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बैठे । सम्भव है कि कर्णके दुगण इसमें कारणभूत हों। माधवने किस उदयराजको राज्य सौंपने का प्रयत्न किया था वह वाघेला वंशका ही कोई व्यक्ति होगा। किन्तु इस सम्बन्धमें उपलब्ध साधनोंमेंसे विशेष कुछ जानकारी नहीं प्राप्त हो सकी। राज्य-शासन परिवर्तनके प्रयत्न निष्फल हो जानेपर माधवने कर्णके साथ व्यावहारिक समाधान कर लिया होगा और प्रतिष्ठित एवं कार्य कुशल पुराने मंत्रीको एकाएक पदभ्रष्ट कर देनेका साहस कर लेना भी कर्णको उचित प्रतीत नहीं हुआ हो । किंतु इसके बाद इन दोनों के परस्पर सम्बन्ध ठीक न रहे थे अन्तमें इसीका अत्यन्त गम्भीर परिणाम गुजरात राज्यको भोगना पड़ा।
'कान्हड़देप्रबन्ध'के रचनाकालसे लगभग डेढ़ सौ शताब्दी पूर्व घटित घटनाओंकी यह बात हुई किन्तु इस समयकी सांस्कृतिक परिस्थितिके सम्बन्धमें भी 'कान्हड़देप्रबन्ध' मेंसे इतनी वैविध्यपूर्ण सामग्री उपलब्ध होती है और अन्य उपलब्ध प्रमाणोंके साथ इसका विभिन्न प्रकारसे संयोजन इतना महत्त्वपूर्ण बन जाय यह ऐसा है कि यह विषय अन्तमें एक महानिबन्धकी क्षमता रखता है। इस भाषणकी मर्यादामें मैं स्थालीपुलाक न्यायानुसार कतिपय प्रमाणोंकी ओर ही आपका ध्यान आकर्षित करूंगा।
'कान्हड़देप्रबन्ध' की रचना पद्यमें होने पर भी इसमें प्रसंगोपात भडाउलि-भटाउलि शीर्षकके अन्तर्गत गद्य वर्णक आता है। 'वर्णक' अर्थात् किसी भी विषय का परम्परा से लगभग निश्चित किया गया एक मार्ग, अक्षरोंके रूपके मात्रा और लयके बंधनोंसे मुक्त होते हुए भी इसमें ली गई समस्त छूटका लाभ लेते हुए। प्रास मुक्त 'गद्य-बोली में बहुत कुछ वर्णकोंका सृजन किया हुआ है जो अब प्राचीन गुजराती साहित्यके शोधकोंको सुविदित है। प्राचीन भारतीय साहित्य प्रणालीमें-संस्कृत, पालि इसी प्रकारसे प्राकृतमें वर्णकोंकी परम्पराका मूल खोजा जा सके, ऐसा है। पालिमें ऐसे वर्णन 'पैथ्याल' नामसे पहचाने जाते है और जैन आगम साहित्यमें वे 'वण्णओ' कहे जाते हैं। प्राचीन गुजराती वर्णकोंके समुच्चय प्रकाशित हुए हों तथा वस्त्रालंकार, भोजनादि, शस्त्रास्त्रों एवं विविध आनुषंगिक विषयोंके सम्बन्धमें विधिवत् वर्णक सुलभ होकर 'कान्हड़देप्रबन्ध' में की भटाउलियों के अध्ययन हेतु अब उचित साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संदर्भमें अवलोकन किया जा सके, ऐसा है। वीररस प्रधान वर्णकको भटाउलि कहा जाता होगा यह भी समझा जाय, ऐसा है।
'कान्हड़देप्रबन्ध'के प्रथम खण्डके लगभग मध्यमें (श्रीव्यासकी आवृत्ति १० ४०-४८) आई हुई भटाउलिमें कान्हड़देवके घोड़े और उसके शृगार सैन्य, सैनिक एवं दण्डायुधका वर्णन है। तृतीय खण्ड की भटाउलि (१० १५६-५९)में जालौरके किलेका और कान्हड़देवकी सभाका उज्ज्वल वर्णन है। पद्मनाभ द्वारा इसमें अखेराजकी राज-सभाका उल्लेख किया जाना वस्तुतः सम्भवित हो । (गंगाधर कृत गंगादासप्रतापविलास नाटकमें चांपानेरका वर्णन करते हुए चित्रपटका यहाँ स्मरण हो आता है ।) चतुर्थ खण्ड (कड़ी ९-५८)में जालोर नगर और इसमेंकी विविध प्रकृतियोंका जो सांगोपांग वर्णन है वह पद्मनाभके समकालीन जालौरका होगा किन्तु, उस समयके गुजरात-राजस्थानके अनेक नगरोंको समझने के काम आवे, ऐसा है । इसमें : कागल कापड़ नइ हथियार, साथि सुदागर तेजी सार
(खण्ड ४ कड़ी १६) इस पंक्तिमें शस्त्रोंके व्यापारके साथ-साथ तेजो-घोड़े बेचनेवाले सम्भवतः विदेशी सौदागरों का भी स्पष्ट निर्देश है।
_ 'कान्हड़देप्रवन्ध'में विभिन्न जातिके घोड़ों की विस्तृत सूची है । अन्य वर्णकोंमें एवं संस्कृत २१८ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ
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