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संस्कृत लोक व्यवहारमें आनेवाली जनसाधारणकी भाषा थी। पाणिनिके यथार्थ कालका परिचय प्राप्त करनेके लिए इस स्थितिपर ध्यान देना होगा।
आज पाणिनिका काल ईसापूर्व पाँचवीं-छठी शताब्दी माना जाता है, इस विचारको प्रस्तुत करनेवाले विद्वानोंका कहना यह है, कि पाणिनिका काल ईसापूर्व पांचवीं-छठी शतीके और इधर नहीं खींचा जा सकता, लिहाजा वही समय मान लिया गया। भगवान् बुद्धका भी तथाकथित काल यही माना जाता है । पर यह सर्वसम्मत निर्विवाद सत्य है, कि भगवान् बुद्धके तथाकथित कालमें उत्तर अथवा पश्चिमोत्तर भारतके निवासी सर्वसाधारणकी भाषा संस्कृत नहीं थी। उस समय जनसाधारणके व्यवहारकी भाषा पाली अथवा प्राकृत थी। उस समयका बौद्ध साहित्य इसी भापामें उपलब्ध होता है। भगवान् बुद्धने अपने विचारोंके साधारण जनतामें प्रचार-प्रसारके लिए उसी भाषाका अवलम्बन किया, जो जनताके व्यवहारको भाषा थी। इसलिए पाणिनि का वह काल होना किसी प्रकार संभव नहीं है।
इस तथ्यको सभी विद्वान् स्वीकार करते है, कि उस कालकी पाली व प्राकृत भाषा उससे प्राक्तनकाल की जनभाषा संस्कृतका ही विकृत रूप है। संस्कृत भाषासे प्राकृतका वह रूप विकृत होने में कितना समय लगा होगा, इसका निश्चयपूर्वक कह सकना तो कठिन है, पर मोटा अन्दाज़ एक आधारपर लगाया जा सकता है । खजुराहोंमें उत्कीर्ण लिपि व उसकी भाषा वर्तमान नागरी लिपि व हिन्दी भाषासे बहुत समानता रखती है, उस भाषाको वर्तमान रूपमें आने के लिए लगभग एक सहस्र वर्ष लग गये हैं। संस्कृत और बुद्धकालकी प्राकृत भाषामें उससे भी कहीं अधिक अन्तर है। संस्कृतको विकृत व परिवर्तन होकर उस रूपमें आनेके लिए कमसे कम हजार-बारह सौ वर्षका समय अवश्य माना जाना चाहिए।
इसके अनुसार तथाकथित बुद्धकालसे लगभग बारह सौ वर्ष पहले पाणिनिका काल माना जाना चाहिए। तब सत्रहसौ-अठारहसौ वर्ष ईसापूर्व के लगभग पाणिनिका काल आता है। डॉ० पारपोलाका कहना है, कि आर्य भारतमें ईसापूर्व तेरह सौसे सत्रह सौ वर्ष के बीच आये। यदि अधिकसे अधिक पहलेका समय भी भारतमें आर्योंके आनेका मान लें, तो पाणिनि द्वारा व्याकरण-रचनाका तथा आर्योंके भारतमें आनेका एक ही समय रहता है ? तब क्या यह कहा जायेगा, कि भारतमें आर्योंके आनेके साथ ही साथ पाणिनि अपने व्याकरणको लेकर यहाँ आया ? क्योंकि जिस भाषाका वह व्याकरण है, वह भाषा उन आर्योंकी मानी जाती है, और है भी, जिनके विषयमें यह कहा जाता है, कि ये भारतमें कही बाहरसे आये।
व्याकरणके विषयमें यह कथन सर्वथा असंगत व निराधार है, कि भारतमें आर्योके आगमनके साथ यह आया। अष्टाध्यायी व गणपाठमें उत्तर भारत व पश्चिमोत्तर भारतके अनेक नद, नदी, नगर, उपवन व विशिष्ट व्यक्तियोंके नामोंका उल्लेख हुआ है, जिससे यह स्पष्ट होता है, पाणिनिने इस व्याकरणकी रचना यहीं रहते की । इसके साथ यह भी विचारणीय है कि आर्योंने ईसापूर्व सत्रहवीं शताब्दीमें यहाँ आते ही उत्तर भारतकी समस्त साधारण जनता को संस्कृत कैसे सिखा दी ? उपर्युक्त विवरणसे स्पष्ट है पाणिनि व्याकरणकी रचनाके समय उत्तर व पश्चिमोत्तर भारतको सर्वसाधारण जनता किसान, खेतिहर, मजदूर, शाक सब्जी बेचनेवाले कुँजड़े तथा कपड़े रंगनेवाले रंगरेज, व रसोइये आदि तक की दैनिक व्यवहारकी भाषा संस्कृत थी । सत्रहवीं-अठारहवीं ईसापूर्वकी शताब्दीमें भारत आते ही आर्योंने सबको संस्कृत सिखा दी, क्या उनके पास कोई जादूकी छड़ी थी, जो हिलाते ही समस्त उत्तर भारत संस्कृत बोलने लगा ?
वास्तविकता यह है, कि आर्य भारतमें बाहरसे कहीं नहीं आये, सदासे यहीं रहते हैं । द्वापर युगके अन्तकाल तक अर्थात् अबसे लगभग पाँच सहस्र वर्ष पूर्व तक यहाँकी सब जनता संस्कृत भाषाका प्रयोग करती थी। भारत युद्धके अनन्तर विशिष्ट व्यक्तियोंके न रहने और युद्धोत्तरकी आपदाओंने जनताको अवि
१४० : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ
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