यह ही अन्तिम अवस्था है, अन्तिम आदर्श है।
इस तरहसे हम देखते हैं कि आत्मस्वातन्त्र्य और परमात्माकी प्राप्ति, शुद्धोपयोग और अहिंसाकी उपलब्धि, पण्डित पण्डित-मरण, परावृष्टि और ज्ञान चेतनाकी अनुभूति-ये सब ही नैतिक आदर्श भिन्नभिन्न प्रतीत होते हुए भी मूलभूत रूपसे एक ही हैं ।
१. स्वयंभूस्तोत्र, ११७। २. सूत्रकृतांग, १. ११. ११ । ३. आचारांग, १. ४.१ । ४. अहिंसा तत्त्व दर्शन द्वारा मुनि नथमल पृ० १८ । ५. पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय ४४ । ६. पंचास्तिकाय ३८ । ७. प्रवचनसार-१२४ । ८. पंचास्तिकाय ३९ ।
विविध : २६७
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